Friday, October 15, 2010

शारदीय नवरात्रि की शुभ कामना और बधाइयाँ

जय माँ अम्बे या देवि सर्व्भूतेशु शक्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।। शारदीय नवरात्रि की बधाई।

Saturday, May 1, 2010

MAY DIVAS AUR MAZDOOR

Desh mein Rashtriya Gramin Rojgar Guarantee Yojna aub Manrega aieuum anya Rojgarparak yojnaaon mein sarkar rajniti ke naam par hi sahi mazadooron ko waastauik mazaduri,verojgari bhattaa woh anya suvidhayen zabaran pradaan kar rahi hai. Mazadooron ko mil rahee paarishramik woh anya suvidha samay par muhaiyaa karane ke liye vyapak pravandh kiye gaye hain.Dekh rekh key vividh upay khye gaye hain.Galti hone par doshèe ko tatkaal nrega act ke sath hi vibhagiya,anushaasanik,aarthik aur anyanya kanunon ke antargat dandaatmak kaararwaayee kee jati hai.Par in Rojgarparak yojnaaon ko chalane wale sarkari adhikariyon karmchaariyon ko Jharkhand ke kayi zilon ke prakhandon mein gat kayee maah sey aavantan ke abhaaw mein vetan bhugtaan lamvit hai.Prakhamdlarmiyon ke samaksh aarthik kathinaaiyaan utpann ho gayi hai.Vetan ke liye guhar laga-laga wey thak chuke hain.Lekin unki guhar sarkaar woh Prashasanik adhikariyon key kaan tak nahin pahunch rahi hai.

TAPATEE DHARATEE AUR BUNDAA-BAANDEE

Garmi apani puri ufaan par hai.Surya maharaj atyant niche hokar dharati ko senk rahe hain.Pine ke pani ke liye manushya,pashu-pakshee,sub jeeva-jantu jung kar rahe hain.Garmee se log trahi-trahi kar rahe hain.Aiese mein Jharkhand samet desh ke kuchh hisson mein gat dinon varish kee hakee bundaa-baandee huyee.Bhale hee kuchh der ke liye logon ko garmi se thodi raahat jarur huyee par phir dharati se nami ke sukhane ke sath hee garmee punah apne parwan par chadhati nazar aa rahi hai.

Friday, April 23, 2010

प्रथम स्वधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अर्थात तेलंगा खड़िया -अशोक "प्रवृद्ध"

प्रथम स्वधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अर्थात तेलंगा खड़िया
अशोक "प्रवृद्ध"

झारखण्ड प्रांत के गुमला जिला के सिसई प्रखण्ड अन्तर्गत
मुरूनगुर ग्राम (आज का मुर्गु ग्राम) के पाहन और नागवंशी महाराजा रातुगढ़ के भण्डारी ठुईया खड़िया एवं पेतो खड़िया (खडियाईन) के यहाँ 9 फरवरी 1806 को जन्म हुए पुत्र तेSबलंगा खड़िया बाल्यकाल से ही निडर और श्याम वर्ण का लंबा-छरहरा देखने में एक खूबसूरत नौजवान था। वह बचपन से ही बहुत बाचाल अर्थात अत्यधिक बोलने वाला बालक था और खड़िया भाषा में बहुत बोलने वाले बाचाल व्यक्ति को  तेSबलंगा कहा जाता है । इसीलिए ठुइया खड़िया के अत्यधिक बोलने वाले पुत्र को तेSबलंगा कहा जाने लगा । बाद में यही तेSबलंगा कहलाने वाला बालक तेलंगा के नाम से प्रसिद्ध होकर अन्ग्रेजों के लिए सिर दर्द साबित हुआ ।

 अपने संगी - साथियों के साथ तेSबलंगा मुरूनगुर और आसपास के जंगलों में निर्भीक घूमा करता था। खड़िया लोकगीतों के अनुसार एक बार तेSबलंगा (तेलंगा) अपने साथियों के साथ जंगल से घर लौट रहा था, कि रास्ते में शाम हो गयी । अभी गांव के मुहाने पर पहुँचने में कुछ देर थी कि तेलंगा के साथियों ने अंधेरे में दो चमकती आंखें देखी और भयभीत हो तेSबलंगा (तेलंगा) को पूकारने लगे । तेSबलंगा (तेलंगा) के साथियों ने मारे भय के मारे तेSबलंगा (तेलंगा) को घेर लिया। तेSबलंगा (तेलंगा) समझते देर नहीं लगी कि दो चमकती आंखें बाघ की है जो घात लगाए अपने शिकार को देख रहा है । तेSबलंगा (तेलंगा) को अपनी फिक्र नहीं थी, वह सोच रहा था कि उसके किसी भी साथी को कुछ होना नहीं चाहिए, नहीं तो अपने साथियों के माता-पिता को वो क्या जबाव देगा ? तेSबलंगा (तेलंगा) अपने बल और बुद्धि से परिस्थिति को भांफ गया और अपने सभी छह साथियों को पेड़ पर चढ़ जाने को कहा। तेSबलंगा ( तेलंगा) के सभी साथी भय से कांप रहे थे, धुंधलाती - गहराती शाम वातावरण को और भी डरावना बना रही थी। तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपने सभी साथियों को सहारा दे-देकर पेड़ में चढ़ा दिया । नजदीकी सरगोशियों से बाघ चौंकनना हो गया और एक लंबी छलांग मार कर तेSबलंगा (तेलंगा), जो अब तक पेड़ पर नहीं चढ़ पाया था, को अपने पंजों से दबोच लिया । तेलंगा बड़ा ही चुस्त और ताकतवर था उसने बाघ के अगले दो पंजों को अपने हाथों से पकड़ लिया और कहते है कि तेलंगा की पकड़ बाघ पर मजबूत होते - होते इतनी मजबूत हो गई थी कि बाघ हिल तक नहीं सका। सुनने में यह असंभव सा जान पड़ता है परंतु है खड़िया लोकगीतों व कथाओं के अनुसार है यह सत्य। शुद्ध हवाओं में जीने वाला तेSबलंगा (तेलंगा),दूध और दही का सेवन करने वाला तेSबलंगा (तेलंगा) और जंगलों को अपने पैरों से रौंदने वाला तेSबलंगा (तेलंगा) की बाहों में बाघ से ज्यादा ताकत होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। बाघ पर तेSबलंगा (तेलंगा) ने शीघ्र ही काबू पा लिया। अगर चाहता तो वह बाघ को अपने कमर में लटक रहे छूरे से मार भी सकता था परंतु तेSबलंगा (तेलंगा) था स्वभाव का बड़ा दयालु। बाघ को कमजोर पड़ते देखकर तेSबलंगा (तेलंगा) को अपनी ताकत पर घमंड़ नहीं हुआ बल्कि बाघ पर दया आ गयी और उसने बाघ को भाग जाने का मौका दे दिया । बाघ जिस प्रकार छलांग लगा कर तेSबलंगा (तेलंगा) पर झापटा था उसी प्रकार छलांग लगाकर जंगल के अंधेरे में भाग खड़ा हुआ।

तेSबलंगा (तेलंगा) के साथी उसे कोस रहे थे कि हाथ आए बाघ को उसने क्यों जाने दिया ? बाघ के सामने तो सभी की घिग्घी बंध गयी थी और जब बाघ पर तेSबलंगा (तेंलगा) ने काबू पा लिया तो अपने सभी साथियों को शेर बनते देख तेSबलंगा (तेलंगा) ने  अपने साथियों को समझाया कि कमजोर पड़े इंसान या जानवर को क्षमा अर्थात माफ़ कर देना चाहिए । क्षमा करना वीरों अरथात ताकतवरों का कार्य है, कमजोर माफ करना नहीं जानते। अब देखो न , बाघ तो भाग गया, तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपने साथियों को कहा और तुमलोग जानते हो न बाघ मुझे पहचान गया है अब कभी वह हमलोगों पर हमला नहीं करेगा। बात करते - करते तेSबलंगा (तेलंगा) अपने साथियों के साथ गांव पहुंच चुका था। गांव के लोगों को तेSबलंगा (तेलंगा) पर इतना विश्वास था कि अगर तेSबलंगा (तेलंगा) साथ है तो कोई फिक्र की बात नहीं है और इसी विश्वास को कायम रखने के लिए वह बाघ से लड़ने के लिए तैयार हो भिड़ गया था।


जंगल में फैले चारों तरफ उंचे-उंचे सखुआ , महुआ , पलाश, देवदारों के घने दरख्तों से छन-छन कर आती सुबह की सूर्य की किरणों को अपलक निहारना तेSबलंगा (तेलंगा) को अच्छा व मनोहारी लगता था और यह उसका मुख्य शौक (शगल) था। जंगल के बीचोंबीच स्थित दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ नामक जलप्रपात के चट्टानों पर लेट कर बांसुरी की टेर छेड़ना अर्थात बांसुरी बजाना तेSबलंगा (तेलंगा) का दूसरा मुख्य शौक था। धूप में बदन को तपते छोड़कर बांसूरी की धुन जब तेलंगा छेड़ता था तो मानो जंगल के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। गांव की युवतियाॅं झुण्ड बना कर जलप्रपात में स्नान करने और जंगल से फलों , पतियाँ , जलावन की लकड़ी व अन्यान्य वन्योत्पाद को तोड़ अथवा चुन कर ले जाने के लिए प्रतिदिन आती और तेलंगा के बासूरी के धुनों को सुन ठिठक कर खड़ी ही रह जाती। ये ग्रामीण बालाएं मन ही मन सोचा करती थी कि तेलंगा किसका होगा , यह किसका पति बनेगा ? सभी बालाओं में तेलंगा को अपनी ओर आकर्षित करने की , रिझाने की होड़ सी लगी रहती पर तेलंगा था कि लडकियों से दूर-दूर ही रहता , वह किसी को घास ही नहीं डालता । उसका मन सिर्फ और सिर्फ अपने समाज , गाँव और क्षेत्र के आदिवासी - गैरआदिवासी लोगों को संगठित कर परतंत्र भारतवर्ष को स्वाधीन करने के लिए जगह-जगह जन अभियान चलाने अथवा बैठकें आयोजित करने में ही लगा करता था । तेलंगा खड़िया सहृदय समाजसेवी थे। तेSबलंगा अर्थात तेलंगा खड़िया को आदि सनातन सरना धर्म पर अटूट व अगाध विश्वास था । एक किसान होने के साथ-साथ ये अस्त्र-शस्त्र चलाना भी जानते थे तथा अपने लोगों को इसकी शिक्षा भी देते थे । कुछ इसी तरह लगभग उनचालीस वर्ष गुजर गए , परन्तु तेSबलंगा को देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं सुहाता था ।

इसी समय की बात है । एक दिन तेSबलंगा (तेलंगा) अम्बाघाघ की जलप्रपात की चट्टान पर लेटा अपनी धुन में बांसूरी बजा रहा था कि उसे ‘बचाओ-बचाओ’ का शोर सुनाई दिया। तेSबलंगा
(तेलंगा) ने बांसूरी बजाना बंद कर आ रहे शोर की ओर अपने कान लगा दिए । आवाज जिधर से आ रही थी , उधर देखने से उसे ऐसा महसूस हुआ कि झरने के उपर से आठ-दस युवतियां ‘बचाओ-बचाओ’  की शोर मचाते हुये चिल्ला रही थी और नीचे गिर रहे जलप्रपात की ओर इशारा कर रही थी। तेSबलंगा
(तेलंगा) को समझते देर नहीं लगी कि इनमें से कोई युवती जलप्रपात में गिर गयी है। अम्बाघाघ के जलप्रपात में एक युवती के गिरने की बात जानते और समझते ही बिना समय गवाएं ही तेSबलंगा (तेलंगा) ने जलप्रपात में छलांग लगा दिया। कहा जाता है कि उस जलप्रपात की गहराईयों को सदियों से आज तक कोई माप नहीं सका था, लेकिन तेSबलंगा (तेलंगा) को इसकी फिक्र कहां थी ? वह तो योद्धा था, सब गुण आगर , तैरने में निपुण। अपने फौलादी बांहों से जलप्रपात के निकट तीव्र गति से बहती जल के वेग को चिरता हुआ वह तेजी से बहती जा रही युवती के निकट शीघ्र ही पहुंच गया और देखते ही देखते तेSबलंगा (तेलंगा) की बांहों में थी वह अम्बाघाघ में डूबती हुई युवती। उस युवती को पानी से बाहर निकालकर तेSबलंगा (तेलंगा) ने चट्टान पर लिटा दिया । तब तक उस युवती की सहेलियां वहां पहुंच चुकी थी और रतनी-रतनी कह कर उसे घेर पुकार रही थी । तेSबलंगा (तेलंगा) को पहली बार किसी युवती को अपने बांहों में उठाने का अवसर मिला था, किसी युवती की इतनी नजदीकियों का अहसास उसे जीवन में पहली बार हुआ था । इसलिए तेSबलंगा (तेलंगा) को अपने शरीर में एक अजीब , और अनोखी सिहरन सी महसूस हो रही थी ।


उसकी सहेलियां जिसे रतनी-रतनी कह कर पुकार रही थी वह अब होश में आने लगी थी । रतनी ने मुंह से पानी की उल्टियां की और थोडी देर में उठ कर बैठ गयी। तेSबलंगा (तेलंगा) ने पहली बार किसी युवती को इतने गौर और नजदीक से देखा था ,महसूस किया था । रतनी के श्यामल रूप में एक अदभूत आकर्षण था , जो तेSबलंगा (तेलंगा) को बरबस ही अपनी ओर खींच रहा था परंतु वह जड़ बना बस रतनी को ही देखे जा रहा था। रतनी को जब पता चला कि उसे पास खड़े नौजवान तेSबलंगा (तेलंगा) ने जान पर खेलकर अम्बाघाघ में डुबने से बचाया है तो रतनी के मन में भी तेSबलंगा (तेलंगा) के प्रति एक आकर्षण जागता हुआ सा महसूस हुआ। रतनी मन ही मन सोचने लगी थी कि काश इस वख्त उसकी सहेलियां अगर अभी साथ नहीं होती तो ढेर सारी बातें वो इस नवजवान से करती, उधर तेSबलंगा (तेलंगा) की भी कुछ ऐसी ही ईच्छा हो रही थी। ऐसी ही स्थिति में काफी समय बीत गई और रतनी अब बिल्कुल ठीक महसूस कर रही थी, वह उठ खडी हुयी और पास खडे तेSबलंगा (तेलंगा) के समीप जा कर कहा कि ‘‘अगर आज आप यहां नहीं होते तो मैं घाघ में डूब मर ही गयी होती।’’ तेSबलंगा (तेलंगा) रतनी की मधुर सुरीली आवाज को सुनकर जैसे मंत्रमुग्ध सा हो गया था। उसने कोई जबाव नहीं दिया, सिर्फ खडा-खडा रतनी को पूर्ववत देखता रहा।


जल्दी ही रतनी अपने सहेलियों के साथ गांव की ओर चली गयी। तेSबलंगा (तेलंगा) रतनी के जाने के बाद भी अपने बांसुरी के साथ वहां काफी देर तक अपने अंदर तरह-तरह के ख्यालों में खोया सा बैठा रहा। उसे अब बांसुरी बजाने का आनंद कुछ अलग सा महसूस हो रहा था। कहते है न कि दिल की आवाज ही साज बनकर निकलती है और जब किसी पर दिल आ जाता है तो साज के सहारे दिल की धडकती आवाज भी निकलने लगती है। यही कुछ हुआ तेSबलंगा के साथ भी, उसकी बांसुरी की धून दर्दीली हो गयी थी जिसे सूनकर पशु-पक्षी, पेड-पौधे भी कोलाहल करना बन्द कर मानो शांति से बांसुरी की दर्दीली धुन को सुनने लगे थे। झरने तक अपनी प्यास बुझाने के उद्देश्य से आए बाघ, चीता, भालू आदि हिन्श्र जन्तुओं के साथ ही हिरण , बकरी , गाय आदि कमजोर पशु भी पानी पीकर मंत्रमुग्ध से वहीं ठिठक से गए थे। निसंदेह संगीत की भाषा सशक्त होती है जो प्रकृति के सभी प्राणियों को आनंदित करती है। एक अद्वितीय दृश्य का सृजन हो चुका था वहां जब तेSबलंगा के बांसुरी के धुन में कोयल ने अपनी कू - कू कुहुकने के स्वर को इस तरह मिलाया कि ऐसा मालूम होता था कि कोई संगीतकार के बताए अनुसार लय और ताल को ध्यान में रखते हुए तेSबलंगा (तेलंगा) और पपीहे ने जुगलबंदी कर ली हो। तेSबलंगा (तेलंगा) भी इस जुगलबंदी का आनंद लेता रहा और उसे पता ही नही चला कि कब शाम हो गयी? उस रात न जाने क्यों तेSबलंगा को सिर्फ रतनी की ही याद आती रही?

तेSबलंगा (तेलंगा) की माँ ने इससे पहले अपने पुत्र तेSबलंगा को कभी भी इतना उदास नहीं देखी थी। सुबह को तेSबलंगा की माँ ने पूछा कि उसे क्या हुआ है ?  तेSबलंगा (तेलंगा) ने सुबह में अपनी प्यारी गाय चंपा का दूध भी नहीं दुहा, चंपा के बछड़े जोगिया के साथ खेतों में दौड़ भी नहीं लगाई । तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपनी माँ को रतनी के जलप्रपात में डूबने और उसे बचाने की घटना को विस्तार से सुनाई । तेSबलंगा की माँ को समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि तेSबलंगा अब उसका पुत्र शादी के लिए तैयार हो गया है और रतनी को बचाने के दौरान उसे अपना दिल दे बैठा है। तेSबलंगा की माँ ने कहा, बेटा तुम्हारी बीमारी को मैं समझ गयी हॅंू, चिन्ता मत करो, जल्दी ही तुम्हारी इस बीमारी का इलाज कर दिया जायेगा । तेSबलंगा को कुछ भी समझ में नहीं आया कि उसकी माॅं क्या कह रही है? वह बस टुकुर - टुकुर  अपनी माँ को देखता रहा। छह फीट का लंबा , हट्ठा-कट्ठा तेSबलंगा (तेलंगा) अभी बिल्कुल बच्चे की तरह मासूम लग रहा था जिसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह रोज के दिनचर्या से आखिर क्यंू विमुख होता जा रहा है ?

तेSबलंगा (तेलंगा) की माँ उसी दिन रतनी के माता-पिता से मिलने रतनी के घर गयी और अपने पुत्र तेSबलंगा (तेलंगा) से रतनी की शादी की बात बिना लागलपेट के रतनी के माता-पिता के समक्ष रख दिया। तेSबलंगा (तेलंगा) अपने सामाजिक और देशभक्तिपरक कार्यों से क्षेत्र में सबका दुलारा और चहेता बन गया था , इसलिए रतनी के माता-पिता ने एक साथ तेSबलंगा की माँ को कहा , भला उससे कौन लड़की शादी नहीं करना चाहेगी और हमें क्या ऐतराज हो सकता है ? रतनी के पिता गणेश खड़िया ने तेSबलंगा की माँ को साफ शब्दों में कहा कि उसकी बेटी रतनी ने अवश्य कोई पुण्य का कार्य पिछले जन्म में किया होगा जो तेSबलंगा जैसा होनहार युवक की पत्नी बनेगी। तेSबलंगा की माॅं शादी की बात तय कर चली गयी और कुछ ही दिनों में रतनी और तेSबलंगा पति-पत्नी बन गए।

तेSबलंगा (तेलंगा) के सानिध्य में भोली-भाली रतनी अब भोली-भाली नहीं रह गयी थी बल्कि शीघ्र ही अपने पति के अंग्रेजों के प्रति विद्रोही स्वभाव को अपनाने लगी और कंधे से कंधे मिलाकर रतनी अपने पति के साथ खडिया व अन्य समाज को संगठित करने में व्यस्त हो गयी । तेलंगा अपने साथियों को गांव के अखाड़ा में कुश्ती करना, तीर चलाना, गदका और गदा चलाना आदि संचालन का कार्य सीखाता था तो रतनी भी गांव में बच्चों के लिए अखाड़ा चलाती थी, जहां छोटे-छोटे बच्चों को बड़ा होकर तेSबलंगा की तरह बहादुर और निडर बनने की शिक्षा दी जाती थी।

तेSबलंगा (तेलंगा) में गजब की नेतृत्व क्षमता थी और साथ ही तेSबलंगा एक अच्छा पुत्र, एक अच्छा पति, एक अच्छा समाज सेवक और एक अच्छा देश प्रेमी था। तेSबलंगा की गृहस्थी खूशहाल थी और समाज , गाँव और क्षेत्र को खुशहाल बनाने में तेSबलंगा लगा हुआ था जिसमें उसका भरपूर साथ उसकी प्रिय पत्नी रतनी भी देती थी। तेSबलंगा खड़िया ने अंग्रेजी हुकूमत को नकार दिया था। उसने कहा- जमीन हमारी, जंगल हमारे, मेहनत हमारी, फसलें हमारी, तो फिर जमींदार और अंग्रेज कौन होते हैं हमसे लगान और मालगुजारी वसूलने वाले। अंग्रेजों के पास अगर गोली-बारूद हैं, तो हमारे पास भी तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, फरसे हैं। बस क्या था, आदिवासियों की तेज हुंकार से आसमान तक कांप उठा।तेSबलंगा ने गुमला के आसपास के गांवों में अपना संगठन बनाया जिसका नाम उसने ‘जूरी पंचायत’ रखा था , जिसकी शाखाएं मुरूनगुर (अब मुरगु) , सिसई , सोसो, नीमटोली, बघिमा, नाथपूर, दुन्दरिया, डोइसा, कुम्हारी , चैनपुर,बेन्दोरा, कोलेबिरा,लचरागढ़ , बानो , महाबुआंग आदि गांवों में बनायी गयी थी। जूरी पञ्चायत एक ऐसा संगठन था, जिसमें विद्रोहियों को तमाम तरह की युद्ध विद्याओं समेत रणनीति बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। रणनीतिक दस्ता युद्ध की योजनाएं बनाता और लड़ाके जंगलों, घाटियों में छिपकर गुरिल्ला युद्ध करते। प्रतिदिन अखाड़े में युवा युद्ध का अभ्यास करने लगे। हर जुरी पञ्चायत एक दूसरे से रणनीतिक तौर पर जुड़े थे। संवाद और तालमेल बेहद सुलझा हुआ था। जमींदारों के लठैतों और अंग्रेजी सेना के आने के पहले ही उसकी सूचना मिल जाती थी। विद्रोही सेना पहले से ही तैयार रहती और दुश्मनों की जमकर धुनाई करती । तेSबलंगा ने छोटे स्तर पर ही सही, मगर अंग्रेजों के सामानांतर सत्ता का एक स्वदेशी विकल्प खोल दिया था। अपने जुरी पंचायतों की शाखाओं में तेSबलंगा नियमित रूप से परिभ्रमण किया करता था। तेSबलंगा ने अपने अथक प्रयासों से न सिर्फ खडिया समुदाय बल्कि अन्य आदिवासी - गैरआदिवासी समुदायों को भी अंग्रेजों के अत्याचारों से अवगत कराना शुरू कर दिया और उनसे प्रतिशोध लेने के लिए भावनात्मक और शारीरिक तौर पर तैयार कर लिया। गुमला के आस - पास के क्षेत्रों में जूरी पंचायतों की बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेजों को चिंता सताने लगी। अधिकतर गांव जमींदारी और अंग्रेजी शोषण से पीडि़त थे। इसलिए विद्रोहियों को ग्रामीणों का भारी समर्थन मिल रहा था। गुरिल्ला युद्ध में दुश्मनों को पछाड़ने के बाद विद्रोही जंगलों में भूमिगत हो जाते।
 तेSबलंगा ने संपूर्ण पूर्वी, पश्चिमी एवं दक्षिणी गुमला के क्षेत्रों में इतनी प्रसिद्धी प्राप्त कर ली थी कि अंग्रेज इस कशेत्र में सीधा हस्तक्षेप करने से डरते थे और तेSबलंगा ने आङ्ग्ल शासकों की नई भू - कर नीति को खुल -ए - आम विरोध करते हुए लोगों को भू कर अदा करने से मना कर दिया था । तेSबलंगा जमींदारों और अंग्रेजी शासन के लिए खौफ बन चुका था। इसलिए उसे पकड़ने के लिए इनाम का जाल फेंका गया और अपनी चिर- परिचित आङ्ग्ल - नीति के तहत अंग्रेजों ने ‘फूट डालो अर्थात बाँटो और राज करो’ की नीति को अपनाते हुए मुरूनगुर के बगल के गाँव बरगांव के जंमीदार बोधन सिंह को रूपए का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और तेSबलंगा के पीछे लगा दिया। 21 मार्च सन 1852 ई. को बसिया प्रखंड के कुम्हारी गांव में अपने जूरी पंचायत की बैठक में तेSबलंगा व्यस्त था कि अंग्रेजों के दलाल बोधन सिंह ने पुलिस को खबर कर दिया और पुलिस ने अचानक  बैठक पर धावा बोलकर तेSबलंगा को गिरफतार कर लिया और  संपूर्ण इलाके में पुलिस दस्तों को खचाखच भर दिया , ताकि तेSबलंगा के अनुयायी इलाके में शांति भंग न कर सकें । गिरफ्तारी के पश्चात लोहरदगा कचहरी में पेश करने के बाद तेSबलंगा को चौदह वर्ष के लिए कलकता जेल भेज दिया गया।

 अंग्रेजों की इस कायरता पूर्ण कृत्य का पत्ता जब रतनी को हुआ तो वह आग बबूला हो गयी। अपने करीब छह - सात साल के पुत्र बलंगा को अपने पीठ में बांधकर सभी जूरी पंचायतों का भ्रमण करने लगी और अंदर-अंदर अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने के लिए क्षेत्र के विभिन्न समुदायों के लोगों को पूर्ण रूप से जागृत करने के कार्य में लग गई । उधर बोधन सिंह अंग्रेजों को जूरी पंचायतों की सक्रियता की पूरी खबर पहुंचाता रहता था। तेSबलंगा के जेल में रहने के बावजूद उसके जूरी पञ्चायत के संगठनों की लोकप्रियता रतनी के प्रयासों के कारण कम नहीं हो रही थी , बल्कि उल्टे बढ़ रही थी । अपने शासन को स्थिर रखने कके लिए अंग्रेज साम - दाम - दण्ड , भेद सभी प्रकार के नैतिक - अनैतिक नीति अपनाते थे , उन्होंने एक षड़यंत्र के तहत तेSबलंगा को गिरफ़्तारी के चौदह साल बाद जेल से एक दिन स्वतः ही बिना किसी कारर्वाई के छोड़ दिया। दरअसल अंग्रेजों ने एक षड़यंत्र रचा कि तेSबलंगा को जेल से रिहा करके उसे उसके गांव पहुंचने दिया जाए और एक दिन बोधन सिंह से उसकी हत्या करवा दिया जाए। इसी षडयंत्र के तहत तेSबलंगा को कलकता जेल से स्वतः छोड़ दिया गया और जेल से छूटने के बाद तेSबलंगा सीधा अपने  गांव मुरूनगुर पहुंचा और पुनः एक बार शुरू हुआ जूरी पंचायतों की लगातार बेठकें और अंग्रेजों से लोहा लेने की कवायदों का एक अन्तहीन सिलसिला । चौदह साल बाद जब तेSबलंगा के जेल से छूटने के बाद उसके विद्रोही तेवर और भी तल्ख हो गए। विद्रोहियों की दहाड़ से जमींदारों के बंगले कांप उठे। जुरी पञ्चायत पुनः जिन्दा हो उठा और युद्ध -- कौशल प्रशिक्षणों का दौर शुरू हो गया। बसिया से कोलेबिरा तक विद्रोह की लपटें फैल गईं। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, हर कोई उस विद्रोह में भाग ले रहा था। तेSबलंगा जमींदारों और सरकार के लिए एक भूखा बूढ़ा शेर बन चुका था। दुश्मन के पास एक ही रास्ता था- तेSबलंंगा को मार गिराया जाए। परन्तु उधर अपनी देशभक्ति की राह पर चल रहा भोला - भाला तेSबलंगा (तेलंगा )अंग्रेजों के षड्यंत्र को समझ नहीं सका , और वह वैसे भी अंग्रेजों की तरह कायर नहीं था इसलिए अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी सांगठनिक कारर्वाई को वह बेधड़क अंजाम देता रहा । क्योंकि वह स्वय देशभक्त था और खुद की तरह सभी को देशभक्त समझता था इसलिए बोधन सिंह उसके विरूद्ध मुखबरी भी कर रहा है तेSबलंगा ऐसा नहीं सोच भी नहीं सकता था ।

अंग्रेजों ने अपने षड़यंत्र को अंजाम देने के लिए बोधन सिंह को अकूत धन-दौलत का लालच देकर तेSबलंगा को अपने रास्ते से हटाने की सूपारी दे दी । ईष्यालु और कायर बोधन सिंह सिसई के अखाड़े में जब तेSबलंगा ने 23 अप्रैल 1880 ई. को सुबह अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करने के पूर्व अपने जूरी पञ्चायत के नियत ध्वज के समीप प्रार्थना के लिए जैसे ही अपने झुके हुए सिर को उठाया उसी समय झाड़ियों में छुपे हुए कायर बोधन सिंह ने उन पर गोली चला दी । गोली लगने पर तेSब्लंगा ने देखा कि 23 अप्रैल 1880 की उस सुबह को स्वयं तेSबलंंगा समेत कई प्रमुख स्वाधीनता सेनानियों को अंग्रेजी सेना ने मैदान के कुछ दूर से घेर लिया है । यह देख घायल शेर की भांति तेSबलंंगा गरजा-  है हिम्मत तो सामने आकर लड़ो नपुंसकों । कहते हैं कि तेSबलंगा की उस दहाड़ से समूचा इलाका थर्रा गया था। युद्ध कौशल से प्रशिक्षित स्वाधीनता सेनानियों से सीधी टक्कर लेने की हिम्मत दुश्मन में नहीं थी। इसलिए अंग्रेजों के दलाल बोधन सिंह ने झाडि़यों में छिपकर तेलंगा की पीठ पर गोली चला दी थी । बाद में  तेSब्लंगा मूर्छित हो गिर पड़े , परन्तु  बेहोश तेSबलंगा के पास आने की भी हिम्मत दुश्मनों में नहीं थी। इस अवसर का लाभ उठाकर स्वाधीनता सेनानी तेSबलंगा को लेकर जंगल में गायब हो गए। तेSबलंगा के शव को देखकर रतनी आहत तो जरूर हुयी परंतु उसने आंसू नहीं बहाए। रतनी अपने जवान हो चुके बेटे बलंगा में अपने पति अर्थात उसके पिता की छवि देख रही थी। बलंगा अपने पिता की ही तरह निडर , साहसी हट्ठा-कट्ठा छह फीट का नवजवान बन चुका था, उसने अपने पिता के शिष्यों को पहली बार संबोधित करते हुए कहा कि उसके पिता तेSबलंगा खड़िया की मृत्यु नहीं हुयी है अपितु वे शहीद हुए है और उनकी सहादत व्यर्थ जाया नहीं जाएगी। बलंगा ने प्रण किया कि उसके पिता द्वारा आरम्भ किये गये आंदोलन का नेतृत्व अब वह स्वयं करेगा और चुन-चुन कर अंग्रेजों को मौत की घाट उतारेगा।

रतनी की आंखें भर आयी थी, उसे अम्बाघाघ जलप्रपात में डूबने से बचाने वाले तेSबलंगा की याद आ रही थी, जब तेSबलंगा ने उसे अपनी फौलादी बांहों में उठा लिया था और वह मरने से बच गयी थी। तेSबलंगा का शव यद्यपि गोली लगने के बाद भी बुलंद लग रहा था, बलंगा और तेSबलंगा के शिष्यों ने तेSबलंगा के शव को गुमला के सोसो नीमटोली ले गए और वहीं तेSबलंगा के शव को दफना दिया गया। बलंगा ने अपने पिता के कब्र पर एक स्मारक बनवाया जिसे आज भी "तेSबलंगा तोपा टाँड़" अर्थात  ‘तेलंगा तोपा टांड’ के नाम से याद किया जाता है।तेSबलंगा खडिया लोक गीतों और लोक कथाओं में आज भी जीवित हैं । प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अमर हैं । उनके शहीद दिवस पर कोटि - कोटि हार्दिक अभिनंदन ।

Sunday, April 11, 2010

हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों में समन्वय का सेक्युलर प्रयास कदापि सम्भव नहीं हो सकता


हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों में समन्वय का सेक्युलर प्रयास कदापि सम्भव नहीं हो सकता

सांस्कृतिक आधार पर मुसलमान हिन्दू नहीं हैं और हिन्दू मुस्लमान नहीं हैं। फिर भी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग कहते हैं कि हिन्दू- मुस्लमान समस्या को सुलझाने के लिए दोनों की संस्कृति में समन्वय होना चाहिए। अर्थात दोनों समुदायों को मिल् जुलकर भाई-भाई की तरह रहना चाहिए। परन्तु हकीक़तन ऐसा हो सकता है क्या ? मुस्लमान ऐसा स्वीकार करेंगे क्या ? क्या वे कभी समन्वय के लिए तैयार हुए हैं अथवा उन्होंने कभी ऐसा यत्न किया है? हिन्दुओं ने तो इसके लिए यत्न किया है। सबसे बड़े समन्वयकर्ता आदिगुरू नानकजी हुए थे। परन्तु उनका प्रयास ही कहाँ तक सफल हुआ?

हिन्दुओं की संस्कृति में विचार -स्वतंत्रता को विशिष्ट स्थान
प्राप्त है। अध्यात्म के विषय में विभिन्न विचार रखने की स्वीकृति है, क्या मुस्लमान इसे स्वीकार कर मुहम्मद साहब पर ईमान न रखने वाले को भी मुस्लमान स्वीकार कर लेंगे अथवा क्या हिन्दू इस स्वतंत्रता को छोड़ मुसलमानों के पैगम्बर पर ईमान लाना समन्वित संस्कृति का अंग मान लेंगे?

हिन्दुओं के सनातन धर्मों में बुद्धि तथा ज्ञान धर्म का अंग माने जाते हैं। बुद्धि में विकास और इसका प्रयोग। इसी प्रकार
विद्या की प्राप्ति है। क्या मुस्लमान इसको मानकर यह स्वीकार कर लेंगे कि इस्लाम की परख बुद्धि से की जा सकती है?अथवा क्या हिन्दू यह मान लेंगे कि परमात्मा के विषय में अथवा जाति की किसी मान्यता के विषय में बुद्धि के प्रयोग
को वर्जित कर दिया जाये? यह नहीं होगा ।कदापि नहीं हो सकता। अर्थात जब परस्पर विरोधी हों तो समन्वय कदापि नहीं हो सकता। हिन्दुओं में बुद्धि के प्रयोग और विकास को वही स्थान प्राप्त है , जितना की अस्तेय और धर्म को।

समस्या का समाधान - हिन्दू और मुस्लमान का अपना -
अपना धर्म और संस्कृति बनीं रहे। इसका प्रचार और प्रसार विच-विनिमय से हो, परन्तु राज्य तथा देश को इससे पृथक रखा जाये। उसमें सब समान हों। यह तब ही हो सकेगा जब कि देश और राज्य को संस्कृति और धर्म के प्रचार- प्रसार में अथवा विस्तार में हस्तक्षेप न करने दिया जाये। इनके
अधिकारों का बंटवारा संस्कृति और धर्म के आधार पर न हो।








घड़ी

घड़ी बंधी हैं सबकी हाथ में घड़ियाँ।

मगर पकड़ में आता नहीं एक भी लम्हा है।।

अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

  अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”   जैसा कि पूर्व से ही अंदेशा था कि पूर्व चुनाव आयुक्त अनू...