Tuesday, December 31, 2013

समाज में मानव पथ-प्रदर्शन तो सामयिक ही होता है, स्थायी पथ-प्रदर्शन धर्म-साहित्य होता है। अशोक "प्रवृद्ध"

समाज में मानव पथ-प्रदर्शन तो सामयिक ही होता है, स्थायी पथ-प्रदर्शन धर्म-साहित्य होता है।
अशोक "प्रवृद्ध"

 वर्तमान समय में मानव-समाज में भावना का आवेश होने लगा है। किन्तु भावना प्रायः बुद्धि से अविचारित होती है।
इस भावना के कारण ही मत-मतान्तर के आधार पर जन-जन में भेदभाव उत्पन्न होने लगा है। भारत में यह विभेद महात्मा बुद्ध के काल से आरम्भ हुआ है।

यद्यपि महात्मा बुद्ध का यह आशय नहीं था। उन्होंने तो कर्म और व्यवहार में शुद्धता और सरलता ही लाने का यत्न किया था। परन्तु उस व्यवहार में सरलता का कोई दिग्दर्शन न रह पाने से शुद्धता और सरलता केवल नाम की ही रह गई और ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि’ का घोष प्रमुख हो गया है। उससे श्रद्धा में अपार वृद्धि हुई है किन्तु आचरण पतन की ओर प्रवृत्त हो गया है।

समाज में मानव पथ-प्रदर्शन तो सामयिक ही होता है, स्थायी पथ-प्रदर्शन धर्म-साहित्य होता है। जब तक महात्मा बुद्ध का जीवन रहा, तब तक किसी सीमा तक उनका जीवन उनके शिष्यों और भक्तों का पथ-प्रदर्शन करता रहा किन्तु उनकी मृत्यु के उपरान्त ऐसी कोई वस्तु नहीं रही जो उनका पथ-प्रदर्शन कर पाती। प्राचीन धर्मग्रन्थों पर से बुद्ध के जीवन काल में ही आस्था को समाप्त कर दिया गया था। स्वयं बुद्ध ने कुछ नवीन रचना की नहीं।

इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बौद्ध समाज दिशाविहीन हो गया और उसके फलस्वरूप समस्त समाज ही दिशाविहीन हो गया। इसका यह भी दुष्परिणाम हुआ कि शताधिक मत-मतान्तरों की सृष्टि हो गई। बुद्ध से पूर्व प्रजा में एक आधार पर ही बंटवारा पाया जाता था। वह आधार था कर्म का। कर्म के आधार पर बंटवारा होता था। संसार में दो ही प्रकार के कर्म हैं। एक कर्म होता है दैवी और दूसरा होता है आसुरी। इसके आधार पर प्रजाजन या तो दैवी स्वभाव के होते थे या फिर आसुरी स्वभाव के। परन्तु जब से भावनाओं का आवेश हुआ है तब से दलबन्दियां होने लगी हैं जो कि आधार रहित हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग बुद्धियुक्त व्यवहार को छोड़कर दल-बन्दियों के पीछे चल पड़े हैं।

इसकी जड़ें बड़ी गहन पैठ गई हैं। अब इस समय समझाने से इसका कुछ भी प्रभाव नहीं होगा। बुद्धिरहित विचार करने से तो भावना अटल ही बनी रहती है और फिर सब अपनी-अपनी भावना के अनुसार व्यवहार करते हैं। किसी दूसरे की कोई सुनने को तैयार ही नहीं होता।

 जो लोग बुद्धि से विचार कर अपना कार्य करते हैं उनको तो समझाया जा सकता है; किन्तु जो भावना के पीछे दौड़ा करते हैं, उनको समझाने का कोई साधन नहीं है।

‘‘अपनी अन्तरात्मा के अनुसार कार्य करने में किसी प्रकार की हानि नहीं है। अन्तरात्मा की प्रेरणा पर चलना ही चाहिये। इसमें सफलता अथवा असफलता का विचार छोड़कर निष्काम भाव से कर्म करना श्रेयस्कर होता है। यदि सफलता नहीं मिली अथवा असफल सिद्ध हुए तो उस अवस्था में निराश भी नहीं होना चाहिये।’’

Saturday, December 28, 2013

मुहम्मद के चित्र बना देने वाले को कत्ल करने वालों को हमारे ईश्वर का अपमान करने का अधिकार कहाँ से प्राप्त हुआ?

मुहम्मद के चित्र बना देने वाले को कत्ल करने वालों को हमारे ईश्वर का अपमान करने का अधिकार कहाँ से प्राप्त हुआ?


अपने अजान द्वारा ईमाम(मुअज्जिन) गैर-मुसलमान को अजान के पंक्तियों के अनुसार दिन में लाउड स्पीकर से कम से कम १५ बार हल्ला कर - करके चेतावनी देते हैं कि तुम्हारा ईश्वर झूठा है । ईश्वर पूजा के योग्य नहीं है ।
क्या मुसलमान यह बताएंगे कि मुहम्मद के चित्र बना देने वाले को कत्ल करने वालों को हमारे ईश्वर का अपमान करने का अधिकार कहाँ से प्राप्त हुआ? 

यहां पूरी अज़ान के बोल उल्लिखित कर देना उचित महसूस होता है , ताकि आप स्वयं महसूस कर सकें कि अजान के माध्यम से कैसे ईमाम अर्थात मुसलमान गैर मुस्लिमों को खुल - ए - आम ये चुनौती देते हैं कि हमारा ईश्वर असत्य और पूजा के योग्य नहीं ।
~ अजान~

●  अल्लाहु अकबर-अल्लाहु अकबर (दो बार), अर्थात् ‘अल्लाह सबसे बड़ा है।’

●  अश्हदुअल्ला इलाह इल्ल्अल्लाह (दो बार), अर्थात् ‘मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवाय कोई पूज्य, उपास्य नहीं।’

●  अश्हदुअन्न मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह (दो बार), अर्थात् ‘मैं गवाही देता हूं कि (हज़रत) मुहम्मद (सल्ल॰) अल्लाह के रसूल (दूत, प्रेषित, संदेष्टा, नबी, Prophet) हैं।’

●  हय्या अ़लस्-सलात (दो बार), अर्थात् ‘(लोगो) आओ नमाज़ के लिए।’

●  हय्या अ़लल-फ़लाह (दो बार), अर्थात् ‘(लोगो) आओ भलाई और सुफलता के लिए।’

●  अस्सलातु ख़ैरूम्-मिनन्नौम (दो बार, सिर्फ़ सूर्योदय से पहले वाली नमाज़ की अज़ान में), अर्थात् ‘नमाज़ नींद से बेहतर है।’

●  अल्लाहु अकबर-अल्लाहु अकबर (एक बार), अर्थात् ‘अल्लाह सबसे बड़ा है।’

●  ला-इलाह-इल्ल्अल्लाह (एक बार), अर्थात् ‘कोई पूज्य, उपास्य नहीं, सिवाय अल्लाह के।’

Thursday, December 26, 2013

भारतीय समाज-शास्त्र में समाज का चार वर्गों में विभक्ति ईश्वरीय विभाजन है । - अशोक "प्रवृद्ध"

भारतीय समाज-शास्त्र में समाज का चार वर्गों में विभक्ति ईश्वरीय विभाजन है ।
अशोक "प्रवृद्ध"

भारतीय समाज-शास्त्र में समाज को चार वर्गों में विभक्ति किया गया है। यह विभाजन ईश्वरीय है।

चातुर्वर्ण्या मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः।

परमात्मा ने जब मानव की सृष्टि की तो उसको गुण, कर्म तथा स्वभाव से चार प्रकार का बनाया। ये वर्ण भारतीय शब्द कोष में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नाम से जाने जाते हैं।
शासन करना और देश की रक्षा करना क्षत्रियों का कार्य है। ब्राह्मण स्वभाववश क्षत्रिय का कार्य करने के अयोग्य होते हैं। ब्राह्मण का कार्य विद्या का विस्तार करना है। मानव समाज में ये दोनों वर्ग श्रेष्ठ माने गये हैं। वर्तमान युग में ब्राह्मण और क्षत्रिय, मानव समाज का प्रतिनिधि राज्य है और राज्य स्वामी है क्षत्रिय वर्ग का भी और
ब्राह्मण वर्ग का भी। शूद्र उस वर्ग का नाम है जो अपने
स्वामी कि आज्ञा पर कार्य करे और उस कार्य के भले-बुरे परिणाम का उत्तरदायी न हो। आज उत्तरदायी राज्य है। ब्राह्मण (अध्यापक वर्ग) और क्षत्रिय (सैनिक) वर्ग राज्य की आज्ञा का पालन करते हुए भले-बुरे परिणाम के उत्तरदायी नहीं हैं। इसी कारण वे शूद्र वृत्ति के लोग बन गये हैं।

यह बात भारत-चीन के सीमावर्ती झगड़े से और भी स्पष्ट हो गई है। मंत्रिमण्डल जिसमें से एक भी व्यक्ति, कभी किसी सेना कार्य में नहीं रहा, 1962 की पराजय तथा 1952-1962 तक के पूर्ण पीछे हटने के कार्य का उत्तरदायी है और राज्य-संचालन में क्षत्रियों (सेना) का तथा ब्राह्मणों (अध्यापक वर्ग) का अधिकार नहीं है।भारत का विधान ऐसा है कि इसमें ‘अँधेरे नगरी गबरगण्ड राजा, टके सेरभाजी टके सेर खाजा’ वाली बात है। एक विश्व-विद्यालय के वाइस- चांसलर अथवा उच्चकोटि के विद्वान को भी मतदान का भी अधिकार है। उसी प्रकार उसके घर में चौका-बासन करने वाली कहारन को भी मतदान
का अधिकार है। देश में अनपढ़ और मूर्खों और अनुभव
विहीनों की संख्या बहुत अधिक है। वयस्क मतदान से राज्य
इन्हीं लोगों का है। दूसरे शब्दों में ब्राह्मण वर्ग (पढ़े-लिखे विद्वान) और क्षत्रिय वर्ग के लोग इनके दास हैं।

यह कहा जाता है कि यही व्यवस्था अमरीका, इंग्लैंड इत्यादि देशों में भी है। यदि वहाँ कार्य चल रहा है तो यहाँ क्यों नहीं चल सकता ?  परन्तु हम भूल जाते हैं कि प्रथम और द्वितीय विश्व व्यापी युद्ध और उन युद्धों के परिणामस्वरूप संधियाँ एवं युद्धोपरान्त की निस्तेजता इसी कारण हुई थी कि इन देशों के राज्य जनमत से निर्मित संसदों के हाथ में था। प्रथम युद्ध में सेनाओं ने जर्मनी को परास्त किया, परन्तु संधि के समय
अमरीका तो भाग कर तटस्थ हो बैठ गया। वुडरो विलसन
चाहता था कि अमरीका ‘लीग ऑफ नेशंज़’ में बैठकर विश्व की राजनीति में सक्रिय प्रकार भाग ले, परन्तु अमरीका की जनता ने उसको प्रधान नहीं चुना। इसी प्रकार वे वकील जो योरोपियन राज्यों के प्रतिनिधि बन वारसेल्ज की संधि करने बैठे तो उनमें न ब्राह्मणों की-सी उदारता थी, न क्षत्रियों का-सा तेज। वे बनियों (दुकानदारों) और शूद्रों (मजदूर वर्ग) के प्रतिनिधि वारसेल्ज जैसी अन्यायपूर्ण, अयुक्तिसंगत और अदूरदर्शिता-
पूर्ण संधि पर हास्ताक्षर कर बैठे। दूसरे युद्ध का एक कारण वारसेल्ज की संधि थी और इंग्लैंड की पार्लियामेंट तथा फ्रांस की कौंसिल की मानसिक और व्यवहारिक दुर्बलता दूसरा कारण थी। द्वितीय विश्व युद्ध में अमरीकन मिथ्या नीति के कारण ही स्टालिन मध्य और पूर्वी योरोप तथा चीन पर अपने पंख फैला सका था।

इस समय भी प्रायः संसदीय प्रजातंत्रात्मक देशों में शूद्र और बनिये राज्य करते हैं। हमारा कहने का अभिप्राय है, वे लोग राज्य करते हैं जो शूद्र और बनियों को प्रसन्न करने की बातें कर सकते हैं। और क्षत्रियतो इन नेताओं के सेवक मात्र (वेतनधारी दास) हो गये अनुभव करते हैं । यही कारण है कि दिन-प्रतिदिन विश्व की दशा बिगड़ती जाती है। संसार में दुष्ट लोगों का अभाव नहीं हो सकता। आदि सृष्टि से लेकर कोई
ऐसा काल नहीं आया, जब आसुरी प्रवृत्ति के लोग निर्मूल हो गये हों।

इसका स्वाभाविक परिणाम यह निकलता है कि संसार में युद्ध निःशेष नहीं किये जा सकते। युद्ध इन आसुरी प्रवृत्ति के
मनुष्यों की करणी का फल ही होते हैं। अतः दैवी सम्पत्ति के मानवों को, उन असुरों को नियंत्रण में रखने के हेतु सदा युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए। युद्ध में विजय क्षत्रिय स्वभाव के लोगों में शौर्य, शारीरिक तथा मानसिक बल और ईश्वरीय-परायणता के कारण प्राप्त होती है।

इसी प्रकार जाति की शिक्षा तथा नीति का संचालन देश के
ब्राह्मणों (विद्वानों) के हाथ में होना चाहिए। उनके कार्य में बनियों औरशूद्रों का हस्ताक्षेप, यहाँ कि क्षत्रियों का नियन्त्रण भी, विनाशकारी सिद्ध होता है। देश का संविधान ऐसा होना चाहिए कि गुण कर्म स्वभाव से ये मानव वर्ग अपने–अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र कार्य करते हुए भी, देश के न्याय-
शास्त्रियों द्वारा समन्वय से कार्य करें। न्याय परायण लोग सदा यह देखें कि कोई वर्ग किसी दूसरे वर्ग-क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप न कर सके।

युद्ध लड़े जाते हैं। शान्ति स्थापना के लिए, परन्तु शान्ति काल में वैश्य तथा शूद्र प्रवृत्ति के लोग ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग पर प्रभुत्व जमा कर पुनः युद्घ के लिए क्षेत्र की तैयारी में लग जाते हैं। ये दोनों वर्ग युद्ध से भयभीत आसुरी प्रवृत्ति के मनुष्यों को नियंत्रण में रखने में अशक्त होते हैं। ऐसे शान्ति काल में असुर-फलते-फूलते हैं और श्रेष्ठ लोगों को कष्ट देना अपना अधिकार मानने लगते हैं।

सर्वत्र और सदा शान्ति, मानव समाज में श्रेष्ठ प्रवृत्ति के लोगों के निरंतर अधिकार से प्राप्त हो सकती है। श्रेष्ठता, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्य-वृत्ति और शूद्रों में संतुलन के लिए शान्ति-प्रिय लोगों को यत्नशील रहना चाहिए। इस संतुलन को रखने में न्याय शास्त्री ब्राह्मण ही योग्य हैं, परन्तु ये वयस्क मतदान से न तो निर्माण होते हैं न ही निर्वाचित होते हैं।

Thursday, December 12, 2013

घर - गृहस्थी व्यवसाय नहीं है , इसका तो  एकमात्र उद्देश्य परिवार की सृष्टि और उसका पालन - पोषण ही है - अशोक "प्रवृद्ध"

घर - गृहस्थी व्यवसाय नहीं है , इसका तो  एकमात्र उद्देश्य
परिवार की सृष्टि और उसका पालन - पोषण ही है
अशोक "प्रवृद्ध"

वर्तमान में कमाऊ बीवी को शादी करने के मामले में युवक और युवक के परिजन प्राथमिकता देने लगे हैं , परन्तु विवाह घर - गृहस्थी चलाने के लिए होता है न कि कोई व्यवसाय चलाने के लिए । व्यवसाय में तो यह होता है कि जिस कार्य में अधिक लाभ की प्राप्ति हो , उसको ही किया जाये । इसमें धन की उपलब्धि ही मुख्य उद्देश्य होता है । अतः व्यवसाय में लगे सब व्यक्ति अधिकाधिक् धन प्राप्त करने के लिए यत्न करते हैं ।

परन्तु घर - गृहस्थी व्यवसाय नहीं है । इसमें तो परिवार की सृष्टि और उसका पालन - पोषण ही एकमात्र उद्देश्य होता है । कभी परिवार को चलाने के लिए धन की प्राप्ति त्यागी भी जाती है , परन्तु व्यवसाय में ऐसा नहीं होता । उसमे धन मुख्य है और परिवार में परिवार की भलाई ।

विवाह में मुख्य वासना - तृप्ति नहीं होती । यदि वासना ही मुख्य होती तो विवाह की आवश्यकता नहीं थी । वासना - तृप्ति के अतिरिक्त संतान का पालन - पोषण अधिक आवश्यक होता है । जैसे वासना - तृप्ति के लिए भाड़े की पत्नी ली जा सकती है , वैसे ही परिवार के पालन के लिए भाड़े के नौकर रखे जा सकते हैं । परन्तु दोनों कार्य भाड़े पर कराने की अपेक्षा घर पर रहकर स्वयं करना सुगम और उचित होता है ।

Wednesday, December 11, 2013

समाधि से ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति होती है - अशोक "प्रवृद्ध"

समाधि से ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति होती है
अशोक "प्रवृद्ध"

समाधि का अर्थ है अपनी पूर्ण शक्ति कों केंद्रित कर जीवन रहस्य को समझने का यत्न करना , जो सत्य ज्ञान हो जाता है । यह समाधि दो प्रकार की है - सविचार और निर्विचार । सविचार समाधि से प्रकृति की सूक्ष्म बातों का ज्ञान होता है और निर्विचार समाधि का फल अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति है ।
ऐसा योगशास्त्र में लिखा है -
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ।।
सूक्ष्म विषयत्वं चालिङ्गपर्यवसायनम् ।।
ताः एवं सबीजः समाधिः ।।
निर्विचार वैशार्द्येSध्यात्म प्रसादः ।।
 जब समाधि सफल होती है तो मनुष्य में एक विशेष प्रकार की बुद्धि उत्पन्न होती है , जिअको ऋतंभरा कहते हैं । इससे इन्द्रियों से जाने तथा अनुभवादि से प्राप्त हुए ज्ञान में भी विशेषता प्राप्त होती है
 इस ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्राप्त होने से एक नवीन प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं । ये संस्कार इन्द्रिय ज्ञान और अनुमानादि से उत्पन्न संस्कारों से भिन्न प्रकार के होते हैं । यह निर्वीज समाधि को उत्पन्न करने वाले हैं । निर्बीज का अर्थ है कि ये संस्कार साधारण संस्कारों की भांति सांसारिक कर्मों का बीज नहीं बन सकते ।
इसको इस प्रकार लिखा है -
ऋतम्भरा तत्र प्रजा ।
श्रुतानुमाप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।
तज्जः संस्कारोंSन्यसंस्कार प्रतिबन्धौ समाधिः ।
तस्यापि निरोधे सर्व्निरोधान्नि र्बीजः ।।
जिन मनुष्यों के संस्कार वही हैं जो इन श्रवणादि इन्द्रियों और अनुमान आदि प्रमाणों से प्राप्तं होते हैं , वे तो मूर्ति पूजन करते  समय यह समझते हैं कि भगवान् उसमे ही हैं और वह पूजन से प्रसन्न हो रहा है । वे बेचारे भूल में फंसे यही समझते हैं कि उस पूजन से उनको ऋद्धि - सिद्धि तथा मोक्ष मिलने वाला है । परन्तु ऋतम्भरा प्रज्ञा वाला मनुष्य यह जानता है कि शिवलिंग एक पत्थर का टुकड़ा है । इस पर भी यदि वह उसका पूजन करता है इस कारण नहीं कि उससे भगवान प्रसन्न होता है , प्रत्युत इसलिए कि इससे आत्मोन्नति होती है ।

मंदिर , मस्जिद , गिरजाघर में एकत्रित होना एक सामाजिक कृत्य है। इससे लोक संग्रह होता है ।
परमात्मा क्या इतनी क्षुद्र भावना और आत्म - श्लाघा वाला है कि मंदिर अथवा गुरू - ग्रन्थ साहब पर दो पुष्प चढ़ा देने से प्रसन्न हो जाता है ? वह तो निरंतर निष्काम भाव से अपना कर्तव्य पालन करने से प्रसन्न होता है । इसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं । एक तो कर्तव्य का ज्ञान और दुसरे कर्तव्य पालन में लाभ - हानि का विचार छोड़ देना ।  ये दोनों बातें योग - ध्यान , तपस्या , स्वाध्याय तथा इश्वर प्रणिधान से उत्पन्न होती है ।

Tuesday, December 10, 2013

प्रकृति के नियमों के विरूद्ध आचरण करना हानिकारक

प्रकृति के नियमों के विरूद्ध आचरण करना हानिकारक

इस मशीन युग में हम अनेक कार्य ऐसे करते हैं, जो हमारी प्रकृति के प्रतिकूल होते हैं । मशीनों के अथवा अन्य साधनों के बल पर हम उन अस्वाभाविक कार्यों से होने वाली हानियों को सहन करने में समर्थ तो हो जाते हैं   फिर भी हानि तो होती ही है ।

अतः बुद्धिशील मनुष्यों का यह मत है कि अस्वाभाविक कार्य तभी क्षम्य हो सकते हैं जब उनका करना अनिवार्य हो जाये । यदि मनुष्य शारीरिक दृष्टि से मजदूरी करने के यिग्य हो और उसको अध्यापन कार्य पर नियुक्त कर दिया जाये तो यह सम्भव है की वह व्यक्ति यह कार्य तो कर सके , परन्तु इससे न तो शिक्षा का  स्तर अच्छा रह सकेगा और न ही उसके स्थान पर नियुक्त कोई दुर्बलकाय व्यक्ति मजदूरी का कार्य भली - भांति कर सकगा । समाज में व्यवस्था रखने वाला अधिकारी कदापि यह नहीं पसंद करेगा कि एक विशेष प्रकार की योग्य्ताबका व्यक्ति किसी दूसरी योग्यता वाले स्थान पर नियुक्त कर दिया जाये ।

मजदूर पुरूष को अध्यापन कार्य पर तो लगाया जा सकता है , परन्तु उसके कार्य में वह प्रवीणता नहीं आ सकती , जो योग्य विद्वान अर्थात पण्डित द्वारा अध्यापन कार्य करने पर आ सकती है । पुरूष - पुरूष की कार्य - कुशलता में यह अन्तर उस योग्यता के कारण होती है जो शिक्षा से उत्पन्न होती है , परंतु यदि उसका कारण शारीरिक बनावट होगी तो कार्य - कुशलता का अन्तर अनुल्लंघनीय हो जायेगा ।

पुरूष और स्त्री की शारीरिक बनावट में अन्तर है । उनकी मनोवृति में भेद है । उनके कार्य में भिन्नता है और कार्य करने की सामर्थ्य में अन्तर है । यदि ऐसा है तो निःसंदेह उनसे एकसमान कार्य लेना भूल है ।

स्त्री, समाज में नये आने वाले सदस्यों की जननी है। स्त्री उनको समाज की उपयोगी अंग बनाने की प्रथम शिक्षिका है। वह समाज में सुख शान्ति का सृजनकर्त्री है । यदि उसे कारखाने में मशीनों के संचालन आदि जैसे कार्य में लगा दिया जायेगा तो यह ऐसा ही होगा मानो जौहरी को लोहा पीटने अथवा ढालने के कार्य पर लगाया गया हो । कदाचित इससे भी बुरा हो सकता है । जौहरी का तथा लोहा पीटने का कार्य समाज के लिए उतना आवश्यक नहीं , जितना नवजात शिशुओं का पालन - पोषण करना तथा उनको शिक्षित कर , उन्हें समाज का उपकारी अंग बनाना ।

जहाँ तक व्यक्तिगत उपयोगिता का प्रश्न है , समाज ने कृत्रिम रूप से जीवन - स्तर ऊँचा कर दिया है। जीवन में , अनेक व्यर्थ
के खर्च सम्मिलित कर , इसको दुर्भर कर दिया है और इस कृत्रिम जीवन - स्तर को रखने के लिए पत्नी को अपना स्वाभाविक कार्य छोड़कर , पति के साथ मिलकर जीवन की चक्की चलानी पड़ रही है । भारतीय पुरातन शास्त्रों के अनुसार यह महान भूल है । प्रकृति ने प्रत्येक कार्य के सम्पादन के लिए विशिष्ट प्राणी का सृजन किया है। किन्तु आज के युग में मनुष्य प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण कर रहा है जो कि बहुत ही हानिकारक है। भारतीय पुरातन ग्रंथों में स्त्रियों के द्वारा धनार्जन-कार्य को महान् भूल के रूप में सिद्ध किया है।
स्त्रियों की आर्थिक रक्षा का प्रबंध तो पति के परिवार अथवा समाज को करना चाहिए , परन्तु इस रक्षा के बहाने उन्हें उन कार्यों के लिए बाध्य करना , जिनके लिए प्रकृति ने उनको बनाया नहीं , महान भूल होगी ।

Monday, December 9, 2013

वैदिक ग्रंथों में नारियों की चाल-ढाल

वैदिक ग्रंथों में नारियों की चाल-ढाल

वेद ज्ञान का अथाह सागर है । वेदों में मानव - जीवन के सभी पहलुओं से सम्बंधित परम ज्ञान की बातें अंकित हैं । वेद में नारियों अर्थात महिलाओं के चाल - ढाल , वस्त्र आदि के सन्दर्भ में विस्तृत विवरण अंकित मिलते हैं । ऋग्वेद में नारी के सम्बन्ध में कहा गया है -

ओ3म् अधः पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर।
मा ते कशप्लकौ दृशन् स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ।। (ऋग्वेद 8.33.19)
शब्दार्थ- हे नारि! (अधः पश्यस्व) नीचे देख (मा उपरि) ऊपर मत देख। (पादकौ सन्तरां हर) दोनों पैरों को ठीक प्रकार से एकत्र करके रख। (ते कशप्लकौ) तेरे कशप्लक अर्थात् दोनों स्तन, पीठ और पेट, नितम्ब, दोनों जांघें और दोनों पिण्डलियॉं (मा दृशन्) दिखाई न दें। यह सब कुछ किसलिए? (हि) क्योंकि (स्त्री) स्त्री (ब्रह्मा) ब्रह्मा, निर्माणकर्त्री (बभूविथ) हुई है।
भावार्थ- मन्त्र में नारी के शील का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। प्रत्येक स्त्री को इन गुणों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए।
1. स्त्रियों को अपनी दृष्टि सदा नीचे रखनी चाहिए, ऊपर नहीं। नीचे दृष्टि रखना लज्जा और शालीनता का चिह्न है। ऊपर देखना निर्लज्जता और अशालीनता का द्योतक है।
2. स्त्रियों को चलते समय दोनों पैरों को मिलाकर बड़ी सावधानी से चलना चाहिए। इठलाते हुए, मटकते हुए, हाव-भाव का प्रदर्शन करते हुए, चंचलता और चपलता से नहीं चलना चाहिए।
3. नारियों को वस्त्र इस प्रकार धारण करने चाहिएं कि उनके स्तन, पेट, पीठ, जंघाएँ, पिण्डलियॉं आदि दिखाई न दें। अपने अंगों का प्रदर्शन करना विलासिता और लम्पटता का द्योतक है।
4. नारी के लिए इतना बन्धन क्यों? ऐसी कठोर साधना किसलिए? इसलिए कि नारी ब्रह्मा है, वह जीवन निर्मात्री और सृजनकर्त्री है। यदि नारी ही बिगड़ गई तो सृष्टि भी बिगड़ जाएगी।

Sunday, December 8, 2013

पुरातन वैदिक ग्रंथों में नारियों की चाल-ढाल

पुरातन वैदिक ग्रंथों में नारियों की चाल-ढाल

वेद ज्ञान का अथाह सागर है । वेदों में मानव - जीवन के सभी पहलुओं से सम्बंधित परम ज्ञान की बातें अंकित हैं । वेद में नारियों अर्थात महिलाओं के चाल - ढाल , वस्त्र आदि के सन्दर्भ में विस्तृत विवरण अंकित मिलते हैं । ऋग्वेद में नारी के सम्बन्ध में कहा गया है -

ओ3म् अधः पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर।
मा ते कशप्लकौ दृशन् स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ।। (ऋग्वेद 8.33.19)
शब्दार्थ- हे नारि! (अधः पश्यस्व) नीचे देख (मा उपरि) ऊपर मत देख। (पादकौ सन्तरां हर) दोनों पैरों को ठीक प्रकार से एकत्र करके रख। (ते कशप्लकौ) तेरे कशप्लक अर्थात् दोनों स्तन, पीठ और पेट, नितम्ब, दोनों जांघें और दोनों पिण्डलियॉं (मा दृशन्) दिखाई न दें। यह सब कुछ किसलिए? (हि) क्योंकि (स्त्री) स्त्री (ब्रह्मा) ब्रह्मा, निर्माणकर्त्री (बभूविथ) हुई है।
भावार्थ- मन्त्र में नारी के शील का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। प्रत्येक स्त्री को इन गुणों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए।
1. स्त्रियों को अपनी दृष्टि सदा नीचे रखनी चाहिए, ऊपर नहीं। नीचे दृष्टि रखना लज्जा और शालीनता का चिह्न है। ऊपर देखना निर्लज्जता और अशालीनता का द्योतक है।
2. स्त्रियों को चलते समय दोनों पैरों को मिलाकर बड़ी सावधानी से चलना चाहिए। इठलाते हुए, मटकते हुए, हाव-भाव का प्रदर्शन करते हुए, चंचलता और चपलता से नहीं चलना चाहिए।
3. नारियों को वस्त्र इस प्रकार धारण करने चाहिएं कि उनके स्तन, पेट, पीठ, जंघाएँ, पिण्डलियॉं आदि दिखाई न दें। अपने अंगों का प्रदर्शन करना विलासिता और लम्पटता का द्योतक है।
4. नारी के लिए इतना बन्धन क्यों? ऐसी कठोर साधना किसलिए? इसलिए कि नारी ब्रह्मा है, वह जीवन निर्मात्री और सृजनकर्त्री है। यदि नारी ही बिगड़ गई तो सृष्टि भी बिगड़ जाएगी।

Monday, December 2, 2013

भाग्य और पुरूषार्थ - अशोक "प्रवृद्ध"

भाग्य और पुरूषार्थ
अशोक "प्रवृद्ध"

पूर्व जन्मों के कर्मों का फल ही हमारा भाग्य और इस जन्म के कर्मों के फल को पुरूषार्थ का परिणाम माना जाता है ।

कार्य  से कारण माना जाता है । पुरूषार्थ करने पर भी जब कोई फल नहीं मिलता तो वह अज्ञात कर्मों के कारण ही माना जाता है । ये अज्ञात कर्म पूर्व जन्म के ही तो कर्म हैं ।

प्रत्येक कर्म प्रतिक्रिया (रिएक्शन) उत्पन्न करता है । यह प्रतिक्रिया वातावरण और काल के अधीन रहती है । जब ये अनुकूल होते हैं तो पुरूषार्थ का फल प्रचुर मात्रा में मिलता है और जब वातावरण प्रतिकूल होते हैं पुरूषार्थ का फल हीन अथवा नकारात्मक हो जाता है । अर्थात वातावरण , परिस्थिति और काल भाग्य से अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं ।

कुछ लोगों के अनुसार वातावरण आदि तो निर्माण किये जाते हैं , जो निर्माण करने की योग्यता और बुद्धि रखेंगे उनको पुरूषार्थ फलयुक्त होगा । फिर भी प्रश्न उत्पन्न होता है कि योग्यता और बुद्धि जो वातावरणादि को निर्माण करती है , उसी में भेद क्यों होता है ? इसका उत्तर है कि जन्म के समय माता - पिता की शारीरिक , मानसिक तथा आर्थिक  परिस्थिति पर बुद्धि और योग्यता का निर्माण होता है और माता - पिता की इन अवस्थाओं में अंतर होता है ।

वास्तव में अनेकानेक भिन्न - भिन्न प्रकार के परिणाम आत्मा के भिन्न - भिन्न प्रकार के कर्मों के फल ही हैं ।ज्ञात कर्मों को पुरूषार्थ कहते हैं , और अज्ञात कर्मों को , जिनको हम इस जन्म के कर्मों के साथ जोड़ नहीं सकते , भाग्य कहते हैं । ये पूर्व जन्म के किये कर्म ही तो होंगे ।

अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

  अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”   जैसा कि पूर्व से ही अंदेशा था कि पूर्व चुनाव आयुक्त अनू...