Sunday, September 29, 2013

नागपुरी कहनी ( नागपुरिया कथा) - कृपाचार्य आउर द्रोणाचार्य कर जनम कर कहनी



              नागपुरी कहनी (नागपुरिया कथा)

द्रोणाचार्य आउर कृपाचार्य कर जनम कर कहनी
                अशोक "प्रवृद्ध"

गौतम ऋषि कर बेटा (पुत्र) कर नाव (नाम) शरद्वान रहे। उनकर जन्म बाण कर साथे होय रहे। उनके वेदाभ्यास में तनिको रुचि नी रहे आउर धनुर्विद्या से उनके बहुते ढेइर लगाव रहे। उ धनुर्विद्या में एतना निपुण होय गेलयं कि देवराज इन्द्र भी उनकर से भयभीत रहे लागलयं । इन्द्र भगवान उनके साधना से डगमगुवायक ले (खातीर) नामपदी नाव (नाम) कर एगो देवकन्या के शरद्वान जगन भेजलयं। शरद्वान उ देवकन्या कर सुन्दरता से एतना प्रभावित आउर उतेजित होय गेलयं कि उनकर वीर्य निकइल के फ़ेकाय गेलक आउर एगो सरकंडा में आयके गिरलक । उ गिरल वीर्य सरकंडा कर दूइ भाग में बटाय गेलक,जेकर एगो भाग में से कृप नाव  कर छोड़ा छउवा (छौवा/बालक)  उत्पन्न भेलक आउर दोसर भाग से कृपी नाव कर एगो मैयां (छोड़ी) छौवा (कन्या) जनम लेलक (उत्पन्न भेलक)। कृप भी धनुर्विद्या में आपन बापे (पिता) नीयर (जईसन) पारंगत होय गेलयं। भीष्म ईहे कृप के पाण्डव आउर  कौरव मन के शिक्षा-दीक्षा देवेक खातीर राखलयं आउर उ बाद में कृपाचार्य कर नाव (नाम) से प्रसिद्ध होलयं ।

कृपाचार्य पाण्डव आउर कौरव मनके शिक्षा देवे  लागलयं। जखन उ मनक सुरुआती शिक्षा ख़तम होय गेलक सेखन (तब) अस्त्र-शस्त्र कर बढ़िया से शिक्षा देवेक ले भीष्म द्रोण नाव (नाम) कर एगो आचार्य के आउर राइख लेलयं।

इ द्रोणाचार्य जी कर भी एगो विशेष कहनी (कहानी) हय । एक धांव (बेर) भरद्वाज मुनि यज्ञ करत रहयं। एक दिन उ गंगा नदी में नहात रहयं। ओहे जगन उ घृतार्ची नाव (नाम) कर एगो अप्सरा के गंगा जी में से नहाय के निकलते देइख लेलयं। उ अप्सरा के देखेक कर बाद उ भरद्वाज मुनि कर मन में काम वासना क्र भावना जाइग गेलक आउर उनकर वीर्य निकइल के गिर गेलक ,जेके भरद्वाज मुनि एगो यज्ञ पात्र में राइख देलयं।

आगे चइल के ओहे यज्ञ पात्र से द्रोण कर जनम (उत्पत्ति) होलक। द्रोण आपन पिता क्र आश्रम मेंहे रइह के चाइरों वेद आउर अस्त्र-शस्त्र कर ज्ञान में पारंगत होय गेलयं। द्रोण कर संगे प्रषत् नाव (नाम) कर एगो राजा कर बेटा (पुत्र) द्रुपद भी शिक्षा लेवत रहे ,तब संगे रहते-रहते द्रोण आउर द्रुपद में बहुते गहरा दोस्ती होय गेलक ।

ओहे बेरा माने ओहे आस -पास कर समय में परशुराम आपन समूचा धन- दउलत ब्राह्मण मनकर बीच में दान कइरके महेन्द्राचल पर्वत में तप करत रहयं । एक बेरा कर बात हके कि द्रोण परशुराम कर भीरे गेलयं आउर उनकर से दान देवेक ले विनती करे लागलयं , उ घरी तो परशुराम ठीना (जगन) कोनो नी  रहे तो इसन में परशुराम कहलयं (बोललयं) - “वत्स ! तोयं देरी से आले , मोयं तो आपन सब कुछ बहुते पहीलेहें ब्राह्मण मनके दान में दे देलों। आब तो मोर ठीना कोनों नखे , खाली अस्त्र-शस्त्र बाचल हय । अगर तोयं कहबे तो मोयं तोके उकेहे दान में दे सकोना।
 द्रोण ईहे तो चाहत रहयं उ तुरन्ते कहलयं , “हे गुरूदेव ! रउरे से अस्त्र-शस्त्र पायके मोके बहुते ख़ुशी होई , लेकिन रउरे के मोके इ अस्त्र-शस्त्र कर शिक्षा-दीक्षा भी देवेक पड़ी आउर उकर विधि-विधान भी बताएक पड़ी।”
 इ तरी माने इ नीयर परशुराम कर चेला (शिष्य) बइन के द्रोण अस्त्र-शस्त्र कर संगे -संगे समूचा विद्या कर  अभूतपूर्व ज्ञाता होय गेलक।

शिक्षा पूरा करेक कर बाद द्रोण कर शादी (वियाह) कृपाचार्य कर बहीन कृपी कर संगे होय गेलक। कृपी से द्रोण के एगो बेटा (पुत्र) भेलक । उनकर उ बेटा कर मुंह से जन्मखे घरी (बेरा) अश्व कर माने कि घोड़ा जइसन आवाज निकले लागलक। से चलते उ छउवा (बालक) कर नाव (नाम) अश्वत्थामा राखल गेलक। कोनो कारन वस राजाश्रय नी मिलेक कारण से द्रोण आपन पत्नी कृपी आउर बेटा अश्वत्थामा कर संगे गरीबी से रहत रहयं । एक दिन उनकर बेटा अश्वत्थामा दूध पीयेक खातीर बड़ा कांदत (रोअत) रहे, लेकिन गरीब होवेक कर चलते द्रोण आपन बेटा के दूध लाइनके देवेक नी सकत रहयं। अचानक उनके आपन बचपन कर मित्र राजा द्रुपद क्र इयाइद आय गेलक जे कि पाञ्चाल देश कर नरेश माने राजा बइन जाय रहे।
द्रोण द्रुपद जगन (ठीन) गेलयं आउर जायके कहलयं कि हे “मित्र ! मोंय रउरे कर बचपन कर दोस्त हकों । मोर एगो छोट बेटा हय , उके दूध कर बहुते जरूरत हय , दूध खातीर एगो गाय चाही येहे ले (खातीर) बड़ा आस लेइके हाम रउरे जगन आय ही।” एतना बात सुनल बाद द्रुपद आपन बचपन कर दोस्ती भुलाय के  आपन राजा (नरेश) होवेक कर अहंकार में आयके द्रोण ऊपरे बिगइड़ उठलयं आउर कहलयं , “तोके अपने- आप के मोर (दोस्त)  मित्र बताएक में लाज नखे लागत ? दोस्ती खाली आपन बराबइर कर आदमी कर संगे होवेला,ना कि तोर जईसन गरीब आउर मोर जईसन राजा कर संगे ।”

अपमानित होयके द्रोण उ जगन से लौइट आलयं आउर कृपाचार्य कर घर में गुप्त रूप से रहे लागलयं । एक दिन कर बात हके कि युधिष्ठिर आपन भाई मनक संगे गेंदा खेलत रहयं तो उ मनकर गेंदा एगो कुइयाँ में गिर गेलक। ओहे बेरा द्रोण ओने से होयके जात रहयं तो युधिष्ठिर कर नजर द्रोण पर परलक तो उनकर से कुइयाँ में से गेंदा निकलायंक ले कहलयं । उ मनक बात के सुइन के द्रोण कहलयं , "हम गेंदा जरुर निकलाय देब अगर तोहरे मन हमर परिवार खातिर खाना  कर जोगाड़ कइर देबा हले।” युधिष्ठिर बोललयं , “देव ! अगर हमरे कर पितामह कर अनुमति होय जई तो रउरे हर हमेसा लगीन (खातीर) भोजन कर चिन्ता से मुक्त होयके भोजन पाय सकीला ।” द्रोणाचार्य तुरंत एक मुट्ठी सींक लेइके उके मन्त्र से अभिमन्त्रित कइर देलयं आउर धनुष- वाण से एगो सींक से गेंदा के छेईदके गेंदा के सींक से फंसाय देलयं फिन (फिर) दोसरा सींक से गेंदा में फँसल सींक के छेदलयं । येहे तरी एक सींक से दोसरा सींक में छेदा करते - करते उ गेंदा के कुइयाँ में से बाहरे निकलाय देलयं ।

इ अद्भुत प्रयोग कर बारे में आउर द्रोण कर सभे विषय मंे प्रकाण्ड पण्डित होवेक विषय में मालूम होवल पर भीष्म पितामह इनके राजकुमार मन के उच्च शिक्षा देवेक ले (खातीर) नियुक्त कइर के राजाश्रय में ले लेलयं । येहे द्रोण आगे चइलके द्रोणाचार्य कर नाव (नाम) प्रसिद्ध , मशहूर भेलयं ।

नागपुरी कविता -बीच सभा में खड़ायके द्रौपदी कहे संकट आवल भारी हो कन्हईया। - अशोक "प्रवृद्ध"

                                 नागपुरी कविता
बीच सभा में खड़ायके द्रौपदी कहे संकट आवल भारी हो कन्हईया।
                         रचनाकार - अशोक "प्रवृद्ध"
बीच सभा में खड़ायके द्रौपदी कहे संकट आवल भारी हो कन्हईया।पांडव वंश भेलक पौरूषहीन दुशासन खींचथे साड़ी हो कन्हईया।।
द्वारिका नाथ नी देब जे साथ हमके देखब उघरे हो कन्हईया।
इ बिपत से कोनो बिपत नी बेसी परी पति होय गेलयं जुआड़ी हो कन्हईया।।

पगरी इज्जत कर उतइर गेलक हो भईया।
सजना जुवाड़ी हमर हमके हाइर गेलयं हो भईया।।

केश  खुलल है धोवलो नखे साड़ी।
बाबा आउर दादा सभे देखथयं उघारी।
सभा कर मती केउ माइर गेलक हो भईया।
सजना जुवाड़ी हमर हमके हाइर गेलयं हो भईया ।।

जेकर बटे कखनो सुरूज़ नी ताके।
चंदा भी देखे जेके बहुते लजाय के।
उक्र मुंह के अन्हरो आइंख फाईड़के निहारथयं होे भईया ।
सजना जुवाड़ी हमर हमके हाइर गेलयं हो भईया ।।

साड़ी बइनके आजा तीनों लोक कर राजा।
हाइर जाए दुशासन साड़ी एतना बढ़ाय जा।।
सजना जुवाड़ी हमर हमके हाइर गेलयं हो भईया।
सजना जुवाड़ी हमर हमके हाइर गेलयं  हो भईया।।

टेर सुइन के देरी नी  करलयं कन्हाई।
देलयं आकास से तुरंत चुनरी बढ़ाय।।
द्रौपदी हांसलयं बैरी हाइर गेलयं हो भईया ।
सजना जुवाड़ी हमके हाइर गेलयं हो भईया ।।

सुइनके द्रौपदी कर टेर नी करलयं तनिको हरी देर हो राम।
हाथे लेईके साड़ी कर थान प्रभु जी हुवाँ आय गेलयं हो राम।।
साड़ी खींचत दुराचारी प्रभु जी हुवाँ आय गेलयं हो राम।
देइख के साड़ी कर ढेइर दुषाशन हड़बड़ाय गेलक हो राम।।

Thursday, September 19, 2013

वैदिक ग्रंथों के अनुसार वर्षा का कारण सूर्य और वायु

वैदिक ग्रंथों के अनुसार वर्षा का कारण सूर्य और वायु

आधुनिक विज्ञान के अनुसार वर्षा का मुख्य कारण वायु है, वायु के प्रवाहित होने के कारण मेघ बनते हैं और मेघ वर्षा करते हैं । वायु सूर्य की किरणों के प्रभाव से
मेघ बन जाती है । सूर्य की किरणें वाष्पन विधि से जल व वायु का मिलाप करा देती हैं और फिर बादल बन जाते हैं ।
हमारे आदिग्रंथ वेद में परमात्मा के द्वारा उपर्युक्त बातें सहस्त्राब्दियों पूर्व ही , जब सृष्टि रचना हुई, उद्घाटित की गई हैं। ऋग्वेद 1/6/4 में अन्न की उत्पति हेतु वायु के द्वारा बार - बार मेघ का रूप धारण कर लेने का वर्णन अंकित है । ऋग्वेद 1/6/4 में कहा गया है -

आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे । दधाना नाम यज्ञियम् ।। ऋग्वेद 1/6/4
अर्थात - यज्ञीय नाम वाले , धारण करने में समर्थ मरूत् वास्तव में अन्न की कामना से बार-बार मेघ रूपी गर्भ धारण करते हैं ।
अर्थात् अन्न की उत्पत्ति हेतु ही वायु बार-बार मेघ का रूप धारण कर लेती है । मेघ बनकर जब वह बरसती है तो फसलें तैयार होती हैं ।।
इसी प्रकार ऋग्वेद 1/22/6 कहा है कि -

अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि । तस्य व्रतान्युश्मसि । । ऋग्वेद 1/22/6
अर्थ - हे ऋत्विज । आप हमारी रक्षा के लिये सविता देवता की स्तुति करें । हम उनके लिये सोमयागादि कर्म सम्पन्न करना चाहते हैं । वे सवितादेव जलों को सुखाकर पुन: सहस्रों गुना बरसाने वाले हैं ।
इस मन्त्र में सविता (सूर्य) देवता द्वारा जलों को सुखाकर पुन: सहस्रों गुना बरसाने की बात कही गयी है । इसमें तो सम्भवत: मुझे अपनी ओर से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं ही है ।
यह सर्वविदित है कि सूर्य का वर्षा में क्या योग है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जो त्थ्य आज वैज्ञानिक प्रमाणित करते हैं वो तो स्वयं वेद भगवान सहस्त्राब्दियों पूर्व आदि काल में ही प्रमाणित कर चुके हैं । वेदों की सत्ता परम है और आज तक मात्र अपनी इन्ही भगवत्ता के कारण ही वेद अखण्ड बने हैं और अखण्ड ही बने हुए रहेंगे।

Wednesday, September 18, 2013

हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता है

हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता है

आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं के विरोधी , हिन्दुत्व विद्वेषी , विदेशी , विधर्मियों ने आर्य सभ्यता - संस्कृति , साहित्य - भाषा ,हिन्दू देवी - देवताओं का उपहास कर अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भारतीय पुरातन ग्रंथों में छेड़ - छाड़ के साथ ही अनेक प्रकार की विभ्रांति फ़ैलाने का प्रयास किया है। वैदिक ग्रंथों के अनुसार तैंतीस कोटि अर्थात तैंतीस प्रकार के वैदिक देवता सर्वसिद्ध हैं , परन्तु वेद और आर्य सनातन विरोधियों ने कोटि का अर्थ करोड़ बतलाकर हिन्दुओं में तैंतीस करोड़ देवी - देवता होने का असत्य प्रचार किया। परिणामस्वरूप आम जन में यह विभ्रांति घर कर गई है कि हिन्दुओं में तैंतीस करोड़ देवी - देवता में श्रेष्ठ , पूजनीय और श्रेष्ठ उपास्य कौन है ? 
तैंतीस कोटि देवी - देवता के सम्बन्ध में वैदिक विश्लेषण -

देवता शब्द का वास्तविक अर्थ

देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा  घोतनाद्वा, घुस्थानो भवतीति व । ।     : निरुक्त अ०  ७ । खं०  १५

अर्थात दान देने से देव नाम पड़ता है ।  और दान कहते है  अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना ।
दीपन कहते है प्रकाश करने को, धोतन कहते है सत्योपदेश को, इनमे से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है कि जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है , तथा विद्वान मनुष्य भी विधादि पदार्थों के देने वाले होने से देव कहलाते है ।
दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सुर्यादि लोको का नाम भी देव है ।
देव शब्द में 'तल्' प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है ।

नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्शत्   : यजुर्वेद अ०  ४० । मं०  ४

इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है । जोकि श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , जीभ , नाक और मन , ये छ : देव कहाते है । क्योकि शब्द , स्पर्श, रूप, रस, गंध , सत्य तथा असत्य आदि अर्थों का इनके प्रकाश होता है अर्थात इन्ही ६  इन्द्रियों से हमें उपरोक्त ६ लक्षणों (शब्द , स्पर्श, रूप .....) का ज्ञान होता है ।
देव कहने का अभिप्राय ये नही की श्रोत्र , त्वचा , नेत्र ... आदि पूजनीय हो गये .

मातृदेवो भव , पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव  । प्रपा ० । अनु ० ११

माता पिता , आचार्य और अतिथि भी पालन , विद्या  और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते है वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करने वाला है , सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव है , अन्य  कोई नही ।  इसमें कठोपनिषद का भी प्रमाण है :

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विधुतो भान्ति कुतोSयमग्नि : ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । ।
-कठ ० वल्ली ५ । मं ० १५

सूर्य , चन्द्रमा , तारे , बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नही कर सकते , किन्तु इन सबका प्रकाश  करने वाला एक वही है क्योकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा है । इसमें यह जानना चाहिए कि ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतंत्र प्रकाश करने वाला नही है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव है ।

अब ३३ देवता (न कि करोड़) के विषय में देखा जाये -

ये त्रिंशति त्रयस्परो देवासो बर्हिरासदन् | विदन्नह द्वितासनन् ||
ऋग्वेद अ ० ६ । अ ० २ । व० ३५ । मं ० १

त्रयस्त्रिं;शतास्तुवत भूतान्यशाम्यन् प्रजापति : परमेष्ठय्द्हिपतिरासीत्   ||
यजुर्वेद अ०  १४   मं०  ३१

त्रयस्त्रिं;शत् अर्थात व्यवहार के ये तैंतीस (33) देवता है :
8 (आठ) वसु ,
11 (ग्यारह) रूद्र ,
12 (बारह) आदित्य ,
1 (एक) इन्द्र ओर
1 (एक) प्रजापति |

उनमें से 8 वसु ये हैं - अग्नि , पृथिवि , वायु , अन्तरिक्ष , आदित्य , घौ: , चन्द्रमा ओर नक्षत्र |
इनके नाम वसु इसलिये है कि सब पदार्थ इन्ही में वास करते है और ये ही सबके निवास करने के स्थान है ।

११ रूद्र ये कहलाते हैं - जो शरीर में दश प्राण है अर्थात प्राण, अपान , व्यान , समान , उदान , नाग , कुर्म , कृकल , देवदत्त, धनज्जय और १ १ वां  जीवात्मा । क्योंकि जब वे इस शरीर से निकल जाते है तब मरण होने से उसके सब सम्बन्धी लोग रोते है ।  वे निकलते हुए उनको रुलाते है , इससे इनका नाम रूद्र है ।

इसी प्रकार आदित्य 1२ महीनो को कहते है, क्योकि वे सब जगत के पदार्थों का आदान अर्थात सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते है , इसी से इनका नाम आदित्य है ।

ऐसे ही इंद्र नाम बिजली का है , क्योकि वह उत्तम ऐश्वर्य की विधा का मुख्य हेतु है और यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहते है की उससे वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है । तथा पशुओं की यज्ञसंज्ञा होने का यह कारण है कि उनसे भी प्रजा का जीवन होता है ।  ये सब मिलके अपने दिव्यगुणों से ३ ३ देव कहाते है ।

इनमे से कोई भी उपासना के योग्य नही है, किन्तु व्यवहार मात्र की सिद्धि के लिए ये सब देव है, और सब मनुष्यों के उपासना के योग्य तो देव एक ब्रह्म ही है । 

स ब्रह्मा स विष्णु : स रुद्रस्य शिवस्सोअक्षरस्स परम: स्वरातट । -केवल्य उपनिषत खंड १ । मंत्र ८

सब जगत के बनाने से ब्रह्मा , सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु , दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से रूद्र , मंगलमय और सबका कल्याणकर्ता होने से शिव है ।

Sunday, September 15, 2013

अंधेर नगरी गबरगंड राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा - अशोक “प्रवृद्ध”

अंधेर नगरी गबरगंड राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा
           अशोक “प्रवृद्ध”
भारतीय समाज-शास्त्र में समाज को चार वर्गों में विभक्ति किया गया है।
यह विभाजन ईश्वरीय है।
चातुर्वर्ण्या मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः।
परमात्मा ने जब मानव की सृष्टि की तो उसको गुण, कर्म तथा स्वभाव से
चार प्रकार का बनाया। ये वर्ण भारतीय शब्द कोष में ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य तथा शूद्र नाम से जाने जाते हैं।
शासन करना और देश की रक्षा करना क्षत्रियों का कार्य है। ब्राह्मण
स्वभाववश क्षत्रिय का कार्य करने के अयोग्य होते हैं। ब्राह्मण का कार्य
विद्या का विस्तार करना है। मानव समाज में ये दोनों वर्ग श्रेष्ठ माने गये
हैं। वर्तमान युग में ब्राह्मण और क्षत्रिय, मानव समाज
का प्रतिनिधि राज्य है और राज्य स्वामी है क्षत्रिय वर्ग का भी और
ब्राह्मण वर्ग का भी। शूद्र उस वर्ग का नाम है जो अपने
स्वामी कि आज्ञा पर कार्य करे और उस कार्य के भले-बुरे परिणाम
का उत्तरदायी न हो। आज उत्तरदायी राज्य है। ब्राह्मण (अध्यापक वर्ग)
और क्षत्रिय (सैनिक) वर्ग राज्य की आज्ञा का पालन करते हुए भले-बुरे
परिणाम के उत्तरदायी नहीं हैं। इसी कारण वे शूद्र वृत्ति के लोग बन गये हैं।
यह बात भारत-चीन के सीमावर्ती झगड़े से और भी स्पष्ट हो गई है।
मंत्रिमण्डल जिसमें से एक भी व्यक्ति, कभी किसी सेना कार्य में नहीं रहा,
1962 की पराजय तथा 1952-1962 तक के पूर्ण पीछे हटने के कार्य
का उत्तरदायी है और राज्य-संचालन में क्षत्रियों (सेना)
का तथा ब्राह्मणों (अध्यापक वर्ग) का अधिकार नहीं है।
भारत का विधान ऐसा है कि इसमें ‘अँधेरे नगरी गबरगण्ड राजा, टके सेर
भाजी टके सेर खाजा’ वाली बात है। एक विश्व-विद्यालय के वाइस-चांसलर
अथवा उच्चकोटि के विद्वान को भी मतदान का भी अधिकार है।
उसी प्रकार उसके घर में चौका-बासन करने वाली कहारन को भी मतदान
का अधिकार है। देश में अनपढ़ और मूर्खों और अनुभव
विहीनों की संख्या बहुत अधिक है। वयस्क मतदान से राज्य
इन्हीं लोगों का है। दूसरे शब्दों में ब्राह्मण वर्ग (पढ़े-लिखे विद्वान) और
क्षत्रिय वर्ग के लोग इनके दास हैं।
यह कहा जाता है कि यही व्यवस्था अमरीका, इंग्लैंड इत्यादि देशों में भी है।
यदि वहाँ कार्य चल रहा है तो यहाँ क्यों नहीं चल सकता ‍? परन्तु हम भूल
जाते हैं कि प्रथम और द्वितीय विश्वव्यापी युद्ध और उन युद्धों के
परिणामस्वरूप संधियाँ एवं युद्धोपरान्त की निस्तेजता इसी कारण हुई
थी कि इन देशों के राज्य जनमत से निर्मित संसदों के हाथ में था।
प्रथम युद्ध में सेनाओं ने जर्मनी को परास्त किया, परन्तु संधि के समय
अमरीका तो भाग कर तटस्थ हो बैठ गया। वुडरो विलसन
चाहता था कि अमरीका ‘लीग ऑफ नेशंज़’ में बैठकर विश्व की राजनीति में
सक्रिय प्रकार भाग ले, परन्तु अमरीका की जनता ने उसको प्रधान
नहीं चुना। इसी प्रकार वे वकील जो योरोपियन राज्यों के प्रतिनिधि बन
वारसेल्ज की संधि करने बैठे तो उनमें न ब्राह्मणों की-सी उदारता थी, न
क्षत्रियों का-सा तेज। वे बनियों (दुकानदारों) और शूद्रों (मजदूर वर्ग) के
प्रतिनिधि वारसेल्ज जैसी अन्यायपूर्ण, अयुक्तिसंगत और अदूरदर्शिता-
पूर्ण संधि पर हास्ताक्षर कर बैठे।
दूसरे युद्ध का एक कारण वारसेल्ज की संधि थी और इंग्लैंड
की पार्लियामेंट तथा फ्रांस की कौंसिल की मानसिक और व्यवहारिक
दुर्बलता दूसरा कारण थी।
द्वितीय विश्व युद्ध में अमरीकन मिथ्या नीति के कारण ही स्टालिन मध्य
और पूर्वी योरोप तथा चीन पर अपने पंख फैला सका था।
इस समय भी प्रायः संसदीय प्रजातंत्रात्मक देशों में शूद्र और बनिये राज्य
करते हैं। हमारा कहने का अभिप्राय है, वे लोग राज्य करते हैं जो शूद्र और
बनियों को प्रसन्न करने की बातें कर सकते हैं। और क्षत्रिय तो इन नेताओं
के सेवक मात्र (वेतनधारी दास) हो गये अनुभव करते हैं यही कारण है
कि दिन-प्रतिदिन विश्व की दशा बिगड़ती जाती है।
संसार में दुष्ट लोगों का अभाव नहीं हो सकता। आदि सृष्टि से लेकर कोई
ऐसा काल नहीं आया, जब आसुरी प्रवृत्ति के लोग निर्मूल हो गये हों।
इसका स्वाभाविक परिणाम यह निकलता है कि संसार में युद्ध निःशेष
नहीं किये जा सकते। युद्ध इन आसुरी प्रवृत्ति के
मनुष्यों की करणी का फल ही होते हैं। अतः दैवी सम्पत्ति के मानवों को,
उन असुरों को नियंत्रण में रखने के हेतु सदा युद्ध के लिए तैयार
रहना चाहिए।
युद्ध में विजय क्षत्रिय स्वभाव के लोगों में शौर्य, शारीरिक तथा मानसिक
बल और ईश्वरीय-परायणता के कारण प्राप्त होती है।
इसी प्रकार जाति की शिक्षा तथा नीति का संचालन देश के
ब्राह्मणों (विद्वानों) के हाथ में होना चाहिए। उनके कार्य में बनियों और
शूद्रों का हस्ताक्षेप, यहाँ कि क्षत्रियों का नियन्त्रण भी,
विनाशकारी सिद्ध होता है।
देश का संविधान ऐसा होना चाहिए कि गुण कर्म स्वभाव से ये मानव वर्ग
अपने–अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र कार्य करते हुए भी, देश के न्याय-
शास्त्रियों द्वारा समन्वय से कार्य करें। न्याय परायण लोग सदा यह देखें
कि कोई वर्ग किसी दूसरे वर्ग-क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप न कर सके।
युद्ध लड़े जाते हैं। शान्ति स्थापना के लिए, परन्तु शान्ति काल में वैश्य
तथा शूद्र प्रवृत्ति के लोग ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग पर प्रभुत्व
जमा कर पुनः युद्घ के लिए क्षेत्र की तैयारी में लग जाते हैं। ये दोनों वर्ग
युद्ध से भयभीत आसुरी प्रवृत्ति के मनुष्यों को नियंत्रण में रखने में
अशक्त होते हैं। ऐसे शान्ति काल में असुर-फलते-फूलते हैं और श्रेष्ठ
लोगों को कष्ट देना अपना अधिकार मानने लगते हैं।
सर्वत्र और सदा शान्ति, मानव समाज में श्रेष्ठ प्रवृत्ति के लोगों के
निरंतर अधिकार से प्राप्त हो सकती है। श्रेष्ठता, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व,
वैश्य-वृत्ति और शूद्रों में संतुलन के लिए शान्ति-प्रिय लोगों को यत्नशील
रहना चाहिए। इस संतुलन को रखने में न्याय शास्त्री ब्राह्मण ही योग्य हैं,
परन्तु ये वयस्क मतदान से न तो निर्माण होते हैं न ही निर्वाचित होते हैं।

जय माँ भारती

जय माँ भारती

सौ बरीस जीयब या उकर से बेसी जीयब लेकिन स्वाधीन होयके जीयब।। - अशोक "प्रवृद्ध"

सौ बरीस जीयब या उकर से बेसी जीयब लेकिन स्वाधीन होयके जीयब।।
नागपुरी में प्रार्थना - अशोक "प्रवृद्ध"

ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताचछुक्रमुच्चरत ! पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात !! (यजु. ३६.८,१०,१२,१७,२४)

सुरूज भगवान् आउर उनकर प्रकाश , दुनिया में दिखेक रहेक तक जीयब।
सौ बरीस जीयब या उकर से बेसी जीयब लेकिन स्वाधीन होयके जीयब।।
उगथयं प्राज्ञ दिशा में
पहिले से ही पूरूब दिशा में !
देलयं द्रष्टि एहे रवि सबके
द्रीश्य होवैना निशा उषा में !
हे ईश सूर्य भव विश्व पूर्य, हमरे होयके "प्रवृद्ध" भय हीन जीयब!
सौ बरीस जीयब या उकर से बेसी जीयब लेकिन स्वाधीन होयके जीयब ।।
सूरूज भगवान विश्व प्रिय मनभावन
सौ बरीस तक देखब पावन !
सौ बरीस तक इनके जी लेब
सौ बरीस सुनब श्रुति कर गायन !
सौ बरीस बोल व्याख्यान करब ,  गुण गान भगवान् में लबलीन होय जाब।
सौ बरीस जीयब या उकर से बेसी जीयब लेकिन स्वाधीन होयके जीयब ।।
ना होंवब दीन सौ बरीस में
या अधिका आयु कर आकर्ष में ।
हर्ष - उत्साह , उत्कर्ष कर साथ जीयब
होयके विजय सब संघर्ष में ।।

हमरे जतना भी जीवन पावब , भगवान से कइरके  हृदय विलीन जीयब।
सौ बरीस जीयब या उकर से बेसी जीयब लेकिन स्वाधीन होयके जीयब ।।

Saturday, September 14, 2013

किसान और मनरेगा अधिनियम

किसान और मनरेगा अधिनियम

गोंदल सिंह गाँव का एक लघु कृषक था और अपने गाँव में रहकर खेती एवम पशुपालन करते हुए अपनी आजीविका मजे में चला रहा था। संपन्न नही था फिर भी खुशहाल जीवन जी रहा था। गोंदल सिंह को खेती से उसे बहुत प्यार था और किसान होने पर उसे गर्व था। वह कहता था - हम किसान अनाज न पैदा करें तो दुनिया भूख से मर जायेगी, जीवन में भोजन की आवश्यकता सबसे पहले और बाकी चीजें बाद में होती है। सत्य ही है, इतनी बडी दुनिया को अगर अनाज न मिले तो लोग पेट की आग शान्त करने के लिये एक दूसरे को मार कर खाने लगेंगे । गोंदल सिंह
स्वयं अपनी और बच्चों की तरक्की के लिये नित नये सपने देखता रहता था। कहता बच्चों को पढा लिखा कर बडा आदमी बनाउंगा, चाहे मुझे जितनी मेहनत करनी पडे लेकिन मुझे अपनी गरीबी दूर करना ही है, बच्चों को पढ़ा - लिखाकर शिक्षित करना है।

सन 2006 में भारतवर्ष की कांग्रेसी सरकार ने विदेशियों के इशारे पर महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना (मनरेगा) अधिनियम देश में लागू की तो गोंदल सिंह
बडा प्रसन्न हुआ कि अब गाँव के लडकों को शहरों मे मजदूरी करने और ईंट - भट्ठा में काम करने जाने की बजाय गाँव में ही रोजगार मिल सकेगा और गाँव की उन्नति भी होगी, लेकिन मनरेगा धरातल पर आते ही अन्य सरकारी योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ गयी । गाँव के लोग ग्राम प्रधान और मुखिया की मिली भगत से योजना में अपना नाम लिखवा लेते और बिना काम किये ही आधी मजदूरी झटक लेते और केन्द्र सरकार का गुणगान करते न थकते।

इधर योजना के दुष्प्रभाव के कारण गोंदल सिंह जैसे किसानों को खेती के लिये मजदूर मिलना मुश्किल होता जा रहा था, गाँव के मजदूर अब मनरेगा के बराबर मजदूरी व काम में ज्यादा सहूलियत माँग रहे थे । मरता क्या न करता ?  गोंदल सिंह
ने भी मजदूरों की बात मानते हुए उन्हे ज्यादा मजदूरी देनी शुरु कर दी । जिससे खेती की लागत तो बढ ही गयी, समय से काम भी न हो पाता.  खेती में लगातार घाटा होने से गोंदल सिंह
जैसे न जाने कितने किसान मनरेगा की भेंट चढ गये। मजदूरों की दिनानुदिन बढती हुई माँगो से तंग आ गोंदल सिंह और बहुत से अन्य किसानों ने अपने - अपने खेत साझा अधबटाई ( खेत को दुसरे कृषक को खेती करने के लिए दे देने पर किसान के द्वारा फसलोपाज में से आधा फसल अथवा उसका बाजार मूल्य जमीन मालिक को देने की प्रथा अधबटाई कहते हैं।)पर दे दिये। जब खेती बंद हुई तो जानवरों के लिये भूसा-चारा मिलना भी महंगा हो गया, लिहाजा गोंदल सिंह ने अपने पालतू जानवरों को भी एक एक कर बेच दिया।

गोंदल सिंह के पास अब कोई विशेष काम नहीं था, तो उसकी संगति भी गाँव के नेता टाईप लोगों से हो गयी, उन लोगों ने कुछ ले - दे कर गोंदल सिंह का नाम पहले मनरेगा में निबंधन करवाया और फिर बीपीएल सूची में दर्ज करवा दिया । बिना कुछ किये आधी मजदूरी और लगभग मुफ्त मिलने वाले अनाज से उसके जीवन की गाडी चलने लगी थी। जो गोंदल सिंह अपने परिवार की उन्नति बच्चों की तरक्की की बात करता था, वह अब सरकारी योजनाओं से कैसे लाभ लिया जाये इसकी बात करता था। बच्चों को उसने उनके हाल पर छोड दिया था, कहता इनके भाग्य में लिखा होगा तो कमा-खा लेंगे।

मनरेगा ने गोंदल सिंह जैसे लाखों किसानों का जीवन जीने का तरीका बदल दिया ,जो गोंदल सिंह पहले मेहनत से अपने परिवार का जीवन बदलना चाहता था, वह अब भाग्य भरोसे बैठ गया था।

Wednesday, September 11, 2013

पश्चिम ने चेचक का टीका लगाना भारतवर्ष से सीखा - अशोक "प्रवृद्ध"

पश्चिम ने चेचक का टीका लगाना भारतवर्ष से सीखा
               अशोक "प्रवृद्ध"
पुरातन भारतवर्ष और उसके सभ्यता - संस्कृति, ज्ञान - विज्ञानं , भाषा - साहित्य, तकनीकी आदि विश्व में सदैव ही गौरवमयी रहे हैं और सम्पूर्ण विश्व भारतवर्ष का ऋणी रहा है।१७१० के समय में एक आङ्ग्ल - नागरिक भारतवर्ष आया था। उसका नाम था डा० ओलीवर । वह भारतवर्ष के कलकत्ता शहर में आया बंगाल घूमा और भ्रमण के इसने एक दैनन्दिनी अर्थात डायरी लिखी। उसने अपनी दैनन्दिनी अर्थात डायरी के एक पन्ने में भारतीय ज्ञान - विज्ञानं की प्रशंसा करते हुए उस समय महामारी माने जाने वाले चेचक के इलाज के लिए भारतवर्ष में प्रचलित टीके की भारतीय पुरातन पद्धति का वर्णन किया है । जिसका एक छोटा सा छंद अर्थात एक संक्षिप्त टिपण्णी आपके समक्ष प्रस्तुत है -

डॉo ओलीवर अपनी दैनन्दिनी में लिखता है, कि मैने भारत में आकर पहली बार देखा कि इलाज के द्वारा चेचक जैसी महामारी को कितनी आसानी के साथ भारत वासी ठीक कर लेते हैं। आपको विदित हो कि सत्रहवी शताबदी में सम्पूर्ण विश्व में एक महामारी फ़ैली थी, पूरे विश्व भर में इसका इलाज़ नही था। अफ़रीका में लेटिन अमेरीका में लाखों लोग मर गये थे इसके कारण ये महामारी थी बीमारी नही थी।
अब उस डा० ने क्या देखा कि भारतवासी इस बीमारी से लड़्ने के लिये टीका लगाते थे और वो कहता है की मैने दूनिया में पहली बार देखा डा० होते हुए। डा० ओलीवर इंगलैण्ड में एक बहुत बड़ा नाम है एक बड़ी हस्ती रहे हैं।
तो वो अपनी डायरी में लिखते है कि उस समय भारतवर्ष मे चेचक की बिमारी सबसे कम है क्योंकी टीका लगता था। अब टीका लगाने का तरीका क्या है। टीका जो लगता था एक सुई जैसी वस्तू से लगता था जिसके बाद थोड़ा सा ज्वर होता था और तीन दिन में आदमी के शरीर में चेचक से लड़ने की प्रतीरोधक शक्ति मिल जाती थी। एक बार टीका जिसने ले लिया जिंदगी भर के लिये वो चेचक से मुक्त हो गया।
डॉo ओलीवर ने चेचक की इलाज की भारतीय टीका पद्धति से पश्चिम को अवगत कराया। इसके बाद ही पश्चिम में चेचक से बचाव के सन्दर्भ में चिकित्सीय उपचार- प्रक्रिया के आरम्भ होने की विवरणी इतिहास में अंकित मिलता है।
यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि......
"अंग्रेजों ने टीका लगाना भारत से सीखा"

अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

  अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”   जैसा कि पूर्व से ही अंदेशा था कि पूर्व चुनाव आयुक्त अनू...