Saturday, November 30, 2013

भारतवर्ष में गलत राजनीति के अवलम्बन से भारतवासी आज भी मानसिक , आत्मिक दासतावद्ध - अशोक "प्रवृद्ध"

भारतवर्ष में गलत राजनीति के अवलम्बन से भारतवासी आज भी मानसिक , आत्मिक दासतावद्ध
अशोक "प्रवृद्ध"


भारतवर्ष में आङ्ग्ल काल से ही गलत राजनीति का अवलम्बन हो रहा है । इसके परिणामों की भयंकरता तो छद्म स्वाधीन प्राप्त भारतवर्ष में स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगी है । खाङ्ग्रेस अर्थात काङ्ग्रेस की नीति जो 1916 से आरम्भ हुई और जिसको मोहनदास करमचंद गाँधी की दूषित दृष्टि ने 1920 से अपना रंग चढ़ाया था और जिसके साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समाजवाद की पैबन्द लगाई थी , देश को अपार हानि पहुँचाने वाली सिद्ध हुई है ।

छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में देश के भाग्य की बागडोर उन शक्तियों के हाथ में नहीं आई जो स्वाधीनता - संग्राम काल में राष्ट्रवादी विचारधारा के अनुसार संघर्ष कर रहे थे , बल्कि छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में काङ्ग्रेस , गाँधी और जवाहर लाल के द्वारा निर्मित शक्तियाँ राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त कर गईं (लीं) । जिससे देश घोर विपत्ति में पड़ गया है और देश में मुसीबत के बादल आते रहे हैं । दूसरी ओर जनता को चिकनी - चुपड़ी बातों से बरगलाकर पथभ्रष्ट किया जा रहा है ।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि देश में स्वाधीनता - संग्राम काल से लेकर अब तक हिन्दू जाति ही स्वराज्य चाहती रही है । कुछ , जिनकी गणना उँगलियों पर की जा सकती है , मुसलमान और ईसाई भी हिन्दुओं का साथ दे रहे हैं । इस पर भी हिन्दुओं को हानि पहुंचाने के लिए पूर्ण खाङ्ग्रेस अर्थात समूचा काङ्ग्रेस और उसके नेताओं तथा उसके छद्म धर्मनिरपेक्ष सहयोगियों का यह प्रयास चल रहा है । खाङ्ग्रेस अंग्रेज नीतिज्ञों की उपज थी । इसमें केवल एक विशेष शिक्षा - दीक्षा के लोग ही शामिल हो सकते थे । उन्होंने इस संस्था को एक ऐसे मार्ग पर चलाया कि हम धर्म , संस्कृति और देश - प्रेम से भी विहीन होकर देश को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष करते रहे । लेकिन लम्बे संघर्ष के पश्चात् खाङ्ग्रेस की अदूरदर्शिता स्वार्थपरक राजनीति के कारण देश - विभाजन की शर्त पर स्वतंत्रता के नाम पर छद्म स्वाधीनता प्राप्त कर मन मसोसकर रह बैठे ।

1947 में छद्म स्वाधीनता की प्राप्ति हुई , उन कोटि - कोटि भारतीयों के प्रयत्न से , जो इसके लिए प्रत्येक प्रकार का त्याग कर रहे थे , परन्तु उन कोटि - कोटि भारतीयों का नेतृत्व प्राप्त हुआ उनको , जो न तो हिन्दू थे , न ही देशभक्त । जिनकी सहानुभूति उनके साथ थी , जो देश के धर्म और देश की संस्कृति के घोर शत्रु थे । ऑक्सफोर्ड , कैम्ब्रिज और अलीगढ के स्नातकों के षड्यंत्र से देश तथाकथित स्वतंत्र होकर भी मानसिक -आत्मिक दासता की श्रृंखलाओं में आज भी बंधा हुआ है ।रतवर्ष में गलत राजनीति के अवलम्बन से भारतवासी आज भी मानसिक , आत्मिक दासतावद्ध
अशोक "प्रवृद्ध"


भारतवर्ष में आङ्ग्ल काल से ही गलत राजनीति का अवलम्बन हो रहा है । इसके परिणामों की भयंकरता तो छद्म स्वाधीन प्राप्त भारतवर्ष में स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगी है । खाङ्ग्रेस अर्थात काङ्ग्रेस की नीति जो 1916 से आरम्भ हुई और जिसको मोहनदास करमचंद गाँधी की दूषित दृष्टि ने 1920 से अपना रंग चढ़ाया था और जिसके साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समाजवाद की पैबन्द लगाई थी , देश को अपार हानि पहुँचाने वाली सिद्ध हुई है ।

छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में देश के भाग्य की बागडोर उन शक्तियों के हाथ में नहीं आई जो स्वाधीनता - संग्राम काल में राष्ट्रवादी विचारधारा के अनुसार संघर्ष कर रहे थे , बल्कि छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में काङ्ग्रेस , गाँधी और जवाहर लाल के द्वारा निर्मित शक्तियाँ राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त कर गईं (लीं) । जिससे देश घोर विपत्ति में पड़ गया है और देश में मुसीबत के बादल आते रहे हैं । दूसरी ओर जनता को चिकनी - चुपड़ी बातों से बरगलाकर पथभ्रष्ट किया जा रहा है ।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि देश में स्वाधीनता - संग्राम काल से लेकर अब तक हिन्दू जाति ही स्वराज्य चाहती रही है । कुछ , जिनकी गणना उँगलियों पर की जा सकती है , मुसलमान और ईसाई भी हिन्दुओं का साथ दे रहे हैं । इस पर भी हिन्दुओं को हानि पहुंचाने के लिए पूर्ण खाङ्ग्रेस अर्थात समूचा काङ्ग्रेस और उसके नेताओं तथा उसके छद्म धर्मनिरपेक्ष सहयोगियों का यह प्रयास चल रहा है । खाङ्ग्रेस अंग्रेज नीतिज्ञों की उपज थी । इसमें केवल एक विशेष शिक्षा - दीक्षा के लोग ही शामिल हो सकते थे । उन्होंने इस संस्था को एक ऐसे मार्ग पर चलाया कि हम धर्म , संस्कृति और देश - प्रेम से भी विहीन होकर देश को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष करते रहे । लेकिन लम्बे संघर्ष के पश्चात् खाङ्ग्रेस की अदूरदर्शिता स्वार्थपरक राजनीति के कारण देश - विभाजन की शर्त पर स्वतंत्रता के नाम पर छद्म स्वाधीनता प्राप्त कर मन मसोसकर रह बैठे ।

1947 में छद्म स्वाधीनता की प्राप्ति हुई , उन कोटि - कोटि भारतीयों के प्रयत्न से , जो इसके लिए प्रत्येक प्रकार का त्याग कर रहे थे , परन्तु उन कोटि - कोटि भारतीयों का नेतृत्व प्राप्त हुआ उनको , जो न तो हिन्दू थे , न ही देशभक्त । जिनकी सहानुभूति उनके साथ थी , जो देश के धर्म और देश की संस्कृति के घोर शत्रु थे । ऑक्सफोर्ड , कैम्ब्रिज और अलीगढ के स्नातकों के षड्यंत्र से देश तथाकथित स्वतंत्र होकर भी मानसिक -आत्मिक दासता की श्रृंखलाओं में आज भी बंधा हुआ है ।

Saturday, November 23, 2013

वेदों में मनुष्य के चरित्रं निर्माण सम्बन्धी मन्त्र

वेदों में मनुष्य के चरित्रं निर्माण सम्बन्धी मन्त्र

वेद समस्त धर्म का मूल है और समस्त ज्ञान का स्त्रोत है ।
वेद, ज्ञान का महासागर हैं । हमारे अस्तित्व का ऐसा कोन- सा पक्ष है जिसकी मीमांसा वेदों में नहीं मिलती । ये एक ज्ञानी भक्त के लिए भक्ति का सरोवर है, नीतिज्ञों के लिए नीतिग्रंथ, तो शोधार्थियों के लिए वैज्ञानिक सूत्रकोष है । वेदों में मनुष्य को चरित्र निर्माण संबंधी शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से भी अनेकों प्रेरणात्मक मंत्र दिये गये हैं। इनमें से कुछ मंत्र निम्नांकित हैं -

परिमाग्ने दुश्चरिताद बाधस्वा मा सुचरिते भज।
अग्निदेव आप हमें दुश्चरित से सदा बचावें और सुचरित में सदा लगावें।

अहमनृतात सत्यमुपैमि।
 मैं असत्य से सत्य को प्राप्त होता हूं।

 परि माग्ने…. उदायुषा स्वायुषोदस्थाममृतां अनु।
 अग्निदेव मुझे दुश्चरित से हटाकर सुचरित की ओर प्रेरित करो।

 वयं देवानां सुमतौ स्याम
 हम देवों की कल्याणकारी बुद्घि को प्राप्त करें।

 मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।
 हम सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें।

मा गृध: कस्य स्विद्घनम।
किसी के धन की मत कामना करो।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान। 
हमें सन्मार्ग द्वारा धनप्राप्ति करने के लिए प्रेरित करो।

 उत न: सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टय:।
 स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि। 
दुर्गुणों और पापों को क्षीण करने वाले प्रभो। हमारे शत्रु भी हमें सच्चरित्रता के कारण श्रेष्ठ और सौभाग्यशाली कहें। हम सच्चरित्रता के द्वारा आप की कल्याणकारी भक्ति में लीन रहें।

भद्रं भद्रं क्रतुमस्मासु धेहि।
 प्रभो हम लोगों के सुख और कल्याणमय उत्तम संकल्प, ज्ञान और कर्म को धारण करें। 

स्वस्ति पंथामनुचरेम।
 हम कल्याणकारी मार्ग के पथिक बनें। 

जीवाज्योतिरशीमहि। 
हम शरीरधारी प्राणी विशिष्ट ज्योति को प्राप्त करें।

 कृधो न यशसो जने। 
हमें अपने देश में यशस्वी बनाएं। मां की ब्रह्माद्विषं वन: विद्वानों में द्वेष करने वालों से हम दूर रहें। 

वयं सर्वेषु यशस: स्याम।
 हम समस्त जीवों में यशस्वी बनें।

सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु।
 हमारे लिए सभी दिशाएं कल्याणकारी हों। 

शुक्रोअसि स्वरसि ज्योतिरसि। 
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम।
 मनुष्य तुम्हारी आत्मा वीर्यवान, तेजस्वी, आन्नदयुक्त और प्रकाशस्वरूप है। तू श्रेष्ठता को प्राप्त कर और दूसरों से आगे बढ़ जा।

 उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम। सुपर्णयातुमुत गृधयातुं दृषदेव प्रमृण रक्ष इंद्र।।
 इंद्र तू उल्लू की चाल वाले अर्थात मोह को, उल्लू के बच्चे की चाल वाले अर्थात ईर्ष्या द्वेष को कुत्ते की चाल वाली सत्वर, वृत्ति को, कबूतर जैसी कामवासना को, गरूड़ की चाल वाले अहंकार को, गृध की चाल वाले लोभ को-ऐसी राक्षसी भावनाओं को कठोरता से मसल दे।

वैश्व दैवीं वर्चस आ रभध्वं शुद्घा भवतं: शुचय: पावका:। अतिक्रामन्तो दुरिता पदानि शतं हिमा: सर्ववीरा मदेम।।
पवित्रता और तेज के लिए उत्तम ज्ञान वाली वेदवाणी के द्वारा पवित्र जीवन बनाते हुए दूसरों को भी पवित्र मार्ग के लिए प्रभो प्रेरणा दो। पापप्रेरक कार्यों का अतिक्रमण करते हुए हम सौ वर्ष तक पवित्रता के साथ आनंद से रहें।

उद्यानं ते पुरूष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि। आ हिं रोहेमममृतं सुखं रथमथ जिविर्विदथमा वदामि।।
मानव तेरे जीवन का लक्ष्य ऊपर को चढ़ना है, नीचे को जाना नही, उन्नति ही करनी है, अवनति नही। आगे प्रभु प्रेरणा देते हैं-हे मानव इस प्रकार जीने के लिए मैं तुझे बल देता हूं। इस जीवनरूपी रथ पर चढ़कर उन्नति को प्राप्त कर और संसार में अपने चरित्र के बल पर प्रशंसित होकर दूसरों को भी प्रेरणा दे।

उत्तिष्ठत संनह्वïध्वं मित्रा देवजना यूयम।
 इमं संग्रामं संजित्य यथालोकम वितिष्ठध्वम।। 
मानव तुम अपने आत्मबल के साथ इस शरीर, मन और इंद्रियों के शासक हो। अपने सर्वश्रेष्ठ मित्रों के साथ तुम पाप वासना का त्याग करने के लिए तैयार हो जाओ। इस पाप के विरूद्घ संग्राम को जीतकर अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करो।

अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शांतिवाम।।
पुत्र पिता और माता के साथ उनके अनुकूल व्यवहार करे। पत्नी, पति के साथ मीठी और शांतिप्रिय वाणी बोले।

सहृदयं सांमनस्यमिविद्वेषं कृणोमि व:।
अन्यो अन्यमभिदूर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।
ओ मनुष्य तुम अपने जीवन में एक दूसरे के प्रति सदाचार के मार्ग पर चलकर स्नेह युक्त हृदय वाले, एक सदृश श्रेष्ठ उत्तम विचारों वाले और वैर का सर्वथा त्याग करते हुए जीवन व्यतीत करो। तुम प्राणियों के साथ ऐसा नि:स्वार्थपूर्ण प्रेम करो जैसे गौ अपने उत्पन्न बछड़े के साथ करती है। उपर्युक्त वैदिक भावनाएं चरित्र निर्माण की सीढ़ियां हैं। इन भावनाओं को अपने जीवन में धारण कर मनुष्य श्रेष्ठ चरित्रवान हो सकता है।

Tuesday, November 19, 2013

वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई को उनकी जन्मदिन पर कोटि- कोटि नमन



मित्रों !
आज का दिन भी गजब का दिन हैं ।
एक तरफ ख़ुशी तो एक तरफ गम है ।
स्वाधीनता सेनानी वीरांगना लक्ष्मी बाई का जन्म दिन
पर दिल ख़ुशी मनाने को कहता है।
तो धर्मभ्रष्टा , कुलनाशिनी इंदिरा नेहरू गाँधी उर्फ़ मैमून बीवी की जन्म
को स्मरण कर मन दुखी होता है ।
फिर भी आप सभी भारतीय बंधू - बांधवियों को अंग्रेजों को छक्के छुड़ा देने वाली महान
स्वाधीनता सेनानी वीरांगना लक्ष्मी बाई की जन्म दिवस की ख़ुशी में बहुत
- बहुत शुभ कामनाओं के साथ ही रानी लक्ष्मी बाई को दिनानुदिन का कोटि -
कोटि नमन ।

मोहनदास करमचंद गाँधी देश के लिए उचित नेता नहीं थे। महात्मा जी एक भीरू नेता थे। नेता तो साहसी व्यक्ति होना चाहिए । - अशोक "प्रवृद्ध"

मोहनदास करमचंद गाँधी देश के लिए उचित नेता नहीं थे। महात्मा जी एक भीरू नेता थे। नेता तो साहसी व्यक्ति होना चाहिए ।
अशोक "प्रवृद्ध"


अहिंसा सर्वदा और सर्वत्र मिथ्या सिद्धांत है । यह व्यापक धर्मों में नहीं है । योग साधना करने वालों के लिए अहिंसा एक व्रत है , परन्तु जन साधारण के लिए यह नहीं है । इसके अतिरिक्त भी प्रत्येक धर्म - कर्म में भी धर्म उद्देश्य होना चाहिए ।
"शान्तिः शान्तिरेव च ।"
शान्ति शान्ति स्थापित करने के लिए हो ।

यदि किसी समय शान्त रहने से अशान्ति फैलती है तो शान्ति अशान्ति का साधन बन जाती है । इसी प्रकार अन्य धर्मों की बात है । जैसे - सत्य । सत्य सत्यवक्ताओं की रक्षा के लिए है । जो सत्य रक्षा नहीं कर सकता , वह धर्म नहीं हो सकता ।
जैसे सदा हिंसा नहीं चल सकती , वैसे ही सदा अहिंसा भी एक मिथ्या नीति है । इस कारण कम से कम मैं तो अहिंसा का भक्त नहीं हूँ और कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति सर्वदा और सर्वत्र अहिंसा का भक्त नहीं हो सकता ।

यह प्रायः देखा जाता है कि हिंसा - अहिंसा का सम्बन्ध आत्मा के साथ है । यह स्वभाव से चलती है । अतः जिस व्यक्ति का स्वभाव हिंसा करना नहीं , वह हिंसा नहीं कर सकेगा । इसी प्रकार अहिंसा करने का स्वभाव सबका नहीं हो सकता । 
हमारी सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय स्वभाव से भिन्न - भिन्न श्रेणियां मानी गई हैं । क्षत्रिय वर्ग के लोग जब धर्म की स्थापना के लिए हिंसा करते हैं , तो वे पाप नहीं करते । 

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि किस प्रकार जाना जाये कि अमुक परिस्थिति में हिंसा करना ठीक है अथवा अहिंसा ?
यह एक अति दुस्तर कार्य है । इस पर भी इसका निर्णय विपक्षी को देखकर किया जा सकता है । विपक्षी का निर्णय करना कठिन है । विपक्षी असुर जो है , जो " आत्मवत सर्व भूतेषु " के सिद्धांत को नहीं मानता , वह अपने दैवी पक्ष का नहीं हो सकता । वह असुर है और शत्रु है । धर्म , शत्रु को पराजित कर अपने अधीन रखने में है । इसके लिए साम , दाम , दंड , भेद नीति समय - समयानुसार चलाये जा सकते हैं । जो शत्रु को पराजित करने के लिए उचित नीति का अवलम्बन करते हैं , वे नेता कहाते हैं । मोहनदास करमचंद गाँधी देश के लिए उचित नेता नहीं थे। महात्मा जी एक भीरू नेता थे। नेता तो साहसी व्यक्ति होना चाहिए । महात्मा जी दस - बीस कांस्टेबलों की हत्या होते देख , भयभीत हो उठते थे । एक बार हत्याएं हुई थी उत्तरप्रदेश में और गाँधी ने सत्याग्रह बंद कर दिया था मद्रास प्रान्त में । इसके अतिरिक्त वे अपने कार्यों से आदर्श अहिंसा न तो विपक्षी में उत्पन्न कर सके थे  और न ही अपने पक्ष में । इस कारण हत्याओं के दर्शन से देश - व्यापी आन्दोलन को बंद कर देना उनमें साहसहीनता प्रकट करता है । 
यदि तो वे कांस्टेबल शान्तिपूर्वक उनको पकड़ने आये होते  और तब उनकी हत्या होती , तब भी कोई बात थी। वे तो लाठी चलाने की नीयत से आये थे । 

इस प्रकार यदि देश पर शत्रु आक्रमण कर दे तो उनके सामने अहिंसा की नीति अशुद्ध होगी । यह धर्म नहीं हो सकता ।
स्वाधीनता - संग्राम में हिंसक क्रान्तििकारी अपना कार्य कर रहे थे और गाँधी जी इस कार्य के लिए स्वभाव से अयोग्य थे । वे शांतिमय ढंग पर आन्दोलन चला सकते थे और कुछ लोग थे जो इतना कुछ भी नहीं कर सकते थे । वे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को सम्मतिमात्र दे सकते थे । ऐसा ही सन् 1901से 1919 तक नरम दल के लोग करते रहे थे । तीनों प्रकार के लोग अपने - अपने स्वभावानुसार कार्य सकते थे । तीनों के कार्यों का उद्देश्य एक होना चाहिए था और वह होना चाहिए था देश में स्वराज्य उत्पन्न करना । इन तीनों ही को एक - दुसरे की निंदा और दूसरों का मार्ग अवरूद्ध नहीं करना चाहिए था । ये तीनों समानांतर रेखा में कार्य कार्य सकते थे । 

दोष हिंसात्मक आन्दोलन में नहीं , प्रत्युत हिंसावादियों के विरोध करने में था । एक ऐसा भी काल अर्थात समय आया था जब नरम दल वाले गोखले , फिरोज शाह मेहता इत्यादि गरम दल के तिलक , लाला लाजपत राय , इत्यादि को देश का शत्रु कहते थे । फिर ऐसा समय भी आया था और गांधीवादी बाल गंगाधर तिलक इत्यादि की निंदा करने लगे । गाँधीवादियों ने एनीबिन्सेंट की निंदा करते हुए उसको क्षेत्र से बाहर कर दिया था । गाँधी जी ने भगत सिंह की भी निंदा की थी । ये सब घटनाएँ स्पष्टतः गाँधी के दोषयुक्त व्यवहार को दरशाता है । 

जब गाँधी जी ने सब वृद्ध और अनुभवी नेता की सम्मति के विरूद्ध खिलाफत को भारतवर्ष की राजनीति में सम्मिलित की थी , तब कुछ नेताओं ने इसको नहीं माना था । तब न मानने वालों को क्षेत्र से बाहर कर दिया गया था । यह अनुचित था और पाप - कर्म था । परन्तु उस समय नरम दल के नेताओं को और गाँधी जी को समझाने वाला कोई दिखाई नहीं देता था । इसका कारण था , देश में ब्राह्मण वर्ग अर्थात विद्वान वर्ग का अभाव था , अन्यथा वे देश में इस विषमता को सुलझा देते । 
मित्रों ! 

वर्तमान में भी भारतवर्ष में विद्वान अर्थात ब्राह्मण - वर्ग का अभाव है , यही कारण है कि धूर्तों और चापलूसों की बन आई है , और विदेशी मानसिकता वाली खाङ्ग्रेस पार्टी और उसके धर्मनिरपेक्ष सहयोगी भारतवासियों को मूर्ख बना देश को लूटने , बेचने और अपमानित करने का राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को खुलेआम अंजाम देने की साहस अर्थात हिमाकत कर रहे हैं ।

Monday, November 18, 2013

अधिकारी से अधिकार लेकर अयोग्य को योग्य पद देना राष्ट्रघातक और घोर सांप्रदायिक कार्य है । अशोक "प्रवृद्ध"

अधिकारी से अधिकार लेकर अयोग्य को योग्य पद देना राष्ट्रघातक और घोर सांप्रदायिक कार्य है ।
अशोक "प्रवृद्ध"


 देश की प्रगति तो हिन्दू - मुसलमान अथवा भारतवर्ष के सभी जातियों की बराबर - बराबर अर्थात सामान रूप से तरक्की से ही होती है और होनी चाहिए ।अयोग्यों को योग्य पदों अर्थात पदवियों पर नियुक्त करने से देश की प्रगति रूकती है । अयोग्यों को योग्य पदों अर्थात पदवियों पर नियुक्त करना अर्थात योग्यता न रखने के बावजूद किसी खास समूह अर्थात जाति को जबरन फायदा पहुँचाने के उद्देश्य से नियुक्त करना साम्प्रदायिकता है । यह बहुसंख्यकों के लिए अहितकर है , यह काम इस देश में चलेगा नहीं ।

 हिन्दू - मुसलमानों में फिरकापरस्ती के बिनाह पर कोई काम न हो अर्थात समूह और जाति के आधार पर कोई नियुक्ति , कोई योजना , कोई अधिनियम , कोई कानून , कोई कार्य नहीं होनी चाहिए , अपितु योग्यता और आवश्यकता के आधार पर ही होनी चाहिए ।

मनुष्य एक विचारशील प्राणी है । वह विचार करेगा ही । कोई इसे रोक नहीं सकता । मनुष्य जब विकार करेगा तो उसे दूसरों के समक्ष प्रकट भी अवश्य करेगा । इससे अनेकों से उसका विचार - एक्य नहीं होगा , तब विचार के आधार पर श्रेणियाँ बन जाएँगी । यह कोई रोक नहीं सकता । मजहबी आर्थिक , भौगोलिक , भाषा और अन्य विषयों के सम्प्रदाय यो रहेंगे ही ।  जो करने की बात है , वह यह कि सम्प्रदाय - परिवर्तन बल , छल , कपट से न हो । संप्रदाय वालों को प्रत्येक प्रकार की स्वतंत्रता हो , परन्तु उनको किसी दुसरे स्व अधिक स्वतंत्रता न हो । अर्थात कोई संप्रदाय किसी दुसरे के अधिकार को छिन्न न चाहे । अभिप्राय यह है कि सम्प्रदाय बनेंगे ही । खराबी तो तब होती है , जब किसी को छल - बल से सम्प्रदाय - परिवर्तन के लिए कहा जाता है और झगडे तब होते हैं , जब एक सम्प्रदाय वाले दूसरे से विशेषाधिकार माँगने लगते हैं ।

अर्थात सम्प्रदायों के रहने से कोई हानि नहीं । हानि तो तब होती है , जब सम्प्रदाय वालों को सम्प्रदाय के आधार पर अधिकार और  शक्ति मिलने लगे , और यही भारतवर्ष में हो रहा है ।

मुसलमान बने रहें , नमाज पढ़ते रहें , कुरान की तलावत करते रहें , अथवा उनकी मजहबी रस्म होती रहें , इसाई भी अपनी मजहबी रस्म अदा करते रहें । अनुसूचित जनजाति के सदस्य भी अपनी आदिवासिता निभाते रहें । लेकिन जब आर्थिक , सामाजिक , नागरिक अथवा राजनीतिक अधिकारों का बंटवारा हो , तब साप्रदायिकता घातक हो जाएगी । किसी पिछड़ी श्रेणी को शिक्षा , चिकित्सा अथवा अन्य सुविधाएँ मिले , तो एक बात है ,परन्तु बिना योग्यता के अधिकार देना तो एक दूषित साम्प्रदायिकता होगी । 

अधिकारी से अधिकार लेकर अयोग्य को योग्य पद देना राष्ट्रघातक और घोर सांप्रदायिक कार्य है ।
मुसलामानों को विशेषाधिकार देने की बात सदैव ही करने और कहने वाले मोहनदास करमचन्द गाँधी , जवाहर लाल नेहरू इत्यादि इसी दूषित साम्प्रदायिकता के घोर पक्षपाती थे और उनकी दूषित साम्प्रदायिकता की नीति से भारतवर्ष भारी मुसीबत में फंस गया है , जिससे मुक्ति मिलने की कोई उम्मीद भारतवर्ष को निकट भविष्य में दिखलाई नहीं देती । 

Sunday, November 17, 2013

जो उस देश के धर्मयुक्त हितों को समझ उसको संपन्न करने में लगे रहते हैं , वही राष्ट्रवादी हैं और जो राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते , वे अराष्ट्रवादी हैं । - अशोक "प्रवृद्ध"

जो उस देश के धर्मयुक्त हितों को समझ उसको संपन्न करने में लगे रहते हैं , वही राष्ट्रवादी हैं और जो राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते , वे अराष्ट्रवादी हैं ।
अशोक "प्रवृद्ध"


जो राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते , वे अराष्ट्रवादी हैं । राष्ट्र एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों के समुदाय का नाम है । जो उस देश के धर्मयुक्त हितों को समझ उसको संपन्न करने में लगे रहते हैं , वही राष्ट्रवादी हैं ।

आत्मनः प्रतिकुलानि परेषां न समाचरेत्  ।

यह राष्ट्रवाद है। यही धर्मयुक्त हित भी है ।

केवल मुसलमानों को प्रभुता मिलेगी अथवा राष्ट्र में बहुसंख्य्स्क के हितों की अनदेखी कर सिर्फ मुसलमानों को प्रश्रय देना , और उनके सुख - सुविधा और मजहबी कृत्यों को बढ़ावा देना , अनुदान उपलब्ध कराना , यह राष्ट्रीयता के अनुकूल नहीं है । यह सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीयता विरोधी कृत्य है , अन्य कुछ नहीं । परन्तु अत्यंत दुखद और खेद की बात है कि छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में अधिकांश समय तक केंद्र की सत्ता में काबिज रहने वाली खाङ्ग्रेस पार्टी खुल - ए - आम राष्ट्रीयता - विरोधी कृत्य करते हुए मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत बहुसंख्यकों के मुकाबले मुस्लिमों को अतिरिक्त मजहबी छूट के साथ ही अनुदान और अन्यान्य सुविधाएँ उपलब्ध करा रही है और बहुसंख्यक तालाब किनारे मछली के इन्तजार में खड़े बगुले की भांति टुकुर - टुकुर देखने में ख़ुशी महसूस कर रहे हैं ।
मुसलमानों ने भारतवर्ष में कभी भी अपने व्यवहार से अपना राष्ट्रवादी हाेना सिद्ध नहीं किया अर्थात राष्ट्र के अंग होने का परिचय नहीं दिया । इक्के - दुक्के अप्रख्यात मुसलमानों को छोड़ बहुसंख्यक मुसलमानों ने कभी भी एक जाति के रूप में देश में देशवासियों सा व्यवहार नहीं किया । मुसलमान सदा राष्ट्रविरोधी व्यवहार चलाते रहते हैं ।

अठारह सौ संतावन के स्वतन्त्रता - संग्राम में मुसलमान सम्मिलित हुए । वह केवल इसी कारण कि बहादुर शाह जफ़र को वे पुनः भारतवर्ष का सम्राट बनाना चाहते थे । 1921 - 22 के आन्दोलन में भी मुसलमान सम्मिलित हुए थे , परन्तु वह भी एक ओर मुसलमानों के लिए विशेषाधिकार की शर्त करके और दूसरे खिलाफत को बहाल कराने के लिए । इन दो अवसरों के अतिरिक्त मुसलमानों ने भारतवर्ष में स्वराज्य - प्राप्ति के लिए कुछ भी यत्न नहीं किया । इसके बाद भी अंग्रेजों के द्वारा भारतवर्ष छोड़ भागने के समय मुसलमानों को भारतवर्ष का विभाजन करके पुरस्कारस्वरूप अलग इस्लाम राष्ट्र दिया गया और फिर शेष भारतवर्ष को भी इस्लामी राष्ट्र के रूप में तब्दील करने का अघोषित ठेका अंग्रेजों ने और फिर छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में अंग्रेजों के आत्मज काले अंग्रेजों , खान्ग्रेसियों ने दे दिया ।

खान्ग्रेस जैसी अराष्ट्रीय संस्था से निजात पाना ही देश के लिए प्रवृद्धकारी , कल्याणकारी और जनोपयोगी होगा । - अशोक "प्रवृद्ध"

खान्ग्रेस जैसी अराष्ट्रीय संस्था से निजात पाना ही देश के लिए प्रवृद्ध्कारी , कल्याणकारी और पजनोपयोगी होगा ।
अशोक "प्रवृद्ध"

जब तक हमारे देश में हम अपना नेता , भारतीय शिक्षा पद्धति से शिक्षित नहीं बनाते , तब तक देश - कल्याण सम्भव नहीं ।
 अभारतीय पद्धति से पठित विद्वान तो मुसलमानों से देश को सात सौ वर्ष में भी स्वतंत्र नहीं करा सके थे। उस समय तक भारतीय शिक्षा - पद्धति समाप्त हो चुकी थी । हमारे विश्वविद्यालयों पर बौद्धों और विदेशियों का प्रभुत्व जम चुका था । उस समय भारतवर्ष में तीन बड़े विश्वविद्यालय थे । एक तक्षशिला , दूसरा नालन्दा विश्वविद्यालय और तीसरा मदुरा शिक्षा केंद्र । एक उज्जयिनी में भी था , परन्तु वह मुसलमानों के आने के बहुत पूर्व ही बंद हो चुका था । मदुरा का शिक्षा केंद्र नवीन वेदान्तियों के हाथ में जा चूका था और नवीन वेदान्ती प्रछन्न बौद्ध थे । तक्षशिला और नालन्दा तो पूर्ण रूप में बौद्धों के हाथ में हो गए थे । नालन्दा में ह्वेनसांग जैसे विदेशी अध्यापक बन गए थे ।

इन विश्वविद्यालयों की शिक्षा अभारतीय हो गई थी । परिणामस्वरूप यह हुआ कि जब मध्य एशिया में तोपों का निर्माण हो रहा था तो भारतवर्ष में धनुष - वाणों को आग में फूंक - फूंक चने भूने जाने लगे थे । 
दोनों विश्वविद्यालय मुसलमानों ने तोड़ - फोड़ डाले । वहाँ के ज्ञान - भण्डार को फूंक - फूंक कर मुसलमान सिपाहियों ने रोटियाँ सेंक लीं और मदुरा में तो पिछली शताब्दियों तक संस्कृत में वेदान्त का अध्ययन होता रहा था । वैसे वेदान्त पूर्णतः भारतीय प्रतीत नहीं होता । जिसमें कर्म करना अविद्या का सूचक समझा जाये , वह उस इंद्र अथवा विष्णु की शिक्षा से मेल नहीं खा सकता , जो सदैव अपनी ब्रह्म - शक्ति अथवा सुदर्शन - चक्र को हाथ में लिए रहते थे ।

इसके बावजूद पुरातन अर्थात प्राचीन पराधीन हिन्दू सात सौ वर्ष तक मुसलमानों के राज्य का विरोध करते रहे , जबकि ईरान , मिश्र , तुर्की , इथोपिया , टुनिशिया , अल्जीरिया तथा मोरक्को इत्यादि दस वर्ष भी इस्लामी राज्य का विरोध न कर सके। ज़रा सोचिये ! यह छोटी बात है क्या? विरोध कर सकना एक बात है , और सेना का प्रयोग कर शासन करना दूसरी बात है । शिक्षा अभारतीयों के हाथ में जाने के बाद भी अपने पूर्व संस्कार के कारण हिन्दुओं ने इसका सफल विरोध किया था और सेना के बल अर्थात तलवार के भय से चलाया जाने वाला इस्लामी शासन असफल हो गया । 

भारतीय मित्रों !
वर्तमान भारतीय शिक्षा भी पूर्णतः अभारतीय है । बौद्ध काल के पूर्व से ही अभारतीय हो चुकी यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को इस्लामी और आङ्ग्ल शासन काल में पूर्णतः नष्ट - भ्रष्ट कर दिया गया । एक विदेशी के सहयोग से अंग्रेज , अंग्रेजी और अंग्रेजियत के कायल काले अंग्रेजों द्वारा स्थापित खान्ग्रेस पार्टी ने भी छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में भारतीय शिक्षा और भारतीय इतिहास को अभारतीयकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।अपने स्थापना - काल से ही पूर्णतः अराष्ट्रीय संस्था रही खान्ग्रेस पार्टी ने छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में भारतीय शिक्षा - प्रणाली , इतिहास यहाँ तक कि धार्मिक - आध्यात्मिक एवं पुरातात्विक ग्रंथों - स्थलों को भी अपने ही रंग में रंगने अर्थात अराष्ट्रीय अर्थात अभारतीय करने की ही कोशिश की है । इसलिए इस अराष्ट्रीय संस्था के द्वारा की गई दुष्कृत्यों से निजात पाने के लिए भारतीय परंपरा , इतिहास, सभ्यता - संस्कृति , भाषा और शिक्षा -पद्धति का सम्मान करने वाले भारतीय को ही भारतवर्ष का नेतृत्व प्रदान करना ही देश के लिए प्रवृद्धकारी , कल्याणकारी और जनोपयोगी होगा ।

Saturday, November 16, 2013

हिन्दू सदा मुसीबत से बचने का यत्न करता है । - अशोक "प्रवृद्ध"

हिन्दू सदा मुसीबत से बचने का यत्न करता है ।
अशोक "प्रवृद्ध"

 आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू एक अति प्राचीन जाति है । परन्तु भारतवर्ष में रहने वाले अपने वैदिक धर्मशास्त्रों को भूलकर मानसिक तथा बुद्धि के विचार से वृद्ध हो गये हैं। कई कारणों से यह वृद्ध जाति दासता की श्रृंखलाओं में जकड गयी । इस पर भी इसने धर्म और शास्त्र को न समझते हुए इनको फेंक नहीं दिया , प्रयुत पकड़े रखा ।अतः महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती के वेदादि ग्रंथों के सन्दर्भ में भाष्य और विचारों के परिन्स्वरूप वेदशास्त्र पिता बन गए और जाति में नवजीवन का संचार हुआ , परन्तु इसके संरक्षक बनने के लिए आ गए - ईसाई और अङ्ग्रेज । दोनों का परस्पर समझौता था । ईसाई तो इस जाति को इसके स्वाभाविक अभिभावकों अर्थात वेदादि शास्त्रों के संरक्षण से निकालकर इसको बाइबिल के संरक्षण में लाने में जुट गए । अंग्रेजों ने ईसाईयों को अपने कार्य में सहायता देने का निर्णय कर लिया ।
हिन्दू सदा मुसीबत से बचने का यत्न करता है । यह मुसलमानों का झगडा भी , जो एक लम्बे समय से हमारे गले पड़ा हुआ है, गाँधी जी तथा अन्य खान्ग्रेसी अर्थात कांग्रेसी नेताओं की इसी प्रवृति का परिणाम है ।

सन् 1857 के गद्दर से पहले हिन्दू यह समझते थे कि उन्होंने यहाँ स्वराज्य स्थापित करना है । इसके लिए वे यत्न कर रहे थे , यद्यपि तुरंत कोई आशा प्रतीत नहीं होती थी । मराठों और पूर्व के नेताओं ने तुरन्त अंग्रेजों से छुट्टी पाने के लिए मृतप्रायः मुसलमानों से मिलकर ग़दर करने का यत्न किया और बुरी तरह असफल रहे ।

इसके पश्चात् तो महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने खुले आम कहना आरम्भ कर दिया कि हिन्दुस्तानियों को एकमत होकर स्वराज्य प्राप्त करना चाहिए । स्वामी जी समझते थे कि मुसलामानों को हिन्दू बनाकर ही साथ मिलाया जा सकता है , अन्यथा हिन्दू अकेले ही स्वराज्य पाने में समर्थ हैं । स्वामीजी की इस नीति से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने उनको तो मरवा डाला और खान्ग्रेस नेताओं के मन - मस्तिष्क में यह भर दिया कि स्वराज्य तो एक ओर , सरकारी नौकरी और पदवी लेने के लिए भी हिन्दुओं को मुसलमानों के साथ मिलकर प्रार्थना करनी चाहिए । उनको साथ मिलाने का यह मूल्य देना पडा कि मुसलमानों के पृथक मैम्बर और पृथक मतदाता स्वीकार करने पड़े । अब मोहनदास करमचंद गाँधी ने एक और झगडा मोल ले लिया। वह यह कि मुसलमानों को साथ रखने के लिए खिलाफत - आन्दोलन अर्थात टर्की का राज्य सब अरब देशों पर बने रहने की मांग , स्वराज्य की मांग के साथ मिला दी । महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जाति के संरक्षनकर्ता अर्थात वेदादि को समीप लाने का यत्न किया , परन्तु ये गांधीवादी , महर्षि स्वामी दयानंद के विचारों  का खंडन कर , नवजीवन प्राप्त हिन्दू जाति की उंगली अंगेजो से बचाने के लिए मुसलमानों के हाथ में पकड़ा बैठे ।
यह स्पष्ट रूप से गाँधी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति थी । तब से जो खान्ग्र्सियों की मुस्लिम तुष्टीकरण आरम्भ हुई , वह अब तक निरन्तर जारी है । 

हिन्दू का मन बूढ़ा हो गया है । जो प्रकाश की खोज में अँधेरे में कूदना नहीं चाहता हो , उसे बूढ़ा हो जाना ही समझना चाहिए । बूढों की भांति वह लाठी का आश्रय लेता रहता है । एक युवक तो भय का कार्य करने का साहस रखता है , परन्तु एक बूढ़ा व्यक्ति बिना कारण किसी के कंधे पर हाथ रखना चाहता है । इसीलिए हिन्दू जाति (कौम) का कायाकल्प कर इसे युवा बनाना चाहिए , तब विदेशी मानसिकता वाली कंसग्रेसी सरकार और छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों से मुक्ति अर्थात स्वराज्य मिल जायेगा।

जिस प्रकार पिता अपने पुत्र को जन्म देकर अपने परिवार में जवानी जा संचार करता है , वैसे ही जातियों अर्थात कौमों को भी करना चाहिए । महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिन्दू जाति (कौम) में नवजीवन संचार करने के लिए आर्य समाज का बीज डाला था, परन्तु हिन्दू प्रसव और तदनंतर बच्चे के पालन - पोषण का कष्ट सहने से बचने के लिए गर्भपात करा बैठे हैं । ये सबसे सुगम कार्य विद्यालय - महाविद्यालय , खोल सहज दानी बनने का ढंग निकाल बैठे हैं ।आर्य समाज अब नवजात मृत शिशु की भान्ति होकर रह गई है । इसे नवजीवन संचार कर अर्थात वेद -ज्ञान से सिञ्चित कर युवा करना है ।

Wednesday, November 13, 2013

मुस्लिम तुष्टीकरण नीति का अर्थ है हिन्दू - मुस्लमान में विग्रह उत्पन्न करना । - अशोक "प्रवृद्ध"

मुस्लिम तुष्टीकरण नीति का अर्थ है हिन्दू - मुस्लमान में विग्रह उत्पन्न करना ।
अशोक "प्रवृद्ध"

वर्तमान में मुस्लिम तुष्टीकरण नीति का अर्थ है हिन्दू - मुस्लमान में विग्रह उत्पन्न करना । छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों और खान्ग्रेसियों का विचार था कि बहुसंख्यक के मुकाबले अल्पसंख्यक विशेषतः मुस्लिमों को विशेष अधिकार और अनुदान दिए जाने तथा बहुसंख्यकों को आये दिन अपमानित किये किये जाने से भारतवर्ष के मुसलमान हिन्दुओं के विरोधी हो जायेंगे और हिन्दुत्ववादियों के विरूद्ध एकजुट होकर मुस्लिम उन्हें मतदान करेंगे। वे हुए भी हैं , परन्तु मुस्लिम एकजुटता के विरोध में हिन्दुओं को संगठित होते देख खान्ग्रेसी सरकार की समझ में आया कि मुसलमानों को प्रसन्न करते - करते वे हिन्दुओं में संगठन सुदृढ़ करने में सहायक हो गए हैं । वे ऐसा नहीं चाहते थे ।

वे चाहते हैं कि हिन्दू जो इस देश में बहुसंख्या में हैं , वे कई टुकड़े में बंटे रहें और उन सबका विरोध करने वाले मुस्लमान संगठित हो जाएँ । इससे हिन्दू दुर्बल रहेंगे और जो देश में अपना राज्य स्थापित करने में समर्थ हैं, वे राज्य स्थापित नहीं कर सकेंगे ।

विकासवाद अाज तक सिद्धांत नहीं बन पाया , यह सिर्फ वाद है । - अशोक "प्रवृद्ध"

विकासवाद अाज तक सिद्धांत नहीं बन पाया , यह सिर्फ वाद है ।
अशोक "प्रवृद्ध"
वर्तमान युग का सबसे बड़ा छलना अर्थात फ्रॉड है डार्विन का विकासवाद । विकासवाद एक महान गल्प है । इसको न तो वैज्ञानिक माना जा सकता है और न ही इसमें कोई प्रमाण है । विकासवाद अाज तक सिद्धांत नहीं बन पाया , यह सिर्फ वाद है । डार्विन ने इस संसार के लोगों पर एक बहुत बड़ी छलना खेली है । उसका परिणाम ही है कि मानव समाज की दृष्टि से सत्य लोप होकर असत्य ही सत्य प्रतीत होने लगा है ।

विकासवाद को दो भागों में बांटा जा सकता है ।  एक विचार यह है कि सब जन्तु एक प्रकार के एक कोशीय (सिंगल सेल्लुलर) प्राणी अमीबा से उत्पन्न हुए हैं । परन्तु संसार में नियमनुसार निरन्तर घट रहे घटनाओं के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि एक जन्तु से दूसरे प्रकार का जन्तु नहीं बन सकता और न ही कभी बनता देखा गया है ।

दूसरे भाग का सम्बन्ध इस विकासवाद के मनुष्य पर प्रयोग किये जाने से है । परन्तु मानव इतिहास के अध्ययन से इस तथ्य की ही पुष्टि होती है कि विकासवाद से सम्बंधित यह कथन मिथ्या है कि मनुष्य में शारीरिक , मानसिक अथवा आत्मिक विकास हुआ है ।

इस तथ्य से सहमत नहीं होने वाले वैज्ञानिक अथवा व्यक्ति जब किसी दिन किसी बन्दर को मनुष्य बनाकर दिखला देंगे , तब उस दिन डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के वैज्ञानिक होने पर विचार किया जा सकगा । हाँ , मानव मन के विषय में स्पष्टतः कहा जा सकता है कि सृष्टि के आदि काल से लेकर आज तक इसमें रंच - मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ है । भारतीय इतिहास यही बतलाता है ।

वर्तमान युग की बड़ी - बड़ी मशीनें और रेलगाड़ियाँ , बड़े - बड़े जहाज और उड़नखटोले (वायुयान) व अन्य सुख -सुविधा के साधन भी मन के विकास को प्रकट नहीं करते और न ही मन के विकास के साथ ये सम्बंध रखते हैं । हाँ , इन आविष्कारों का बुद्धि से सम्बन्ध है । बुद्धि वह् यंत्र है जिसको आङ्ग्ल - भाषा में ब्रेन कहते हैं । यह शरीर के हाथ , पाँव इत्यादि अंगों की भांति ही एक अंग है ।जैसे हाथ पाँव को कोई भी मनुष्य व्यायाम से अधिक सबल कर सकता है , इसी प्रकार बुद्धि को भी व्यायाम कराने से सुदृढ़ अथवा दुर्बल किया जा सकता है ।

बुद्धि का विकासवाद के साथ सम्बन्ध नहीं , इसका प्रयोग और अभ्यास के साथ सम्बन्ध है । एक ही जन्म में शिक्षा और अभ्यास से बुद्धि विकसित हो सकती है अथवा उसका ह्रास हो सकता है ।

विकास अर्थात वे परिवर्तन जो मानव जाति में पीढ़ी के अनन्तर पीढ़ी तक चलते हैं , वे कहीं दिखाई नहीं देते । मानव मन के विकार  -  काम , क्रोध , लोभ , अहंकार - जैसे मनुष्य में सृष्टि के आदि काल में थे वैसे आज भी हैं । प्राणियों में किसी प्रकार का अंतर होता हुआ दिखाई नहीं देता । इन्सान आज भी वैसे की वैसे ही है जैसे आज से पांच सहस्त्र वर्ष था अथवा आदि काल में था । उन्नति तो हुई नहीं , बल्कि उसमे घटियापन ही आया है । चोर , बलात्कार करने वाले , क्रोध से सर्वनाश करने वाले अथवा लोभ में संसार को बेच देने वाले तो वैसे की वैसे ही हैं । तब ये बैलगाड़ी पर यात्रा करते थे , अब रेलगाड़ी में जाते हैं । परन्तु चोर , डाकू , कामी तो वैसे के वैसे ही हैं । नेपोलियन और चार्ल्स तो आदि काल में भी थे । उस समय उनके नाम हिरण्याक्ष और रावण थे , कंस और दुशासन थे ।

इतिहास तो मनुष्य के इन विकारों और उनको परास्त करने की कहानी है । यह बार - बार उसी रूप में चलती है , जिसमें सदा चलती आई है । इस कारण इतिहास महान विद्या है । इसको भली प्रकार समझ कर मनुष्य सुख और शांति प्राप्त कर सकता है ।

Tuesday, November 12, 2013

आत्मा की हत्या अर्थात हनन करने वाले असुर लोक गामी होते हैं - अशोक "प्रवृद्ध"

आत्मा की हत्या अर्थात हनन करने वाले असुर लोक गामी होते हैं 
अशोक "प्रवृद्ध"
जो लोग अपनी आत्मा की हत्या करते हैं , वे असुर लोक जाते हैं  , जो अंधकार से ढंका हुआ है । अर्थात् आत्मा की हत्या अर्थात हनन करने वाले असुर लोक गामी होते हैं  ।

ईशावास्योपनिषद में कहा है -

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।
ताSस्ते प्रेत्या भिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ।।

असुर योनियाँ घोर अंधकार से आच्छादित हैं । वे लोग जो परमात्मा पर विश्वास नहीं रखते , वे मरने के अनन्तर उन योनियों को प्राप्त होते हैं ।

असुर लोक का मतलब है वह योनि , जिसमें प्राणी इन्द्रियों के अधीन हो जाता है । उसमें मन और बुद्धि इतनी घटिया होती है कि वे इन्द्रियों पर काबू नहीं रख सकते । इन्द्रियां विषयों के पीछे भागती हैं। मन और बुद्धि दुर्बल होने से उनको रोक नहीं सकते । ये भोग योनियाँ कहाती हैं । जैसे - कीट , पतंग , कछुआ , बिच्छू आदि । पेड़  - पौधे भी असुर श्रेणी के प्राणी हैं ।
मनुष्य योनि में भी ऐसे समय आते हैं जब उनकी बुद्धि और संस्कारों को परास्त कर, इन्द्रियाँ उसको विनाश की ओर ले जाती हैं ।तब काम , क्रोध , लोभ , मोह इत्यादि मन के विकार मनुष्य की बुद्धि और मन से बलवान हो , उसको इन विकारों के अधीन कर देते हैं ।

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि असुर योनियाँ कौन - कौन सी हैं ? एक तो वे योनियाँ जिनमें घोर अंधकार है । अंधकार का अर्थ ज्ञान और ज्ञान से लाभ उठाने की असमर्थता । जिन योनियों में प्राणी का मन और इन्द्रियाँ मार्गदर्शन न कर सकें , जिनमें जीव स्वभाववश कार्य करता हो , खाना , पीना , सर्दी - गर्मी से बचना और संतानोत्पति करना । ये कर्म भी स्वभाववश ही होते हों । सोच - विचार कर पाप - पुण्य , हानि - लाभ को देखकर नहीं लिए जाते हों । उन योनियों को असुर योनियाँ कहते हैं । उदाहरण के रूप में कीट - पतंग इत्यादि आसुरी योनियाँ हैं । मानवों में भी कई लोग ऐसे होते हैं जो स्वभाववश भाग्य के प्रवाह में बहते चले जाते हैं । न तो उनमें विचार कर अपना मार्ग ढूँढने की शक्ति होती है , न ही इच्छा । ऐसे लोग असुर कहाते हैं । ये इन्द्रियों के विषय में रत्त रहते हैं और उन विषयों के पीछे भागते रहते हैं ।

इन योनियों में वे लोग जन्म लेते हैं जो परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते ।  परमात्मा सबको देखता है और सबके साथ न्याय करता है । परमात्मा के अस्तित्व को न मानने का अर्थ है किसी न्यायकर्ता के अस्तित्व को न मानना । ऐसे लोग , जब - जब भी पापाचार के लिए अवसर देखते हैं  निःशंक होकर करते हैं ।उनका इन अधम योनियों में जाने का यही कारण है ।

इसलिए आत्मा की कथन को सुनने और तदनुसार व्यवहार करने को कहा गया है । आत्मा का हनन अर्थात आत्मा की कथन को नकारने का प्रयास नहीं करना चाहिए । अन्यथा असुरत्व व्यवहार करने और तदनुसार फल भोगने के तैयार रहना चाहिए ।

स्वतन्त्रता के लिए प्रत्येक प्रकार का त्याग और तपस्या के लिए तैयार रहती है आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू जाति - अशोक "प्रवृद्ध"

स्वतन्त्रता के लिए प्रत्येक प्रकार का त्याग और तपस्या के लिए तैयार रहती है आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू जाति
अशोक "प्रवृद्ध"

आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू जाति अर्थात हिन्दू कौम की यह विशेषता रही है कि वह स्वतन्त्रता के लिए प्रत्येक प्रकार का त्याग और तपस्या के लिए तैयार रहती है । मुसलमानों के आने से पहले और बाद में भी हिन्दू अपनी आत्मिक , मानसिक और शारीरिक स्वतंत्रता के लिए लड़ता रहा है । इसने मुस्लमान से स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी , परन्तु उसी समय अंग्रेज आ गए । तब अंग्रेजों को भी सफलतापूर्वक चुनौती देने वाले भी हिन्दू ही थे । वैदिक विचार के क्रान्तिकारी हिन्दुओं ने उन्हें मार भगाया , परन्तु जाते - जाते वे अपने आत्मज काले अंग्रेजों खान्ग्रेसियों अर्थात् कान्ग्रेसियों को अपना राज - पाट एक संधि के तहत सौंप गए । जिसका खामियाजा आज तक भारतवासी भुगत रहे हैं।

वर्तमान में इन काले अंग्रेजों की चांडाल चौकड़ी की नेतृत्व छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में पैदा हुए राजपरिवार के एक चरित्रहीन राजकुमार को अपने इश्क - जाल में फंसाकर देश में दाखिल हुई एक विदेशी दुष्टा रोम्कन्या सोनिया कर रही है। इन विदेशी मानसिकता वाले खानाग्रेसियों की दासता से राष्ट्र को मुक्त करने के लिए भी हिन्दू दशकों से संघर्षशील हैं , परन्तु इस विदेशी राष्ट्र्घातक राजनीति की उपज छद्म धर्मनिरपेक्षता अर्थात सेकुलरवाद इसमें आड़े आ रहा है । इसके बावजूद आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू लड़ रहे हैं और उन्हें सम्पूर्ण विश्वास है कि वे विदेशी मानसिकता वाली सरकार को धुल चटाकर स्वराज्य प्राप्त कर ही दम लेंगे ।

भारतवर्ष में आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू ही विदेशी मानसिकता वाले छद्म धर्मनिरपेक्षवादी खान्ग्रेसियों को हटाकर स्वराज्य स्थापित करने के योग्य हैं , और वे प्रयत्न भी कर रहे हैं ।
परन्तु उनके मन में ऐसी हीन भावना उत्पन्न कर दी गई है कि सौ करोड़ जनसँख्या का होते हुए भी वे समझने लगे हैं कि वे अकेले हैं और अति दुर्बल हैं और अकेले कुछ नहीं कर सकेंगे ।
इस हीन भावना का कारण एक तो यह है कि इस देश में हिन्दू , जाति - पाँति , ऊँच - नीच , प्रान्त - प्रान्त की भावना और छूत - अछूत के भेद - भाव में फंसा हुआ प्राणी है । यह तुरत दूर होनी चाहिए।
दूसरे हिन्दू किसे कहते हैं ? इस विषय में सब सहमत नहीं हैं । कोई चोटी रखना हिन्दू होने का लक्षण समझता है । कोई तिलक लगाना हिन्दू का लक्षण मानता है । किसी का हिन्दूपन धोती पहनने में दिखाई देता है इत्यादि। ये सब लक्षण हिन्दू के नहीं हैं । हिन्दू तो वह जन समुदाय है जो इस देश को अपनी जन्म - भूमि तथा पुण्यभूमि मानता है । शेष सब लक्षण सामाजिक , स्थानीय और गौण हैं ।
भारतवर्ष अर्थात हिंदुस्तान को अपनी पुण्यभूमि मानने में यहाँ का इतिहास , यहाँ के रीति - रिवाज , यहाँ की परम्पराएं , यहाँ का साहित्य और धर्म हमारे उत्कट प्रेम का विषय हो जाते हैं ।तब यदि कोई हमारे इतिहास को गलत माने अथवा हमारे पूर्वजों को हीन , दीन ,अशिक्षित कहे तो हम इसको गाली समझें आदि ।
तीसरे यह कि धर्म , विशेष रूप में आर्य सनातन वैदिक हिन्दू धर्म क्या है, यह जान लेने से हिन्दू संगठन बन सकेगा। हिन्दू - मूर्ति पूजक हैं , हिन्दू , ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा  शूद्र  हैं, हिन्दू शिवजी का उपासक है , हिन्दू विष्णु का उपासक है , इत्यादि भावनाएं मिथ्या हैं । इन बातों का सम्प्रदाय से सम्बन्ध है । आर्य सनातन वैदिक हिन्दू धर्म इन सब से भिन्न है । ये बातें रह सकती हैं , परन्तु वास्तविक बात है कि यहाँ के रहने वालों के आचार - विचार ही , जिनका स्त्रोत वैदिक शास्त्र हैं , हमारे धर्म के सूचक हैं ।
इस समय करनीय कार्य है - छुआछुत एव्म् जन्म - जात वर्णाश्रम धर्म को समाप्त करना । पिछड़ी जाति की कल्पना को समाप्त करना । सब बराबर है , सबको उन्नति करने के अवसर सामान हों और जो इस देश को जन्मभूमि , पुण्यभूमि मानते हैं , उनका संगठन हो । जो ऐसा नहीं मानते , जो इसके लिए अपना सब कुछ न्योछावर करना नहीं चाहते , वे हिन्दू नहीं हैं । हिंदुस्तान उनका देश नहीं है । वे यहाँ के राष्ट्र के अंग नहीं हैं ।

श्रेय और प्रेय का मार्ग

श्रेय और प्रेय का मार्ग

संसार में दो मार्ग (राहें ) हैं - एक श्रेय का मार्ग , दूसरा प्रेय का मार्ग।एक परमात्मा (खुदा) का मार्ग है और दूसरा सांसारिकता (दुनियादारी) का मार्ग । परमात्मा (खुदा) की राह फीकी , मगर बहुत ही अच्छे नतीजे (अंत) वाली है । दुनिया की राह निहायत दिलचस्प और सुख देने वाली है । परन्तु इसका परिणाम (नतीजा) अच्छा नहीं होता ।
प्रेय का मार्ग सबके लिए खुला है । इस दुनिया में आकर तो दुनियादारी छोड़ी नहीं जा सकती । इसलिए इस पर चलते हुए भी श्रेय के मार्ग पर चला जा सकता है । प्रेय के मार्ग में जो कुछ आये , उसे स्वीकार करते हुए उसमें लिप्त न हो जाना चाहिए । यथा (मसलन) बिजली के पंखें हैं , कूलर हैं , गद्देदार पलंग हैं , मखमली कालीन हैं और दूसरे सुख - सुविधा अर्थात ऐशो- इशरत के सामान हैं। इनका भोग करते हुए खुद इनका भुक्त नहीं बन जाना चाहिए । यह नहीं कि इन वस्तुओं (चीजों) का गुलाम बन जाना चाहिए ।  अपने अन्दर सदैव अर्थात हमेशा ऐसी कबिलियात बनाये रखना चाहिए कि इनको छोड़ते समय इनके जाने का दुःख न हो । ये वस्तुएं जिंदगी का मकसद न बन जाएँ ।
जिन्दगी का उद्देश्य (मकसद) श्रेय मार्ग है , जो सांसारिकता (दुनियादारी) से दूसरा है ।  दुनियादारी पर चलता हुआ उसमे लीन होकर श्रेय मार्ग को भूल न जाने में ही इस जिन्दगी की कामयाबी है ।
और वह राह है जिन्दगी को यज्ञ रूप बना देने की । यग्य के अर्थ हैं - लोक कल्याण का कार्य अर्थात यज्ञमय कार्य । अर्थात खल्के खुदा को सुख और आराम पहुंचाना । यानी लोक कल्याण । धन - दौलत को अपने निर्वाह के लिए अप्ने पर प्रयोग कर बाकी सब दूसरों के सुख और आराम के लिए व्यय (खर्च) कर देना यज्ञमय जीवन कहलाता है । रूपया ,मकान , वस्त्र , सामान शारीरिक (जिस्मानी) और मानसिक (दिमागी) ताकत सब अपनी सम्पति (जायदाद) हैं । इसका अपने सुख और आराम के लिए इस्तेमाल कर बकाया (शेष) दूसरों के सुख और आराम के लिए इस्तेमाल करना श्रेय का मार्ग है ।अपनी आवश्यकता (जरूरियात) इतनी बनानी चाहिए अर्थात् इतनी अल्प कर देनी चाहिए कि ेजितनी से हम दूसरों के लिए अधिकाधिक अर्थात ज्यादा से ज्यादा निकाल सकें ।

मनुष्य अपनी कर्मों अर्थात अमालों का स्वयं मालिक है। वह राह जनता हुआ भी उस पथ पर चल नहीं सकता । कभी चलना नहीं चाहता । यह अपनी -अपनी स्वभाव (तबीयत) और हिम्मत पर निर्भर करता अर्थात दारोमदार रखता है। जैसे एक व्यक्ति के पास पांच सौ रूपये हैं ।वह अपने दिन भर का खर्च पचास रूपये में चला सकता है और पांच सौ रूपये में भी उसका खर्चा पूरा नहीं हो सकता है । वह कितना दूसरों के लिए बचाता है यह उसकी काबिलियत और हिम्मत पर है ।

इसका कारण यह है कि मनुष्य शरीर में दस इन्द्रियाँ हैं । इनि इन्द्रियों के द्वारा हम इस संसार  का भोग करते हैं । इनके अतिरिक्त एक मन है । मन इन इन्द्रियों का संचालन करता है । मन के अतिरिक्त एक आत्मा है । वह इस शरीर का स्वामी है ।
इसे एक रथ की भांति समझा जा सकता है । रथ शरीर है। उसमें घोड़े इन्द्रियाँ हैं और मन सारथी है ।आत्मा पूर्ण रथ और सारथी का स्वामी है ।
आत्मा इस रथ में बैठा हुआ एक मार्ग पर जा रहा है । यह रथ उस मार्ग पर चलता जाये ,जिस पर उसे जाना है , इसके लिए यह आवश्यक है की घोड़े सारथी के वश में रहें और सारथी मालिक के काबू में रहे ।
मालिक को श्रेय मार्ग पर चलना है ।  इन्द्रियाँ अगर वश में न रहेंगी तो प्रेय मार्ग पर चल पड़ेंगी ।इसलिए घोड़े चलते हुए भी सारथि और मन की आज्ञा के अधीन ही चलें ।
इस बात का ध्यान रखन चाहिए कि घोड़े अपनी मनमानी उतनी ही कर सकें , जितने से उनका जीवन और स्वास्थ्य चलता रहे ।इन्द्रियों को अपने विषयों का उतना ही भिग करने दो , जितने में इन्द्रियां अर्थात शरीर का स्वस्थ जीवन रह सके।

Monday, November 11, 2013

ब्राह्मण वर्ग के सर्वथा लोप हो जाने के कारण आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू को अपने हित - अहित का ज्ञान नहीं - अशोक "प्रवृद्ध"

ब्राह्मण वर्ग के सर्वथा लोप हो जाने के कारण आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू को अपने हित - अहित का ज्ञान नहीं
अशोक "प्रवृद्ध"

पुरातन काल में सम्पूर्ण ज्ञान का मूल वेद को मान वेद और वैदिक धर्म पर लोगों के आरूढ़ रहने के कारण आर्यावर्त अर्थात भारतवर्ष सपूर्ण विश्व में सर्वश्रेष्ठ और विश्वगुरू था , परन्तु आर्य जन अर्थात भारतीय जन के वैदिक ज्ञान से दूर होने , वंचित होने के कारण आज आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू समाज को अपने हित और अहित का ज्ञान नहीं रहा । इसका कारण है , ब्राह्मण वर्ग सर्वथा लोप हो चूका है।
पुरातन अर्थात प्राचीन काल में जब आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू संसार भर के नेता थे , तब इसके सर्वश्रेष्ठ , त्यागी , तपस्वी , विद्वान और अनुभवी लोग ब्राह्मण वर्ग में होते थे , और पूर्ण समाज उनके कथनानुसार अपना व्यवहार निश्चय करता था । परन्तु एक समय आया , जब मूर्ख मीमांसकों ने युक्ति कर , दो सिद्धांत प्रतिपादित किये । एक यह कि कर्म बंधन है । मोक्ष ज्ञान है । इन मीमांसकों की बात साहित्यकारों , कथाकारों और पुराणलेखकों ने तोते की भांति रटनी आरम्भ कर दी । परिणाम यह हुआ कि जाति के सब श्रेष्ठ त्यागी - तपस्वी अकर्मण्य होकर बैठ गए ।उन्होंने ज्ञान में रत्त रहना ही मोक्ष प्राप्ति के पर्याप्त समझा । जन साधारण का नेतृत्व विद्वान , अनुभवी श्रेष्ठ वर्ग के हाथ से निकलकर मूर्खों के हाथ में आ गया।
एक दूसरा सिद्धांत भी उन्होंने प्रतिपादित किया । जब जाति पर विपति आती है , तब परमात्मा अवतार लेता है और मानव संकट मिट जाता है । अतः जब - जब जाति पर विपति आई , जाति के मूर्ख नेताओं ने मंदिरों में घंटे बजाने आरम्भ कर दिए । इसका परिणाम यह हुआ कि भीड़ के समय अर्थात संकट काल में जाति बुद्धि और पौरूष से काम करने का अभ्यास ही छोड़ बैठी है ।

Sunday, November 10, 2013

हिन्दू - मुस्लमान में मुख्य अंतर - विचार - स्वतन्त्रता और विचार प्रतिवंध का है

हिन्दू - मुस्लमान में मुख्य अंतर - विचार - स्वतन्त्रता और विचार प्रतिवंध का है

भारतीय मुस्लमान अपने को भारतीय अर्थात हिंदुस्तान का नागरिक नहीं मानते हैं , अपितु अपने को विदेशी समझते हैं । इससे वे विदेशी भाषा में नाम रखते हैं , परन्तु नाम से कोई हिन्दू अथवा मुस्लमान नहीं होता। हिन्दू और मुस्लमान अपने कर्मों से होते हैं । खुदा अर्थात् परमात्मा को मानना और नेक , पाक- साफ़ बनना तो हिन्दू - मुसलमानों में एक जैसी बातें हैं । परन्तु कुछ अन्य बातें हैं , जिनसे हिन्दू और मुस्लमान में अन्तर आता है । हिन्दू - मुस्लमान में एक मुख्य अन्तर यह है कि किसी भी विषय में मतभेद जहाँ हिन्दुओं में एक स्वाभाविक बात मानी जाती हैं , वहाँ मुसलमानों में इसका सहन नहीं किया जाता ।
मुसलमानों में जो खुदा पर ईमान नहीं लाता है अथवा लाता है पर मुहम्मद साहब को रसूल नहीं मानता , वह काफ़िर समझा जाता है और उसके साथ घटिया सलूक किया जाता है ।
दूसरी ओर हिन्दुओं में विचार पर प्रतिवंध नहीं है । कोई कुछ भी मान सकता है । केवल व्यवहार से वह मानवों में दो श्रेणियाँ ही मानता है । एक दैवी प्रवृति वाले और दूसरे आसुरी प्रवृति वाले । प्रवृति का अर्थ विचार भेद से नहीं , प्रत्युत व्यवहार - भेद से है । अतः कोई मुहम्मद साहब को पैगम्बर माने अथवा न माने , इससे किसी प्रकार का झगडा नहीं ।  झगडा तब होता है जब कोई आसुरी व्यवहार अपनाता है । 
दैवी प्रवृति वाले वे लोग हैं जो निडर - मन तथा शरीर से शुद्ध होते हैं , जिनके कर्म ज्ञान के अधीन होते हैं , दानी , संयमी , लोक कल्याण में रत्त , तपस्वी और अपनी आजीविका मेहनत से उत्पन्न करने वाले , दूसरों को दुःख न देने वाले , सत्यवादी , क्रोध न करने वाले , त्यागी , शांत - स्वभाव और उदार आदि गुण रखने वाले होते हैं ।
इनके विपरीत आसुरी प्रवृति वाले होते हैं । साथ ही वे कर्तब्य और अकर्तव्य में भेद नहीं कर सकते । क्रूर - कर्मी , जगत् का नाश करने वाले , कामी , विषयी , दम्भी ,अभिमानी , सैंकड़ों आशा - पाशों से जकड़े हुए , लोभी , क्रोधी , इत्यादि दुर्गुणों वाले होते हैं ।





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