Wednesday, December 31, 2014

आवश्यक है समाज के बाहरी स्वरुप का निर्धारण -अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय प्रिष्ठ पर दिनांक - ३१ / १२ / २०१४ को प्रकाशित लेख -आवश्यक है समाज के बाहरी स्वरुप का निर्धारण


आवश्यक है समाज के बाहरी स्वरुप का निर्धारण 
-अशोक “प्रवृद्ध”

समाज का बाहरी स्वरुप होना नितान्त आवश्यक है और प्रत्येक समाज का यह स्वयं करणीय कर्म अर्थात कार्य है कि वह अपने लक्षण (स्वरूप) का निर्धारण स्वयं करे,जो देखने वालों को दिखाई देlउदहारण के रूप में आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं में बहुत पुरातन काल में यह सिर पर चोटी (शिखा) धारण करना, तिलक लगाना,धोती पहनना और नाम विशेष द्वारा प्रकट किया जाता था,किन्तु ज्यों-ज्यों पाश्चात्य प्रभाव बढ़ता जा रहा है त्यों-त्यों बाहरी लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैंlचोटी तो अब लगभग विलुप्त ही हो चुकी हैlयज्ञोपवीत भी बहुत ही कम लोग धारण कर रहे हैंlतिलाकादि भी बहुत कम लोग लगाया करते हैंlपहनावे में धोती का स्थान पैंट ने ले लिया हैlकोट भी खूब पहना जाता है और टाई के बिना तो अब काम ही नहीं चलताlयद्यपि इसमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है तदपि जातीय अर्थात राष्ट्रीय स्वरूप की आवश्यकता तो है हीlएक समय ऐसा भी था जब यदि किसी की चोटी को छल अथवा बल से काट दिया जाता था तो यह माना जाता था कि उसकी वह जातीयता समाप्त हो गई हैlकहीं-कहीं नाम बदल जाने से जातीयता बदल जाना मान लिया जाता था lयदि किसी ने रामचन्द्र के स्थान पर अपना नाम रहमान अथवा रहीमुद्दीन रख लेता था तो यह समझ लिया जाता था कि वह हिन्दू से मुसलमान बन गया हैlइसी प्रकार कोई करीम से अपना नाम कृष्टो रख लेता था तो समझा जाता था कि वह मुसलमान से ईसाई हो गया हैlजो कोई पुनः अपने पूर्व समुदाय में वापस आना चाहता था तो उसको पूर्व के सब लक्षण स्वीकार करने पड़ते थे, परन्तु अब शनैः-शनैः नाम के अतिरिक्त अन्य बाहरी सभी लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैंlउनको अब अनावश्यक समझा जाने लगा हैl
ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि आर्य सनातन वैदिक धर्मावलंबी हिन्दू समाज के घटकों का भी कोई बाहरी लक्षण होना चाहिए कि नहीं?ये लक्षण मान्यताओं से पृथक हैंऔर मान्यताओं में ऐसा कुछ भी नहीं जिसका कि सम्बन्ध जातीय स्वरुप से होlयह एक अति जटिल प्रश्न है कि लगभग दो सौ राजनीतिक मानव समुदायों के लिये इतने बाहरी लक्षण क्यों हैं और क्या वे हो भी सकते हैं?और अगर मान लिया जाये कि हो सकते हैं,तो क्या किसी प्रकार का कोई लाभ किसी जाति को होगा?जब संसार में यातायात के साधन सीमित अथवा नगण्य थे तब इन लक्षणों का औचित्य संभव प्रतीत होता था,परन्तु अब तो यातायात के साधन इतने विकसित,विस्तृत और सरल हो गये हैं कि इससे अनेक समुदायों के बाह्य लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैं lविश्व के अधिकांश देशों में अब कमीज,पतलून अर्थात शर्ट-पैंट, कोट,टाई और जूते साधारण परिधान माना जाने लगा है lअब वस्त्रों द्वारा जातीयता का स्वरुप विलुप्त हो गया है lकुछ इस्लामी देशों को छोड़कर समस्त संसार में एकसमान वस्त्र धारण किये जाने लगे हैं lइससे यह स्पष्ट है कि अब जातीय पहरावा लक्षण नहीं रहाlशिखा अर्थात चोटी,जनेऊ और तिलक भी विलुप्त हो गये हैं lभाषा का ज्ञान अब देशगत जातियों का रह गया है,परन्तु सांस्कृतिक समाजों में यह भी विलुप्त होता जा रहा है l ऐसे में प्रश्न खड़ा होता है कि देश का बहुसंख्यक समाज इस सब में कहाँ खड़ा है?क्या देश के बहुसंख्यक समाज के लिये बाहरी लक्षणों की आवश्यकता है?क्यों कोई हिन्दू विशेष प्रकार के वस्त्र पहने अथवा कोई अन्य बाहरी लक्षण रखे और यदि रखे तो क्या रखे?ध्यातव्य है कि हिन्दू समाज केवल एक स्थानीय समुदाय नहीं वरन एक वैश्विक समाज है lयह तो ठीक है कि हिन्दू समुदाय का भारत देश से विशेष सम्बन्ध है और हिन्दू समुदाय के स्वभाव में भारतवर्ष के प्रति विशेष ममत्व भी है,परन्तु यह विषय तो यहाँ सरकार का हैlइसी विषय पर तो असम में विवाद चल रहे हैं और गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी है lयह असम के निवासियों की पहचान का विवाद है, यह असम के निवासियों की पहचान की लड़ाई है lयह विवाद हिन्दू अथवा अहिन्दू का नहीं है lयह लड़ाई असम की अस्मिता और पहचान की लड़ाई है lभारतीय अर्थात हिन्दू समाज के लक्षण और मान्यताओं से पृथक हिन्दू समाज की पहचान के लिये किसी बाहरी लक्षण की नितान्त आवश्यकता है और कोई ऐसा बाहरी लक्षण होना ही चाहिए जिसका मान्यताओं के साथ अटूट सम्बन्ध होlवह सम्बन्ध भाषा का है, जो उन मान्यताओं को स्वीकार करते हैं, और जहाँ तक विदित हो पाया है,उनका सम्बन्ध संस्कृत भाषा से हैlइन मान्यताओं को स्वीकार करने वालों का विचार करने का माध्यम सदा संस्कृत भाषा ही रही है, और आज भी, संसार की साँझी भाषा अंग्रेजी होते हुए भी , भारतीय अर्थात हिन्दू समाज का सम्पूर्ण साहित्य संस्कृत भाषा में ही हैlविद्वानों का मत है कि हिन्दू समाज की मान्यताओं की व्याख्या जिस विशेषता से संस्कृत भाषा में व्यक्त की जाती है वह किसी अन्य भाषा में व्यक्त नहीं की जा सकतीlइस प्रकार यह निर्विवाद सत्य है कि इन मान्यताओं के मानने वालों का ऐतिहासिक सम्बन्ध संस्कृत भाषा के साहित्य से ही हैl अतः भारतीय अर्थात हिन्दू समाज का श्रेष्ठ बाहरी लक्षण इस भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा में नहीं हो सकता,और प्रसन्नता की बात है कि इसका एक चिह्न तो अभी भी भारतीय समाज में विद्यमान हैl भारतीय समाज में विद्यमान वह लक्षण है हिन्दू समाज के घटकों के नामlअधिकांश घटकों के नाम संस्कृत भाषा और साहित्य से लेकर ही रखे जाते हैंlजैसे- रजत, आनीत्त अवात्तम, सोमनाथ इत्यादिlसमाज के घटकों में समीपता प्रकट करने और दूसरों से भिन्नता प्रकट करने के लिये सबसे प्रथम और सुगम उपाय नाम के जानने से ही हैlइसके जानने की आवश्यकता और लाभ यह है कि मान्यताओं को मानने वालों को जानने का यह एक मोटा और सुगम उपाय हैlयह मिथ्या भी हो सकता है,परन्तु सामान्य जीवन में इसका लाभ हैlसमाज के घटकों में सम्पर्क,सह्करिता तथा वार्तालाप,व्यापारिक सम्पर्क अंग हैं जो अंग्रेजी में सोशल बिहेवियर कहलाता हैlइस व्यवहार के कारण ही मानव सामाजिक प्राणी माना जाता हैlइस व्यवहार में मान्यताओं का घनिष्ठ सम्बन्ध हैlसमाज के घटकों के नाम इन मान्यताओं का प्रथम संकेत हैंlउदाहरणतः, दो व्यक्ति रेल में यात्रा करते हुये जा रहे हैं और वे परस्पर बातें करने लगते हैंlउनमे से एक का नाम हो रामगुलाम और दूसरे का गुलाम मुहम्मद तो परस्पर के वार्तालाप में बहुत से प्रतिबन्ध स्वतः ही प्रकट हो जायेंगेlरामगुलाम के लिये यह आवश्यक हो जायेगा कि वह सावधान रहे कि कहीं गुलाम मुहम्मद को यह न कह बैठे कि हजरत मोहम्मद औरतों को घर की मेज-कुर्सी के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं समझते थेlवह हजरत मुहम्मद के गैर-मुसलमानों के साथ किये गये व्यवहार की बात भी नहीं करेगाlनाम जान लेने से ये तथा इस प्रकार के अन्य अनेक प्रतिबन्ध स्वतः समुपस्थित हो जाया करते हैंlऔर यदि कहीं वह सहयात्री रामचन्द्र अथवा कृष्णमूर्ति हो तो बिना यह जाने कि उनमें से एक स्वामी शंकराचार्य का मतानुयायी अथवा कि नहीं वह निःशंक हो द्वैतवाद अथवा त्रैतवाद की निन्दा-स्तुति करने लगेगाlइस अवसर पर तो यह भी कहने का साहस किया जा सकता है कि देवदासियों की प्रथा एक प्रकार से वेश्याओं का बाजार है अथवा धर्म और पवित्रता का श्रेष्ठ संगमlनाम का ज्ञान होने से यह सामान्य सी सुविधा हो जाती हैlवैसे समाज में घनिष्ठ संबंधों के बनने अथवा न बनने में यह पूर्व ही होता हैlअतः समाज के घटकों के नाम इस विशेष भाषा में होने के कारण जीवन सुलभ,सरस और सरल होने में सहायक बन जाता हैlइससे समाज के बाह्य लक्षणों के नियत करने से जीवन में सुगमता और सरलता होगीlभिन्न-भिन्न सम्प्रदाय ,पंथों के मिशनों की बात छोड़ भी दिया जाये तो भी हिन्दू समाज का बाहरी रूप, संस्कृत भाषा में नाम एक अत्यन्त उपकारी और सुगम एवं निरापद उपाय हैlसंस्कृत भाषा को ही इस महती कार्य हेतु उपयुक्त समझे जाने का कारण सभी हिन्दू-शास्त्र तथा अन्यान्य विद्याओं के ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होना , संस्कृत भाषा संसार की अन्य भाषाओँ से अति मधुर, सरल और ठीक-ठीक अर्थ प्रकट करने वाली भाषा होना, संस्कृत भषा की वर्तमान लिपि संसार की सब भाषाओँ की लिपियों से अधिक वैज्ञानिक और पूर्ण होने और भाषाओं व लिपियों का सर्वाधिक आवश्यक गुण संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में विद्यमान होने के गुण आदि हैl अतः मान्यताओं के साक्षी रूप नाम सरल और सार्थक भाषा में होनी चाहिए और यह भाषा संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि ही हो सकती हैl

Monday, December 22, 2014

सुविधा के लिये बदल दिया इतिहास - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - २२ / १२ / २०१४ को प्रकाशित लेख - सुविधा के लिये बदल दिया इतिहास

सुविधा के लिये बदल दिया इतिहास 
- अशोक “प्रवृद्ध”
मन,बुद्धि और आत्मा से सम्बंधित शिक्षा राज्य का विषय नहीं 

परमात्मा प्रदत्त वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि शिक्षा राज्य का विषय नहीं होना चाहिए और राज्य की सहायता व सहयोग से पृथक होकर ही व्यक्ति में ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति होना ही व्यक्ति,समाज और राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर होता हैlव्यकियों विशेषकर जाति अर्थात राष्ट्र के विद्वानों को राज्य का कर्मचारी बनना उचित नहीं होता हैl भारतीय पुरातन शास्त्रों का विधान है कि जब कोई ब्राह्मण अर्थात विद्वान किसी राज्य का वेतनभोगी कर्मचारी बन जाता है तो वह शूद्र पद को प्राप्त हो जाता हैlइसका अभिप्राय यह है कि उस विद्वान की विद्वत्ता अर्थात विद्या लोप हो जाती हैl कोई बिरला ही अपनी विद्वत्ता को रखता हुआ वेतनभोगी हो सकता हैl उसका किसी भी समय राज्याधिकारियों से विरोध हो जाना असम्भव नहीं हैlइसी कारण न्यायालयों के न्यायाधीशों को वेतन और सेवा से मुक्त करने का अधिकार राज्य को नहीं दिया गया ,किन्तु इतने भर से भारतीयों को सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, जब तक कि देश की न्यायपीठ राज्य प्रशासन से सर्वथा स्वतंत्र नहीं हो जाती तब तक भारतवर्ष , भारतवासियों का कल्याण असम्भव हैlन्यायाधीशों का चयन, उनकी नियुक्ति-विमुक्ति और वेतन आदि राज्यतन्त्र से सर्वथा स्वतंत्र होंl देश उअर जाति में न्यायाधीशों का इतना सम्मान होना चाहिए कि कोई भी शासक उनको प्रभावित करने का दुस्साहस न कर सकेl इन सब कार्यों को सम्भव बनाने के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि समाज अर्थात राष्ट्र में विद्वानों की महिमा को सर्वोपरि माना जाएl यह भावना का विषय है और इसे शिक्षा द्वारा जनमानस में उत्पन्न किया जा सकता है, परन्तु अत्यंत क्षोभनाक विषय है कि वर्तमान युग में शिक्षा राज्य की चेरी बनी हुई हैl इसलिए सर्वप्रथम शिक्षा को राज्य के चंगुल से मुक्त किया जाना चाहिएl यह तभी सम्भव है जब राज्य के कार्यों से सम्बन्धित संविधान की धाराओं में संशोधन किया जाएl

शिक्षा का अभिप्राय है मन,बुद्धि और आत्मा के स्वभाव का विकासl इसमें अक्षर ज्ञान अर्थात भाषा का ज्ञान तथा आरम्भिक गणित,इतिहास,भूगोल आदि का ज्ञान,मन,बुद्धि और आत्मा के स्वभाव के विकास में साधन हैंl ये विषय अर्थात भाषा,गणित,इतिहास इत्यादि वास्तविक शिक्षा में साधन मात्र हैंl  वह शिक्षा नहीं है, शिक्षा इन विषयों के आश्रय परन्तु इनसे सर्वथा पृथक होती हैl अतः जहाँ भाषा आदि साधनों की शिक्षा दि जाती है वहाँ इनके प्रयोग की शिक्षा का भी प्रबन्ध होना चाहिए , परन्तु वह भी राज्याधीन नहीं होना चाहिएl वह निर्मल और स्वतंत्र आचार-विचार वाले विद्वानों का विषय होना चाहिएl वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में प्रारम्भिक अक्षर ज्ञान से लेकर सर्वोच्च शिक्षा तक राज्य के अधीन हैlकेन्द्र और राज्यों की राज्य सरकारें शिक्षा मंत्री और उसके अधीन शिक्षा विभाग प्रारम्भ किये हुए हैंl इस प्रकार सर्कारीशिक्षा विभाग ही पूर्ण शिक्षा व्यवस्था पर अपना अधिपत्य स्थापित किये हुए हैंl यहाँ तक कि राज्य यह भी देखने लगा है कि किसको क्या पढ़ाया जाये और किसको क्या न पढ़ाया जायेlराज्य की सुविधा के लिये भारतीय इतिहास को ही बदल दिया गया हैl किसी भी विषय का कौन सा अंश पढ़ाया जाये और कौन सा न पढ़ाया जाये, यह भी विचार किया जाने लगा है? कौन व्यक्ति पढ़ाये और कौन न पढ़ाये, यदि पढ़ाये तो कितना पढ़ाये, इसका निर्णय सरकारी शिक्षा विभाग करने लगा हैl यह सच है कि सरकारी शिक्षा विभाग शिक्षकों द्वारा राज्य करता है किन्तु वे शिक्षक भी तो सरकार के अपने नियुक्त किये हुए हैंl जो व्यक्ति राज्य के शिक्षा मंत्री एवं उसकी नीति का समर्थक नहीं होता वह शिक्षक बन ही नहीं सकताl इस प्रकार शिक्षा विभाग के माध्यम से जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है वह सब सरकारी नीति का परिपोषक ही है,और यह बात इतिहास के विषय में ही हो ऐसी बात नहीं है, अपितु शिक्षा के सभी आधारभूत विषयों के सम्बन्ध में हैl उदाहरण के रूप में शुद्ध विज्ञान का विषय लिया जा सकता हैl जगत जो कि सौर-मण्डल का छोटा सा भाग है, वह बना है, ऐसा सब वैज्ञानिक मानते हैं, परन्तु इस जगत के निर्माता के विषय में किसी सरकारी विद्यालय अथवा महाविद्यालय में न केवल उसका नाम लेना वर्जित है अपितु वह उपहास का विषय बन जाता हैlइसका सम्बन्ध जगत में विद्यमान पदार्थों से ही अथवा नहीं, यह एक पृथक बात है, परन्तु जगत बनाने वाले के होने और उसके सामर्थ्य का घना सम्बन्ध मनुष्य के अपने जीवन से हैl न तो कोई सरकार इस विषय में रूचिशील है और न कभी हो सकती हैl सरकार के इस विषय में रुचि नहीं रखने का कारण यह है कि यदि सर्कार यह स्वीकार कर ले तो फिर उससे सरकार को सृष्टि के रचने वाले का ज्ञान होने पर यह मानने पर विवश होना पड़ेगा कि कोई उस पर भी नियन्त्रण रखने वाला है, किन्तु प्रजातांत्रिक राज्य स्वयं पर किसी प्रकार का स्वीकार करने के लिये उद्यत्त नहीं हैंl  राज्य के ऊपर परमात्मा का अस्तित्व मानने से ईश्वरीय नियमों, ऋतों अर्थात राज्यों के प्राकृतिक नियमों को मन्ना पड़ेगाl इन ऋतों क् राज्य पर नियन्त्रण राज्यों को स्वीकार नहीं क्योंकि प्रजातांत्रिक राज्य स्वयं पर किसी प्रकार का नियन्त्रण स्वीकार करने को तैयार नहीं होतेl

शिक्षा के किसी भी विषय के उदाहरण को लेकर देखा जा सकता हैl गणित को ही लीजिएl गणित एक ऐसा विषय है स्थिर और निश्चित माना जाता है, परन्तु इसमें भी ईश्वरीय नियमों का आधिपत्य हैlजब आइन्सटाइन अपनी गिनती करता-करता अपनी सृष्टि के अंतिम छोर पर पहुँच गया तो उसने घोषणा कर दी कि पृथ्वी गोल हैl प्रश्न यह नहीं कि पृथ्वी गोल है अथवा चपटी? प्रश्न तो यह था कि इसका आरम्भ और अन्त है कि नहीं? आइन्सटाइन का गणित इस विषय पर मौन हैl जो समीकरण अर्थात इक्वेशन उसने विचार की है वह सृष्टि के किनारे को प्रकट नहीं करती और उसने यह कहकर बात छोड़ दी है कि सृष्टि-रचना एक बहुत बड़े धमाके के साथ आरम्भ हुई थीl यह धमाका किसने किया,क्यों किया और कैसे किया?इन विषयों पर आइन्सटाइन मौन हैl कहने का अभिप्राय यह है कि गणित का भी कुछ उद्देश्य है और उसका आदि-अन्त भी हैl इसके लिये गणित से उपर किसी का आश्रय लेना पड़ता है, किन्तु वह सरकारी शिक्षा में नगण्य हैlमीमांसा अर्थात दर्शन शास्त्र के आधारभूत प्रश्न हैं कब,क्या और क्यों?इन सबका उत्तर भी सरकारी शिक्षा का विषय नहीं है और वह हो भी नहीं सकताl यही आश्रय है शिक्षा और वर्तमान शिक्षा, जो राजनितिक लगाम के अधीन है,वह इस आधारभूत प्रश्न पर मौन हैlइस प्रश्न के उत्तर में ही संसार भर के राज्यों के कानून का आधार हैl इसी प्रकार किसी भी अन्य विषय को लिया जाए सब विद्याओं का आदि और अन्त एक आदि, अव्यय,अनन्त और असीम सामर्थ्य की सत्ता में हैl मानव समाज से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध हैl इस शिक्षा के आधारभूत विन्दु में सरकार आपत्ति करती हैl

सरकारी शिक्षा इस निष्कर्ष तक क्यों नहीं पहुँच सकती? उसका कारण यह है कि वर्तमान का प्रजातान्त्रिक राज्य उस निष्कर्ष तक पहुँचने में अपनी न्यूनता को स्वीकार करना नहीं चाहता और अपने से ऊपर अन्य किसी को नहीं मान सकताl  जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि समस्त संसार में कामनाओं का अपर साम्राज्य स्थापित हो गया है और उसके अधीन समस्त मानव प्राणी विचलित हो रहे हैंl जब मनुष्य अपना उद्देश्य और उस उद्देश्य की प्राप्ति में कर्म का दर्शन नहीं करता तो फिर युद्ध, आक्रमण, डाके, हत्याएँ और इनके लिये साधन बटोरने में ही जीवन व्यतीत हो रहा हैl आधारभूत ज्ञान जब तक राज्य के नियन्त्रण से मुक्त नहीं होता तब तक मानव समाज में शान्ति नहीं हो सकती और न ही मानव सृष्टि किसी प्रकार की उन्नति ही कर सकती हैl बहुसंख्यक भारतीय समाज आस्तिक होने के कारण अपनी शिक्षा पद्धति को राज्य की दस्ता से मुक्त करेl इसके लिये राज्य के अतिरिक्त समाज को स्वयं क्रियाशील होना चाहिए और समाज के धर्मस्थान, ऐतिहासिक और जातीय अर्थात धार्मिक पर्व की व्यवस्था राज्य व्यवस्था से मुक्त करके समाज के अधीन कर देना श्रेयस्कर होगाl व्यक्तिगत व राष्ट्रीय कल्याण हेतु समाज की शिक्षा राज्य की सीमाओं से मुक्त किया जाना चाहिएl

Friday, December 19, 2014

क्या तकनीकी शिक्षा वेश्यावृत्ति के समान है ? -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - १९ / १२ / २०१४ को प्रकाशित लेख -क्या तकनीकी शिक्षा वेश्यावृत्ति के समान है ?


क्या तकनीकी शिक्षा वेश्यावृत्ति के समान है ?
-अशोक “प्रवृद्ध”

मानव शरीर में एक अंग है मनl यह स्मृत्ति यन्त्र होने के साथ ही कल्पना और मनन का भी स्थान हैlये कल्पना और मनन मन की स्मरण शक्ति के ही कारण हैंl ईश्वर प्रदत्त मन पर नियन्त्रण रखने वाला एक यन्त्र बुद्धि मन के संकल्प-विकल्प को नियन्त्रण में रखने का कार्य करती है lमन जीवात्मा की इच्छाओं की पूर्ति के लिये कल्पनाएँ अर्थात योजनायें बनाता है और बुद्धि उन योजनाओं को धर्म-अधर्म की दृष्टि से जाँच-पड़ताल करती है,और वह जीवात्मा को सम्मति देती है कि मन की अमुक कल्पना धर्मानुकूल है और अमुक कल्पना अधर्मयुक्तl और जब बुद्धि की चेतावनी की अवहेलना की जाती है तो मन की चंचलता को उच्छृंखलता  करने का अवसर सुलभ हो जाता है। अतः जातीय उत्थान अथवा राष्ट्रोत्थान के लिए जातीय अथवा राष्ट्र के घटकों में बुद्धि को इतना बलवान बनाया जाए कि वह आत्मा की कामनाओं को उचित दिशा देने में समर्थ होl इसके साथ ही आत्मा के स्वभाव को बदला जाए जिससे वह इच्छाओं और कामनाओं में बह न सकेl यह शिक्षा का विषय है l पाठशालाओं, विद्यालयों,महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इस प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए l
शिक्षा वस्तुतः जीवात्मा का स्वभाव बनाने, मन को शिव संकल्प करने और बुद्धि को सुदृढ़ करने का नाम हैl  इनके साथ ही इन्द्रियों को मन और बुद्धि के अधीन कार्य करने अभ्यास कराने का नाम हैl भाषा, इतिहास, भूगोल, गणित इत्यादि विषय उक्त अवयवों को सन्मार्ग पर चलाने में सहायता देने के लिए होते हैंl स्वतः ये शिक्षा में किसी प्रकार का योगदान नहीं करतेl
ज्ञान-विज्ञान मन, बुद्धि और जीवात्मा को ठीक मार्ग पर ले जाने में सहायक तो हो सकता है, परन्तु यथार्थ ज्ञान और विज्ञान से तकनीकी शिक्षा ज्ञान-विज्ञान नहीं कहातीl तकनीकी शिक्षा वास्तव में ज्ञान से पेशा कराना है, जैसे किसी स्त्री से वेश्यावृति करानाl स्त्री कर्म का उचित उद्देश्य से भी होता है, परन्तु यही कर्म वेश्यावृत्ति भी हो सकता है, जबकि इसके वास्तविक प्रयोग को छोड़कर इसे धनोपार्जन का साधन बना लिया जाएl ठीक यही बात ज्ञान-विज्ञान में तकनीकी ज्ञान की हैl ज्ञान-विज्ञान का धर्मयुक्त प्रयोग भी है, परन्तु जब वासना-तृप्ति के लिए इस ज्ञान- विज्ञान की प्राप्ति का प्रयोग किया जाए तो यह वेश्यावृत्ति के समान हो जाता हैl कहने का अभिप्राय यह है कि तकनीकी उन्नति जीवन को सुखमय बनाने के लिए वेश्यावृत्ति है, परन्तु यदि जीवन के धर्मयुक्त कार्यों में सहायता के लिए इसका प्रयोग किया जाए तो यह सत्ती-साध्वी महिला के व्यवहार के समान हो जायेगाl शिक्षा में ज्ञान-विज्ञानं के योगदान का अभिप्राय यह है कि प्राणियों, वस्तुओं और प्राकृतिक शक्तियों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जाए और उस ज्ञान का उपयोग जीवन की आवश्यकताओं को व्यवहार में लाने के लिए होl

ध्यातव्य है कि मन शिव संकल्प करने वाला हो, बुद्धि को प्रबल युक्ति करने योग्य बनाने से और जीवात्मा का विवेक पूर्ण स्वभाव बनाने से मन की चंचलता को स्थिर बनाया जा सकता हैl साहित्य, कला और व्यवहार सब शिक्षा के अनुरूप होनी चाहिए, इस कार्य से जाति अथवा राष्ट्र के अस्तित्व की रक्षा हो सकती हैl इस महती कार्य के लिए सर्वप्रथम योग्य शिक्षकों को तैयार करने के पश्चात इसी में मन्दिरों, सभा स्थलों,धर्मिक पर्वों, जातीय अथवा राष्ट्रीय महापुरुषों के जीवन चरित्रों तथा उनके मतों के मानने अथवा न मानने का उपयोग शामिल हैl भारतीय राष्ट्र के घटकों अर्थात देश के बहुसंख्यक समाज को उसकी वर्तमान पतितावस्था से निकालने के लिए प्रथम कर्म है इसके धार्मिक स्थलों, प्रतीक स्थलों, धार्मिक पर्वों, जातीय अथवा राष्ट्रीय महापुरुषों की कृतियों और लेखों तथा उनके जीवन से सम्बंधित स्थानों का पुनरूद्धार करनाl

देश की वर्तमान अवस्था ऐसी हो गई है कि हम कोई भी व्यक्तिगत अथवा जातीय अर्थात सामाजिक-सामूहिक कार्य बिना राज्य की सहमति के कर ही नहीं सकतेl यही कारण है कि विश्व हिन्दू परिषद, विराट हिन्दू समाज एवं बहुसंख्यकों के अन्य संस्थाओं के अध्यक्षों को भारत सरकार के समक्ष यह याचना करनी पड़ती है कि देश के बहुसंख्यकों के जातीय एवं सामाजिक , धार्मिक पर्वों के आयोजनों के लिए अनुमति दी जाए अथवा उन अवसरों पर सरकारी अवकाश के दिनों में वृद्धि की जाए, परन्तु सरकार धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर होने के साथ-साथ दूकानदार, ठेकेदार और व्यापार-वृत्ति वाली भी हैl जब सरकार वर्ष के अवकाश के दिन न्यूनाधिक करती है तो, जब देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, या रामनवमी या फिर दशहरे की का अवकाश दिया जाता है, तो उसकी ही भान्ति मुसलमानों, ईसाईयों, पारसियों, बौद्धों, जैनों आदि- आदि के किस-किस पर्व पर अवकाश में वृद्धि की जा सकती है, इस पर विचार करने लगती है , और हाल के वर्षों में तो हिन्दुओं के पर्वों में अवकाश को न्यून कर दिया गया है और दूसरी ओर अल्पसंख्यकों की अवकाश में वृद्धि कर दी गई हैl

एक ओर तो सरकार मुसलमानों को अतिरिक्त रूप से प्रत्येक शुक्रवार को आधा दिन और कुछेक मामलों में प्रतिदिन कार्यालय अवधि में तीन बार नमाज अदा करने के लिए अवकाश देती नजर आती है और दूसरी ओर सरकार अपने कर्मचारियों के एक-एक घंटे के अवकाश के विषय में भी विचार करती है कि इससे कितनी आर्थिक हानि होने की सम्भावना है? सरकार यह भी अनुभव करती है कि जातीय अथवा राष्ट्रीय जीवन में एक भी अवकाश का दिन बढाने पर राष्ट्रीय आय में कितनी कमी होगी अथवा सरकार इस बात का विचार करने और निर्णय लेने में एक सौ एक बाधाएं देखती हैंl कारण स्पष्ट है कि सरकार एक दूकानदार, भिन्न-भिन्न समाजों की पत्नी और सबसे बड़ी बात यह है कि पत्नी बने रहने की लालसा में जोड़-तोड़ लगाने वाली चतुर नारी का रूप ग्रहण कर चुकी हैl वस्तुतः प्रजातांत्रिक सरकार तो वेश्या के समान ही होती हैl ऐसी प्रजातांत्रिक सरकार पर उस पति का आतंक होता है जो सर्वाधिक आक्रान्त और उत्पात मचाने की क्षमता रखता हैlयह है वर्तमान प्रजातांत्रिक पद्धत्ति का स्वरुप! इसलिए होना यह चाहिए कि जातीय अथवा राष्ट्रीय निर्माण-कार्यों को इस प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर और दूकानदार से स्वतंत्र किया जाएl व्यक्तिगत अथवा जातीय, सामूहिक, धार्मिक आयोजन अथवा समारोह आयोजित किये जाएँ अथवा नहीं या फिर जातीय अथवा सामजिक  धार्मिक पर्व के दिन सरकारी कार्य चलेगा अथवा नही, इसका निर्णय यह वेश्या सरकार नहीं कर सकतीl इसका निर्णय करने का अधिकार जातीय, धार्मिक एवं बौद्धिक नेताओं को दिया जाना चाहिएl उनके निर्णय से सरकार को यदि किसी प्रकार कि असुविधा हो तो सरकार को चाहिए कि वह उन नेताओं से सम्पर्क स्थापित कर अपनी असुविधा का बखान करे और उसे दूर करने का निवेदन करे न कि विश्व हिन्दू परिषद, विराट हिन्दू सम्मलेन अथवा किसी भी हिन्दुत्ववादी संगठन के नेता सरकार से आग्रह करेंl

पुरातन भारतीय ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि जातीय अथवा धार्मिक निर्माण कार्य राजनीतिक कार्य नहीं हैंl जाति के हिताहित कार्य को छद्म धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर, व्यापारी, दूकानदार, कारखानेदार अथवा मूर्खों, अनपढों के मतों की भिक्षा मांगने वालों के हाथों में सौंपना उचित नहीं समझा जा सकताl जातीय निर्माण अर्थात राष्ट्रोत्थान के कार्यों के लिए राष्ट्र के सभी घटकों के मन बुद्धि और जीवात्मा के सुशिक्षित कर्मों से सुसंपन्न होना आवश्यक है और उनको ठीक दिशा देने के लिए एक ऐसा सामाजिक संस्था होना चाहिए जो स्वयं धर्म निरपेक्ष, सबसे बड़े सेवकों की स्वामी,सबसे अधिक धनोपार्जन का संयंत्र और अनपढ़, सामान्य बुद्धि, आचार-विचार के लोगों के मत से प्रभावित न होl इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा, धर्मस्थान, समाजों और जातीय धार्मिक पर्वों का प्रबंध विद्वानों के अधीन होना चाहिएl
समाज में किसी एक सम्प्रदाय के लिये कोई प्रयास अथवा उपाय नहीं कर बहुसंख्यक समाज के जागृति और समुन्नयन के लिये करना उत्तम होगाl भारतीय समाज में अनेक मत-मतान्तर हैंl इसमें यह आवश्यक है कि बहुसंख्यक समाज की साँझी मान्यताओं का विरोध कहीं नहीं होl साँझी मान्यताओं के समर्थन के साथ अपने-अपने इष्टदेव तथा सम्प्रदाय की बात भी होती रहेl इस्लाम और ईसाईयत के अनुयायियों की बात तो हम नहीं करते लेकिन हिन्दू समाज से इसका विरोध नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दुओं के सब सम्प्रदाय वेदमूलक हैंl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मन, बुद्धि और आत्मा सम्बन्धी शिक्षा पूर्णरूप से देश के राज्य असम्बद्ध होना ही राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर होगाl

Tuesday, December 16, 2014

निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची, झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर आज दिनांक - १६ / १२ / २०१४ को प्रकाशित आलेख - निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि


निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि
-अशोक “प्रवृद्ध”

बुद्धि दो प्रकार की होती है -निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि। श्रीमद्भगवद्गीता में निश्चयात्मक बुद्धि को व्यवसायात्मिक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि को अव्यवसायात्मिक बुद्धि कहा गया है। निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है, अनिश्चयात्मक बुद्धि अनेक दिशाओं को जाने वाली होती है, इस कारण निश्चयात्मक बुद्धि प्राप्त करनी चाहिएl इस निश्चयात्मक बुद्धि को स्थिर बुद्धि कहते हैंl श्रीमद्भगवद्गीता में इस बात को समझाते हुए योगनिष्ठ श्रीकृष्ण ने कहा है कि -
व्यवसायात्मिकता बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन l
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवासायिनाम् ll
- श्रीमद्भगवद्गीता - २- ४१
अर्थात - हे कुरुनन्दन (अर्जुन) ! निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है और अनिश्चयात्मक बुद्धियाँ कई होती हैंl इसकी कई शाखाएँ होती हैं अर्थात यह बहुत भेदों वाली होती हैl
अनिश्चयात्मक बुद्धि को अस्थिर बुद्धि कहा जाता हैl अस्थिर बुद्धि वालों के लक्षण का वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के ही अगले श्लोकों में कहा गया है -
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
- श्रीमद्भगवद्गीता -२ - ४२ , ४३, ४४
अर्थात - हे पार्थ ! कामनाओं से युक्त ज्ञान की (डींग) हाँकने वाले अविवेकी जन स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले,  इस जन्म में ही कर्मफल को मानने वाले, भोग तथा ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये बहुत सी ऊँच नीच की सुन्दर लुभायमान बात करते हैं।
उनकी (ऐसे पुरुषों) की वाणी चित्त को हरने वाली (लुभानेवाली) भोग तथा ऐश्वर्य में आसक्ति करने वाली होती है।ऐसे लोगों के अन्तःकरण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती।
अभिप्राय यह है कि जो जन भोग और ऐश्वर्य में लीन रहते हैं उनकी बुद्धि अस्थिर रहती हैl
श्लोक २- ४२ में वेदवादरताः शब्द का अभिप्राय सांसारिक ज्ञान से है न कि ऋक्, यजुः , सामादि वेदों से। वस्तुतः वेद में कर्मकाण्ड कहीं नहीं है। कर्मकाण्ड ब्राह्मण-ग्रन्थों में हैं और ब्राह्मण-ग्रन्थ वेद नहीं हैं। साथ ही वेद का अर्थ ज्ञान भी है।इसलिए वेदवादरताः शब्द का अर्थ सांसारिक ज्ञान ही यहाँ उपयुक्त और ठीक होगा। अतः वेदवादरताः का अर्थ है ज्ञानवादी जो संसार में रत्त हैं। जैसे वर्तमान युग के सायंसदान अर्थात वैज्ञानिक। सांसारिक ज्ञान में रत्त वे वैज्ञानिक परमात्मा के अस्तित्व को कहीं नहीं देखते। वे पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। ये बातें प्रत्यक्ष में नहीं आतीं। इस कारण वे जन्म-मरणपर्यन्त ही सब जीवनलीला और इसके फल को समझते हैं।ये लोग कामनाओं से युक्त अव्यवसायात्मिक बुद्धि रखते हैं, जो स्थिर नहीं और अनेक दिशाओं में जाती हैं।

ध्यातव्य है कि यहाँ वेद का अभिप्राय ऋक्, यजुः, साम इत्यादि नहीं हैं। वेद तो जीवात्मा और कर्मफल को मानते हैं।इस बात की स्पष्ट पुष्टि ऋग्वेद के निम्न वेदमन्त्रों से हो जाती है -
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति ।
इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ॥
यस्मिन्वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधि विश्वे ।
तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद ॥
- ऋग्वेद - १ - १६४ - २० , २१ , २२
अर्थात - प्रकृत्ति रुपी बृक्ष पर दो सुपर्ण (आत्म-तत्व) हैं। दोनों सजातीय और सखा हैं। इसमें से एक (आत्म-तत्व) इस बृक्ष के फल स्वाद से खाता है और दूसरा आत्मतत्व केवल देखता है।
जो सुपर्ण (आत्म-तत्व) ज्ञान से युक्त होकर  निरन्तर मोक्ष का अधिकार पाना चाहता है, वह भुवनों के रक्षक परमात्मा से कहता है कि मुझ बुद्धिमान और ज्ञान से परिपक्व को मुक्त करो ।
और बृक्ष के समस्त फलों का भोग जो आत्म- तत्व स्वाद से करता है और सन्तान उत्पन्न करता है, कहा जाता है, उसको उस (परमात्मा) का ज्ञान नहीं होता।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि श्लोक२- ४२ में वेदवादरताः का अभिप्राय है विज्ञानवादी अर्थात वर्तमान के वैज्ञानिक जो संसार में रत हैं।
वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि प्रकृति की साम्यावस्था जब भंग होती है तो जगत की रचना होती है। साम्यावस्था भंग होने का अर्थ ही है जो पहले शान्त थे, साम्यावस्था भंग होने पर वे तीनों गुण बाहर निकलकर अपना प्रभाव चारों ओर फ़ैलाने लगते हैं। इसी कारण जगत के सब पदार्थ त्रिगुणात्मक कहलाते हैं।
कहा गया है - त्रैगुण्यविषया वेदा । ध्यातव्य है यहाँ भी वेदा का अभिप्राय ऋक्, यजुः, साम इत्यादि वेदों से नहीं है। इसका अर्थ है जानने वाले अर्थात वैज्ञानिक। त्रिगुणविषय का अभिप्राय है कि प्रकृति के परमाणुओं के भीतर जो तीन गुणों वाली शक्ति है, वह प्रकट होकर चराचर जगत के सब पदार्थों को त्रिगुणात्मक बना देती है। उन पदार्थों के इन गुणों के कारण उनको त्रिगुणात्मक कहा गया है। जो लोग इन पदार्थों के स्वादों के मोह में फंस जाते हैं, वे त्रिगुणविषय वेदा माने जाते हैं अर्थात तीन गुणों के मोह में फँसे हुए इन गुणों को जानने वाले कहे जाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक २-४५ में योगनिष्ठ श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं इन गुणों से पृथक होज, द्वन्द्वों से रहित हो जा और योगक्षेम से युक्त होकर आत्मवान बन अर्थात आत्मा में विश्वास रख।
अगले श्लोक २-४६ में कहा है -
सब ओर से परिपूर्ण (किनारों तक) जल से भरे हुए सरोवर की प्राप्ति पर जो प्रयोजन एक टोंबड़ी (लेंवड़ा गड्ढा /किसी गड्ढे में भरे हुए जल) से हो सकता है, वही प्रयोजन विशाल ब्रह्म का ज्ञान रखने वाले का इस जगत का ज्ञान रखने वालों से है।
चारों ओर से भरे सरोवर की तुलना पूर्ण व्योम,जहाँ तक भी यह है, से की गई है अर्थात सम्पूर्ण जगत जिसमें हमारी पृथ्वी है।इस सौरमण्डल का ज्ञान वैज्ञानिकों को है। हमारा सौरमण्डल आकाश-गंगा से कई गुना छोटा है। उस सौरमण्डल में हमारी पृथ्वी ऐसी है जैसी प्रशान्त महासागर में टेनिस अथवा क्रिकेट की गेंद। इस पृथ्वी के ज्ञानको विज्ञान कहते हैं। व्योम तो असीम है। उसमें हमारी आकाश-गंगा की भान्ति कई गंगाएँ हैं। अब तो लगभग दो सौ आकाश गंगाएँ देखी  जा चुकी हैं और व्योम तो उससे भी बहुत बड़ा है। वह व्योम ही परम ब्रह्म कहाता है। श्वेताश्वेतर उपनिषद में कहा है -
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते तस्मिन्हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति ॥

उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च ।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः ॥
- श्वेताश्वेतर उपनिषद - १- ६, ७
अर्थात - इस बड़े ब्रह्मचक्र में जीव फँसे हुए हैं जैसे भँवर में हंस भ्रमित हुआ रहता है।तब अपने से पृथक एक आत्मा (परमतत्व) को मानता है।जब जीव उस(परमात्मा) संयुक्त हो जाता है तब अमरत्व को प्राप्त कर लेता है।
यह जो ऊपर कहा है, वह परम ब्रह्म है।उसमें तीन अक्षर प्रतिष्ठित हैं।इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त वे भी हैं जो ब्रह्मज्ञानी कहे जाते हैं और योनि (जन्म-मरण) मुक्त हैं, वे ब्रह्मलीन कहे जाते हैं।
अतः यह विशाल सागर परम ब्रह्म है,यह व्योम है।उसमें हमारी पृथ्वी जिसका ज्ञान (वैज्ञनिक जो इस संसार को ही पुष्पितां वाचं कहते हैं) उस गड्ढे के जल के ज्ञान के तुल्य है।
बुद्धि के सहाय से किया गया कर्म ही बुद्धियोगात् कहा जाता है और बुद्धि से दूर होकर किया गया कर्म अतितुच्छ होता है। श्रीमदभगवद्गीता के दूसरे अध्याय के अनुसार बुद्धि निश्चयात्मक होनी चाहिए, भटकने वाली न हो। सांसारिक ज्ञान सम्पूर्ण ब्रह्म(व्योम) ज्ञान की तुलना में इसी प्रकार है जैसे सागर की तुलना में लेंवडा गड्ढा (जल की एक टोंबड़ी)।अनिश्चयात्मक बूढी में कारण जगत के स्वाद हैं। वे लोग जो इस जीवन को ही सब कुछ मानते हैं, वे ही इस संसार के प्रलोभनों में फँसे हुए भटकने वाली बुद्धि पा जाते हैं। कर्म करने के लिये ही मनुष्य जीवन मिलता है। कर्म करना मनुष्य का अधिकार है परन्तु फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। यह उसके अधिकार में नहीं है। फल कैसे मिलता है, यह एक विषम समस्या है। फल की इच्छा कैसे छोड़ी जा सकती है? उसके लिये कहा है कि कर्म करते समय विचारकर कर्म करो। विचारित कर्म ही बुद्धियोगात है।

Friday, December 12, 2014

मानव स्वभाव अर्थात मानव प्रवृति - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - १२ / १२ / २०१४ को प्रकाशित लेख - मानव स्वभाव अर्थात मानव प्रवृति



मानव स्वभाव अर्थात मानव प्रवृति 
- अशोक “प्रवृद्ध”

इस संसार में दो प्रकार के मानव स्वभाव अर्थात दो प्रकार के प्रकृति वाले मनुष्य पाए जाते हैं - दैवी स्वभाव और आसुरी स्वभाव। श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक ६ में कहा है -

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥
-श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक ६
अर्थात - इस लोक अर्थात संसार में दो प्रकार के प्राणियों की सृष्टि है - दैवी स्वभाव वाले और दूसरे आसुरी स्वभाव वाले। संसार में सर्वत्र दो ही प्रकार के मनुष्य उत्पन्न होते हैं।
दैवी सम्पदा अर्थात दैवी स्वभाव का अभिप्राय है -श्रेष्ठ गुण। श्रेष्ठ गुण हैं- निर्भय होना, मन-बुद्धि की निर्मलता, ज्ञान से सदा सम्पर्क, दान में रुचि, इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण, लोक-कल्याण में रुचि, स्वाध्याय, जप, चित्त की सरलता, अहिंसा, सत्य-वादन, क्रोध न करना, त्याग, चित्त की स्थिरता, निन्दा करने में अरूचि, दयाभाव, लोभ न करना,व्यवहार में कोमलता, व्यर्थ की चेष्टाओं में अरूचि, बल, क्षमाभाव, धैर्य, मन, वचन और कर्म में शुद्धता, वैर-भाव का त्याग, अभिमान न करना। दैवी स्वभाव वालों के यही पच्चीस गुण भारतीय पुरातन ग्रंथों में बतलाये गये हैं।पाखण्ड अर्थात धोखाधड़ी, घमण्ड, अभिमान, क्रोद्ध, कठोर व्यवहार आसुरी प्रकृति वालों के स्वभाव (लक्षण) पुरातन ग्रंथों में बताये गये हैं।
आसुरी प्रकृति के व्यक्तियों के स्वभाव (लक्षण) को बतलाते हुए श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ में  धोखाधड़ी, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोर व्यवहार- ये पाँच आसुरी गुण कहे गये हैं। कहा है -
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥
-श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ ,श्लोक ४
अर्थात - पाखण्ड, घमण्ड और अभिमान, क्रोध, अज्ञान, कठोर वाणी ये आसुरी संपत्ति को प्राप्त हुए के लक्षण है ।

श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ में इन दोनों प्रकार के मनुष्यों के लक्षण भी बतलाये गये हैं। उदाहरणतः दैवी स्वभाव के लोगों के सन्दर्भ में श्रीमदभगवद गीता के अध्याय १६ में कहा है -

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥१६ - १॥

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१६-२॥

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥१६-३॥
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक १  - ३॥
अर्थात- वह व्यक्ति जो निर्भीक, अन्तःकरण से निर्मल,ज्ञान और योग (मेल-मिलाप) में विश्वास करता है, दान देता है, इन्द्रियों को वश में रखता है, यज्ञ (ईश्वरार्पण कार्य), स्वाध्याय,तपस्या, धर्म कार्य के लिये कठोर परिश्रम करता है और चित्त से सरल है। १६ - १॥
जो दूसरों को हानि न पहुँचाने का सदा संकल्प कर, सत्य भाषण करता हुआ क्रोध न करने का संकल्प, चित्त की शान्ति, दूसरे में दोष न ढूँढना, हीन प्राणियों पर दया करना, लोभ न करना, चित्त की कोमलता, बुरे कार्यों का त्याग और मन को स्थिर रखता है। १६-२
तेज (भले कार्यों में उत्साह), पश्चाताप करने वालों (दोषियों)को क्षमा के लिये तत्पर, विपत्ति में धैर्य, (मन, वचन और कर्म से) शुद्धता , वैर-भाव का त्याग,किसी के लिये बुरा न चाहना। ये दैवी रकृति वालों के गुण हैं।

इसी प्रकार आसुरी प्रकृति वालों के स्वभाव के विषय में भी श्रीमद भगवद्गीता के षोडशोऽध्याय: दैवासुरसंपद्विभागयोग (अध्याय १६) में कहा है -

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥१६- ७॥

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥१६- ८॥

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥१६- ९॥

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्‌गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥१६- १०॥
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६, श्लोक ७ -१०
अर्थात - आसुरी स्वभाव वाले नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इस कारण उनके मन, शरीर और बुद्धि की पवित्रता नहीं होती, न ही चरित्र की शुद्धता। न चरित्र के विषय में और न ही सत्य के विषय में वह कुछ जानते हैं। १०-७।।

वह कहते हैं कि यह जगत असत्य है। इसका कोई आधार नहीं। इसका बनाने वाला कोई नहीं।यह अपने आप बिना प्रयोजन के बना है। इस कारण यह भोग-विलास के योग्य है। १०- ८।।
इस प्रकार के मिथ्या ज्ञान से नष्ट आत्मा वाले,अल्पबुद्धि वाले, हानिकर कार्य - कर्म करने वाले, जगत् में हीन (नाश) होने वाले और अहित कर्म करने वाले ये लोग होते हैं। १०-९ ।।
कामनाओं के अधीन कठिनाई से होने वाले कर्मों का, दम्भ से अभिमान, मदमस्त, असीम इच्छाओं को पूर्ण करने  के लिये मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करने में लगे रहते हैं ।१०-१० ।।
इस प्रकार मनुष्यों को इन दो प्रकार से बाँटा गया है, और जब किसी समाज में किसी एक प्रकार के मनुष्यों का बाहुल्य हो जाता है तब वह समाज भी वैसा ही दैवी अथवा आसुरी हो जाता है।
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६, श्लोक ७ में यह कहा गया है कि जो आसुरी स्वभाव वाले हैं, वे कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं जानते अर्थात वे बुद्धिहीन होते हैं। बुद्धिमान मनुष्य करने योग्य और न करने योग्य को समझ सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है । आसुरी स्वभाव वाले दुर्बल बुद्धि रखते हैं। आसुरी स्वभाव वालो के लिये जो हमारे पुरातन ग्रंथों में कहा गया है वह सब कुछ बुद्धि की दुर्बलता का ही परिचायक है और बुद्धिविहीनता के कारण ही आगे की सब बातें स्वयं सब कुछ होने लगती हैं। बुद्धिविहीनता का एक लक्षण यह भी है कि वे इस संसार को स्वतः, बिना बनाने वाले के बना मानने लगते हैं अर्थात परमात्मा को नहीं मानते। शास्त्रों में ईश्वर को नहीं मन्ना बुद्धिविहीनता कही गई है। यह इस कारण कि प्रकृति का ही ज्ञान उनको नहीं होता। प्रकृति स्वयं गत्ति में नहीं आती। अनात्म तत्व वाली कोई भी वस्तु स्वतः गत्ति में नहीं आती। आज के वैज्ञानिक भी ऐसा ही मानते हैं। इस कारण पृथ्वी, सूर्य और अन्य तारागन जो निरन्तर गत्ति कर रहे हैं, उनको गत्ति देने वाला कोई है? यह शुद्ध वैज्ञानिक एवं बुद्धियुक्त तथ्य है। ऐसे लोगों का एक लक्षण यह भी होता है कि ये लोग अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये, जो कभी पूर्ण नहीं होती, संसार का अहित करते हैं और महान ह्त्या-काण्डों को सम्पन्न करते हैं। फिर वे जो भी कर्म करते हैं, उनके मूल में अपनी कामनाओं की पूर्ती होती है। कामनाएँ अग्नि में घी के समान होती हैं। ज्यों-ज्यों उनकी पूर्ति होती जाती है, त्यों-त्यों इनकी वृद्धि होती जाती है। ये बुद्धि विहीन लोग उनके पीछे भागते हुए मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करने लगते हैंऔर अपार जनसंहार की चेष्टा करते हैं। आज के युग के युरोप में नेपोलियन, मुसोलिनी, हिटलर के दृष्टांत इन आसुरी प्रवृत्तिवालों के व्यवहार का भली-भान्ति दर्शन कराते हैं। ये तानाशाह विस्तारवादी प्रवृति को लिये हुए विदेशों पर आक्रमण करते थे। लाखों लोगों को इन्होने युद्ध में झोंक दिया। ठीक यही बात द्वापर के महाभारत के युद्ध में हुई थी। दुर्योधनके लोभ से लाखों लोग मरे गये थे। महाभारत के कथा के अनुसार अन्त में दुर्योधन का नाश हुआ था। यही बात नेपोलियन, मुसोलिनी और हिटलर की हुई थी। श्रीमदभगवदगीता का प्रवक्ता यह कह रहा है कि ऐसे लोग आसुरी प्रवृति के होते हैं । ऐसे आसुरी प्रवृत्ति वालों के लिये श्रीमदभगवदगीता के इसी अध्याय १६ के श्लोक १९ में अर्जुन को समझाते हुए योगनिष्ठ श्रीकृष्ण ने कहा गया है कि उन द्वेष करने वाले पापियों और क्रूर कर्म करने वाले नराधमों को मैं इस संसार में बार-बार आसुरी योनियों में गिराता हूँ।
आसुरी योनि का अभिप्राय वेद में भी समझाया गया है। ऋग्वेद में एक मन्त्र इस प्रकार है -
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के आत्महनो जनाः ।।
ऋग्वेद ४०-३२
अर्थात- असुर सम्बन्धी योनियाँ अज्ञान से आच्छादित हैं। इन योनियों में वे मनुष्य आते हैं जो आत्मा का हनन करने वाले हैं। आत्मा का हनन करने वाले के विषय में अगले मन्त्र में कहा है कि ये वे लोग हैं जो आत्मवत् सर्वभूतेषु अर्थात सब प्राणियों को अपने सदृश्य नहीं मानते। अन्धकारमय, अज्ञानयुक्त योनियाँ हैं पशुओं की अथवा पशुओं के समान आचरण करने वाले मनुष्यों की।पशुओं का मन ज्ञान का संचय नहीं कर सकता। इस कारण वे अन्धकार में फँसे हुए रहते हैं।

Thursday, December 11, 2014

वैदिक मान्यतानुसार मानव सृष्टि काल

झारखण्ड की राजधानी राँची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - ०८ /१२ / २०१४ को प्रकाशित लेख - वैदिक मान्यतानुसार मानव सृष्टि काल

वैदिक मान्यतानुसार मानव - सृष्टि काल 
- अशोक “प्रवृद्ध”


वैदिक मान्यतानुसार मानव - सृष्टि काल 
- अशोक “प्रवृद्ध”

इस संसार में मानव सृष्टि कब हुई ? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए भूगर्भ शास्त्र , पदार्थ विज्ञान और न जाने कौन - कौन से विभाग के वैज्ञानिक व विद्वतजन लगे हुए हैं l कई पुस्तकों व मजहबी किताबों में भी सृष्टि रचना का वर्णन अंकित हैं और उन्होंने अपनी वर्णनों में जो कहा है वह गलत साबित हो चुका है क्यूंकि उनकी बतलाई अवधि से बहुत पूर्व काल के मानव - कंकाल वैज्ञानिकों को मिल चुके हैं l  इस विषय में हिंदुओं के धर्म ग्रंथों में भी विशद वर्णन अंकित मिलते हैं l भारतीय ज्योतिष शास्त्र मे भी सृष्टि रचना और मानुष जन्म काल का वर्णन मिलता है l
भारतीय ज्योतिष शास्त्र सृष्टि - उत्पति काल और मनुष्य - जन्म काल का काल नक्षत्रों को देखकर बतलाता है l ज्योतिष शास्त्र के अनुसार आज २०१४ ई० से १,९७,२९,४०,११४ वर्ष पूर्व आरम्भ हुई , परन्तु यह मनुष्य के आविर्भाव का काल नहीं है l मनुष्य का इस पृथ्वी पर आविर्भाव वर्तमान चतुर्युगी माना जाता है l इसकी गणना इस प्रकार की गई है l ४,३२,००,००,००० सौर वर्ष का ब्रह्मदिन माना गया है l पूर्ण ब्रह्म दिन को १४ मन्वन्तरों में बांटा है l इन मन्वन्तरों में से अभी तक छः मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं और सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है l सातवें मन्वन्तर की २७ चतुर्युगियाँ व्यतीत हो चुकी हैं l अठाईसवीं चयुर्युगी का सतयुग , त्रेतायुग और द्वापर युग बीत चुका है और कलियुग के ५११४ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं l यह सब बनता है १,९७,२९,४०,११४ सौर वर्ष l यह सृष्टि रचना के आरम्भ से आज २०१४ तक का व्यतीत काल है , परन्तु फिर भी इस प्रश्न का उतर न मिला कि इस पृथ्वी पर मनुष्य कब बना ? सृष्टि - रचना का कार्य तब आरम्भ होता है , जब परमाणु की साम्यावस्था भंग होती है l मानव - सृष्टि के सम्बन्ध में भारतीय ज्योतिष शास्त्र में भी वर्णन मिलता है l ब्रह्मदिन (सृष्टि – रचना काल) ४,३२,००,००,००० वर्ष का होता है l  अथर्ववेद में इनका वर्णन इस प्रकार किया है -
शतं ते ऽयुतं हायनान् द्वे युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः |
 इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्ताम् अहृणीयमानाः ||
अथर्ववेद ८ - २ - २१
इस मन्त्र का देवता अर्थात विषय प्रजापत्ति है l प्रजापत्ति का अर्थ है सृष्टि का रचने वाला l मंत्रार्थ इस प्रकार है -
(ते) तेरे लिए l (युगे कृण्म) युगों को (रचना - काल को) करते हैं (यहाँ “हम” परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है) l
(शतं अयुतं) सौ के दो शून्य और अयुत से पाँच शून्य (से पहले क्रमवार) (द्वे त्रीणि चत्वारि) दो , तीन और चार के अंक (के लगने से) (इन्द्राग्नि ते विश्वे देवा) इन्द्र और अग्नि (जो महान देवता हैं उनकी सहायता से) (देवाः नु) ये देवता (अहृणीयमानाः मन्यन्ताम्) पूर्ण शक्ति से अनुकूल रहें l
इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि प्रजापत्ति (परमात्मा) ने हमारे लिए सृष्टि रचना की है और उसकी अवधि निश्चित की है ४,३२,००,००,००० सौर वर्ष  इसमें दिव्य गुण युक्त पदार्थ बनाए हैं और वे हमारे अनुकूल हैं l अर्थात उन द्वारा हमारा पालन - पोषण होता है l
अथर्ववेद में कहे गए इस मन्त्र के अनुसार ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र भी गणना करता है l इस प्रकार एक ब्रह्म दिन (सृष्टि - रचना - काल) = ४,३२,००,००,००० सौर वर्ष का होता है l
ब्रह्म दिन को वेद में स्कम्भ कहा है , स्कम्भ का अर्थ है - खम्भा l यह काल - रचना को आश्रय प्रदान करता है l इस कारण इसे स्कम्भ कहते हैं l इस सन्दर्भ अथर्ववेद में एक मन्त्र इस प्रकार है -
 यस्मिन्त् स्तब्ध्वा प्रजापतिर् लोकान्त् सर्वां अधारयत् |
 स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विद् एव सः ||
अथर्ववेद १० - ७ - ७
अर्थात – (यस्मिन्) जिसमें (प्रजापतिः) परमात्मा ने l (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (आकाश गंगा अर्थात galaxy) (स्तब्ध्वा अधारयत्) रोककर धारण किया हुआ है l (तम् स्कम्भं ब्रूहि) उसको स्कम्भ कहो l (कतमः स्विदेव सः) कौन सा वह है ? अभिप्राय यह है कि स्कम्भ वह है जिसमें प्रजापति (परमात्मा) द्वारा बनायी सृष्टि धारण की हुई रहती है l अर्थात वह काल जिसमें सृष्टि बनी रहती है , इसी को ब्रह्म दिन कहते हैं l अर्थात मन्त्र ब्रह्म दिन को ही स्कम्भ कहा है l इस स्कम्भ के विषय में अगले ही मन्त्र में कहा गया है -
यत् परमम् अवमम् यच्च मध्यमं प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम् |
कियता स्कम्भः प्र विवेश तत्र यत्र प्राविशत् कियत् तद् बभूव ||
अथर्ववेद १० - ७ – ८
अर्थात - (प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम्) प्रजापति (परमात्मा) ने सब रूपों में सृष्टि का सृजन (निर्माण) किया l वह  सृष्टि (यत् परमम् अवमम्) जो अति ऊँची और नीची है l (यच्च मध्यमं) और जो बिच में है (अभिप्राय यह है कि पूर्ण जगत) l
(कियता स्कम्भ) कब से यह काल है जो प्रवेश किया था अर्थात आरम्भ हुआ था ? और (तत्र यत्र न प्राविशत्) और वह कब नहीं रचा गया था l (कियत् तद् बभूव) कब यह नहीं होगा l
इस मन्त्र में उस रचित जगत की अवधी पूछी गई है l पहले पूछा है कि जो परमात्मा ने ऊपर , नीचे और मध्य में सब प्रकार का निर्माण किया है , वह कब से है , कब तक रहेगा और कब नहीं था ?

 कियता स्कम्भः प्र विवेश भूतम् कियद् भविष्यद् अन्वाशयेऽस्य |
 एकं यद् अङ्गम् अकृणोत् सहस्रधा कियता स्कम्भः प्र विवेश तत्र ||
अथर्ववेद १० - ७ -९  
अर्थात – (कियता स्कम्भः प्र विवेश भूतम्) भूतकाल में यह कब तक बना हुआ था ? (कियद् भविष्यद् अन्वाशयेऽस्य) कब तक निरन्तर इसका भविष्य है ? (एकं यद् अङ्गम् अकृणोत्) इसको एक अंग करके (सहस्रधा कियता) एक सहस्त्र प्रकार से (स्कम्भः प्र विवेश तत्र) ब्रह्म दिन वाहन रचा रहेगा l

इस प्रकार स्पष्ट है कि जहाँ अथर्ववेद ८ - २ - २१ में पूर्ण ब्रह्म दिन की अवधि ४,३२,००,००,००० वर्ष बतलाई थी वहीँ अथर्ववेद १० - ७ - ७ , ८ , ९ में ब्रह्म दिन में विविध प्रकार की रचना उस रचना के बने रहने के काल को एक सहस्त्र भागों में बाँटा है l एक भाग को देवयुग कहा है l देववर्ष पूर्ण ब्रह्म दिन की अवधि को सहस्त्र से भाग देने पर बनेगा l इस प्रकार एक चतुर्युगी = ४३,२०,००० वर्ष l
भारतीय ज्योतिष शास्त्रों में बताया है कि इसमें चार युग - सतयुग , त्रेतायुग , द्वापर और कलियुग की अवधि भी है l प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह पत्ता कैसे चली ? ज्योतिष के जानकार ज्योतिषाचार्य कहते हैं कि नक्षत्रों की गत्ति से पत्ता चलता है कि प्रत्येक  ४३,२०,००० वर्ष के उपरान्त काल में परिवर्तन होता है l ब्रह्म दिन का विभाजन मन्वन्तरों में भी किया गया है l सृष्टि के आरम्भ होने से लेकर इसके पुनः लय होने तक के काल को १४ (चौदह) भागों में बाँटा गया है l प्रत्येक भाग को मन्वन्तर कहते हैं l जबसे रचना काल आरम्भ हुआ है तब से छः मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं और सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है l प्रत्येक मन्वन्तर में रचना का विशेष कार्य हुआ है और उस कार्य को प्रकट करने के लिए ही मन्वन्तरों के नाम रखे गए हैं l मनुस्मृति में इन मन्वन्तरों के नाम इस प्रकार अंकित हैं -
स्वायम्भुव , स्वारोचिष , उत्तम , तामस , रैवत , चाक्षुष , विवस्वतसु l
वर्तमान में सातवाँ मन्वन्तर विवस्वतसुत मन्वन्तर चल रहा है l विकासवाद के मत के विपरीत वैदिक मत मानता  है कि सब जीव - जन्तु जब - जब भी उत्पन हुए हैं , वैसे ही उत्पन्न हुए हैं , जैसे अब हैं अथवा कभी भी रहे हैं l यह ध्यातव्य है कि प्रत्येक मन्वन्तर में रचना का विशेष कार्य हुआ है और उस कार्य को प्रकट करने के लिए ही मन्वन्तरों के नाम रखे गए हैं l इसी क्रम में स्वायम्भुव मन्वन्तर में परमात्मा का तेज उत्पन्न हुआ और कार्य करता रहा l इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के मन्त्र १०- १२९ - ३ में इस प्रकार कहा है –
तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥
- ऋग्वेद १० - १२९ -३ll
(अग्रे तमसा गूळ्हम् तमः आसीत्त्) सबसे पहले अन्धकार से आच्छादित प्रकृत्ति साम्यावस्था में थी l यहाँ तमः के अर्थ साम्यावस्था में प्रकृति ही है l वह प्रकृति (सर्वम् इदम् सलिलं०यह सब सलिलावस्था (fluid) , अर्थात जल की भान्ति अथवा कणदार रेत की भान्ति बह जाने वाली अवस्था में थी (तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्त) जो (प्रकृति) कारण रूप से उपस्थित थी अर्थात परमाणु रूप में - (तत् तपसः महिना एकम अजायत्) उसके ताप के प्रभाव से एक (तेज) उत्पान हुआ l
ऋग्वेद के इस मन्त्र में सृष्टि - रचना से पूर्व की स्थिति की वर्णन करते हुए कह है कि एक शक्ति उत्पन्न हुई l इस अर्थ अर्थात भाव को एक और मन्त्र में अधिक स्पष्ट रूप से कहा गया है -
यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्समुद्रादुत वा पुरीषात् ।
श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ॥
ऋग्वेद १- १६३ - १॥
(श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं) बाज के पंखों और हिरण की बाहों (के सामान तीव्रगत्ति से चलने वाला) (प्रथमं जायमान उद्यन्समुद्रादुत वा पुरीषात् यत् अक्रन्दः ते अर्वन्) अर्वन जो बहुत शब्द करता हुआ पैदा होता हुआ ऊपर अन्तरिक्ष में सब कार्य पूर्ण करने के लिए उठा l
 (प्रथमं जायमान)  पहले ऊत्पन्न होता हुआ (उत् वा यत् समुद्रात्) जो ऊपर उठता हुआ अंतरिक्ष में (यदक्रन्दः) बहुत शब्द करता हुआ l ऊपर ऋग्वेद १० - १२९ - ३ में जो कहा था , यही हुआ l यहाँ कहा है कि फ़ैल गया अंतरिक्ष में l इसी काल की बात ऋग्वेद १ - १६३ - २ में अंकित मिलती है –
यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ।
गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वं वसवो निरतष्ट ॥
-ऋग्वेद १- १६३ -   २॥
अर्थात - (यमेन दत्तं) पहले यह नियंत्रण कर्ता परमात्म से दिया गया था l (वह शब्द करता हुआ तेज जो पहले उत्पन्न हुआ था , वह परमात्मा से दिया गया था l)  (आयुनक् एनम् त्रित अध्यतिष्ठत्) लगाम की भान्ति त्रित से ग्रहण किया गया अर्थात वह तेज त्रित अर्थात परमाणु से ग्रहण किया गया l (गन्धर्वो अस्य सूरात् रश्नाम्) सूर्य की किरणों की भान्ति उसने परमाणुओं को सिधाया l
इसी काल अर्थात समय की बात ऋग्वेद के अगले मन्त्र १ - १६३ - ३ में लिखा है -
असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन ।
असि सोमेन समया विपृक्त आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि ॥
-ऋग्वेद १- १६३ -   ३॥
(असि यमः) तू यमन करने वाला (त्रित को नियंत्रण में रखने वाला) है l (असि आदित्यः) तू प्रकाशस्वरूप है l (अर्वन असि) तू अर्वन (तेज मांगने वाला) है l (त्रितो गुह्येन व्रतेन) परमाणु गुप्त रूप से गठित होने से (असि सोमेन समया) साम्यावस्था में समीप - समीप थे l (विकृप्त) पृथक – पृथक थे l (आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि) यह कहा जाता है की तीन दिव्य संगठनों में बंध गए l
अर्थात - (असि सोमेन समया) जो साम्यावस्था में परमाणु थे , (विपुक्ता) उनका रूप बदल दिया l इसका अभिप्राय यह है कि साम्यावस्था भंग हुई और बदलकर असाम्यावस्था उत्पन्न हुई l उस बदली अवस्था में (आहुः ते त्रीणि दिवि बन्धनानि) तीन प्रकार के बन्धन परमाणुओं के बने जो दिव्य गुण युक्त थे , ऐसा कहा है l इसका अभिप्राय यह हुआ कि परमाणुओं के संयोग बने तीन प्रकार के थे , वे संयोग दिव्य गुण युक्त थे l ये थे अहंकार (atomic particles) l यह स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ l इसी मन्वन्तर में एक अंडा बना जिसे आंग्ल भाषा में नेब्युला (nebula) कहते हैं l इसे संस्कृत भाषा में हिरण्यगर्भ कहा है l यह सब प्रथम मन्वंतर स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ l
तदनन्तर द्वितीय स्वारोचिष मन्वन्तर में यह हिरण्यगर्भ अर्थात नेब्युला फटा और पृथ्वी अर्थात ठोस पदार्थ (मनुस्मृति १ l १३) ग्रह और दिवे (सूर्य) तथा अंतरिक्ष निर्माण हुए . इस फटने से घोर शब्द हुआ  इसी कारण इस मन्वन्तर को स्वारोचिष कहा है l यह अति भयंकर हुआ होगा l इसके उपरान्त हिरण्यगर्भ के भिन्न - भिन्न भाग उड़कर , कोई दूर , कोई समीप गए और दिव्य शक्ति के एक बड़े चक्के की भांति घूमने लगे l यह आकाश - गंगा अर्थात गैलेक्सी बनी l इसका स्वरुप गोल चक्के सा बन गया l यह सब द्वितीय मन्वन्तर स्वारोचिष में हुआ l
तीसरे मन्वन्तर उत्तम मन्वन्तर में इस आकाश - गंगा की स्थिति स्थिर हुई और यह भली प्रकार से चलने लगी l
चौथे तापस मन्वन्तर में हिरण्यगर्भ की गर्मी से , जो प्रकाशयुक्त था , वह अब ठंडा होने से अन्धकारयुक्त हो गया l
पाँचवें रैवत मन्वन्तर में रैवत सूर्य जितने भी आकाश - गंगा में थे , वे चमकने लगे और अपने प्रकाश से अपने ग्रहों को प्रदीप्त करने लगे l इसी मन्वन्तर में सोम उत्पन्न हुआ जिससे इस मन्वन्तर का नाम रैवत पड़ा l सोम जीवन तत्व का जन्मदाता था l इस तत्व का प्रभाव पृथ्वी पर छठे मन्वन्तर में हुआ , जिसे चाक्षुष मन्वन्तर कहा है l सोम और सूर्य के योग से वनस्पतियाँ उत्पन्न हुईं l वनस्पतियों के उपरान्त जीव - जन्तु बने l जीव - जन्तु सूर्य और पृथ्वी के संयोग से बने l ये सब सातवें मन्वन्तर में बने. ऋषि - मुनियों , आप्त जनों व विद्वानों का अनुमान है कि मानव - रचना वर्तमान चतुर्युगी के प्रारंभिक काल में हुई l
वेदादि ग्रंथों में सृष्टि रचना का क्रम तो वर्णित मिलता है , परन्तु कुछ बातें स्पष्ट नहीं हैं अथवा हो सकता है मैं अल्पबुद्धि मानव इस तक नहीं पहुँच पाया हूँ l यथा , सब मन्वन्तर एक समान अवधि के हैं अथवा छोटे – बड़े हैं ?   सृष्टि – रचना का क्रम विदित होते हुए भी यह स्पष्ट पत्ता नहीं चलता की किस - किस क्रम को कितना काल लगा ? वेद में सामान्य प्रक्रिया का वर्णन तो मिलता है , परन्तु निश्चयात्मक तिथिकाल उसमें अंकित नहीं मिलती l
ऋषि – मुनियों , आप्त जनों व विद्वानों के अनुमान के अनुसार मानव - रचना इस सातवें विवस्वतसुत मन्वन्तर के वर्तमान चतुर्युगी के प्रारंभिक काल में हुई मान ली जाये तो यह सृष्टि - रचना काल से १,८५,२४,०७,००० वर्ष व्यतीत होने पर जब वर्तमान मन्वन्तर विवस्वतसुत आया , तब हुई l पहले वनस्पतियाँ बनी तदनन्तर बड़े - बड़े पेड़ बने l तत्पश्चात ११,६६,४०,००० वर्ष व्यतीत होने पर - मानव सृष्टि उत्पन्न हुई और मानव - सृष्टि को हुए ३०,९३,११३ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं l

Saturday, December 6, 2014

सत् और असत् - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - ०६ / १२ / २०१४ को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख - सत् और असत्


सत् और असत् 
- अशोक “प्रवृद्ध”

व्यावहारिक जगत में लौकिक रूप अर्थात लौकिक भाव में सत् (सत) का अर्थ लिया जाता है अच्छा , सज्जन । आध्यात्मिक अर्थ है अपरिणामी , जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता । असत् (असत) परिणामी है अर्थात जिसमें परिवर्तन होता है । सत् (सत) वस्तु एक ही है और जितनी वस्तुएं है सब असत् (असत) हैं। असत् वस्तु का अर्थ खराब नहीं , प्रत्युत्त परिवर्तनशील है। प्रकृति जहां क्रियाशील है वहां देश-काल-पात्रगत भेद है । किसी भी वस्तु में जब दैशिक, कालिक अथवा पात्रिक भेद आ जाता है तब वह परिवर्तित हो जाती है । अर्थात पूर्व रूप नहीं रहती है। इस वास्तविक जगत में सब कुछ कारणयुक्त है, व्यक्त जगत में हम जो कुछ देखते हैं उसका कारण है। कैसे बना ? उसका कारण है। खोजने से कारण मिल जाएंगे । परिणाम देखने के बाद मनुष्य जब कारण की तरफ चलने लगता हैं तब चलते-चलते मूल कारण तक पहुंच जाता है । इसके बाद और कोई कारण नहीं पाता है , वह जहाँ पहुँच जाता है ,वही है परमात्मा , परन्तु परमात्मा के साथ ही जीवात्मा अर्थात आत्मा और प्रकृति भी अविनाशी , अजर - अमर , अपरिणामी हैं ।

वैदिक ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि सत् उन पदार्थों को कहा गया है ,जो अनादि तथा अजर (अमर) होते हैं l असत् उनको कहते हैं जो जिस रूप में दिखाई देते हैं उस रूप में सदा नहीं रहते तथा नहीं रहें हों l

सत् और असत् का अन्तर स्पष्ट करते हुए श्रीमदभगवदगीता के अध्याय २ श्लोक १६ में कहा है -
 नासतो विद्यते भावों नाभावो विद्यते सतः l
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ll
-  श्रीमदभगवदगीता अध्याय २ , श्लोक १६
अर्थात - जो वस्तु असत् (अनुपस्थित) था , उसका होना नहीं हो सकता और जो सत् अर्थात उपस्थित है , उसका न होना नहीं हो सकता l ज्ञानी पुरुषों द्वारा इन दोनों को ही तत्व से देखा गया है l
उदाहरणतः लकड़ी का एक बैठने का स्टूल है l यह असत् है l स्टूल को तोड़- फोडकर लकड़ी के टुकड़ों में विभाजित किया जा सकता है अथवा इसको चिर - फाडकर उसमें से चौकी बनायी जा सकती है l अतः स्टूल असत् है l चौकी अथवा लकड़ी के टुकड़े भी तोड़े - फोड़े जा सकते हैं l लकड़ी को अग्ने में जलाकर राख किया जा सकता है l अतः लकड़ी के टुकड़े भी असत् हैं l
जब लकड़ी जला दी जाती है तो वह कार्बनडाई ऑक्साईड में परिवर्तित हो अर्थात बदल जाती है l इस कारण लकड़ी भी असत् है l
जल में से विद्युत की तरंगें गुजारे जाएँ तो जल दो प्रकार की वायुओं - ऑक्सीजन और हाइड्रोजन  में बदल जाता है l इसी प्रकार कार्बनडाई ऑक्साईड भी दो वायुओं - कार्बन और ऑक्साईड में बदल जाते हैं . अभिप्राय यह है कि जल तथा कार्बनडाई - ऑक्साईड भी असत् हैं  l कार्बन के बहुत छोटे - छोटे कण होते हैं , जिन्हें परिमण्डल कहा जाता है  l जिसे   आज के आंग्ल वैज्ञानिक भाषा में एटम कहते हैं  l  इसी प्रकार ऑक्सीजन के भी परिमण्डल होते हैं l ये परिमण्डल वस्तुतः कार्बन तथा ऑक्सीजन ही हैं  l  कारण यह कि उन्हीं के गुण वाले होते हैं  l परन्तु इन परिमण्डलों का भी विखण्डन होता है ! सब प्रकार  के परिमण्डल तीन प्रकार के कणों अर्थात पार्टिकल्स में बँट जाते हैं !उनको वैकारिक अहंकार (प्रोटोन्स), तैजस अहंकार (इलेक्ट्रोन्स) और भूतादि अहंकार (न्युट्रोन्स) कहते हैं l
इस प्रकार परिमण्डल भी असत् है l ये कण भी टूट सकते हैं और फिर टूटकर परमाणु बन जाते है  l सांख्य दर्शन में परमाणु साम्यावस्था में कहे गए हैं  l यही प्रकृति कहलाती है  l
सांख्य दर्शन इसके स्वरुप का स्पष्ट वर्णन अंकित है  l अतः इलेक्ट्रोन इत्यादि कण भी असत् हैं  l परन्तु परमाणु (अल्टीमेट पार्टिकल्स) का विखंडन नहीं हो सकता  l इस कारण परमाणु सत् हैं  lवैदिक साहित्यों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि पदार्थों के परमाणु सत् हैं , वे नष्ट नहीं हो सकते l उनकी रूप - राशि स्थिर है l जब वे अकेले - अकेले होते हैं , तब भी और जब वे मिलकर अहंकार-परिमण्डल तथा संसार के भिन्न - भिन्न पदाढ़ बनाते हैं , तब भी वे (उनकी रूप-राशि) नहीं बदलती  l वे भिन्न - भिन्न प्रकार के परिमण्डलों में भिन्न - भिन्न संख्या में भिन्न-भिन्न प्रकार से संयुक्त होकर संसार के सब पदार्थ बनाते हैं  l
श्रीमदभगवदगीता के अगले ही श्लोक अध्याय २ के ही श्लोक १७ में नाश रहित और अविनाशी अर्थात असत् का वर्णन करते हुए कहा है कि -
अविनाशी तु तद्विद्वि येन सर्वमिदं ततम्  l
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ll
-श्रीमदभगवदगीता  अध्याय २ श्लोक १७
अर्थात - नाशरहित उसको जानो जो जो यह सब जगत में उपस्थित (ओत - प्रोत) है l इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं  l

"इदं सर्वमिदं ततम्" का अर्थ है यह सब संसार l
यह परमाणु रूप प्रकृति पूर्ण संसार में व्याप्त है l यह सत् है  l इसी कारण इसे अविनाशी कहा है l इस अविनाशी (परमाणु रूप प्रकृति) का कोई नाश नहीं कर सकता l छान्दोग्योपनिषद ६-२-१ में कहा है -
सदेव सोम्येदमग्र आसदेकमेवाद्वितीयम् l तर्द्धक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयमतास्माद्सतः सज्जायत l
-छान्दोग्योपनिषद ६-२-१
अर्थात - हे सौम्य ! आरंभ में यह एकमात्र सत् ही था lउसके विषय में ऐसा भी कहा गया है कि आरम्भ में वह एकमात्र असत् ही थाl उस असत् से सबकी उत्पत्ति हुई l
छान्दोग्योपनिषदकार कहता है कि सत् से असत् और असत् से सत् ऐसा कहा जाता हैl कौन पहले और कौन बाद में , कुछ नहीं कहा जा सकताl जगत से परमाणु और परमाणु से पुनः जगत आदिकाल से यह क्रम चला आया हैl
संयोग-वियोग एक दूसरे के उपरान्त चलता रहता ही ,परन्तु जो बात विशेष है वह यह कि किसी एक पदार्थ के परमाणु उस पदार्थ के टूटने के उपरान्त पुनः उसी प्रकार मिलेंगे , नहीं कहा जा सकताl इस प्रकार बने पदार्थ असत् हैं l गीता के कुछ भाष्यकार उपरोक्त मन्त्र में "इदं सर्वमिदं ततम्" का अर्थ यह सब संसार तो मानते हैं परन्तु तद्विद्वि का अर्थ परमात्मा करते ,लगाते हैं l वैदिक विद्वानों के अनुसार यह अशुद्ध है , क्योंकि यहाँ प्रकृति का वर्णन हो रहा है , परमात्मा का नहीं l उअर आत्मा का क्षेत्र यह शरीर है l शरीर से बाहर नहींl इसे यह स्पष्ट होता है कि यहाँ सत् - असत् प्रकृति के दो रूपों का वर्णन हो रहा हैl जो सत् है वह सब स्थान पर हैl यह प्रकृति का वह स्वरुप है जो नित्य है अर्थात परमाणु रूप है l  



इसके आगे के श्लोक अर्थात श्रीमदभगवदगीता  अध्याय २ , श्लोक १८ में मनुष्य अथवा प्राणियों के शरीर को नाशवान अर्थात असत् और शरीर में वास करने वाले जीवात्मा को नित्य , कहा है -

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः l
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युद्यस्व भारत ll
 -श्रीमदभगवदगीता  अध्याय २ श्लोक १८
अर्थात - अप्रमेय तथा नित्य शरीरी (जीवात्मा) के ये शरीर नाश होने वाले कहे गए हैं l
श्लोक का अभिप्राय यह है कि जो शरीर है वह असत् है l शरीर का रूप नष्ट होता है l इसका वह स्वरुप जो मूलप्रकृति का है , नष्ट नहीं होता l  वह सदा बन रहता है l इसलिए हे भारत! युद्ध कर l  सत् और असत् का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन को श्रीमदभगवद गीता के अध्याय दो में बताया है कि शरीर तो नष्ट होने वाला है तो फिर इसका नाश हो जाने से कुछ हानि नहीं होगी क्योंकि यह कभी नष्ट नहीं होता l

Thursday, December 4, 2014

जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - ३ / १२ / २०१४ तथा दिनांक - ४/ १२ / २०१४ को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख - जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव



 जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव 
- अशोक “प्रवृद्ध”

गीत - संगीत की कलाएं जीवन में रस उत्पन्न करने के लिए आवश्यक होती हैं l इसका आकर्षण जानवर तक को अपनी ओर खिंच लेता है l वंशी की सुमधुर सुरीली आवाज सुनकर गाय , बैल तथा गोपियों का मुरली मनोहर श्रीकृष्ण की ओर बरबस खींचे चले आना , इसका सख्त उदाहरण है l यही हाल  मधुर गानों का भी है . अपनी सुध - बुध खोकर मानव इसके वश में हो जाता है l अगर गीत - संगीत के साथ नृत्य का भी समावेश हो , तो फिर कहने ही क्या ?
समस्त विश्व के साथ हमारे देश भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों की भान्तिही झारखण्ड और सीमावर्ती प्रदेशों के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाली बनवासी जनजातियाँभी अपने गीत - संगीत एवं नृत्य की चिरंतन - परम्परा पर गर्व कर सकती है , और इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं ही l पुरातन काल से ही नृत्य वनजातीय अथवा जनजातीय  परम्पराओं में आदिवासियों की आदिवासियों की संस्कृति तथा उनके जीवन का एक आवश्यक अंग रहा है l कहा जाता है कि , एक वनजाति जो नाचना जानती है , कभी मर नहीं सकती l इसके मूल में यही रहा है कि व्यक्ति और जाति के अस्तित्व की रक्षा ही इसका कार्य है l नृत्य आदिवासी - संस्कृति का एक अविभाज्य अंग है l वनजाति अर्थात आदिवासी समाज में नृत्य की प्रधानता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक मौसम में , जीवन के प्रत्येक क्षण नृत्य से ओत - प्रोत होते हैं l प्रसन्नता , उदासी , जुदाई , पूजा ,आदि प्रत्येक अवसरों पर जनजातीय समाज में गीत , संगीत , नृत्य का प्रचलन है l ये नृत्य जनजातियों के प्रायः हरेक पक्षों , यथा , सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक एवं राजनितिक आदि में उद्भासित होते रहते हैं और इस तरह उनकी सांस्कृतिक विरासत उनके नृत्यों की लंबी परम्परा में अक्षुण बनी रहती है l आदिवासी समाज और संस्कृति यथार्थ रूप में जानने के लिए उनके जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में सम्मिलित उनकी नृत्य – परम्परा का अध्ययन समीचीन जान पड़ता है l

गीत - संगीत एवं नृत्यप्रियता वनवासी आदिवासियों का एक स्वाभाविक गुण है जो उतने ही प्राचीन हैं जितना कि  मानव समाज तथा यह उसी तरह विस्तृत है जिस तरह उनकी जाति l आधुनिक युग के वनवासी जनजातीय समुदायों में भी नृत्य की यह प्राचीन परम्परा बड़े ही विस्तृत रूप में देखने को मिलती है ,फिर भी समय - समय पर इनमें गीत - संगीत - नृत्य को कर्णप्रिय , आकर्षक एवं मनोहारी बनाने के लिए अथवा अन्यान्य प्रेरणाओं के आधार पर जनजातियों के संगीत - नृत्य की भावनाओं में तीव्र बदलाव देखने को मिला है तथा ये पाश्चात्य एवं लोक धुनों से , संगीतों से लबरेज हो रहे हैं l जनजातीय लोग नृत्य को अत्यन्त महत्व देते हैं तथा प्रतिदिन रात्रि को स्त्री - पुरूष गाँव के अखाड़े में एकत्रित होते हैं और नाचते - गाते हैं l ऐसा प्रायः प्रत्येक रात्रि को होता है .पर्व - त्योहारों एवं अन्य अवसरों पर जनजातियों का यह मस्ती भरा आलम और भी कई दिनों तक चलता रहता है l लडकियाँ और महिलायें भी इस नृत्य में बढ़ - चढ कर भाग लेती हैं और पूरा अखाड़ा स्त्री - पुरूष और युवक - युवतियों से सहसा भर उठता है l

वनजातीय आदिवासी नृत्य - संगीत स्वर एवं पद की स्वाभाविक गतियों पर आधारित होते हैं l इन संगीत - नृत्यों के पीछे एक शक्तिशाली संवेगात्मक भाव होता है l प्रकृति की सुरम्य वादियों से चित्रित वातावरण एवं जनजातीय जीवन की सरलता के परिणामस्वरूप इन संगीत एवं नृत्यों के शक्तिशाली संवेगात्मक भाव और भी उद्दीप्त हो उठते हैं l जनजातियों के गाँवों में  धुमकुरिया अर्थात युवा गृह और अखाड़े ये दो संस्थाएं महत्वपूर्ण होती हैं , जिनमें आदिवासी नृत्य शैली व गीत- संगीत के उद्भव - विकास , पोषण एवं परस्पर सम्बद्धता बनाये रखने के लिए अनेक कार्य संचालित किये जाते हैं l युवा गृह जनजातियों के सामाजिक जीवन का एक प्रमुख नाग है , जिसका प्रचलन प्रायः सभी जनजातियों में देखने को मिलता है l विभिन्न जनजातियों में इस संस्था का अलग - अलग नाम है l उराँव जनजाति में युवा गृह को कुँवारों का घर , कुडुख भाषा में जोख - अरपा , मुण्डा तथा हो में गतिओरा अथवा गितिओरा और खड़िया , बिरहोर और एवं तीनों प्रकार के नागाओं में भी युवा गृह के अपने प्रचलित नाम हैं l अनेक जनजातियों के बस्तियों में लड़के एवं लड़कियों का युवा गृह अलग - अलग होता है l लड़कियों के युवा गृह की देख – बहाल वृद्धा अथवा विधवाएं करती हैं l जनजातियों के अनेक परम्परागत पर्व - त्योहार , उत्सव - समारोह नृत्य के साथ इस प्रकार सम्बंधित हो चुके हैं कि उन्हें एक – दूसरे से अलग कर इनका लुत्फ़ उठा पाना , मजा ले पाना अत्यन्त कठिन है l वस्तुतः जनजातियों के उत्सव एवं समारोह इनसे सम्बंधित नृत्य के ही परिप्रेख्य में समझे जा सकते हैं l चावल से निर्मित एक प्रकार का परम्परागत नशीला पेय पदार्थ हड़िया और अविवाहित - विवाहित वनवासी आदिवासी युवक - युवतियों का उन्मुक्त मिलन के साथ इनके नृत्य ,गीत तथा  संगीत के वाद्य में अतिरिक्त उत्साह , मस्ती के आलम तथा उमंग को दुगुने जोश से भर देते हैं l

समस्त जनजातीय समुदाय की भान्ति ही झारखण्ड और इसके सीमावर्ती प्रान्तों यथा , छतीसगढ़ , मध्यप्रदेश और उडीसा आदि प्रान्तों में  निवास करने वाली एक प्रमुख जनजाति उराँव जनजाति के लोग भी नृत्य के साथ गीत - संगीत को काफी महत्व देते हैं तथा नृत्य इनके जीवन का एक प्रमुख साधन है l दिनभर की कठोर हाड़ –तोड़ परिश्रम के पश्चात प्रतिदिन रात्रि को अखाड़े में उराँव नाचते - गाते हैं l पर्व – त्योहारों के अवसरों पर इनका यह नाच – गान का सिलसिला कई दिनों तक चलता ही रहता है l विभिन्न वय के युवक – युवती , स्त्री – पुरूष पंक्तियों में पृथक – पृथक नृत्य करते हैं तथा भान्ति – भान्ति के गाने गाते हैं l मनोरंजन के साथ ही उराँव लोग नाचते समय वर्षा के लिए , बीमारी से मुक्ति , पशुओं की रक्षा तथा कृषि की उन्नति के लिए भी प्रार्थना भी करते हैं l उराँव प्रत्येक पर्व – त्योहार पर अलग – अलग प्रकार का नृत्य तथा तरह – तरह के गाने गाते हैं l उराँव के साथ ही अन्य जनजाति में भी प्रत्येक पर्व- त्योहार पर इनके अलग - अलग नृत्य तथा तरह - तरह के गाने हैं l मुण्डा , खड़िया , हो , बिरहोर एवं संथाली आदि जनजातियों में भी पर्व - त्योहार पर किस्म - किस्म के गाने , वाद्य - यंत्रों की धमधमाती गूंज के मध्य भान्ति - भान्ति के नृत्य होते हैं l प्रायः सभी जनजातियों में वर्षा एवं कृषि की उन्नत्ति , बीमारियों से रक्षा आदिके लिए प्रार्थना करने की परिपाटी है l इस प्रकार नृत्य जनजातीय संस्कृति का एक अविभाज्य अंग है तथा यह गाँव की कुछ संस्थाओं और रीति - रिवाजों से सम्बंधित है l
उराँव गाँवों की संस्था धुमकुरिया एवं अखाड़ा तथा उनके रीति – रिवाज एवं परम्पराओं के साथ उराँव नृत्य इस भान्ति सम्बंधित हो चुका है कि इनमे किसी भी प्रकार का तनिक भी परिवर्तन उराँवों के नृत्य शैली में व्यापक अन्तर लाने में समर्थ होता है l हालांकि आज धुमकुरिया एवं अखाड़ा उराँव बस्तितों से लुप्त होने लगे हैं , तथापि आज भी जिन उराँव बस्तियों में धुमकुरिया एवं अखाड़े की परम्परा बची हुई है , वहाँ के उराँव अपने परम्परागत उत्सवों – पर्वों में शुद्ध आत्मीय भाव सीभाग लेते हैं , युवक – युवतियों के नृत्य हेतु मिलन के लिए कोई नियंत्रण नहीं है . जिसके कारण वहाँ उराँव नृत्य – गीत – संगीतकी अखण्डता तथा शुद्धता पर्याप्त सुरक्षित रह सकी है l कतिपय उराँव इसमें जातीय पेय हड़िया पर किसी प्रकार का बंधन नहीं होने का योगदान भी मानते हैं l उराँव गाँवों में मौसमी तथा धार्मिक और राजनितिक अवसरों के नृत्य सामाजिक परिवेश में बड़े ही जोश – खरोश और धूम धाम के साथ आयोजित किये जाते हैं l गाँव के धुमकुरिया में रहने वाले लड़के – लड़कियों के लिए तो यह नित्यप्रति का दैनिक दिनचर्या ही रहता है , जहाँ वे दिनभर की परिश्रम के पश्चत सायंकाल में अखाड़ा में एकत्रित हो देर रात्रि तक नृत्य की मदिरा में डूबे रहते हैं l सरहुल , करमा , जतरा , हरबोरी , जितिया  आदि उत्सावों , पर्व – त्योहारों , विवाह और शिकार आदि शुभ अवसरों के साथ ही फसलों की बोआई एवं कटनी एवं अन्यान्य कृषि – कर्मों के अवसरों पर सभी ग्रामीण मिल - जुल खाते - पीते तथा रत – दिन नाचते – गाते हैं l झारखण्ड के छोटानागपुर के गाँवों में ऐसे नृत्य को खेल कहा जाता है l ऐसा खेल वयस्कों के लिए विशेष तथा बूढ़े – बुढियों के लिए सामान्य महत्व का होता है l

अपने बाल्यकाल से ही अपनी माँ अथवा बहन के साथ नृत्य सीखता बालक पूर्ण जवान होने तक नृत्य की बारीकियों से परिचित हो जाता है l वैसे भी तीन – चार वर्ष के उरांव तथा अन्यान्य जनजातियों के बच्चों के पैर नृत्य के अवसरों पर गीत – संगीत के ताल से तालबद्ध होकर स्वयं गतिमान हो उठते है क्योंकि ये बच्चे – बच्चियां धुमकुरिया में दीक्षा लेते हैं l वस्तुतः धुमकुरिया उराँव , मुण्डा , खडिया एवं अन्य जनजातियों के गीतों , वाद्यों एवं नृत्य के विकास एवं शिक्षा का केन्द्र वह संस्था है , जहाँ जनजातियों की इन परम्परागत कलाओं का विकास के साथ ही आदान – प्रदान भी होता है l हालाँकि अन्य जनजातियों की भान्ति ही उराँव गाँवों से आज धुमकुरिया का अस्तित्व समाप्त हो चुका है फिर भी छोटानागपुर के कतिपय क्षेत्रों में धुमकुरिया आज भी देखने को मिलता है l हाँ , अखाड़ा आज भी उराँव के साथ ही सभी जनजातियों की प्रायः सभी जनजातियों में पाया जाता है l सरकार एवं स्थानीय प्रशासन ने भी जनजातीय बस्तियों में अखाड़ा के निर्माण में काफी मदद की है l

उराँव लोगों के लिए अखाड़े का काफी महत्व है क्योंकि अखाड़ा ही वह जगह है जहाँ ये एकत्रित होकर नाचते गाते हैं l हालाँकि धुमकुरिया के अभाव में अखाड़ा का अस्तित्व भी कमजोर पड़ जाता है फिर भी अखाड़ा का अपना एक लग महत्व है l जहाँ धुमकुरिया के अभाव में गाँव के उत्साही युवक - युवतियाँ उराँव नृत्य - गीत - संगीत को अपनी संस्कृति के अनुरूप अक्षुण बनाये रखने में संलग्न रहते है l हालाँकि झारखण्ड के उराँव जनजाति के लोग बेहतर भविष्य और रोजगार की तलाश में अन्य प्रदेशों की नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं , परिणामस्वरूप उराँव बस्तियाँ वीरान हो रही हैं l रोजी -रोटी से निरन्तर जूझ रहे उराँव कृषि - कार्य से अवकाश के दिनों में रोजगार की तलाश में अन्य प्रदेशों की ओर रवाना हो जाते हैं l इस अस्थायी पुनर्वास - पलायन के कारण दिनानुदिन उराँव नृत्यों के साथ ही गीत - संगीत के स्तर में ह्रास होता जा रहा है l यही स्थिति मुण्डा , खड़िया , हो आदि जनजातियों के नृत्य - गीत - संगीत की भी है l

 उराँव जनजाति के साथ ही समस्त जनजातियों की परम्परागत नृत्य शैली गीत - संगीत में बदलाव का एक प्रमुख कारण धर्म - परिवर्तन भी है l धर्म – परिवर्तन नहीं करने वाले श्मशार उराँव जनजाति के लोगों में भी

धर्म - परिवर्तन करने वाले उराँव अपने परम्परागत नृत्य शैली और गीत - संगीत को त्याग कर ईसा मसीह के गुण - गान करने और पाश्चात्य गीत -संगीत के ईसा भजन सुनने - गाने लग जाते है l धर्म - परिवर्तन नहीं करने वाले उराँव और अन्य जनजातियों के लोगों में भी आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा - पद्धति के कारण नृत्य – गीत – संगीत के प्रति एक नये पाश्चात्य दृष्टिकोण का निरन्तर विकास हो रहा है , जिससे बहुत अंशों में उराँव गाँवों की चिरकालीन परम्परागत नृत्य शैली प्रभावित होती जा रही है l विगत सदी के अंतिम वर्षों में योजना आयोग के द्वारा मुण्डा और उराँव जनजाति की संस्कृति में परिवर्तन पर किये गए एक अध्ययन  के क्रम में भी इस तथ्य की पुष्टि हो चुकी है l कतिपय विद्वान धुमकुरिया आदि संस्थाओं को यौन - विकृति एवं अनैतिकता का केन्द्र मानते हैं और कहते हैं कि "दरअसल अखाड़ा और धुमकुरिया अब पारंपरिक सांस्कृतिक संस्था नहीं रहीं l इसने जनजातीय समाज की शुद्धता एवं पवित्रता को समाप्त करने और चोट पहुँचाने में मदद की है l अंग्रेजी शिक्षा नीति के परिणामस्वरूप हमारे धुमकुरिया आदि जनजातीय संस्थाओं में भी स्वतंत्र रहने वालों विशेषकर लड़कियों की पवित्रता नष्ट कर दी है और लड़कों को भी चरित्र - भ्रष्ट कर दिया है l धुमकुरिया में साथ रहने के कारण इन पर पारिवारिक - सामाजिक नियंत्रण नहीं रखा जा सका तथा रक्त - शुद्धता भी बची नहीं रह सकी l सगोत्र अथवा गोत्र के अंदर ही विवाह इसी बात का द्योत्तक है l"
आधुनिक शिक्षा के परिणामस्वरूप उरांव एवं अन्य जनजातियों के पारम्परिक मूल्यों में अंतर आ रही है तथा नैतिकता के प्रति उनकी जन भावनाओं में व्यापक बदलाव आ रहा है और इस प्रकार उराँव अथवा ने वनवासी आदिवसी बस्तियों के अखाड़े अथवा धुमकुरिया को एक सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक कार्य- कलापों की परम्परागत केन्द्र के बजाय व्यभिचार तथा पापों का अड्डा समझा जाने लगा है l कतिपय स्वार्थी और चरित्रहीन युवक - युवतियों के ऐसे कुत्सित प्रयास के परिणामस्वरूप परम्परागत जनजातीय बस्तियों में में भी उनकी सांस्कृतिक अस्मिता को चोट पहुँची है , तथा उनके सामूहिक सामाजिक गतिविधियों के विकास में बाधा उत्पन्न हुई है l जिसके कारण जनजातियों के परम्परागत नृत्य शैली के साथ गीत - संगीत भी पर्याप्त शिक्षा और आर्थिक तंगी के परिणामस्वरूप प्रभावित हुई है l उराँव जनजाति के साथ अन्यान्य जनजातियों के पर्व - त्योहार , उत्सव व समारोहों आदि पर नृत्य  शैली एवं गीत - संगीत में सामान्यतः अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है फिर भी इनके परम्परागत नित्यप्रति के नृत्य - गीत आदि बिलकुल ही कमजोर स्थिति तक पहुँच चुके हैं , तथा इनके परम्परागत शैलियों में काफी ह्रास हुआ है l इस ह्रास का प्रमुख कारण ईसाईयत का प्रचार तथा शहरी जीवन का प्रभाव के कारण पाश्चात्यकरण भी है l.
अंग्रेजों के शासन काल में ही झारखण्ड के छोटानागपुर इलाके सुदूर जंगली - पहाड़वर्ती क्षेत्रों में ईसाईयत के प्रचार - प्रसार के पश्चात उराँव नृत्य शैली के गीत एवं संगीत के वाद्य - यंत्रों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं l ईसाईयत के प्रचार वाले गाँवों उराँव एवं अन्य जनजातीय बस्तियों में धुमकुरिया तथा अखाड़ा का अस्तित्व लुप्तप्राय हो गया है तथा उनका स्थान मिटटी मिटटी अथवा सीमेंट - गारे - से बने कच्चे - पक्के भवन वाले गिरजाघरों ने ले लिया l ऐसे गाँवों में नृत्य के लिए अखाड़ा भी नहीं है , लेकिन गाँवों के मध्य अथवा सर्वगामी स्थानों पर खुले स्थान आज भी देखने को मिलते हैं , जिन स्थानों का उपयोग यदा - कदा ही  विवाह समारोह आदि के अवसरों पर नृत्य के लिए किया जाता है l ऐसे गाँवों के परंपरागत उत्सवों का जगह ईसाई उत्सवों क्रिसमस , ईस्टर , स्वर्गारोहण , ख्रीष्टदेव पर्व तथा अन्य उत्सवों ने ले लिया है l ऐसे गाँवों के लोग अब सरहुल , करमा , जितिया तथा अन्य सरना पर्वों - उत्सवों का आयोजन करना भी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं l अब छोटानागपुर सहित सम्पूर्ण झारखण्ड के ऐसे जनजातीय उत्सवों के आयोजनों में भी राजनितिक रंग गहराने लगा है .जिसके कारण इन अवसरों पर क्रिश्चियन प्रतिरूप अर्थात ईसाईयत मॉडल की ही झाँकी देखने को मिलती है l उराँव नृत्य शैली को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में ईसाईयत के प्रचार के कारण धुमकुरिया तथा अखाड़ा जैसी संस्थाओं का विनाश , परम्परागत पर्व -त्योहारों - उत्सवों के सांस्कृतिक ह्रास तथा लूथेरान मिशन में नशीले पेय यहाँ तक कि हड़िया पर भी पूर्ण प्रतिबन्ध तथा कैथोलिक मिशनों में अल्प छूट और शिक्षा के कारण आये चरित्रिक ह्रास को देखते हुए युवक - युवतियों के उन्मुक्त मिलन पर प्रतिबन्ध आदि हैं l जिसके कारण उराँव एवं अन्य जनजातियों की पारंपरिक नृत्य शैली पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा है l कई ईसाई गाँवों में ईसाई धर्म संस्थाओं द्वारा सिर्फ इससे पर्व उत्सवोंके अवसरों पर ही नाचने की छूट दी जाती है l ऐसा गुमला , सिमडेगा , राँची जिले के साथ ही झारखण्ड के कई ईसाई बहुल क्षेत्रों में देखने को मिलता है कि शिक्षित युवक युवक तथा नौकरी पेशे वाले आदिवासी नृत्य आदि समारोहों में भाग नहीं लेते l ऐसे गाँवों के क्रिसमस , ईस्टर आदि अवसरों पर भी आयोजित होने वाले नृत्य आयोजनों में उराँव जनजाति नृत्य के कलात्मक तथा स्वभावात्मिकता का अभाव ही देखने को मिलता है l विद्वानों के अनुसार , अभ्यास की कमी , परम्परागत पद , स्वर , योजना , ताल की शैलियों पर नवीन पद शैलियों का स्थानांतरण , पुराने पारम्परिक गीतों के स्थान पर नई गीतों की योजना और परम्परागत वाद्य - यंत्रोंके स्थान पर नए वाद्य - यंत्रों को अपनाए जाने के परिणामस्वरूप इन सबों ने मिल - जुलकर उराँव एवं अन्य जनजातीय नृत्य शैली को तितर - बितर कर दिया है तथा नित्यप्रति के साथ ही उत्सवों एवं सामाजिक अवसरों पर परम्परागत गीतों के स्थान पर बाइबिल कापाथ अथवा प्रार्थना ने ले लिया है l आज जनजातीय लोग अपने पारम्परिक विश्वासों को भूलकर कुडुख तथा सदानी , नागपुरी बोली निर्मित बाइबिल के भजन के बोलों से ही प्रातः प्रभु - स्मरण किया करते हैं तथा नृत्य उनके लिए महज एक खेल की वस्तु बनकर रह गई है l

गाँवों के साथ ही शहरी बस्तियों में निवास करने वाली उराँव एवं अन्यान्य जनजातीय लोगों के द्वारा भी परम्परागत नृत्यों का विशेष पर्व - त्योहारों के माध्यम से रक्षित किए जाने प्रयत्न किया जा रहा है , फिर भी जनजातियों के नृत्य की पदक्रम शैली , संगीत तथा वाद्य - यंत्रों - शैलियों में में काफी ह्रास हुआ है तथा हो रहा है l कला के रूप में यह ह्रास उनके आर्थिक व्यवसाय , शैक्षणिक योग्यता तथा शहरी जीवन में परिवर्तन के फलस्वरूप हुआ l गाँवों अथवा  शहरों में शिक्षित अथवा नौकरी शुदा लोग इन पारम्परिक नृत्यों में भाग नहीं लेते l ऐसे अवसरों पर कृषकों , श्रमिकों अथवा अन्यान्य घरेलू काम - धंधों में लगे आदिवासी मुख्य रूप से हाथ बंटाते हैं तथा बाकी सब मात्र दर्शक ही बने रहते हैं l साधारण शिक्षित अच्छे आर्थिक स्थितिवाले , धार्मिक चेतना वाले , जनजातीय ईसाई इनकी आवश्यकता किसी धार्मिक अवसरों पर भी नहीं मानतेl

इस प्रकार जनजातीय संस्कृति का एक अविभाज्य अंग नृत्य गाँव की कतिपय संस्थाओं तथा रीति - रिवाजों से सम्बंधित है , जिनमें समय के साथ ही बदलाव दृष्टिगोचर हो रहा है , जिनका शास्त्रीय दृष्टिकोण से नृत्य के ह्रास के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन - मनन आवश्यक है l तकनीकी दृष्टिकोण से नृत्य में परिवर्तन की प्रकृति तथा दुरी को समझना आवश्यक है जिससे आदिवासियों के परम्परागत नृत्य शैली एवं गीत - संगीत को लुप्त होने और मूल से बदलाव को रोका जा सके l नृत्य सांस्कृतिक संवेग और आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति का संकेत है l इस दृष्टि से वनवासी आदिवासी नृत्य के विभिन्न दृष्टिकोणों से समग्र अध्ययन की आवश्यकता है l इसके लिए नृतत्वशास्त्रियीं , कलाकारों एवं नृत्य विशेषज्ञों के द्वारा मिल - जुलकर सम्मिलित प्रयास के बिना किसी सार्थक पहल और कारर्वाई की उम्मीद नहीं की जा सकती l  


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वेब समाचार आर्यावर्त में दिनांक - १८ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख - झारखण्ड के जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव - अशोक "प्रवृद्ध" -

http://www.liveaaryaavart.com/2015/05/jharkhand-tribal-dance.html

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समाचार एजेंसी वेबवार्ता में १९ मई २०१५ को  प्रकाशित आलेख - झारखण्ड के जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव - अशोक "प्रवृद्ध" -

http://www.webvarta.com/script_detail.php?script_id=23332

Saturday, November 29, 2014

श्रेय और प्रेय का मार्ग - अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ में दिनांक - २९ / ११ / २०१४ को प्रकाशित लेख श्रेय और प्रेय का मार्ग




श्रेय और प्रेय का मार्ग 
- अशोक “प्रवृद्ध”


पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण में दो ध्रुव - उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव हैं । दोनों ध्रुवों को ही पृथ्वी की धुरी कहा जाता हैं और दोनों में ही असाधारण शक्ति केन्द्रीभूत मानी जाती हैं । इसी भान्ति चेतन तत्त्व के भी दो ध्रुव हैं जिन्हें माया और ब्रह्म कहा जाता है । जीव इन्हीं दोनों के मध्य कभी इधर कभी उधर कभी उधर खिंचता रहता हैं। ये दोनों दिशाएँ एक दूसरे के प्रतिकूल पड़ती हैं । इसलिए परस्पर विरोध दिखाई पड़ता है । खुदा और शैतान एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी चित्रित किये गये हैं। देवता और असुर भी एक दूसरे से टकराते हैं। देवासुर की कथाओं पुराणों के पन्ने-पन्ने पर भरी पड़ी हैं। इसी प्रकार एक दूसरे के विपरीत मानी जाने वाली संसार में दो ध्रुव अर्थात मार्ग (राहें ) हैं - एक श्रेय का मार्ग , दूसरा प्रेय का मार्ग । एक परमात्मा (खुदा) का मार्ग है और दूसरा सांसारिकता (दुनियादारी) का मार्ग । परमात्मा (खुदा) की राह फीकी , मगर बहुत ही अच्छे नतीजे (अंत) वाली है । दुनिया की राह निहायत दिलचस्प और सुख देने वाली है । परन्तु इसका परिणाम (नतीजा) अच्छा नहीं होता ।
मायावी असुरता का पक्ष ‘प्रेय’ मार्ग कहलाता हैं । इस पर चलने वाले मनुष्य का दृष्टिकोण यह होता हैं कि जिसके मन और इन्द्रियों को जो कुछ भी प्रिय लगे उसे ही अपनाये, भले ही उसका परिणाम पीछे कितना ही अहितकर क्यों न होता हो । आज अधिकांश व्यक्ति इसी मार्ग पर चलते दिखाई पड़ते हैं । इन्द्रियों को जो प्रिय हैं उसी को असीम मात्रा में पाने और भोगने के लिए हर व्यक्ति उतावला हो रहा हैं । जीभ की खुजली अर्थात स्वाद भान्ति – भान्ति के स्वादिष्ट पदार्थ खाने से मिटती हैं तो हमारा प्रयत्न यही रहता हैं कि एक से एक बढ़िया ,  एक-से-एक चटपटे , मीठे – खट्टे , स्वादिष्ट पकवान, मिष्ठान, चाट - पकौड़ी खाने को मिलें । फिर जब यह पदार्थ सामने आते हैं तो हमें यह होश नहीं रहता कि हम क्या खा रहे हैं और कितना खा रहे हैं ? पेट के लिए इनकी कुछ उपयोगिता या आवश्यकता भी है कि नहीं ? चटोरा मनुष्य केवल स्वाद देखता है और वैद्य , चिकित्सक और हकीम दुकान के शब्दों में जीभ से अपनी कब्र खोदता हैं । यह सर्वविदित है कि अधिकांश रोग पेट की खराबी से होते हैं । यदि पेट ठीक रहे तो शरीर में निरोगता सुरक्षित रहेगी, पर यह देखा जाता है कि लोगों की जीभ काबू में नहीं होती । गरीब - अमीर सभी अपने भोजन को मिर्च मसाले और गुड़ - शक्कर के आधार पर स्वादिष्ट बना लेते हैं और फिर उसे पेट की आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा उदरस्थ कर जाते हैं। परिमाण स्पष्ट हैं , पाचन क्रिया खराब होती है , अशुद्ध रक्त बनने लगता है और मद अथवा तीव्र रोगों का अंगार शरीर में जमता है । अन्ततः मौत - बुढ़ापे के दिन तेजी से निकट आ जाते हैं। प्रेय मार्ग का यही परिणाम है । इन्द्रियों को जो चीज प्रिय लगती है मन उसके पीछे तेजी से  उतावली से बेतहाशा भागता हैं , आगा पीछा सूझना नहीं क्षणिक प्रसन्नता के लिए स्थायी स्वार्थों की भयंकर क्षति कर बैठता हैं । 
प्रेय का मार्ग सबके लिए खुला है । इस दुनिया में आकर तो दुनियादारी छोड़ी नहीं जा सकती । इसलिए इस पर चलते हुए भी श्रेय के मार्ग पर चला जा सकता है । प्रेय के मार्ग में जो कुछ आये , उसे स्वीकार करते हुए उसमें लिप्त न हो जाना चाहिए । यथा (मसलन) बिजली के पंखें हैं , कूलर हैं , गद्देदार पलंग हैं , मखमली कालीन हैं और दूसरे सुख - सुविधा अर्थात ऐशो- इशरत के सामान हैं। इनका भोग करते हुए खुद इनका भुक्त नहीं बन जाना चाहिए । यह नहीं कि इन वस्तुओं (चीजों) का गुलाम बन जाना चाहिए ।  अपने अन्दर सदैव अर्थात हमेशा ऐसी कबिलियात बनाये रखना चाहिए कि इनको छोड़ते समय इनके जाने का दुःख न हो । ये वस्तुएं जिंदगी का मकसद न बन जाएँ ।
जीवन का दूसरा ध्रुव अर्थात  है - श्रेय मार्ग । श्रेय मार्ग में हमें आज की अपेक्षा कल को महत्व देना और भविष्य के सुख के लिए आज वर्तमान में संयम को  अपनाना पड़ता है । कृषक वर्ग अर्थात किसान फसलोपज प्राप्ति हेतु  अपने घर में रखा हुआ अन्न खेत में बिखेर बो देता है । यही बीज आगे चल कर कई गुना होकर किसान को प्राप्त तो होता हैं परन्तु आज तो घर में रखी हुई बोरी खाली हो गई । विद्यार्थी दिन - रात पढ़ता हैं ठीक प्रकार से पूरी नींद सो भी नहीं पाता , खेलने और मस्ती करने की उम्र में मौज छोड़कर किताब के नीरस पन्नों में सिर खपाता रहता है । घर से शिक्षण शुल्क अर्थात फीस लेकर जाता है । किताब-  कापियों में पैसे खर्च होते हैं , अध्यापकों   की फटकार सुननी पड़ती हैं । इतना सब झंझट उठाने वाला विद्यार्थी जानता है कि अंततः  इसका परिणाम अच्छा , सुखकर ही होगा । जब शिक्षा पूर्ण करके अपनी बढ़ी हुई योग्यता का समुचित लाभ उठाऊंगा तब आज की परेशानी की पूरी तरह भर पाई हो जाएगी । श्रेय मार्ग ऐसा ही हैं इसमें वर्तमान को कष्टमय बनाकर कल के लिए स्वर्णिम भविष्य की आशा के अंकुर उगाने पड़ते हैं । वैज्ञानिक अन्वेषणकर्ता सम्पूर्ण जिंदगी प्रकृति के किन्हीं सूक्ष्म रहस्यों का पता लगाने के लिए एकाग्र भाव से एकान्त शोध कार्य में लगाते हैं तब जाकर कई प्रकार का आविष्कार होता हैं तो उसका लाभ सारे संसार को मिलता है । नेता, लोक-सेवक बलिदान , त्यागी, तपस्वी अपने आपको विश्व मानव के हित में होम कर देते हैं तब उस त्याग का लाभ सारे जगत को मिलता हैं । बीज अपनी हस्ती को गलाकर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है । नींव में पड़े हुए पत्थरों की छाती पर विशाल भवनों का निर्माण हुआ है । माता अपने रक्त और माँस का दान कर गर्भ में बालक का शरीर बनाती है और उसे अपनी छाती का रस दूध पिलाकर पालती- पोसती हैं तब कहीं पुत्रवती कहलाने का श्रेय उसे प्राप्त  है । यही श्रेय मार्ग है ।
जिन्दगी का उद्देश्य (मकसद) श्रेय मार्ग है , जो सांसारिकता (दुनियादारी) से दूसरा है ।  दुनियादारी पर चलता हुआ उसमे लीन होकर श्रेय मार्ग को भूल न जाने में ही इस जिन्दगी की कामयाबी है ।
और वह राह है जिन्दगी को यज्ञ रूप बना देने की । यग्य के अर्थ हैं - लोक कल्याण का कार्य अर्थात यज्ञमय कार्य । अर्थात खल्के खुदा को सुख और आराम पहुंचाना । यानी लोक कल्याण । धन - दौलत को अपने निर्वाह के लिए अप्ने पर प्रयोग कर बाकी सब दूसरों के सुख और आराम के लिए व्यय (खर्च) कर देना यज्ञमय जीवन कहलाता है । रूपया ,मकान , वस्त्र , सामान शारीरिक (जिस्मानी) और मानसिक (दिमागी) ताकत सब अपनी सम्पति (जायदाद) हैं । इसका अपने सुख और आराम के लिए इस्तेमाल कर बकाया (शेष) दूसरों के सुख और आराम के लिए इस्तेमाल करना श्रेय का मार्ग है । अपनी आवश्यकता (जरूरियात) इतनी बनानी चाहिए अर्थात् इतनी अल्प कर देनी चाहिए कि जितनी से हम दूसरों के लिए अधिकाधिक अर्थात ज्यादा से ज्यादा निकाल सकें ।

मनुष्य अपनी कर्मों अर्थात अमालों का स्वयं मालिक है। वह राह जानता हुआ भी उस पथ पर चल नहीं सकता । कभी चलना नहीं चाहता । यह अपनी - अपनी स्वभाव (तबीयत) और हिम्मत पर निर्भर करता अर्थात दारोमदार रखता है। जैसे एक व्यक्ति के पास पांच सौ रूपये हैं ।वह अपने दिन भर का खर्च पचास रूपये में चला सकता है और पांच सौ रूपये में भी उसका खर्चा पूरा नहीं हो सकता है । वह कितना दूसरों के लिए बचाता है यह उसकी काबिलियत और हिम्मत पर है ।

इसका कारण यह है कि मनुष्य शरीर में दस इन्द्रियाँ हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा हम इस संसार  का भोग करते हैं । इनके अतिरिक्त एक मन है । मन इन इन्द्रियों का संचालन करता है । मन के अतिरिक्त एक आत्मा है । वह इस शरीर का स्वामी है ।
इसे एक रथ की भांति समझा जा सकता है । रथ शरीर है। उसमें घोड़े इन्द्रियाँ हैं और मन सारथी है ।आत्मा पूर्ण रथ और सारथी का स्वामी है ।
आत्मा इस रथ में बैठा हुआ एक मार्ग पर जा रहा है । यह रथ उस मार्ग पर चलता जाये ,जिस पर उसे जाना है , इसके लिए यह आवश्यक है की घोड़े सारथी के वश में रहें और सारथी मालिक के काबू में रहे ।
मालिक को श्रेय मार्ग पर चलना है ।  इन्द्रियाँ अगर वश में न रहेंगी तो प्रेय मार्ग पर चल पड़ेंगी ।इसलिए घोड़े चलते हुए भी सारथि और मन की आज्ञा के अधीन ही चलें ।
इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि घोड़े अपनी मनमानी उतनी ही कर सकें , जितने से उनका जीवन और स्वास्थ्य चलता रहे । इन्द्रियों को अपने विषयों का उतना ही भोग करने दो , जितने में इन्द्रियां अर्थात शरीर का स्वस्थ जीवन रह सके।

Wednesday, November 26, 2014

मदिरा पान का प्रचलन बुद्धि की अवहेलना का परिचायक - अशोक "प्रवृद्ध"

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - २४ / ११ / २०१४ को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख - मदिरा पान का प्रचालन बुद्धि की अवहेलना का परिचायक


मदिरा पान का प्रचलन बुद्धि की अवहेलना का परिचायक
          - अशोक "प्रवृद्ध"

किसी भी राष्ट्र के उज्जवल , बेहतर और स्वर्णिम भविष्य के लिए उस देश के लोगों का स्वस्थ , सबल , मेघावी , दीर्घायु और उत्साही होना नितान्त आवश्यक है , लेकिन यह विडम्बना ही है कि वर्तमान में हमारे देश भारतवर्ष का युवा नशे के जाल में फँसता चला जा रहा है , जो न केवल उन्हें पतन और विनाश के गर्त में ढकेल रहा है वरन समाज व राष्ट्र के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लगा रहा है । हमारे देश में सभी प्रकार के मादक पदार्थों का प्रचलन द्रुतगति से दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है , जिसमें प्रमुख रूप से मदिरा अर्थात शराब , अफीम , डोडा-पोस्त , तम्बाकू , चरस , गाँजा , भाँग एवं नशीली दवाईयों के अतिरिक्त धूम्रपान (सिगरेट,बीड़ी) तो अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका है। महँगी और सर्वसुलभ नहीं होने के कारण नशे की अन्य वस्तुओं तक सबकी पहुँच थोड़ी कठिन है , इसलिए वर्तमान काल में मदिरा अर्थात शराब का प्रयोग बढ़ रहा है। यद्यपि बहुत ही प्राचीन काल से ही इसका प्रयोग प्रचलित रहा है , तथापि इसकी मात्रा अत्यंत न्यून थी। अधिक प्राचीन काल की बात न भी की जाये तो भी आज से बीस - तीस वर्ष पूर्व हमारे ढाई सौ परिवार के मोहल्ले में भी प्रत्यक्ष रूप में एक परिवार का मात्र एक ही घटक अर्थात व्यक्ति ऐसा दिखाई देता था जो मद्यपान करता था। वह कभी - कभी पीकर झूमता हुआ मोहल्ले में लड़ाई - झगडा करता भी दिखाई देता था। उस समय नगर भर में एक - दो दुकानें ही हुआ करती थी जहाँ शराब बोतलों में बिका करती थीं। खुली बोतलों वाली शराब की दुकान की ओर लोग जाना भी पसंद नहीं करते थे ।

उस समय फ़्रांस की प्रसिद्ध शैम्पेन की बोतल भी सौ रूपये से कम में ही मिल जाया करती थी। तदपि मद्यपान करने वालों की संख्या नगण्य ही हुआ करती थी। धीरे - धीरे समाज के घटकों में बुद्धि का नियंत्रण ढीला होने से मद्यपान करने वालों की संख्या में वृद्धि होंने लगी और अब नगर के किसी भी मोहल्ले में शराब की दुकान एकं अनिवार्यता हो गई है । यहीं हाल गाँवों की भी है। गाँवों में भी शराब की दुकाने खुल गई हैं । चुलाई की शराब की दुकाने अलग से हैं। राज्य अर्थात सरकार ने शराब पर कर अर्थात टैक्स बढ़ा दिया है। प्रत्येक दुकान और शराब बनाने वाली कम्पनियाँ प्रति वर्ष लाखों - करोड़ों रूपये टैक्स देती हैं । इस पर भी शराब का दुकानदार और कम्पनियाँ दिन - प्रतिदिन उन्नति कर रहे हैं। अर्थात उनका धन बढ़ता ही जा रहा है।

भारतवर्ष का कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है जो कि शराब की बिक्री से होने वाली आय को छोड़ने की बात सोचता हो। भारतवर्ष विभाजन के पश्चात तो शराब का प्रचार थोड़ा कम हुआ था , परन्तु कुछ कालोपरान्त पीने वाले और शराब उत्पादकों के सम्मिलित प्रयास का यह परिणाम हुआ कि अब महीने में करोड़ों - अरबों। रुपयों की शराब की बिक्री होने लगी है। सरकारी टैक्स के आधिक्य के कारण अनियमित शराब का उत्पादन भी प्रचुर मात्रा में होता है और वह भी खूब बिकती है। उसको पीने से प्रतिवर्ष लाखों लोग मृत्यु का ग्रास बनते हैं । यह सब होने पर भी शराब का प्रचलन दिन - प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। मदिरा पान अर्थात नशे की प्रवृति हर आयु वर्ग के लोगों में व्याप्त होती जा रही है । बच्चे , युवा , वृद्ध और महिलाएँ भी इससे अछूती नहीं रही है । युवा वर्ग तो विशेष रूप से इससे प्रभावित है । वर्तमान में राष्ट्र के समक्ष सर्वाधिक ज्वलन्त और महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या भावी पीढ़ी नशा - ख़ोर होकर रह जाएगी ?  ऐसे में क्या देश में कोई नीति कायम नहीं की जानी चाहिए , जिससे नशे की इस घातक - प्रवृति पर प्रभावशाली अंकुश लगाया जा सके ? नशा चाहे किसी भी प्रकार का हो और चाहे किसी भी आयु वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता हो , वह न केवल स्वास्थ्य के लिए ही अपितु सम्पूर्ण जीवन के लिए अत्यन्त घातक है। मदिरा पान अर्थात नशा करने वाले अक्सर नशे के दुष्परिणामों को जानते हुए भी अंजान बने रहते हैं और कुछ नासमझी में तो कुछ जान - बूझकर नशा करते हैं । लेकिन जान - बूझकर नशा करके अपनी मौत को बुलाना कहाँ की बुद्धिमानी है ?


यदि इसका विश्लेषण किया जाये तो पता चलेगा कि मदिरा पान से क्षणिक आनन्द की उपलब्धि  होती है । किन्तु उस आनन्द से जीवन का ह्रास भी होता है। मद्यपान करने वाले की बुद्धि न केवल क्षीण होने लगती है अपितु वह मलिन भी हो जाती है। परन्तु उस आनन्द कें मोह में पीने वाला मन , बुद्धि और आयु का ह्रास सहर्ष स्वीकार कर पान करता जाता है । इस प्रकार दिनानुदिन शराब का प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है। 

विद्वानों के मतानुसार मद्यपान करने से बुद्धि , आयु और बल का ह्रास होता है। परन्तु राज्याधिकारी कहते हैं कि इससे अरबों रूपयों का राजस्व प्राप्त होता है। अब कुछ ऐसे भी लोग सम्मुख आने लगे हैं जो मद्यपान को व्यक्तिगत प्रश्न कहकर उसकी स्वतंत्रता के नाम पर छूट चाहने लगे हैं। ये सब आनंद प्राप्ति के बहाने मात्र हैं । कतिपय मद्यपान करने वालों की इच्छा इतनी प्रबल हो जाती है कि वे बुद्धि की चेतावनी को अवहेलना कर जाते हैं। मन की। कल्पना , जो जीवात्मा की सुख की इच्छा के समर्थन में प्रस्तुत होती है , को जीवात्मा की स्वीकृति मिल जाती है और पूर्ण समाज विकृत होकर विनाश की ओर उन्मुख होने लगता है और उन्मुख हो रहा है। 
वस्तुस्थिति यह है कि किसी व्यवहार विशेष से सुख अथवा आनन्द की प्राप्ति होती है l जीवात्मा सुख की प्राप्ति की प्रबल कामना करता है l वह बुद्धि की चेतावनी की अवहेलना करके मन को आज्ञा देता है कि अमुक शराब पीओं , इतना गिलास अथवा पैग पीओं l 
मित्रों ! जब बुद्धि की चेतावनी की अवहेलना की जाती है तो मन की चंचलता को उच्छृंखलता  करने का अवसर सुलभ हो जाता है । अतः जातीय उत्थान अथवा राष्ट्रोत्थान के लिए जातीय अथवा राष्ट्र के घटकों में बुद्धि को इतना बलवान बनाया जाए कि वह आत्मा की कामनाओं को उचित दिशा देने में समर्थ हो l इसके साथ ही आत्मा के स्वभाव को बदला जाए जिससे वह इच्छाओं और कामनाओं में बह न सके l


सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं , जितने ‘देव” शब्द के अर्थ लिखे हाँ उतने ही “देवी” शब्द के भी हैं l

सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं , जितने ‘देव शब्द के अर्थ  लिखे हाँ उतने ही देवी शब्द के भी हैं l

परमात्मा के गुण -कर्म और स्वभाव अनन्त हैं, अतः उसके नाम भी अनन्त हैं | उन सब नामों में परमेश्वर का 'ओउम्' नाम सर्वोतम है, क्योंकि यह उसका मुख्य और निज नाम है, इसके अतिरिक्त अन्य सभी नाम गौणिक है | परमात्मा का मुख्य और निज नाम तो ओउम् ही है | वेदादि शास्त्रों में भी ऐसा ही प्रतिपादन किया गया है | कठोपनिषद् में लिखा है -
 सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ||
-कठोपनिषद २ | २५

 सब वे़द जिस प्राप्त करने योग्य प्रभु का कथन करते हैं, सभी तपस्वी जिसका उपदेश करते हैं, जिसे प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का धारण करते हैं, उसका नाम ओउम् है |

यह ओम् शब्द तीन अक्षरों के मेल से बना है-अ, उ और म् | इन तीन अक्षरों से भी परमात्मा के अनेक नामों का ग्रहण होता है, जैसे

 अकार से -विराट, अग्नि और विश्वादि |

 उकार से -हिरण्यगर्भ, वायु और तैजस आदि |

 मकार से -ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि |

 यहाँ इतना और जान लेना चाहिए कि अग्नि आदि ये नाम प्रकरणानुकूल अन्य पदार्थों के भी होते हैं, जहाँ जिसका प्रकरण हो वहाँ उसका ग्रहण करना चाहिए |

 'ओउम्' के अतिरिक्त प्रभु के अनन्त नाम हैं, क्योंकि प्रभु के गुण-कर्म और स्वभाव अनन्त हैं | प्रत्येक गुण-कर्म-स्वभाव का एक-एक नाम है | जैसे- सब जगत का रचयिता होने के कारण परमात्मा 'ब्रह्मा' है, इस जगत का निर्माण करके सबके अन्दर व्याप्त होकर वे ही ब्रह्माण्ड को धारण कर रहे हैं, अतः उनका नाम 'विष्णु' है | सारे संसार का संहार करने के कारण वे 'रूद्र' हैं | सबका कल्याण करने के कारण वे 'शिव' हैं | सबसे श्रेष्ठ होने के कारण उनका नाम 'वरुण' है | बड़ों से भी बड़ा होने के कारण वह 'बृहस्पति' हैं | देवों का देव होने के कारण वे 'महादेव' हैं | समर्थों में समर्थ होने के कारण वह 'परमेश्वर' है | स्वयं आनन्दस्वरूप और सबको आनन्द देने के कारण वह 'चन्द्र' है सबका कल्याण कर्ता होने के कारण उसका नाम 'मंगल' है | बलवानों-से-बलवान होने के कारण उसका नाम 'वायु' है | इस प्रकार महर्षि ने इस समुल्लास में परमात्मा के सौ१ नामों की निरुक्ति की है, परन्तु इन सौ नामों के अतिरिक्त भी परमात्मा के अनेक नाम हैं | ये सौ नाम-सिन्धु में बिन्दुवत ही हैं -
१. स्वामी वेदानन्दजी ने सत्यार्थ-प्रकाश के सौ नामों की गणना इस प्रकार दी है- १.ओउम् २.ख़म् ३.ब्रह्म ४.अग्नि ५.मनु ६.प्रजापति ७.इन्द्र ८.प्राण ९.ब्रह्मा १०.विष्णु ११.रूद्र १२.शिव १३.अक्षर १४.स्वराट १५.कालाग्नि १६.दिव्य १७.सुपर्ण १८.गुरुत्मान् १९.मातरिश्वा २०.भू २१.भूमि २२.अदिति २३.विश्वधाया २४.विराट २५.विश्व २६.हिरण्यगर्भ २७.वायु २८.तैजस् २९.ईश्वर ३०.आदित्य ३१.प्राज्ञ ३२.मित्र ३३.वरुण ३४.अर्यमा ३५.बृहस्पति ३६.उरुक्रम ३७.सूर्य ३८.आत्मा,परमात्मा ३९.परमेश्वर ४०.सविता ४१.देव, देवी ४२.कुबेर ४३.पृथिवी ४४.जल ४५.आकाश ४६.अन्न ४७.अन्नाद,अत्ता ४८.वसु ४९.नारायण ५०.चन्द्र ५१.मंगल ५२.बुध ५३.शुक्र ५४.शनैश्चर ५५.राहु ५६.केतू ५७.यज्ञ ५८. होता ५९.बन्धु ६०.पिता,पितामह,प्रपितामह ६१.माता ६२.आचार्य ६३.गुरु ६४.अज ६५.सत्य ६६.ज्ञान ६७.अनन्त ६८.अनादि ६९.सच्चिदानंद ७०.नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ७१.निराकार ७२.निरञ्जन ७३.गणेश ७४.गणपति ७५.विश्वेश्वर ७६.कूटस्थ ७७.शक्ति ७८.श्री ७९.लक्ष्मी ८०.सरस्वती ८१.सर्वशक्तिमान् ८२.न्यायकारी ८३.दयालु ८४.अद्वैत ८५.निर्गुण ८६.सगुण ८७.अन्तर्यामी ८८.धर्मराज ८९.यम ९०.भगवान् ९१.पुरुष ९२.विश्वम्भर ९३.काल ९४.शेष ९५.आप्त ९६.शंकर ९७.महादेव ९८.प्रिय ९९.स्वयम्भूऔर १००.कवि

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में कहा है कि परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं ! महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में कहा है कि -
जितने ‘देव शब्द के अर्थ  लिखे हाँ उतने ही देवी शब्द के भी हैं l परमेश्वर के तीनों लिंगों में नाम हैं , जैसे – ब्रह्म चितिश्वरेश्चेति l जब ईश्वर का विशेषण होगा तब देव , जब चिति का होगा तब देवी इससे ईश्वर का नाम देवी है l
सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में ही आगे शक्ति शब्द का शब्दार्थ करते हुए लिखा है कि –शक्लृ शक्तौ’ इस धातु से शक्ति’ शब्द बनता है l यः सर्वं जगत कर्तुं शक्नोति स शक्तिः जो सब जगत के बनाने में समर्थ है इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है l

श्री शब्द का व्याख्या करते हुए कहा गया है कि -

‘श्रिञ् सेवायाम्  इस धातु से ‘श्री’ शब्द सिद्ध होता है l यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च  स श्रीरीश्वरः’ . जिसका सेवन सब जगत , विद्वान और योगीजन करते हैं , उस परमेश्वर का नाम ‘श्री है l

लक्ष्मी शब्द का शब्दार्थ निम्नवत किया गया है -
लक्ष दर्शानाङ्कनयोइस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है l यो लक्ष्यति पश्यत्यङ्कते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः जो सब चराचर जगत को देखता , चिह्नित अर्थात दृश्य बनाता , जैसे शरीर के नेत्र ,नासिका और बृक्ष के पत्र , पुष्प , फल , मूल , पृथ्वी , जल के कृष्ण ,रक्त , श्वेत , मृतिका , पाषाण , चन्द्र , सुर्य्यादि चिह्न बनाता तथा सबको देखता , सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादि शास्त्र वा धार्मिक विद्वान योगियों का लक्ष्य अर्थात देखने योग्य है इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी’ है l

इसी प्रकार सरस्वती शब्द का शब्दार्थ करते हुए स्वामी दयानन्द ने कहा है कि -
सृ गतौ इस धातु से सरस् उससे मतुप् और ङीप प्रत्यय होने से ‘सरस्वती’ शब्द सिद्ध होता है l सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चितौ स सरस्वती जिसको विविध विज्ञान अर्थात शब्द अर्थ सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत होवे इससे उस परमेश्वर का नाम सरस्वती है l


साभार – महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास से 

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