Wednesday, January 29, 2014

वेद पठन - पाठन

वेद पठन- पाठन

वेद पढ़ने का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को है ।
 शूद्र भी वेद पढ़ सकता है ।
जो व्यक्ति विद्या -विहीन हो वह वेद कैसे पढ़ेगा ? हाँ जो व्यक्ति पढ़ा- लिखा है वह वेद पढ़ सकता है । ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र सभी को वेद पढ़ने का अधिकार है । किसी को भी वेद पढ़ने से मना नहीं किया जा सकता ।
स्त्री -जाति को भी वेद पढ़ने की अधिकार है ।
वेद में सभी वर्णों के कर्तव्य बतलाए गए हैं ,मनुष्य मात्र के लिए उपदेश दिया गया है ।नारी जाति के लिए भी उपदेश दिया गया है ।अब यदि किसी वर्ण या नारी जाति को वेद के पठन -पाठन से मना कर दिया जाए तो उन्हें अपने कर्तव्य कर्मों का ज्ञान नहीं हो सकेगा । वे धर्मं , अर्थ , काम और मोक्ष के बारे में नहीं जान पाएंगे। इससे ईश्वरीय उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकेगी । ईश्वर का उद्देश्य मनुष्य मात्र को सत्य -ज्ञान का उपदेश देना है । अतः सब को वेद पढ़ने का अधिकार मानना पड़ेगा ।

वेद पढ़ने से लाभ
वेद पढ़ने से अनेक लाभ हैं । मनुष्य को सत्य का ज्ञान होता है । वेद पढ़कर ही मनुष्य धर्मं , अर्थ , काम और मोक्ष के बारे में ठीक -ठीक जान सकता है ।अपने कर्तव्य -कर्मों का ज्ञान वेद के पठन एवं पाठन से ही हो सकता है । वेद के पढ़ने से प्राप्त सत्य - ज्ञान द्वारा मानसिक शांति मिलती है ।मनुष्य सच्चा सुख प्राप्त करता है ।वेद पढ़ने से प्राप्त ज्ञान द्वारा आत्मा की उन्नति होती है । वह दिन पर दिन शुद्ध पवित्र होता जाता है । उसके ऐश्वर्य , यश , वर्चस आदि में वृद्धि होने लगती है । वैदिक ज्ञान से ही आत्मा की मुक्ति संभव है ।

वेद के नहीं पढ़ने से मनुष्य सत्य - ज्ञान के अभाव में मिथ्या -ज्ञान में फंस जाता है ।अधर्म को ही धर्मं समझ लेता है । अधर्म का ही आचरण करने लगता है । इसलिए दुःख उठता है । धर्मं , अर्थ , काम और मोक्ष की सिद्धि से दूर होता जाता है । उसका जीवन दुखी हो जाता है ।मानवशरीर पाना व्यर्थ हो जाता है । आज संसार में जो दुःख और अशांति फैली हुई है इसके मूल में मानव द्वारा वेद पठन - पाठन को छोड़ देना ही है ।

वेद विभाग और वेद के विषय

वेद-विभाग और वेद के विषय

वेद के चार विभाग हैं --जिन्हें ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद के नाम से जाना जाता है ।
इस विभाजन का आधार है --उन में वर्णित विषय ।

ऋग्वेद में विज्ञान का वर्णन है । ऋग्वेद विज्ञान कांड है ।
यजुर्वेद में क्रिया और गति का वर्णन है । यजुर्वेद कर्म कांड है । सामवेद में उपासना का वर्णन है। सामवेद उपासना कांड है । अथर्ववेद में ज्ञान का वर्णन है । अथर्ववेद ज्ञान कांड है ।

ऋग्वेद का विभाग मंडलों में किया गया है । मंडल का अनुवाकों में और अनुवाक का सूक्तों में विभाग किया गया है । ऋग्वेद में दस मंडल हैं । ऋग्वेद के प्रथम मंडल में २४ अनुवाकों के १९१ सूक्तों में १९७६ मंत्र हैं ।
द्वितीय मंडल में ४ अनुवाकों के ४३ सूक्तों में ४२९ मंत्र हैं ।
तृतीय मंडल में ५ अनुवाकों के ६२ सूक्तों में ६१७ मंत्र हैं ।
चतुर्थ मंडल में ५ अनुवाकों के ५८ सूक्तों में ५८९ मंत्र हैं ।
पंचम मंडल में ६ अनुवाकों के ८७ सूक्तों में ७२७ मंत्र हैं ।
षष्ठ मंडल में ६ अनुवाकों के ७५ सूक्तों में ७६५ मंत्र हैं ।
सप्तम मंडल में ६ अनुवाकों के १०४ सूक्तों में ८४१ मंत्र हैं ।
अष्टम मंडल में १० अनुवाकों के १०३ सूक्तों में १७२६ मंत्र हैं । नवम मंडल में ७ अनुवाकों के ११४ सूक्तों में १०९७ मंत्र हैं ।दसम मंडल में १२ अनुवाकों के १९१ सूक्तों में १७५४ मंत्र हैं । इस प्रकार ऋग्वेद में कुल मिला कर ---
दस मंडलों में ८५ अनुवाकों के १०२८ सूक्तों में १०५८९ मंत्र हैं ।


यजुर्वेद का विभाग अध्यायों में किया गया है । यजुर्वेद में कुल ४० अध्याय हैं । यजुर्वेद के ४० अध्यायों में कुल १९७५ मंत्र हैं ।

सामवेद का विभाग आर्चिकों में और आर्चिक का विभाग अध्यायों में किया गया है ।।सामवेद में कुल ३ आर्चिक हैं ---(१)छंद आर्चिक जिसे पूर्वार्चिक भी कहते हैं , (२)महानाम्न्यार्चिक और (३) उत्तरार्चिक ।
छंद आर्चिक या पूर्वार्चिक को अध्यायों में और अध्याय को दशतियों में विभाजन किया गया है ।महानाम्न्यार्चिक के और उपविभाग नहीं हैं ।उत्तरार्चिक को अध्यायों में और अध्याय को सूक्तों में विभाजन किया गया है ।
पूर्वार्चिक के ६ अध्यायों को ६४ दशतियों में बांटा गया है ।पूर्वार्चिक में कुल ६४० मंत्र हैं ।
महानाम्न्यार्चिक में १० मंत्र हैं ।
उत्तरार्चिक में कुल २२ अध्याय हैं ।इन २२ अध्यायों में कुल ४०२ सूक्त हैं , जिनमें १२२५ मंत्र हैं ।
सामवेद में कुल १८७५ मंत्र हैं ।


अथर्ववेद का विभाग कांडों और सूक्तों में किया गया है ।
अथर्ववेद में २० कांड है ।
इन कांडों का विभाजन सूक्तों में किया गया है ।
अथर्ववेद के ७३१ सूक्तों में ५९७७ मंत्र हैं ।

वेद के विषय

वेद में लौकिक और पारलौकिक सभी विषयों का उपदेश दिया गया है । मनुष्य धर्मं ,अर्थ और काम की सिद्धि प्राप्त कर सके , इसलिए ईश्वर ने उसे लौकिक विषयों का उपदेश दिया है । धर्मं , अर्थ और काम की सिद्धि के पश्चात् मानव मुक्ति की और भी बढ़ सके , मुक्ति प्राप्त कर सके इस उद्देश्य से पारलौकिक , आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया है ।

लौकिक विषयों के उपदेश से कई लाभ है । लौकिक विषयों के उपदेश से ही तो मनुष्य को इस जीवन में सुख पूर्वक रहने का ज्ञान प्राप्त हो सकता है । बिना इस संसार के बारे में जाने - बूझे कोई व्यक्ति कैसे सुखी रह सकता है ? जैसे , किसी को स्वास्थ्य के नियमों का ज्ञान नहीं होगा तो वह बीमार रहेगा और दुःख पाएगा । जिसे लेन -देन का ज्ञान नहीं होगा उसका धन कोई ठग ले जाएगा । जिसे धन कमाने नहीं आएगा उसेभूखे मरना पड़ेगा , आदि - आदि । इन सभी के बारे में वेद उपदेश है ।

वेद में , मनुष्य की शरीर रचना , आरोग्य विज्ञान , चिकित्सा विज्ञान , प्राणि शास्त्र , वनस्पति विज्ञान , रसायन विज्ञान , भौतिक विज्ञान , गणित आदि विज्ञान की जितनी भी शाखा -उपशाखाएँ आज के वैज्ञानिक जानते हैं वे सभी तो है ही इनके अतिरिक्त ऐसे विज्ञान भी हैं जिनका पता आज के वैज्ञानिकों को नहीं है ।शिल्प कला , शिक्षण कला , संगीत कला , आदि सभी कलाओं का उपदेश भी वेद में पाया जाता है । नक्षत्र विद्या , कृषि विद्या , वाणिज्य विद्या आदि का वर्णन भी वेद में पाया जाता है । वेद सभी विद्याओं के ग्रन्थ हैं ।

वेद में जादू - टोने , झाड़ -फूंक , इन्द्रजाल आदि विद्याओं का वर्णन नहीं है । वेद में केवल सत्य विद्याओं का ही उपदेश है । वेद में मिथ्या विद्याओं का उपदेश नहीं है । मिथ्या विद्या उसे कहते हैं ---जो मानव को मिथ्या ज्ञान कराएँ अर्थात झूठा ज्ञान दें । जो चीज हो ही नहीं उसे होने का आभास करा दे । वास्तविक को अवास्तविक और अवास्तविक को वास्तविक होने का विश्वास दिला दे । जैसे --इंद्रजाल के द्वारा जो चीज न हो उसे प्रत्यक्षदिखा देते हैं । जैसे --किसी को बातों ही बातों में मोह लेना और उसका धन छल कपट से ले लेना । ये मिथ्या विद्याएँ कहलाएंगी ।

वेद में इतिहास नहीं है । वेद में इतिहास होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है । जब ईश्वर ने मनुष्य को बनाया उसी समय वेद का उपदेश भी दिया । अतः उस समय इतिहास की कोई बात हो ही नहीं सकती थी । इसीलिए वेद में इतिहास नहीं है ।

 वेद में किस्से कहानियां भी नहीं हैं । वेद में विशुद्ध ज्ञान के विषय ही है ।

पारलौकिक विद्या का अर्थ होता है -- वह विद्या जिसमें इस मानव जीवन के पहले या इसके बाद की स्थिति -परिस्थितियों का वर्णन हो । या यों कहें कि जन्म से पहले और मृत्यु के बाद की स्थिति के विषय । वेद में पारलौकिक विद्या के बारे में अनेक बातें बतलाईं गईं हैं । पाप -पुण्य , मृत्यु के पश्चात् कर्म फल के भोग के बारे में , पुनर्जन्म , मोक्ष आदि के बारे में वेद में उपदेश है ।

अध्यात्म विद्या -
जो विद्या आत्मा के बारे में बतलाती है उसे अध्यात्म विद्या कहते हैं । अध्यात्म विद्या में आत्मा परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान का उपदेश होता है । वेद में अध्यात्म विद्या का पूरी तरह प्रतिपादन किया गया है । आत्मा जन्म धारण क्यों करता है ? वह विभिन्न योनियों में क्यों जाता है ? कैसे जाता है ? आत्मा की उन्नति कैसे होती है ? वह मुक्ति कैसे प्राप्त करता है ? मुक्ति की अवस्था में आत्मा की स्थिति कैसी होती है ? आत्मा का स्वरुप कैसा है ? उसके गुण , कर्म और स्वभाव कैसे है ? परमात्मा का स्वरुप कैसा है ? परमात्मा सृष्टि रचना क्यों करता है ? परमात्मा के स्वरुप के ज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है ; अन्य कोई उपाय नहीं है , आदि बातों का वेद में उपदेश किया गया है ।

आत्मा की उन्नति के लिए वेद में कई उपाय बतलाए गए हैं ।
आत्मा की उन्नति के लिए सरल हृदय से ईश्वर की स्तुति , प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए ऐसा वेद में बतलाया गया है ।

मनुष्य धर्मं का पालन करे , धर्मं का पालन करते हुए धन कमाए , धर्म पूर्वक कमाए हुए धन से अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करे , अपना मानव जीवन सफल बना सके , और इनके आधार पर ही मुक्ति पथ का पथिक बनकर मुक्ति की प्राप्ति कर सके , इसके लिए आवश्यक सभी ज्ञान -विज्ञान , विद्याओं आदि का पूरा -पूरा वर्णन वेद में किया गया है ।

वैदिक ज्ञान पूर्णतः तर्क संगत है । वेद में किसी विषय का तर्क संगत ज्ञान ही दिया गया है । जो तर्क के विरुद्ध हैं , ज्ञान -विज्ञान के विरुद्ध हैं , बुद्धि के विपरीत हैं , प्रकृति के नियमों के विपरीत हैं , ऐसी बातें , ऐसा वर्णन , ऐसा उपदेश वेद में नहीं है ।

वैदिक भाष्य और और वेद के मुख्य भाष्य

वैदिक भाष्य और वेद के मुख्य भाष्य

पुरातन काल में वेदों के अनेक भाष्य प्रचलित थे । परन्तु आज कोई प्राचीन भाष्य नहीं मिलता है । हाँ ! इधर मध्य काल के तीन भाष्य अवश्य मिलते हैं ---उव्वट का भाष्य , महीधर का भाष्य और सायण का भाष्य । परन्तु आधुनिक युग में नव जागरण के अग्रदूत महान पुरोधा महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने जब वेदों का भाष्य किया तब उव्वट , महीधर और सायण के वेद भाष्य स्वामी दयानंद के वेद भाष्य के सामने धूमिल पड़ गए ।

 उव्वट , महीधर और सायण के वेद भाष्य के रहते हुए भी महर्षि दयानंद को वेद भाष्य करने की आवश्यकता पड़ी । इन भाष्यकारों द्वारा किए गए भाष्यों में अनेक गलतियाँ हैं ।वे वैदिक मन्त्रों का गलत अर्थ करते हैं ।जिससे वेद की महत्ता बहुत घट जाती है और वे अश्लील ग्रन्थ बन जाते हैं ।उन में ज्ञान विज्ञान की बातें कम हो जाता है ।ऐसी परिस्थिति में वेद मन्त्रों के ठीक -ठीक अर्थ बतलाने के लिए , वेद की महत्ता स्थापित करने के लिए , वेद ज्ञान -विज्ञान के ग्रन्थ हैं यह प्रमाणित करने के लिए , वेद में किस्से कहानियां , अश्लील बातें आदि नहीं हैं यह प्रमाणित करने के लिए महर्षि दयानंद को वेद- भाष्य करने की आवश्यकता पड़ी । महर्षि दयानंद ने अपने वेद- भाष्य की भूमिका में स्पष्ट रूप से लिखा है--- यह भाष्य ऐसा होगा कि जिससे वेदार्थ से विरुद्ध अबके बने भाष्य और टीकाओं वेदों में भ्रम से जो मिथ्या दोषों के आरोप हुए हैं वे सब निवृत्त हो जाएंगे ।

महर्षि दयानंद ने वेदों का अध्ययन किया था ।वेदांग अर्थात शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , ज्योतिष और छंद का अध्ययन किया था ।अन्य वैदिक शास्त्रों का भी गहन अध्ययन किया था । वेद में निहित ज्ञान कीगहराई को समझा था ।यही महर्षि दयानंद की विशेषता थी ।

उव्वट , महीधर और सायण में ये विशेषताएँ नहीं थीं ।
उव्वट , महीधर और सायण वेदों के विद्वान नहीं थे। इसलिए उनका वेद-भाष्य अनेक गलतियों , भ्रमों एवं असंगतियों से भरपूर है ।उन्होंने वेद के गहन अध्ययन के बिना ही वेद -भाष्य किया है ।अतः वेद में बतलाए गए ज्ञान को भी आगे और पीछे की बातों में मेल न दिखा सके ।


वे पुराणों के विद्वान थे । अतः जो भी वेद मंत्र उनके सामने होता था उसमें वे पौराणिक गाथाओं को ढूंढा करते थे । उनके वेद-भाष्य का आधार पुराण और पुराणों की कहानियां थी ।वे शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , ज्योतिष ,और छंद के आधार पर वेद मन्त्रों का अर्थ नहीं कर सकते थे ।

महर्षि दयानंद ने वेद -भाष्य के लिए पुराण और पुराणों की कहानियों का सहारा नहीं लिया ।
महर्षि दयानंद के वेद -भाष्य की अनेक विशेषताएँ हैं ।उन्होंने शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , ज्योतिष और छंद के आधार पर वेदों का भाष्य किया है ।इनके वेद -भाष्य में किसी प्रकार का आतंरिक विरोध नहीं दिखाई देता है , पूर्वापर पूर्णतया सामंजस्य है । महर्षि दयानंद के वेद -भाष्य द्वारा स्पष्ट रूप से ईश्वर की मान्यता के सम्बन्ध में , देवताओं के सम्बन्ध में , कर्मफल , पुनर्जन्म और मोक्ष के सम्बन्ध में , कर्त्तव्याकर्त्तव्य के सम्बन्ध में , भक्ति और उपासना के सम्बन्ध में , ज्ञान -विज्ञान के सम्बन्ध में निश्चित ज्ञान प्राप्त होता है । आधुनिक युग के ज्ञान -विज्ञान की सभी शाखाओं -उपशाखाओं का वेद में प्रतिपादन है ,यह स्पष्ट हो जाता है ।इस भाष्य से वेदों का सच्चा ईश्वरीय ज्ञान प्रकट हो गया है , वेदों का सर्वोपरीमहत्व प्रमाणित हो गया है ।

महर्षि दयानंद ने ऋग्वेद के सातवें मंडल के चौथे अनुवाक , इकसठवें सूक्त के मंत्र संख्या दो तक और पूरे यजुर्वेद का भाष्य किया है ।

ईश्वर एक है ,निराकार है , जन्म -मृत्यु के बंधन में नहीं आता है , वह सत् ,चित्त और आनंद है , सर्वशक्तिमान है , सृष्टि का कर्ता ,पालकऔर उपसंहार कर्ता है , वही सारी सृष्टि का स्वामी है , सर्व सद्गुण सम्पन्न है , सभी दुर्गुणों से रहित है , वह कर्मफल का भोक्ता नहीं है , आदि -आदि ।


ऋषि दयानंद ने वेद भाष्य में बतलाया है की ---जिनमें दिव्य शक्तियां हों वे देवता है : देवता चेतन या जड़ दोनों प्रकार के हो सकते है। देव का अर्थ विद्वान भी होता है ।सभी प्रकार की दिव्य शक्तियां ईश्वर में पुर्णरूपेण हैं । अतः ईश्वर ही सबसे बड़ा देव है , महादेव है । इन्द्र , वरुण , अग्नि , वायु जहाँ जड़ दिव्य शक्तियों के नाम हैं वहीँ विषय भेद से ईश्वर के नाम भी हो सकते है । माता , पिता , गुरु आदि साक्षात् चेतन देवी देवता हैं ।


महर्षि दयानंद के वेद -भाष्य के अनुसार वेद में सारी सत्य विद्याएँ भरी हैं , ज्ञान - विज्ञान की सभी बातें वेद में हैं , या यों कहें कि ज्ञान -विज्ञान की सारी बातें वेद से ही निकली हैं ।


दयानंद के वेद -भाष्य के आधार पर--- कर्मफल का भोग अवश्य होता है ;कर्मफल का भोग कर्ता को ही होता है ; ईश्वर से क्षमा याचना , प्रार्थना अथवा भोग आदि चढ़ा कर कर्मफल के भोग से नहीं बचा जा सकता है ; एक के द्वारा किए गए शुभ या अशुभ कर्मों के फलदूसरे को अर्पण नहीं किए जा सकते ।

वेद का अर्थ है ज्ञान

वेद का अर्थ है ज्ञान


वेद शब्द संस्कृत भाषा के “विद्” धातु से बना है । “विद्” का अर्थ है: जानना, ज्ञान इत्यादि । ‘वेद’ हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई । ऐसी मान्यता है कि इनके मन्त्रों को परमेश्वर ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था । इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है । वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दर पीढी पिछले चार-पाँच हज़ार वर्षों से चली आ रही है । वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं । वेद के असल मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं ।
वेद शब्द का अर्थ है - ज्ञान।
वेद --मन्त्रों को ऋचा कहते हैं । अन्य ग्रंथों के मन्त्रों को ऋचा नहीं कहा जा सकता ।जो विद्वान किसी वेद मंत्र का नया अर्थ ढूंढ़ निकाले उसे ऋषि कहते हैं ।
प्रत्येक ऋचा के अनेक अर्थ हो सकते हैं। एक विद्वान एक ऋचा से किसी एक ज्ञान को प्राप्त करता है, उसका एक अर्थ निकालता है ।परन्तु एक दूसरा विद्वान जब उसी ऋचा को पढ़ता है तब उसे एक नए अर्थ , नए ज्ञान की प्राप्ति होती है ।अतः ये दोनों विद्वान ऋषि कहलाएंगे । उसी ऋचा का कोई तीसरा विद्वान एक अन्य नया अर्थ निकालता है नए ज्ञान को प्राप्त करता है तो उसे भी ऋषि कहा जाएगा। इस प्रकार एक ही ऋचा के अनेकों ऋषि हो सकते हैं । उन ऋषियों ने एक ही वेद मंत्र के अलग -अलग , नए - नए अर्थ निकाले हैं ।

एक ही ऋचा के भिन्न -भिन्न अनेक अर्थ हो सकते हैं । परन्तु उनका अर्थ परमात्मा के गुण- कर्म और स्वभाव के विपरीत नहीं होना चाहिए ।

प्रत्येक वेद- मंत्र का देवता भी होता है ।देवता कहते हैं उस वेद मंत्र में प्रतिपादित विषय को ।अर्थात उस मंत्र में किस विषय का ज्ञान दिया गया है ।

एक ऋचा के अनेक देवता हो सकते हैं ।
एक ही ऋचा के अर्थ जब भिन्न- भिन्न ऋषि करते हैं ,तब उनके अर्थों में भिन्नता आ जाती है ।अर्थ अलग -अलग होने से विषय भी अलग हो जाते हैं ।विषय की भिन्नता के कारण एक ही ऋचा के कई देवता हो सकते हैं ।

वेद उन ग्रंथों को कहते हैं जिनमें ज्ञान -विज्ञानं की सभी बातें बीज रूप में हैं ।
बीज रूप में कहने का अर्थ है---वेद में ज्ञान -विज्ञानं की सारी बातें बहुत कम शब्दों में कही गई है । अर्थात छोटे में कही गई है । बड़े - बड़े विद्वान वेद पढ़ कर उसमें निहित गूढ़ ज्ञान को समझ लेते हैं और अपने शिष्यों को समझते हैं ।
जैसे बीज में पूरा पेड़ समाया होता है ,जब बीज को मिटटी में बोया जाय , उसे पानी मिले , तब उससे अंकुर निकलता है और विशाल पेड़ बन जाता है। वैसे ही जब वेद मन्त्रों को ऋषियों की मस्तिष्क रुपी ऊर्वरा भूमि मिलती है , वे उन मन्त्रों पर विचार करते हैं तब उस वेद मंत्र में निहित ज्ञान को समझ लेते हैं और व्याख्या करते हैं । इस प्रकार शिष्यों को वेद का ज्ञान प्राप्त होता है ।

वेद चार हैं । उनके नाम हैं -----ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद ।

वेद का ज्ञान परमपिता परमेश्वर ने दिया है । परमेश्वर ने वेद का ज्ञान मानवी - सृष्टि के आदि काल में ही दिया ।
परमात्मा ने सृष्टि के आदि काल में स्वयं उत्पन्न चार ऋषियों को वेद का ज्ञान दिया । उन चार ऋषियों के नाम थे ---अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा।ऋग्वेद का ज्ञान अग्नि ऋषि को , यजुर्वेद का ज्ञान वायु ऋषि को , सामवेद का ज्ञान आदित्य ऋषि को और अथर्ववेद का ज्ञान अंगिरा ऋषि को दिया गया ।
 निराकार ईश्वर ने ऋषियों को वेद का ज्ञान दिया ।
जैसे एक योगी अपना सन्देश दूर स्थित किसी दूसरे योगी के हृदय तक पहुंचा देता है उसी प्रकार परमयोगी परमात्मा ने वेद का ज्ञान उन चारों ऋषियों के हृदय में पहुंचा दिया ।
उन चारों ऋषियों ने वेद ज्ञान का उपदेश ब्रह्मा नाम के एक ऋषि को दिया । ब्रह्मा ने वेद का उपदेश अपने शिष्यों को दिया । उनके शिष्यों ने अपने शिष्यों को । इस प्रकार वेद का ज्ञान मानव समाज को गुरु - शिष्य परंपरा से प्राप्त होता रहा ।

उन चारों ऋषियों ने वेद को लिखा नहीं था ।
उनहोंने वैदिक ज्ञान का उपदेश ब्रह्मा के प्रति किया ।
ब्रह्मा ने सुनकर याद कर लिया ।
ब्रह्मा ने उसका उपदेश अपने शिष्यों के प्रति किया ।
शिष्यों ने सुनकर याद कर लिया और पुनः उन्होंने अपने शिष्यों को उसका उपदेश किया ।
इस प्रकार वेद का ज्ञान गुरु द्वारा शिष्य को सुनकर प्राप्त होता रहा । इसीलिए वेद को श्रुति भी कहते हैं ।

द्वापर युग के अन्तिम दिनों में वेद को लिपिबद्ध किया गया ।
वेद को ऋषिवर व्यास ने लिपिबद्ध किया ।
महर्षि व्यास ने देखा कि वेद के अध्ययन में अब लोग प्रमाद करने लगे हैं । लोगों में वेद पढ़ने की रूचि नहीं रह गई है ।
अतः कुछ समय पश्चात् वेद का ज्ञान लुप्त हो जाएगा ।
इसीलिए उन्होंने वेद को लिपिबद्ध किया ।
इस प्रकार वेद का ज्ञान सदा के लिए सुरक्षित हो गया ।
वेद व्यास को वेद के सारे मंत्र कंठस्थ नहीं थे ।
परन्तु जब उन्होंने वेदों का संकलन करने का निश्चय काया तब ऋषियों के पास जा -जा कर उन्होंने वेद मन्त्रों का संग्रह किया ।

परमात्मा ने मानव को इस धरती पर सुखपूर्वक जीवन निर्वाह कर सकने तथा मोक्ष प्राप्त कर सकने के लिए करुणा पूर्वक वेद का उपदेश दिया ।
मानव जीवन के लक्ष्य ---धर्मं , अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए परमात्मा ने वेद का उपदेश दिया ।


वेद मन्त्रों को पढ़कर उसे सभी व्यक्ति नहीं समझ सकते हैं ।
जिसने वेदांग , अर्थात शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , ज्योतिष और छंद का विधिवत अध्ययन किया हो वही वेद मन्त्रों के अर्थ समझ सकता है । वेद के विद्वान ऋषियों द्वारा वेद के भाष्य किए गए हैं ।उन्हें पढ़कर जन साधारण वैदिक शिक्षा से लाभ उठा सकता है ।

Tuesday, January 28, 2014

वायलिन का आविष्कार रावण ने किया था ।


वायलिन का आविष्कार रावण ने किया था ।

बाल्मीकि रामायण के अनुसार त्रेतायुगीन ऋषि विश्रवा पुत्र रावण प्रकांड विद्वान् , वेद ज्ञानी के साथ साथ अच्छा वास्तुकार ओर संगीतज्ञ भी था। रावण कृत शिव तांडव स्त्रोत इसका अच्छा उदाहरण है ।  विद्वानों के अनुसार रावण वॉयलिन बजाता था । कतिपय रामायणों के मुताबिक रावण वॉयलिन बजाता ही नहीं था बल्कि उसने 'कृष्ण यजुर्वेद' के भाष्य के अलावा वॉयलिन का आविष्कार भी किया था ।

रावण हत्था प्रमुख रूप से राजस्थान और गुजरात में प्रयोग में लाया जाता रहा है। यह राजस्थान का एक लोक वाद्य है। झारखण्ड के नागपुरी भाषा के कुछ पुराने ढंग के लोक गायकों के
द्वारा भी प्रयग में लाया जाता है । पौराणिक साहित्य और हिन्दू परम्परा की मान्यता है कि ईसा से सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व लंका के राजा रावण ने इसका आविष्कार किया था और आज भी यह चलन में है। रावण के ही नाम पर इसे रावण हत्था या रावण हस्त वीणा कहा जाता है। यह संभव है कि वर्तमान में इसका रूप कुछ बदल गया हो लेकिन इसे देखकर ऐसा लगता नहीं है। विद्वानों , लेखकों द्वारा इसे वायलिन का पूर्वज भी माना जाता है।
इसे धनुष जैसी मींड़ और लगभग डेढ़-दो इंच व्यास वाले बाँस से बनाया जाता है। एक अधकटी सूखी लौकी या नारियल के खोल पर पशुचर्म अथवा साँप के केंचुली को मँढ़ कर एक से चार संख्या में तार खींच कर बाँस के लगभग समानान्तर बाँधे जाते हैं। यह मधुर ध्वनि उत्पन्न करता है।



Friday, January 17, 2014

सत्संग और सत्-साहित्य से सुमति प्राप्त होती है और कुसंग तथा कुत्सित साहित्य से दुर्मति।

सत्संग और सत्-साहित्य से सुमति प्राप्त होती है और कुसंग तथा कुत्सित साहित्य से दुर्मति।

भाग्य और पुरुषार्थ में क्या प्रबल है ? यह विवाद नया नहीं है। यह आदिकाल से चला आता है। दोनों पक्ष-विपक्षों में प्रमाण तथा युक्तियाँ दी जाती हैं। कदाचित् यह विवाद अनन्त काल तक चलता ही रहेगा। क्योंकि मनुष्य की दृष्टि अतिसीमित है। इसकी दृष्टि की सीमा जन्म और मरण से पीछे अथवा आगे नहीं जाती। जो लोग केवल दृष्टि पर भरोसा करते हैं, वे जीवन के बहुत से रहस्यों से अनभिज्ञ रह जाते हैं। यह भाग्य और परिश्रम का विवाद उनका ही खड़ा किया हुआ है।

बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को उलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता। परन्तु सब यंत्रों की भांति इसकी सफाई, इसको तेल देना तथा इसकी मरम्मत होती रहनी चाहिए।

सफाई के लिए तो यम नियमों का विधान है और तेल देने तथा मरम्मत करने के लिए सत्संग तथा सत्-साहित्य सहायक होते हैं। इन दोनों को प्राप्त करने का माध्यम शिक्षा है। माध्यम स्वयं कुछ नहीं करता। जैसे बिजली का तार तो कुछ नहीं, यद्यपि यह महान् शक्ति के लिए मार्ग प्रस्तुत करता है। इसमें पॉजिटिव विद्युत का प्रवाह भी हो सकता है और निगेटिव का भी। दोनों शक्ति के रूप में हैं। परन्तु इससे जो मशीनें चलती हैं उनकी दिशी का निश्चय होता है। इसी प्रकार शिक्षा के माध्यम से सत्संग और सत्-साहित्य भी प्राप्त हो सकता है और कुसंग तथा कुसाहित्य भी। सत्संग और सत्-साहित्य से सुमति प्राप्त होती है और कुसंग तथा कुत्सित साहित्य से दुर्मति।

शिक्षा के माध्यम से सत्संग तथा सत्साहित्य कार्य करते हैं। इससे सुमति प्राप्त होती है। तब पुरुषार्थ सौभाग्य का सहायक हो जाता है।

खाङ्ग्रेस अर्थात काँग्रेस कभी भारतीय हो ही नहीं सकती ।

खाङ्ग्रेस अर्थात काँग्रेस कभी भारतीय हो ही नहीं सकती ।

जिस व्यक्ति के हाथ 1857 के संग्राम में भारतीय क्रांतिकारियों के खून से रंगे हों, उन्हें अपने संस्थापक रूप में पाने वाली खाङ्ग्रेस अर्थात कांग्रेस भारतीय हो ही नहीं सकती । इसके बावजूद भी अधिकांश भारतीय भेंड की रेंड़ की भांति एक के बाद एक उस पर गिरकर अर्थात मतदान के समय उसे अपना मत देकर भारत , भारतीय और भारतीयता को नष्ट करने पर तुले हुए हैं ।

ध्यातव्य हो कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी, जो बाद में (1870-1879) ब्रिटिश भारत सरकार के एक सचिव भी रहे, खाङ्ग्रेस अर्थात कांग्रेस के जनक माने जाते हैं। उनका नाम था- एलेन ऑक्टैवियन ह्यूम। उस समय भारत के अंग्रेज गवर्नर जनरल लॉर्ड डफरिन की सोच ही मूलरूप से कांग्रेस स्थापना के पीछे मौजूद थी। डफरिन ने ह्यूम को निर्देशित किया। इतना ही नहीं, उन्हें कांग्रेस-स्थापना से पहले इंग्लैण्ड भेजकर भारत के अनेक पूर्व अंग्रेज गवर्नर जनरलों से इस विषय पर बात करने को कहा। ह्यूम ने ब्रिटेन जाकर लॉर्ड रिपन, लॉर्ड डलहौजी आदि से वार्ता कर निर्देश तथा समझ प्राप्त की। उसके बाद 28 दिसम्बर 1885 को मुम्बई में कांग्रेस का जन्म हुआ।

जिस व्यक्ति के हाथ 1857 के संग्राम में भारतीय क्रांतिकारियों के खून से रंगे हों, उन्हें अपने संस्थापक रूप में पाने वाली कांग्रेस अपने आपको भारतीय कहे अर्थात अपना डीएनए भारतीय कहे, यह आश्चर्य ही नहीं, आपत्ति का विषय है। कांग्रेस के प्रारंभिक वर्षों में कई अंग्रेज इसके अध्यक्ष रहे। डेविड यूल (1988), विलियम वैडरबर्न (1889 और 1910), अल्फ्रैउ वैब (1894) और हेनरी कॉटन (1904) ऐसे ही नाम हैं। लगभग 20 साल तक कांग्रेस अधिवेशनों में ब्रिटिश राष्ट्रगान 'गॉड सेव द किंग' गाया जाता था। अधिवेशनों को निर्देशित करने के लिए हर वर्ष अनेक ब्रिटिश सांसद भारत आते थे। चार्ल्स ब्रॉडलो, पैथविक लॉरेंस, डब्ल्यू एस केन आदि दर्जनों नाम हैं। ये लोग कांग्रेस में पारित होने वाले प्रस्तावों की भाषा बनवाते थे। कांग्रेस को ब्रिटिश नियंत्रण में रखने के लिए यह जरूरी समझा गया था। इसी काम के लिए लंदन में एक 'ब्रिटिश कांग्रेस कमेटी' बनायी गयी थी। इस कमेटी का सारा खर्चा कांग्रेस उठाती थी। इसके लिए प्रतिवर्ष 10,000 रुपए से 60,000 रुपए तक भारत से लंदन जाते थे (उन दिनों जब सोना 20 रु. तोला था)।

1905 के बाद लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चन्द्र पाल के कारण कांग्रेस अपनी पूर्व निर्धारित राह से हटने की प्रवृत्ति दिखाने लगी। पर अंग्रेजों ने वैसा होने नहीं दिया। भारत छोड़कर जाने से पहले अंग्रेजों ने अपने संरक्षण में 'अंतिम अंग्रेज' जवाहरलाल नेहरू को सत्ता सौंपी, जो लॉर्ड मैकाले की कल्पना के अनुरूप मात्र रक्त व रंग से भारतीय थे पर 'सोच, रुचि, नैतिकता तथा कर्म' में अंग्रेज। अंग्रेजी डीएनए वाली, अंग्रेजी संस्थापक वाली, अंग्रेजी नाम वाली कांग्रेस सदा अंग्रेजी या पश्चिमी हितों को तरजीह देकर चली है। भारत विभाजन की ब्रिटिश योजना की कांग्रेस कमेटी द्वारा स्वीकृति (15 जून 1947) से लेकर अमरीका से यूरेनियम समझौते और एफडीआई संबंधी निर्णय तक अनेक मिसालें हैं। पश्चिमी दबाव में रहने के कारण ही कांग्रेस की पाकिस्तान नीति घुटनाटेक है।

Tuesday, January 14, 2014

आर्य , आर्यत्व और आर्यावर्त

आर्य , आर्यत्व और आर्यावर्त


आर्यावर्त हमारे देश का सर्वाधिक पुरातन नाम है और हमारी जाति का वास्तविक नाम आर्य है । जब मनुष्य जाति की उत्पति हुई , तभी से हमारी जाति का नाम आर्य पड़ा है ।हमारी जाति का सबसे पुराना नाम आर्य ही है ।अन्य नाम बाद में दिए गए हैं ।

 हमारी जाति का वास्तविक नाम आर्य ही है इसके एक नहीं अनेक प्रमाण है । हमारी जाति का मूल स्थान भारत ही है। भारत का सबसे पुराना नाम आर्यावर्त है । मनुस्मृति में कहा गया है -
आसमुद्रात्तु वै पुर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।
 तयोरेवान्तरम् गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः ॥
- मनुस्मृति - २/२२
अर्थात् - पुर्वीय समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक दोनों पर्वतों ( हिमालय और विन्ध्य ) के बीचवाले देशों को विद्वान लोग आर्यावर्त कहते है । उन दिनों विन्ध्य पर्वत के दक्षिण का भाग समुद्र में डूबा था या जन शुन्य था इसलिए आर्यावर्त की सीमा पूर्व में समुद्र तक , दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक , पश्चिम में समुद्र तक और उत्तर में हिमालय पर्वत तक बतलाई गई है ।आर्यावर्त अर्थात् आर्य जाति के रहने वाले देश - प्रदेश ।अतः मनुस्मृति से यही प्रमाणित होता है कि हमारी जाति का सब से पुराना नाम आर्य ही है।
एक और प्रमाण - हमारी संस्कृति की यह परंपरा रही है की हम किसी कार्य को करने के पहले उसका संकल्प लें ।अतः कोई भी पूजा पाठ आरम्भ करते समय सबसे पहले पुरोहित हम से संकल्प बुलवाते हैं । उस संकल्प में आता है - जम्बूद्वीपे भारतवर्षे - भरतखंडे आर्यावर्तांतरगत ब्रह्मावर्तैक देशे ... आदि। यहाँ भी भारत वर्ष को आर्यावर्त कहा गया है अर्थात् आर्य जाति के रहने का स्थान है।

आर्य शब्द का अर्थ हैं - श्रेष्ठ ।
आर्य शब्द का अर्थ है अच्छे गुणों , विचारों का धारण करनेवाला । आर्य शब्द का अर्थ है वैर भाव को नहीं बढ़ानेवाला , आर्य शब्द का अर्थ है अन्याय नहीं करनेवाला , आर्य शब्द का अर्थ है अन्याय नहीं सहनेवाला , आर्य शब्द का अर्थ है सद् भावना को धारण करनेवाला , आर्य शब्द का अर्थ है अपने कर्त्तव्य कर्म को दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाला ।

महाभारत में महात्मा विदुर ने कहा है -
न वैरमुद्दीपयती प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति ।
न दुर्गतो स्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्या:॥

ऊपर बताए गुण हमारी जाति में आरम्भ से ही थे । साथ ही मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने के लिए ये गुण आवश्यक हैं । अतः ये गुण हमारी जाति में आवश्यक रूप से होने ही चाहिए । ये गुण हमारी संस्कृति की पहचान हैं । इसीलिए हमारी जाति का नाम आर्य ही है ।

वेद में भी आर्य शब्द है। वेद में आर्य शब्द कई बार आया है । और वहाँ आर्य शब्द का प्रयोग ऊपर बताए गए अर्थों में ही हुआ है ।
ऋग्वेद में कहा है -
अहन भूमिददामार्यायाहं वृष्टिं दाशुषे मर्त्याम् ।
अहमपो अनयं वावशाना मम देवासो अनु केतामायन् ॥
ऋग्वेद  ४/२६/२
अर्थात् ( ईश्वर कहते हैं ) मैं आर्य के लिए भूमि देता हूँ । मैं दानशील मनुष्य के लिए धन की वर्षा करता हूँ । मैं घनघोर शब्द करनेवाले बादलों को धरती पर वर्षाता हूँ । विद्वानलोग मेरे ज्ञान ( उपदेश )के अनुसार चलते हैं ।
इस वेद मन्त्र में बतलाया गया है कि ईश्वर आर्य के लिए ही अर्थत अच्छे उत्तम मनुष्यों के लिए ही भूमि और धन देता है ।वर्षा करता है और ज्ञान देता है ।
ऋग्वेद में कहा है -
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ।
अपघ्नन्तो अराव्ण: ॥
ऋग्वेद ९/६३/५
अर्थात् - आत्मा को बढ़ाते हुए दिव्य गुणों से अलंकृत करते हुए तत्परता के साथ कार्य करते हुए अदानशीलता को , ईर्ष्या , द्वेष , द्रोह की भावनाओं को , शत्रुओं को परे हटते हुए सम्पूर्ण विश्व को , समस्त संसार को आर्य बनाएं ॥

श्रीमद्भगवद्गीता में आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है।
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन से कहा है -
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकिर्तिकरमर्जुन ।।
श्री मद्भग्वद गीता २/२
अर्थात् - हे अर्जुन ! तुम को विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ है , क्यों कि यह न तो आर्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों का प्रिय व उन द्बारा अपनाया गया है ।न स्वर्ग देनेवाला है और न कीर्ति को करनेवाला है ।
यह सभी जानते हैं की अर्जुन मोह में पड़कर अपना कर्तव्य - कर्म भूल चुका था और भिक्षा का अन्न खाने के लिए तैयार था । अपने धर्म को छोड़कर निन्दित कर्म करने के लिए तैयार था ।इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने उसे अनार्य कहा है ।और आर्यों के गुण अपनाने के लिए ही उसे पूरे गीता का उपदेश दिया है।भगवान श्री कृष्ण आर्य थे - अर्जुन आर्य था ।जब अर्जुन आर्य के कर्तव्य कर्म को छोड़कर अनार्य की तरह कर्म करने के लिए तैयार हुआ तब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को धिक्कारा और आर्य बने रहने के लिए उअपदेश दिया ।
अतः जो श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते हैं वे आर्य हैं , नहीं तो अनार्य हैं ।

 रामायण में भी आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है ।
वाल्मीकीय रामायण में आर्य शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है ।
भगवान राम के गुणों का वर्णन करने के पश्चात वाल्मीकि मुनि से नारद जी कहते हैं --
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैव प्रिय दर्शनः ॥ १/१६
वे आर्य एवं सब में समान भाव रखनेवाले हैं । उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है ।
एक मनुष्य में जितने अच्छे गुण होने चाहिए उन गुणों का वर्णन भगवान श्री राम में करने के पश्चात नारद जी उन्हें आर्य कहते हैं ।

अन्य अनेक ग्रन्थों में भी आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है ।
अन्य ग्रन्थों में भी आर्य शब्द का प्रयोग इन्हीं अर्थों में हुआ है ।
निरुक्त में कहा गया है -
आर्याः ईश्वर पुत्राः ॥
अर्थात् - आर्य ईश्वर के पुत्र हैं ।

आधुनिक विद्वान आर्य शब्द का प्रयोग इन्हीं अर्थों में करते हैं । भारत के मूल निवासी जितने भी हैं वे आर्य हैं ।
महाकवि मैथिलिशरण गुप्त ने भारत - भारती में लिखा है -
जग जान ले कि न आर्य केवल नाम के ही आर्य हैं ।
वे नाम के अनुरूप ही करते सदा शुभ कार्य हैं ॥
यहाँ महाकवि मैथिलिशरण गुप्त ने स्पष्ट रूप में भारतवंशी सनातन धर्मावलंबी मात्र को आर्य कहा है और उन्हें शुभ कार्य करनेवाला बतलाया है। भारत वर्ष के मूल निवासी मात्र को महाकवि मैथिलिशरण गुप्त आर्य मानते थे - तभी तो उन्होंने लिखा है -
मानस - भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती -
भगवान ! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती ॥
महाकवि रविन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है -
हेथाय आर्य हेथा अनार्य हेथाय द्राविड़ चीन ।
शक - हूण - दल , पाठान - मोगल एक देहे हलो लीन ॥
अर्थात - यहाँ आर्य हैं , अनार्य , द्राविड़ और चीन वंश के लोग भी हैं । शक , हूण, पठान और मोगल न जाने कितनी जातियों के लोग आए और सभी एक ही देह में लीन हो गए ।
भारत में आर्य जाति थी । अन्य जातियाँ आईं और उसी में विलीन हो गईं ।

Saturday, January 11, 2014

मनुस्मृति के अनुसार भ्रष्ट राज्यकर्मियों की संपत्ति जब्त की जानी चाहिये - अशोक "प्रवृद्ध"

मनुस्मृति के अनुसार भ्रष्ट राज्यकर्मियों की संपत्ति जब्त की जानी चाहिये
अशोक "प्रवृद्ध"

                       यह एक सर्वविदित तथ्य है कि हमारे देश में राजकीय क्षेत्र में भ्रष्टाचार अत्यंत गहरे स्तर तक व्याप्त हो चूका है । पुरातन भारतीय  ग्रंथों के अनुसार जिन लोगों के पास राज्यकर्म करने का अधिकार अर्थात जिम्मा होता है उनमें भी सामान्य मनुष्यों की तरह अधिक धन कमाने की प्रवृत्ति होती है और राजकीय अधिकार प्राप्त होने से वे उसका गलत इस्तेमाल करने लगते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक है परन्तु राज्य प्रमुख को इसके प्रति सजग रहना चाहिये।  राज्य के राजा अर्थात राज्य प्रमुख (आज के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री गण) का यह कर्तव्य है कि वह अपने कर्मचारियों की गुप्त जांच कराता रहे और उनको दंड देने के साथ ही अन्य कर्मचारियों को अपना काम ईमानदारी से काम करने के लिये प्रेरित करे। भारतीय पुरातन ग्रंथों में भ्रष्ट राज्यकर्मियों और भ्रष्ट राज्यकर्मियों के दंड , यहाँ तक कि भ्रष्ट राज्यकर्मियों
की संपत्ति जब्त करने और दण्डित किये जाने के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण अंकित मिलते हैं । संसार के प्रथम स्मृति अर्थात संहिता ( कानून ) ग्रन्थ मनुस्मृति में स्मृतिकार मनु महाराज कहते हैं -

राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदिमाः प्रजाः।।
                      - मनुस्मृति 7.124
 
अर्थात -प्रजा के लिये राज्य कर्मचारी अधिकतर अपने वेतन के अलावा भी कमाई क्रने के इच्छुक रहते हैं अर्थात उनमें दूसरे का माल हड़पने की प्रवृत्ति होती है। ऐसे राज्य कर्मचारियों से प्रजा की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख को तत्पर रहना चाहिये।

ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्यीयु: पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वामदाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्।।
- मनुस्मृति 7.125
                        अर्थात -प्रजा से किसी कार्य के लिये अनाधिकार धन लेने वाले राज्य कर्मचारियों को घर से निकाल देना चाहिये।  उनकी सारी संपत्ति छीनकर उन्हें देश से निकाल देना चाहिये।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठम् समुल्लास में मनुस्मृति के श्लोक के आधार पर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर प्रधानमंत्री और न्यायाधीश तक को दण्डित किये जाने के सम्बन्ध में लिखा है -

कार्षापणं भवेदण्डयो यत्रान्य: प्राकृतो जन:|
तत्र राजा भवेदण्डय: सहस्त्रमिति धारणा|| मनुस्मृति८.३३६ ||

साधारण जनता से राजा को सहस्त्र गुणा दण्ड होना चाहिये, (जिस अपराध में साधारण प्रजा को एक जूता मारा जाये उसी अपराध मे‍ राजा को एक हजार जूते मारने का दण्ड देना चाहिये|

प्रश्न : जो राजा वा रानी अथवा न्यायाधीश वा उसके परिवार का को‍ई भी सदस्य व्यभिचारादि कुकर्म करे
तो उसको कौन दण्ड देवे ?

उत्तर : सभा, अर्थात उसको तो प्रजापुरुषों से भी अधिक दण्ड होना चाहिये|

जो राजा दण्ड देने योग्य को छोड़ देता और जिसको दण्ड देना न चाहिये, उसको दण्ड देता है
वह जीता हुआ बड़ी निन्दा को और मरे पीछे बड़े दु:ख को प्राप्त होता है इसलिये अपराधी को
दण्ड मिले, अनपराधी को दण्ड कभी न देवे|

अदब्डयान्दण्डयन् राजा दण्डयांश्चैवाप्यदण्डयन् |
अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति || मनुस्मृति ||८|१२८ ||

निष्कर्ष यह है कि आज लोकतन्त्र की हत्या करके सरकार ने निरपराध साधु - संतों और अन्यान्य निरपराध लोगों को बिना किसी अपराध के बरबर्तापूर्ण कुक्रत्वय किया है यह क्षमा करने के योग्य नहीं है इसका उन्हें दण्ड भुगतने के किये तैयार रहना होगा परमेश्वर न्यायकारी है|

                      पुरातन भारतीय ग्रन्थ अर्थात भारतीय अध्यात्मिक दर्शन राजस कर्म की मर्यादा और शक्ति बखान करता है।  मनुष्य स्वयं सात्विक भले हो पर अगर उसके जिम्मे राजस कर्म है तो वह उसे भी दृढ़ता पूर्व निभाये यही बात भारतीय पुरातन अध्यात्मिक दर्शन कहता है।  हमारे पुरातन भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को शायद इसलिये ही शैक्षणिक पाठ्यक्रम से दूर रखा गया है क्योंकि उसके अपराधियों के साथ ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी कड़े दंड का प्रावधान किया गया।

आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार विषैले भोजन की पहचान जरूरी - अशोक "प्रवृद्ध"

आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार विषैले भोजन की पहचान जरूरी 
अशोक "प्रवृद्ध"

             वर्तमान काल में खाद्य और पेय  वस्तुओं में मिलावट की बात आम हो गयी है। स्थिति यहाँ तक आ पहुँचीं है कि ज्यादा आय करने के इच्छुकं अनेक लालची और धूर्त लोग खाने के सामान में अभक्ष्य तथा अपच सामान मिलाकर बेचते हैं।  कुछ ऐसे भी अत्यधिक दुष्ट प्रवृति के लोग हैं जो यह जानते हुए कि उनकी सामग्री विषाक्त है वह उसे खाने पीने के लिये ग्राहक या प्रयोक्ताओं को बेच देते हैं। देश में खाद्य - पेय पदार्थों की रख - रखाव व बिक्री की स्थिति यह है कि हम हर जगह इस विश्वास के साथ भोजन नहीं कर सकते कि वह स्वच्छ है।  सामान्य लोगों को भोजन के दूषित होने की जानकारी सहजता से नहीं रहती , जबकि हमारे पुरातन भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की पुस्तकों में इस विषय में अनेक प्रमाण दिये गये हैं।

    कौटिल्य के अर्थशासत्र में बताया गया है कि

    भोज्यमन्नम् परीक्षार्थ प्रदद्यात्पूर्दमग्नये।

    वयोभ्यश्व तत दद्मातत्र लिङ्गानि लक्षयेत्।।

           अर्थात , भोजन योग्य अन्न की परीक्षा करने के लिये  पहले अग्नि को दें और फिर पक्षियों को देकर उनकी चेष्टा का अध्ययन किया जा सकता है।

    धूमार्चिर्नीलता वह्नेः शब्दफोटश्व जायते।

    अन्नेन विषदिग्धेन वयसां मरणभवेत्।।

            अर्थात - यदि अग्नि से नीला धुआं निकले और फूटने के समान शब्द हो, अथवा पक्षी खाने के बाद मर जाये तो मानना चाहिये कि वह अन्न विषैला है।

    अस्विन्नता मादकत्यमाशु शल्यं विवर्णता।

    अन्नस्य विषदिगधस्य तथाष्मा स्निगधमेचकः।।

                     अर्थास्त - विष मिला हुआ भोजन आवश्यकता से अधिक गर्म तथा चिकना होता है।

    व्यञ्जनस्याशु शुष्कत्वं क्वथने श्यामफेनता।

    गंधस्पर्शरसाश्वव नश्यन्ति विषदूषाणात्।।

        अर्थात -बने हुए व्यंजन का जल्दी सुखता है। पकाते समय काला फेल उठना  विष दूषित अन्न के ही लक्षण है।

Thursday, January 2, 2014

मनुस्मृति वेद का सार है ।

मनुस्मृति वेद का सार है ।

स्वयंभू मनु पहले मनुष्य हैं। सारी धरती पर बसने वाले मनुष्य उसी एक पिता की सन्तान हैं। उस पिता को मनु कहा जाता है। मनुष्य शब्द में मनु जी का नाम समाहित है। उनका नाम न आए तो मनुष्य अपनी पहचान भी न जान पाए। अंग्रज़ी में मनुष्य को मैन कहा जाता है। इसमें भी मनु के नाम के 3 अक्षर मौजूद हैं। हिब्रू और अरबी में उन्हें आदम कहा जाता है और उनकी औलाद को बनी आदम कहा जाता है। आदम नाम की धातु ‘आद्य’ संस्कृत में आज भी पाई जाती है। वास्तव में स्वयंभू मनु और आदम एक ही शख्सियत के दो नाम हैं।

संस्कृत में मनुस्मृति के नाम से उनकी शिक्षाओं का एक संकलन भी मिलता है । उनकी शिक्षाओ के रचनाकाल अथवा उनकी शिक्षाओं के संकलन के रचनाकाल पर विचार करना ही इस आलेख का उद्देश्य है ।
स्वामी दयानन्द जी ने वेद की भांति मनुस्मृति को भी सृष्टि के आदि में हुआ माना है। सृष्टि के आदि विषय में स्वामी जी ने मनु को बताया है और मनुस्मृति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष पुराना माना है। महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में मनुस्मृति के विषय में कहा है -

‘यह मनुस्मृति जो सृष्टि के आदि में हुई है’ (सत्यार्थप्रकाश,एकादशसमुल्लास,पृ.187)

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्ति., पृ.17 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा है -
‘यह जो वर्त्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें (7) वैवस्त मनु का वर्त्तमान है, इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं। स्वायम्भव 1, स्वारोचिष 2, औत्तमि 3, तामस 4, रैवत 5, चाक्षुष 6, ये छः तो बीत गए हैं और सातवां वैवस्वत वर्त्त रहा है.’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्ति., पृ.17)


स्वामी जी ने बताया है कि एक मन्वन्तर में 71 चतुर्युगियां होती हैं। एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं। सतयुग में 1728000 वर्ष, त्रेता में 1296000 वर्ष, द्वापर में 864000 वर्ष और कलियुग में 432000 वर्ष होते हैं। इन चारों युगों में कुल 4320000 वर्ष होते हैं। 71 चतुर्युगियों में कुल 306720000 वर्ष होते हैं। छः मन्वन्तर अर्थात 1840320000 वर्ष पूरे बीत चुके हैं और अब सातवें मन्वन्तर की 28वीं चतुर्युगी चल रही है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लिखे जाते समय तक सातवें मन्वन्तर के भी 120532976 वर्ष बीत चुके थे। इस तरह स्वामी जी के अनुसार उस समय तक स्वयंभू मनु को हुए कुल 1960852976 वर्ष, एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष बीत चुके थे।

स्वामी जी ने यही काल स्वयंभू मनु का बताया है, और उस काल के स्वयंभू मनु को मनु स्मृति का स्मृतिकार बतलाया है । उसमें जो श्लोक मनु के नाम से कहे गए हैं, वास्तव में उन्हें गुरू - शिष्य परम्परा में श्रुति - वाचिक प्रक्रिया के अंतर्गत पीढ़ी दर पीढ़ी स्मरण कर्तेभुये संरक्षित किया जा रहा था , जिसे बाद में लिपिबद्ध कर लिया गया ।  मनु स्मृति का स्वयंभू मनु से ही संबंध है। हालाँकि स्वामी दयानंद जी ने मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानकर उसके कुछ श्लोकों को नहीं माना है । उन्होंने कहा है कि मनुस्मृति के कुछ श्लोक प्रक्षिप्त हैं और उनका कुछ पता नहीं है कि उन्हें कब और किसने लिखा है?

भारतवर्ष में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यताप्राप्त ग्रंथों में  ‘मनुस्मृति’ का ही नाम आता है। मनु महाराज के मनुस्मृति में चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव हैं यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है।
महर्षि बाल्मीकि रचित रामायण और महर्षि वेदव्यास (कृष्णद्वेपायन ) रचित महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा अनेकों स्थानो पर आयी है किन्तु मनुस्मृति में रामायण , महाभारत व बाल्मीकि , व्यास जी का नाम तक नही । हाँ ! मनुस्मृति में मनु महाराज ने वेदों का जिक्र किया है और वेदों की महिमा का गान अनेक श्लोकों में किया है ।
वेद के सन्दर्भ में अनेक वचन मनु स्मृति में आये है बल्कि यह कहना उचित होगा मनुस्मृति वेद सार ही है । अतः वेद मनु से प्राचीन है -
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम ।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु : समलक्षणम् ॥ मनु १/१३
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारो ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये उस ब्रह्मा ने अग्नि , वायु, आदित्य और [तु अर्थात ] अंगिरा से ऋग , यजुः , साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया ।

वेदोSखिलो धर्ममूलम् ।  मनु २/६
वेद सम्पूर्ण धर्म (कानून Law) का मूल है ।

यः कश्चित्कस्यचिधर्मो मनुना परिकीर्तित : ।
स सर्वोSभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ॥ मनु २/९
मनु ने जिस किसी को जो कुछ भी धर्म कहा है वह सब वेद के अनुकूल ही है , क्योकि वेद सर्वमान्य है ।

नास्तिको वेदनिंदकः ।  मनु २/११
वेद कि निंदा करने वाले नास्तिक (अनीश्वरवादी) है


मनुस्मृति में वेदों का सार है । मनुमृति को बिना समझें उसकी निंदा करने वाले और उसे जलाने वाले धर्मद्रोहियों के लिए मनुस्मृति का यह श्लोक पठनीय है -
निषेकादिश्मशानान्तो मंत्रैर्यस्योदितों विधि: |
तस्य शास्त्रेsधिकारोsस्मिन्यज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित | – मनुस्मृति
मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों का वर्णन, वेद के जिस प्रकरण में है उसी को मनुस्मृति में लिया गया है , हमने उसके अतिरिक्त अपनी ओर से आँय कुछ भी नहीं कहा है !

मनुस्मृति में श्लोक ११/६ के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते।

इत्यादि अनेक वचन है जो वेद के सन्दर्भ में मनु में आये है बल्कि यह कहना उचित होगा मनुस्मृति वेद सार ही है । अतः वेद मनु से प्राचीन है इसमें लेशमात्र भी संदेह नही ।
वैदिक व भारतीय पुरातन ग्रंथों के जानकारों कहना है कि मनुस्मृति में जहाँ कहीं भी वेद विरुद्ध आचरण दिखे वो प्रक्षेप (मिलावट ) है अतः त्याज्य है ।

Wednesday, January 1, 2014

पहली जनवरी - खतना दिवस मुबारक हो .. खुश सुन्नत दिन

पहली जनवरी - खतना दिवस मुबारक हो .. खुश सुन्नत दिन

जन्म के एक सप्ताह बाद ईसा मसीह का खतना पहली जनवरी को हुआ था ... इसके अतिरिक्त और कोई विशेष बात ईसा मसीह के जीवन से संबंधित इस दिन तो नहीं हुई है  । क्या इसीलिए इसे नया साल के रूप में मानना ​​चाहिए ? अगर ऐसी बात है तो

 हैप्पी खतना दे टू यू ऑल ..!

यीशु का खतना

अंग्रेजी कैलेंडर का नववर्ष एक जनवरी को शुरू होता है । यीशु का जन्म पच्चीस दिसंबर को हुआ था । यीशु के जन्म के बाद उसका खतना किया गया था । एक जनवरी के दिन ईसा मसीह के नामकरण (यीशु की सुन्नत {सुन्नत या खतना से मतलब जननांग या लिंग की उपरी चमड़ी को काटना है लिंगमुंडच्छद } से सम्बंधित एक घटना है ।

कुछ विद्वानों का मत हैं कि जन्म के एक सप्ताह के पश्चात् इक जनवरी को यीशु का खतना हुआ था और कुछ का कहना है कि यीशु जब आठ दिनों का हुआ तब हुआ था। उनके अनुसार यीशु का जन्म (पारंपरिक 1 जनवरी) के बाद खतना किया गया था ।कविता 2:21 में उद्धृत कथन में कहा गया हैं कि ल्यूक के सुसमाचार के अनुसार नासरत का यीशु के जीवन से सम्बंधित एक घटना है यीशु का खतना । इस हलाखः  (Halakhah) पुरुषों में भी उनका नाम दिया जाता है, जिस पर एक विशेष प्रकार का ब्रिट मिलाह (milah) समारोह के दौरान जन्म के आठ दिनों के बाद खतना किया जाना चाहिए , जो मानती है कि यह यहूदी कानून के अनुरूप है। मसीह का खतना के बाद 10 वीं सदी से खतना ईसाई कला में एक बहुत ही आम विषय बन गया है, मसीह के जीवन में अनेक घटनाओं में से एक अक्सर इस घटना को कलाकारों द्वारा दर्शाया (जाए) जाता है । यह शुरू में ही बड़ा चक्र में एक दृश्य के रूप में देखा गया था, लेकिन पुनर्जागरण काल से एक पेंटिंग के लिए एक व्यक्ति के विषय के रूप में इलाज, या एक altarpiece में मुख्य विषय फार्म का हो सकता है।

इवेंट कैलेंडर (पुराने या नए) का उपयोग किया जाता है, दोनों में ही एक जनवरी को पूर्वी रूढ़िवादी चर्च में खतना के पर्व के रूप में मनाया जाता है, और भी कई एंग्लिकन द्वारा एक ही दिन मनाया जाता है. यह लंबे समय से 1 जनवरी को मनाया जाता था, हालांकि कुछ अन्य चर्चों अभी भी करते हैं, क्योंकि हाल के वर्षों में यह एक वैकल्पिक मेमोरियल के रूप में 3 जनवरी को  यीशु के पवित्र नाम का पर्व के रूप में रोमन कैथोलिक द्वारा मनाया जाता है. पवित्र लिंगमुंडच्छद होने का दावा अवशेष का एक नंबर, यीशु की चमड़ी, सामने आए हैं।

विशेष जानकारी के लिए (http://en.m.wikipedia.org/wiki/Circumcision_of_Jesus)

अभिमानी का सिर नीचा होता है । - अशोक "प्रवृद्ध"

अभिमानी का सिर नीचा होता है ।
अशोक "प्रवृद्ध"

 अभिमानी का सिर नीचा होता है, परंतु इस संसार में ऐसे लोग भी हैं जो सिर नीचा होने पर भी, उसको नीचा नहीं मानते। ऐसे लोगों के लिए ही कहावत बनी है—‘रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटे’।
इसका कारण मनुष्य की आद्योपांत विवेक-शून्यता है। विवेक अपने चारों ओर घटने वाली घटनाओं के ठीक मूल्यांकन का नाम है।

मन के विकार हैं—काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार। जब इन विकारों के कारण बुद्धि मलिन हो जाती है तो वह ठीक को गलत और गलत को ठीक समझने लगती है। इसको विवेक-शून्यता कहते हैं।
मन के विकारों में अहंकार सबसे अन्तिम और सबसे अधिक बुद्धि भ्रष्ट करने वाला है। अहंकारवश मनुष्य ठोकर खाकर गिर पड़ता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने से वह नहीं मानता कि वह गिर पड़ा है अथवा उसका अभिमान व्यर्थ था। वह अपनी भूल स्वीकार नहीं करता और अन्त तक कहता रहता है—मैं न मानूँ, मैं न मानूँ।

व्यक्ति अथवा जातियों के जीवन में समय-समय पर ऐसे उदाहरण मिलते रहते हैं। पिछले विश्वव्यापी युद्ध में जर्मनी की पराजय 1944 के जून मास में आरम्भ हुई थी। तब ही रोमेल इत्यादि जनरल हिटलर को चेतावनी दे रहे थे कि उसके सैनिक-संगठन में दोष है, परन्तु अपनी प्रारम्भिक विजयों से मदान्ध हिटलर उसे नहीं समझ पाया। वह अन्त तक भी यह न समझ सका कि उसकी सम्पूर्ण योजना बालू की भाँति गिरती जा रही है। अन्त समय में भी वह अपनी भूल को नहीं माना।

अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

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