Monday, October 20, 2014

मूर्ति - पूजा का बौद्धिक पक्ष


मूर्ति - पूजा का बौद्धिक पक्ष 

जहाँ तक मूर्ति पूजा का प्रश्न है , मूर्ति पूजा पर श्रद्धा करना एक प्रकार से हीन प्रथा है , परन्तु मूर्ति पूजा का बौद्धिक रूप भी है , जिसे हम स्वीकार करते हैं . जब कभी भी हम नरसिंह अवतार को हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ते हुए का चित्र देखते हैं तो हमको मेजिनी और गैरीबाल्डी का शौर्यपूर्ण कृत्य स्मरण होने लगता है .इन दोनों ने जनता के बल के आधार पर इटली सर ऑस्ट्रिया वालों को खदेडकर बाहर कर दिया था .इसके स्मरण आते ही नरसिंह को इसी रूप में स्मरण कर उसके सम्मुख हाथ जोड़ कर प्रणाम करने को मन करता है .यह है मूर्ति पूजा का बौद्धिक रूप . जब श्रीराम और लक्ष्मण को धनुष - वाण कन्धे पर लिए सीता के साथ वन में विचरण करते हुए का चित्र देखते हैं तो रावण तथा उसके जैसे अन्य राक्षसों के अत्याचार से पीड़ित वनवासियों को स्मरण कर श्रीराम और लक्ष्मण के सम्मुख नतमस्तक हो जाते हैं . यह है मूर्ति पूजा का बौद्धिक रूप .
ईसाईयों ने हिंदुओं के इन रिवाजों को निन्दनीय कहना आरम्भ किया . अङ्ग्रेजी शिक्षा ने इसको मिथ्या श्रद्धा कह कर हिन्दू युवकों को इनके विपरीत करने का यत्न किया , क्योंकि हिन्दू समाज इसका बौद्धिक रूप न समझ सका और न समझा ही सका .सरकारी शिक्षा प्राप्त करने वाले हिन्दू युवक  हिन्दुओं की इन प्रथाओं को मूर्खता कहने लगे तो हिन्दू समाज अपने ही घटकों को इनकी बौद्धिकता का बखान नहीं कर सका. उसका परिणाम यह हुआ कि अङ्ग्रेजी शिक्षा ग्रहण किया भारतीय युवक हिन्दू रीति – रिवाजों को मूर्खता मानने लगा और इस प्रकार हिन्दुओं की जनसँख्या का अनुपात कम होने लगा . 

अङ्ग्रेजी काल में मुसलामानों की संख्या बढ़ने का यही मुख्य कारण रहा है . इसका अभिप्राय यह है कि अङ्ग्रेजी राज्य काल में हिन्दुओं का अनुपात में से मुसलामानों की संख्या में वृद्धि का मुख्य कारण तत्कालीन शिक्षा थी . उस शिक्षा के साथ हिन्दू समाज अपने रीति- रिवाज में बौद्धिक आचार का विश्लेषण करने में असमेथ था . वह श्रद्धा का राग ही अलापता रहा .

एक उदाहरण से इसे अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है . इस्कोन और अन्यान्य कई कृष्ण मंदिरों तथा गोरखपुर में गीता भवन की दीवार के साथ भगवान श्री कृष्ण की जन्म – लीला के बहुत ही सुन्दर चित्र सजाये गए हैं .भवन के एक छोर से दूसरे छोर तक सारे के सारे चित्र कृष्ण के जन्म से आरम्भ कर कंस की ह्त्या तक के ही वे सारे चित्र हैं . उन सब चित्रों को देखने से विस्मय होता है कि आज पाँच सहस्त्र वर्ष तक भी श्रीकृष्ण क्या इस बाल – लीला के आधार पर ही स्मरण किये जाते हैं ? ये लीलाएं सत्य हो सकती हैं , कृष्ण की विश्व की ख्याति की वे मुख्य कारण नहीं हो सकतीं . श्रीकृष्णका वास्तविक सक्रिय जीवन तो उस समय से आरम्भ हुआ मानना चाहिए जब उन्होंने युद्धिष्ठिर को राजसूय यज्ञ के लिए प्रेरित किया था .  कृष्ण के जीवन का सुकीर्तिकर कर्म तो वह था जब उसने वचन भंग करने वाले परिवार के सभी सदस्यों को सुदर्शन चक्र से मृत्यु के घाट उतार दिया था . श्रीकृष्ण ने तब यह सिद्ध कर दिया था कि वह जो कहता है उस पर आचरण भी करता है . श्रीकृष्ण ने कहा था -

न जायते भ्रियते भ्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोअयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
- श्रीमदभगवद गीता  अध्याय२ -१२०

अर्थात् - यह आत्मा न तो कभी  उत्पन्न होता है और न मरता है . ऐसा भी नहीं कि जब एक बार अस्तित्व में आ गया तो दोबारा फिर आएगा ही नहीं . यह अजन्मा है , नित्य है , शाश्वत्त है , पुरातन है . शरीर का वध हो जाने पर भी यह मारता नहीं है . *


जब बन्धु - बान्धवों ने भी वही किया जो दुर्योधनादि ने था तो उसने जो अपने बन्धु - बान्धवों के साथ करने को अर्जुन को कहा था वही स्वयं भी किया . वह था कृष्ण का बौद्धिक व्यवहार . देश की वर्तमान राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में से उपजी आज की कठिनाई में भी जाति को इसी प्रकार की बौद्धिक व्यवहार की प्रेरणा दी जानी चाहिए . इस व्यवहार से इस्लाम जैसी निकृष्ट जीवन - मीमांसा से सुगमता से पार पाया जा सकता है . हमें अपनी उन सब मान्यताओं को , जिनका आधार बुद्धि वाद है , लेकर हिन्दू जाति के द्वार को खोल देना चाहिए और सबको अपने समाज में समा जाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए . इस प्रकार सहज ही समाज कि सुरक्षा का प्रबंध हो सकता है . हमे किसी को अपनी मान्यता छोड़ने कि बात नहीं कहनी . उनके पीर – पैगम्बरों की यदि कोई बात बुद्धि गम्य हो तो उसको भी छोड़ने के लिए हम नहीं कहते , परन्तु मूढ़ श्रद्धा के सम्मुख हम बही वाद का बलिदान नहीं कर सकते . बुद्धि की दृढ चट्टान पर स्थित होकर हम अपने मार्ग पर चलने लगे तो सुख – शान्ति और समृद्धता निश्चित है , इसमें कोई संशय नहीं . 

Sunday, October 19, 2014

शाश्वत्त सत्य


शाश्वत्त सत्य

शाश्वत्त का अर्थ है सदा रहने वाला अर्थात नित्य . जो नित्य है , वह सबके लिए है . किसी जाति अथवा किसी देश विशेष से इसका एकाकी सम्बन्ध नहीं हो सकता . इसी प्रकार शाश्वत्त सत्य का अर्थ हुआ सदा सत्य रहने वाला अर्थात नित्य निरन्तर सत्य .
यह सर्वविदित तथ्य है कि ज्ञान का मूल स्त्रोत परमात्मा है और परमात्मा का ज्ञान वेद ज्ञान है . यह ज्ञान प्राणीमात्र के लिए है .
जैसे एक बृक्ष , जिसका सम्बन्ध मूल से कट गया हो , कुछ काल तक तो हरा – भरा रह सकता है , परन्तु वह शीघ्र ही सूखने और सड़ने लग जाता है , ठीक इसी प्रकार मानव समाज भी , परमात्मा के मूल ज्ञान से विच्छिन्न हो सुख तथा सड़ रहा है. मानव समाज मानवता विहीन हो रहा है . इस मानव समाज को पुनः ज्ञान के उस मूल स्त्रोत वेद से जुड़ने पर ही आर्य सनातन वैदिक धर्मावाल्म्बी हिन्दू समाज और भारत , भारतीय व भारतीयता का कल्याण संभव है अन्यथा बेड़ा गर्क समझो .

Saturday, October 18, 2014

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म का उद्देश्य लोक कल्याण

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म का उद्देश्य लोक कल्याण 

वाल्मीकि  रामायण के अनुसार जब राजा दशरथ सन्तान के लिए विचार करने लगे कि रावण और राक्षस राज्य, जो उस समय महान् शक्तिशाली हो गया था, वह अत्यन्त अत्याचार और अनाचार करने लगा है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि केवल एक रावण ही दोषी नहीं था, वरन् उसके नाना के परिवार के लोग रावण के सहायक और सम्मतिदाता माली, मुराली और माल्यवान ने भी भारी अनर्थ रचाया था। अतः देव, गन्धर्व और ऋषि, जो यज्ञ पर आए हुए थे, वे केवल रावण की ही बात नहीं कर रहे थे, वरन् लंका में राक्षस-राज्य की भी चर्चा चला रहे थे।

मंदोदरी के पति रावण से पहले वहां माल्यवान इत्यादि राजा थे और वे भी राक्षस कहाते थे। उनके उपरान्त लंका का राजा रावण हुआ और फिर राम-रावण युद्ध के उपरान्त लंका का राजा विभीषण बनाया गया था। विभीषण को राक्षस नहीं कहा गया।

अतः दशरथ के पुत्र्येष्टि यज्ञ के समय जब विद्वान् लोग विचार करने लगे तो यही विचार हो रहा था कि लंका का राजा रावण घोर तपस्या से महान् शक्ति-शाली हो गया है। वह भले लोगों को बहुत कष्ट देने लगा है। तपस्या से अभिप्राय यही लेना चाहिए कि कार्य करने में कुशलता प्राप्त कर चुका था। विचार यह किया जा रहा था कि उसका निराकरण कैसे किया जाए।
रावण और उससे पूर्व माल्यवान, माली और सुमाली बलशाली कैसे हो गए थे ? यह कहा जाता है कि उन्होंने भी घोर तपस्या की थी। उस तपस्या से बल का संचय किया था।
जब हम यह पढ़ते है कि जर्मनी सन् 1920-33 में अति दुर्बल राज्य था और सन् 1933 से सन् 1938 में यह यूरोप में एक महान् शक्तिशाली राज्य बन गया तो यह भली भाँति समझ में आ सकता है कि रावण भी अपने काल में कैसे तपस्या से अजेय हो गया होगा। उसने सैन्यशक्ति का संचय किया था और उस शक्ति से वह मार-धाड़ करता हुआ। देवलोक तक चला गया था।
देवलोक के वर्णन में ऐसा प्रतीत होता है कि यह उत्तरी ध्रुव के समीप एक देश था। सम्भवतः आजकल का उत्तरी मंगोलिक अथवा अलास्का आदि स्थान हो।
लंका के अधिपति रावण को निस्तेज करने की योजना उस यज्ञ के समय बनाई जा रही थी। इस योजना में राजा दशरथ सम्मिलित नहीं थे। देव, गन्धर्व ऋषि-मुनि बैठकर योजना बनाते रहे।

यह कहा गया है कि उनकी गोष्ठियां ब्रह्मा जी की उपस्थिति में हुईं। ब्रह्मा देवताओं के गुरु थे। प्रभु (परमात्मा) का चिन्तन करने पर उनको आभास हुआ कि विशिष्ट औषध देवलोक के वैद्यों से तैयार कराई जाए और उसे इस यज्ञ में दशरथ की रानियों को खिलाया जाए। ऐसा ही किया गया और इसके फलस्वरूप कौशल्या के गर्भ में राम तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण विशेष गुणों वाले बालक उत्पन्न हुए।




Thursday, October 16, 2014

इस्लाम में ईश्वरीय कार्यों में अक्ल को दखल देना कुफ्र माना जाता है . इस कारण इस्लाम निरन्तर पतन की ओर जा रहा है

 इस्लाम में ईश्वरीय कार्यों में अक्ल को दखल देना कुफ्र माना जाता है . इस कारण इस्लाम निरन्तर पतन की ओर जा रहा है 


यद्यपि मुसलमानी शासन कुछ परिवारों का ही शासन कहा जाता है तथापि वास्तव में ऐसा था नहीं . मुसलमान शासक परिवार इस्लामी मजहबी नेताओं से भरपूर सहायता लेते थे और फिर इस्लामी मुल्ला – मौलाना इस्लाम के विस्तार के लिए राजनीतिक प्रभुत्व का पूरा – पूरा लाभ प्राप्त करते थे .
इस्लाम अपने जन्म काल से ही दो टाँगों पर चलता रहा है . राजनीतिक शक्ति और मजहबी प्रचार . यह माना जाता है कि इस्लामी पीरों का हिन्दू समाज पर अति न्यून प्रभाव था . इस पर भी इन पीरों का देश में रहना दो काम तो करता ही था . एक तो मुसलमान सैनिकों की क्रूरता को पवित्र बताते रहना और  दूसरे निम्न जाति के हिंदुओं को श्रद्धा में शिथिल करते रहना .

ध्यातव्य है कि मजहब और धर्म भिन्न – भिन्न हैं. धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के आचरण से होता है और मजहब कुछ रहन – सहन के विधि – विधानों और कुछ श्रद्धा सर स्वीकार की गई मान्यताओं का नाम है. आचरण में भी जब बुद्धि का बहिष्कार कर केवल श्रद्धा के अधीन स्वीकार किया जाता है तो यह मजहब ही कहाता है . मजहब कभी भी व्यक्ति की मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नत का सूचक नहीं होता , वह सदा पतन का ही सूचक होता है . कभी संगठन के लिए मजहबी मान्यताएं सहकायक हो जाती हैं , परन्तु वह सहायता सदा अस्थायी होती है और जो मानसिक दुर्बलताएँ तथा मूढता उत्पन्न होती है , वह घोर पतन का कारण बनती हैं .

श्रधा पर आधारित समाज निरन्तर पतन की ओर ही जाता दिखाई देता है . जब श्रद्धा बुद्धि के अधीन की जाती है अर्थात श्रद्धा की बातों को समय – समय पर बुद्धि कि कसौटी पर कस के उसमें संशोधन किया जाता रहता है , वह बुद्धिवाद कहाता है . वह प्रगत्ति का सूचक है .

इस्लाम में ईश्वरीय कार्यों में अक्ल को दखल देना कुफ्र माना जाता है . इस कारण इस्लाम निरन्तर पतन की ओर जा रहा है .इसमें विशेषता है कि बुद्धि हीनता के साथ बनी श्रद्धा के साथ प्रत्येक प्रकार का बल सहायक होता है और इस बल का संचय करने के लिए प्रत्येक प्रकार के इन्द्रिय सुखों का प्रलोभन दिया जाता है .


इस प्रकार इस्लाम की गाड़ी दो चक्कों पर चल रही है . एक ओर सब प्रकार के इन्द्रिय सुखों का प्रलोभन है और दूसरी ओर इस्लाम के नाम पर किये गये सब प्रकार के अत्याचारों का पुरस्कार खुदा की ओर से बहिश्त दिया जाना बहुत बड़ी आशा है . यह गाड़ी कब तक चलेगी , यह बता पाना कठिन है ? परन्तु वर्तमान बुद्धिशीलों के लिए यह एक भयंकर भय व चिंता का कारण बना हुआ है . भय यह है कि श्रद्धा में बंधे हुए और अज्ञानता में किये प्रत्येक प्रकार के पाप – कर्म का बहिश्त में मिलने वाले ऐश और आराम का प्रलोभन भले लोगों की चीख – पुकार को कुंठित कर रहा है . 

Saturday, October 11, 2014

वेद के अनुसार व्रत

 वेद के अनुसार व्रत



सत्य विद्याओं की पुस्तक वेद हैं और धर्म की जिज्ञासा वाले के लिए वेद ही परम प्रमाण है ,अतः हमें वेद में ही देखना चाहिए कि वेद का इस विषय में क्या आदेश है ? वेद का आदेश है—-
व्रतं कृणुत !  ( यजुर्वेद  ४-११ )
व्रत करो , व्रत रखो , व्रत का पालन करो
ऐसा वेद का स्पष्ट आदेश है ,परन्तु कैसे व्रत करें ? वेद का व्रत से क्या तात्पर्य है ? वेद अपने अर्थों को स्वयं प्रकट करता है..वेद में व्रत का अर्थ है—-
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छ्केयं तन्मे राध्यतां इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि  !!
  - यजुर्वेद  १–५

अर्थात - हे व्रतों के पालक प्रभो ! मैं व्रत धारण करूँगा , मैं उसे पूरा कर सकूँ , आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें… मेरा व्रत है—-मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करता रहूँ

इस मन्त्र से स्पष्ट है कि वेद के अनुसार किसी बुराई को छोड़कर भलाई को ग्रहण करने का नाम व्रत है..शरीर को सुखाने का , रात्रि के १२ बजे तक भूखे मरने का नाम व्रत नहीं है..चारों वेदों में एक भी ऐसा मन्त्र नहीं मिलेगा जिसमे ऐसा विधान हो कि एकादशी , पूर्णमासी या करवा चौथ आदि का व्रत रखना चाहिए और ऐसा करने से पति की आयु बढ़ जायेगी … हाँ , व्रतों के करने से आयु घटेगी ऐसा मनुस्मृति में लिखा है-

पत्यौ जीवति तु या स्त्री उपवासव्रतं चरेत्  !
आयुष्यं बाधते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति  !!
जो पति के जीवित रहते भूखा मरनेवाला व्रत करती है वह पति की आयु को कम करती है और मर कर नरक में जाती है …
अब देखें आचार्य चाणक्य क्या कहते है —

पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी  !
आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत्  !!    ( चाणक्य नीति – १७–९ )

जो स्त्री पति की आज्ञा के बिना भूखों मरनेवाला व्रत रखती है , वह पति की आयु घटाती है और स्वयं महान कष्ट भोगती है …
अब कबीर के शब्द भी देखें —

राम नाम को छाडिके राखै करवा चौथि !
सो तो हवैगी सूकरी तिन्है राम सो कौथि !!
जो इश्वर के नाम को छोड़कर करवा चौथ का व्रत रखती है , वह मरकर सूकरी बनेगी
ज़रा विचार करें , एक तो व्रत करना और उसके परिणाम स्वरुप फिर दंड भोगना , यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? अतः इस तर्कशून्य , अशास्त्रीय , वेदविरुद्ध करवा चौथ की प्रथा का परित्याग कर सच्चे व्रतों को अपने जीवन में धारण करते हुए अपने जीवन को सफल बनाने का उद्योग करों

Friday, October 10, 2014

अवतार का अर्थ है अवतरण - अशोक "प्रवृद्ध"

अवतार का अर्थ है अवतरण 
- अशोक "प्रवृद्ध"



अवतार अर्थात अवतरित होना न कि जन्म लेना । जिस प्रकार क्रोध प्रकट होता है वह अवतरित नहीं होता उसे तो अहंकार जन्म देता है परन्तु अवतार का जन्म नहीं होता है जैसे अहंकार और इर्ष्या के संयोग से क्रोध जन्मता है ।
इस प्रकार अवतार का अर्थ है अवतरण । प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसका अवतरण ?
इसका स्पष्ट वर्णन करते हुए महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास ने श्रीमद्भगवद्गीता में योगीराज श्रीकृष्ण के मुख से कहलवाया है कि जो - जो जगत् में वस्तु, शक्ति विभूति श्रीसम्पन्न हैं , वे जान मेरे तेज के ही अंश से उत्पन्न हैं ॥
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १८-४० में अंकित है –
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ - श्रीमद्भगवद्गीता १० ४१
       अर्थात – (यत् तत् विभूतिमत्) जो - जो ऐश्वर्ययुक्त , (सत्वम्) श्रेष्ठ पदार्थ हैं , (श्रीमत् ऊर्जितम् एव) अथवा कान्तियुक्त तथा शक्तियुक्त भी हैं l
(तत् तत् एव त्वं अवगच्छ) तुम उसे (मम तेजोंऽश सम्भवम्) मेरे तेज के अंश से उत्पन्न समझों l
स्मरणतः भगवदगीता में मम् मया इत्यादि शब्दों से अभिप्राय परमात्मा के और परमात्मा से समझना चाहिए l
इस प्रकार श्लोक का अभिप्राय यह बनता है कि इस संसार में जो - जो ऐश्वर्य , कान्ति और शक्तियुक्त पदार्थ हैं, सब परमात्मा के तेज के एक अंश से ही बने हैं l
यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रत्येक प्राणी में प्राण (कार्य करने की शक्ति) परमात्मा की ही देन है l ब्रह्मसूत्र में भी कहा है कि वाकादि इन्द्रियों के कार्यों से (प्राणी में) उस परमात्मा के चिह्न का पता चलता है . – ब्रह्मसूत्र १-३-१८
तत्पश्चात लिखा है कि ‘यह अर्थात प्राण शक्ति उसने इतर (जीवात्मा) की सलाह से कार्य करने के लिए दी हुई है l
अभिप्राय यह है कि प्राणियों के प्राण अर्थात कार्य करने की शक्ति परमात्मा की है और जो विशेष विभूतियुक्त श्रीमत् और ऊर्जितम् पदार्थ अथवा प्राणी होते हैं , उनमे परमात्मा की विशेष शक्ति होती है l ऐसे प्राणी ही परमात्मा का अवतार कहाते हैं l
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आर्य इतिहास में जिस – जिस अवतार का वर्णन आया है , वे परमात्मा की विशेष प्राण – शक्ति को रखने वाले थे l इन अवतारों की गणना पुराणों में कराई गई है , ये सब ऐतिहासिक व्यक्ति हुए हैं l वास्तव में पुरातन भारतीय परम्परा (पद्धति) में इतिहास इन अवतारों का ही इतिहास है l यह पुराणों में मिलता है . इस कारण पुराण इतिहास के अंग हैं l
यह स्मरण रखा जाये कि यह आवश्यक नहीं कि अवतार मनुष्य – तुल्य प्राणी ही हो l मुख्य बात जो एक अवतार में देखने की है , वह है उसमें ईश्वरीय शक्ति . यहाँ यह भी स्मरण रखनी चाहिए कि परमात्मा का तेज अर्थात प्राण तो जीवों में भी है और निर्जीव वस्तुओं में भी है . जब परमात्मा की विशेष शक्ति किसी निर्जीव पदार्थ में होती है तो उसे देवता कहती है . जैसे अग्नि , इंद्र , वायु , वरुण इत्यादि . वे भी अवतार तब होते हैं जब वे इस सृष्टि में में विशेष ऐश्वर्ययुक्त अथवा सामर्थ्य युक्त कार्य करने के योग्य होते हैं .
महाभागवत् पुराण में अवतारों की गणना इस प्रकार है –
१.        ब्रह्मा
२.       सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार
३.       वराह
४.       नारद
५.      नर – नारायण
६.       कपिल
७.      दत्तात्रेय
८.       यज
९.       ऋषभदेव
१०.     पृथु
११.      मत्स्य
१२.     कच्छ
१३.     धनवन्तरि
१४.    मोहिनी
१५.    नरसिंह
१६.     वामन
१७.    परशुराम
१८.     व्यास
१९.     राम
२०.    कृष्ण
२१.     बुद्ध
२२.    कल्ङ्कि
इन अवतारों की गणना करने के उपरांत महाभागवत् पुराण का रचयिता पुराणकार कहता है-

अवतारा ह्यसंख्येया हरे : सत्वनिधेर्द्विजा :l
यथाविदासिनः कुल्याः सरसः स्यु : सहस्त्रशः ll
ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजशः l
कलाःसर्वे हरेरेव सप्रजापतयस्तथा ll
-          भागवत महापुराण १-३-२६,२७

अर्थात . जैसे एक सरोवर से हजारों नाले - नदियाँ निकलती हैं सत्वनिधि भगवान से सहस्त्रों ही अवतार हुए हैं .
वे ऋषि – मुनि , देव और मनु - पुत्र महान ओज वाले हुए हैं . यह वही बात हुई जो भगवद्गीता १० – ४१ में कही गई है .
परमात्मा का तेज विशेष रूप में जब किसी पदार्थ अथवा प्राणी में आता है तो वह अवतार कहाता है .
अवतार चेतन तत्व भी होते हैं और अचेतन तत्व भी . चेतन – अचेतन का अन्तर है ईक्षण करने की शक्ति में . ईक्षण से अभिप्राय है कार्य करने का स्थान ,  काल और दिशा का निश्चय करना . जो ऐसा करने की सामर्थ्य रखता है उसे चेतन कहते हैं और जो नहीं रखता वह अचेतन कहाता है .
कुछ प्राकृतिक पदार्थ भी विशेष ओजयुक्त , ऐश्वर्यवान और सामर्थ्यवान देखे जाते हैं . उन्हें भी अवतार माना जाता है . यही पुरानों की पद्धति है . दोनों में अन्तर भी यहाँ स्पष्ट है . अचेतन अवतार एक कार्य के लिए ही होते हैं और उस कार्य के उपरान्त उनका अस्तित्व नहीं रहता . अचेतन अवतार इच्छानुसार अनेक कार्य करता है .
इस कथन का प्रमाण भी श्रीमद्भगवदगीता में ही उपस्थित है . परमात्मा की विशेष विभूति से युक्त पदार्थों की गणना गीता में की गई है . उस गणना में जहां राम और कार्तिकेय का कथन है , वहाँ उसमे वज्र और हिमालय का नाम भी है . जहां बृहस्पति ,भृगु को परमात्मा की विशेष विभूति वाला माना है , वहाँ अक्षरों में ओं (ओउम्) और समासों में द्वन्द्व को भी बताया है . स प्रकार किसी भी पदार्थ को ,जिसमें परमात्मा के तेज का अंश है , उसे परमात्मा का अवतार माना है .

अवतार परमात्मा स्वयं नहीं हो सकता . कृष्ण स्वयं परमात्मा नहीं थे . राम भी परमात्मा नहीं थे . इसी भान्ति बुद्ध तथा अन्य अवतार परमात्मा नहीं कहे जा सकते . वे केवल परमात्मा के तेज अर्थात प्राण की विशेष मात्र को रखने वाले होते हैं .
अतः पुराणों में वंशों का चरित् (वंशानुचरित्) से अभिप्राय है कि इन अवतारों और उनसे संपन्न होने वाली घटनाओं का वर्णन .इस प्रकार भूमण्डल के इतिहास से अभिप्राय है अवतारों का इतिहास .
जन साधारण की गाथाएं भी पुराणों में हैं ,परन्तु इतने लम्बेकाल लगभग उनचालीस लाख वर्ष काल का इतिहास लिखने में केवल विशेष विभूति युक्त पदार्थो (अवतारों) का वर्णन ही किया सकता था . इन अवतारों का इतिहास का वर्णन कर दिए जाने से भूमण्डल विशेष रूप में भारतवर्ष का पूर्ण इतिहास इसमें आ जाता है .





Friday, October 3, 2014

सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं , जितने ‘देव” शब्द के अर्थ लिखे हाँ उतने ही “देवी” शब्द के भी हैं

सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं , जितने ‘देव शब्द के अर्थ  लिखे हाँ उतने ही देवी शब्द के भी हैं 



परमात्मा के गुण -कर्म और स्वभाव अनन्त हैं, अतः उसके नाम भी अनन्त हैं | उन सब नामों में परमेश्वर का 'ओउम्' नाम सर्वोतम है, क्योंकि यह उसका मुख्य और निज नाम है, इसके अतिरिक्त अन्य सभी नाम गौणिक है | परमात्मा का मुख्य और निज नाम तो ओउम् ही है | वेदादि शास्त्रों में भी ऐसा ही प्रतिपादन किया गया है | कठोपनिषद् में लिखा है -
 सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ||
-कठोपनिषद २ | २५

 सब वे़द जिस प्राप्त करने योग्य प्रभु का कथन करते हैं, सभी तपस्वी जिसका उपदेश करते हैं, जिसे प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का धारण करते हैं, उसका नाम ओउम् है |

यह ओम् शब्द तीन अक्षरों के मेल से बना है-अ, उ और म् | इन तीन अक्षरों से भी परमात्मा के अनेक नामों का ग्रहण होता है, जैसे

 अकार से -विराट, अग्नि और विश्वादि |

 उकार से -हिरण्यगर्भ, वायु और तैजस आदि |

 मकार से -ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि |

 यहाँ इतना और जान लेना चाहिए कि अग्नि आदि ये नाम प्रकरणानुकूल अन्य पदार्थों के भी होते हैं, जहाँ जिसका प्रकरण हो वहाँ उसका ग्रहण करना चाहिए |

 'ओउम्' के अतिरिक्त प्रभु के अनन्त नाम हैं, क्योंकि प्रभु के गुण-कर्म और स्वभाव अनन्त हैं | प्रत्येक गुण-कर्म-स्वभाव का एक-एक नाम है | जैसे- सब जगत का रचयिता होने के कारण परमात्मा 'ब्रह्मा' है, इस जगत का निर्माण करके सबके अन्दर व्याप्त होकर वे ही ब्रह्माण्ड को धारण कर रहे हैं, अतः उनका नाम 'विष्णु' है | सारे संसार का संहार करने के कारण वे 'रूद्र' हैं | सबका कल्याण करने के कारण वे 'शिव' हैं | सबसे श्रेष्ठ होने के कारण उनका नाम 'वरुण' है | बड़ों से भी बड़ा होने के कारण वह 'बृहस्पति' हैं | देवों का देव होने के कारण वे 'महादेव' हैं | समर्थों में समर्थ होने के कारण वह 'परमेश्वर' है | स्वयं आनन्दस्वरूप और सबको आनन्द देने के कारण वह 'चन्द्र' है सबका कल्याण कर्ता होने के कारण उसका नाम 'मंगल' है | बलवानों-से-बलवान होने के कारण उसका नाम 'वायु' है | इस प्रकार महर्षि ने इस समुल्लास में परमात्मा के सौ१ नामों की निरुक्ति की है, परन्तु इन सौ नामों के अतिरिक्त भी परमात्मा के अनेक नाम हैं | ये सौ नाम-सिन्धु में बिन्दुवत ही हैं -
१. स्वामी वेदानन्दजी ने सत्यार्थ-प्रकाश के सौ नामों की गणना इस प्रकार दी है- १.ओउम् २.ख़म् ३.ब्रह्म ४.अग्नि ५.मनु ६.प्रजापति ७.इन्द्र ८.प्राण ९.ब्रह्मा १०.विष्णु ११.रूद्र १२.शिव १३.अक्षर १४.स्वराट १५.कालाग्नि १६.दिव्य १७.सुपर्ण १८.गुरुत्मान् १९.मातरिश्वा २०.भू २१.भूमि २२.अदिति २३.विश्वधाया २४.विराट २५.विश्व २६.हिरण्यगर्भ २७.वायु २८.तैजस् २९.ईश्वर ३०.आदित्य ३१.प्राज्ञ ३२.मित्र ३३.वरुण ३४.अर्यमा ३५.बृहस्पति ३६.उरुक्रम ३७.सूर्य ३८.आत्मा,परमात्मा ३९.परमेश्वर ४०.सविता ४१.देव, देवी ४२.कुबेर ४३.पृथिवी ४४.जल ४५.आकाश ४६.अन्न ४७.अन्नाद,अत्ता ४८.वसु ४९.नारायण ५०.चन्द्र ५१.मंगल ५२.बुध ५३.शुक्र ५४.शनैश्चर ५५.राहु ५६.केतू ५७.यज्ञ ५८. होता ५९.बन्धु ६०.पिता,पितामह,प्रपितामह ६१.माता ६२.आचार्य ६३.गुरु ६४.अज ६५.सत्य ६६.ज्ञान ६७.अनन्त ६८.अनादि ६९.सच्चिदानंद ७०.नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ७१.निराकार ७२.निरञ्जन ७३.गणेश ७४.गणपति ७५.विश्वेश्वर ७६.कूटस्थ ७७.शक्ति ७८.श्री ७९.लक्ष्मी ८०.सरस्वती ८१.सर्वशक्तिमान् ८२.न्यायकारी ८३.दयालु ८४.अद्वैत ८५.निर्गुण ८६.सगुण ८७.अन्तर्यामी ८८.धर्मराज ८९.यम ९०.भगवान् ९१.पुरुष ९२.विश्वम्भर ९३.काल ९४.शेष ९५.आप्त ९६.शंकर ९७.महादेव ९८.प्रिय ९९.स्वयम्भूऔर १००.कवि

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में कहा है कि परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं ! महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में कहा है कि -
जितने ‘देव शब्द के अर्थ  लिखे हाँ उतने ही देवी शब्द के भी हैं l परमेश्वर के तीनों लिंगों में नाम हैं , जैसे – ब्रह्म चितिश्वरेश्चेति l जब ईश्वर का विशेषण होगा तब देव , जब चिति का होगा तब देवी इससे ईश्वर का नाम देवी है l
सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में ही आगे शक्ति शब्द का शब्दार्थ करते हुए लिखा है कि –शक्लृ शक्तौ’ इस धातु से शक्ति’ शब्द बनता है l यः सर्वं जगत कर्तुं शक्नोति स शक्तिः जो सब जगत के बनाने में समर्थ है इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है l

श्री शब्द का व्याख्या करते हुए कहा गया है कि -

‘श्रिञ् सेवायाम्  इस धातु से ‘श्री’ शब्द सिद्ध होता है l यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च  स श्रीरीश्वरः’ . जिसका सेवन सब जगत , विद्वान और योगीजन करते हैं , उस परमेश्वर का नाम ‘श्री है l

लक्ष्मी शब्द का शब्दार्थ निम्नवत किया गया है -
लक्ष दर्शानाङ्कनयोइस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है l यो लक्ष्यति पश्यत्यङ्कते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः जो सब चराचर जगत को देखता , चिह्नित अर्थात दृश्य बनाता , जैसे शरीर के नेत्र ,नासिका और बृक्ष के पत्र , पुष्प , फल , मूल , पृथ्वी , जल के कृष्ण ,रक्त , श्वेत , मृतिका , पाषाण , चन्द्र , सुर्य्यादि चिह्न बनाता तथा सबको देखता , सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादि शास्त्र वा धार्मिक विद्वान योगियों का लक्ष्य अर्थात देखने योग्य है इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी’ है l

इसी प्रकार सरस्वती शब्द का शब्दार्थ करते हुए स्वामी दयानन्द ने कहा है कि -
सृ गतौ इस धातु से सरस् उससे मतुप् और ङीप प्रत्यय होने से ‘सरस्वती’ शब्द सिद्ध होता है l सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चितौ स सरस्वती जिसको विविध विज्ञान अर्थात शब्द अर्थ सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत होवे इससे उस परमेश्वर का नाम सरस्वती है l


साभार – महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास से 

Wednesday, October 1, 2014

ईश्वर सच्चिदानंद है



ईश्वर सच्चिदानंद है

वैदिक ग्रंथों के अनुसार ईश्वर का लक्षण सच्चिदानंद है । सच्चिदानंद मे तीन पद है- सत्, चित् और आनन्द । सत् का अर्थ है भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालों में एक रस रहने वाला दूसरे शब्दों में जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न हो सके यह सत् है । ज्ञान वाले को 'चित्' कहते हैं और तीनों कालों में दुख के नितान्त अभाव का नाम 'आनन्द' है। ईश्वर सच्चिदानन्द इसलिए है कि उसमें परिवर्तन कभी नहीं होता । उसका ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता और न कभी उसमें दुःख व्याप्त होता है । संसार के जितने भी साकार पदार्थ हैं, उन सब में परिवर्तन होता है । इसलिए वह 'सत्' नहीं। 'चित्' तो केवल आत्मा अथवा परमात्मा ही है, जो कि निराकार है। कोई भी साकार या शरीरधारी दुख से बच नहीं सकता । तीनों काल इसमें आनन्द नहीं रह सकता । सर्दी-गर्मी भूख-प्यास, भय, शोक, रोग, बुढापा, मृत्यु आदि प्रत्येक साकार या शरीरधारी को सताते हैं । ईश्वर इन दोनों से सर्वथा अलग है । अत: ईश्वर को साकार मानने में पहला दोष यह आता है कि वह 'सच्चिदानन्द' और 'निर्विकार' नहीं रहता । क्योकि प्रत्येक साकार पदार्थ में जन्म, वृद्धि, क्षय, जरा, मृत्यु आदि विकार मौजूद हैं । दूसरा दोष साकार मानने में यह है- ईश्वर 'सर्वव्यापक' नहीं रहता । क्योंकि प्रत्येक साकार पदार्थ एकदेशी अर्थात एक जगह रहने वाला होता है । तीसरा दोष यह आता है ईश्वर 'अनादि' और 'अनन्त' नहीं रहता क्योंकि प्रत्येक साकार या शक्ल वाला पदार्थ उत्पन्न होता है इसलिए उसका आदि होता है, वह अनादि नहीं होता है, और न अनन्त होता है जिसका आदि है उसका अन्त अवश्य है और जो उत्पन्न होगा वह नष्ट अवश्य होगा । जिसका एक किनारा है उसका दूसरा किनारा होता ही है । चौथा दोष यह आता है - ईश्वर सर्वज्ञ नहीं रहता । क्योकि जब आकार होया   तो एक जगह होगा, सब जगह नहीं । जब सब जगह नहीं होगा तो सब जगह का ज्ञान भी नहींहोगा। एक जगह का होगा। फलत: ईश्वर 'अन्तर्यामी' भी न रहेगा,क्योकि वह प्रत्येक के मन की बात नहीं जान सकेगा । पाँचवा यह आता है ईश्वर नित्य नहीं रहता है अनित्य हो जाता है । नित्य उसे कहते है कि पदार्थ हो परन्तु उसका कारण कोई न हो । वह किसी के मेल से बना हुआ न हो साकार पदार्थ तत्वों के मेल से बना हुआ होता है। छठा दोष यह आता है- परमात्मा, सर्वाधार नहीं रहता 'पराधार' हो जाता है । परमात्मा 'सर्वाधार' इसलिए है कि सारा संसार उसी के सहारे चल रहा है । सारे ब्रह्माण्ड को उसी ने धारण जिया है । यदि परमात्मा को साकार माना जाये, तो वह किसी न किसी के सहारे रहेगा। यही कारण है कि मतवादियों ने ईश्वर को साकार मानकर उसके स्थान नियत किये है । किसी ने सातवाँ आसमान, किसी ने चौथा आसमान, किसी ने क्षीर सागर, किसी ने गोलोक, किसी ने बैकुंठलोक आदि स्थान उसके रहने के बतलाये हैं । जिस परमात्मा के आधार पर सारा जगत् है, लोगो ने उसे साकार मानकर जगत् को उसका आधार बना दिया । जब परमात्मा ही जगत् के सहारे हो जाया तो फिर जगत् किसके सहारे रहेगा? इसी प्रकार और भी बहुत से दोष साकार मानने में आते हैं ।


अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

  अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”   जैसा कि पूर्व से ही अंदेशा था कि पूर्व चुनाव आयुक्त अनू...