Saturday, November 29, 2014

श्रेय और प्रेय का मार्ग - अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ में दिनांक - २९ / ११ / २०१४ को प्रकाशित लेख श्रेय और प्रेय का मार्ग




श्रेय और प्रेय का मार्ग 
- अशोक “प्रवृद्ध”


पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण में दो ध्रुव - उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव हैं । दोनों ध्रुवों को ही पृथ्वी की धुरी कहा जाता हैं और दोनों में ही असाधारण शक्ति केन्द्रीभूत मानी जाती हैं । इसी भान्ति चेतन तत्त्व के भी दो ध्रुव हैं जिन्हें माया और ब्रह्म कहा जाता है । जीव इन्हीं दोनों के मध्य कभी इधर कभी उधर कभी उधर खिंचता रहता हैं। ये दोनों दिशाएँ एक दूसरे के प्रतिकूल पड़ती हैं । इसलिए परस्पर विरोध दिखाई पड़ता है । खुदा और शैतान एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी चित्रित किये गये हैं। देवता और असुर भी एक दूसरे से टकराते हैं। देवासुर की कथाओं पुराणों के पन्ने-पन्ने पर भरी पड़ी हैं। इसी प्रकार एक दूसरे के विपरीत मानी जाने वाली संसार में दो ध्रुव अर्थात मार्ग (राहें ) हैं - एक श्रेय का मार्ग , दूसरा प्रेय का मार्ग । एक परमात्मा (खुदा) का मार्ग है और दूसरा सांसारिकता (दुनियादारी) का मार्ग । परमात्मा (खुदा) की राह फीकी , मगर बहुत ही अच्छे नतीजे (अंत) वाली है । दुनिया की राह निहायत दिलचस्प और सुख देने वाली है । परन्तु इसका परिणाम (नतीजा) अच्छा नहीं होता ।
मायावी असुरता का पक्ष ‘प्रेय’ मार्ग कहलाता हैं । इस पर चलने वाले मनुष्य का दृष्टिकोण यह होता हैं कि जिसके मन और इन्द्रियों को जो कुछ भी प्रिय लगे उसे ही अपनाये, भले ही उसका परिणाम पीछे कितना ही अहितकर क्यों न होता हो । आज अधिकांश व्यक्ति इसी मार्ग पर चलते दिखाई पड़ते हैं । इन्द्रियों को जो प्रिय हैं उसी को असीम मात्रा में पाने और भोगने के लिए हर व्यक्ति उतावला हो रहा हैं । जीभ की खुजली अर्थात स्वाद भान्ति – भान्ति के स्वादिष्ट पदार्थ खाने से मिटती हैं तो हमारा प्रयत्न यही रहता हैं कि एक से एक बढ़िया ,  एक-से-एक चटपटे , मीठे – खट्टे , स्वादिष्ट पकवान, मिष्ठान, चाट - पकौड़ी खाने को मिलें । फिर जब यह पदार्थ सामने आते हैं तो हमें यह होश नहीं रहता कि हम क्या खा रहे हैं और कितना खा रहे हैं ? पेट के लिए इनकी कुछ उपयोगिता या आवश्यकता भी है कि नहीं ? चटोरा मनुष्य केवल स्वाद देखता है और वैद्य , चिकित्सक और हकीम दुकान के शब्दों में जीभ से अपनी कब्र खोदता हैं । यह सर्वविदित है कि अधिकांश रोग पेट की खराबी से होते हैं । यदि पेट ठीक रहे तो शरीर में निरोगता सुरक्षित रहेगी, पर यह देखा जाता है कि लोगों की जीभ काबू में नहीं होती । गरीब - अमीर सभी अपने भोजन को मिर्च मसाले और गुड़ - शक्कर के आधार पर स्वादिष्ट बना लेते हैं और फिर उसे पेट की आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा उदरस्थ कर जाते हैं। परिमाण स्पष्ट हैं , पाचन क्रिया खराब होती है , अशुद्ध रक्त बनने लगता है और मद अथवा तीव्र रोगों का अंगार शरीर में जमता है । अन्ततः मौत - बुढ़ापे के दिन तेजी से निकट आ जाते हैं। प्रेय मार्ग का यही परिणाम है । इन्द्रियों को जो चीज प्रिय लगती है मन उसके पीछे तेजी से  उतावली से बेतहाशा भागता हैं , आगा पीछा सूझना नहीं क्षणिक प्रसन्नता के लिए स्थायी स्वार्थों की भयंकर क्षति कर बैठता हैं । 
प्रेय का मार्ग सबके लिए खुला है । इस दुनिया में आकर तो दुनियादारी छोड़ी नहीं जा सकती । इसलिए इस पर चलते हुए भी श्रेय के मार्ग पर चला जा सकता है । प्रेय के मार्ग में जो कुछ आये , उसे स्वीकार करते हुए उसमें लिप्त न हो जाना चाहिए । यथा (मसलन) बिजली के पंखें हैं , कूलर हैं , गद्देदार पलंग हैं , मखमली कालीन हैं और दूसरे सुख - सुविधा अर्थात ऐशो- इशरत के सामान हैं। इनका भोग करते हुए खुद इनका भुक्त नहीं बन जाना चाहिए । यह नहीं कि इन वस्तुओं (चीजों) का गुलाम बन जाना चाहिए ।  अपने अन्दर सदैव अर्थात हमेशा ऐसी कबिलियात बनाये रखना चाहिए कि इनको छोड़ते समय इनके जाने का दुःख न हो । ये वस्तुएं जिंदगी का मकसद न बन जाएँ ।
जीवन का दूसरा ध्रुव अर्थात  है - श्रेय मार्ग । श्रेय मार्ग में हमें आज की अपेक्षा कल को महत्व देना और भविष्य के सुख के लिए आज वर्तमान में संयम को  अपनाना पड़ता है । कृषक वर्ग अर्थात किसान फसलोपज प्राप्ति हेतु  अपने घर में रखा हुआ अन्न खेत में बिखेर बो देता है । यही बीज आगे चल कर कई गुना होकर किसान को प्राप्त तो होता हैं परन्तु आज तो घर में रखी हुई बोरी खाली हो गई । विद्यार्थी दिन - रात पढ़ता हैं ठीक प्रकार से पूरी नींद सो भी नहीं पाता , खेलने और मस्ती करने की उम्र में मौज छोड़कर किताब के नीरस पन्नों में सिर खपाता रहता है । घर से शिक्षण शुल्क अर्थात फीस लेकर जाता है । किताब-  कापियों में पैसे खर्च होते हैं , अध्यापकों   की फटकार सुननी पड़ती हैं । इतना सब झंझट उठाने वाला विद्यार्थी जानता है कि अंततः  इसका परिणाम अच्छा , सुखकर ही होगा । जब शिक्षा पूर्ण करके अपनी बढ़ी हुई योग्यता का समुचित लाभ उठाऊंगा तब आज की परेशानी की पूरी तरह भर पाई हो जाएगी । श्रेय मार्ग ऐसा ही हैं इसमें वर्तमान को कष्टमय बनाकर कल के लिए स्वर्णिम भविष्य की आशा के अंकुर उगाने पड़ते हैं । वैज्ञानिक अन्वेषणकर्ता सम्पूर्ण जिंदगी प्रकृति के किन्हीं सूक्ष्म रहस्यों का पता लगाने के लिए एकाग्र भाव से एकान्त शोध कार्य में लगाते हैं तब जाकर कई प्रकार का आविष्कार होता हैं तो उसका लाभ सारे संसार को मिलता है । नेता, लोक-सेवक बलिदान , त्यागी, तपस्वी अपने आपको विश्व मानव के हित में होम कर देते हैं तब उस त्याग का लाभ सारे जगत को मिलता हैं । बीज अपनी हस्ती को गलाकर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है । नींव में पड़े हुए पत्थरों की छाती पर विशाल भवनों का निर्माण हुआ है । माता अपने रक्त और माँस का दान कर गर्भ में बालक का शरीर बनाती है और उसे अपनी छाती का रस दूध पिलाकर पालती- पोसती हैं तब कहीं पुत्रवती कहलाने का श्रेय उसे प्राप्त  है । यही श्रेय मार्ग है ।
जिन्दगी का उद्देश्य (मकसद) श्रेय मार्ग है , जो सांसारिकता (दुनियादारी) से दूसरा है ।  दुनियादारी पर चलता हुआ उसमे लीन होकर श्रेय मार्ग को भूल न जाने में ही इस जिन्दगी की कामयाबी है ।
और वह राह है जिन्दगी को यज्ञ रूप बना देने की । यग्य के अर्थ हैं - लोक कल्याण का कार्य अर्थात यज्ञमय कार्य । अर्थात खल्के खुदा को सुख और आराम पहुंचाना । यानी लोक कल्याण । धन - दौलत को अपने निर्वाह के लिए अप्ने पर प्रयोग कर बाकी सब दूसरों के सुख और आराम के लिए व्यय (खर्च) कर देना यज्ञमय जीवन कहलाता है । रूपया ,मकान , वस्त्र , सामान शारीरिक (जिस्मानी) और मानसिक (दिमागी) ताकत सब अपनी सम्पति (जायदाद) हैं । इसका अपने सुख और आराम के लिए इस्तेमाल कर बकाया (शेष) दूसरों के सुख और आराम के लिए इस्तेमाल करना श्रेय का मार्ग है । अपनी आवश्यकता (जरूरियात) इतनी बनानी चाहिए अर्थात् इतनी अल्प कर देनी चाहिए कि जितनी से हम दूसरों के लिए अधिकाधिक अर्थात ज्यादा से ज्यादा निकाल सकें ।

मनुष्य अपनी कर्मों अर्थात अमालों का स्वयं मालिक है। वह राह जानता हुआ भी उस पथ पर चल नहीं सकता । कभी चलना नहीं चाहता । यह अपनी - अपनी स्वभाव (तबीयत) और हिम्मत पर निर्भर करता अर्थात दारोमदार रखता है। जैसे एक व्यक्ति के पास पांच सौ रूपये हैं ।वह अपने दिन भर का खर्च पचास रूपये में चला सकता है और पांच सौ रूपये में भी उसका खर्चा पूरा नहीं हो सकता है । वह कितना दूसरों के लिए बचाता है यह उसकी काबिलियत और हिम्मत पर है ।

इसका कारण यह है कि मनुष्य शरीर में दस इन्द्रियाँ हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा हम इस संसार  का भोग करते हैं । इनके अतिरिक्त एक मन है । मन इन इन्द्रियों का संचालन करता है । मन के अतिरिक्त एक आत्मा है । वह इस शरीर का स्वामी है ।
इसे एक रथ की भांति समझा जा सकता है । रथ शरीर है। उसमें घोड़े इन्द्रियाँ हैं और मन सारथी है ।आत्मा पूर्ण रथ और सारथी का स्वामी है ।
आत्मा इस रथ में बैठा हुआ एक मार्ग पर जा रहा है । यह रथ उस मार्ग पर चलता जाये ,जिस पर उसे जाना है , इसके लिए यह आवश्यक है की घोड़े सारथी के वश में रहें और सारथी मालिक के काबू में रहे ।
मालिक को श्रेय मार्ग पर चलना है ।  इन्द्रियाँ अगर वश में न रहेंगी तो प्रेय मार्ग पर चल पड़ेंगी ।इसलिए घोड़े चलते हुए भी सारथि और मन की आज्ञा के अधीन ही चलें ।
इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि घोड़े अपनी मनमानी उतनी ही कर सकें , जितने से उनका जीवन और स्वास्थ्य चलता रहे । इन्द्रियों को अपने विषयों का उतना ही भोग करने दो , जितने में इन्द्रियां अर्थात शरीर का स्वस्थ जीवन रह सके।

Wednesday, November 26, 2014

मदिरा पान का प्रचलन बुद्धि की अवहेलना का परिचायक - अशोक "प्रवृद्ध"

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - २४ / ११ / २०१४ को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख - मदिरा पान का प्रचालन बुद्धि की अवहेलना का परिचायक


मदिरा पान का प्रचलन बुद्धि की अवहेलना का परिचायक
          - अशोक "प्रवृद्ध"

किसी भी राष्ट्र के उज्जवल , बेहतर और स्वर्णिम भविष्य के लिए उस देश के लोगों का स्वस्थ , सबल , मेघावी , दीर्घायु और उत्साही होना नितान्त आवश्यक है , लेकिन यह विडम्बना ही है कि वर्तमान में हमारे देश भारतवर्ष का युवा नशे के जाल में फँसता चला जा रहा है , जो न केवल उन्हें पतन और विनाश के गर्त में ढकेल रहा है वरन समाज व राष्ट्र के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लगा रहा है । हमारे देश में सभी प्रकार के मादक पदार्थों का प्रचलन द्रुतगति से दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है , जिसमें प्रमुख रूप से मदिरा अर्थात शराब , अफीम , डोडा-पोस्त , तम्बाकू , चरस , गाँजा , भाँग एवं नशीली दवाईयों के अतिरिक्त धूम्रपान (सिगरेट,बीड़ी) तो अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका है। महँगी और सर्वसुलभ नहीं होने के कारण नशे की अन्य वस्तुओं तक सबकी पहुँच थोड़ी कठिन है , इसलिए वर्तमान काल में मदिरा अर्थात शराब का प्रयोग बढ़ रहा है। यद्यपि बहुत ही प्राचीन काल से ही इसका प्रयोग प्रचलित रहा है , तथापि इसकी मात्रा अत्यंत न्यून थी। अधिक प्राचीन काल की बात न भी की जाये तो भी आज से बीस - तीस वर्ष पूर्व हमारे ढाई सौ परिवार के मोहल्ले में भी प्रत्यक्ष रूप में एक परिवार का मात्र एक ही घटक अर्थात व्यक्ति ऐसा दिखाई देता था जो मद्यपान करता था। वह कभी - कभी पीकर झूमता हुआ मोहल्ले में लड़ाई - झगडा करता भी दिखाई देता था। उस समय नगर भर में एक - दो दुकानें ही हुआ करती थी जहाँ शराब बोतलों में बिका करती थीं। खुली बोतलों वाली शराब की दुकान की ओर लोग जाना भी पसंद नहीं करते थे ।

उस समय फ़्रांस की प्रसिद्ध शैम्पेन की बोतल भी सौ रूपये से कम में ही मिल जाया करती थी। तदपि मद्यपान करने वालों की संख्या नगण्य ही हुआ करती थी। धीरे - धीरे समाज के घटकों में बुद्धि का नियंत्रण ढीला होने से मद्यपान करने वालों की संख्या में वृद्धि होंने लगी और अब नगर के किसी भी मोहल्ले में शराब की दुकान एकं अनिवार्यता हो गई है । यहीं हाल गाँवों की भी है। गाँवों में भी शराब की दुकाने खुल गई हैं । चुलाई की शराब की दुकाने अलग से हैं। राज्य अर्थात सरकार ने शराब पर कर अर्थात टैक्स बढ़ा दिया है। प्रत्येक दुकान और शराब बनाने वाली कम्पनियाँ प्रति वर्ष लाखों - करोड़ों रूपये टैक्स देती हैं । इस पर भी शराब का दुकानदार और कम्पनियाँ दिन - प्रतिदिन उन्नति कर रहे हैं। अर्थात उनका धन बढ़ता ही जा रहा है।

भारतवर्ष का कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है जो कि शराब की बिक्री से होने वाली आय को छोड़ने की बात सोचता हो। भारतवर्ष विभाजन के पश्चात तो शराब का प्रचार थोड़ा कम हुआ था , परन्तु कुछ कालोपरान्त पीने वाले और शराब उत्पादकों के सम्मिलित प्रयास का यह परिणाम हुआ कि अब महीने में करोड़ों - अरबों। रुपयों की शराब की बिक्री होने लगी है। सरकारी टैक्स के आधिक्य के कारण अनियमित शराब का उत्पादन भी प्रचुर मात्रा में होता है और वह भी खूब बिकती है। उसको पीने से प्रतिवर्ष लाखों लोग मृत्यु का ग्रास बनते हैं । यह सब होने पर भी शराब का प्रचलन दिन - प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। मदिरा पान अर्थात नशे की प्रवृति हर आयु वर्ग के लोगों में व्याप्त होती जा रही है । बच्चे , युवा , वृद्ध और महिलाएँ भी इससे अछूती नहीं रही है । युवा वर्ग तो विशेष रूप से इससे प्रभावित है । वर्तमान में राष्ट्र के समक्ष सर्वाधिक ज्वलन्त और महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या भावी पीढ़ी नशा - ख़ोर होकर रह जाएगी ?  ऐसे में क्या देश में कोई नीति कायम नहीं की जानी चाहिए , जिससे नशे की इस घातक - प्रवृति पर प्रभावशाली अंकुश लगाया जा सके ? नशा चाहे किसी भी प्रकार का हो और चाहे किसी भी आयु वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता हो , वह न केवल स्वास्थ्य के लिए ही अपितु सम्पूर्ण जीवन के लिए अत्यन्त घातक है। मदिरा पान अर्थात नशा करने वाले अक्सर नशे के दुष्परिणामों को जानते हुए भी अंजान बने रहते हैं और कुछ नासमझी में तो कुछ जान - बूझकर नशा करते हैं । लेकिन जान - बूझकर नशा करके अपनी मौत को बुलाना कहाँ की बुद्धिमानी है ?


यदि इसका विश्लेषण किया जाये तो पता चलेगा कि मदिरा पान से क्षणिक आनन्द की उपलब्धि  होती है । किन्तु उस आनन्द से जीवन का ह्रास भी होता है। मद्यपान करने वाले की बुद्धि न केवल क्षीण होने लगती है अपितु वह मलिन भी हो जाती है। परन्तु उस आनन्द कें मोह में पीने वाला मन , बुद्धि और आयु का ह्रास सहर्ष स्वीकार कर पान करता जाता है । इस प्रकार दिनानुदिन शराब का प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है। 

विद्वानों के मतानुसार मद्यपान करने से बुद्धि , आयु और बल का ह्रास होता है। परन्तु राज्याधिकारी कहते हैं कि इससे अरबों रूपयों का राजस्व प्राप्त होता है। अब कुछ ऐसे भी लोग सम्मुख आने लगे हैं जो मद्यपान को व्यक्तिगत प्रश्न कहकर उसकी स्वतंत्रता के नाम पर छूट चाहने लगे हैं। ये सब आनंद प्राप्ति के बहाने मात्र हैं । कतिपय मद्यपान करने वालों की इच्छा इतनी प्रबल हो जाती है कि वे बुद्धि की चेतावनी को अवहेलना कर जाते हैं। मन की। कल्पना , जो जीवात्मा की सुख की इच्छा के समर्थन में प्रस्तुत होती है , को जीवात्मा की स्वीकृति मिल जाती है और पूर्ण समाज विकृत होकर विनाश की ओर उन्मुख होने लगता है और उन्मुख हो रहा है। 
वस्तुस्थिति यह है कि किसी व्यवहार विशेष से सुख अथवा आनन्द की प्राप्ति होती है l जीवात्मा सुख की प्राप्ति की प्रबल कामना करता है l वह बुद्धि की चेतावनी की अवहेलना करके मन को आज्ञा देता है कि अमुक शराब पीओं , इतना गिलास अथवा पैग पीओं l 
मित्रों ! जब बुद्धि की चेतावनी की अवहेलना की जाती है तो मन की चंचलता को उच्छृंखलता  करने का अवसर सुलभ हो जाता है । अतः जातीय उत्थान अथवा राष्ट्रोत्थान के लिए जातीय अथवा राष्ट्र के घटकों में बुद्धि को इतना बलवान बनाया जाए कि वह आत्मा की कामनाओं को उचित दिशा देने में समर्थ हो l इसके साथ ही आत्मा के स्वभाव को बदला जाए जिससे वह इच्छाओं और कामनाओं में बह न सके l


सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं , जितने ‘देव” शब्द के अर्थ लिखे हाँ उतने ही “देवी” शब्द के भी हैं l

सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं , जितने ‘देव शब्द के अर्थ  लिखे हाँ उतने ही देवी शब्द के भी हैं l

परमात्मा के गुण -कर्म और स्वभाव अनन्त हैं, अतः उसके नाम भी अनन्त हैं | उन सब नामों में परमेश्वर का 'ओउम्' नाम सर्वोतम है, क्योंकि यह उसका मुख्य और निज नाम है, इसके अतिरिक्त अन्य सभी नाम गौणिक है | परमात्मा का मुख्य और निज नाम तो ओउम् ही है | वेदादि शास्त्रों में भी ऐसा ही प्रतिपादन किया गया है | कठोपनिषद् में लिखा है -
 सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ||
-कठोपनिषद २ | २५

 सब वे़द जिस प्राप्त करने योग्य प्रभु का कथन करते हैं, सभी तपस्वी जिसका उपदेश करते हैं, जिसे प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का धारण करते हैं, उसका नाम ओउम् है |

यह ओम् शब्द तीन अक्षरों के मेल से बना है-अ, उ और म् | इन तीन अक्षरों से भी परमात्मा के अनेक नामों का ग्रहण होता है, जैसे

 अकार से -विराट, अग्नि और विश्वादि |

 उकार से -हिरण्यगर्भ, वायु और तैजस आदि |

 मकार से -ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि |

 यहाँ इतना और जान लेना चाहिए कि अग्नि आदि ये नाम प्रकरणानुकूल अन्य पदार्थों के भी होते हैं, जहाँ जिसका प्रकरण हो वहाँ उसका ग्रहण करना चाहिए |

 'ओउम्' के अतिरिक्त प्रभु के अनन्त नाम हैं, क्योंकि प्रभु के गुण-कर्म और स्वभाव अनन्त हैं | प्रत्येक गुण-कर्म-स्वभाव का एक-एक नाम है | जैसे- सब जगत का रचयिता होने के कारण परमात्मा 'ब्रह्मा' है, इस जगत का निर्माण करके सबके अन्दर व्याप्त होकर वे ही ब्रह्माण्ड को धारण कर रहे हैं, अतः उनका नाम 'विष्णु' है | सारे संसार का संहार करने के कारण वे 'रूद्र' हैं | सबका कल्याण करने के कारण वे 'शिव' हैं | सबसे श्रेष्ठ होने के कारण उनका नाम 'वरुण' है | बड़ों से भी बड़ा होने के कारण वह 'बृहस्पति' हैं | देवों का देव होने के कारण वे 'महादेव' हैं | समर्थों में समर्थ होने के कारण वह 'परमेश्वर' है | स्वयं आनन्दस्वरूप और सबको आनन्द देने के कारण वह 'चन्द्र' है सबका कल्याण कर्ता होने के कारण उसका नाम 'मंगल' है | बलवानों-से-बलवान होने के कारण उसका नाम 'वायु' है | इस प्रकार महर्षि ने इस समुल्लास में परमात्मा के सौ१ नामों की निरुक्ति की है, परन्तु इन सौ नामों के अतिरिक्त भी परमात्मा के अनेक नाम हैं | ये सौ नाम-सिन्धु में बिन्दुवत ही हैं -
१. स्वामी वेदानन्दजी ने सत्यार्थ-प्रकाश के सौ नामों की गणना इस प्रकार दी है- १.ओउम् २.ख़म् ३.ब्रह्म ४.अग्नि ५.मनु ६.प्रजापति ७.इन्द्र ८.प्राण ९.ब्रह्मा १०.विष्णु ११.रूद्र १२.शिव १३.अक्षर १४.स्वराट १५.कालाग्नि १६.दिव्य १७.सुपर्ण १८.गुरुत्मान् १९.मातरिश्वा २०.भू २१.भूमि २२.अदिति २३.विश्वधाया २४.विराट २५.विश्व २६.हिरण्यगर्भ २७.वायु २८.तैजस् २९.ईश्वर ३०.आदित्य ३१.प्राज्ञ ३२.मित्र ३३.वरुण ३४.अर्यमा ३५.बृहस्पति ३६.उरुक्रम ३७.सूर्य ३८.आत्मा,परमात्मा ३९.परमेश्वर ४०.सविता ४१.देव, देवी ४२.कुबेर ४३.पृथिवी ४४.जल ४५.आकाश ४६.अन्न ४७.अन्नाद,अत्ता ४८.वसु ४९.नारायण ५०.चन्द्र ५१.मंगल ५२.बुध ५३.शुक्र ५४.शनैश्चर ५५.राहु ५६.केतू ५७.यज्ञ ५८. होता ५९.बन्धु ६०.पिता,पितामह,प्रपितामह ६१.माता ६२.आचार्य ६३.गुरु ६४.अज ६५.सत्य ६६.ज्ञान ६७.अनन्त ६८.अनादि ६९.सच्चिदानंद ७०.नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ७१.निराकार ७२.निरञ्जन ७३.गणेश ७४.गणपति ७५.विश्वेश्वर ७६.कूटस्थ ७७.शक्ति ७८.श्री ७९.लक्ष्मी ८०.सरस्वती ८१.सर्वशक्तिमान् ८२.न्यायकारी ८३.दयालु ८४.अद्वैत ८५.निर्गुण ८६.सगुण ८७.अन्तर्यामी ८८.धर्मराज ८९.यम ९०.भगवान् ९१.पुरुष ९२.विश्वम्भर ९३.काल ९४.शेष ९५.आप्त ९६.शंकर ९७.महादेव ९८.प्रिय ९९.स्वयम्भूऔर १००.कवि

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में कहा है कि परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं ! महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में कहा है कि -
जितने ‘देव शब्द के अर्थ  लिखे हाँ उतने ही देवी शब्द के भी हैं l परमेश्वर के तीनों लिंगों में नाम हैं , जैसे – ब्रह्म चितिश्वरेश्चेति l जब ईश्वर का विशेषण होगा तब देव , जब चिति का होगा तब देवी इससे ईश्वर का नाम देवी है l
सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में ही आगे शक्ति शब्द का शब्दार्थ करते हुए लिखा है कि –शक्लृ शक्तौ’ इस धातु से शक्ति’ शब्द बनता है l यः सर्वं जगत कर्तुं शक्नोति स शक्तिः जो सब जगत के बनाने में समर्थ है इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है l

श्री शब्द का व्याख्या करते हुए कहा गया है कि -

‘श्रिञ् सेवायाम्  इस धातु से ‘श्री’ शब्द सिद्ध होता है l यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च  स श्रीरीश्वरः’ . जिसका सेवन सब जगत , विद्वान और योगीजन करते हैं , उस परमेश्वर का नाम ‘श्री है l

लक्ष्मी शब्द का शब्दार्थ निम्नवत किया गया है -
लक्ष दर्शानाङ्कनयोइस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है l यो लक्ष्यति पश्यत्यङ्कते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः जो सब चराचर जगत को देखता , चिह्नित अर्थात दृश्य बनाता , जैसे शरीर के नेत्र ,नासिका और बृक्ष के पत्र , पुष्प , फल , मूल , पृथ्वी , जल के कृष्ण ,रक्त , श्वेत , मृतिका , पाषाण , चन्द्र , सुर्य्यादि चिह्न बनाता तथा सबको देखता , सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादि शास्त्र वा धार्मिक विद्वान योगियों का लक्ष्य अर्थात देखने योग्य है इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी’ है l

इसी प्रकार सरस्वती शब्द का शब्दार्थ करते हुए स्वामी दयानन्द ने कहा है कि -
सृ गतौ इस धातु से सरस् उससे मतुप् और ङीप प्रत्यय होने से ‘सरस्वती’ शब्द सिद्ध होता है l सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चितौ स सरस्वती जिसको विविध विज्ञान अर्थात शब्द अर्थ सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत होवे इससे उस परमेश्वर का नाम सरस्वती है l


साभार – महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास से 

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में हैं वेदो मे विमान विद्या का वर्णन

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में हैं वेदो मे विमान विद्या का वर्णन 

अथ नौविमानादिविद्याविषयस्संक्षेपत: ||
तुग्रो ह भुज्युमश्र्विनोदमेघे रयिं न कश्र्चिन्ममृवां अवाहाः ।
तमूहथुर्नौभिरात्मन्वती भिरन्तरिक्षप्रभ्दिरपोदकाभिः ॥ १ ॥
तिस्रः क्षपस्त्रिरहा तिव्रज भ्दिर्नासत्या भुजुमूहथुः पतग्डैः ।
समुद्रस्य धन्वत्रार्द्रस्य पारे त्रिभी रथेः शतपद्धिः पडश्र्वैः ॥ २ ॥

भाषार्थ---अब मुक्ति के आगे समुद्र भूमि और अन्तरिक्ष में शीघ्र चलने के लिये यानविद्या
लिखते हैं । जैसी कि वेदों में लिखी है---
(तुग्रो ह॰) ‘तुजि’ धतु से ‘रक’ प्रत्यय करने से तुग्र शब्द सिद्ध होता है । उसका अर्थ हिंसक
बलवान्, ग्रहण करनेवाला और स्थानवाला है । क्योंकि वैदिक शब्द सामान्य अर्थ में वर्नमान हैं ।
जो शत्रु को हनन करके अपने विजय बल और आदि पदार्थ और जिस जिस स्थान में सवारियों से
अत्यन्त सुख का ग्रहण किया चाहे, उन सबों का नाम ‘तुग्र’ है । (रयिंयद्ध) जो मनुष्य उत्तम विद्या, सुवर्ण
आदि पदार्थो की कामनावाला है, उस का जिन से पालन और भोग होता है, उन धनादि पदार्थो की
प्राप्ति भोग और विजय की इच्छा को आगे लिखे हुए प्रकारों से पूर्ण करे । (अश्विना) जो कोर्इ सोना,
चांदी, तांबा, पीतल, लोहा और लकड़ी आदि पदार्थो से अनेक प्रकार की कलायुक्त नौकाओं को रच
के, उनमें अग्नि, वायु और जल आदि का यथावत् प्रयोग कर और पदार्थो को भर के, व्यापार के
लिये (उदमेघे) समुद्र और नदी आदि में (अवाहा:) आवे जावे तो उस के द्रव्यादि पदार्थो की उन्नति
होती है । जो कोर्इ इस प्रकार से पुरुषार्थ करता है, वह (न कश्चिन्ममृवान) पदार्थो की प्राप्ति और
उन की रक्षासहित होकर दु:ख से मरण को प्राप्त कभी नहीं होता, क्योंकि वह पुरुषार्थी होके आलसी
नहीं रहता । वे नौका आदि किन को सिद्ध करने से होते हैं---अर्थात् जो अग्नि, वायु और पृथिव्यादि
पदार्थो में शीघ्रगमनादि गुण और अश्वि नाम से सिद्ध हैं, वे ही यानों को धारण और प्रेरणा आदि अपने
गुणों से वेगवान् कर देते हैं । वेदोक्त युक्ति से सिद्ध किये हुए नाव, विमान और रथ अर्थात् भूमि
में चलने वाली सवारियों का (ऊहथु:) जाना आना जिन पदार्थो से देश देशान्तर में सुख से होता है।
यहां पुरुषव्यत्यय से ‘ऊहतु:’ इस के स्थान में ‘ऊहथु:’ ऐसा प्रयोग किया गया है । उन से किस
किस प्रकार की सवारी सिद्ध होती हैं, सो लिखते हैं---(नौभि:) अर्थात् समुद्र में सुख से जाने आने
के लिये अत्यन्त उत्तम नौका होती हैं, (आत्मन्वतीभि:) जिन से उन के मालिक अथवा नौकर चला
के जाते आते रहें । व्यवहारी और राजपुरुष लोग इन सवारियों से समुद्र में जावें आवें । तथा
(अन्तरिक्षप्रुभ्दिः)अर्थात् जिन से आकाश में जाने आने की क्रिया सिद्ध होती है, जिन का नाम विमान
शब्द करके प्रसिद्ध है तथा (अपोदकाभि:) वे सवारी ऐसी शुद्ध और चिक्कन होनी चाहिए, जो जल
से न गलें और न जल्दी टूटें फूटें । इन तीन प्रकार की सवारियों की जो रीति पहले कह आये और
जो आगे कहेंगे, उसी के अनुसार बराबर उन को सिद्ध करें । 
इस अर्थ में निरुक्त का प्रमाण संस्कृत 
में लिखा है, सो देख लेना ।
 उसका अर्थ यह है ---
(अथातो द्युस्थाना दे) वायु और अग्नि आदि का नाम अश्वि है, क्योंकि सब पदार्थो में
धन्नज्यरूप करके वायु और विद्युत् रूप से अग्नि ये दोनों व्याप्त हो रहे हैं । तथा जल और अग्नि
का नाम भी अश्वि है, क्योंकि अग्नि ज्योति से युक्त और जल रस से युक्त होके व्याप्त हो रहा
है । ‘अश्वै:’ अर्थात् वे वेगादि गुणों से भी युक्त हैं । जिन पुरुषों को विमान आदि सवारियों की सिद्धि की इच्छा हो, वे वायु अग्नि और जल से उन को सिद्ध करें, यह और्णवाभ आचार्य का मत है ।
तथा कर्इ एक ऋषियों का ऐसा मत है कि अग्नि की ज्वाला और पृथिवी का नाम अश्वि है । पृथिवी
के विकार काष्ठ और लोहा आदि के कलायन्त्रा चलाने से भी अनेक प्रकार के वेगादि गुण सवारियों
वा अन्य कारीगरियों में किये जाते हैं । तथा कर्इ एक विद्वानों का ऐसा मत है कि ‘अहोरात्रौ’ अर्थात्
दिन रात्रि का नाम अश्वि है, क्योंकि इन से भी सब पदार्थो के संयोग और वियोग होने के कारण
से वेग उत्पन्न करते हैं, अर्थात् जैसे शरीर और ओषधि आदि में वृद्धि और क्षय होते हैं, इसी प्रकार
कर्इ एक शिल्प विद्या जाननेवाले विद्वानों का ऐसा भी मत है कि ‘सूर्याचन्द्रमसौः’ सूर्य और चंद्रमा
को अश्वि कहते हैं क्योंकि सूर्य और चन्ंमा के आकर्षणादि गुणों से जगत् के पृथिवी आदि पदार्थो
में संयोग वियोग, वृद्धि क्षय आदि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं । तथा ‘जर्भरी’ और ‘तुर्फरीतू’ ये दोनों
पूर्वोक्त अश्वि के नाम हैं । जर्भरी अर्थात् विमान आदि सवारियों के धरण करनेवाले और तुर्फरीतू
अर्थात् कलायन्त्रों के हनन से वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के युक्तिपर्वूक प्रयोग से विमान आदि
सवारियों का धरण पोषण और वेग होते हैं । जैसे घोड़े और बैल चाबुक मारने से शीघ्र चलते हैं,
वैसे ही कलाकौशल से धरण और वायु आदि को कलाओं करके प्रेरने से सब प्रकार की शिल्पविद्या
सिद्ध होती है । ‘उदन्यजे’ अर्थात् वायु, अग्नि और जल के प्रयोग से समुद्र में सुख करके गमन हो
सकता है ।। १ ।।
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(तिस्रःक्षपस्त्रि॰ ) । (नासत्या॰) जो पूर्वोक्त अश्वि कह आये हैं, वे (भुज्युमूहथु:) अनेक
प्रकार के भोगों को प्राप्त करते हैं । क्योंकि जिन के वेग से तीन दिन रात में (समुद्र) सागर
आकाश और भूमि के पार नौका विमान और रथ करके पार जाने
में समर्थ होते हैं पूर्वोक्त तीन प्रकार के वाहनों से गमनागमन करना चाहिए ।
तथा अग्नि और जल के छ: घर बनाने चाहिए । जैसे उन यानों
से अनेक प्रकार के गमनागमन हो सकें तथा (पतंगै:) जिन से तीन प्रकार के मागो में यथावत् गमन
हो सकता है ।। २ ।।
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३.ऋग्वेद १.८.८-९.५-१२
४.ऋग्वेद 
५.ऋग्वेद १.३.४.२ ॥ भाषार्थ---(अनारम्भणेन ) हे मनुष्य लोगो ! तुम पूर्वोक्त प्रकार से अनारम्भण अर्थात् आलम्बरहित
समुद्र में अपने कायो की सिद्ध िकरने योग्य यानों को रच लो । (तद्वीरयेथाम्) वे यान पूर्वोक्त
अश्विनी से ही जाने आने के लिए सिद्ध होते हैं । (अनास्थाने) अर्थात् जिस आकाश और समुद्र में
विना आलम्ब से कोर्इ भी नहीं ठहर सकता, (अग्रभणे) जिस में हाथ से पकड़ने का आलम्ब कोर्इ
भी नहीं मिल सकता, (समुद्र ) ऐसा जो पृथिवी पर जल से पूर्ण समुद्र प्रत्यक्ष है तथा अन्तरिक्ष का
भी नाम समुद्र है, क्योंकि वह भी वर्षा के जल से पूर्ण रहता है, उन में किसी प्रकार का आलम्बन
सिवाय नौका और विमान से नहीं मिल सकता, इस से इन यानों को पुरुषार्थ से रच लेवें । (यदश्विनौ ऊहथुर्भु॰ ) जो यान वायु आदि अश्वि से रचा जाता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त कर देता है ।
क्योंकि (अस्तं) जो उन से चलाया जाता है, वह पूर्वोक्त समुद्र, भूमि और अन्तरिक्ष में सब कार्यो
को सिद्ध करता है । (शतारित्राम) उन नौकादि सवारियों में सैकड़ह अरित्रा अर्थात् जल की थाह लेने,
उन के थांभने और वायु आदि विघ्नों से रक्षा के लिये लोह आदि के लंगर भी रखना चाहिए, जिन
से जहां चाहे वहां उन यानों को थांभे । इसी प्रकार उन में सैकड़ह कलबन्ध्न और थांभने के साधन रखने
चाहिये । इस प्रकार के यानों से (तस्थिवांसम) स्थिर भोग को मनुष्य लोग प्राप्त होते हैं ।। ३ ।।
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(यमश्विना) जो अश्वि अर्थात् अग्नि और जल हैं, उनके संयोग से (श्वेतमश्वं) भाफरूप
अश्व अत्यन्त वेग देनेवाला होता है । जिस से कारीगर लोग सवारियों को (अघाश्वाय ) शीघ्र गमन
के लिए वेगयुक्त कर देते हैं, जिस से वेग की हानि नहीं हो सकती, उसको जितना बढ़ाया चाहे उतना
बढ़ सकता है । (शश्वदित्स्वस्ति) जिन यानों में बैठ के समुद्र और अन्तरिक्ष में निरन्तर स्वस्ति अर्थात्
नित्य सुख बढ़ता है । (ददथु:) जो कि वायु अग्नि और जल आदि से वेग गुण उत्पन्न होता है, उस
को मनुष्य लोग सुविचार से ग्रहण करें । (वाम्) यह सामर्थ्य पूर्वोक्त अश्विसंयुक्त पदार्थो ही में
है । (तत्) सो सामर्थ्य कैसा है कि (दात्राम्) जो दान करने के योग्य, (महि) अर्थात् बड़े बड़े शुभ
गुणों से युक्त, (कीर्त्तेन्यम्) अत्यन्त प्रशंसा करने के योग्य और सब मनुष्यों का उपकार करनेवाला
(भूत्) है । क्योंकि वही (पै:द्वः) अश्व मार्ग में शीघ्र चलानेवाला है । (सदमित्) अर्थात् जो अत्यन्त
वेग से युक्त है । (हव्य:) वह ग्रहण और दान देने के योग्य है । (अर्यः) वैश्य लोग तथा
शिल्पविद्या का स्वामी इस को अवश्य ग्रहण करे, क्योंकि इन यानों के विना द्वीपान्तर में जाना आना
कठिन है ।। ४ ।।
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यह यान किस प्रकार का बनाना चाहिए कि (त्राय: पवयो मधु॰) जिस में तीन पहिये हों, जिन
से वह जल और पृथिवी के ऊपर चलाया जाय, और मधुर वेगवाला हो, उस के सब अन्ग वज्र के
समान दृढ़ हों, जिन में कलायन्त्रा भी दृढ़ हों, जिन से शीघ्र गमन होवे । (त्राय: स्कम्भास:) उन में
तीन तीन थम्भे ऐसे बनाने चाहिए कि जिन के आधर सब कलायन्त्र लगे रहें । तथा (स्कभितास:)
वे थम्भे भी दूसरे काष्ठ वा लोहे के साथ लगे रहें, (आरा) जो कि नाभि के समान मध्यकाष्ठ होता
है, उसी में सब कलायन्त्रा जुड़े रहते हैं । (विश्वे) सब शिल्पिविद्वान् लोग ऐसे यानों को सिद्ध करना
अवश्य जानें । (सोमस्य वेनाम्) जिन से सुन्दर सुख की कामना सिद्ध होती है, (रथे) जिस रथ में
सब क्रीड़ासुखों की प्राप्ति होती है, (आरभे) उस के आरम्भ में अश्वि अर्थात् अग्नि और जल ही
मुख्य हैं । (त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा) जिन यानों से तीन दिन और तीन रात में द्वीप द्वीपान्तर
में जा सकते हैं ।। ५ ।।
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३.ऋग्वेद १.३.५.७म
४.ऋग्वेद १.३.३४.८म
५.ऋग्वेद १.६.९.४म
भाष्यम्---यत्पूर्वोक्तं भूमिसमुांन्तरिक्षेषु गमनाथ यानमुक्तं, तत् पुन: कीदृशं कर्नव्यमित्यत्राह---
(परि ित्राधतुद्ध अयस्ताम्ररजतादिधतुत्रायेण रचनीयम् । इदं कीदृग्वेगं भवतीत्यत्राह---(आत्मेव
वात:नद्ध आगमनागमने यथात्मा मनश्च शीघ्रं गच्छत्यागच्छति, तथैव कलाप्रेरितौ वाव्वग्नी
अश्विनौ तद्यानं त्वरितं गमयत आगमयतश्चेति विज्ञेयमिति संक्षेपत: ।। ६ ।।
तच्च कीदृशं यानमित्यत्राह---(अरित्रांद्ध स्तम्भनाथ साध्नयुक्तं, (पृथुद्ध अतिविस्तीर्णम् ।
र्इदृश: स रथ: अग्न्यश्वयुक्त: (सिन्ध्ूनाम्द्ध महासमुांणां (तीर्थेद्ध तरणे कर्नव्येण्लं वेगवान्
भवतीति बोमयम् । (िध्या युनद्ध तत्रा ित्राविध्े रथे (इन्दव:द्ध जलानि वाष्पवेगाथ (युयुज्रेद्ध
यथावद्युक्तानि काव्र्याणि, येनातीव शीघ्रगामी स रथ: स्यादिति । इन्दव: इति जलनामसु ।।
निघण्टौ खण्डे १२ पठितम् ।। उन्देरिच्चादे: ।। उणादौ प्रथमे पादे सूत्राम् ।। ७ ।।
हे मनुष्या: ! (मनोजुव:द्ध मनोवद्गतयो वायवो यन्त्राकलाचालनैस्तेषु रथेषु पूर्वोक्तेषु
ित्राविध्यानेषु यूयम् (अयुग्मवम्द्ध तान् यथावद्योजयत । कथम्भूता अग्निवाव्वादय: ? (आ
वृषव्रातास:द्ध जलसेचनयुक्ता: । येषां संयोगे वाष्पजन्यवेगोत्पन्या वेगवन्ति तानि यानानि
सिण्व्न्तीत्युपदिश्यते ।। ८ ।।



भाषार्थ---फिर वह सवारी कैसी बनानी चाहिए कि जिन सवारियों से हमारा भूमि, जल और आकाश में प्रतिदिन आनन्द से जाना आना बनता है, 
वे लोहा, तांबा, चांदी आदि तीन धतुओं से बनती हैं । और जैसे नगर
वा ग्राम की गलियों में झटपट जाना आना बनता है, वैसे दूर देश में भी उन सवारियों से शीघ्र शीघ्र
जाना आना होता है । इसी प्रकार विद्या के निमिन पूर्वोक्त जो अश्वि हैं, उन से बड़े
बड़े कठिन मार्ग में भी सहज से जाना आना करें । जैसे मन के वेग के समान
शीघ्र गमन के लिए सवारियों से प्रतिदिन सुख से सब भूगोल के बीच जावें आवें ।। ६ ।।
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जो पूर्वोक्त अरित्रायुक्त यान बनते हैं, वे जो रथ बड़े बड़े
समुद्रो के मध्य से भी पार पहु!चाने में श्रेष्ठ होते हैं, जो विस्तृत और आकाश तथा समुद्र
में जाने आने के लिए अत्यन्त उत्तम होते हैं, जो मनुष्य उन रथों में यन्त्रसिद्ध करते हैं, वे सुखों को
प्राप्त होते हैं । उन तीन प्रकार के यानों में वाष्पवेग के लिए एक जलाशय
बना के उस में जलसेचन करना चाहिए, जिस से वह अत्यन्त वेग से चलनेवाला यान सिद्ध हो ।। ७ ।।
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(वि ये भ्राजन्ते) हे मनुष्य लोगो ! (मनोजुव:) अर्थात् जैसा मन का वेग है, वैसे वेगवाले
यान सिद्ध करो । (यन्मरुतो रथेषु) उन रथों में (मरुत्) अर्थात् वायु और अग्नि को मनोवेग के
समान चलाओ और उनके योग में जलों का भी स्थापन करो ।
जैसे जल के वाष्प घूमने की कलाओं को वेगवाली कर देते हैं, वैसे ही तुम भी उन को सब प्रकार
से युक्त करो । जो इस प्रकार से प्रयत्न करके सवारी सिद्ध करते हैं, वे अर्थात् विविध्
प्रकार के भोगों से प्रकाशमान होते हैं और जो इस प्रकार से इन शिल्पविद्यारूप
श्रेष्ठ यज्ञ करनेवाले सब भोगों से युक्त होते हैं, वे कभी दु:खी होके नष्ट नहीं
होते और सदा पराक्रम से बढ़ते जाते हैं । क्योंकि कलाकौशलता से युक्त वायु और अग्नि आदि पदार्थो
की अर्थात् कलाओं से पूर्व स्थान को छोड़ के मनोवेग यानों से जाते आते
हैं, उन ही से मनुष्यों को सुख भी बढ़ता है । इसलिये इन उत्तम यानों को अवश्य सिद्ध करें ।। ८ ।।
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ऋग्वेद १.३.३४.७म ॥
ऋग्वेद २.३.२३.४७ व ४८ ॥
भाष्यम्---समुंद्रे भूमौ अन्तरिक्षे गमनयोग्यमार्गस्य (पारायद्ध (गन्तवेद्ध गन्तुं यानानि रचनीयानि ।
(नावा मतीनाम्द्ध यथा समुद्रगमनवृनीनां मेधविनां नावा नौकया पारं गच्छन्ति, तथैव (न:द्ध
अस्माकमपि नौरुनमा भवेत् । (आयुन्जाथामनद्ध यथा मेधविभिरग्निजले आसमन्ताद्यानेषु
युज्येते, तथास्माभिरपि योजनीये भवत: । एवं सवर्ैर्मनुष्यै: समुांदीनां पारावारगमनाय पूर्वोक्तयानरचने
प्रयत्न: कर्नव्य इत्यर्थ: । मेधविनामसु, निघण्टौ १५ खण्डे मतय इति पठितम् ।। ९ ।।
हे मनुष्या: ! (सुपर्णा:द्ध शोभनपतनशीला: (हरय:द्ध अग्न्यादयोण्श्वा: (अपो वसाना:द्ध
जलपात्राच्छादिता अध्स्ताज्ज्वालारूपा: काष्ठेन्ध्नै: प्रज्वालिता: कलाकौशलभ्रमणयुक्ता:
छताश्चेनदा (छष्णंद्ध पृथिवीविकारमयं (नियानंद्ध निश्चितं यानं (दिवमुत्पनद्ध द्योतनात्मक-
माकाशमुत्पतन्ति, ऊमव गमयन्तीत्यर्थ: ।। १० ।।
(द्वादशप्रध्य:द्ध तेषु यानेषु प्रध्य: सर्वकलायुक्तानामराणां धरणार्था द्वादश कर्तव्या: ।
(चव्मेकम्द्ध तन्ममये सर्वकलाभ्रामणार्थमेवंफ चव्ं रचनीयम् । (त्राीणि नभ्यानिद्ध ममयस्थानि
ममयावयवधरणार्थानि त्राीणि यन्त्राणि रचनीयानि । तै: (सावंफ ित्राशताद्ध त्राीणि शतानि (शटवोद्धपता:द्ध
यन्त्राकला रचयित्वा स्थापनीया: । (चलाचलास:द्ध ता: कला: चला: चालनार्हा अचला: स्थित्यर्हा:,
(“ाष्टि:द्ध “ाष्टिसंख्याकानि कलायन्त्राणि स्थापनीयानि । तस्मिन्याने एतदादिविधनं सव कर्नव्यम् ।
(क उ तच्चिकेतद्ध इत्येतत्छत्यं को विजानाति ? (नद्ध न हि सर्वे ।। ११ ।।
इत्यादय एतद्विषया वेदेषु बहवो मन्त्रास्सन्त्यप्रसगदत्रा सर्वे नोल्लिख्यन्ते ।



भाषार्थ---हे मनुष्यो ! (आ नो नावा मतीनाम्) जैसे बुद्धिमान् मनुष्यों के बनाये नावादि यानों
से (पाराय॰) समुद्र के पारावार जाने के लिए सुगमता होती है, वैसे ही (आ, युन्जाथाम्) पूर्वोक्त
वायु आदि अश्वि का योग यथावत् करो । (रथम्) जिस प्रकार उन यानों से समुद्र के पार और वार
में जा सको (न:) हे मनुष्यो आओ आपस में मिल के इस प्रकार के यानों को रचें, जिन से सब
देश देशान्तर में हमारा जाना आना बने ।। ९ ।।
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(कृष्णं नि॰) अग्निजलयुक्त कृष्ण अर्थात् खैंचनेवाला जो (नियानं) निश्चित यान है, उस के
(हरय वेगादि गुणरूप, (सुपर्णा:) अच्छी प्रकार गमन करानेवाले, जो पूर्वोक्त अग्न्यादि अश्व हैं, वे (अपो
वसाना:) जलसेचनयुक्त वाष्प को प्राप्त होके (दिवमुत्पतन्ति) उस काष्ठ लौहा आदि से बने हुए विमान
को आकाश में उड़ा चलते हैं । (त आववृ॰) वे जब चारों ओर से सदन अर्थात् जल से वेगयुक्त होते
हैं, तब (ऋतस्य) अर्थात् यथार्थ सुख के देनेवाले होते हैं । (पृथिवी ध॰) जब जलकलाओं के द्वारा
पृथिवी जल से युक्त की जाती है, तब उस से उत्तम उत्तम भोग प्राप्त होते हैं ।। १० ।।
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(द्वादश प्रध्यः) इन यानों के बाहर भी थम्भे रचने चाहिये, जिन में सब कलायन्त्रा लगाये जायं।
(चक्रमेकम्) उन में एक चक्र बनाना चाहिए, जिस के घुमाने से सब कला घूमें । (त्त्रीणि नभ्यानि)
फिर उस के ममय में तीन चव् रचने चाहिए, कि एक के चलाने से सब रुक जायें, दूसरे के चलाने
से आगे चलें, और तीसरे के चलाने से पीछे चलें । ( तस्मिन् साकं त्रिशता॰ ) उस में तीन तीन सौ
(शक्गंव:) बड़ी बड़ी कीलें अर्थात् पेंच लगाने चाहिए कि जिन से उन के सब अन्ग जुड़ जायें, और
उन के निकालने से सब अलग अलग हो जायें । ( षष्टिर्न चलाचलास: ) उनमें ६० साठ कलायन्त्रा
रचने चाहिए, कर्इ एक चलते रहें और कुछ बन्द रहें । अर्थात् जब विमान को ऊपर चढ़ाना हो, तब
गैस या भाफ घर के ऊपर के मुख बन्द रखने चाहिए, और जब ऊपर से नीचे उतारना हो तब ऊपर के मुख
अनुमान से खोल देना चाहिए । ऐसे ही जब पूर्व को चलाना हो, तो पूर्व के बन्द करके पश्चिम के
खोलने चाहिए, और जो पश्चिम को चलाना हो तो पश्चिम के बन्द करके पूर्व के खोल देने चाहिए।
इसी प्रकार उनर दक्षिण में भी जान लेना । (न) उन में किसी प्रकार की भूल न रहनी चाहिए ।
(क उ तच्चिकेत) इस गम्भीर शिल्पविद्या को सब साधरण लोग नहीं जान सकते, किन्तु जो
महाविद्वान् हस्तक्रिया में चतुर और पुरुषार्थी लोग हैं, वे ही सिद्ध कर सकते हैं ।। ११ ।।
इस विषय के वेदों में बहुत मन्त्रा हैं, परन्तु यहां र्थोड़ा ही लिखने में बुद्धिमान् लोग बहुत समझ
लेंगे । इति नौविमानादिविद्याविषय: संक्षेपत: ।।

Tuesday, November 18, 2014

वैदिक मान्यतानुसार ऐसे हुई छंदों की उत्पत्ति - अशोक “प्रवृद्ध”


विगत कल दिनांक - १७ / ११ / २०१४ और आज दिनांक - १८ / ११ / २०१४ को रांची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में प्रकाशित लेख - वैदिक मान्यतानुसार ऐसे हुई छंदों की उत्पत्ति 

वैदिक मान्यतानुसार ऐसे हुई छंदों की उत्पत्ति 
- अशोक “प्रवृद्ध”

यह सर्वविदित है कि आदिग्रन्थ वेद के छः अंग हैं , इनमें अंग विद्याओं का वर्णन करते है और तीन भाषा के विषय में कहे हैं l वेद की विषय - वस्तु तीन ही हैं – शिक्षा , कल्प तथा ज्योतिष . इन तीन में ही संसार के सब तत्वों का वर्णन आ जाता है l वेद के तीन अन्य विषय – छन्द , व्याकरण और निरूक्त तो वेद की वर्णन शैली के विषय में हैं l 

पुरातन वैदिक ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का उदघाटन होता है कि सृष्टि - रचना का कार्य जब आरम्भ हुआ , उस समय से ही वेद वर्तमान रूप में उपलब्ध हैं , ऐसा कदापि भी नहीं कहा जा सकता और यह संभव भी नहीं है l वेद ज्ञान अपौरूषेय हैं , अर्थात ज्ञान रूप में वह सदा से है l मनुष्य में जीवात्मा भी पुरूष कहाता है और परमात्मा भी पुरूष है l इस कारण जब किसी वास्तु को अपौरूषेय कहा जाये तो इसका अभिप्राय यह हुआ कि वह न परमात्मा का कहा होगा न किसी मनुष्य का l तब यह कैसे प्रकट हुआ ? इस विषय में ऋग्वेद में यह अंकित है -

कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधि: क आसीत्`l
छन्द: किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमजयन्त विश्वे ll
-ऋग्वेद १० / १३० / ३ 

(यत् विश्वे देवाः देवम् अज्यन्त्)जब सम्पूर्ण देवता परमात्मा का यजन (परमात्मा द्वारा चलाये लोक कल्याण के कार्य को) करते हैं (तब) (का आसीत् प्रमा प्रतिमा) जो स्वरुप बना था , उसका प्रमाण (नाप  ) क्या था ? (किम् निदानाम् आज्यं) (इस निर्धारण) का कारण और निर्माण में (पदार्थ) क्या था ? (किम् आसीत् परिधिः) (उस निर्माण का घेरा) कितना बड़ा था ? (छन्दः किम् आसीत् प्रउगं) छन्द क्या थे जो गाये जा रहे थे (किम् उक्थं) वे छन्द क्या कहते थे ?

अर्थात , सृष्टि - रचना में जब देवता (अग्नि , वायु , सूर्य , बृहस्पति इत्यादि) बन गए , तब वे किस प्रकार परमात्मा के रचना यज्ञ को आगे चला रहे थे ? कितना बड़ा जगत , कितनी बड़ी परिधि को उन्होंने बनाया था ? अभिप्राय यह कि यह बहुत बड़ा था और इसको बनाने में सामग्री वस्तु क्या प्रयोग कि थी ?

सामग्री के विषय में तो सांख्य दर्शन में अंकित है l सांख्य दर्शन में कहा है कि प्रकृति के परमाणु साम्यावस्था में थे l वेदों मंा भी ऋग्वेद १- १६३ – ३ में “सोमेन समया” साम्यावस्था प्रकृति को ही रचना में “आज्यं” कहा है l 
ऋग्वेद के इस मन्त्र में कहा है कि जगत प्रकृति से बना था और बहुत लंबा - चौड़ा था उस समय देवता परमात्मा के कार्य को आगे चला रहे थे l
जगत जिसमे हमारा सौर - मण्डल एक बहुत ही छोटा सा भाग है , उसकी परिधि और मान अब जानने का यत्न किया गया है l 
यह सर्वविदित है कि यदि जगत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाने के लिए हम प्रकाश की गति १,८६,३०० मील प्रति सेकण्ड से भागें तो ६०,००,००,००० (साठ करोड़) वर्ष लग जायेंगे l
इस जगत में (आकाश गंगा) में नक्षत्रों और ग्रहों की संख्या लगभग १०,००,००,००,००० है l
यह आकाश गंगा हमारा जगत है l इसमें सौर - मंडल कितना छोटा सा है , इसका अनुमान इससे लग जायेगा कि आकाश गंगा एक चपटी सी तश्तरी की भान्ति फैलाव में है और यह अपने केन्द्र में घूम रही है l हमारा सौर मंडल भी इस प्रपंच में घूम रहा है l यह अनुमान है कि सौर -मंडल को इस महाचक्र में घूमते हुए चक्र पूर्ण करने में २०,००,००,००० (बीस करोड़) वर्ष लग जायेंगे l

आदिग्रन्थ वेद इस पूर्ण जगत का ही वर्णन करता है l यहाँ यह भी विदित होना चाहिए कि इस जगत से बाहर और भी जगत हैं l परन्तु वेद जो हमें मिले हैं , वे इस जगत का वर्णन कर रहे हैं l कहा है कि इस जगत के देवता (दिव्य पदार्थ) जब बन गए तो छन्द उच्चारण करने लगे l वे छन्द क्या थे ? किस – किस ने उच्चारण किये ? यह अगले मन्त्रों में कहा है l मन्त्र इस प्रकार है - 


" अग्नेगार्यत्र्यभवत्सयुरवोष्णिहया सविता सं बभूव l
अनुष्टुभा सोम उक्थैर्महस्वान्बृहस्पतयेबृँहती वाचमावत् ll
विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुबिह भागो अह्ण्:l
विश्वान्देवाञगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्या: ll"

ऋ: १० -१३० -४, ५

उस समय (जिसका कथन पूर्व मंत्र १० – १३०- ३ में है (अग्ने सयुग्वा गायत्री) अग्नि के साथ गायत्री छन्द का सम्बन्ध (अभवत्) उत्पन्न हुआ l 
(उष्णिह्या सविता सं बभूव) उष्नितासे सविता का (सम्बद्ध) हो गया l (उक्थै :अनुष्टुभा महस्वान् सोमः) ओजस्वी छन्द से सम्बद्ध अनुश्तुभ छन्द होते हैं l (बृहस्पते : बृहती वाचम् अवत्) बृहस्पति से बृहती छन्द आती है l
(विराट मित्रावरूणयो :) विराट छन्द मित्र और वरुण से l (अभिश्री:) आश्रित होते हैं l (अह्नः भागः) दिन के समय l (त्रिष्टुप् इन्द्रस्य) इन्द्र का (सम्बन्ध है) त्रिष्टुप से l (विश्वान् देवान जगती आविवेश) सम्पूर्ण देवताओं का जगाती छन्द व्याप्त हुआ l  (तेन चाक्लृप ऋषयः मनुष्याः) उन (छन्दों) से ज्ञानवान हुए ऋषि और मनुष्य l

ऋषि और मनुष्य कैसे ज्ञानवान् हुए ? ऋग्वेद में यह भी बताया गया है -

चाकॢप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे ।
पश्यन्मन्ये मनसा चक्षसा तान्य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ॥
-ऋग्वेद - १० - १३० – ६

अर्थात - (तेन चाकॢप्रे) उन (छन्दों) से ज्ञानवान होकर l(मनसा चक्षसा) मानसिक आखों से (ऋषयः मनुष्याः) ऋषि , मनुष्य l (पितरः न पुराणे) हमारे पुरा काल में उत्पन्न पितर l (यज्ञे जाते) जो रचना के समय उत्पन्न हुए थे l (पूर्वे पश्यन् अन्ये) पूर्व काल में दूसरे देखते हुए (मनसः चक्षसः) मन के चक्षुओं से l (तान्) उनको (इमं यज्ञमयजन्त) इस हो रहे यज्ञ में l

इन चार मन्त्रों  में  किस प्रकार वेद मनुष्यों तक पहुंचे , इसका वर्णन है l रचना –क्रम में जब देवता बन गए तब अग्नि से गायत्री छन्द , उष्निग् छन्द सविता से , अनुष्टुभ छन्द सोम से और बृहती छन्द बृहस्पति से आश्रय पाकर प्रसारित हुए l वरुण और मित्र से विराट् , त्रिष्टुप इन्द्र से दिन के समय और सब देवताओं से जगाती छन्द आश्रय पा गए l अर्थात –
१. गायत्री छन्द अग्नि के सहाय से ,
२. उष्निग् छन्द सविता के सहाय से ,
३. अनुष्टुभ छन्द सोम के सहाय से , 
४. बृहती छन्द बृहस्पति के सहाय से ,
५. विराट् छन्द अग्नि और मित्र से ,
६. त्रिष्टुप इन्द्र से ,
७. जगती छन्द सब देवताओं से l

इस प्रकार वेद के सात छन्द हैं l शेष इनके उपछन्द हैं l ये इन देवताओं के सहाय से प्रकट हुए l
ये छन्द ऋषियों ने अपने मन के चक्षुओं से अनुभव किये और उनको समझकर स्वयं ज्ञानवान हुए तथा रचना - यज्ञ में उत्पन्न हुए मनुष्य , पितर और पूर्व के  अन्य लोग ज्ञानवान हुए l
इन मन्त्रों में इन सब ज्ञानवान होने वालों के लिए “यज्ञे जाते” कहा है l इसका अर्थ है कि जो सृष्टि- रचना के साथ उत्पन्न हुए l इसका अभिप्राय यह है कि अमैथुनी सृष्ट से उत्पन्न हुए l

इन मन्त्रों में एक और शब्द आया है - “सयुग्वा” , इसका अर्थ है सहयोग से l अभिप्राय यह है कि इन छन्दों को उच्चारण करने वाले तो ये देवता थे परन्तु ये केवल सहयोग ही दे रहे थे l किसको ? परमात्मा को l किस प्रकार सहयोग दे रहे थे ? जैसे हमारा मुख और गले में स्वर - यन्त्र आत्मा के कहे शब्द उच्चारण करते हैं l मुख और गला तो प्रकृति के अंश हैं , ये जीवात्मा के आदेश पर बोलने लगते हैं l वैसे ही परमात्मा के आदेश पर देवता बोलने लगते हैं l


परन्तु ऋषियों और मनुष्यों ने जब इनको सामान्य जनों को दिया तो एक भाषा में दिया l उस भाषा का नाम राष्ट्री है और वेद में उसके प्रकट होने का वृत्तांत भी अंकित है l वेद में कहा है - 

यद्वाग् वदन्त्यविचेतानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा l
चतश्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम ll
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति l
सा नो मन्द्रेष दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सृष्टर्ततु ll

- ऋग्वेद ८ - १०९ -१०, ११ 

अर्थात – (यत् वाक् अविचेतानि वदन्ति) जब वाणी जो विशेष अर्थ वाली नहीं (सामान्य अर्थों को कहती है) (देवानां निषसाद्) देवताओं (दिव्य पदार्थों) में स्थापित हो जाती है l (तब) (चतश्रः ऊर्जः) चरों दिशाओं में शक्ति रूप में l (दुदुहे पयांसि) विविध ज्ञान दुहती l (क्वसित् अस्याः परमं जगाम मन्द्रा) यह परम आनंद को देने वाली है l 
(देवाः देवीं वाचम अजयन्त) देवता उस दिव्य वाणी को प्रकट करते हैं l (विश्वरूपाः पशवो वदन्ति) सभी प्राणी उसे बोलते हैं l (सा नः मन्द्रा इषं ऊर्जं दुहाना धेनुः) वह हमें हर्षोंत्पादक अन्न और उर्जा ऐसे देती है जैसे गाय दूध देती है l (ताः अस्मान् उप एतु सुष्टता) वह वाणी हमको सेवा के लिए प्राप्त हो l 

इस प्रकार वेद में वाणी का और वेद के छन्दों का पृथ्वी पर आने का वर्णन मिलता है l यह इस प्रकार कि पहले राष्ट्री भाषा परमात्मा की कृपा से और देवताओं की सहायता से उच्चारित हुई और वह शक्ति की भान्ति चरों दिशाओं में फ़ैल गई l हमने उसका ऐसे पान किया जैसे गाय के स्तनों से निकल रहा दूध पान करते हैं l यह वाणी सामान्य थी l यह वेद की भान्ति ज्ञान वाली नहीं थी l सामान्य पदार्थों के विषय में बताने वाली थी l जब मनुष्य इस वाणी को सीख गया तब देवताओं द्वारा उच्चारित हो रहे छन्द रश्मियों (तरंगों) की भान्ति प्रसारित होने लगे l उन तरंगों को ऋषियों ने समझा और स्वयं उनका अर्थ समझकर वे ज्ञानवान हुए और जब प्रथम अमैथुनी मानव - सृष्टि हुई तो उसको ज्ञानवान् किया l तदनंतर मनुष्य जो उनसे पीछे पैदा हुए , ज्ञानवान् हुए l 

वेदों के जन्म की और वेद ज्ञान के मनुष्य को मिलने की यह प्रक्रिया है l
साथ ही वेद , ऋग्वेद १० – १३० – ३ में कहा गया है कि जब रचना क्रम में देवता बन गए तो छन्द उच्चारण होने लगे , परन्तु मनुष्य तो उसके बाद उत्पन्न हुआ l
पृथ्वी बनी तो देवताओं के साथ ही थी l पृथ्वी भी एक देवता है , परन्तु बनने के समय पृथ्वी अति उष्ण थी l यह भी वर्णन मिलता है कि आरम्भ में यह तरल (अर्द्ध ठोस) थी l बाद में यह ठंडी हुई और इसका ऊपर का छिलका कड़ा हो गया l तदनन्तर सूर्य और सोम की सहायता से वनस्पति उत्पन्न हुई और तब पहले पशु - पक्षी इत्यादि बने और अन्त में मनुष्य उत्पन्न हुए l 
वेद को सुनने और समझने वाले तब ही हुए l ऊपर वर्णित सृष्टि – क्रम से यह प्रतीत होता है कि द्वितीय मन्वंतर में छन्द उच्चारण होने आरम्भ हुए और वर्तमान विवस्वत्सुत मन्वन्तर में मनुष्य उत्पन्न हुए तो वेदों का वर्तमान स्वरुप बना l ऋषि – मुनियों एवं विद्वतजनों के विचार में वर्तमान चतुर्युगी के आरंभ में मानव सृष्टि उत्पन हुई और इसे लगभग ३८ (अड़तीस) लाख वर्ष हुए हैं l उसी समय वेदों का वर्तमान स्वरुप बना l वर्तमान स्वरुप से अभिप्राय है वेदों का इस भाषा में कहा जाना जिसे हम आज वैदिक भाषा कहते हैं l 
आज से अड़तीस लख वर्ष पूर्व ऋषि जो अमैथुनी सृष्टि की उपज थे , उन्होंने इन वेदों को सुना और उस समय और उस समय उपस्थित मनुष्यों को उनसे ज्ञानवान् कराया l
लेख में पूर्व में ही इस बात का उल्लेख हो चुका है कि राष्ट्री भाषा (सामान्य उपस्थित पदार्थों का ज्ञान कराने वाली भाषा) पहले प्रकट हुई l पीछे उस भाषा में वेद और वेदार्थ प्रकट किये गए l दोनों के आविर्भाव में कितने काल का अन्तर था , यद्यपि इस विषय में ठीक- ठीक नहीं बताया जा सकता है , फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह अन्तर कुछ अधिक नहीं रहा होगा l यह इस कारण कि वेदवाणी जो बाद में आयी वह (यज्ञे जातः) रचना में अमैथुनी ढंग से उत्पन्न हुए लोगों की समझ में आयी l इसका अर्थ है कि मानव सृष्टि - रचना के प्रारंभिक काल में ही वेद वर्तमान रूप में आये l

आरम्भ में ये छन्द पदों और मन्त्रों में आये l इस विषय में भी वेद में कहा है l एक मन्त्र ऋग्वेद १ – १६४ – ४१ में कहा है –
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी ।
अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ॥
- ऋग्वेद १ - १६४ - ४१

अर्थात – (गौरीः मिमाय सलिलानि) गाय के समान वेद वाणी मिमियाती अर्थात शब्द करती हुई जो तरल थी l (तक्षती एकपदी द्विपदी चतुष्पदी अष्टापदी नवपदी) वह वाणी एक पद ,दो पद , आठ पदों और नौ पदों में काटकर आयी l (सहस्त्राक्षरा परमे व्योमन्) सहस्त्रों अक्षरों में व्योम में से  अभिप्राय यह है कि वेद वाणी कट – कट कट पदों में आयी और वे मन्त्र बन गए , परन्तु  ऋषियों ने मन्त्रों को सूक्तों , अनुवाकों इत्यादि में बांटने का कार्य बाद में किया, जिससे वे किसी विषय को प्रकट कर सकें l

इनके सूक्तादि विभाग मानवकृत हैं l ये बदले भी जा सकते हैं l सूक्तों में विभाजन तथा सूक्तों और मन्त्रों के देवता का निश्चय कालान्तर में मन्त्रों का भाव समझकर किया गया है l

वर्तमान चतुर्युगी के आरम्भ में तो वेद पदों और मन्त्रों में ही आये , परन्तु बाद में इनको विषयानुसार बांधा गया l व्यास नाम से ऋषि अथवा ऋषियों ने यह व्यवस्था की, यह परम्परा है l. भारतीय पुरातन ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि एक व्यास हुए हैं जिन्होंने महाभारत लिखा है l परन्तु उन सत्यवती – नन्दन व्यास के अतिरिक्त भी कई और व्यास हुए हैं l वायु पुराण में लिखा है कि द्वापर युग में बीस से अधिक व्याप्त हुए हैं l व्यास वेदों के विद्वानों की एक उपाधि रही है lअतः यह नहीं कहा जा सकता कि किस व्यास ने और किस काल में  वेद मन्त्रों को अनुवाकों और सूक्तों में बाँटा है l

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