Wednesday, July 29, 2015

गरीबी में जीने को मजबूर ग्रामीण -अशोक “प्रवृद्ध”

रांची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ अभिव्यक्ति पर दिनांक २४ जुलाई २०१५ को प्रकाशित लेख -गरीबी में जीने को मजबूर ग्रामीण  -अशोक “प्रवृद्ध”
राष्ट्रीय खबर, दिनाँक- २४ जुलाई २०१५ 
गरीबी में जीने को मजबूर ग्रामीण 
-अशोक “प्रवृद्ध”
भारत विभाजन के पश्चात् बारह पंचवर्षीय योजनाओं में लाखों करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी ग्रामीण भारत घनघोर गरीबी व अति दयनीय हालत में जीने को मजबूर है। तीन जुलाई शुक्रवार को जारी सामाजिक, आर्थिक व जातिगत जनगणना रिपोर्ट-2011 के नवीनतम आंकड़ों ने ग्रामीण विकास के लिए दशकों से चलाई जा रही सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की पोल खोल कर रख दी है। उल्लेखनीय है कि पूरे देश की 125 करोड़ आबादी के 24.39 करोड़ परिवारों की आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा 80 वर्ष पश्चात् सामने आया है। इसके पूर्व 1932 में ऐसे सर्वेक्षण आंग्ल शासकों ने कराये थे। वित्त मंत्री अरुण जेटली और ग्रामीण विकास मंत्री बीरेंद्र सिंह के द्वारा जारी किए गए इस जनगणना के आंकड़ों में निर्धनता की हालत यह है कि ग्रामीण भारत के 75 प्रतिशत यानी 13.34 करोड़ परिवारों की मासिक आय पांच हजार रुपये से भी कम है। गांवों में दस हजार से अधिक की आमदनी वाले परिवार लगभग आठ प्रतिशत ही हैं। सामाजिक, आर्थिक व जातिगत जनगणना रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल 24.39 करोड़ परिवारों में 17.91 करोड़ परिवार ग्रामीण भारत से आते हैं। इसमें तीन-चौथाई ग्रामीण परिवार आज भी 5000 रुपये महीना से कम पर गुजारा करने को मजबूर हैं। गरीबी की सर्वाधिक मार पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के ग्रामीण इलाकों में है। यहां 78 प्रतिशत परिवारों की मासिक आमदनी 5000 रुपये से कम है।शेष ग्रामीण भारत की भी कमोबेश यही स्थिति है। शहरी इलाकों के आंकड़े फिलहाल जारी नहीं किए गए हैं। पर जब भी वे सामने आएंगे, देश की कुल तस्वीर कमोबेश ऐसी ही उभरेगी यह इसलिए कि देश की तिहत्तर प्रतिशत आबादी का सच सामने आ चुका है। दूसरे, शहरों में भी, एक छोटा वर्ग भले संपन्नता के टापू पर रहता हो, परन्तु गरीबी का दायरा बहुत बड़ा है। दूसरी ओर देश के निन्यानबे प्रतिशत नेता करोड़पति हैं। 2014 में लोकसभा के लिए हुए आम चुनावों में नामांकन भरने की प्रक्रिया के दौरान नेताओं के द्वारा दी गई अपने संपत्ति के ब्यौरों से तो कम से कम यही लगता है। निवार्चन आयोग के समक्ष दिए हलफनामे में कई शीर्ष नेताओं की संपत्ति का विवरण गरीब देशवासियों को चौंकाने वाला नहीं है। देश के पूंजीपति व्यवसायी और उद्योगपतियों के पास अरबों खरबों की संपत्ति है। कुछ की गिनती दुनिया के सर्वाधिक अमीरों में होती है। आज हमारे देश में विदेशी कंपनियां आधिकारिक रूप से 2,32,000 करोड़ का शुद्ध मुनाफा कमा रही हैं। बाकी सभी तरह का फर्जी हिसाब, उनका आयातित कच्चे माल का भुगतान, चोरी आदि को जोड़ा जाय तो यह रकम 25,00,000 करोड़ सालाना बैठती है। यहां दवाओं का सालाना कारोबार 10,00,000 करोड़ का है। सालाना 6,00,000 करोड़ का जहर का व्यापार विदेशी कंपनियां कर रही है। देश में 10,000 लाख करोड़ का खनिज पाया जाता है और इसका दोहन भी विदेशी कंपनियां बहुत ही सस्ते भाव पर कर रही हैं। वहीं भारत विभाजन के बाद 400 लाख करोड़ रुपया प्रतिवर्ष विदेशी बैंकों में जमा होता है। विदेशी कम्पनियों के इस फलते-फूलते व्यापार पर मन्दी का भी कोई असर नहीं पड़ता है। उल्टा आज जब भारतीय अर्थव्यस्था संकट के दलदल में फँसती जा रही है तो विदेशी कम्पनियों के सालाना कारोबार की रक़म लगातार बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़े यह भी बताते हैं कि गांवों में रहने वाले इक्वावन प्रतिशत परिवार अस्थायी, हाड़-तोड़ मजदूरी के सहारे जीते हैं। करीब तीस प्रतिशत परिवार भूमिहीन मजदूर हैं। सवा तेरह प्रतिशत परिवार एक कमरे के कच्चे मकान में रहते हैं।
भारतवर्ष विभाजन के पश्चात् ग्रामीण विकास के लिए विभिन्न कार्यक्रमों व योजनाओं के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपए पानी की तरह बहाए जाने के बाद भी यह चिंतनीय स्थिति है कि दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश भारत में छह लाख 68 हजार ग्रामीण परिवार भीख मांगकर और चार लाख आठ हजार परिवार कूड़ा इकट्ठा कर गुजारा करते हैं। आंकड़ों के अनुसार देश में कुल ग्रामीण परिवारों में 0.37 प्रतिशत परिवार भीख मांगकर और 0.23 प्रतिशत परिवार कूड़ा इकट्ठा कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के परिवारों की संख्या तीन करोड़ 86 लाख है, जो कुल ग्रामीण परिवारों का 21.53 प्रतिशत है। ग्रामीण इलाकों में दो करोड़ 37 लाख परिवारों के पास एक कमरे का कच्चा घर है। पांच करोड़ 37 लाख भूमिहीन परिवार मजदूरी कर गुजारा करते हैं। ग्रामीण इलाकों में पांच करोड़ 39 लाख परिवार खेती से गुजारा करते हैं, जबकि नौ करोड़ 16 लाख परिवार अस्थायी तौर पर मजदूरी करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे परिवारों की संख्या 68 लाख 96 हजार है, जिनमें परिवार की मुखिया महिला है और उनमें 16 से 59 उम्र के बीच का कोई पुरुष नहीं है। 65 लाख 15 हजार परिवारों में 18 से 59 आयु वर्ग का कोई सदस्य नहीं है। चार करोड़ 21 लाख परिवारों में 25 साल से अधिक उम्र का कोई भी सदस्य साक्षर नहीं है।
ठीक इसके विपरीत वैश्विक आर्थिक आंकड़ों के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था अब दो ट्रिलियन (20 खरब) डॉलर की हो गई है। भारतीय मुद्रा में यह राशि करीब 1,26,800 अरब रुपये बैठती है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार केवल सात साल में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में एक टिलियन डॉलर यानी लगभग 63,400 अरब रुपये जोड़ लिए हैं। लेकिन देश की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का फायदा सभी तबकों को नहीं मिल पाया है। फिलहाल भारत का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 2.0 टिलियन डॉलर है। इसके बावजूद भारत अब भी निम्न मध्य आय वर्ग वाला देश है। यहां सालाना प्रति व्यक्ति आय करीब 1,01,430 रुपये (1,610 डॉलर) है। भारत इस साल दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है। अमेरिका 18.4 ट्रिलियन डॉलर के साथ दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत इस सूची में नौवें स्थान पर है। आर्थिक विश्लेषक कहते हैं, बढ़ते सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी से भारत भले ही दुनिया की बड़ी ताकत होने का दंभ भरे परंतु आज भी हम विश्व की निम्न मध्य आमदनी वाले देशों की श्रेणी में आते हैं। ग्रामीण भारत के लिए चिंतनीय स्थिति यह भी है कि इस विषम और डरावने यथार्थ पर राजनीतिक बहस भी नहीं हो रही, क्योंकि आंकड़ों का संग्रहण पुरानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के काल 2011 का है , और कुछ राज्यों में 2013 तक के आंकड़ें हैं तथा इनका सिर्फ प्रस्तुतीकरण वर्तमान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार द्वारा किया गया है। इन आंकड़ों से यह जाहिर है कि देश में विकास का आयातित मोडल ग्रामीण भारत की अनदेखी के कारण पूर्णतः विफल हो गया है। जहां न तो ऊपरी वर्ग का लाभ निचले स्तर पर पहुंचा है और न ही शहर केंद्रित विकास योजनाओं से गांवों को लाभ मिला है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सब्सिडी और ग्रामीण रोजगार के अधिकांश कार्यक्रम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए हैं, जिससे गांवों में नए प्रकार के राजनीतिक सामंतवाद का सृजन हुआ और गरीब लाख कोशिश के बाद भी गरीब के गरीब ही रह गए ।
अस्सी वर्ष पश्चात हुए आर्थिक जनगणना के महत्वपूर्ण पहलुओं की उपेक्षा कर अगर ग्रामीण भारत की अनदेखी करते हुए सिर्फ लोकलुभावन योजनाओं में बड़ी पूंजी निवेश के विकास को मोडल बनाया गया तो विषमता के अतिरिक्त देश एक बड़े कर्ज तथा आर्थिक संकट का शिकार हो सकता है। ग्रीस में जीडीपी का 177 प्रतिशत कर्ज था और आज वहां की जनता सड़कों पर मोहताज है। कृषि और ग्राम्य लघु उद्योगों को बढ़ावा देने और उनमे निवेश से भारतीय गांवों की अर्थव्यवस्था और तस्वीर बदल सकती है तथा गांवों की सर्वांगीण विकास संभव है और यदि कर्ज लेकर भ्रामक योजनाएं बनाई गईं तो देश नए आर्थिक संकट में फंस सकता है। महत्वपूर्ण प्रश्न प्राथमिकताओं और संवैधानिक उत्तरदायित्वों का है। संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन का अधिकार मूलभूत अधिकार है परंतु भारत विभाजन के बाद की सरकारें उस जिम्मेदारी को पूरा करने में विफल रही हैं। औद्योगिक क्रांति में पीछे रहने की भरपाई सिर्फ डिजिटल क्रांति व अपने वेतन-भत्तों की वृद्धि में आगे रहकर नहीं हो सकती। यह कितनी क्षोभनाक बात है कि गरीब जनता द्वारा चुने गए सांसद इन महत्वपूर्ण मुद्‌दों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय अपने वेतन को 100 प्रतिशत तथा पेंशन को 75 प्रतिशत बढ़वाने की कोशिश में लगे हैं। जिस देश में 18 करोड़ परिवार गांवों में रहते हों वहां नदियों के किनारे की कृषि तथा लघु उद्योगों की क्रांति से ही सभी का विकास हो सकता है जो देश के संविधान निर्माताओं का स्वप्न था और आज के राजनेताओं की संवैधानिक जिम्मेदारी भी है।

डिजिटल इण्डिया से बदलेगा भारत -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ अभिव्यक्ति पर दिनांक- १४ जुलाई २०१५ को प्रकाशित लेख- डिजिटल इंडिया से बदलेगा देश - अशोक "प्रवृद्ध"
राष्ट्रीय खबर, दिनाँक- १४ जुलाई २०१५ 
डिजिटल इण्डिया से बदलेगा देश 
-अशोक “प्रवृद्ध”
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा एक जुलाई को अपनी चिर-परिचित शैली के अनुरूप पूर्ण भव्यता के साथ उद्घाटन व शुभारम्भ किया गया डिजिटल इण्डिया अभियान सरकार का एक और स्वागतयोग्य कदम है । सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना का उद्देश्य सभी नागरिकों को संचार और नवीनतम तकनीकों का लाभ पहुँचाते हुए डिजिटल सेवाएं उपलब्ध कराना, सरकारी योजनाओं को आम जन के लिए ऑनलाइन उपलब्ध कराना और इस तकनीक के बारे में जनता में जागृति लाना है। अभियान की विराटता व व्यापकता का अंदाजा इस बात से होता है कि इस अभियान पर 500 करोड़ रुपये खर्च किए जाने की योजना है । इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में डिजिटल इण्डिया सप्ताह का शुभारम्भ भी किया था। डिजिटल इण्डिया सप्ताह की सफलता का इस बात से पता चलता है कि‍ इस दौरान वि‍भि‍न्‍न राज्‍य सरकारों और केन्द्र की ओर से 250 से ज्‍यादा ऑनलाइन सेवाएं शुरू हुई हैं। इस बात का खुलासा करते हुए संचार एवं प्रौद्योगि‍की मंत्री रवि‍ शंकर प्रसाद ने कहा कि‍ इस दौरान स्‍वास्‍थ्‍य, शि‍क्षा, सार्वजनि‍क वि‍तरण प्रणाली, सामाजि‍क कल्‍याण और पेंशन सेवा, पुलि‍स, कृषि‍, व्‍यापार और रोजगार से जुड़ी 250 से ज्‍यादा सेवाओं को वि‍भि‍न्‍न राज्‍य सरकारों ने लॉन्‍च कि‍या है। इस अभियान के तहत डिजिटल इण्डिया पोर्टल, मोबाइल ऐप, माईगॉव मोबाइल ऐप, स्‍वच्‍छ भारत मिशन ऐप और आधार मोबाइल अपडेट ऐप जैसी सुविधाएं दी जा रही हैं। इसके माध्यम से लोग पहली बार सरकार से सीधे तौर पर जुड़ेंगे और उन्हें सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों की जानकारी के साथ ही उनका लाभ भी मिल पाएगा। अभियान की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि डिजिटल इण्डिया भारत के भविष्य का खाका बदलने को तैयार हो गया है। क्योंकि इस अभियान से पहले ही देश में 4.5 लाख करोड़ रुपए का निवेश का ऐलान हो चुका है साथ ही इससे 18 लाख लोगों को रोजगार भी मिलने की संभावना पक्की हो गई है। आज हमें दुनिया में आ रहे बदलाव को समझने की जरूरत है। अगर हम इस बदलाव को नहीं समझ पाए तो हम बहुत पिछड़ जाएंगे। इस अभियान से हर नागरिक का सपना पूरा होगा। आज हर बच्चा डिजिटल ताकत को समझता है। केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने समारोह की शुरुआत करते हुए कहा कि डिजिटल इण्डिया का उद्देश्य है समृद्ध भारत, और इसका सार है साक्षर भारत। इसके दम पर सशक्त भारत का निर्माण होगा। भारतीय प्रतिभा को आईटी से जोड़कर देश को सशक्त बनाया जा सकेगा। योजना की महता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि डिजिटल इण्डिया के अंतर्गत जनता को अनेक डिजिटल सुविधाएँ मुहैय्या करायी जाने की योजना सरकार की है । डिजिटल इण्डिया योजना के माध्यम से हर गाँव और शहर को इंटरनेट से जोड़ने की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है, ताकि लोग कागजी कार्य के बजाय अपने ज्यादातर काम सीधे ऑनलाइन कर सकें। योजना के अंतर्गत डॉक्यूमेंटस (पैन कार्ड, आधार कार्ड और अन्य जरूरी दस्तावेज) रखने के लिए डिजिटल तिजोरी, विद्यार्थियों के लिए पुस्तकें डाऊनलोड और अध्ययन करने के लिए ई-बैग, ऑनलाइन चिकित्सीय सुविधा उपलब्ध कराने हेतु ई-हेल्थ योजना आदि की सुविधाएं उपलब्ध करायी जाएंगी। ई-हेल्थ योजना के जरिये बड़े अस्पतालों में लोगों को लंबी लाइनें नहीं लगानी पड़ेंगी। मरीज देश के किसी भी कोने में बैठकर ऑनलाइन अप्लाई कर सकेंगे। दूर-दराज के गांवों को भी इस स्कीम से जोड़ा जाएगा। बताया जा रहा है कि यह प्रधानमंत्री मोदी की महत्वकांक्षी योजना है और इसे लागू करने के लिए 1 लाख करोड़ रुपये आवंटन की मंजूरी दी गई है। सूचना मंत्रालय और आयकर विभाग डिजिटल इण्डिया को कार्यान्वित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
संसार की लगभग पंद्रह प्रतिशत युवा आबादी भारतीय है। यदि उसे समय के साथ कदमताल मिलाते हुए आगे बढ़ना है, तो डिजिटल होना भी एक अनिवार्यता है। डिजिटल इण्डिया वीक के दौरान अरबों डॉलर के निवेश की संभावना जताई जा रही है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने ईडीएफ पॉलिसी डॉक्युमेंट के साथ ही डिजिटल इंडिया बुक को भी लॉन्च किया। डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकम्‍युनिकेशन 11 राज्‍यों में भारतनेट शुरू करेगा और देशभर में वाई-फाई की सुविधा उपलब्‍ध कराएगा। नेक्‍स्‍ट जेनरेशन नेटवर्क (एनजीएन) भी इस योजना का हिस्‍सा है। डिजिटल इण्डिया अभियान के बाद देश में तमाम तरह की डिजिटल सेवाएँ आरम्भ हो गई हैं और अब भारत भी ब्रॉडबैंड हाई-वे पर मौजूद होगा। जिसके कारण नई सूचना क्रान्ति का आगाज होगा। लगभग ढाई लाख ग्राम पंचायतें भारत नेट से जुड़ेंगी। सार्वजनिक वाई-फाई उपलब्ध होगा। अर्थात सम्पूर्ण भारत डिजिटल हो जाएगा और कागज एक पुराना अतीत बनकर रह जाएगा।
चूँकि इस अभियान को मेक इन इण्डिया और स्किल इण्डिया के बहुचर्चित उद्देश्यों से जोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, इसलिए इसकी फलक की व्यापकता, आवश्यकता व महता और भी विस्तृत व व्यापक हो जाता है। इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि योजना के शुभारम्भ पर कॉरपोरेट जगत के बड़े नाम व बड़ी हस्तियाँ इकट्ठी हुईं । इसके अतिरिक्त कई वि‍देशी नि‍वेशकों ने भी भारत में अपनी रुचि‍ जतलाई और भारत के डिजि‍टलि‍करण पर करीब 7.72 लाख करोड़ रुपए के नि‍वेश का प्रस्‍ताव पेश कि‍या। यह सभी जानते हैं कि ऐसी बड़ी परियोजनाओं का कार्यान्वयन वर्तमान आर्थिक परिवेश में केवल सरकार के वश की बात नहीं है । निजी क्षेत्र की उत्साहपूर्ण भागीदारी से ही इस प्रकार की योजनाएं पूरी हो सकती हैं, अतः संभावित निवेशकों को सरकार का आरंभ से ही इस अभियान से जोड़ने का तर्क समझा जा सकता है। ध्यातव्य है कि डिजिटल इण्डिया सप्ताह के कार्यक्रमों की घोषणा करते वक्त सूचना तकनीक मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इस दौरान अरबों डॉलर निवेश के एलान की उम्मीद जताई थी। अभियान के अंतर्गत एक जुलाई से एक सप्ताह तक सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में डिजिटल कार्यक्रम आयोजित किए गए और देश के 600 जिलों में इस तकनीक के बारे में जागृति लाने के उद्देश्य से एक साथ अभियान चलाये गए । दरअसल केन्द्र सरकार 2019 तक देश के सभी पंचायतों को ब्रॉडबैंड से जोड़ने तथा स्कूलों और विश्वविद्यालयों में वाई-फाई की सेवा देने का लक्ष्य लेकर चल रही है। डिजिटल इण्डिया अभियान की ये सभी प्रशंसनीय उद्देश्य हैँ, परन्तु इस विन्दु पर कुछ ठोस वास्तविकताओं से आँख मिलाने की जरूरत भी है, जिनके बिना उद्देश्य की पूर्ति संभव नहीं दिखती ।
पूर्व संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के द्वारा 2006 में शुरू किये गए नेशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क योजना के तहत दो लाख गाँवों को फाइबर केबल से जोड़ा जाना था, परन्तु 2013 में लक्ष्य पाँच साल पिछड़ा हुआ था। पिछले एक वर्ष में भी केबल बिछाने की गति में अपेक्षित सुधार नहीं दिखा है। इंटरनेट की पहुँच व पैठ का सवाल अलग है। बमुश्किल देश की 20 फीसदी आबादी की इस तक पहुँच है। गाँवों में तो यह महज 9 प्रतिशत है। कंप्यूटर व स्मार्ट फोन की कीमत, शिक्षा के स्तर, तकनीक कौशल में पारंगतता, देशी भाषाओं में बेहतरीन कंटेन्ट का अभाव ऐसी ठोस वजहें हैं, जिससे इंटरनेट सेवाएं अब तक भारतीय जनसँख्या के एक छोटे हिस्से को ही उपलब्ध हैँ। डेटा गोपनीयता की सुरक्षा का मुद्दा अलग से मौजूद है। इन सबके रहते पूरे भारत को डिजिटल बनाने का स्वप्न पूरा नहीं हो सकता। अतः सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि यह सिर्फ निवेशकों और समाज के कुछ तबकों के लाभ की परियोजना बन कर ना रह जाए। शानदार उद्घाटन के आगे का रास्ता चुनौती भरा है।
डिजिटल भारत भविष्य का यथार्थ है, जबकि हमारे कुछ यथार्थ परम्परागत भी हैं, जिन पर प्रश्न खड़े किए जा सकते हैं कि उनके रहते हम डिजिटल कैसे हो सकते हैं? देश में आज भी करीब 30 करोड़ आबादी गरीब है, करीब 55 फीसदी आबादी आज भी खुले में शौच जाने को अभिशप्त है, अधिकांश गाँवों तक बिजली तो पहुँच नहीं पाई है, कम्प्यूटर और स्मार्ट फोन तो बहुत दूर की बात हैं। इंटरनेट उपभोक्ता के लिहाज से भारत दुनिया में 129वें स्थान पर है, फिर भी सरकार की नई पहल आशा तो जगाती ही है क्योंकि प्रधानमंत्री का दावा है कि इस डिजिटल क्रान्ति से 18 लाख रोजगार पैदा होंगे। बेशक इसमें कुछ जोखिम भी हैं, जो अमरीका सरीखे सर्वशक्तिशाली देश के सामने भी हैं। सबसे बड़ा और संवेदनशील मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा का है। हम जितनी भी सेवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं, उनके सर्वर विदेशी हैं। हमारी सामरिक सूचनाएं तक लीक हुई हैं। जिन नौ कंपनियों के जरिए ये लीक हुई थीं, उनके खिलाफ हम कुछ भी कार्रवाई नहीं कर सके, क्योंकि वे हमारे कानूनी दायरे के बाहर हैं। ऐसे में यदि विदेशी सर्वरों के जरिए भारत का डाटा विदेशी हाथों में जाता रहता है, तो संकट कभी भी गहरा सकता है। लिहाजा ऐसे जोखिमों से निजात पाने के लिए जरूरी है कि डिजिटल भारत होते हुए अपना भी सर्वर तैयार किया जाए। जिस तरह सरकार इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उत्पादन देश में ही करना चाहती है, उसी तरह सर्वर की दिशा में भी नई पहल हो सकती है।

Monday, July 13, 2015

कहानी लंगड़ा आम की

कांगड़ा हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र दिव्य हिमाचल के प्रतिविम्ब पृष्ठ , पृष्ठ संख्या 9 पर दिनांक - 5 जुलाई 2015 को प्रकाशित लेख -कहानी लंगड़ा आम की
दिव्य हिमाचल , दिनांक- ५ जुलाई २०१५ 


कहानी लंगड़ा आम की
यूं तो बनारस आज भी बहुत सी चीजों के लिए लोकप्रिय है, मशहूर है, तथापि जिस चीज के लिए वह सारे उत्तर भारत में प्रसिद्ध है, वह है बनारस का लंगड़ा आम, जिसे देखते ही लोगों के मुंह में पानी आ जाता है। लोग उसे किसी भी कीमत पर खरीदने को तैयार हो जाते हैं। बनारस के लंगड़ा आम की जन्म कथा भी रोचक है।लंगड़ा आम की नामकरण कथालगभग अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व की घटना है। कहते हैं बनारस के एक छोटे से शिव मंदिर में एक साधु आया और मंदिर  के पुजारी से वहां कुछ दिन ठहरने की आज्ञा मांगी। मंदिर परिसर में लगभग एक एकड़ जमीन थी, जो चार दीवारियों से घिरी हुई थी । साधु के पूछने पर पुजारी ने कहा, मंदिर परिसर में कई कक्ष हैं, किसी में भी ठहर जाएं। साधु ने एक कमरे में अपनी धूनी रमा दी।साधु के पास आम के दो छोटे-छोटे पौधे थे, जो उसने मंदिर के पीछे अपने हाथों से रोप दिए। सुबह उठते ही वह सर्वप्रथम उनको पानी दिया करता, जैसा कि कण्व ऋषि के आश्रम में रहते हुए कालिदास की शकुंतला नित्यप्रति  किया करती थी। साधु ने बड़े मनोयोग के साथ उन पौधों की देखरेख की। वह चार साल तक वहां ठहरा। इन चार वर्षों में पेड़ काफी बड़े हो गए। चौथे वर्ष आम की मंजरियां भी निकल आईं, जिन्हें तोड़कर उस साधु ने भगवान शंकर को अर्पित कर दी। फिर वह पुजारी से बोला, मेरा काम पूरा हो गया। मैं तो रमता जोगी हूं, कल सुबह ही बनारस छोड़ दूंगा। तुम इन पौधों की देखरेख करना और इनमें फल लगें तो उन्हें कई भागों में काटकर भगवान शंकर पर चढ़ा देना। फिर प्रसाद के रूप में भक्तों में बांट देना,लेकिन भूलकर भी समूचा आम किसी को मत देना।  किसी को न तो वृक्ष की कलम लगाने देना और न ही गुठली देना। गुठलियों को जला डालना वरना लोग उसे रोपकर पौधे बना लेंगे और वह साधु बनारस से चला गया। मंदिर के पुजारी ने बड़े चाव से उन पौधों की देखरेख की। कुछ समय पश्चात पौधे पूरे वृक्ष बन गए। हर साल उनमें काफी फल लगने लगे। पुजारी ने वैसा ही किया, जैसा कि साधु ने कहा था। जिन लोगों ने उस आम को प्रसाद के रूप में खाया, वे लोग उस आम के स्वाद के दीवाने हो गए। लोगों ने बार-बार पुजारी से पूरा आम देने की याचना की, ताकि उसकी गुठली लाकर वे उसका पौधा बना सकें, परंतु पुजारी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। इस आम की चर्चा काशी नरेश के कानों तक पहुंची और वह एक दिन स्वयं वृक्षों को देखने रामनगर से मंदिर में आ पहुंचे। उन्होंने श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की पूजा की और वृक्षों का निरीक्षण किया। फिर पुजारी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि इनकी कलमें लगाने की अनुमति प्रधान माली को दे दें। पुजारी ने कहा, आपकी आज्ञा को मैं भला कैसे टाल सकता हूं? मैं आज ही सांध्य-पूजा के समय भगवान शंकर से प्रार्थना करूंगा और उनका संकेत पाकर स्वयं कल महल में आकर महाराज का दर्शन करूंगा और मंदिर का प्रसाद भी लेता आऊंगा। इसी रात भगवान शंकर ने स्वप्न दिया काशी नरेश के अनुरोध को मेरी आज्ञा मानकर वृक्षों में कलम लगवाने दो। वह जितनी भी कलमें चाहते हैं उतनी कलमें दे दो।  तुम इसमें रुकावट मत डालना। वह काशीराज हैं और एक प्रकार से इस नगर में हमारे प्रतिनिधि स्वरूप हैं। दूसरे दिन प्रातःकाल की पूजा समाप्त कर प्रसाद रूप में आम के टोकरे लेकर पुजारी काशी नरेश के पास पहुंचा। राजा ने प्रसाद को तत्काल ग्रहण किया और उसमें एक अलौकिक स्वाद पाया। काशी नरेश के प्रधान माली ने जाकर आम के वृक्षों में कई कलमें लगा दीं, जिनमें वर्षाकाल के बाद काफी जड़ें निकली हुई पाई गईं। कलमों को काटकर महाराज के पास लाया गया और उनके आदेश पर उन्हें महल के परिसर में रोप दिया गया। कुछ ही वर्षों में वे वृक्ष बनकर फल देने लगे। कलम द्वारा अनेक वृक्ष पैदा किए गए। महल के बाहर उनका एक छोटा सा बाग बनवा दिया गया। कालांतर में इनसे अन्य वृक्ष उत्पन्न हुए और इस तरह रामनगर में लंगड़े आम के अनेकानेक बड़े-बड़े बाग बन गए। आज भी जिन्हें बनारस के आसपास या शहर के खुले स्थानों में जाने या घूमने का अवसर प्राप्त हुआ होगा, उन्हें लंगड़े आम के वृक्षों और बागों की भरमार नजर आई होगी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विस्तृत विशाल प्रांगण में लंगड़े आम के सैकड़ों पेड़ हैं। साधु द्वारा लगाए हुए पौधों की समुचित देखरेख जिस पुजारी ने की थी, वह लंगड़ा था और इसीलिए इन वृक्षों से पैदा हुए आम का नाम लंगड़ा पड़ गया। आज तक इस जाति के आम सारे भारतवर्ष में इसी नाम से अर्थात लंगड़ा आम के नाम से प्रसिद्ध हैं।

Saturday, July 11, 2015

दालों का आयात दीर्घकालिक उपाय नहीं - अशोक "प्रवृद्ध"

राँची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- ११ जुलाई २०१५ को प्रकाशित लेख - दालों का आयात दीर्घकालिक उपाय नहीं - अशोक "प्रवृद्ध"
राष्ट्रीय खबर , दिनांक - ११ जुलाई २०१५ 

 दालों का आयात दीर्घकालिक उपाय नहीं
 - अशोक "प्रवृद्ध"


देश में दालों की उपलब्धता सुनिश्चित करने और कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए सरकार 5,000 टन उड़द और 5,000 टन तुअर दाल का आयात करने जा रही हे। उड़द दाल के साथ 5,000 टन तुअर के आयात के लिए सरकार पहले ही निविदा जारी कर चुकी है। उपभोक्ता मामलों के सचिव सी विश्वनाथ ने महंगाई पर राज्यों के खाद्य मंत्रियों के साथ इस सम्बन्ध में हुई बैठक में कहा कि कुछ आवश्यक वस्तुओं में हम महंगाई बढ़ते हुए देख रहे हैं। देश में दालों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए हमने 500 टन उड़द दाल का आयात करने पर विचार कर रहे हैं। हमने 5000 टन तुअर आयात के लिए जो निविदा जारी की थी, वह इसी सिंतबर तक हमारे पास आ जाएगी ऐसी हम उम्मीद करते हैं। दरअसल प्रतिकूल मौसम के कारण देश में दलहन उत्पादन 200 लाख टन के नीचे आ गया है। दालों की कीमत पिछले वर्ष के मुकाबले 64 प्रतिशत तक मंहगी हो गई है। बाजार में अधिकतर दालों के खुदरा भाव अभी 100 रूपए किलोग्र्राम हो गया है, और दालों की बढ़ती कीमतों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चिंतित है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में गत दिनों हुई कैबिनेट की बैठक में बड़ा फैसला लेते हुए निर्देश दिए गए थे कि दाल की बढ़ती कीमतों पर लगाम लगाने के लिए बड़े पैमाने पर आयात किया जाए। साथ ही राज्यों को जमाखोरों पर कार्रवाई करने को कहा गया । खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री राम विलास पासवान का कहना है कि सरकार बढ़ती दालों की कीमतों पर बहुत गम्भीर है। देश में दालों का उत्पादन घटा है जिसके कारण कीमतें बढ़ गई है। ऐसे में जितनी आवश्यकता होगी हम दालों का आयात करेंगे। कैबिनेट की बैठक के बाद परिवहन मंत्री मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि कैबिनेट ने बढ़ती दालों की कीमतों के बारे में बातचीत की और चिंता व्यक्त की है, और दालों की कीमतों पर काबू पाने के लिए बड़े पैमाने पर आयात करने का निर्देश दिया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2014-15 जुलाई-जून फसल वर्ष के दौरान देश में दलहन उत्पादन घटकर 173.8 लाख टन रहने का अनुमान है। कमजोर मानसून और इस साल मार्च-अप्रैल में हुए बेमौसम बारिश के कारण दलहन का उत्पादन गिरा है।

ध्यातव्य है कि हाल में ही केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल में खाद्य वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने और कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए यह निर्णय लिया गया था और उक्त निर्णयानुसार ही सरकार के द्वारा दाल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ये उपाय किये जा रहे हैं। आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के पास दालों का आयात करना ही फिलहाल सबसे कारगर विकल्प था, अतः इस बारे में केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल का फैसला स्वागतयोग्य है। आम जन कहना है कि दालों की कीमतें हाल में तेजी से चढ़ी हैं। स्वयं सरकार ने भी माना है कि गत एक वर्ष में दालों के दाम में 64 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। इस बात से चिंतित कैबिनेट के द्वारा बड़ी मात्रा में दालों के आयात का निर्णय लिया जाना जनहित में स्वागतयोग्य कदम है । भारत दालों की पैदावार के मामले में वैसे भी आत्मनिर्भर नहीं है और  देश में वैसे भी दलहन का उत्पादन खपत से बहुत कम है I इसलिए सामान्य स्थितियों में भी निजी व्यापार के तहत प्रतिवर्ष 40 लाख टन दलहन का आयात होता है। खेती के पिछले मौसम में पहले कमजोर मानसून और बाद में बेमौसमी बारिश की वजह से हालत ज्यादा बिगड़ गई। पिछले वर्ष खराब मौसम होने के कारण दलहन उत्पादन में भारी कमी आई। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक अपने देश में दलहन की खेती अधिकतर वर्षा सिंचित क्षेत्रों में होती है। यानी मानसून की स्थिति से इसकी पैदावार सीधे प्रभावित होती है। कृषि वर्ष 2014-15 के दौरान सामान्य से कम मानसून के कारण दलहन का घरेलू उत्पादन गिरा। खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान के मुताबिक जुलाई 2014 से जून 2015 के बीच दलहन की पैदावार महज 1,73,80,000 टन रह गई, जबकि उसके पिछले एक वर्ष में 1,92,50,000 टन दालें देश में पैदा हुई थीं। नतीजतन, उड़द, तूअर, मसूर, चना और मूंग दालों के दामों में भारी उछाल देखा गया। उत्पादन कम हुआ तो जमाखोरों की भी बन आई। भंडार में पड़ी दालों को बाजार में लाने की बजाय उन्होंने कृत्रिम अभाव भी उत्पन्न किया है। नतीजतन, गरीब तबकों की बात तो दूर, निम्न मध्यम वर्ग की थाली से भी यह जरूरी खाद्य गायब होता गया है।
एक लम्बी उहापोह के बाद दालों की कीमत पर अंकुश लगाने लिए सरकार के द्वारा आयात करने का निर्णय लिए जाने से स्थिति अब स्पष्ट हो गयी। अभी तक बेमौसम बरसात से खराब हो गये दलहन व अन्य फसलों के कारण केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों और आम उपभोक्ताओं , किसानों के बीच बड़ी उलझन, खींचतान और अनिश्चितता की स्थिति चल रही थी। जिससे अब निजात मिलने की उम्मीद बढ़ गई है । दरअसल पिछले एक वर्ष में दाल की कीमतों में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द बनती जा रही हैं। पिछले एक वर्ष में अलग-अलग दाल की कीमतें 35 से 60 प्रतिशत तक बढ़ी हैं, और अब बड़े स्तर पर आयात कर दाल की उपलब्घता बाजार में बढ़ाने की तैयारी है। दरअसल दाल के दाम थामने में केन्द्र सरकार अब तक नाकाम रही है। स्वयं खाद्य मंत्रालय के ही आंकड़ों के अनुसार 26 मई 2014 को उड़द दाल की कीमत 71 रूपये किलोग्राम थी जो इस वर्ष 9 जून को 114 रूपये हो गई यानी 60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। इस दौरान अरहर दाल की कीमत 75 रुपये से बढ़कर 115 रुपये तक पहुँच गई, यानी एक साल में अरहर दाल 53 प्रतिशत महँगी हुई। इस एक साल में चना दाल भी 40 प्रतिशत महँगी हुई। मई 2014 में चना दाल का भाव 50 रुपये प्रति किलोग्राम था, जो 9 जून को बढ़कर 70 रुपये किलोग्राम हो गया, जबकि इस दौरान मसूर दाल की कीमत 70 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 94 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुँच गई। बड़े बुजुर्गों का कहना है कि गत 40 -50 वर्षों में दाल की कीमतों में इतने लम्बे समय तक तेज़ी नहीं देखी जैसी पिछले एक वर्ष में दिखाई दी है ।

उल्लेखनीय है कि लम्बे समय से देश में दालों का अभाव बना ही हुआ है। देश का दाल उत्पादन हमारी जरूरत से 40 प्रतिशत कम पूर्व से ही चला ही आ रहा है और इस वर्ष फसलों पर बेमौसम बरसात, ओले, आंधी व हवा की मार से दालों का अभाव और बढ़ गया। अभी तक 40 प्रतिशत का अभाव चल रहा है और अब दालों के भावों में एक साल में 40 प्रतिशत भाव भी बढ़ गये हैं। अभाव और मूल्यों दोनों में 40 का आंकड़ा कदमताल कर रहा है। सभी दालों की कीमतें पिछले वर्ष की तुलना में 40 से 61 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है। वजह भी यही है देश में उत्पादन और ज्यादा घट गया है और जिन देशों से न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, म्यानमार से आयात होता है वहां भी दालों की फसल कमजोर आयी हैं और भाव ऊंचे चल रहे हैं।

बहरहाल भारत जैसे देश में, जहां आबादी के बहुत बड़े हिस्से को मांसाहार से परहेज है, दालें ही आम इंसान के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं। ऐसे में दालों की महंगाई का मारक असर होता है। अफसोस की बात है कि सरकारों के इस तथ्य से परिचित रहने के बावजूद दालों की खेती का क्षेत्र बढ़ाने तथा दलहन की फसल को मौसम की मार से बचाने के पर्याप्त उपाय आज तक नहीं हुए। एनडीए सरकार के सामने इस लक्ष्य को हासिल करना बड़ी चुनौती है। आयात दीर्घकालिक विकल्प नहीं हो सकता। अतः फिलहाल उत्पन्न आपात स्थिति से निपटने के लिए दिखाई गई सरकारी तत्परता तो उचित है, मगर इसके साथ ही ऐसे प्रभावी कदम भी उठाए जाने चाहिए ताकि आने वाले वर्षों में आयात की आवश्यकता न पड़े।

Thursday, July 9, 2015

श्रीकृष्ण परमात्मा के अवतार नहीं वरन महान योगी थे -अशोक “प्रवृद्ध”

नॉएडा , गौत्तमबुद्ध नगर (उत्तरप्रदेश) से प्रकाशित साप्ताहिक उगता भारत के ताजा अंक में आज प्रकाशित लेख- श्रीकृष्ण परमात्मा के अवतार नहीं वरन महान योगी थे  -अशोक “प्रवृद्ध”

श्रीकृष्ण परमात्मा के अवतार नहीं वरन महान योगी थे 
-अशोक “प्रवृद्ध”
यह सर्वमान्य तथ्य है कि श्रीमद्भगवद्गीता का पूर्ण कथन उपनिषदादि ग्रंथों पर आधारित है। स्वयं श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय के चौथे श्लोक में यह स्वीकार किया है कि जो कुछ भी इस प्रवचन में कहा गया है, वही वेदों में, ऋषियों ने बहुत प्रकार से गान किया है और ब्रह्मसूत्रों में भी उसे युक्तियुक्त ढंग से स्पष्ट किया गया है, परन्तु कुछ भाष्यकारों ने गीता प्रवचन के ऐसे अर्थ निकाले हैं जो वेदादि शास्त्रों के विरोधी हैं जो कदापि मान्य नहीं हो सकते। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जो कुछ वेदादि सद्ग्रंथों में कहा गया है वही श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है ।
इसकी पुष्टि हेतु श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय का चतुर्थ श्लोक का उद्धृत करना समीचीन होगा –
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छंदोंभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चचैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।
- श्रीमद्भगवद्गीता -13/4
अर्थात – इस क्षेत्र अर्थात शरीर और क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मत्त्वों के विषय में ऋषियों ने और वेदों ने विविध भान्ति से समझाया है। इसी प्रकार ब्रह्मसूत्रों में पृथक्-पृथक् शरीर, जीवात्मा और परमात्मा के विषय में युक्तियुक्त रीति से इसका वर्णन किया है ।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने स्वयं यह बात स्पष्ट कर दिया है कि वे वही बात कह रहे हैं जो हमारे वेद शास्त्रों में आदिकाल में ही कह दी गई है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण तो केवल उसका स्मरण मात्र करा रहे हैं ।श्रीकृष्ण ने अपने कर्तव्य से विमुख अर्जुन को उसके कर्तव्य का भान कराने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का प्रवचन किया था ।इससे यह सिद्ध होता है कि श्रीमद्भगवद्गीता वैराग्य अर्थात भक्तिप्रधान अवतारवाद का ग्रन्थ नहीं अपितु कर्मयोग का ग्रन्थ है , हाँ इसमें अध्यात्म का समावेश अवश्य है ।
श्रीमद्भगवद्गीता के अनेक भाष्यकारों ने गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण को साक्षात् भगवान् माना है, परन्तु श्रीकृष्ण अवतार तो हो सकते हैं किन्तु भगवान् अर्थात परमात्मा नहीं क्योंकि परमेश्वरोक्त वैदिक ग्रंथों के अनुसार अनादि, अजन्मा, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान परमात्मा अर्थात भगवान तो एक ही है जिसके अनेक दिव्य गुणों के कारण असंख्य नाम हैं। हाँ श्रीमद्भगवद्गीता में जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण ने मैं , मेरा, मेरे द्वारा आदि शब्दों का प्रयोग किया है वह कथन ईश्वर के लिए है ।श्रीमद्भगवद्गीता 2/61 में श्रीकृष्ण के कहे अनुसार –
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीतमत्परः ।
वशे ही यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।- श्रीमद्भगवद्गीता 2/61
अर्थात -इससे उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके योगयुक्त हो मेरे (ईश्वर के) परायण कर दे । क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रिय वश में होती है, उसकी बुद्धि  स्थिर होती है ।
इस श्लोक में मत्परः का अर्थ है मेरे परायण। यह गीता की प्रवचन शैली है । इसका स्पष्टीकरण महाभारत अश्वमेधिक पर्व में भी किया गया है। वहाँ श्रीकृष्ण ने कहा है कि गीता का प्रवचन मैंने योगयुक्त अवस्था में किया था । उस समय मैं ऐसे गीता का प्रवचन कह रहा था मानो परमात्मा मुझमे बैठकर कह रहा हो ।


इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण ने मैं, मेरा इत्यादि शब्द प्रयोग किये हैं , वहाँ उसका अभिप्राय परमात्मा का ही है ।अतः मेरे परायण का अर्थ ईश्वर के परायण समझना चाहिए । इससे यह स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा के अवतार नहीं थे बल्कि योगिराज श्रीकृष्ण का जीवात्मा दिव्य जन्म लेता हुआ भी दुसरे जीवात्माओं की श्रेणी का ही जीवात्मा था ।
महाभारत ,अश्वमेधिक पर्व के एक प्रसंग के अनुसार महाभारत के युद्धोपरांत जब अर्जुन ने एक बार पुनः श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश सुनने की इच्छा श्रीकृष्ण से व्यक्त की तो श्रीकृष्ण ने उससे कहा –
न च शक्यं पुनर्वक्तुं अशेषेण धनञ्जय ।- महाभारत ,अश्वमेधिक पर्व 16/11
अर्थात – हे अर्जुन !अब मैं उपदेश को ज्यों का त्यों नहीं कह सकता ।
इसी प्रकरण में श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि वह धर्म जो मैंने गीता में वर्णन किया है वह ब्रह्मपद को प्राप्त कराने की सामर्थ्य रखता था। वह सारा का सारा धर्म उसी रूप में दुहरा देना अब मेरे वश की बात नहीं है । उस समय तो मैंने योगयुक्त होकर परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन किया था।



श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार के एक से तीन श्लोकों के अनुसार श्रीकृष्ण कहते हैं, इस अविनाशी योग का ज्ञान मैंने (ईश्वर ने) आदिकाल में विवस्वान को कहा और विवस्वान ने मनु को कहा था और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को कहा ।इस प्रकार परम्परा से (पुत्र को पिता से) चलता हुआ यह ज्ञान राजर्षियों ने जाना और हे अर्जुन! यह योग बहुत काल से लोप हो चुका था। वही पुरातन योग ही अब मैं तेरे लिए कह रहा हूँ। तू मेरा भक्त भी है और सखा भी है ।इस कारण यह अतिश्रेष्ठ तथा रहस्यमय बात तुमसे कहता हूँ ।
श्रीमद्भगवद्गीता – 4/1-3 में कहे अनुसार श्रीकृष्ण ने बताया है कि वह ज्ञान इस समय अर्थात आदि काल से ही  परम्परा के अनुसार चला आता है, परन्तु बीच काल में राजा तथा अन्य मनुष्य, कामनाओं में फँसकर इस योग ज्ञान को भूल गए ।श्रीकृष्ण के कहने का अभिप्राय यह है कि उनका अपना ज्ञान उनके कई जन्मों का संचित ज्ञान है ।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि ज्ञान संचित कैसे होता है? ऐसा माना जाता है कि ज्ञान तो पाँच कर्मेन्द्रियों से ही प्राप्त होता है।वह ज्ञान मन पर अंकित हो जाता है।उस ज्ञान के संस्कार मात्र जीवात्मा पर अंकित होते हैं।सामान्य जीवन में तो एक जन्म का ज्ञान दूसरे जन्म में नहीं जाता क्योंकि ज्ञान मन पर अंकित होता है और मन प्रकृति का अंश होने के कारण शरीर के साथ ही विनष्ट हो जाता है ।जीवनकाल में मन पर अंकित ज्ञान का आभाष ही आत्मा पर पड़ता रहता है। सांख्य दर्शन में कहा है -
कुसुमवच्च मणिः।– सांख्य दर्शन 2-35
अर्थात- जैसे मणि के पास रंगदार फूल लाया जाए तो मणि भी उसी रंग में रंगी दिखाई देने लगती है।
यह मणि पर पुष्प का रंग जीवात्मा पर चित्त का प्रतिविम्ब सामान्य कर्म की अवस्था में होता है ।कुसुम के हट जाने पर रंग हट जाता है, परन्तु जब बार-बार एक कर्म किया जाये तो उसका प्रभाव जीवात्मा पर स्थिर हो जाता है। जब प्रभाव केवल रंग का ही हो तो संस्कार कहाता है, परन्तु यदि प्रभाव पुष्प की सुगन्धि का भी हो तो यह कर्म की स्मृति कहती है ।यह योग साधना से संभव है। योग क्रियाओं में समाधि अवस्था में चित्त की वृत्तियों का जीवात्मा पर चिर प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण योगनिष्ठ आत्मा थे और वह अनेक जन्म लेते रहे हैं।वैसे तो अर्जुन का आत्मा भी अनगिनत जन्म ले चुका था, परन्तु श्रीकृष्ण का जीवात्मा योगनिष्ठ होने से उन जन्मों की बात को जानता था और वे उसे स्मरण थे। शरीर पञ्च-भौतिक है और कृष्ण का आत्मा योगनिष्ठ होने के कारण पंचभूतों (जिनसे शरीर बना है) का ईश्वर (स्वामी) है।वह जब चाहे उस पञ्च-भौतिक शरीर में आता है और जाता है ।इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि आदिकाल से संचित ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को दिया था। यदि एक वाक्य में कहा जाये तो यह ज्ञान था- धर्म की स्थापना के लिए हत्या क्षम्य है और धर्म का निश्चय करने के लिए स्थिर बुद्धि होनी चाहिए ।
भूत का अभिप्राय पञ्च-महाभूत है, जिससे शरीर बना है।योगी भूतों को अपने वश में कर लेता है। श्रीकृष्ण का अर्जुन को मैं,मया आदि के सम्बोधन से कहने का अभिप्राय यही है।योगी स्वेच्छा से जन्म लेता है, ऐसा ही कृष्ण ने अपने विषय में कहा है और इसी भाव को अध्याय चार के ही अगले श्लोकों 7-8 में स्पष्ट किया है । श्रीमद्भगवद्गीता 4/7-8 में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जन धर्म की हानि होती है तब मैं (मुझ जैसी आत्माएं) धर्म को पुनः प्रतिष्ठित कराने के लिए जन्म लेता हूँ। योगीजन साधुओं का भय दूर करते हैं और दुष्टों का विनाश करते हैं तथा धर्मों की स्थापना करते हैं।
 कृष्ण में उपस्थित जीवात्मा योगी का आत्मा था।कदाचित वह मुक्त आत्मा था। जब कहा गया कि सम्भवामि युगे-युगे तो इसका अभिप्राय यही है कि मुक्त जीव समय-समय पर जन्म लेते हैं ।
भिन्न-भिन्न अवतारों में केवल एक श्रीकृष्ण का आत्मा होना संभव नहीं है । यह तभी संभव हो सकता है जब मुक्त आत्मा परमात्मा हो जाता है, परन्तु यह श्रीकृष्ण के अपने कथन से ही सिद्ध नहीं होता ।जिसका वैदिक ग्रन्थ भी समर्थन करते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण का जीवात्मा जन्म-जन्मान्तर की योग-क्रियाओं के कारण ऐसी शक्ति प्राप्त कर चुका था कि वह अपने लिए पञ्च-भौतिक शरीर इच्छानुसार निर्माण कर सकता था और वह स्वेच्छा से जन्म में आता था।उसका मनुष्य जीवन में आना निष्प्रयोजन नहीं है।वह धर्म की स्थापना के लिए श्रेष्ठ व्यक्तियों के भय निवारण के लिए ही जन्म लेता है ।

Saturday, July 4, 2015

झारखण्ड में खुलेगा देश का पहला खेल विश्वविद्यालय -अशोक “प्रवृद्ध”

    हर राष्ट्रवादी की पहली पसन्द नॉएडा , गौतमबुद्धनगर (उत्तरप्रदेश)  से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र उगता भारत के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- ४ जुलाई को प्रकाशित लेख -  झारखण्ड में खुलेगा देश का पहला खेल विश्वविद्यालय  -अशोक “प्रवृद्ध”
उगता भारत, दिनांक- ४ जून २०१५ 

                       झारखण्ड में खुलेगा देश का पहला खेल विश्वविद्यालय  
                                -अशोक “प्रवृद्ध”

देश में पहली बार झारखण्ड में खेल विश्वविद्यालय की स्थापना का मार्ग साफ और प्रशस्त हो गया है तथा आशा है राज्य स्थापना दिवस पन्द्रह नवम्बर तक ही झारखण्ड प्रदेश में शारीरिक शिक्षा एवं खेलों की शिक्षा, शोध व ज्ञान के विस्तार के साथ खिलाडिय़ों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के प्रशिक्षण के उद्देश्य से राजधानी राँची में देश व राज्य का प्रथम खेल विश्वविद्यालय अस्तित्व में आ जायेगा । इसके लिए सत्रह जून बुधवार को राँची के होटल बीएनआर में राज्य सरकार और भारतीय कोयला निगम की आनुषांगिक कम्पनी सेन्ट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड (सीसीएल)  के मध्य झारखण्ड खेल विश्वविद्यालय एवं झारखण्ड खेल अकादमी स्थापित करने का समझौता अर्थात एम ओ यू हुआ, जिसके तहत सीसीएल निगमित सामाजिक दायित्व कोष से राष्ट्रीय खेलों के लिए बने विशाल खेल परिसर में इस विश्वविद्यालय की स्थापना करेगा।

मुख्यमंत्री रघुवर दास और सीसीएल के सीएमडी गोपाल सिंह की उपस्थिति में समझौते पर सीसीएल की ओर से सीएम (सीएसआर) जी तिवारी और राज्य की ओर से खेल सचिव अविनाश कुमार ने हस्ताक्षर किये। मुख्यमंत्री रघुवर दास ने इस समझौते को राज्य के सवा करोड़ से अधिक युवाओं के लिए एक बडा अवसर बतलाते हुए कहा कि इस राज्य में एकलव्य की कमी नहीं है। कमी थी, एक द्रोणाचार्य की। द्रोणाचार्य की वह कमी यह संस्थान पूरा करेगा। झारखण्ड खेल विश्वविद्यालय एवं अकादमी की स्थापना राज्य में खेल और खिलाडियों के लिए वरदान साबित होगा। राज्य में 1.32 करोड़ युवा हैं। यह उनके सपनों का संस्थान होगा। यहाँ अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधा दी जायेगी । मुख्यमंत्री दास ने यह भी खुलासा किया कि उन्होंने केंद्रीय उर्जा एवं कोयला मंत्री पीयूष गोयल से राँची में झारखण्ड खेल विश्वविद्यालय की स्थापना में मदद माँगी थी और इतनी द्रुत गति से उनके मंत्रालय ने जो सहयोग किया है यह प्रशंसनीय है। खेल मंत्री अमर कुमार बाउरी ने इसे देश के लिए गौरव की बात बतलाते हुए कहा कि यह पूरे देश के लिए गर्व की बात है। देश में पहली बार खेल विश्वविद्यालय की स्थापना की जा रही है। राज्य में इसका वर्ल्ड क्लास इंफ्रास्ट्रक्चर होगा। इसका फायदा यहाँ के खिलाड़ियों को मिलना चाहिए। यहाँ के खिलाड़ियों में क्षमता की कमी नहीं है ।जिसे प्रशिक्षण देकर उच्च स्तर तक पहुँचाया जा सकता है। जो खिलाड़ी खेल में अपनी उम्र गुजार दे रहे हैं, उनके लिए रोजगार की व्यवस्था भी होनी चाहिए।


उल्लेखनीय है कि फरवरी, 2011 में राँची में चौंतीसवें राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिए अरबों रूपये खर्च कर एक विशाल क्षेल परिसर का निर्माण किया गया था, परन्तु राष्ट्रीय क्षेलों के आयोजन के बाद से ही उस उद्देश्य से बना विशाल खेल परिसर लगभग अनुपयुक्त ही पड़ा था लेकिन अब इसका समुचित उपयोग खिलाडियों के प्रशिक्षण के लिए हो पाएगा। मुख्य सचिव राजीव गौबा ने कहा कि 2011 में राष्ट्रीय खेल के समय आधारभूत संरचना का निर्माण किया गया था। इसका उपयोग यदा-कदा ही हो रहा था। इसके रखरखाव के लिए कोई दीर्घकालीन व्यवस्था नहीं थी। इस कारण इसकी गुणवत्ता भी गिर रही थी ।इस समझौते से रखरखाव हो पायेगा और राज्य के खिलाडियों का प्रतिभा संवारने का काम भी हो पायेगा। सीसीएल के प्रबन्ध निदेशक गोपाल सिंह ने कहा कि खेल गाँव में उपलब्ध अधिसंरचना का इससे अच्छा सदुपयोग नहीं हो सकता था कि वहाँ देश और झारखंड के प्रतिभावान खिलाडियों को उनके खेलों में विशेष प्रशिक्षण दिया जाये। झारखण्ड में खेल और खिलाडियों को लेकर असीम क्षमता है और यहाँ कई धौनी, असुन्ताएँ और दीपिकाएँ पैदा हो सकती हैं, आवश्यकता मात्र उन्हें उचित प्रोत्साहन देने की है।


उल्लेखनीय है कि झारखण्ड के खिलाडियों ने देश और दुनिया में झारखण्ड का परचम लहराया है और अब इस तरह की आधारभूत संरचना खडी होने और अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्रशिक्षण प्राप्त होने से राज्य के खिलाडियों को अपना कौशल दुनिया के सामने पेश करने का बडा अवसर प्राप्त होगा। सीसीएल के सीएमडी गोपाल सिंह का यह कहना भी आशा जगाता है कि यह प्रयास किया जायेगा कि कैसे खेल के माध्यम से गरीब ग्रामीणों का विकास हो? पूरे देश में ऐसा समझौता नहीं हुआ था। पहली बार ऐसा हुआ है । इसे देश का सबसे बेहतरीन संस्थान बनाया जायेगा। देश के लिए उदाहरण बनेगा ।
इसमें कोई शक नहीं कि झारखण्ड खेल विश्वविद्यालय के अस्तित्व में आ जाने से जहाँ झारखण्ड के युवा और देश के युवाओं को खेल के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को निखारने का अच्छात मौका मिल जायेगा वहीँ खेलों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार कर खेल जगत में प्रदेश को देश में अग्रणी राज्य के रूप में स्थापित करने और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाए जाने के उद्देश्य से भी यह कारगर साबित होगी तथा खेल सुविधाओं के विकास एवं प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों को पर्याप्त अवसर उपलब्ध होंगे।


उल्लेखनीय है कि झारखण्ड सरकार और सेन्ट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड के मध्य समझौते के शर्तों के अनुसार इसके लिए एक संयुक्त परियोजना कमेटी बनायी जायेगी, इसमें झारखण्ड खेल प्राधिकरण की भागीदारी 26 से 49 प्रतिशत तक होगी। इसमें 15 खेल विधाओं की खेल अकादमी की स्थापना की जायेगी और 1400 विद्यार्थियों का नामांकन होगा। 700 प्रतियोगिता से आयेंगे ।शेष 700 में 350 राज्य सरकार और 350 सीसीएल से चयनित बच्चे होंगे । इनका खर्च राज्य सरकार व सीसीएल उठायेंगे। समझौते के अनुसार लाभ में सरकार को हिस्सा मिलेगा और हानि की भरपाई भी सरकार करेगी। एकेडमी में नामांकन पानेवाले बच्चों की शिक्षा के लिए विद्यालय की भी स्थापना होगी। इसके संचालन के लिए प्रशासी परिषद का गठन होगा, जिसके अध्यक्ष सह संरक्षक मुख्य सचिव होंगे और सह संरक्षक सीसीएल के सीएमडी होंगे।कार्यकारिणी परिषद का गठन भी किया जायेगा, जिसके अध्यक्ष खेलकूद व कला संस्कृति विभाग के सचिव होंगे। 50 प्रतिशत राज्य के बच्चे होंगे और इनको वसूलनीय शुल्क में 50 प्रतिशत की छूट मिलेगी। शेष 50 प्रतिशत विद्यार्थियों का चयन पूरे देश से होगा।स्थापना में प्रारंभिक व्यय सीसीएल के सीएसआर फंड से होगा। अकादमी में नामांकन लेनेवाले बच्चों को प्लस टू तक की शिक्षा और 500 रु प्रतिमाह छात्रवृति अर्थात स्टाइपेंड भी दी जायेगी। हालाँकि इसके विरोधी भी पक्ष-विपक्ष में कई मौजूद हैं, और समझौते के पूर्व ही राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के खेलकूद प्रकोष्ठ के अनिल कुमार ने राज्यपाल को पत्र लिख कर खेल यूनिवर्सिटी और खेल अकादमी के लिए होने वाले एमओयू को रोकने की माँग करते हुए लिखा है कि कमेटी में खेल से जुड़े लोगों को शामिल नहीं किया गया है। मुख्यमंत्री व खेल मंत्री भी कमेटी में नहीं हैं। कमेटी में सिर्फ खेल विभाग और सीसीएल के आला अधिकारियों को शामिल किया गया है।  इससे न तो खिलाड़ियों को और न सरकार को फायदा होगा।


उल्ल्लेख्न्नीय है कि देश में खेल विश्वविद्यालय स्थापित करने की पहल कोई नहीं है, इससे पूर्व भी राजस्थान में ऐसी पहल हो चुकी है,लेकिन राजस्थान सरकार की वह पहल परवान न चढ़ सकी। वर्ष 2011 में राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बजट में निजी जनसहभागिता मोड (पीपीपी) में प्रदेश के पहले खेल विश्वविद्यालय की घोषणा की थी। निजी फर्म ने सरकारी अनुदान प्रतिशत को लेकर मतभेद होने पर अपने हाथ वापस खींच लिए। तब दिसंबर 2012 में सरकार ने सरकारी खेल विश्वविद्यालय की घोषणा की, परन्तु यह मामला पाँच साल बाद भी मामला जमीन आंवटन से आगे नहीं बढ़ सका। जबकि विश्वविद्यालय के लिए लगाए गए कुलपति का बाकायदा वेतन उठ रहा है।

वर्र्तमान में विज्ञान ने बहुत उन्नति की है, मगर मानव के स्वास्थ्य के साथ बहुत खिलवाड़ भी हुआ है। आधुनिकता की दौड़ में अंतरराष्ट्रीय भाईचारा व मैत्री तो बहुत दूर की बात है, मनुष्य अपने परिवार को ही कलह से नहीं बचा पा रहा है। खेल जहाँ मनुष्य को स्वास्थ्य प्रदान करते हैं, वहीं मानव को सबके साथ मिलकर चलना भी सिखाते हैं। खेलकूद से हमारी कार्य क्षमता बढ़ती है, तो देश का विकास भी होगा और देश श्रेष्ठता की ओर बढ़ेगा। इसके लिए राज्य व देश में खेलों को बढ़ावा देना होगा, ताकि हम जहाँ प्रदेश व देश को चुस्त-दुरुस्त व सेहतमन्द नागरिक दे सकें। इसी से विश्व स्तर के कई खिलाड़ी भी निकाले जा सकते हैं। ओलंपिक जैसी संसार की सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता में भारत के लिए पदक जीतकर देश व झारखण्ड को गौरव दिला सकें।आशा है झारखण्ड में खेल विश्वविद्यालय और खेल अकादमी के स्थापन से इस उद्देश्य की पूर्ति अर्थात खेल और खिलाडियों के विकास और प्रतिभा निखारने के पर्याप्त अवसर अवश्य ही प्राप्त होंगे ।

Thursday, July 2, 2015

गरीबों के सपनों को नई उड़ान देने की पी एम की पहल -अशोक "प्रवृद्ध"

नॉएडा (बुद्धनगर) उत्तरप्रदेश से प्रकाशित दैनिक उगता भारत और राँची झारखण्ड से प्रकशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- २ जुलाई २०१५ को प्रकाशित लेख -
गरीबों के सपनों को नई उड़ान देने की पी एम की पहल -अशोक "प्रवृद्ध"
उगता भारत , दिनांक- २ जुलाई २०१५ 


सपनों को उड़ान देने की कोशिश 
-अशोक “प्रवृद्ध”
राष्ट्रीय खबर, दिनांक- २ जुलाई २०१५ 



शहरी भारत का कायाकल्प करने तथा हर परिवार को अपना घर और बेहतर जीवनशैली मुहैय्या कराने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 25 जून बृहस्पतिवार को 4 लाख करोड़ रुपये की लागत से 2022 तक सबको आवास योजना, बहुचर्चित 100 शहरों की स्मार्ट सिटी परियोजना, 500 शहरों में शहरी सुधार और पुनरुद्धार के लिए अटल मिशन (अमृत प्रोजेक्ट) नाम की तीन बड़ी योजनाओं का दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में प्रमोचन अर्थात शुरुआत कर देश के गरीबों के सपनों को नई उड़ान देने की कोशिश की है।स्मार्ट सिटी और अटल मिशन अर्थात अमृत प्रोटेक्ट योजना तो सिर्फ शहरों के कायाकल्प करने अर्थात स्मार्टनेस के लिए है, परन्तु सबको आवास योजना देश के कमजोर, निर्धन और निम्न आय वर्गों के परिवारों के लिए है, जिसके तहत वर्ष 2022 तक सबको आवास उपलब्ध कराये जायेंगे और इस पर सात वर्ष में तीन लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे। योजना के तहत देश के सभी 4011 शहरों और कस्बों में 2 करोड़ सस्ते मकान बनाये जायेंगे। ये झुग्गियों में रहने वालों व आर्थिक रूप से कमजोर तबको (ईडब्ल्यूएस) के लिए होंगे। राज्यों को शहरी गरीबों के लिये मकान के निर्माण पर 6.5 प्रतिशत ब्याज अनुदान अर्थात सबसिडी दी जाएगी। जिसमें ईडब्ल्यूएस को आवास कर्ज पर सरकार 15 वर्ष के लिए ब्याज पर 6.5 फीसदी सबसिडी देगी। जिससे प्रत्येक को करीब 2.3 लाख रुपये का लाभ होगा।स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के अन्तर्गत 100 नगरों में चौबीसों घंटे बिजली-पानी, विश्वस्तरीय परिवहन व्यवस्था, बेहतर शिक्षा एवं मनोरंजन सुविधायें, ई-गवर्नेंस, पर्यावरण-सम्मत माहौल एवं अन्य सहूलियतें मुहैय्या कराये जाने का सपना है।स्वयं प्रधानमंत्री ने स्मार्ट सिटी की परिभाषा करते हुए प्रमोचन के अवसर पर कहा कि ये वैसे शहर होंगे जहाँ इसके पहले कि नागरिक कुछ चाहें, उससे पूर्व ही वह उन्हें उपलब्ध करा दिया जायेगा। अटल शहरी पुनरुद्धार एवं रूपांतरण मिशन का उद्देश्य अर्थात मकसद एक लाख से अधिक आबादी वाले 500 शहरों में बुनियादी आधारभूत ढाँचा तैयार करना है, ताकि आगे चलकर ये शहर भी स्वतः स्मार्ट सिटी में बदल जायें। स्पष्टतः सरकार ने ऊँचा सपना देखा है, इसीलिए उसके सामने चुनौतियाँ भी ऊँची ही हैं।


ध्यातव्य है कि इन योजनाओं के प्रमोचन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने आवास योजना के लोगो का भी अनावरण किया। इन महत्वाकांक्षी योजनाओं के प्रति प्रधानमन्त्री की अभिरुचि व संजीदगी का पत्ता इस बात से चलता है कि इन सभी योजनाओं को तैयार करने में स्वयं प्रधानमंत्री भी शामिल रहे हैं और योजना के लोगो की डिजाइन को अन्तिम रूप देने में मोदी ने व्यक्तिगत तौर पर रुचि ली थी। ये तीनों योजनायें राज्यों, संघ शासित प्रदेशों व शहरी निकायों के साथ एक वर्ष तक चले गहन विचार-विमर्श के बाद तैयार की गई हैं।इन योजनाओं में केन्द्र 4 लाख करोड़ का केंद्रीय अनुदान देगा। शहरी विकास मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार तीनों योजनाओं के बारे में शहरी विकास, आवास व शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय प्रधानमंत्री को नियमित प्रेजेंटेशन देते थे और मोदी उन्हें योजनाओं को अधिकाधिक परिणामदायी बनाने के निर्देश देते थे।
दरअसल इन योजनाओं के कार्यान्वयन के प्रति प्रधानमंत्री की यह सोच रही है जो उन्होंने प्रमोचन के अवसर पर व्यक्त करते हुए कहा कि देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या या तो शहरों में रहती है अथवा जीवन-यापन के लिए शहरों पर निर्भर है। गाँव से लोग शहर में रोजी-रोजगार के लिए आते हैं। यहाँ लोगों को बेहतर सुविधाओं की जरूरत है। हमारा इन शहरों में जीवन की गुणवत्ता को बेहतर करने का लक्ष्य है और यदि आम लोगों को केन्द्र में रखकर हम काम करेंगे तो कोई परेशानी नहीं होगी।इन योजनाओं की आवश्यकता के कारणों का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि यदि हम 25-30 वर्ष पहले शहरीकरण के महत्व को पहचान लेते तो अच्छा होता। लेकिन पहले जो नहीं हुआ उसे लेकर चुपचाप नहीं बैठ सकते। पुराने अनुभवों के आधार पर निराश होकर बैठने की जरूरत नहीं है। हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। यदि कोई विधिक समस्या आती है हम उसका हल ढूंढेंगे। यदि आर्थिक मुद्दे सामने आते हैं तो उसे दूर करेंगे।ये योजनायें इस मामले में भी अनूठी हैं कि पहली बार ऐसा हो रहा है कि अपनी सिटी को स्मार्ट बनाने के लिए राज्य या केन्द्र सरकार नहीं, बल्कि नगर निगम और आम लोग मिलकर निर्णय लेंगे तथा राज्य सरकारों और आवास बोर्डों के पास खुद सस्ते घर बनाने का विकल्प होगा और इसके लिए वे केन्द्र सरकार की सहायता ले सकते हैं। परिणामतः स्मार्ट सिटी को लेकर एक शहर से दूसरे शहर में प्रतिस्पर्धा होगी और जो आगे निकल जाएगा वहीं स्मार्ट सिटी होगा। सबको घर योजना के सम्बन्ध में प्रमोचन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप से कहा कि एक बार जब गरीब का खुद का घर हो जाता है तो फिर उसके इरादे बदलते हैं, वह सपने संजोने लगता है और उसे पूरा करने का प्रयास शुरू कर देता है। उसके सपने को उड़ान मिल जाती है।



उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस सपने को पूरा करने के लिए हाल ही में मोदी कैबिनेट ने सभी के लिए घर योजनान्तर्गत शहरी गरीबों तथा कम आय वर्ग के लोगों के लिए मकानों का निर्माण करने की योजना को मंजूरी दी है। इसके मद्देनज़र कैबिनेट ने सरदार पटेल नेशनल हाउसिंग मिशन के तहत 2022 तक सबका अपना घर के वादे को पूरा करने के लिए हॉउसिंग फॉर ऑल योजना को मंजूरी  दी है। योजना के तहत वर्ष 2022 तक देश के हर परिवार को उसका अपना घर देने की कार्ययोजना बनाई गई है जिसके लिए करीब 13 लाख करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत होगी। तीन चरणों में कुल 500 शहरों में इस परियोजना को आगे बढ़ाने पर ध्यान दिया जाएगा। प्रथम चरण के तहत मार्च 2017 तक 100 शहर शामिल किए जायेंगे जबकि सभी के लिए आवास के तहत द्वितीय चरण में मार्च 2019 तक 200 और शहरों को शामिल किया जायेगा। तृतीय और अंतिम चरण में मार्च 2022 तक सभी बाकी बचे शहरों को शामिल किया जायेगा। कैबिनेट के निर्णय के अनुसार केन्द्र सरकार झुग्गी बस्तियों में प्रत्येक मकान के निर्माण पर एक लाख रुपए की मदद देगी। इस योजना में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के साथ साझेदारी के जरिये भी मकान बनाने का विकल्प होगा। हालाँकि इस पूरी योजना अर्थात मोदी के इस सपने के कार्यान्वयन में और पूरा होने में कई प्रकार के रोड़े, बाधायें और परेशानियाँ हैं। इसके तहत दो करोड़ मकान बनाने के लिए तीन खरब रुपए खर्च होंगे। इसके लिए धन उपलब्ध कराने के साथ ही इतने मकानों के लिए जमीन की आवश्यकता होगी।सरकार की मंशा शहरों में स्लम्स के बाशिन्दों को किफायती आवास देने का है। यह सब्सिडी से होगा। मगर क्या इसका पूरा खर्च केन्द्र उठाएगा? या फिर राज्यों को भी जिम्मेदारी लेनी होगी? और जमीन वैसे भी राज्य सूची का विषय है। अर्थात राज्यों की उत्साहपूर्ण भागीदारी इस योजना की सफलता की अनिवार्य शर्त होगी। इसके अतिरिक्त आवास  योजना के पूरा होने में बाजारवाद एक अन्य प्रकार से बड़ा रोड़ा बनकर फिर भी सामने आयेगा । क्योंकि यह सर्वविदित है कि पूरे देश में घर निर्माण क्षेत्र में निजी मकान निर्माणकर्ताओं का बोलबाला है। ये निजी मकान निर्माणकर्ता मोटा मुनाफा कमाने के चक्क्र में सस्तेन घर का निर्माण करना ही नहीं चाहते। वहीं रियल एस्टेणट के लिए रेगुलेटर न होने का लाभ भी बिल्डतर उठाते हैं और वे घरों की कीमतें अपनी मर्जी से तय करते हैं। दूसरी ओर सरकार की जितनी भी निर्माण संस्थायें हैं, वे घर बनाने का काम छोड़ चुकी हैं। और अगर करती भी हैं तो इनकी कार्य-शैली के कारण समय-समय पर ज्यादातर निर्माण संस्थाओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहते हैं।अतः इनसे कुछ उम्मीद करनी बेमानी है ।
मोदी के सपने की राह में एक और बड़ा रोड़ा है और वह है कीमतों का तय न होना। दरअसल, रियल एस्टेकट मार्केट में सस्ते  घर की कोई तय परिभाषा नहीं है। एक अन्य रोड़ा के रूप में बैंक और सरकारी कर्मियों की भ्रष्टाचार व घूसखोरी के जंगल में भी गरीब आदमी उलझेगा। सस्तेक घर के निर्माण के लिए सस्तीय कीमत पर जमीन मुहैया होनी चाहिए और इसके लिए स्वी कृति की प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी किया जाना चाहिए। यदि मोदी सरकार अपने इस महत्वाकांक्षी सपने को यथार्थ के पैमाने पर उतारना चाहती है तो उसे इस क्षेत्र की कमियों को दूर कर आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे। तभी सस्ते घर का सभी का सपना, हक़ और अधिकार पूरा और प्राप्त होगा।स्मार्ट सिटी योजना पर भी कई प्रश्न उठे हैं। सरकारों ने अपने संसाधनों का वहाँ अत्यधिक संकेंद्रित कर दिया तो यह शिकायत उभर सकती है कि कुछ शहरों को स्मार्ट बनाने की कीमत दूसरे शहर और कस्बों को उठानी पड़ रही है अथवा उठा रहे हैं। फिर स्मार्ट शहरों में वहाँ के गरीब,अल्प आय वर्ग के लोगों को तमाम महँगी सुविधायें कैसे और किस खर्च पर उपलब्ध कराई जायेंगी? यह भी आरोप है कि यह अटल मिशन जवाहर लाल नेहरु शहरी नवीनीकरण योजना का ही बदला रूप है।तो संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की वह योजना जिन कारणों से असफल साबित हुई, क्या मोदी सरकार ने उनका हल ढूँढ लिया है? परन्तु ऐसा होने के प्रति भरोसा और मजबूत होता, अगर उन पर अमल की समग्र कार्ययोजना भी सरकार सामने रखती।

Saturday, June 27, 2015

मन, बुद्धि और आत्मा सम्बन्धी शिक्षा राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर -अशोक “प्रवृद्ध”

नॉएडा से प्रकाशित होने वाली समाचार पत्र दैनिक उगता भारत के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- २७ जून २०१५ को प्रकाशित लेख -मन, बुद्धि और आत्मा सम्बन्धी शिक्षा राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर -अशोक “प्रवृद्ध”
उगता भारत, दिनांक - २७ जून २०१५ 
मन, बुद्धि और आत्मा सम्बन्धी शिक्षा राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर
-अशोक “प्रवृद्ध”
मानव शरीर में एक अंग है मन। यह स्मृत्ति यन्त्र होने के साथ ही कल्पना और मनन का भी स्थान है। ये कल्पना और मनन मन की स्मरण शक्ति के ही कारण हैं। ईश्वर प्रदत्त मन पर नियन्त्रण रखने वाला एक यन्त्र बुद्धि मन के संकल्प-विकल्प को नियन्त्रण में रखने का कार्य करती है। मन जीवात्मा की इच्छाओं की पूर्ति के लिये कल्पनाएँ अर्थात योजनायें बनाता है और बुद्धि उन योजनाओं को धर्म-अधर्म की दृष्टि से जाँच-पड़ताल करती है,और वह जीवात्मा को सम्मति देती है कि मन की अमुक कल्पना धर्मानुकूल है और अमुक कल्पना अधर्मयुक्त। और जब बुद्धि की चेतावनी की अवहेलना की जाती है तो मन की चंचलता को उच्छृंखलता  करने का अवसर सुलभ हो जाता है। अतः जातीय उत्थान अथवा राष्ट्रोत्थान के लिए जातीय अथवा राष्ट्र के घटकों में बुद्धि को इतना बलवान बनाया जाए कि वह आत्मा की कामनाओं को उचित दिशा देने में समर्थ हो। इसके साथ ही आत्मा के स्वभाव को बदला जाए जिससे वह इच्छाओं और कामनाओं में बह न सके ।यह शिक्षा का विषय है। पाठशालाओं, विद्यालयों,महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इस प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए।
शिक्षा वस्तुतः जीवात्मा का स्वभाव बनाने, मन को शिव संकल्प करने और बुद्धि को सुदृढ़ करने का नाम है। इनके साथ ही इन्द्रियों को मन और बुद्धि के अधीन कार्य करने अभ्यास कराने का नाम है।भाषा, इतिहास, भूगोल, गणित इत्यादि विषय उक्त अवयवों को सन्मार्ग पर चलाने में सहायता देने के लिए होते हैं। स्वतः ये शिक्षा में किसी प्रकार का योगदान नहीं करते ।
ज्ञान-विज्ञान मन, बुद्धि और जीवात्मा को ठीक मार्ग पर ले जाने में सहायक तो हो सकता है, परन्तु यथार्थ ज्ञान और विज्ञान से तकनीकी शिक्षा ज्ञान-विज्ञान नहीं कहाती। तकनीकी शिक्षा वास्तव में ज्ञान से पेशा कराना है, जैसे किसी स्त्री से वेश्यावृति कराना। स्त्री कर्म का उचित उद्देश्य से भी होता है, परन्तु यही कर्म वेश्यावृत्ति भी हो सकता है, जबकि इसके वास्तविक प्रयोग को छोड़कर इसे धनोपार्जन का साधन बना लिया जाए। ठीक यही बात ज्ञान-विज्ञान में तकनीकी ज्ञान की है। ज्ञान-विज्ञान का धर्मयुक्त प्रयोग भी है, परन्तु जब वासना-तृप्ति के लिए इस ज्ञान- विज्ञान की प्राप्ति का प्रयोग किया जाए तो यह वेश्यावृत्ति के समान हो जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि तकनीकी उन्नति जीवन को सुखमय बनाने के लिए वेश्यावृत्ति है, परन्तु यदि जीवन के धर्मयुक्त कार्यों में सहायता के लिए इसका प्रयोग किया जाए तो यह सत्ती-साध्वी महिला के व्यवहार के समान हो जायेगा । शिक्षा में ज्ञान-विज्ञानं के योगदान का अभिप्राय यह है कि प्राणियों, वस्तुओं और प्राकृतिक शक्तियों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जाए और उस ज्ञान का उपयोग जीवन की आवश्यकताओं को व्यवहार में लाने के लिए हो।

ध्यातव्य है कि मन शिव संकल्प करने वाला हो, बुद्धि को प्रबल युक्ति करने योग्य बनाने से और जीवात्मा का विवेक पूर्ण स्वभाव बनाने से मन की चंचलता को स्थिर बनाया जा सकता है। साहित्य, कला और व्यवहार सब शिक्षा के अनुरूप होनी चाहिए, इस कार्य से जाति अथवा राष्ट्र के अस्तित्व की रक्षा हो सकती है। इस महती कार्य के लिए सर्वप्रथम योग्य शिक्षकों को तैयार करने के पश्चात इसी में मन्दिरों, सभा स्थलों,धर्मिक पर्वों, जातीय अथवा राष्ट्रीय महापुरुषों के जीवन चरित्रों तथा उनके मतों के मानने अथवा न मानने का उपयोग शामिल है। भारतीय राष्ट्र के घटकों अर्थात देश के बहुसंख्यक समाज को उसकी वर्तमान पतितावस्था से निकालने के लिए प्रथम कर्म है इसके धार्मिक स्थलों, प्रतीक स्थलों, धार्मिक पर्वों, जातीय अथवा राष्ट्रीय महापुरुषों की कृतियों और लेखों तथा उनके जीवन से सम्बंधित स्थानों का पुनरूद्धार करना।

देश की वर्तमान अवस्था ऐसी हो गई है कि हम कोई भी व्यक्तिगत अथवा जातीय अर्थात सामाजिक-सामूहिक कार्य बिना राज्य की सहमति के कर ही नहीं सकते। यही कारण है कि विश्व हिन्दू परिषद, विराट हिन्दू समाज,हिन्दू जागृति संगठन एवं बहुसंख्यकों के अन्य संस्थाओं के अध्यक्षों को भारत सरकार के समक्ष यह याचना करनी पड़ती है कि देश के बहुसंख्यकों के जातीय एवं सामाजिक, धार्मिक पर्वों के आयोजनों के लिए अनुमति दी जाए अथवा उन अवसरों पर सरकारी अवकाश के दिनों में वृद्धि की जाए, परन्तु सरकार धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर होने के साथ-साथ दूकानदार, ठेकेदार और व्यापार-वृत्ति वाली भी है। जब सरकार वर्ष के अवकाश के दिन न्यूनाधिक करती है तो, जब देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, या रामनवमी या फिर दशहरे की का अवकाश दिया जाता है, तो उसकी ही भान्ति मुसलमानों, ईसाईयों, पारसियों, बौद्धों, जैनों आदि- आदि के किस-किस पर्व पर अवकाश में वृद्धि की जा सकती है, इस पर विचार करने लगती है , और हाल के वर्षों में तो हिन्दुओं के पर्वों में अवकाश को न्यून कर दिया गया है और दूसरी ओर अल्पसंख्यकों की अवकाश में वृद्धि कर दी गई है।

एक ओर तो सरकार मुसलमानों को अतिरिक्त रूप से प्रत्येक शुक्रवार को आधा दिन और कुछेक मामलों में प्रतिदिन कार्यालय अवधि में तीन बार नमाज अदा करने के लिए अवकाश देती नजर आती है और दूसरी ओर सरकार अपने कर्मचारियों के एक-एक घंटे के अवकाश के विषय में भी विचार करती है कि इससे कितनी आर्थिक हानि होने की सम्भावना है? सरकार यह भी अनुभव करती है कि जातीय अथवा राष्ट्रीय जीवन में एक भी अवकाश का दिन बढाने पर राष्ट्रीय आय में कितनी कमी होगी अथवा सरकार इस बात का विचार करने और निर्णय लेने में एक सौ एक बाधाएं देखती हैंl कारण स्पष्ट है कि सरकार एक दूकानदार, भिन्न-भिन्न समाजों की पत्नी और सबसे बड़ी बात यह है कि पत्नी बने रहने की लालसा में जोड़-तोड़ लगाने वाली चतुर नारी का रूप ग्रहण कर चुकी है। वस्तुतः प्रजातांत्रिक सरकार तो वेश्या के समान ही होती है। ऐसी प्रजातांत्रिक सरकार पर उस पति का आतंक होता है जो सर्वाधिक आक्रान्त और उत्पात मचाने की क्षमता रखता है। यह है वर्तमान प्रजातांत्रिक पद्धत्ति का स्वरुप। इसलिए होना यह चाहिए कि जातीय अथवा राष्ट्रीय निर्माण-कार्यों को इस प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर और दूकानदार सरकार से स्वतंत्र किया जाए। व्यक्तिगत अथवा जातीय, सामूहिक, धार्मिक आयोजन अथवा समारोह आयोजित किये जाएँ अथवा नहीं या फिर जातीय अथवा सामजिक  धार्मिक पर्व के दिन सरकारी कार्य चलेगा अथवा नही, इसका निर्णय यह वेश्या सरकार नहीं कर सकती। इसका निर्णय करने का अधिकार जातीय, धार्मिक एवं बौद्धिक नेताओं को दिया जाना चाहिएl उनके निर्णय से सरकार को यदि किसी प्रकार कि असुविधा हो तो सरकार को चाहिए कि वह उन नेताओं से सम्पर्क स्थापित कर अपनी असुविधा का बखान करे और उसे दूर करने का निवेदन करे न कि विश्व हिन्दू परिषद, विराट हिन्दू सम्मलेन, हिन्दू जागृति संगठन, हिन्दू जागरण मंच  अथवा किसी भी हिन्दुत्ववादी संगठन के नेता सरकार से आग्रह करें।

पुरातन भारतीय ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि जातीय अथवा धार्मिक निर्माण कार्य राजनीतिक कार्य नहीं हैं । जाति के हिताहित कार्य को छद्म धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर, व्यापारी, दूकानदार, कारखानेदार अथवा मूर्खों, अनपढों के मतों की भिक्षा मांगने वालों के हाथों में सौंपना उचित नहीं समझा जा सकता।  जातीय निर्माण अर्थात राष्ट्रोत्थान के कार्यों के लिए राष्ट्र के सभी घटकों के मन बुद्धि और जीवात्मा के सुशिक्षित कर्मों से सुसंपन्न होना आवश्यक है और उनको ठीक दिशा देने के लिए एक ऐसा सामाजिक संस्था होना चाहिए जो स्वयं धर्म निरपेक्ष, सबसे बड़े सेवकों की स्वामी,सबसे अधिक धनोपार्जन का संयंत्र और अनपढ़, सामान्य बुद्धि, आचार-विचार के लोगों के मत से प्रभावित न हो। इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा, धर्मस्थान, समाजों और जातीय धार्मिक पर्वों का प्रबंध विद्वानों के अधीन होना चाहिए।
समाज में किसी एक सम्प्रदाय के लिये कोई प्रयास अथवा उपाय नहीं कर बहुसंख्यक समाज के जागृति और समुन्नयन के लिये करना उत्तम होगा। भारतीय समाज में अनेक मत-मतान्तर हैं। इसमें यह आवश्यक है कि बहुसंख्यक समाज की साँझी मान्यताओं का विरोध कहीं नहीं हो। साँझी मान्यताओं के समर्थन के साथ अपने-अपने इष्टदेव तथा सम्प्रदाय की बात भी होती रहेl इस्लाम और ईसाईयत के अनुयायियों की बात तो हम नहीं करते लेकिन हिन्दू समाज से इसका विरोध नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दुओं के सब सम्प्रदाय वेदमूलक हैंl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मन, बुद्धि और आत्मा सम्बन्धी शिक्षा पूर्णरूप से देश के राज्य से असम्बद्ध होना ही राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर होगाl

एक अन्य शीर्षक-मन, बुद्धि और आत्मा सम्बन्धी शिक्षा देश के राज्य से असम्बद्ध होना ही राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर


Friday, June 26, 2015

मानसून की अस्थिरता के कारण सूखे की आशंका -अशोक “प्रवृद्ध”

नॉएडा से प्रकाशित होने वाली समाचार पत्र दैनिक उगता भारत के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- २६ जून २०१५ को प्रकाशित लेख -मानसून की अस्थिरता के कारण सूखे की आशंका
-अशोक “प्रवृद्ध”
उगता भारत, दिनांक- २६ जून २०१५ 

मानसून की अस्थिरता के कारण सूखे की आशंका 
-अशोक “प्रवृद्ध”
प्राकृतिक अर्थात मौसमीय मार सिर्फ किसानों को नहीं वरन समस्त देश अथवा संसार को रूलाने की क्षमता रखती है और समय-समय पर इसने सबों को रूलाया भी है ।यह एक सर्वविदित तथ्य है कि कभी सूखा, कभी बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदायें न केवल फसलों को क्षति पहुँचाते है, बल्कि गाँव के गाँव और शहर के शहर को उजाड़ देते हैं और गाँव, शहर, राज्य और देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर ही बिगाड़ देते हैं। जब प्रतिवर्ष एक ही स्थान पर सूखा अथवा बाढ़ आती है और सरकार उसके निदान के लिए कोई सार्थक और प्रभावी पहल नहीं करती तो सम्बंधित क्षेत्र के समाज की वह क्षति अर्थात नुकसान स्थायी हो जाता है ।इस वर्ष अभी तक देश में भीषण गर्मी का दौर जारी है और देश में सामान्य से कम वर्षा होने अर्थात मानसून की अस्थिरता के कारण सूखे की आशंका व्यक्त की जा रही है। एक ओर जहाँ सूर्यदेव भीषण अग्नि बरसा रहे हैं, वहीं मानसून को लेकर बेचैनी मायूसी में तब्दील होती जा रही है। पन्द्रह जून तक देश में सर्वत्र मानसून आने के पूर्वानुमान ध्वस्त हो चुके हैं और अब जनता से लेकर सरकार के माथे तक पर चिन्ता के बल पड़ने आरम्भ हो गए हैं। कारण यह है कि अभी किसान गेहूँ व अन्य रवि की फसल में हुए नुकसान से उबरे भी नहीं हैं कि एक और बड़े खतरे की चेतावनी आ गई है। भारतीय मौसम विभाग ने इस वर्ष मानसून सामान्य से कम रहने की आशंका जतलाई है। मौसम विभाग के इस वर्ष के प्रथम पूर्वानुमान के मुताबिक लम्बी अवधि के औसत के अनुसार मानसून के दौरान औसत की 93 फीसदी बारिश होगी। जो सामान्य से कम है। परिपाटी के अनुसार दूसरा पूर्वानुमान जून में होता है, जो काफी सटीक होता है। मौसम विभाग ने 2014 के अपने पहले अनुमान में मानसून के सामान्य से 95 फीसदी रहने का अनुमान लगाया था, लेकिन बारिश 88 फीसदी ही हुई थी।बांग्लादेश में सम्पन्न साउथ एशियन क्लामेट फोरकॉस्ट की बैठक के निष्कर्षों में भी दक्षिण एशिया में मानसून सामान्य से कम रहने की बात बतलाई गई है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली की निदेशक डॉ रविन्द्र कौर ने बतलाया कि बैठक में नतीजा निकला कि दक्षिण एशिया में मानसून सामान्य से कम रहेगा, और इस बार अल-नीनो का प्रभाव पडऩे की आशंका ज्यादा है ।मौसम विज्ञान के अनुसार प्रशान्त महासागर क्षेत्र में अलनीनो का प्रभाव इस बार दक्षिण एशिया के देशों में भारत, पाकिस्तान व श्रीलंका में वर्षा को बिगाड़ सकता है और आशंका है कि सूखे की स्थिति खेती में आ सकती है.। इस बीच एक अमेरिकी एजेंसी एक्यूवेदर ने भी भारत में भीषण सूखा पड़ने की आशंका जताई है। एजेंसी का आकलन है कि प्रशांत महासागर में बन रही परिस्थितियों के चलते इस बार मानसून कमजोर रहेगा। महासागर से कई बड़े तूफान उठने वाले हैं जो मानसून को भटका देंगे। इसका असर न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान पर भी पड़ेगा।
मौसम विभाग का कहना है कि मानसून सामान्य से कम रहने का सर्वाधिक असर देश के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भारत की कृषि पर पड़ेगा, लेकिन आगे होने वाली कम वर्षा को ध्यान में रखते हुए किसान इसके अनुरूप खेती की तैयारी कर सकते हैं। समस्या के त्वरित निदान के लिए वैज्ञानिकों की सलाह है कि ऐसे में किसान कम समय में पैदा होने वाली धान की फसलें लगायें और फसलोपज में होने वाली क्षति को कम करने की कोशिश करें, परन्तु देश के कृषि परम्परा के जानकार अनुमान व्यक्त करने लगे हैं कि कम बारिश के अनुमान की वजह से सम्भव है कि इस साल धान की फसल की बुआई ही कम हो। ऐसे लोगों का कहना है कि भले ही केन्द्र व राज्य सरकारें मौसम की मार से निपटने के लिए युद्धस्तर पर तैयारी कर रही है,लेकिन खराब मानसून की आशंका का ढिंढोरा पीटने से इसका सीधा खराब असर देश के किसानों के मनःस्थिति, मनोदशा व मनोविज्ञान पर हुआ है और किसानों के साथ ही देश की जनता में घबराहट बनी हुई है। किसान कम वारिश की स्थिति में जान-बुझकर धान की बुआई का जोखिम क्यों लेगा?
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार के द्वारा मौसम की मार से निपटने के लिए युद्धस्तर पर की जाने वाली तैयारियों के मद्देनजर आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने अकेले चीनी मिल मालिकों के लिए छह हजार करोड़ रुपए के ब्याज मुक्त कर्ज का ऐलान और अनाजों की जमाखोरी रोकने और जरूरी अनाजों का आयात बढ़ाने का भी फैसला किया है। परन्तु प्रश्न उत्पन्न होता है कि मौसम की मार से निपटने की जो तैयारी सरकार के स्तर से की गई है, उसका देश के किसानों को क्या फायदा होगा, और होगा तो कितना होगा? क्या देश का किसान इस भरोसे में, विश्वास में आ गया है कि सरकार उसका ख्याल रख रही है और अगर इस वर्ष भी मानसून ने धोखा दिया तब भी उनके सामने कोई संकट नहीं आएगा? दरअसल किसान इस बार पूर्व की वर्षों के अपेक्षा ज्यादा आशंकित हैं। कारण यह है कि इस बार खराब मानसून होने का हल्ला समय के पूर्व ही आरम्भ हुआ है और घर-घर तक पहुँच गया है। चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों तथा हाल में केन्द्र सरकार के द्वारा शुरू किए गये किसान चैनल से लोगों को सारी सूचनायें शीघ्रातिशीघ्र मिल रहीं हैं और देश की जनता के कान यह सुन-सुन कर पक चुके हैं कि मानसून की रफ्तार बहुत धीमी है और यह तेजी से आगे नहीं बढ़ रहा है। मानसून की अस्थिरता के कारण किसान खरीफ की फसल को लेकर आशंका में है और कयाश लगाया जा रहा है कि कम बारिश के अनुमान की वजह से इस वर्ष धान की फसल की बुवाई करने का जोखिम उठाने की कोशिश नहीं करेगा।
ध्यातव्य है कि है धान की सर्वाधिक खेती उत्तर, पूर्वी और मध्य भारत के राज्यों में अधिक होती है और इन्हीं राज्यों में बारिश कम होने का अनुमान जतलाया गया है। किसानों को पता है कि अगर बारिश कम होगी तो उनके पास सिंचाई का दूसरा साधन उपलब्ध नहीं है। वैकल्पिक साधन इतना महँगा है कि हर किसान उसका इस्तेमाल नहीं कर सकता। इसलिए बुआई की क्षेत्रफल घट सकती है। जो किसान बुआई करेंगे उनकी भी निर्भरता मानसून की वर्षा पर ही होगी। हालाँकि सरकार यह भरोसा दिला रही है कि कम बारिश हुई तो वैकल्पिक साधनों से सिंचाई करने में सरकार किसानों की मदद करेगी। किसानों के लिए बिजली और डीजल की अलग सब्सिडी पर भी विचार हो सकता है। सरकार की सक्रियता और तैयारियों से किसानों को इतना भरोसा मिला है कि उन्हें खाद, बीज समय पर मिल जाएगा। हो सकता है कि कर्ज भी थोड़ी आसानी से मिल जाए और बीमा रकम के दावे का निपटारा भी जल्दी हो। सरकार जरूरी अनाज आयात करने वाली है, ताकि अनाज की कमी देश में पैदा न हो। चूँकि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने मौसम विभाग के हवाले से ही कहा है कि कम बारिश के बाद महँगाई बढ़ सकती है इसलिए सरकार को कीमतों की भी चिन्ता करनी है। खराब मानसून की वजह देश के अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ने की संभावना है। ऐसे में सिर्फ भारतीय मौसम विभाग के इस वक्तव्य से उम्मीद जगती है जिसमें कहा गया है कि जब पिछले वर्ष १२ फीसदी कम बारिश हुई थी तो हालात को सम्भाल लिया गया था, तब इस वर्ष भी ऐसा किया जा सकता है। किन्तु भावी सूखे की हालात को देखते हुए सरकार एवं अन्य संस्थाओं को अभी से ही भविष्य की रणनीति बनानी शुरू कर देनी चाहिए वरना सूखे से हालात और बुरे हो सकते हैं। जनता को भी भविष्य के अनुमानित खतरे को भांपते हुए जल संचय करना चाहिए और अपने आस-पास पर्यावरण संरक्षण के कार्य को बढ़ावा देना चाहिए ताकि इस सम्भावित सूखे की स्थिति से निपटा जा सके। इस समय सूखे की आशंका के मध्य कच्चे तेल के दाम भी बढ़ रहे हैं। जिससे अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार पडे़गी और जनता बेहाल हो जाएगी। इस स्थिति के त्वरित निदान के साथ ही इनका स्थायी समाधान का प्रबन्ध भी होना चाहिए, ताकि ऐसी प्राकृतिक विपदायें फसल के साथ ही जान-माल को ज्यादा नुकसान न पहुँचा पायें। भूकम्प, सूखा, बाढ़, सुनामी, कटरीना आदि प्राकृतिक आपदायें कई बार इतनी विकराल होती हैं कि संसार की कोई भी शक्ति अथवा सरकार उनका मुकाबला नहीं कर सकती। नेपाल ही नहीं, चीन, जापान और अमरीका भी अकसर प्रकृति के प्रकोप के आगे बेबस नजर आते हैं, लेकिन नुकसान हो जाने के बाद की सक्रियता और राहत भी जनता में एक खास तरह का संदेश देती है। इसलिए सरकार को प्राकृतिक आपदाओं के दौरान उत्पन्न होने वाली सम्भावित खतरों से निपटने के लिए सदैव तत्पर रहना ही श्रेयस्कर है।
उगता भारत , साप्ताहिक में प्रकाशित

Tuesday, June 23, 2015

म्यांमार में सैनिक अभियान से पाक में भय और बेचैनी का आलम -अशोक “प्रवृद्ध”

नॉएडा से प्रकाशित होने वाली हर राष्ट्रवादी की पहली पसन्द दैनिक उगता भारत के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- २३ जून २०१५ को प्रकाशित लेख - म्यांमार में सैनिक अभियान से पाक में भय और बेचैनी का आलम - अशोक "प्रवृद्ध"
उगता भारत, दिनांक - २३ जून २०१५ 

म्यांमार में सैनिक अभियान से पाक में भय  और बेचैनी का आलम 
-अशोक “प्रवृद्ध”

चोरी-छुपे छद्म रूप से घात लगाकर मणिपुर के चंदेल जिले में भारतीय सेना के अठारह जवानों की हत्या करने वाले आतंकवादियों का भारतीय सेना ने म्यांमार में घुसकर साहसिक कमांडो कार्रवाई के माध्यम से जो दुर्गति की है,उससे न केवल भारतीय सेना की सक्रियता और विदेशी धरती में उसके साहस और शक्ति का अदम्य प्रदर्शन हुआ है, बल्कि उससे पडोसी देश पाकिस्तान थर्राया हुआ है और दोनों देशों में प्रतिक्रियाओं का एक नया दौर चल पडा है। भारतवर्ष में जहाँ मणिपुर में भारतीय सैनिकों के हत्यारों को म्यांमार में मार गिराए जाने से देश की जनता और सेना का मनोबल ऊँचा हुआ है, वहीं भारतीय मंत्रियों के बयान और भारतीय सेना के बुलन्द हौसले के समक्ष पाकिस्तानी सेना, वहाँ की सरकार के नेताओं और हुक्मरानों में भारी भय, बेचैनी, हताशा व थरथराहट व्याप्त है। भय, हताशा व थरथराहट का आलम यह है कि पाकिस्तान के आन्तरिक मामलों से जूझ रही पाकिस्तानी सेना और जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के छद्म अभियान से जुड़े आतंकवादियों, विघटनकारियों में बड़ी अफरा-तफरी और खलबली मच गई है और पाक को अपना सुरक्षित शरणगाह बनांये हुए उग्रवादी संगठन अपने ठिकाने बार-बार बदलने लगे हैं। म्यांमार में सैनिक कार्रवाई से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है और उसके सामने यह संकट आन खड़ा हुआ है कि वह अपने देश और अपनी सेना के धराशायी मनोबल को कैसे ऊपर उठाये? पाकिस्तान मान रहा है कि भारतवर्ष उसके यहाँ भी म्यांमार जैसी सैनिक कार्रवाई कर सकता है, और इस बेचनी में पाकिस्तानी नेता भारत को परमाणु बम इस्तेमाल करने की धमकी देने लगे हैं।
म्यांमार में उग्रवादियों के विरूद्ध भारतीय सैनिक अभियान के पश्चात् पाकिस्तानी नेताओं और हुक्मरानों के बयानों में बौखलाहट स्पष्ट देखी जा सकती है। भारतवर्ष की इस सैनिक कार्रवाई ने पाकिस्तान को झकझोर कर रख दिया है, जिसकी प्रतिक्रिया में पाकिस्तान के रक्षा मंत्रालय से जुड़े मंत्री राणा तनवीर हुसैन ने एक आधिकारिक बयान में भारत को चेतावनी देते हुए कहा है कि हम म्यांमार नहीं हैं, क्या आपको हमारी सैन्य शक्ति का एहसास नहीं है? पाकिस्तान एक न्यूक्लियर नेशन है, इस कारण भारत को दिन में सपने देखना बन्द कर देना चाहिए। उधर पाकिस्तान के गृहमंत्री चौधरी निसार अली खान ने भी तिलमिलाकर चेतावनी भरे लहजे में कहा कि पाकिस्तानी सुरक्षा बल विदेशी हमलों का जवाब देने में पूरी तरह सक्षम है। पाकिस्तान की थरथराहट का ही यह परिणाम है कि म्यांमार में सैनिक कार्रवाई के पश्चात् वहाँ के हुक्मरान, पाकिस्तानी मंत्री, नेताओं के साथ ही पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने चेतावनी देते हुए कहा कि भारत का एजेन्डा पाकिस्तान को दबाने का है। अगर भारत से बराबरी करके मुकाबला नहीं किया जाएगा तो वो और दबाएगा। भारत हमारी सीमा में ना घुसे क्योंकि हम छोटी ताकत नहीं बल्कि न्यूलियर पॉवर हैं। अगर हमारा वजूद खतरे में आता है तो ये किसलिए रखे हैं? हम पर हमला नहीं कीजिए क्योंकि हम एक बड़ी और परमाणु शक्ति हैं। इस कमाण्डो अभियान अर्थात आपरेशन ने चीन और पाकिस्तान समेत शेष भारतवर्ष विरोधी उग्रवादी संगठनों के संरक्षक विदेशी संसार को चौकन्ना कर चिंतित कर दिया है कि भारतवर्ष आतंकवाद के विरूद्ध इस पराकाष्ठा तक भी जा सकता है। जबकि चीन आज तक म्यांमार में ऐसा आपरेशन करने में नाकाम रहा है, हालाँकि वहाँ के कोकांग विद्रोही अतिवादियों ने चीन की नाक में दम कर रखा है।


पाकिस्तान की थरथराहट, तिलमिलाहट व बौखलाहट का एक कारण यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतवर्ष के विरूद्ध खड़े सभी उग्रवादी गुटों पर सख्त कार्रवाई के लिए सेना को छूट दे दी है। उस पर तुर्रा यह कि भारतीय सेना को इधर प्रधानमंत्री ने तत्काल म्यांमार में आतंकवादियों के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की मंजूरी दी और उधर सेना ने अपने चालीस मिनट के उग्रवाद विरोधी अभियान में न सिर्फ सौ से अधिक उग्रवादियों को मौत के घाट उतार दिया, अपितु उग्रवादियों के म्यांमार में दूर तक फैले दो बड़े शिविरों को भी पूरी तरह से तहस-नहस और ध्वस्त कर दिया। सम्पूर्ण संसार के समक्ष यह सैनिक कार्रवाई इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंयकि माना यह जाता है कि इन सशस्त्रक उग्रवादियों को चीन का समर्थन प्राप्त है और ये उग्रवादी चीन में निर्मित घातक हथियारों का इस्तेमाल करते हैं। विदेशी भूमि पर भारतीय सैनिक कार्रवाई के संदेश का एक संकेत यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा कोई भी बड़ा और अहम फैसला कभी भी ले अथवा कर सकते हैं, जो भारतवर्ष की पूर्ववर्ती सरकारें नहीं कर पाईं। सरकार की इसमें एक कूटनीतिक सफलता यह भी है कि उसने न केवल म्यांमार सरकार का इस सैनिक अभियान के लिए समर्थन हासिल किया, वरन म्यांमार सरकार ने भी मोदी की पहल पर सुर ताल मिलाते हुए सम्पूर्ण संसार को यह दिखला दिया कि वह किसी भी तरह के आतंकवाद के सख्त खिलाफ है,और वह अभी भी उग्रवादियों के सफाए के लिए अभियान चलाने लगा है, इससे चीन की भी काफी किरकिरी हो रही है। विदेशी भूमि पर सैनिक कार्रवाई से भारतवर्ष के विरूद्ध सक्रिय पाकिस्तान सहित सभी विदेशी उग्रवादी गुटों में डर. भय और दहशत का स्पष्ट संदेश गया है कि भारतीय सेना कहीं भी और कभी भी ऐसी सफल कमाण्डो कार्रवाई कर सकती है तथा आतंकवादियों के सफाए के लिए उसे अपनी सीमाओं से आगे जाने में कोई हिचक नहीं होगी। यह पूरी तरह से राष्ट्रीय प्रतिक्रियावादी आपरेशन था।

उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान की डर, भय व दहशत में केन्द्रीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर के द्वारा म्यांमार में सैनिक अभियान के पश्चात् दिए उन वयानों ने आग में घी काम किया जिनमें मंत्रीद्वय ने अलग-अलग वक्तव्यों में म्यामांर में सेना के अभियान की प्रशंसा करते हुए कहा था कि यह एक शुरुआत है और इस अभियान को विशेष बलों ने पूरी तरह से स्वयं अंजाम दिया। केन्द्रीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने म्यामांर अभियान को बदली सोच का परिचायक करार देते हुए पाकिस्तान पर चुटकी लेते हुए कहा था कि जो लोग भारत के नए रूख से भयभीत हैं, उन्होंने प्रतिक्रिया व्यक्त करनी शुरू कर दी है। अगर सोच के तरीके में बदलाव आता है, तब कई चीजें बदल जाती हैं, आपने पिछले दो-तीन दिनों में ऐसा देखा है कि उग्रवादियों के खिलाफ एक सामान्य कार्रवाई ने देश में सम्पूर्ण सुरक्षा परिदृश्य के बारे में सोच को बदल दिया है। केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर का कहना था कि यह आतंकवाद से निपटने में भारतवर्ष की रणनीति में बदलाव का प्रतीक है और मेरा मानना है कि यह समय की जरूरत है और पूरा देश यह चाहता था और इसी कारण से लोगों ने केन्द्र में एक मजबूत सरकार को मतदान किया है। राठौर का कहना था कि तुम्हारी यह सोच है कि आतंकी कारवाई कर तुम अपने क्षेत्र में चले जाओगे तो तुम्हें कोई पकड़ेगा नहीं, यह संदेश बहुत महत्वपूर्ण है कि हम तुम्हें निशाना बनायेंगे चाहे तुम कहीं भी रहो। हमें विश्व के किसी भी स्थान पर भारतीयों पर हमले अस्वीकार्य हैं और प्रभावी गुप्तचरी के आधार पर हम अपने चुने हुए स्थान और समय पर सर्जिकल स्ट्राइक हमले करेंगे। सेना के पास मजबूत क्षमता है और उसे एक मजबूत नेता की जरूरत थी, जो ऐसे कड़े निर्णय कर सके और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसे सख्त और कड़े निर्णय लेने में सक्षम व मजबूत नेता हैं।उन्होंने स्पष्टतः कहा कि प्रधानमंत्री की मंजूरी के बाद सेना ने म्यांमार में यह कार्रवाई की है। यह उग्रवादियों की आदत बन गई थी कि वे सेना या अर्द्धसैनिक बलों अथवा देश के नागरिकों पर हमले करते थे और उसके बाद भागकर सीमापार स्थित अपने सुरक्षित पनाहगाह में शरण ले लेते थे, क्योंकि उन्हें इस बात का भरोसा था कि भारतीय सशस्त्र बल वहाँ तक उनका पीछा नहीं करेंगे। उन सभी के लिए अब बिल्कुल स्पष्ट संदेश है, जो हमारे देश में आतंकवादी इरादे रखते हैं, यह यद्यपि अभूतपूर्व है, तथापि हमारे प्रधानमंत्री ने एक बहुत ही साहसिक कदम उठाया और म्यांमार में कार्रवाई के लिए मंजूरी दी ।यह नि:संदेह तौर पर उन सभी देशों को एक संदेश है, जो आतंकवादी इरादे रखते हैं, चाहे वे पश्चिम हों या वह विशिष्ट देश जहाँ हम वर्तमान समय में गए। यदि देश में भी ऐसे समूह हैं, जो आतंकवादी इरादे रखते हैं तो हम उन्हें निशाना बनाने के लिए सही समय और स्थान का चयन करेंगे।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी मणिपुर के चंदेल जिले में सेना के जवानों पर हुए आतंकी हमले की कड़े शब्दों में निन्दा की है. और सरकार की कारर्वाई पर पूर्ण सहमति व्यक्त करते और सैनिकों की प्रशंसा व उत्साहवर्द्धन करते हुए जनरल दलबीर सिंह को भेजे अपने संदेश में कहा है कि मुझे आतंकी हमले से गहरा दुःख पहुँचा है। ड्यूटी पर तैनात सुरक्षा बलों पर बारम्बार होने वाले ऐसे हमलों से कड़ाई से निपटा जाना चाहिए, मैं सभी सम्बंधित प्राधिकरणों का इस जघन्य हमले के जिम्मेदार लोगों को न्याय के कटघरे तक लाने और मणिपुर राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए मिलकर काम करने का आह्वान करता हूँ।

पूर्णतः सफल इस सैनिक कारर्वाई से भारतीय सैनिकों का मनोबल भी निश्चित रूप से बढ़ा है। सैन्य अभियान के महानिदेशक मेजर जनरल रणबीर सिंह ने कहा कि कि यह पहली बार हुआ है कि भारतीय सेना ने सीमा पार कमाण्डो कार्रवाई की है, जो आतंकवाद के खिलाफ सक्रिय पहल का द्योतक है। उन्होंने कहा कि सीमा और सीमावर्ती राज्यों पर अमन चैन सुनिश्चित करते हुए हमारी सुरक्षा, संरक्षा व राष्ट्रीय एकता के प्रति किसी भी खतरे से कड़ाई से निबटा जाएगा।

Saturday, June 20, 2015

हास्यास्पद है योग का विरोध -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- १५ जून २०१५ को प्रकाशित लेख - हास्यास्पद है योग का विरोध -अशोक “प्रवृद्ध”
राष्ट्रीय खबर , दिनाँक- २० जून २०१५ 

हास्यास्पद है योग का विरोध
 -अशोक “प्रवृद्ध”

एक ओर जहाँ केन्द्र सरकार ने इक्कीस जून को आहूत अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में से कई मुस्लिम संगठनो के विरोध के बाद सूर्य नमस्कार को हटाने का निर्णय कर लिया है वहीँ दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आनुसंगिक संस्था संस्कार भारती ने केन्द्र सरकार से भारतवर्ष के सभी विद्यालयो मे सूर्य नमस्कार और योग को अनिवार्य करने का आग्रह कर वैदिक सनातन धर्म के समर्थकों के दिलों में गहरे तक पैठ बनाने का काम किया है। मुस्लिम परस्त संगठनों द्वारा सूर्य नमस्कार और योग के विरोध के मध्य संस्कार भारती ने विद्यालयों में सूर्य नमस्कार और योग शिक्षा को अनिवार्य करने की माँग कर प्राचीन भारतीय साभ्यता-संस्कृति के पुनरुत्थान की दिशा में प्राचीन गौरवमयी भारतवर्ष के समर्थकों की आवाज को एक नई ऊँचाई प्रदान करने की कोशिश की है ।गौरवमयी प्राचीन भारतवर्ष की सभ्यता-संस्कृति, साहित्य-इतिहास के उत्कृष्ट मूल्यों के प्रतिस्थापन करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा स्थापित की गई संस्कार भारती की अखिल भारतीय उपाध्यक्ष माधवी ताई कुलकर्णी ने 14 मई रविवार को कहा कि केन्द्र सरकार को भारतवर्ष के सभी विद्यालयो मे योग के पाठ्यक्रम और अभ्यास को अनिवार्य कर देना चाहिए। माधवी ताई कुलकर्णी कहती है कि आज के समय मे लोगो की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याये बढ़ती जा रही है। यह गम्भीर चिंता की बात है कि बीमार बच्चो की संख्या भी बढ़ रही है। कंप्यूटर, मोबाईल, फोन, टीवी की वजह से बच्चो का खेलना कम हो रहा है। इसलिए विद्यालयों मे योग शिक्षा अनिवार्य करने से बच्चो का शारिरिक-मानसिक विकास होगा। उनमे तनाव कम होगा साथ ही उनका चारित्रिक विकास भी होगा।

गौरतलब है कि भारतवर्ष में कुछ मुस्लिम परस्त संगठन योग को धार्मिक कर्मकाण्ड बताकर इसका विरोध करते रहे हैं, और पिछले दिनों देश के कई हिस्सों से इस तरह की खबरें आ रही थी कि मुस्लिम समुदाय को सूर्य नमस्कार के बारे मे कुछ आपत्तियाँ है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने विद्यालयों में कराए जा रहे योग से भी सूर्य नमस्कार को हटाने की माँग की है। मुस्लिम समुदाय के विरोध को देखते हुए सरकार ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के कार्यक्रम से सूर्य नमस्कार को हटाने का फैसला कर लिया है। यह कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि जो योग भारतवर्ष की प्राचीन गौरवमयी सभ्यता-संस्कृति की अनमोल देन व पुरातन गौरवमयी अस्मिता की पहचान है और जिसके महत्व को आज सम्पूर्ण विश्व स्वीकार कर रहा है अर्थात जिसको वैश्विक स्वीकृति प्राप्त हो चुकी हो, उस योग के राष्ट्रीय कार्यक्रम का विरोध उसके मूल जन्मदातृ देश में ही किया जा रहा है। योग की आध्यात्मिकता को छोड़ भी दिया जाये तो भी योग के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ के लिए उपयोगी होने से किसी की भी कोई असहमति नहीं हो सकती है। यह बात सभी जानते हैं कि योग बिना आर्थिक व्यय के ही अनेक व्याधियों को नष्ट अर्थात दूर करने की क्षमता रखता है। परन्तु यह जानकर भी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के दिन सामूहिक योग करने का व इसके ही एक आसन सूर्य नमस्कार के बहाने कुछ मुस्लिम नेता और उनकी सहयोगी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष संस्थाएँ इसका विरोध कर रहे हैं और मोदी सरकार इस मामले में देश में सर्वमान्य स्थिति बनाने में असमर्थ , असफल होकर विरोधियों के सामने झुकती नजर आ रही है ।
यह कितनी हैरत की बात है कि भारतवर्ष में मुस्लिम और अन्य तथाकथित धर्म निरपेक्ष संगठनों के द्वारा सूर्य नमस्कार का विरोध किये जाने के समक्ष देश के प्रधानमंत्री जहाँ झुकते नजर आ रहे हैं वहीँ दूसरी ओर भारतीय योग पद्धत्ति को वैश्विक स्वीकृति मिल रही है। भारतवर्ष में योग को धार्मिक कर्मकाण्ड से जुड़ी प्रक्रिया बताने की भले ही कितनी कोशिशें होती हों, लेकिन एक अमेरिकी अदालत ने ऐसे दावों को बेबुनियाद करार दिया है। कैलिफोर्निया की अपीलीय अदालत का कहना है कि योग साम्प्रदायिक नहीं बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है और इसे करने या सिखाने से किसी भी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं होता। अमेरिका के सैन डियागो के एक विद्यालय इंकिनिटास डिस्टि्रक्ट स्कूल में योग की कक्षा को लेकर दो छात्रों और उनके अभिभावकों ने आपत्ति जताई थी और मुकदमा दायर करते हुए दावा किया था कि योग कार्यक्रम से हिन्दू और बौद्ध मत को बढ़ावा दिया जा रहा है और ईसाई धर्म के लिए असुरक्षा पैदा हो रही है। इस मामले में  डिस्टि्रक्ट कोर्ट ने एक निचली अदालत का फैसला बरकरार रखते हुए अभिभावकों के दावे को खारिज कर दिया। यह अप्रैल के पहले सप्ताह की बात है। अदालत ने कहा कि योग कुछ सन्दर्भों में धार्मिक हो सकता है लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि विद्यालय में सिखाए जा रहे योग में ऐसा कोई प्रयास हो रहा है। डिस्टि्रक्ट कोर्ट ने कहा कि विद्यालय में सिखाया जा रहा योग किसी धार्मिक या आध्यात्मिक कर्मकाण्ड से सम्बद्ध नहीं है। योग शरीर और मन को शान्ति  देने की पाँच हजार से भी अधिक वर्ष पुरानी भारतीय शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है। अदालत ने अपना फैसला देने से पहले योग विशेषज्ञों द्वारा पारम्परिक जिम की कक्षाओं की बजाय योग की कक्षाएँ संचालित करने का वीडियो भी देखा। अदालत ने कहा, सभी तथ्यों को देखते हुए हमने पाया कि योग प्रशिक्षण अपने उद्देश्य के स्तर पर पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष है। इसके माध्यम से किसी भी धर्म को प्रचारित या प्रसारित नहीं किया जा रहा। अमेरिका के कई स्कूलों में इन दिनों योग की कक्षाएँ संचालित की जा रही हैं।

भारतवर्ष की प्राचीन विधा योग को संयुक्त राष्ट्र की भी स्वीकृति मिल चुकी है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून ने इस बात की स्वीकृति प्रदान करते हुए कहा कि योग भेदभाव नहीं करता है । जब अपनी भारत यात्रा के दौरान उन्होंने अपना पहला आसन करने की कोशिश की तो इससे उन्हें एक संतुष्टि की अनुभूति हुई। योग शारीरिक एवं आध्यात्मिक सेहत और तंदुरूस्ती के लिए एक सरल, सुलभ और समावेशी साधन उपलब्ध करवाता है ।बान ने कहा कि 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में प्रमाणित करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस शाश्वत अभ्यास के लाभों और संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों एवं मूल्यों के साथ इसके निहित तालमेल को मान्यता दी है। योग शारीरिक एवं आध्यात्मिक सेहत और तंदुरूस्ती के लिए एक सरल, सुलभ और समावेशी साधन उपलब्ध करवाता है। यह साथी इंसानों और हमारे इस ग्रह के प्रति सम्मान को बढ़ावा देता है। बान ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का विचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मस्तिष्क की उपज बताते हुए कहा कि योग को जन स्वास्थ्य में सुधार लाने, शांतिपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देने और सभी के लिए सम्मानजनक जीवन में प्रवेश के रूप में ही देखें ।गत वर्ष संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व समुदाय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग को प्रसारित करने की अपील करते हुए अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की पैरवी की थी। दिसम्बर में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष सैम कुटेसा ने 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। भारत द्वारा लाए गए इस प्रस्ताव के समर्थन में 170 देशों ने मत दिया था।

भारतवर्ष में योग का प्रचार-प्रसार कोई नई बात नहीं है। आपातकाल अर्थात इमरजैंसी में उभरे धीरेन्द्र ब्रह्मचारी उस दौरान नियमित रूप से दूरदर्शन अर्थात सरकारी टीवी पर योग प्रशिक्षण देते थे जिसे टीवी की कम व्याप्ति के बाबजूद बहुत से लोग देखा करते थे। यद्यपि आपातकाल में श्रीमती इंदिरा गाँधी का साथ देने के कारण बहुत लोग उनसे नाराज थे परन्तु उस नाराजगी की स्थिति में भी योग कभी निशाना नहीं बना, परन्तु जैसे ही भारतीय जनता पार्टी ने योग की लोकप्रियता से प्राचीन भारतीय सभ्यता- संस्कृति को मिलती वैश्विक स्वीकृति को नेतृत्व देने की कोशिश शुरू की कीं तो समाज के एक हिस्से को योग से भी अरुचि होने लगी। और योग के नाम पर वे लोग अभी नाक भों सिकोड़ रहे हैं और अपनी मजहबी आस्थाओं में से तर्क तलाशने लगे हैं।


21 जून को विश्व भर मे आयोजित होने जा रही अन्तरराष्ट्रीय योग का मुख्य कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यूयार्क स्थित मुख्यालय एवं भारतवर्ष मे राजपथ पर होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत करीब 45 हजार लोग दिल्ली के राजपथ पर योग करेंगे। संयुक्त राष्ट्र ने 21 जून को विश्व योग दिवस घोषित किया है। केन्द्र सरकार इस अवसर पर भव्य आयोजन करने जा रही है। प्रधानमंत्री चालीस हजार लोगों के साथ योग कर विश्व रिकॉर्ड भी बनायेंगे । कार्यक्रम के आयोजनकर्ता आयुष मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को 192 देशों की तरफ से समर्थन मिला है। देश के 651 जिलों में  योग कैंप लगवाए जा रहे हैं। लगभग 11 लाख एनसीसी कैडेट्स देश भर में योग करेंगे। राजपथ पर आयोजित होने वाले मुख्य कार्यक्रम में सूरक्षा बलो के भी 5 हजार जवान योग करेंगे। अमेरिका में योग दिवस 21 जून पर आयोजित होने जा रही कई कार्यक्रमों की तैयारी के बीच एक वरिष्ठ भारतीय राजनयिक न्यूयॉर्क में भारत के महावाणिज्यदूत दयानेश्वर मुलय ने कहा है कि पहले अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का मकसद इस प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को आधुनिक समय का मंत्र बनाना है। योग दिवस इस बात की स्वीकारोक्ति है कि योग भारत से शुरू हुई सभ्यता-संस्कृति की विरासत है।

Friday, June 19, 2015

राष्ट्र के कामकाज और व्यवहार की भाषा ही देश की भाषा हो -अशोक “प्रवृद्ध”

दैनिक उगता भारत के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- १९ जून २०१५ को प्रकाशित लेख -राष्ट्र के कामकाज और व्यवहार की भाषा ही देश की भाषा हो
-अशोक “प्रवृद्ध”
उगता भारत, दिनांक- १९ जून २०१५ 


राष्ट्र के कामकाज और व्यवहार की भाषा ही देश की भाषा हो 
-अशोक “प्रवृद्ध”

जातीय अर्थात राष्ट्रीय उत्थान और सुरक्षा के लिये किसी भी देश की भाषा वही होना श्रेयस्कर होता है,जो जाति अर्थात राष्ट्र के कामकाज और व्यवहार की भाषा होl समाज की बोल-चाल की भाषा का प्रश्न पृथक् हैlजातीय  सुरक्षा हेतु व्यक्तियों के नामों में समानता अर्थात उनके स्त्रोत में समानता होने या यों कहें कि नाम संस्कृत भाषा अथवा ऐतिहासिक पुरुषों एवं घटनाओं और जातीय उपलब्धियों से ही सम्बंधित होने का सम्बन्ध समस्त हिन्दू समाज से है, चाहे वह भारतवर्ष में रहने वाला हिन्दू हो अथवा किसी अन्य देश में रहने वाला होlहिन्दू समाज किसी देश अथवा भूखण्ड तक सीमित नहीं है वरन यह भौगोलिक सीमाओं को पार कर वैश्विक समाज बन गया है lइस कारण समाज की भाषा,नित्यप्रति के व्यवहार का माध्यम तो अपने-अपने देश की भाषा ही होनी चाहिये और होगी और अपने समाज का साहित्य और इतिहास उस देश की भाषा में अनूदित करने का प्रयत्न करना चाहिये, ताकि भावी पीढ़ी अपने मूल भारतीय समाज से कट कर रह न जायेl जातीय भाषा उस देश की भाषा ही होनी चाहिये जिस देश में समाज के घटक निवास करते होंlयद्यपि यह निर्विवाद सत्य है कि संस्कृत भाषा और इसकी लिपि देवनागरी सरलतम और पूर्णतः वैज्ञानिक हैं और यह भी सत्य है कि यदि मानव समाज कभी समस्त भूमण्डल की एक भाषा के निर्माण का विचार करेगी तो उस विचार में संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि अपने-अपने अधिकार से ही स्वतः स्वीकृत हो जायेंगीlजैसे किसी भी व्यवहार का प्रचलित होना उसके सबके द्वारा स्वीकृत किया जाना एक प्रबल युक्ति हैlइस पर भी व्यवहार की शुद्धता,सरलता और सुगमता उसके स्वीकार किये जाने में प्रबल युक्ति हैlसंसार कि वर्तमान परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न देशों में रहते हुए भी हिन्दू समाज अपने-अपने देश की भाषा को अपनी देश मानेंगे और भारतवर्ष के हिन्दू समाज का यह कर्तव्य है कि अपना मूल साहित्य वहाँ के लोगों से मिल कर उन देशों की भाषा में अनुदित कराएं जिन-जिन देशों में हिन्दू-संस्कृति के मानने वाले लोग रहते हैंl

समस्त संसार की एकमात्र भाषा व उसकी लिपि का प्रश्न तो अभी भविष्य के गर्भ में है, जब कभी इस प्रकार का प्रश्न उपस्थित होगा तब संस्कृत भाषा व देवनागरी लिपि का दावा प्रस्तुत किया जायेगा और भाषा के रूप में संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि अपनी योग्यता के आधार पर विचारणीय और अन्ततः सर्वस्वीकार्य होगीl जहाँ तक हमारे देश भारतवर्ष का सम्बन्ध है यह प्रश्न इतना जटिल नहीं जितना कि संसार के अन्य देशों में हैlभारतवर्ष की सोलह राजकीय भाषाएँ हैंlइन भाषाओँ में परस्पर किसी प्रकार का विवाद भी नहीं हैlहिन्दी के समर्थकों ने कभी भी यह दावा नहीं किया कि किसी क्षेत्रीय भाषा के स्थान पर उसका प्रचलन किया जाये,ना ही कभी इस बात पर विवाद हुआ कि किसी क्षेत्रीय भाषा को भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा बनाने में बाधा उत्पन्न की जायेlस्वराज्य के आरम्भिक काल में किसी मूर्ख हिन्दी भाषी श्रोत्ता ने किसी के तमिल अथवा बँगला बोलने पर आपत्ति की होगी,यह उसके ज्ञान की शून्यता और बुद्धि की दुर्बलता के कारण हुआ होगाlहिन्दी का किसी भी क्षेत्रीय भाषा से न कभी किसी प्रकार का विवाद रहा है और न ही अब हैlवास्तविक विवाद तो अंग्रेजी और हिन्दी भाषा के मध्य है, और यह विवाद इंडियन नॅशनल काँग्रेस की देन हैlजब १८८५ में मुम्बई तत्कालीन बम्बई में काँग्रेस का प्रथम अधिवेशन हुआ था तब उसमें ही यह कहा गया था कि इस संस्था की कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में हुआ करेगीlउस समय इसका कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि उस काँग्रेसी समाज में केवल अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही थेlवहाँ कॉलेज अर्थात महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों के स्नात्तकों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं थाl न ही इस संस्था को किसी प्रकार का सार्वजनिक मंच बनाने का ही विचार थाl और न ही उस समय कोई यह सोच भी सकता था कि कभी भारवर्ष से ब्रिटिश साम्राज्य का सफाया भी होगाlकारण चाहे कुछ भी रहा हो किन्तु यह निश्चित है कि तब से ही अंग्रेजी की महिमा बढती रही है और यह निरन्तर बढती ही जा रही हैlबाल गंगाधर तिलक ने दक्षिण में और आर्य समाज ने उत्तर में इसका विरोध किया,परन्तु आर्य समाज का विरोध तो १९०७ में जब ब्रिटिश सरकार का कुठाराघात हुआ तो धीमा पड़ गया और बाल गंगाधर तिलक के आन्दोलनकी समाप्ति उनके पकड़े जाने और छः वर्ष तक बन्दी-गृह में बन्द रहकर गुजारने के कारण हुयीlजहाँ तिलक जी बन्दी-गृह से मुक्त होने के उपरान्तमोहन दास करमचन्द गाँधी की ख्याति का विरोध नहीं कर सके वहाँ आर्य समाज भी गाँधी के आंदोलन के सम्मुख नत हो गयाlगाँधी प्रत्यक्ष में तो सार्वजनिक नेता थे,परन्तु उन्होंने अपने और काँग्रेस के आंदोलन की जिम्मेदारी अर्थात लीडरी अंग्रेजी पढ़े-लिखे के हाथ में ही रखने का भरसक प्रयत्न कियाlपरिणाम यह हुआ कि काँग्रेस की जन्म के समय की नीति कि अंग्रेजी ही उनके आंदोलन की भाषा होगी,स्थिर रही और वही आज तक भी बिना विरोध के अनवरत चली आ रही हैl
स्वाधीनता आन्दोलनके इतिहास की जानकारी रखने वालों के अनुसार १९२०-२१ में जवाहर लाल नेहरु की प्रतिष्ठा गाँधी जी के मन में इसी कारण थी कि काँग्रेस के प्रस्तावों को वे अंग्रेजी भाषा में भली-भान्ति व्यक्त कर सकते थेlकालान्तर में तो नेहरु ही काँग्रेस के सर्वेसर्वा हो गये थे,किन्तु यह सम्भव तभी हो पाया था जबकि गाँधी ने आरम्भ में अपने कन्धे पर बैठाकर उनको प्रतिष्ठित करने में सहायता की थीlनेहरु तो मन से ही अंग्रेजी के भक्त थे और अंग्रेजी पढ़े-लिखों में उन्हें अंग्रेजी का अच्छा लेखक माना जाता थाlउनका सम्बन्ध भी अंग्रेजीदाँ लोगों से ही अधिक थाl१९२० से लेकर १९४७ तक गाँधीजी ने प्रयास करके नेहरु को काँग्रेस की सबसे पिछली पंक्ति से लाकर ना केवल प्रथम पंक्ति में बिठा दिया,अपितु उनको काँग्रेस का मंच भी सौंप दिया सन १९२० में जब पँजाबमें मार्शल लॉ लागू किया गया था तो काँग्रेस ने इसके लिये एक उप-समिति का गठन किया थाlउस समय एक बैठक में जवाहर लाल नेहरु की विचित्र स्थिति थेlलाहौर में नकेल की हवेली में जवाहर लाल नेहरु का भाषण आयोजित किया गया थाlउस समय नेहरु की करिश्माई व्यक्तित्व और वाकपटुता की ऊँचाई की स्थिति यह थी कि नेहरु को सुनने के लिये पन्द्रह-बीस से अधिक श्रोतागण वहाँ पर उपस्थित नहीं थेlसन १९२९ में लखनऊ के गंगाप्रसाद हॉल में काँग्रेस कमिटी का अधिवेशन हो रहा थाlउस बैठक के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरु थेlउसी वर्ष लाहौर में सम्पन्न होने वाले काँग्रेस के अधिवेशन के लिये अध्यक्ष का निर्वाचन किया जाना था,उसके लिये मोहनदास करमचंद गाँधी और डाक्टर पट्टाभि सितारामैय्या के नाम थेlसितारामैय्या ने गाँधी के पक्ष में अपना नाम वापस ले लियाlऐसी सबको आशा थी और ऐसा सर्वसम्मत निर्णय माना  जा रहा था कि अध्यक्ष पद के लिये गाँधी के नाम की घोषणा हो जायेगी,परन्तु तभी कुछ विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गयीlपहले तो कानाफूसी होती रही और फिर जब घोषणा करने का समय आया तो उससे कुछ ही क्षण पूर्व गाँधी और मोतीलाल नेहरु मंच से उठकर बराबर वाले कमरे में विचार-विमर्श करने के लिये चले गयेlपाँच-दस मिनट वहाँ मंत्रणा के उपरान्त जब दोनों वापस आये और अधिवेशन के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरु ने घोषणा करते हुए कहा कि गाँधी जी ने जवाहर लाल नेहरु के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया हैlइस प्रकार लाहौर काँग्रेस के अध्यक्ष पद के लिये जवाहर लाल नेहरु के नाम की घोषणा हो गयीlअधिवेशन में उपस्थित सभी सदस्य और दर्शक यह सुन अवाक रह गयेlकुछ मिनट तो इस घोषणा का अर्थ समझने में ही लग गये और जब बात समझ में आयी तो तब किसी ने ताली बजायी और फिर सबने उसका अनुकरण कियाlवहाँ से उठने पर कानाफूसी होने लगी कि यहाँ जवाहर लाल का नाम किस प्रकार आ गया?कसीस ने कहा कि कदाचित एक भी मत उसके पक्ष में नहीं थाl
इसी प्रकार सन १९३६ की लखनऊ काँग्रेस के अवसर पर गाँधीजी के आग्रह पर ही जवाहर लाल नेहरु को काँग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया थाlइसकी पुंरावृत्ति सन १९४६ में भी हुयी थीlउस समय किसी भी प्रांतीय कमिटी की ओर से जवाहर लाल के नाम का प्रस्ताव नहीं आया था,तदपि गाँधी के आग्रह पर श्री कृपलानी की कूटनीति के कारण जवाहर लाल नेहरु को काँग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया और फिर संयोग से भारतवर्ष विभाजन के पश्चात उन्हीं को भारतवर्ष का प्रधानमंत्री बनाया गयाlइस प्रकार स्पष्ट है कि गाँधी तो स्वयं हिन्दी के समर्थक थे,किन्तु सन १९२० से आरम्भ कर अपने अन्तिम क्षण तक वे अंग्रेजी भक्त नेहरु का ही समर्थन करते रहे थे,और जवाहरलाल का भरसक प्रयत्न था कि अंग्रेजी यहाँ की राष्ट्रभाषा बन जायेlइस प्रकार यह ऐतिहासिक सत्य है कि अपने आरम्भ से लेकर अन्त तक काँग्रेस हिन्दी को भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा बनने नहीं देना चाहती थीlउसका कारण यह नहीं था कि क्षेत्रीय भाषायें हिन्दी का विरोध करती थीं या करती हैंlभारतवर्ष विभाजन के पश्चात केन्द्र व अधिकाँश राज्यों में सर्वाधिक समय तक काँग्रेस ही सत्ता में रही है और उसने निरन्तर अंग्रेजी की ही सहायता की है,उसका ही प्रचार-प्रसार किया हैlवर्तमान में भी हिन्दी का विरोध किसी क्षेत्रीय भाषा के कारण नहीं वरन गुलामी का प्रतीक अंग्रेजी के पक्ष के कारण किया जा रहा हैlऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस देश की भाषा वही होगी जो देश की बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भाषा होगी अथवा कि उसके स्थान पर बैठी अंग्रेजी ही वह स्थान ले लेगी?लक्षण तो शुभ नहीं दिखलायी देते क्योंकि १८८५ में स्थापित काँग्रेस ने स्वयं तो बिना संघर्ष के मजे का जीवन जिया है, और जहाँ तक भाषा का सम्बन्ध है,काँग्रेस सदा ही अंग्रेजी के पक्ष में रही हैlइसमें काँग्रेस के नेताओं का भी किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है,हिन्दी के समर्थक ही इसके लिये दोषी हैंlस्पष्ट रूप से कहा जाये तो देश का बहुसंख्यक समाज इसके लिये दोषी हैlआज तक बहुसंख्यक हिन्दू समाज के नेता रहे हैं कि राज्य के विरोध करने पर भी हिन्दू समाज के आधारभूत सिद्धान्तों का चलन होता रहेगाl
काँग्रेस हिन्दू संस्था नहीं है वर्ण यह कहा जाये कि अपने आधारभूत सिद्धान्तों काँग्रेस हिन्दू विचारधारा का विरोध करने वाली संस्था है तो किसी प्रकार की कोई अतिशयोक्ति नहीं होगीlकाँग्रेस न केवल अंग्रेजियत को ही अपना कंठाभरण बनाये हुए है अपितु यह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की शिक्षा के आधार पर ईसाईयत के प्रचार को भी पाना कंठाभरण बनाये हुए हैlइस मानसिकता को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की मानसिकता का नाम दिय जाता है,क्योंकि इस यूनिवर्सिटी की स्थापना ही ईसाईयत के प्रचार के लिये ही की गयी थीlअधिकांश समय तक सत्ता में बैठी भारतवर्ष के काँग्रेस सरकार की मानसिकता यही रही है और इसके लिये जवाहरलाल नेहरु और नेहरु खानदान का काँग्रेस पर वर्चस्व ही मुख्य कारण हैlजवाहर लाल नेहरु की मानसिकता वही थीl

किसी भी प्रकार शिक्षा सरकारी हाथों में नहीं रहनी चाहियेlस्वाभाविक रूप में शिक्षा उअर फिर भाषा का प्रश्न राजनीतिक लोगों के हाथों से निकलकर शिक्षाविदों के हाथ में आ जाना चाहियेlशिक्षा का माध्यम जन साधारण की भाषा होनी चाहियेlविभिन्न प्रदेशों में यह क्षेत्रीय भाषाओँ में दी जानी चाहियेlऐसी परिस्थिति में हिन्दी और हिन्दू-संस्कृति का प्रचार-प्रसार क्षेत्रीय भाषाओँ का उत्तरदायित्व हो जायेगाlअपने क्षेत्र में हिन्दी भी ज्ञान-विज्ञान की वाहिका बन जायेगीlभारतीय संस्कृति अर्थात हिन्दू समाज का प्रचार क्षेत्रीय भाषाओँ के माध्यम से किया जाना अत्युत्तम सिद्ध होगाlशिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषा होlसरकारी कामकाज भी विभिन्न क्षेत्रों में उनकी क्षेत्रीय भाषा में ही होनी चाहियेlअंग्रेजी अवैज्ञानिक भाषा है और इसकी लिपि भी पूर्ण नहीं अपितु पंगु हैlक्षेत्रीय भाषाओँ के पनपने से यह स्वतः ही पिछड़ जायेगी अंग्रेजी के विरोध का कारण यह है कि अंग्रेजी का साहित्य संस्कृत उअर वैदिक साहित्य की तुलना में किसी महत्व का नहीं हैlहिन्दू मान्यताओं की भली-भान्ति विस्तार सहित व्याख्या कदाचित अंग्रेजी में उस सुन्दरता से हो भी नहीं सकती जिस प्रकार की संस्कृत में की जा सकती हैlसंस्कृत भाषा में वर्णित उद्गारों अथवा भावों का प्रकटीकरण हिन्दी में बड़ी सुगमता से किया जा सकता हैlइसके अतिरिक्त हिन्दी का अगला पग संस्कृत ही है कोई अन्य भाषा नहींlसंस्कृत के उपरान्त वेद भाषा उसका अगला पग हैlअतः भारतीय अर्थात बहुसंख्यक हिन्दू सुरक्षा का प्रश्न पूर्ण रूप से भाषा के साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि मानव मनके उत्थान के लिये हिन्दी और संस्कृत भाषा में अतुल साहित्य भण्डार विद्यमान हैl

अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

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