Wednesday, January 28, 2015

पुरातन भारतवर्ष में कैसी थी गणतन्त्र की अवधरणा -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - २८ /  ०१ / २०१५ को प्रकाशित लेख -पुरातन भारतवर्ष में कैसी थी गणतंत्र की अवधारणा


पुरातन भारतवर्ष में कैसी थी गणतन्त्र की अवधरणा
-अशोक “प्रवृद्ध”


छब्बीस जनवरी अर्थात गणतन्त्र दिवस का दिन इस बात का स्मरण और इस पर गर्व करने का दिन भी है कि सम्पूर्ण विश्व को गणतन्त्र का पाठ सर्वप्रथम इसी धरा अर्थात भारतवर्ष से ही पढ़ाया गया था। हमारे ही देश में सर्वप्रथम गणतन्त्र स्थापित हुआ जिसकी सफलता ने सम्पूर्ण विश्व का ध्यान आकर्षित किया। भारतवर्ष में आज गणतांत्रिक व्यवस्था है, जिसे असंख्य बलिदानों के बाद भारतवर्ष विभाजन के पश्चात हासिल करके स्थापित किया गया है। लेकिन भारतवर्ष में गणराज्य की अवधारणा कोई नई बात नहीं है, क्योंकि यह व्यवस्था भारतवर्ष विभाजन के बाद भले ही हमारे देश के कर्ता-धर्त्ताओं ने लागू की हो, लेकिन सच्चाई यह है कि संविधान निर्माताओं ने भी इस व्यवस्था की प्रेरणा ईश्वर वाणी परम पवित्र वेदों से ही ली है। वर्तमान में हमारे देश में गणतन्त्र दिवस प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है, क्योंकि 26 जनवरी 1950 को भारतवर्ष का संविधान लागू हुआ। कहा गया कि तभी से देश गणतन्त्र हुआ और उसी उपलक्ष्य मे गणतन्त्र दिवस हर वर्ष मनाया जाने लगा, लेकिन इस गणतन्त्र की अवधारणा के पीछे भारतवर्ष की पुरातन सांस्कृतिक विरासत वेदों की अवधारणा ही छिपी हुई थी। कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है  कि गणराज्यों की परम्परा यूनान के नगर राज्यों से प्रारम्भ हुई थी। लेकिन इन नगर राज्यों से भी हजारों-लाखों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में वेदों के आधार पर अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे।


पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से  इस सत्य का सत्यापन होता है कि सहस्त्राब्दियों पूर्व भी भारतवर्ष में गणतन्त्र व्यवस्था थी और देश में अनेक गणराज्य थे, जहाँ शासन व्यवस्था अत्यन्त दृढ़ थी और जनता सुखी-सम्पन्न थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतन्त्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है।इन ग्रन्थों में यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है।
वैदिक साहित्य के अध्ययन से भी इस सत्य का सत्यापन व अधिष्ठापन ही होता है कि पुरातन काल में अधिकांश स्थानों पर भारतवर्ष में गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। कालान्तर में, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हुए और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। वैदिक ग्रन्थों में समिति को शाश्वत कहा गया है। उसे प्रजापति (ब्रह्मा) की पुत्री कहकर पुकारा गया है। इसीलिए वह अमर है। इस समिति की छोटी बहन को सभा कहा गया है। अथर्ववेद में राज्य-प्रमुख की प्रार्थना है- समिति और सभा-प्रजापति की दोनों पुत्रियाँ मिलकर मेरी सहायता करें। जिनसे भी मेरी भेंट हो, मुझसे सहयोग करें। हे पितृगण ! मैं तथा यहाँ एकत्रित सभी सहमति के शब्द बोलें।
सभा में प्रौढ़ या विशेषज्ञ (पितृगण) रहते थे। इसे नरिष्टा कहा, अर्थात जिसके निर्णय का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, और न उपेक्षा। सभा का शाब्दिक अर्थ है वह निकाय जिसके लोग आभायुक्त हों।यह राष्ट्रीय न्यायाधिकरण (सर्वोच्च न्यायालय ) के रूप में भी कार्य करती थी। पाणिनि ने गणराज्यों के लिए गण अथवा संघ दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। गण का शाब्दिक अर्थ है गिनना। भगवान बुद्घ ने बौद्घ भिक्षुओं की संख्या के बारे में कहा,
उन्हें गिनो, जैसे गण में मत गिने जाते हैं। अथवा शलाका (मतपत्र) लेकर गिनो।

उस समय राज्य की सर्वोच्च सभा या संसद् को भी गण कहकर पुकारने लगे। इसी से गणपूरक हुआ,वह व्यक्ति जिसका उत्तरदायित्व गण की बैठक में कोरम (quorum)  पूरा करवाना था और देखना। वह समिति का सचेतक भी था। इन गणों के विधान का विवरण जैन सूत्रों और  महाभारत में अंकित मिलता है कि किन नियमों के द्वारा यहाँ विचार-विमर्श होता था और कैसे निर्णय लिये जाते थे? इसी प्रकार नागरिकता तथा मताधिकार के भी नियम थे।पाणिनि ने अनेक गणराज्यों का वर्णन किया है-वृक, दामनि, त्रिगर्त्त-षट् (छह त्रिगर्त्त, अर्थात कौंडोपरथ, दांडकी, कौटकि, जालमानि, ब्रह्मगुप्त तथा जानकी का संघ), यौधेय, पर्श्व आदि। इनके अतिरिक्त मद्र, वृज्जि, राजन्य तथा अंधक-वृष्णि आदि अनेक गणराज्यों अथवा उनके संघों का नाम महाभारत में अंकित मिलता है। उनमें से कुछ का संविधान गणराज्यों का संघीय रूप था।कुछ स्थानों पर मूलतः राजतन्त्र था, जो बाद में गणतन्त्र में परिवर्तित हुआ।। कुरु और पांचाल जनों में भी पहले राजतंत्रीय व्यवस्था थी जिन्होंने ईसा से लगभग चार या पांच शताब्दी पूर्व उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाई।
महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात अंकित है। हालांकि यह गणतन्त्र पर राजतन्त्र की जीत थी, लेकिन इस घटना के बाद भी गणतन्त्र कमजोर नहीं कहे जा सकते, क्योंकि महाभारत के युद्ध में ही अनेक गणराज्यों ने धर्म के पक्ष में युद्ध कर रहे पाण्डवों का साथ दिया था। महाभारत में इन गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। उसके अनुसार गणराज्य में एक जनसभा होती थी, जिसमें सभी सदस्यों को वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। गणराज्य के अध्यक्ष पद पर जनता ही किसी नागरिक का निर्वाचन करती थी। कभी-कभी निर्णयों को गुप्त रखने के लिए मंत्रणा को, केवल मंत्रिपरिषद तक ही सीमित रखा जाता था। शान्ति पर्व में गणतन्त्र की कुछ त्रुटियों की ओर भी इंगित किया गया है। यथा, गणतन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी बात कहता है और उसी को सत्य मानता है। इससे पारस्परिक विवाद में वृद्धि होती है और समय से पूर्व ही बात के फूट जाने की आशंका बनी रहती है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। पाणिनी की अष्टाध्यायी में जनपद शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर आया है, जिनकी शासनव्यवस्था जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में रहती थी।
महाभारत के बाद महात्मा बुद्ध के काल में भी देश में गणराज्य प्रणाली जीवन्त अवस्था में थी। लिच्छवी और वैशाली जैसे गणतांत्रिक राज्य विश्व के लिए उन दिनों अनुकरणीय हुआ करते थे। वैशाली में तो उन दिनों विश्व की पहली संसद भी बैठती थी और वहां पर विशाल संसद भवन भी था, जिसके अवशेष वर्तमान में भी पाए जाते हैं। वैशाली की संसद में ७७०७ सांसदों के बैठने की व्यवस्था थी, जो अपने-अपने क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते थे। इतना ही नहीं यहां ७७०७ बहुमंजिला इमारतें, ७७०७ अट्टालिकाएं, ७७०७ ही उपवन तथा कमलसरोवर भी शोभायमान थे। भारतीय इतिहास में ऐसे ही अनेक गणराज्यों के बारे में विस्तृत उल्लेख प्राप्त होते हैं, इससे यह स्पष्ट होता है कि गणराज्य व्यवस्था निश्चित रूप में विश्व को भारतवर्ष की ही देन है। ४५० ई.पू. के आस-पास पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी आदि के गणराज्य वैभवशाली थे, तो ३०० ई.पू.के आस-पास गणराज्यों में अटल, अराट, मालव और मिसोई अपने आपमें बेहद जनजांत्रिक प्रणाली पर आधारित थे एवं ३५० ई. के आस-पास पँजाब, राजपूताना और मालवा में अनेक गणराज्यों की चर्चा हमें इतिहास में पढऩे को मिलती है, जिनमें यौद्धेय, मालव और वृष्णि संघ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। आगरा और जयपुर के क्षेत्र में विशाल अर्जुनायन गणतन्त्र था, जिसकी मुद्राएँ भी खुदाई में मिली हैं। यह गणराज्य सहारनपुर -भागलपुर-लुधियाना और दिल्ली के बीच फैला था। इसमें तीन छोटे गणराज्य और शामिल थे, जिससे इसका रूप संघात्मक बन गया था। गोरखपुर और उत्तर बिहार में भी अनेक गणतन्त्र थे। इन गणराज्यों में राष्ट्रीय भावना अत्यन्त प्रबल हुआ करती थी और किसी भी राजतंत्रीय राज्य से युद्घ होने पर, ये मिलकर संयुक्त रूप से उसका सामना करते थे।

यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया सिकन्दर के भारतवर्ष अभियान के समय भारत के सोमबस्ती नामक स्थान का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वहां पर शासन की गणतांत्रिक प्रणाली थी, न कि राजशाही।डायडोरस सिक्युलस ने अपने ग्रंथ में भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में अनेक गणतंत्रों की उपस्थिति का उल्लेख किया है। एक अन्य स्थान पर वह लिखता है कि अधिकांश नगरों (राज्यों) ने गणतांत्रिक शासन-व्यवस्था को अपना लिया था, और उसको बहुत वर्ष बीच चुके थे, यद्यपि कुछ राज्यों में भारत पर सिकंदर के आक्रमण के समय भी राजशाही कायम थी। लेकिन कालांतर में राजशाही तो विश्वभर से ही इतिहास के पन्नों में सिमट गई।
भारतवर्ष में वर्तमान में सहस्त्राब्दियों पुरानी उसी गणराज्य की व्यवस्था है, जिसके बारे में जानकर गर्व के साथ हर भारतीय का सीना चौड़ा हो जाता है। दरअसल हम बौद्ध और जैन धर्म के आविर्भाव के पश्चात से सत्य और अहिंसा के पुजारी बनकर रहे हैं और हमारी इसी अवधारणा को विदेशियों ने कमजोरी समझकर सदियों पहले हमें परतंत्र बनाया अर्थात परवश किया, लेकिन सदियों तक परतंत्रता में रहने के बाद भी स्वाधीनता हेतु असंख्य बलिदानियों के बलिवेदी पर न्योछावर हो जाने के पश्चात विभाजित भारतवर्ष के कर्त्ता-धर्ताओं ने पुरातन गौरवमयी भारतवर्ष की प्राचीन गणतांत्रिक प्रणाली को ही सर्वोपरि मानते हुए एक संविधान की रचना की एवं 26 जनवरी 1950 को संविधान को लागू कर देश को सदियों बाद एक बार फिर से गणतन्त्र घोषित कर दिया, ताकि हम नित नूतन उन्नति करते हुए देश और मानवमात्र के कल्याण मार्ग के पथिक बनकर नित्य नवीन कृतियाँ गढते हमेशा-हमेशा के लिए आगे बढ़ते रहें l


Monday, January 26, 2015

विद्वानों के लिये समाज में स्थान सुरक्षित हो - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - २६ / ०१ / २०१५ को प्रकाशित आलेख - विद्वानों के लिये समाज में स्थान सुरक्षित हो


विद्वानों के लिये समाज में स्थान सुरक्षित हो 
- अशोक “प्रवृद्ध”


स्थूल रूप में ज्ञान को दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक है आधारभूत ज्ञान अर्थात फण्डामेण्टल साइंस और दूसरा है तकनीकी ज्ञानlआधारभूत ज्ञान में उन सिद्धान्तों का ज्ञान है जिनके अनुसार जगत की रचना होती हैlइसे वैदिक भाषा में ज्ञान,परब्रह्म का ज्ञान अथवा केवल परम का ज्ञान कहते हैंlदूसरी प्रकार का ज्ञान है जो उन आधारभूत सिद्धान्तों के प्रयोग से मनुष्य की सुख-सुविधा के लिये साधन निर्माण करता है,इसे तकनीकी कहते हैंl
आधारभूत ज्ञान अर्थात पहले परम का ज्ञान तो केवल विद्वानों द्वारा विद्वानों को जो कि राज्य तथा राज्य के नियमों से सर्वथा स्वतंत्र हों,जीवन और कार्य में लाने के योग्य हैंlइसके प्रसारण तथा इसमें अन्वेषण का अधिकार केवल मात्र जाति अर्थात राष्ट्र के विद्वानों को ही होना चाहियेlआधारभूत ज्ञान है सृष्टि रचना का इतिहास,इसमें कारण और उसके कार्य अर्थात इसके होने की प्रक्रिया,साथ ही उन प्राकृतिक शक्तियों का ज्ञान जिसमें जिनसे इस जगत की रचना सम्पन्न हुयीlवैभारतीय पुरातन शास्त्रों के अनुसार यह राज्य के कार्य का विषय नहीं हैlकारण यह है कि सृष्टि रचना में अनेक महान शक्तियाँ कार्यरत होती हैंlउनका ज्ञान राज्याधिकारियों के हाथ में देना ठीक नहीं क्योंकि राज्याधिकारी मूलतया क्षत्रिय प्रकृति के होते हैं ब्राह्मण प्रकृति के नहींlसृष्टि रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का अतिन्यून सा अंश भी यदि  किसी राज्य अथवा राज्याधिकारी के अधिकार में होगा तो वह उस शक्ति के आश्रय समस्त संसार को अपनी अँगुलियों पर नचाने का यत्न करेगाlवर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या यही बनी हुयी है कि सृष्टि-रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का एक अंश भूमण्डल के कुछ राज्यों के अधीन हो गया है और अब तो यह भी दावे के साथ कहा जा रहा है कि कुछ आततायी आतंकवादी संगठनों यथा,अलकायदा, आई एस आई एस आदि कट्टर इस्लामी संगठनों के पास भी सृष्टि-रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का अंश उपलब्ध है जिससे वे संसार मे कभी भी किसी अनहोनी को अंजाम देने की क्षमता रखते हैंlअतः इसमें यह समान विधि-विधान होना चाहिये कि प्रकृति की आधारभूत शक्तियों का ज्ञान,उनमें खोज करने का अधिकार और उनपर नियन्त्रण राज्यों का न होlराज्यों को इसके समीप फटकना भी नहीं चाहियेlइस ईश्वरीय सकती के अतिरिक्त भी आधारभूत ज्ञान हैंlउदहारण के रूप में प्राणी की उत्पत्तिlमनुष्य ने इस ज्ञान को पर्याप्त रूप में प्राप्त किया हैlवर्तमान में भी वह अनथक प्रयत्न कर रहा है कि किसी प्रकार वह प्राणी के रचना के ज्ञान को प्राप्त कर सकेlसृष्टि रचना का ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार मानव को है,परन्तु अधिकार तो योग्यता के अनुरूप ही होना चाहिये नlअयोग्य अथवा बुद्धिविहीन व्यक्ति को कुछ भी अधिकार नहीं मिलना चाहियेlराज्य तो क्षत्रिय स्वभाव वालों की क्रीड़ा-भूमि होता हैlक्षत्रिय स्वभाव वाले राजसी बुद्धि के होते हैंlराजसी बुद्धि के लक्षण के संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-
यथा धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव चl
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसीll
-श्रीमद्भगवतगीता – १८ -३१
अर्थात-जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को कार्य और अकार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता वह बुद्धि राजसी हैl
राज्य कार्य में प्रायः इस बुद्धि के लोगों का प्रभुत्व होता हैlयदि कभी कोई सात्विकी बुद्धि वाला व्यक्ति वहाँ पहुँच भी जाये तो प्रायः वह राजकार्य में सफल नहीं हो पाताlवर्तमान संसार में विषमता का कारण ही यही है कि राज्य ने बुद्धियुक्त कार्य को अपने अधीन कर लिया हैlआज के किसी अल्प बुद्धिजीवी ने यह कह दिया कि राज्य प्रजातांत्रिक पद्धति का होना चाहिये, इससे राजसी प्रकृत्ति के लोग जनसाधारण के अधीन होने से संसार में सुख और शान्ति व्याप्त हो जायेगी, किन्तु बात इसके सर्वथा विपरीत हुयी हैlआज संसार में सुख और शान्ति सर्वथा विलुप्त सी हो गयी हैlसंसार के सभी राज्य अपनी बुद्धिविहीन नीति को चालू रखने के लिये दूसरों को धोखा देने का यत्न कर रहे हैं,परन्तु यह भी सोचने की बात है कि क्या उनको इसमें भी सफलता मिल रही है?प्रजातांत्रिक राज्य के कतिपय गुणों से इनकार नहीं किया जा सकता,किन्तु जब तक इसके दोषों को दूर नहीं किया तब तक यह पद्धति सफल नहीं हो सकतीlसमानता प्रजातान्त्रिक पद्धत्ति का मुख्य दोष हैlप्रजातंत्र में सब धन बाईस पसेरी होता हैlउसका परिणाम यह होता है कि धूर्तों की बन आती हैlधूर्त बलशालियों से समझौता करके प्रजातंत्र के स्थान पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से तानाशाही ही स्थापित करते हैंlइसका एकमात्र कारण है प्रजातांत्रिक राज्य में विद्वानों को राज्याधीन रखनाlउच्च से उच्च कोटि का वैज्ञानिक,मीमांसक,गणितज्ञ आदि राज्य के कर्मचारी बना दिए गये हैंlउनको तो अब अपनी विद्वता पर भी अधिकार न रहा हैlयदि कोई विद्वान अपना अधिकार व्यक्त करता है तो उसे बन्दीगृह में भेज दिया जाता है अथवा उसे निपट निर्धनता एवं कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करने को विवश कर दिया जाता हैlयदि प्रजातान्त्रिक राज्य को अपना स्वत्व रखना है तो उसके लिये यह नितान्त आवश्यक है कि वह राष्ट्र कल्याण हेतु विद्वानों के लिये स्थान सुरक्षित करेlइसके लिये आधारभूत ज्ञान का संचालन राज्य से स्वतंत्र रखकर उसको विद्वानों के अधीन कर दिया जाना चाहियेlवैदिक ग्रन्थों के अनुसार विद्वानों की परख तो विद्वान ही कर सकते हैंlअर्थात विद्वानों का निर्माण उनको विद्वान पद देने और उनको सुरक्षित रखने का कार्य विद्वानों के हाथ में ही होना चाहियेlशनैः-शनैः समय पाकर विद्वान मण्डली एक क्षेत्र ही बन जायेगी,उसमें क्षत्रिय स्वभाव के लोग अर्थात राजसी प्रकृति के लोग हस्तक्षेप नहीं कर पायेंगेlअभिप्राय यह है कि ज्ञान का वह आधारभूत अंग विद्वानों के संरक्षण में रहना चाहियेlभारतीय इतिहास के पुरातन ग्रन्थों में में अंकित मिलता है कि पुरातन काल में क्षत्रिय लोग दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा अथवा इन्द्र के पास जाया करते थे तब वे प्रार्थी की परीक्षा करके उसके एक-दो अस्त्र दे दिया करते थे,परन्तु इसमें भी कभी-कभी भूल हो जाया करती थी जिसके परिणामस्वरूप रावण,मेघनाद,कर्ण प्रभृत्ति राजसी स्वभाव के लोगों को वे दिव्यास्त्र मिल जाया करते थेlपरन्तु यह कभी-कभी होता थाlसात्विकी बुद्धि वालों को शस्त्रास्त्र देकर दूसरों को नियन्त्रण में किया जाता थाlवर्तमान में भी कुछ ऐसा ही व्यवस्था किया जाना चाहिये जिससे कि प्रकृत्ति की दिव्य शक्तियाँ यदि कभी अविद्वानों को मिल जायें तो अधिकारी को वह अथवा उससे भी श्रेष्ठ शक्ति देकर दुष्ट को नियन्त्रण में रखा जा सकेlयह तभी सम्भव है जबकि संसार में एक ऐसा मंच का निर्माण किया जाये जो ज्ञानवानों के अधीन हो और उनके अधीन ही अपना कार्य चलायेlइस प्रकार यह स्पष्ट है कि ज्ञान=विज्ञान और उसके प्रयोग पर केवल विद्वानों का ही नियन्त्रण होना चाहियेlराज्यकार्य करने वालों के अधीन यह बिलकुल नहीं दिया जाना चाहियेlइसके लिये भारतवर्ष सहित सम्पूर्ण संसार के विद्वानों और जनता को बहुत बड़ा संघर्ष करना होगा अन्यथा संसार के राज्य इसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं हो सकतेl
ज्ञान का दूसरा अंग है प्राकृतिक शक्ति से मानव की मूल सुविधा का प्रबन्ध करनाlइसको तकनीकी अर्थात टेक्नोलोजी कहते हैं,यह राज्यों के पास हो,अथवा कि धनी-मानी व्यक्तियों के पास यह पृथक् प्रश्न हैlएक उदहारण से बात को आसानी से समझा जा सकता हैlभारतवर्ष में जब से हिन्दू राज्य पद्धति क्षीण होने लगी है तब से राजा लोग अपने-अपने राज्य का इतिहास अपने अधीनस्थ इतिहासकारों से लिखवाने लगे हैंlउसका परिणाम यह हुआ है कि वह इतिहास एक साधारण बही-खाते जैसा बनकर केवल वृतान्त मात्र रह गया हैlवह इस प्रकार कि मानो उस बही-खाते को किसी मूर्ख और धूर्त ने साहूकार के लाभ के लिये लिखा होlराजा लोग अब अपनी इच्छा से इतिहास लिखवाने लगे हैंlइस प्रक्रिया से इतिहास लिखने का उद्देश्य ही निर्मूल हो गया हैlइतिहास भविष्य के आचरण का दिग्दर्शन कराता है,किन्तु उसकी अपेक्षा वह उच्छृंखल और धूर्त तथा मूर्ख राजाओं की चाटुकारिता मात्र बनकर रह गया हैlवर्तमान में यह माना जाने लगा है कि दिल्ली की कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन ने बनवाया थाlइसमें सन्देह नहीं कि कुतुबुद्धीन का यहाँ राज्य रहा हैlशाहजहाँ,जिसको अपनी हजारों विवाहिता और उससे अधिक अविवाहिता पत्नियों से ही अवकाश नहीं था,कहा जा रहा है कि उसने ताजमहल जैसे सुन्दरतम स्मारक का निर्माण करवाया थाlजिन मूर्खों को अपनी नाक तक साफ़ करने का ढंग नहीं आता,उनके नाम पर ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ लिखे माने जाते हैंlइस प्रकार यह स्पष्ट है कि मानव समाज एतदर्थ बहुसंख्यक भारतीय समाज का भविष्य इसी में है कि विद्वानों का कार्य राजसी कार्य से पृथक कर दी  जाये और फिर प्रजातान्त्रिक पद्धत्ति से अथवा किसी और रीति से राज्य अधिकारियों को विद्वानों की इच्छानुसार कार्य करने पर विवश किया जायेlअर्थात आधारभूत ज्ञानार्जन का कार्य राज्य से पूर्णतः मुक्त किया जाये l

Friday, January 23, 2015

सरस्वती आखिर कहाँ गई ? - अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - २३ /०१ /२०१५ को प्रकशित लेख - सरस्वती आखिर कहाँ गई ?



सरस्वती आखिर कहाँ गई ? 
- अशोक “प्रवृद्ध”

भारतीय जीवन एवं साधना में अप्रतिम महत्व रखने वाली सरस्वती भारतीय सभ्यता के उषाकाल से लेकर अद्यपर्यन्त अपने आप में ही नहीं,प्रत्युत अपनी अर्थ,परिधि एवं सम्बन्धों के विस्तार के कारण भी अत्यन्त महत्वपूर्ण रही हैlसरस्वती शब्द की व्युत्पति गत्यर्थक सृ धातु से असुन प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है शब्द सरस,जिसका अर्थ होता है गतिशील जलlसरस का अर्थ गतिशीलता के कारण जल भी हो सकता है,लेकिन केवल जल ही गतिशील नहीं होता,ज्ञान भी गतिशील होता हैlसूर्य-रश्मि भी गतिशील होती हैlअतः सरस का अर्थ ज्ञान, वाणी (अन्तःप्रेरणा की वाणी), ज्योति, सूर्य-रश्मि, यज्ञ ज्वाला, आदि भी किया गया हैlज्ञान के आधार पर सरस्वती का अर्थ सर्वत्र और सर्वज्ञानमय परमात्मा भी हो जाती हैlआदिकाव्य ऋग्वेद में सरस्वती नाम देवता (विभिन्न वैदिक देवता एक ही देव के भिन्न-भिन्न दिव्यगुणों के कारण अनेक नाम अर्थात सरस्वती मात्र देवता,परमात्मा का सूचक नाम मात्र है,दृश्य रूप भौतिक नदी विशेष नहीं है) तथा नदी वत दोनों ही रूपों में प्रयुक्त हुआ हैlसरस्वती शब्द का अर्थ करते हुए यास्क ने निरुक्त में लिखा है-
वाङ नामान्युत्तराणि सप्तपञ्चाशत् वाक्क्स्मात् वचेः l तत्र सरस्वतीत्येत्स्य नदीवद् देवतावच्चा निगमा भवन्ति l
तद्यद् देवतावदुपरिष्टातद् व्याख्यास्यामः l अथैतन्न्दीवत ll
-निरूक्त २/७/२३
अर्थात- वाक् शब्द के सत्तावन रूप कहे गये हैंlवाक् के उन सत्तावन रूपों में एक रूप सरस्वती हैlवेदों में सरस्वती शब्द का प्रयोग देवतावत् और नदीवत् आया हैlनदीवत् अर्थात नदी की भान्ति (नदी नहीं) बहने वालीlसायन एवं निघण्टुकार ने भी सरस्वती के नदी एवं देवता दोनों दोनों रूप स्वीकार किये हैंlयास्काचार्य की उक्ति सरस्वती – सरस इत्युदकनाम सर्तेस्तद्वती (निरूक्त ९/३/२४) से यह स्पष्ट नहीं होता कि उनका अभिप्राय नदी विशेष है अथवा सामान्य नदियों से अथवा जलाशयों से परिपूर्ण भूमि सेl फिर कतिपय विद्वानों ने इसे सरस्वती नाम की नदी विशेष अर्थ (रूप) में स्वीकार किया हैlऋग्वेद में यास्कानुसार केवल छः मन्त्रों में ही सरस्वती नदी रूप में वर्णित है,शेष वर्णन उसके देवता रूप विषयक हैंlऋग्वेद में सरस्वती का नाम प्रथम वाक् देवता के रूप में प्रयुक्त हुआ है या नदी के लिये यह आज भी विद्वानों के मध्य विवाद के विषय बना हुआ हैlयद्यपि मनुस्मृति १/२१ के अनुसार सरस्वती के देवता रूप की कल्पना ही पहले होनी चाहिये तथापि कतिपय विद्वानों के अनुसार बाद में देवता रूप के आधार पर ही नदी विशेष के लिये सरस्वती नाम प्रचलित हुआlउनके अनुसार ऋग्वेद की सरस्वती मात्र एक दिव्य अन्तःप्रेरणा की देवी, वाणी की देवी ही नहीं वरन प्राचीन आर्य जगत की सात नदियों में से एक भी हैl
वैदिक विचार
विद्वानों का विचार है कि ऋग्वैदिक काल में सिन्धु और सरस्वती दो नदियाँ थींlऋग्वेद में अनेक स्थलों पर दोनों नदियों का साथ-साथ वर्णन तो उल्लेख है ही विशालता में भी दोनों एक सी कही गईं हैंlफिर भी सिन्धु के अपेक्षतया सरस्वती को ही अधिक महिमामयी एवं महत्वशालिनी माना गया हैlऋग्वेद के अनुसार सरस्वती की अवस्थिति यमुना और शतुद्रि (सतलज) के मध्य (यमुने सरस्वति शतुद्रि) थीlऋग्वेद में सरस्वती के लिये प्रयुक्त विशेषण सप्तनदीरूपिणी, सप्तभगिनीसेविता, सप्तस्वसा, सप्तधातु आदि हैंlसरस्वती से सम्बद्ध ऋग्वेद में उल्लिखित स्थान अथवा व्यक्ति सभी भारतीय हैंlऋग्वेद ७/९५/२ में सरस्वति का पर्वत से उद्भूत हो समुद्रपर्यन्त प्रवाहित होने का उल्लेख मिलता हैlभूमि सर्वेक्षण के कई प्रतिवेदनों अर्थात रिपोर्टों से प्रमाणित होता है कि लुप्त सरस्वती कभी पँजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान से प्रवाहित होने वाली विशाल नदी थीlस्पेस एप्लीकेशनसेंटर और फिजिकल लेबोरेट्री द्वारा प्रस्तुत लैंड सैटेलाईट इमेजरी एरियल फोटोग्राफ्स से भी सरस्वती की ऋग्वैदिक स्थिति की पुष्टि होती हैl
ऋग्वेद में सरस्वती के उल्लेखों वाले मन्त्रों को दृष्टिगोचर करने से इस सत्य का सत्यापन होता है कि ऋग्वैदिक सभ्यता का उद्भव एवं विकास सरस्वती के काँठे में ही हुआ था,वह सारस्वत प्रदेश की सभ्यता थीlबाद में यह सभ्यता क्षेत्र विस्तार के क्रम में मुख्यतः पश्चिमाभिमुख होकर एवं कुछ दूर तक पूर्व की ओर बढती हैlसभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट से सिन्धु एवं उसके सहायिकाओं के तट पर पहुँचता है और इस सिलसिले में इसकी व्यापारिक गतिविधियों का व्यापक विस्तार होता हैlकहा जाता है कि सारस्वत प्रदेश के अग्रजन्माओं की आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का श्रेय सरस्वती नदी को ही थाlपशुपालक व कृषिजीवी जहाँ सरस्वती के तटीय वनों और उपजाऊ भूमि से आधिभौतिक उन्नति कर रहे थे,वहीँ ऋषि-मुनिगण इसके तट पर सामगायन कर याजिकीय अनुष्ठानों द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष कर रहे थेl

ऋग्वेद के सूक्तों से इस सत्य का सत्यापन होता है कि सरस्वती नदी नाहन पहाड़ियों से आगे आदिबदरी के निकट निकलकर पँजाब, हरियाणा, उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान में प्रवाहित होती हुई समुद्र में प्रभाष क्षेत्र में मिलती हैlइसकी स्थिति यमुना और शतुद्रि के मध्य (ऋग्वेद १०/७५/५) किन्तु दृषद्वती (चितांग) के पश्चिम (ऋग्वेद ७/९५/२) कही गई हैlइसकी उत्पति दैवी (असुर्या ऋग्वेद ७/९६/१) भी मानी गई हैlब्राह्मण ग्रन्थों,श्रौतसूत्रों एवं पुराणादि ग्रन्थों में सरस्वती का उद्गम स्थान प्लक्ष प्राश्रवण कहा गया हैlयमुना नदी के उद्गम स्थल को प्लाक्षावतरण कहा गया हैlऋग्वेद में सरस्वती सम्बन्धी (करीब) पैंतीस मन्त्र अंकित हैं,जिनमें से तीन ऋग्वेद ६/६१,ऋग्वेद ७/९५ और ७/९६ स्तुतियाँ हैंlविविध मन्त्रों में सरस्वती की अपरिमित जलराशि,अनवरत बदलती रहने वाली प्रचण्ड वेगवती धारा,भयंकर गर्जना,उससे होने वाले संभावित खतरों,महनीयता आदि के भी जीवन्त वर्णन हैंl(ऋग्वेद ६/६१/३, ६/६१/८, ६/६१/११,६/६१/१३)सरस्वती प्रचण्ड वेगवाली होने के साथ ही सर्वाधिक जलराशि वाली होने के कारण बाढ़ के समय इसका पाट इतना चौड़ा और विस्तृत हो जाता है कि यह आक्षितिज फैली हुई प्रतीत होती हैlऋग्वेद६/६१/७ में अंकित है कि सरस्वती कूल किनारों को तोड़ती हुई बहुधा अपना प्रवाह बदल लेती हैl
प्रसविणी सरस्वती
ऋग्वेद १०/६४/९ में में सरस्वती,सरयू सिन्धु की गणना बड़े नदों में हुई है जिसमें ऋग्वेद ७/३६/३ में सरस्वती ही सरिताओं की प्रसविणी कही गई हैlऋग्वेद ६/६१/१२ में अंकित है कि सरस्वती में सात नदियों के मिलने के कारण सप्तधातु एवं ऋग्वेद ६/६१/१० में सप्तस्वसा कही गई हैlऋग्वेद ७/९६/३ के अनुसार सरस्वती सदा कल्याण ही करती हैlसरस्वती का जल सदा और सबको पवित्र करने वाला हैlयह पूषा की तरह पोषक अन्न देने वाली हैlअन्यान्य नदियों की तुलना में यह सबसे अधिक धन-धान्य प्रदायिनी हैlऋग्वेद ७/९६/३ में यह अन्नदात्री, अन्न्मयी एवं वाजिनीवती कही गई हैlधन, समृद्धि, ज्ञान प्रदायिनी होने के कारण ही सरस्वती को वाजिनीवती कहा गया हैlसरस्वती के माध्यम से नहुष ने अकूत धन-सम्पदा अर्जित की थीlइसी कारण धन-धन्य प्राप्ति के लिये सरस्वती की प्रार्थना करने की परिपाटी बाद में चल पड़ीlसरस्वती का जल स्वच्छ एवं सुस्वादु होने के कारण अन्नोत्पादिका होने के परिणामस्वरूप यह कल्याणकारिणी एवं धन-धान्य प्रदायिनी कही गई हैlसरस्वती अग्रजन्माओं की भूमि प्रदायिनी कही गई हैlऋग्वेद ६/६१/३ एवं ८/२१/१८ के अनुसार सारस्वत प्रदेश की प्राचीनता सिद्ध होती हैlसरस्वती के तट पर एक प्रसिद्द राजा और पञ्चजन निवास करते हैं जिन तटवासियों को सरस्वती स्मृद्धि प्रदान करती हैlऋग्वेद ६/६१/७ के अनुसार वृत्र का संहार सरस्वती तट पर हुआ था जिसके कारण इसकी नाम वृत्रघ्नी भी हुईlसर्वप्रथम यज्ञाग्नि सरस्वती तट पर प्रज्वलित हुई थीlतटवासी भरतों ने सर्वप्रथम अग्नि जलाई थीlइसी कारण सरस्वती का एक नाम भारती भी हुईlसरस्वती तट से ही अग्नि का अन्यत्र विस्तार भी हुआlफलतः सरस्वती के साथ ही दृषद्वती और आपया के तटों पर भी यज्ञों का संपादन होने लगाlनदियों में सरस्वती की इतनी महिमा मणि गई है कि इसे नदीतमे ही नहीं अम्बितमे और देवितमे भी घोषित करते हुए कहा गया है –
अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती l
प्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिम्ब नस्कृधि ll
-ऋग्वेद २/४१/६

ऋग्वेद ७/९६/१ में सरस्वती की महता गायन करने वशिष्ठ को आदेश देते हुए ऋषि कहते हैं, हे वशिष्ठ! तुम नदियों से बलवती सरस्वती के लिये वृहद स्तोत्र का गायन करोlऋग्वेद ६/६१/१० के अनुसार सरस्वती के स्तुतिगायकों ने अपने पूर्वजों द्वारा भी इसके स्तुति का उल्लेख किया है l इससे भी सरस्वती तट पर वैदिकों के निवास की प्राचीनता का संकेत मिलता हैlकतिपय विद्वान कहते हैं, भरतों की आदिम वासभूमि सरस्वती तटवर्त्ती भूमि (सारस्वत प्रदेश) ही थी जहाँ उन्होंने सर्वप्रथम यज्ञाग्नि जलाई थीlमैकडानल के अनुसार भी सूर्यवंशियों की प्राचीन वासभूमि भी जलाई थी, किन्तु विद्वानों के अनुसार सरस्वती के उद्गम स्थान पर हिमराशि का गलकर समाप्त हो जाने, जलग्रहण क्षेत्र से ही अन्य नदियों के द्वारा सरस्वती के जल का कर्षण कर लिये जाने आदि भौगोलिक कारणों से ख्य्यातिप्राप्त और पुण्यतमा सरस्वती का प्रवाह बहुधा परिवर्तित होता रहता थाlसम्भवतः उद्गम स्थल से सरस्वती का जल यमुना ने ही सबसे अधिक कर्षित किया होगाlइसी कारण यह मान्यता बनी कि प्रयाग में यमुना के साथ ही गुप्त रूप से सरस्वती भी गंगा में मिलती हैlभौगोलिक कारणों से सरस्वती वैदिक काल में ही क्षीण होते-होते सूखने भी लगी थीlफलतः उस समय तक उसका जो धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व कायम हो चुका था वह तो आगे भी मान्य रहा,परन्तु उसका सामाजिक-आर्थिक,आधिभौतिक महत्व घटता गयाlउत्तर वैदिक कालीन साहित्यों में धार्मिक-आध्यात्मिक दृष्टियों से सरस्वती एवं उसके तटवर्ती स्थानों के उल्लेख अंकित हैं,लेकिन आधिभौतिक महत्व के साक्ष्यों का प्रायः अभाव ही हैlलाट्टायानी श्रौतसूत्र में कहा है –
सरस्वती नाम नदी प्रत्यकस्त्रोत प्रवहति, तस्याः प्रागपर भागौसर्वलोके प्रत्यक्षौ ,
मध्यमस्तभागः भूम्यन्तःनिमग्नः प्रवहति,नासौ केनचिद् तद्धिनशनमुच्यते ll
- लाट्टायन श्रौतसूत्र १०/१५/१
अर्थात - सरस्वती पश्चिमोभिमुख हो प्रवाहित होती हैlउसका आरम्भिक एवं अन्तिम भाग सबके लिये दृश्य हैlमध्यभाग पृथ्वी में अन्तर्निहित है जो किसी को भी दिखलाई नहीं पड़ताlलाट्टायन श्रौतसूत्र में उद्धृत इस सन्दर्भ से सरस्वती के लुप्त होने का संकेत मिलता हैlसरस्वती के मरुभूमि में समाहित होने अथवा सूखने के काल के सम्बन्ध में विद्वानों का अनुमान है कि ब्राह्मण ग्रन्थों के काल में रेतीले स्थलों में अन्तर्निहित हो गईlकुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि ऐतरेय ब्राह्मण के काल में अथवा उसके पूर्व ही सरस्वती सुख चुकी थीlविज्ञान के अनेकानेक नवीन सोच भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैंlब्राह्मण ग्रन्थों एवं श्रौत सूत्रों से ज्ञात होता है कि सरस्वती के तट पर धार्मिक-आध्यात्मिक कृत्यों का संपादन भी किया जाता है,थाlसरस्वती एवं दृषद्वती (चिनांग)के संगम पर भी अपां नपात इष्टि में पक्वचरू की आहुति देने का विधान भी अंकित हैlकात्यायन श्रौतसूत्र २४/६/६ के अनुसार सरस्वती दृषद्वती का संगम दृशद्वात्याय्यव कहा जाता थाlकात्यायन श्रौतसूत्र के ही २३/१/१२-१३ में अंकित है कि उक्त संगम पर ही अग्निकाम इष्टि भी संपादित होती थीlताण्ड्य ब्राह्मण २५/१६/११-१२ आपस्तम्ब के अनुसार सरस्वती तट पर तीन सारस्वत सत्र मित्र एवं वरुण के सम्मान में, इन्द्र एवं मित्र के सम्मान में, अर्यमा के सम्मान में किये जाते थेl

उद्गम स्थान
सरस्वती का उद्गम स्थान जैमिनीय ब्राह्मण ४/२६/१२ के अनुसार प्लक्ष प्रास्त्रवन, एवं आश्वलायन श्रौतसूत्र १२/६/१ के अनुसर प्लाक्ष प्रस्त्रवन कहा जाता हैlयमुना का उद्गम स्थल प्लाक्षावतरणभी इसके पास ही थाlमहाभारत वनपर्व १२९/१३-१४-२१-२३ से स्पष्ट भाष होता है कि यमुना क्ले उद्गम स्थल प्लाक्षातरण के निकट ही सरस्वती भी प्रवाहित थी, जसी स्थान पर सरस्वती भूमि के गर्त्त में अन्तर्निहित हुई वह ताण्डय ब्राह्मण २५/१०/६ के अनुसार विनशन (सम्प्रति कोलायत, बीकानेर के दक्षिण-पश्चिम-दक्षिण) कहा जाता थाlसरस्वती-प्रवाह के लुप्त होने को विनशन तथा कई बार इसकी धारा पुनः प्रकट हो जाती थी,जिसे उद्भेद कहा जाता थाlसरस्वती प्रवाह के लुप्त हो जाने की स्थिति में सरस्वती के सूखे तट पर विनशन में किसी धार्मिक अनुष्ठन अथवा यज्ञादि के दीक्षा लेने का विधान थाlकात्यायन श्रौतसूत्र में अंकित है कि दीक्षा शुक्ल पक्ष की सप्तमी को होती थीlसरस्वती के लुप्त होने के स्थान विनाशन से प्लक्ष प्रास्त्रवन की दूरी उन दिनों घुड़सवारी के माध्यम से चौवालीस दिनों में पूरी की जाती थीlअनुष्ठान करने वाले प्लक्ष प्रास्त्रवन पहुँच कर ही अनुष्ठान समाप्ति एवं कारपचव देश में प्रवाहित यमुना में (सरस्वती में जल होने पर भी उसमें नहीं) अवभृथ स्नान करने का विधान थाlकात्यायन श्रौतसूत्र १०/१०/१ के अनुसार कुरुक्षेत्र के परीण नामक समुद्रतटीय स्थान पर श्रौतयज्ञ किये जाते थेlआश्वलायन श्रौतसूत्र के अनुसार विनशन से प्रक्षिप्त शय्या की दूरी पर यजमानों के द्वारा एक दिन में व्यतीत किया जाता थाlऐतरेय ब्राह्मण ८/१ की गाथानुसार सरस्वती तट विनशन पर ऋषियों द्वारा सम्पादित सत्र से  जन्म लिये (उत्पन्न) कवष नामक दासीपुत्र को प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाने के लिये मरुभूमि में छोड़ दिए जाने पर कवष ने अपां नपात (ऋग्वेद १०/३०) स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर उसके रक्षार्थ सरस्वती उसे घेरते हुए प्रकट हुई उसे परिसरक नाम से जाना जाता हैlमहाभारत वनपर्व ८३/७५ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य १५/२० में सरक कहा गया हैlमहाराज मनु के समय में सरस्वती एवं दृषद्वती के मध्य का प्रदेश देवकृतयोनि के नाम से जाना जाता हैl

पुराणादि ग्रन्थों में सरस्वती के नदी रूप की अपेक्षा देवतारूप को अत्यधिक महत्व प्रदान करते हुए कहा गया है कि सरस्वती का प्रवाह हालाँकि सूख गया था फिर भी उसका परम्परागत महत्व पौराणिक काल में भी कायम थाlभौगोलिक कारणों से सरस्वती के प्रवाह क्रम में हुए परिवर्तन को पुराणादि ग्रन्थों में शाप तथा वरदान की कथाओं से महिमामण्डित करने के साथ ही धार्मिक स्वरुप प्रदान किया गया हैlसरस्वती तटवर्ती कई स्थानों को तीर्थ रूप में वर्णन करते हुए उनके यात्राओं का जिक्र किया गया हैlमहाभारत में धौम्य पुलस्त्य, पाण्डव और बलराम की तीर्थयात्राएँ भी पुराणों की साक्ष्यता को ही प्रमाणित एवं पुष्ट करती हैlसरस्वती के नदी रूप का वर्णन महभारत वनपर्व अध्याय ८३, ८४, १२९ एवं शल्य पर्व अध्याय ३५-५५, एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य, ब्रह्म पुराण,कूर्म पुराण , पद्म पुराण, वृह्न्नारदीय पुराण, स्कन्द पुराण, वृह्द्धर्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृति खण्ड) आदि ग्रन्थों में अंकित हैंlमहभारत में पाण्डव तीर्थयात्रा के क्रम में कहा गया है कि यमुना के उद्गम स्थल प्लाक्षवतरण से पुण्यसलिला सरस्वती दिखलाई पडती हैlइससे स्पष्ट पत्ता चलता है कि सरस्वती का उद्गम स्थल प्लक्ष प्रास्त्रवण यमुना के उद्गम स्थल प्लाक्षावतरण के नजदीक ही थीlवामन पुराण सरोवर महात्म्य ११/३ एवं महाभारत वनपर्व ८४/७ एवं शल्य पर्व ५४/११ के अनुसार सरस्वती की उत्पति के सम्बन्ध सौगन्धिक वन के आगे प्लक्ष (पांकड़) वृक्ष की जड़ की बांबी प्लक्ष प्रास्त्रवण से कही गई हैl महाभारत शल्य पर्व ४२/३० एवं वामन पूर्ण सरोवर महात्म्य १९/१३ में सरस्वती को ब्रह्मा की सरोवर से उत्पन्न होना भी कहा हैl

पुराणों में वेदों की भान्ति प्लक्ष प्रास्त्रवण तीर्थरूप में स्वीकृत है लेकिन ब्रह्मा का सरोवर इस रूप में मान्य न हो सका हैlब्रह्म पुराण में सरस्वती नदी को अग्नि ने स्पष्टतः ब्रह्मा की कन्या तान्देवान्कन्या कहा है इसके साथ ही ब्रह्मा ने इसे स्वीकार भी किया हैl(ब्रह्म पुराण १०/२०१, २०३, २०४) l महाभारत शल्य पर्व ३५/७७ एवं वन पर्व ८२/६० के अनुसर ब्रह्मा के सरोवर से उद्भुत पश्चिमाभिमुख हो प्रवाहित होती हुई सरस्वती पश्चिमी समुद्र में जिस स्थान पर मिलती थी,वह सरस्वती समुद्र संगम तीर्थ के नाम से विख्यात थाlब्रह्म पुराण १०१/२१० के अनुसार भी अग्नि को समुद्र तक ले जाने की पौराणिक आख्यान से भी सरस्वती का समुद्र से मिलना सिद्ध होता हैlसरस्वती के द्वारा अग्नि को समुद्र तक पहुँचाये जाने की यह कथा थोड़े अन्तर से ब्रह्मपुराण में भी अंकित है तथा सरस्वती के सूखने का एक कारण अग्नि को समुद्र तक पहुँचाया जाना भी माना गया हैl
ऋग्वेद की भान्ति ही पुराणों में भी सरस्वती को महानदी,हजारों पर्वतों को विदीर्ण करने वाली,सर्व लोगों की माता आदि कहा गया हैlमहाभारत शल्य पर्व ३८/२२ एवं वृहन्नारदीय पुराण १/८४/८० के अनुसार सरस्वती का उद्गम स्थल हिमालय किवां हिमालय का रमणीय शिखर हैlवामन पुराण सरोवर महात्म्य १३/६-८ एवं वृहन्नारदीय पुराण २/६४/१९ मे अंकित है कि सरस्वती पहाड़ों से उत्तर द्वैतवन से होती हुई कुरुक्षेत्र के रन्तुक नामक स्थान से पश्चिमोभिमुख होकर प्रवाहित होती हैlकुरुक्षेत्र में प्रवाहित होने वाली अन्य नदियाँ बरसाती हैं लेकिन सरस्वती में सालों भर जल प्रवाहित रहता हैlविद्वानों के अनुसार कुरुक्षेत्र से पश्चिमी समुद्र के बीच सरस्वती का प्रवाह रेगिस्तान में खो चुका था,फिर भी अनेकानेक स्थलों पर उपलब्ध उसके अवशेषों को तीर्थों की मान्यता मिल चुकी थीlप्राचीन समय में द्वारावती से कुरुक्षेत्र तक जाने का प्रमुख मार्ग सरस्वती तट के साथ-साथ ही थाlभागवतपुराण में दो बार श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर से द्वारिका और दूसरी बार द्वारिका से हस्तिनापुर आने के समय इस मार्ग का वर्णन अंकित हैlबलराम की द्वारिका से कुरुक्षेत्र की तीर्थयात्रा का मार्ग भी यही रहा हैlइन यात्राओं के क्रम में प्रभास तीर्थ, चमसोद्भेद, शिवोद्भेद, नागोद्भेद, शशयान,उद्पान अथवा सरस्वती कूप,विनशन, सुभूमिक अथवा गन्धर्ववती तीर्थ, गर्गस्त्रोत, शंखतीर्थ, द्वैतवन,नागधन्वा, द्वैपायन सरोवर तीर्थ आदि का नाम महाभारत के वनपर्व एवं शल्य पर्व में अंकित हैंlइन तीर्थों में चमसोद्भेद,शिवोद्भेद और नागोद्भेद ऐसे स्थल हैं जहाँ लुप्त सरस्वती पुनः प्रकट हुई थीlविद्वान कहते हैं, सरस्वती का पराचिन मार्ग यही है जो सूख जाने पर भी कतिपय विशिष्टताओं के कारण तीर्थ रूप में मान्य हो गयेlउद्पान अथवा सरस्वती कूपतीर्थ के सम्बन्ध में महाभारत शल्य पर्व ३५/९० के अनुसार वहाँ औषधियाँ (वृक्ष लताओं) की स्निग्धता और भूमि आर्द्रता से सरस्वती का अनुमान होता हैl शल्य पर्व के अध्याय ४२ के अनुसार वशिष्ठोद्वाह (सरस्वती-अरुणा संगम) से सरस्वती तीर्थ (विश्वामित्र आश्रम) तक सरस्वती द्वारा वशिष्ठ को प्रवाहित कर ले जाने से इसके वेगवती होने का प्रमाण मिलता है लेकिन विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठोद्वाह में सरस्वती का जल एक वर्ष के लिये अपवित्र एवं रक्तयुक्त हो जाता हैlमहाभारत शल्यपर्व ४३/१६ एवं वामन पुराण (स० म०) १९/३० के अनुसार ऋषियों के वरदान से सरस्वती नदी पुनः पवित्र और शुद्ध हो गईlइसी प्रकार महाभारत शल्य पर्व ४३/६ एवं वमन पुराण सरोवर महात्म्य १९/३० में पश्चिम-दक्षिण अभिमुखी सरस्वती के वैसे ही किसी घटना के कारण नागधन्वा तीर्थ से पूर्वाभिमुख होने की कथा भी अंकित हैlइसे आलंकारिक रूप में नैमिषारण्यवासी ऋषियों पर सरस्वती की कथा के रूप में महाभारत शल्य परत्व ३७/३६-६० में कहा गया हैl


विद्वानों के अनुसार सरस्वती-प्रवाह के किन्हीं भौतिक कारणों के परिणामस्वरुप सूख जाने, दूषित एवं शुद्ध होने की कथाओं को पुराणों में शाप एवं वरदान की कथाओं से महिमामण्डित किया गया हैlब्रह्मपुराण १०१/११ के अनुसार उर्वशी के आग्रह पर ब्रह्मसुता सरस्वती पुरुरवा से मिलीlपुरुरवा के साथ सरस्वती के मेल-जोल और उनके घर आने-जाने की बात ब्रह्मा )पिता को अनुचित लगीlइस पर उन्होंने सरस्वती को महानदी होने का शाप दे दियाlइसी अध्याय के सोलहवें श्लोक में ब्रह्मा के शाप से शाप-मोचन हेतु प्राप्त वरदान के कारण सरस्वती के दृश्य एवं अदृश्य दो रूपों की हो जाने की कथा हैlब्रह्मवैवर्त पुराण में अंकित है कि देवी सरस्वती को गंगा के शाप के कारण नदी रूप में अवतरित होना पद थाlमहाभारत शल्य पर्व ३७/१-२ में विनशन तीर्थ के वर्णन में सरस्वती-प्रवाह के सूखने का कारण दुष्कर्म परायण शूद्रों और आभीरों के प्रति द्वेष की कथा अंकित हैlशान्ति पर्व १८५/१५ में सरस्वती के चारों वर्णों के लिये एकमात्र देवी कहा गया हैlमहाभारत में ही अन्यत्र सरस्वती के सूखने का कारण उतथ्य ऋषि का शाप भी कहा हैlमहाभारत पुराणादि ग्रन्थों में ऋषियोंके आह्वान पर विभिन्न स्थानों पर सरस्वती के प्रकट होने की कथा कही गई हैlइसके साथ ही विविध स्थानों प्रकट उन छोटी नदी-कल्याओं को सरस्वती नदी की पवित्रता, महता आदि के साथ जोड़ा गया हैlमहाभारत शल्य पर्व अध्याय ३८ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य अध्याय १६ में ब्रह्मा के आह्वान पर पुष्कर में सुप्रभा,सत्रयाजी मुनियों के कहने पर नैमिशारण्य में कांचनाक्षी, गय के आह्वान पर गया में विशाला, उद्दालक आदि ऋषियों के आह्वान पर उत्तर कोशल में मनोरमा, कुरु के आह्वान पर कुरुक्षेत्र में सुरेणु तथा दक्ष के आह्वान पर गंगाद्वार, वाशिष्ठ के आह्वान पर कुरुक्षेत्र में ओधवती तथा ब्रह्मा के आह्वान पर हिमालय में विमलोदका नाम से सरस्वती के प्रकट होने की कथा अंकित हैlमंकणक ऋषि ने उपर्युक्त सातों सरस्वतियों (नदियों) को कुरुक्षेत्र में आह्वान कर जिस स्थान पर स्थापित किया था वह सप्त सरस्वती तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हैl

वैदिक साहित्यों में अंकित सरस्वती नदी को पौराणिक काल में सूख जाने के पश्चात पुराणादि ग्रन्थों में अनेकानेक स्थानों पर पुण्यसलिला एवं सरित्श्रेष्ठ कहते हुए अत्यन्त महता प्रदान की गई है तथा पुराणों में ही सरस्वती के देवी रूप में मान्यता भी पूर्णता को प्राप्त होती हैlअनेक ऋषियों के स्तुति इसके प्रमाण ही हैंlमहाभारत शल्य पर्व अध्याय ४२ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य अध्याय १९ में वशिष्ठ ऋषि सरस्वती नदी को स्तुति करते हुए उसे पुष्टि,कीर्ति, धृत्ति, बुद्धि, उमा,वाणी और स्वाहा,क्षमा, कान्ति,स्वधा आदि जगत् को अपने अधीन रखने वाली एवं सभी प्राणियों में चार रूपों- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी में निवास करने वाली कहा हैlयह स्तुति सरस्वती को नदी रूप की अपेक्षा देवता रूप को ही महिमामण्डित करता हैl
वेद-पुराणादि ग्रन्थों में अंकित इन वर्णनों से कतिपय विद्वानों के अनुसार सरस्वती मूलतः नदी थी जो हिमालय से निकलकर  पश्चिमी समुद्र में जा मिलती थीlकालान्तर में भौगोलिक कारणों से सरस्वती सूख गई फिर भी उसकी दृश्य भौतिक नदी रूप से होने वाले अनगिनत लाभों को देखते हुए वैदिक एवं पौराणिक श्लोकों में उसे नदीतमे और अम्बितमे ही नहीं देवितमे भी स्वीकार किया गया हैlधीरे-धीरे सरस्वती नदी रूप की अपेक्षा देवता रूप में ही अधिक स्वीकृत, अंगीकृत और आत्मार्पित की गई,इसके साथ ही सरस्वती की देवी रूप ही प्रमुखता प्राप्त कर लोक आराध्या बन गई और वर्तमान में मार्ग शीर्ष अर्थात माघ मास के पञ्चमी,जिसे वसन्तपञ्चमी के नाम से जाना जाता है, को अत्यन्त धूम-धाम के साथ समारोहपूर्वक देवी सरस्वती की प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चा की जाती है l


Thursday, January 22, 2015

भयंकर भूलों का परिणाम जम्मू-कश्मीर समस्या -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची,  झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - २१ / ०१ /२०१५ को सम्पादकीय पृष्ठ में प्रकाशित लेख - भयंकर भूलों का परिणाम जम्मू - कश्मीर समस्या


भयंकर भूलों का परिणाम जम्मू-कश्मीर समस्या
-          -अशोक प्रवृद्ध


इतिहास की भयंकर भूलों के कारण राष्ट्र को क्षत्ति पहुंची है और इससे देश व राज्यों के सत्ता प्रतिष्ठानों में विविध प्रकार की भूलें, अव्यवस्था व अनाचार सर्वत्र व्याप्त हैं, परन्तु उन भूलों को सुधारने का ढंग देश के नैतिक पतन के कारण असम्भव हो रहा है l वर्तमान में देश के कई राज्य केन्द्र के अधीन रहना नहीं चाहतेlकश्मीर तो पहले ही दूध पीने वाला मजनू बना हुआ है lकुछ वर्ष पूर्व पंजाब में ऐसी ही परिस्थिति थी जैसी कश्मीर में है lवर्तमान में असम में भी ऐसी ही परिस्थिति बनती जा रही है lभले हम खुल-ए-आम स्वीकार न करें परन्तु पश्चिम बंगाल के कुछ जिले और सीमान्त प्रदेशों के कई क्षेत्रों की भी यही स्थिति है lकहने का अभिप्राय यह है कि पंजाब में तो अलगाववाद की भावना को शीघ्र ही कुचल दिया गया परन्तु वर्तमान में असम और अन्यान्य क्षेत्रों में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती जा रही है जैसे कि कश्मीर में है l कश्मीर-पंजाब अथवा कश्मीर-असम में समानता नहीं थी अथवा नहीं है, परन्तु समानता प्रकट की जा रही है lकश्मीर की विशेष स्थिति इस कारण स्वीकार की जा रही कही जाती है क्योंकि वहाँ मुसलमानों की जनसँख्या अत्यधिक है lकश्मीर के मुसलमानों की रुचि तो पाकिस्तान के साथ मिल जाने की थी lएक समय कश्मीर के प्रधानमंत्री ने यत्न भी किया था कि वह भागकर पाकिस्तान चला जाए और वहाँ से कश्मीर को भारतवर्ष से पृथक करने का यत्न करे lयह यत्न सफल नहीं हो सका l एक अन्य समय कश्मीर के मुख्यमंत्री ने कुछ ऐसा वक्तव्य दे दिया था कि भारतवर्ष से स्वतंत्र होना चाहता है और इसमें उसने संयुक्त राज्य अमेरिका की सहायता भी माँगी थी lभारतवर्ष के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने अपने न जाने किन सम्बन्धों के कारण उस मुख्यमंत्री को राजद्रोह में बन्दी बनाये जाने से रोका था lयह तो अब स्पष्ट हो चुका है कि कश्मीर एक ऐसी स्थिति प्राप्त कर चुका है कि इसका सम्बन्ध केन्द्र से अत्यन्त ढीला हैlप्रचण्ड बहुँमत के साथ केन्द्र में सत्तासीन और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव २०१५ में राज्य में दूसरे स्थान पर रही भारतीय जनता पार्टी के अथक प्रयासों के बावजूद राज्य में सरकार गठन हेतु भाजपा का पी डी पी अथवा नेशनल कोंफ्रेंस आदि राज्य की पार्टी तक को साध नहीं पाना भी केन्द्र-राज्य सम्बन्ध को भली-भान्ति प्रकट कर रहा है कि क्या और कैसी कठिनाई है?कहने का अभिप्राय यह है कि भारतवर्ष विभाजन के पश्चात भी केन्द्र सरकारों के छद्म धर्मनिरपेक्ष रवैयों के कारण जम्मू-कश्मीर के साथ केन्द्र का संबद्ध अत्यन्त ढीला हैl यदि कहीं पाकिस्तान की अवस्था अच्छी होती तो और वहाँ से उसे स्वतन्त्रता में सम्मिलित होने की सुविधा होती तो कई वर्ष पूर्व कश्मीर पाकिस्तान में सम्मिलित हो चुका होताlपाकिस्तान की कठिनाई यह रही है कि कश्मीर को पाकिस्तान की वर्तमान समस्या से एक अंश मात्र भी अधिक स्वतन्त्रता की आशा ही नहीं हैl

पँजाब में भी एक ऐसे पन्थ के लोग बसे हुए हैं जो अपने को हिन्दुओं से वैसे ही पृथक् समझने लगे हैं जैसे मुसलमान हैंlसिक्ख हिन्दुओं से भिन्न मत नहीं,परन्तु कुछ मिथ्या प्रचार के कारण सिक्ख अपने आपको एक पृथक मत मानने लगे हैंlउधर असम और सीमावर्ती प्रदेशों में भी देश से बाहर से आकर ऐसे लोग बस गये हैं जो हिन्दू मत से भिन्न मत मानने वाले हैंlपरिणामस्वरूप वर्तमान झगड़ा हैlपूर्व में सिक्खों के झगड़े को उसी ढंग से निपटाने का यत्न किया गया है जैसा कश्मीर के मुआमिले कोlपरिणामस्वरूप अकालियों का आनन्दपुर प्रस्ताव उतना ही भानयुक्त हो गया है जैसा कुरआन का यह कहना जो मुहम्मद साहब पर ईमान नहीं लाता वह काफिर हैऔर वह निःशेष किये जाने के योग्य हैlइस प्रस्ताव के परिप्रेक्ष्य में दो महान भूलें हुयी हैंlएक तो मजहब और राज्य को परस्पर सम्बंधित माना गया हैlयह क्यों माना जाता है,यह परम्परा भी पहले बौद्धों ने फिर ईसाईयों ने और फिर मुसलमानों ने निर्माण कीlउस पर मुसलामानों में यह व्यवहार आज भी माना जाता है और प्रायः उन देशों में जहाँ मुसलमानों की संख्या कुछ अधिक है,राज्य के ;लिये झगड़ा हो रहा हैlयह झगड़ा ब्रिटिश काल में मुसलमानों ने भारतवर्ष से आरम्भ किया थाlअंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिये इस झगड़े को हवा दी थीlयह नहीं कि भारतवर्ष में झगड़ा अंग्रेजों ने उत्पन्न किया था,वरन झगड़ा इस्लामी मजहब के कारण हैlयहाँ मजहब और राज्य में अन्तर नहीं मन जाताlअंग्रेजों ने तो अपने स्वार्थ के लिये इसका प्रयोग कियाl परिणामस्वरूप भारतवर्ष विभाजन हुआlकुछ वर्ष पूर्व वही झगड़ा अकालियों ने आरम्भ की थीlप्रायः सिक्ख समुदाय के लोग इसको व्यर्थ की बात मानते हुए भी सहन कर रहे थेlअकाली सिक्ख मत को न केवल गुरुग्रन्थ साहब में उल्लिखित सिद्धान्तों का स्रोत मानते हैं वरन पाँच ककारों को भी इसका एक अंग मानने लगे हैंlसाथ ही इन मजहबी चिह्नों के साथ राज्य का भी सम्बन्ध मानने लगे हैंlयह स्थिति केवल पँजाब ही नहीं अपितु असम,नागालैण्ड,त्रिपुरा और मेघालय में भी उपस्थित हैlयह अस्वाभाविक स्थिति हैlभारतवर्ष में आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू मुख्य समाज के रूप में हैlसमाज का अभिप्राय है वह जन समुदाय समूह जिसमें जीवन के विधि-विधान समान हैंlयदि देशमें सब लोग एक समान विधि-विधान के रखने वाले हों तब तो राज्य उन विधि-विधानों में एक सीमा तक हस्तक्षेप कर सकता है,परन्तु जब एक से अधिक जीवन-विधि वाले लोग देश में रहते हैं तो राज्य उन विधि-विधानों में हेर-फेर नहीं कर सकताlयदि करेगा तो वह किसी एक समुदाय से रियायत अथवा विरोध करता हुआ माना जाएगाlऐसी स्थिति में राज्य और सामाजिक व्यवहार के बीच सीमा-रेखा खींचनी पडेगीlजहाँ तक राज्य का है,यह सीमा-रेखा सब समुदायों के लिये समान हो सकती हैlयह १९५०-१९५२ में निर्मित संविधान में नहीं हो सकाlकश्मीर,मुस्लिमों की,तथा सिक्ख समुदाय की समस्या और एक सीमा तक ईसाईयों की समस्या भी राज्य के कार्यक्षेत्र की सीमा से बाहर की हैlसंविधान निर्माताओं में या तो बुद्धि नहीं थी कि वह इस विषय पर विचार कर सकते अथवा थी तो उनके मन में कुटिलता थी,जो हिन्दू-मुसलमान-ईसाई इत्यादि समुदायों के लिये पृथक-पृथक क़ानून बनाने लगे थे lउदाहरण के रूप में कश्मीर का विषय ही लिया जा सकता हैlसंविधान में उल्लिखित है कि मजहब का राज्य में हस्तक्षेप नहीं होगाlइसका यह भी अभिप्राय है कि राज्य का किसी भी मजहब में हस्तक्षेप नहीं हो सकताlअतः जब संविधान में कश्मीर का प्रश्न उपस्थित हुआ तो इसके लिये विशेषाधिकार किस लिये रखे गये और यदि रखे गये तो जब हैदराबाद का विलय भारतवर्ष में हुआ तो उसके लिये किसी विशेषता की बात क्यों नहीं विचार की गयी?हमारे कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि हैदराबाद को भी वैसे ही विशेषाधिकार दिए जाते जैसे कश्मीर को दिए गये थे,बल्कि कश्मीर का विलय भारतवर्ष के साथ वैसा ही होना चाहिये था जैसा हैदराबाद का हुआ थाlएक में मुस्लिम जन्संझ्या बहुसंख्या में थी और शासक हिन्दू था तो दूसरे में हिन्दू जनसँख्या अधिक थी और शासक मुसलमान थाlकश्मीर में छाँटकर एक ऐसा शासक नियुक्त कर दिया गया जिसका पूर्व इतिहास फिरकापरस्त रह चुका थाlकश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस में दो-चार हिन्दू सम्मिलित कर लेने से वह मुस्लिम मजलिस कश्मीरी अथवा मजहब से ऊपर नहीं समझी जा सकती थीlभारतीय पुरातन शास्त्रों के ज्ञाताओं और पुरातन राजनीतिक पद्धत्ति की समझ रखने वाले विद्वतजनों के अनुसार मजहब और राज्य की सीमा-रेखा खींच दी जाती और फिर कश्मीर को पँजाब,उत्तरप्रदेशादि राज्यों के समान रखा जा सकता थाlपरन्तु ऐसा नहीं हुआ,यह क्यों?इसका कारण यह है कि भारतवर्ष विभाजन के पश्चात १९४७ में जो अधिकारी बने थे उनमें सूझ-बूझ नहीं थीlउनमें न तो राज्य करने की बुद्धि थी और न ही लोककल्याण करने की भावनाlपरिणामतः वर्तमान भारतवर्ष में शासन में त्रुटियाँ चहुँओर दृष्टिगोचर हो रही हैlइसका मूल कारण शासक और संविधान में दोष होना हैlतत्कालीन शासक न तो राज्य के अधिकार की सीमा जानते थे न ही उनको यह ज्ञान था कि भारतवर्ष जैसे बहुसमुदाय वाले देश में राज्य के बाहर क्या है और न ही राज्य के भीतर क्या है?



अंधेर नगरी चौपट राजा -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची,  झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - १९ / ०१ /२०१५ को सम्पादकीय पृष्ठ में प्रकाशित लेख - अँधेर नगरी चौपट राजा

अंधेर नगरी चौपट राजा 
-अशोक “प्रवृद्ध”


सनातन वैदिक परम्परा में वर्णाश्रम धर्म एवं चार वर्णों को आधार माना जाता है, परन्तु वर्तमान में इसका जो रूप हमें दिखायी देता है, वह वैदिक शास्त्रों की परिभाषा के सर्वथा विपरीत है।वर्णाश्रम व्यवस्था एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था आदि सनातन काल से सदैव ही समाज में रही है और सृष्टिपर्यन्त संसार में रहेगी । अगर हम कहें कि वैश्विसक किरणें ( cosmic rays) प्रत्येक वस्तु या वाणी पर अपना प्रभाव डालती हैं, तो यह मात्र हमारी कल्पना नहीं अपितु अटल सत्य है । वर्णाश्रम व्यवस्था चातुर्वर्ण्य व्यवस्था सम्पूर्ण मानव जाति की वास्तविक अवस्था है, जिसका अन्वेषण एवं धारणा वैदिक ऋषि-मुनियों के द्वारा की गयी है। वर्तमान में हिन्दु समाज में जिस जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच का भेदभाव या छूआछूत की बात होती है वह वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में कहीं नहीं है । वर्तमान व्यवस्था स्वार्थी एवं पाखण्डी लोगों एवं तथाकथित धर्म एवं सत्ता के गठजोड़ की ही देन हैं ।
भारतीय समाज-शास्त्र में समाज को चार वर्गों में विभक्त किया गया है lयह विभाजन ईश्वरीय विभाजन है। श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है -
चातुर्वर्ण्या मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः।
- श्रीमद्भगवतगीता-४ - १३
परमात्मा ने जब मानव की सृष्टि की तो उसको गुण, कर्म तथा स्वभाव से चार प्रकार का बनाया। ये वर्ण भारतीय शब्द कोष में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नाम से जाने जाते हैं। शासन करना और देश की रक्षा करना क्षत्रियों का कार्य है। ब्राह्मण स्वभाववश क्षत्रिय का कार्य करने के अयोग्य होते हैं। ब्राह्मण का कार्य विद्या का विस्तार करना है। मानव समाज में ये दोनों वर्ग श्रेष्ठ माने गये हैं। वर्तमान युग में ब्राह्मण और क्षत्रिय, मानव समाज  का प्रतिनिधि राज्य है और राज्य स्वामी है क्षत्रिय वर्ग का भी और ब्राह्मण वर्ग का भी। शूद्र उस वर्ग का नाम है जो अपने स्वामी की आज्ञा पर कार्य करे और उस कार्य के भले-बुरे परिणाम का उत्तरदायी न हो। आज उत्तरदायी राज्य है। ब्राह्मण (अध्यापक वर्ग)  और क्षत्रिय (सैनिक) वर्ग राज्य की आज्ञा का पालन करते हुए भले-बुरे परिणाम के उत्तरदायी नहीं हैं। इसी कारण वे शूद्र वृत्ति के लोग बन गये हैं। यह बात भारत-चीन के सीमावर्ती झगड़े से और भी स्पष्ट हो गई है। मंत्रिमण्डल जिसमें से एक भी व्यक्ति, कभी किसी सेना कार्य में नहीं रहा, 1962 की पराजय तथा 1952-1962 तक के पूर्ण पीछे हटने के कार्य का उत्तरदायी है और राज्य-संचालन में क्षत्रियों (सेना) का तथा ब्राह्मणों (अध्यापक वर्ग) का अधिकार नहीं है।
भारतवर्ष का विधान ऐसा है कि इसमें ‘अँधेरे नगरी गबरगंड (चौपट) राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’ वाली बात है। सकतीlसमानता प्रजातान्त्रिक पद्धत्ति का मुख्य दोष हैlप्रजातंत्र में सब धन बाईस पसेरी होता हैlउसका परिणाम यह होता है कि धूर्तों की बन आती हैlधूर्त बलशालियों से समझौता करके प्रजातंत्र के स्थान पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से तानाशाही ही स्थापित करते हैंl एक विश्व-विद्यालय के उपकुलपति अर्थात वाइस-चांसलर अथवा उच्चकोटि के विद्वान को भी मतदान का अधिकार है। उसी प्रकार उसके घर में चौका-बासन करने वाली कहारन को भी मतदान का अधिकार है। देश में अनपढ़ ,मूर्खों और अनुभव विहीनों की संख्या बहुत अधिक है। वयस्क मतदान से राज्य इन्हीं लोगों का है। दूसरे शब्दों में ब्राह्मण वर्ग (पढ़े-लिखे विद्वान) और क्षत्रिय वर्ग के लोग इनके दास हैं। यह कहा जाता है कि यही व्यवस्था अमरीका, इंग्लैंड इत्यादि देशों में भी है lयदि वहाँ कार्य चल रहा है तो यहाँ क्यों नहीं चल सकता ? परन्तु हम भूल जाते हैं कि प्रथम और द्वितीय विश्वव्यापी युद्ध और उन युद्धों के परिणामस्वरूप संधियाँ एवं युद्धोपरान्त की निस्तेजता इसी कारण हुई थी कि इन देशों के राज्य जनमत से निर्मित संसदों के हाथ में था। प्रथम युद्ध में सेनाओं ने जर्मनी को परास्त किया, परन्तु संधि के समय अमरीका तो भाग कर तटस्थ हो बैठ गया। वुडरो विलसन चाहता था कि अमरीका ‘लीग ऑफ नेशंज़’ में बैठकर विश्व की राजनीति में सक्रिय प्रकार भाग ले, परन्तु अमरीका की जनता ने उसको प्रधान नहीं चुना। इसी प्रकार वे वकील जो योरोपियन राज्यों के प्रतिनिधि बन वारसेल्ज की संधि करने बैठे तो उनमें न ब्राह्मणों की-सी उदारता थी, न क्षत्रियों का-सा तेज। वे बनियों (दुकानदारों) और शूद्रों (मजदूर वर्ग) के प्रतिनिधि वारसेल्ज जैसी अन्यायपूर्ण, अयुक्तिसंगत और अदूरदर्शिता- पूर्ण संधि पर हास्ताक्षर कर बैठे। दूसरे युद्ध का एक कारण वारसेल्ज की संधि थी और इंग्लैंड की पार्लियामेंट तथा फ्रांस की कौंसिल की मानसिक और व्यवहारिक दुर्बलता दूसरा कारण थी।
द्वितीय विश्व युद्ध में अमरीकन मिथ्या नीति के कारण ही स्टालिन मध्य और पूर्वी योरोप तथा चीन पर अपने पंख फैला सका था। इस समय भी प्रायः संसदीय प्रजातंत्रात्मक देशों में शूद्र और बनिये राज्य करते हैं। हमारा कहने का अभिप्राय है, वे लोग राज्य करते हैं जो शूद्र और बनियों को प्रसन्न करने की बातें कर सकते हैं। और क्षत्रिय तो इन नेताओं के सेवक मात्र (वेतनधारी दास) हो गये अनुभव करते हैं यही कारण है कि दिन-प्रतिदिन विश्व की दशा बिगड़ती जाती है। संसार में दुष्ट लोगों का अभाव नहीं हो सकता। आदि सृष्टि से लेकर कोई ऐसा काल नहीं आया, जब आसुरी प्रवृत्ति के लोग निर्मूल हो गये हों।
इसका स्वाभाविक परिणाम यह निकलता है कि संसार में युद्ध निःशेष नहीं किये जा सकते। युद्ध इन आसुरी प्रवृत्ति के मनुष्यों की करणी का फल ही होते हैं। अतः दैवी सम्पत्ति के मानवों को, उन असुरों को नियंत्रण में रखने के हेतु सदा युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए। युद्ध में विजय क्षत्रिय स्वभाव के लोगों में शौर्य, शारीरिक तथा मानसिक बल और ईश्वरीय-परायणता के कारण प्राप्त होती है। इसी प्रकार जाति की शिक्षा तथा नीति का संचालन देश के ब्राह्मणों (विद्वानों) के हाथ में होना चाहिए। उनके कार्य में बनियों और शूद्रों का हस्ताक्षेप, यहाँ तक कि क्षत्रियों का नियन्त्रण भी, विनाशकारी सिद्ध होता है।
देश का संविधान ऐसा होना चाहिए कि गुण कर्म स्वभाव से ये मानव वर्ग अपने–अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र कार्य करते हुए भी, देश के न्याय- शास्त्रियों द्वारा समन्वय से कार्य करें। न्याय परायण लोग सदा यह देखें कि कोई वर्ग किसी दूसरे वर्ग-क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप न कर सके। युद्ध लड़े जाते हैं। शान्ति स्थापना के लिए, परन्तु शान्ति काल में वैश्य तथा शूद्र प्रवृत्ति के लोग ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग पर अपना प्रभुत्व जमा कर पुनः युद्घ के लिए क्षेत्र की तैयारी में लग जाते हैं। ये दोनों वर्ग युद्ध से भयभीत आसुरी प्रवृत्ति के मनुष्यों को नियंत्रण में रखने में अशक्त होते हैं। ऐसे शान्ति काल में असुर-फलते-फूलते हैं और श्रेष्ठ लोगों को कष्ट देना अपना अधिकार मानने लगते हैं। सर्वत्र और सदा शान्ति, मानव समाज में श्रेष्ठ प्रवृत्ति के लोगों के निरंतर अधिकार से प्राप्त हो सकती है। श्रेष्ठता, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्य-वृत्ति और शूद्रों में संतुलन के लिए शान्ति-प्रिय लोगों को यत्नशील रहना चाहिए। इस संतुलन को रखने में न्याय शास्त्री ब्राह्मण ही योग्य हैं, परन्तु ये वयस्क मतदान से न तो निर्माण होते हैं न ही निर्वाचित होते हैं।


Wednesday, January 14, 2015

वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढाता नागफेनी के मकरध्वज भगवान की रथयात्रा - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से  प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर मेदिनांक - १४ / ०१ / २०१५ को प्रकाशित आलेख -वसुधैव कुतुम्बकम का पाठ पढ़ाता नागफेनी के मकरध्वज भगवान की रथयात्रा



वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढाता नागफेनी के मकरध्वज भगवान की रथयात्रा 
- अशोक “प्रवृद्ध”

भारतीय संस्कृति की अति प्राचीन उदार-उज्जवल परम्परा में अखिल विश्व को अपना परिवार मानने की सूक्ति “वसुधैव कुटुम्बकम” को चरितार्थ करने वाला दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नागफेनी की मकरध्वज भगवान की रथयात्रा सहस्त्रों लोगों के प्रगाढ़ महामिलन का एक अति विशिष्ट उदाहरण हैlप्रत्तिवर्ष मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर चौदह जनवरी को बड़े ही धूम-धाम के साथ आयोजित होने वाली रथयात्रा के समय उमड़ता जनशैलाब दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ जलप्रपात,जिसे स्थानीय लोग घाघ कहते हैं, में स्नान कर भगवान जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर की पवित्रतम छाया में बगैर किसी भेद-भाव के आपस में मिल-जुलकर दही-चुरा एवं तिल के लड्डू का क्रय कर प्रसाद (परसाद) के ग्रहण करता हैlमकर संक्रान्ति के अतिरिक्त भी प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को भगवान जगन्नाथ की चलती रथयात्र तथा उसके नवें दिन आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी को जगन्नाथ की घुरती अर्थात वापसी रथयात्रा नागफेनी के दक्षिण कोयल नदी के तट पर आयोजित की जाती हैl

मन्दिर की ऐतिहासिकता
झारखण्ड प्रान्त के गुमला जिला मुख्यालय से अठारह किलोमीर उत्तर-पूर्व के कोण पर सिसई प्रखण्डान्तर्गत मुरगु ग्राम-पञ्चायत के नागफेनी गाँव में दक्षिणी कोयल नदी के तट पर बाँस-झुण्ड के मध्य भगवान श्री जगन्नाथ महाप्रभु के भव्य ऐतिहासिक मन्दिर का निर्माण रातूगढ़ के महाराजा श्री रघुनाथ शाह ने विक्रम सम्वत १७६१ में करवाया थाlरघुनाथ शाह विक्रम सम्वत १७३१ से १७६७ तक लगभग ३६ वर्षों तक रातूगढ़ के महाराजा थेlरघुनाथ शाह छोटानागपुर के राजपरिवार नागवंशी महाराजाओं की परम्परा में ४९वें महराजा थेl

प्रकृति के इस रमणीय छोटे-छोटे शिलाखण्डों के मध्य बहती दक्षिणी कोयल नदी के तट एवं पहाड़ी के नीचे बसे समसार आदिवासी बहुल इलाके में पतित पावन शक्ति,भक्ति,श्रद्धा एवं असीम अनुकम्पा के प्रतीक भगवन जगन्नाथ महाप्रभु का यह मन्दिर सचमुच ही भारतवर्ष की अतिप्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर है,लेकिन अत्यन्त क्षोभनीय बात है कि छोटानागपुर के राजवंश नागवंशी महाराजाओं के द्वारा धन्य-धान्य हेतु हजारों एकड़ जमींन, जायदाद, बाग-बगीचादि चल-अचल सम्पति और सोना-चांदी आदि कीमती धातुओं के भूषण जेवरातादि के माध्यम से वित्तपोषित इस मन्दिर के पुजाई व कर्ता-धर्ताओं द्वारा सरकारी लाभ की प्राप्ति की प्रत्याशा मे,जो आपसी सामंजस्य के कारण अन्ततः नहीं मिल सकी,मन्दिर की उचित देख्भाल्के अव्भाव में मन्दिर-प्राँगनके कुछ भाग टूटने के कगार पर पहुँच चुके हैं और कुछ भाग नवनिर्माण के नाम पर किये गये मरम्मतादि कार्यों से मन्दिर की पुरातनता और वास्तविकता नष्ट हो गयी हैl
दक्षिणी कोयल नदी के तट पर चास-तालचर को जोड़ने वाली राष्ट्रीय उच्च पथ संख्या २३ अब १३४ पर अवस्थित नागफेनी के जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर-निर्माण से सम्बंधित पौराणिक कथा के बैव में मन्दिर के वर्तमान सेवक एवं पुजारी श्री मनोहर पण्डा बतलाते हैं कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन भगवान श्रीकृष्ण एवं उनके अग्रज बलभद्र अपनी परम प्यारी बहन सुभद्रा को अपने रथ बिठाकर व्याहने हेतु ले जा रहे थे,तब इस अति मनोहर दृश्य को देखकर सुभद्रा ने भगवान श्रीकृष्ण को कहा कि आप राधा,रुक्मिणी एवं लक्ष्मी के साथ भिन्न-भिन्न रूपों में विभिन्न तीर्थों में प्रतिष्ठित-पूजित हैं,मगर भाई-बहन के पवित्रतम प्रेम का भी एक तीर्थ होना चाहियेlइस बात को सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा,कलियुग में मेरा जगन्नाथ रूप होगा तथा जगन्नाथपुरी में हम बहन-भाइयों के अमर प्रेम के रूप में प्रतिष्ठित होंगे तथा इसी भक्ति-भाव से तीनों बहन-भाइयों की एक साथ पूजा-अर्चना होगीlवर्तमान में उडीसा के जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ मन्दिर में जगन्नाथ रूप में श्रीकृष्ण,बलराम और सुभद्रा की भव्य काष्ठ-मूर्ति प्रतिष्ठित है,जिसकी नित्यप्रति और आषाढ़ मास में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है और आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से एकादशी तक रथयात्रा निकाली व उत्सव मनाई जाती हैlश्रीपण्डा आगे बतलाते हैं-विक्रम सम्वत के अनुसार जब कुछ् वर्षों पर  मलमास के रूप में दो आषाढ़ एक ही वर्ष में पड़ते हैं तब जगन्नाथपुरी के मन्दिर की मूर्ति को बदला जाता हैlइसी क्रम में परिवर्तित जगन्नाथ की मूर्ति को लाकर रघुनाथ शाह महाराजा ने नागफेनी स्थित जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर में प्रतिष्ठित किया था तथा उड़ीसा से ही पण्डों को लाकर मन्दिर के पुजारी के रूप में नियुक्त किया था एवं पुजारी व उसके परिजनों के जीवन-यापन हेतु जमीन-जायदाद प्रदान की थीlगौर की बात है कि आज भी पुजारी एव्म्गँव के अन्य परिवार के लोग आपसी वार्तालाप में ओड़िया भाषा का ही प्रयोग करते हैंl
प्रारम्भिक आवास के प्रतीक
भारी वाहनों के द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली मुम्बई-कोलकाता मार्ग सह राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या २३ अब १३४ पर अवस्थित मुरगु मोड़ नागफेनी के होटल के मालिक जो कि इसी क्षेत्र के निवासी हैं, के अनुसार भगवान जगन्नाथ के नागफेनी पहुँचने पर प्रारम्भिक दिनों में ठहरने के स्थान पर ही आज मौसी बाड़ी (उड़ीसा स्थित जगन्नाथपुरी मेंजिसे गुण्डिचा गढ़ी कहा जाता है) अवस्थित हैlमौसी बारी के सामने चिकने पत्थर रुपी अवशेष आज भी यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैंlइन पत्थरों को भगवान जगन्नाथ के यहाँ आने के पश्चात प्रारम्भिक दिनों के अवशेष जानकर यहाँ के स्थानीय निवासी आज भी विशेष आदर भाव की नजरों से देखते हैंlवर्तमान में साप्ताहिक हाट के दिनों में मौसी बाड़ी के समक्ष शराब तथा हड़िया (चावल से बनी एक प्रकार की शराब) की बिक्री भी की जाने लगी है,लेकिन मद्यपान हेतु इन चिकने पत्थरों पर बैठने वाले ग्राहकों को पत्थरों पर बैठने से मना किया जाता हैlकारण पूछे जाने पर स्थानीय लोग व मन्दिर के सेवाक्व पुजारी वही आस्था दुहराते हैंl

आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन श्री जगन्नाथ महाप्रभु की रथयात्रा काष्ठ निर्मित रथ पर बायीं ओर भगवान जगन्नाथ,मध्य में बहन सुभद्रा एवं दायीं ओर बलभद्र स्वामीजी की मूर्तियाँ रखकर करीब एक किलोमीटर के अन्तराल पर अवस्थित मौसी बाड़ी तक बड़ी ही धूमधाम व समारोहपूर्वक लायी जाती हैlइस रथयात्रा को जगन्नाथ की चलती रथयात्रा के नाम से जाना जाता हैlमौसी बाड़ी में भगवान जगन्नाथ आठ दिनों तक निवास करते हैंlनवें दिन आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को रथ पर आरूढ़ हो वापस अपने मूलमन्दिर लौट आते हैंlइस वापसी रथयात्रा को जगन्नाथ की घुरती रथयात्रा कहा जाता हैlइन दिनों में भगवान के दर्शन का अति महत्व होने के कारण स्थानीय लोग बहुत बड़ी संख्या में मेले में दर्शन के लिये आते हैंlमेले से पूर्व ही ज्येष्ठ मॉस की पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ को स्नान कराकर नवीन वस्त्र धारण कराने की परिपाटी है, जिसे स्थानीय लोग स्नान जतरा के नाम से जानते हैंlज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन रात्रि में एक मेले का आयोजन किया जाता है,जिसमें आदिवासी युवक-युवतियाँ अपने खोढ़ों (समूहों) के साथ अपना-अपना झण्डा लिये नृत्य-गान करते हैंlमेले की समाप्ति पर सभी खोढ़ों को एक-एक झण्डा उपहार के रूप में दिया जाता हैlज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ के स्नानादि कार्यक्रम की समाप्ति के साथ ही स्थानीय लोग चलती रथयात्रा की बेसब्री से इन्तजार करने लगते हैंl

प्रतिवर्ष आषाढ़ मास में लगने वाली इन रथयात्राओं के अतिरिक्त मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर १४ जनवरी को प्रतिवर्ष एक दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता हैlमकर संक्रान्ति के अवसर पर १४ जनवरी को भी नागफेनी स्थित भगवान जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर से भगवान बलभद्र अर्थात मकरध्वज की सवारी रथयात्रा के रूप में निकली जाती हैlयह रथयात्रा मूलमन्दिर से मौसी बाड़ी तक चलती हैlभगवान का मौसी बड़ी में समुचित सेवा-सत्कार किया जाता है तथा उसी दिन सन्ध्या काल मौसी बाड़ी से बलभद्र की सवारी वापस अपने मूलमन्दिर लौटती हैl मकर संक्रान्ति के अवसर चौदह जनवरी आयोजित होने नागफेनी के माघ मेला के प्रारंभ होने की पौराणिक कथा बतलाते हुए मन्दिर के पुजारी सह सेवक मनोहर पण्डा कहते हैं,उड़ीसा प्रदेश के तालचेर ढेंकानाल नामक स्थान में एक गरीब ब्राह्मण अपनी दो पत्नियोंके साथ रहता थाlदो पत्नियों का स्वामी होने के बावजूद उसका एक भी सन्तान नहीं थाlदोनों पत्नियों की परस्पर सहमति के पश्चात उसने तीसरी शादी कीlतीसरी पेनी से उसे सात पुत्रों की प्राप्ति हुयीlवह गरीब ब्राह्मण बलभद्र स्वामी का परम भक्त थाlपुत्रों के बड़े होने पर दो छोटे पुत्रों को छोड़ सभी पुत्रों का व्याह कर दिया,परन्तु काल के क्र्रूर पंजों ने उसके सातों पुत्रों तथा निःसंतान पत्नियों को छीन लियाlभगवान बलभद्र की नित्य पूजा-अर्चना करने के पश्चात ही अन्न-जल ग्रहण करने वाले उस गरीब ब्राह्मण ने अपने परिवार की ऐसी दुर्गात्ति होते देख क्रोधित हो बलभद्र की मूर्ति को गाँव के निकट बहने वाली एक नदी में प्रवाहित कर दियाlबलभद्र की वह मूर्ति इसके-उसके हाथों में होती हुयी दक्षिणी कोयल नदी के नागफेनी ग्राम के समीप स्थित अम्बाघाघ नामक जलप्रपात में बाढ़ के जल के साथ आकार अटक गयीlनागफेनी के जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर के तत्कालीन सेवक एवं पुजारी कृपासिन्धु पण्डा को इस पिछली सदी के प्रारम्भिक वर्षों में एक रात रात्रिकाल में सपना दिखलायी दियाlस्वप्न में बलभद्र स्वामी ने पुजारी कृपासिन्धु पण्डा को बतलाया कि दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ नामक स्थान में बाढ़ के जल के साथ बहता हुआ आकार मैं अटक गया हूँlमूर्ति को दक्षिणी कोयल नदी से निकालकर भगवान जगन्नाथ स्वामी के मन्दिर में विधिपूर्वक स्थापित करो तथा प्रतिदिन मेरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करते हुए मकर-संक्रान्ति के शुभ अवसर पर,जब सूर्य उत्तरायण होते हैं,तब एक भव्य मेले का आयोजन करने कीई व्यवस्था करो,तुम्हारे एवं समस्त ग्रामवासी का कल्याण होगाlपहचान के रूप में नदी तट पर घाघ में ग्रामदेवता नाग मेरी मूर्ति की रक्षा में तत्पर हैंlप्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त्त होते ही कृपासिन्धु पण्डा ने ग्रामवासियों के सहयोग से मूर्ति को निकालकर मन्दिर में विधिवत स्थापित कर दियाlनित्यप्रति सेवा,पूजा-अर्चना करते हुए मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर मेले का भी आयोजन पण्डा के द्वारा किया गयाlमकर संक्रांति के पावन अवसर पर भगवान के आदेशानुसार मेले का आयोजन होने के कारण पुजारी कृपासिन्धु पण्डा ने भगवान को मकरध्वज नामकरण कियाl तब से ही मकरध्वज भगवान की नित्यप्रति सेवा करते हुए मकर संक्रान्ति के अवसर पर दक्षिणी कोयल नदी तट पर मकरध्वज भगवान की रथयात्रा निकाली जाती हैl


मकर संक्रान्ति  के अवसर पर समस्त भारतवर्ष के हिन्दू समाज में नदी-स्नान की अतिपावनकारी पुरातन परम्परा होने के कारण १४ जनवरी को दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नागफेनी की रथयात्रा का विशेष महत्व हैlइस मेले का आयोजन १४ जनवरी को निश्चितरूपेण किया जाता है,भले ही पूस अथवा मार्गशीर्ष अर्थात माघ का महीना हो,स्थानीय लोग इसे माघ मेले के नाम से जानते हैंlहाल के वर्षों में सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करने का समय बढकर १५ जनवरी को होने का ज्योतिषीय निर्णय घोषित किये जाने बावजूद नागफेनी रथयात्रा १४ जनवरी को ही आयोजित किये जाने की परम्परा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा हैl

नागफेनी के ग्रामदेवता के रूप में एक नाग का अवशेष गाँव के समीप अवस्थित एक पहाड़ी के नीचे तीन टुकड़ों के रूप में आज भी विद्यमान है जिसे लोग नागवंशियों का पूर्वज अथवा पूर्वजों का प्रत्तीक मानते हैंlपत्थर के तीन टुकड़ों को गौर करने पर नाग के समस्त शरीर का खाका मानस पटल पर बनता हैlस्थानीय मुरगु निवासी रामकुमार साहु,जो स्थानीय दर्शनीय स्थलों के मर्मज्ञ हैं,के अनुसार पहले यह पत्थर का नाग सम्पूर्ण रूप में विद्यमान थाlपत्थर के नाग के तीन टुकड़ों में विभक्त होने की कहानी बतलाते हुए श्री रामुमार साहु कहते हैं,सन १९४४ में जब भारतीय स्वाधीनता संग्राम जोरों पर था,आस-पास की उराँव जनजाति के टाना भगतों के एक बड़े हुजूम ने,यहाँ पर जो अंग्रेजों के कारिन्दे पहाड़ी में रहते थे,को मार भगाने के उद्देश्य से हथियारों से लैस होकर पहुँचाlघँटा-ध्वनि के साथ ही यह नारा चहुँओर गूँज रहा था –
टाना भगत टाना ,
भूतानि के ताना ,
बाभन के काटा पूजा ,
देवता के पासा - कूचा ,
काँसा पीतल माना ,
ढकनी में खाना ,
टाना भगत टाना l
अंग्रेजों को हराने क्रम में टाना भगतों के हुजूम में पहाड़ी पर अवस्थित पत्थर रुपी नाग को दो स्थानों पर लोहे के हथियारों से माराlभले ही टाना भगतों का अंग्रेजों को डराने का उद्देश्य पूरा न हुआ हो,लेकिन नाग रुपी पत्थर के तीन टुकड़े आज भी विद्यमान हैंlबाद में टाना भगतों के हुजूम ने जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर पर भी हमला कर दिया,लेकिन स्थानीय भक्तों के अनथक प्रयास से मन्दिर को किसी प्रकार की क्षति पहुँचने से बचा लिया गयाl पत्थर रुपी नाग के अवशेष में से एक तिकडे को नाग के फुफकार मारकर फेन उठाते हुए तथा अन्य दो टुकड़ों को आज भी पहाड़ी के नीचे देखा सकता हैlपहाड़ी के ऊपर-नीचे,आस-पास बहुत से दर्शनीय स्थल हैंlपहाड़ी में बहुत पुराने जमाने के मकानोंके ध्वंशावशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैंlस्थानीय कथाओं के आधार पर पूर्वमें यहाँ किसी राजा का गढ़ भी था जिसके अवशेष पहाड़ी पर आज भी विद्यमान हैं lपहाड़ी में ही एक स्थान पर गुफा का द्वार है,जो पहाड़ी के अंदर बहुत दूर तक चला गया हैlगुफा का द्वार काफी समय से प्रयोग में नहीं आने के कारण बन्द सा हो गया है,जिसे सिर्फ पुराने जानकार लोग ही जानते हैं,जो कि अब कम ही बचे हैंlनागफेनी और आस-पास के बुजुर्ग जानकार व्यक्तियों ने बतलाया- इस गुफा में बड़े भयंकर नाग,अजगर एवं अन्यान्य विषैले सर्पों का निवास हैlवर्षों पूर्व एक बार स्थानीय ग्रामीण इस गुफा के अंदर प्रवेश किये थेlअपने साथ हथियार,मशलादी लेकर गुफा के अंदर गये थेlउन्होंने बाहर आकार बतलाया था कि गुफा के अंदर कई हजार मनुष्य एक साथ जा सकते हैंlइसके अंदर दूर तक चौड़ा लेकिन गहन अन्धकार हैlइसके चारों तरफ सर्पों के मल त्याग के बड़े-बड़े ढेर पड़े हुए हैंl


अष्टकमलनाथ बाबा सती महादेव
पहाड़ी के नीचे दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नीम के पेड़ के नीचे बाबा अष्टकमलनाथ सती-महादेव की मूर्ति (लिंग) हैlलंग की यह विशेषता है कि यह अष्टकमल डाल फूल के ऊपर बना हुआ हैlनीम के पेड़ के नीचे खुले आकाश में सती महादेव की मूर्ति वर्षों से पूजी जाती रही है, परन्तु अब श्रद्धालुओं के सहयोग से इसे मन्दिर का रूप दिया जा रहा हैlखुले आकाश के नीचे अवस्थित सती महादेव को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व मवं इस स्थान पर भी मन्दिर था,लेकिन वख्त के थपेडों ने मन्दिर को अपने साथ ही मिला लियाlसती महादेव के समीप ही दक्षिणी कोयल नदी भी बहती हुयी आती हैlदक्षिणी कोयल नदी की यहाँ पर बहने वाली घारा को राजा धारा कहा जाता हैlनागफेनी का श्म्श्हन घात भी वहीँ पर हैlश्रावन मास में राजा धारा में स्नान कर सती महादेव पर जल चढाने की परिपाटी हैlश्री रामकुमार साहु के अनुसार अष्टकमालनाथ बाबा सती महादेव की श्रद्धापूर्वक उपासना से कई लोगों की मनोकामना पूर्ण होते देखी गयी हैlपहाड़ी पर भी एक बड़े हवनकुण्डका भग्नावशेष आज भी मौजूद हैl

भगवान जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर,नागफेनी में श्रीकृष्ण,बलभद्र व सुभद्रा और अन्य कई बड़ी काष्ठ मूर्तियों के साथ-साथ अनेकानेक छोटी-छोटी मूर्तियां हैंlइन बड़ी मूर्तियों के नीचे एक कुआँ हैlकहा जाता है कि मूर्ति के नीचे स्थित कुआँ दक्षिणी कोयल नदी स्थित अम्बाघाघ तक जाने वाली एक सुरंग हैLइस सम्बन्ध में पुजारी मनोहर पण्डा कहते हैं कि वर्षों से सुरंग में भयवश कोई नहीं गया हैlबहुत दिनों से प्रयिग में नहीं आने के कारण इसमें प्रवेश करना भी एक दुःस्साहसिक कार्य हैlहमारे पूर्वज तो कहते थे कि सुरंग में बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश से उनके दृष्टिविहीन हो जाने की सम्भावना हैlकोलकाता से सुरंग में प्रवेश करने की मंशा से आया एक पर्यटक यह सुनकर वापस लौट गयाl
नागफेनी के आस-पास दर्शनीय स्थानों की भरमार है,लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा के कारण इनका पर्याप्त विकास नहीं हो पाया हैlकरीब दस वर्ष पूर्व पहाड़ी के नीचे झारखण्ड सरकार के कल्याण विभाग द्वारा सौ शैय्या वाले एक अस्पताल का निर्माण कराया गया है,लेकिन करोड़ों रूपये व्यय कर बनाये गये इस अस्पताल में निर्माण के बाद से आज तक किसी चिकित्सक अथवा अन्य स्वास्थ्यकर्मी की नियुक्ति की गयी है और न ही चिकित्सकों के अभाव में किसी मरीज की चिकित्सा ही हो सकी हैlबगैर देख-रेख के खाली पड़े भवन को प्रेमी जोड़े अथवा अवैध सम्बन्ध वाले युगल रंगरेलियों का आशियाना बनाये हुए हैं,फिर भी अब यह करोड़ों का भवन बिना स्थायी प्रयोग के जीर्णावस्था को प्राप्त करने लगा हैlयही स्थिति क्षेत्र के अन्य दर्शनीय व पर्यटक स्थलों की हैlआषाढ़ मास के दो और मकर संक्रान्ति के अवसर पर आयोजित होने रथयात्राओं का पाना विशिष्ट महत्व हैlशास्त्रों एवं पुराणादि ग्रन्थों में रथयात्रा का बड़ी महिमा  उल्लेख मिलता हैlस्कन्द पुराण के अनुसार रथयात्रा के दौरान भगवान के नाम की रत लगाकर चलने वाला दर्शक तथा राथ्यातर में भगवान का रथ खींचने वाली डोर को पकड़ने वाले माता के गर्भ में निवास करने का दुःख नहीं भोगते और समस्त पापों से छुटकारा पाकर मोक्ष की प्राप्ति करते हैंlआज के वर्तमान भौतिकवादी युग में घोर संघर्ष में पड़े हुए लोगों के लिये वसुधैव कुटुम्बकम् को चरितार्थ करता नागफेनी की रथयात्रा इस आदिवासी सदान बहुल इलाके में कल्याणमय एवं मोक्षदायक सिद्ध हो रही हैl


विशेष - वैदिक धर्मी होकर पौराणिक गल्पों पर आधारित आलेख लेखन हेतु क्षमाप्रार्थी हूँ , परन्तु मैंने झारखण्ड के विस्मृत स्थलों से लोगों को परिचित कराने , कुछ परिचितों के कथन को मुख्य परिपटल पर लाने और आम धारणा को तुष्ट करने के उद्देश्य से अविद्यारूपी लेखन को बाध्य हुआ हूँ !


Wednesday, January 7, 2015

दूषित शिक्षा से आसुरी प्रवृति - अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची , झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख - दूषित शिक्षा से आसुरी प्रवृत्ति



 दूषित शिक्षा से आसुरी प्रवृति
- अशोक “प्रवृद्ध”

अंग्रेजी राज्य से पूर्व भारतवर्ष में विद्यालय-महाविद्यालय शिक्षा-पद्धति अर्थात स्कूल-कॉलेज की शिक्षा-प्रणाली नहीं थीl जातीय आकांक्षाएँ बहुत कम थीं और उसके लिये व्यावसायिक शिक्षा कुछ अधिक नहीं होती थी, विद्यार्थियों की व्यवसायिक शिक्षा के अतिरिक्त,पूजा,कथा-कीर्तन और शारीरिक व्यायामशालाओं का प्रचार-प्रसार पर्याप्त थाlअतः जातीय अर्थात राष्ट्रीय स्वभाव प्रायः दैवी दिशा की ओर उन्मुख थाlपरिणाम यह होता था कि प्रायः बहुसंख्यक समाज के घटक सात्विक विचार के थेlजाति-भेद तो था,परन्तु इसका स्वभाव से सम्बन्ध नहीं थाlब्राह्मण से लेकर मुग़ल काल में बने जाति भंगी-चमार तक भक्त-जन प्रचुर मात्रा में थेlहम अपने मुरूनगुर के पूर्वजों स्व० खुदी साहु, स्व० पारसनाथ पण्डित, रामलगन चौधरी, रामाशंकर गंझु आदि से सुना करते थे कि अमुक व्यक्ति लिखत- पढ़त के बिना व्याज पर रूपये दिया करता है, वस्तुएँ रखकर भी और बिना जमानत पर भीlयह समझा जाता था कि वे रूपये दे नहीं सकेंगे, यह नहीं कि वे देना नहीं चाहेंगे, परन्तु जब भूषण अथवा जमीनादि कीमती वस्तुएँ गिरवी रखे जाते थे तो भूषणादि गिरवी रखी जाने वाली वस्तु प्रायः उधार की राशि से अधिक मूल्य के होते थेlफिर भी साहूकार अपने उधार दिए धन से ही वास्ता रखता थाlरूपये वापस करने पर मूल्यवान गिरवी रखी वस्तु वापस कर दी जाती थीlन्यायालयों अर्थात अदालतों, में बहुत कम झगड़े जाते थेlवर्तमान की भान्ति बैंकों का चलन नहीं थाlयह नहीं कि उधार देने वाले सब भले लोग ही होते थेlकुछ अत्यन्त लोभी और क्रूर स्वभाव के लोग भी होते थेlफिर भी अधिकाँश स्वनिर्मित नियम का पालन करते थे,परन्तु अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से यह अवस्था बिगड़ीlयह शिक्षा कोलकाता में १८३७ ईस्वी से आरम्भ हुयी, परन्तु इस एकाँगी शिक्षा का प्रभाव तो भारतवर्ष विभाजन के पश्चात दिखलाई देने लगाl

आँग्ल काल में प्रादुर्भित और भारतवर्ष विभाजन के पश्चात पुष्पित-पल्लवित विद्यालय-महाविद्यालयों की शिक्षा-पद्धति में पढ़े-लिखे लोगों ने वर्तमान में यह अवस्था उत्पन्न कर दी है कि देश की राजधानी में ही बैंक लुटे जाते हैं, सरे-बाजार हत्याएँ होती हैं, दिन- दहाड़े बलात्कार व छेड़-छाड़ की घटनाएँ होती हैं और इस सबमे कोई अपराधी बिरले ही पकड़ा जाता है lकहने का अभिप्राय यह है कि दूषित शिक्षा ने भारतीय जनता में आसुरी स्वभाव उत्पन्न किया है,वहीं शान्ति-व्यवस्था रखने वाले अधिकारी भी अयोग्य बना दिए गये हैं lअत्यन्त पुरातन काल के पश्चात मुसलमानी काल से पूर्व की शिक्षा-पद्धत्ति भी अधूरी थीl उस अधूरी शिक्षा का ही परिणाम था कि देश पर आक्रमण पर आक्रमण होने लगे थे और देश उनका प्रतिकार नहीं कर सका था lयह अधूरी शिक्षा बौद्ध जीवन मीमांसा का परिणाम थीlबौद्ध मत की शिक्षा का उद्देश्य था कि प्राणी शून्य में भँवर से बना है और भँवर मिट जाने पर प्राणी समाप्त हो शून्य हो जायेगाl इससे जीवन निरुद्देश्य बन गया था l मनुष्य का एक दूसरे से सम्बन्ध उतना ही था जितना जल में पड़े एक भँवर का दूसरे के साथ थाl सिर्फ शुद्ध प्रचार से व्यवहार की शुद्धि अपने तक ही सीमित रह सकती हैl दण्ड-विधान दुष्टों को ठीक रखने के लिये आवश्यक होता है l छुपकर पाप करने से बचने का उपाय अध्यात्म शिक्षा थी lयह बौद्धों में नहीं थी lइसका दुष्परिणाम यह हुआ कि व्यभिचार-अनाचार छुप सकने के साथ सम्बन्ध रखने लगेl इससे आसुरी शक्ति के लोग उत्पन्न हुएl इसका भयंकर परिणाम हुआ l देश में स्वार्थ बढ़ने लगा और देश में दासता का बीजारोपण हुआl

भारतवर्ष में इन्द्रिय संयम की शिक्षा तो विद्यालयों-महाविद्यालयों में दी जानी चाहिये,परन्तु आज हमारे देश में सिर्फ टेक्निकल उन्नत्ति अर्थात तकनीकी शिक्षा के लिये होड़ लगी हुयी हैlउसके लिये गणित,विज्ञान और भूगोल पर इतना बल दिया जा रहा है कि विद्यालय-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को आत्मनिरीक्षण और आत्म-नियन्त्रण की प्रेरणा के लिये समय ही नहीं रहताlपरिणाम यह होता है कि इन्द्रियों के कार्य,उनको संयम में रखने के उपाय और उन उपायों को अभ्यास करने के लिये विद्यालय-महाविद्यालयों में समय नहीं रहताl वर्तमान शिक्षा केवल भौतिक उन्नत्ति के निमित है,इसमें भी अध्यात्म का आधार नहींl परिणाम यह हो रहा है कि जिसका जैसे वश चलता है वह वैसे ही अपना जीवन-सुख प्राप्त करने का यत्न करता है और दूसरों की चिन्ता नहीं करता l वर्तमान में विद्यालय-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों की शिक्षा में वही दोष है जो मुसलमानी काल के पूर्व बौद्ध जीवन-मीमांसा से उत्पन्न हो गया थाlपरिणामस्वरूप वर्तमान पूर्ण समाज में आसुरी प्रवृति व्याप्त हो रही हैl

अध्यात्म शिक्षा के प्रभाव से ही जीवन में कठोर-व्रत धारण करके रहा जा सकता है और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखा जा सकता हैl दैवी स्वभाव दैवी व्यवहार से बनता है और इसके लिये कामनाओं पर नियन्त्रण करना आवश्यक हैl यह तब ही हो सकेगा जब इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण रखा जायेगाlव्यापक अध्यात्म की शिक्षा से जातीय अर्थात राष्ट्रीय व्यवहार दैवी होगा और प्रायः सात्विक स्वभाव के आत्मा ही इस देश के समाज में जन्म लेंगे और समाज स्थायी रूप से दैवी प्रकृत्ति वाला बनाया जा सकेगा, परन्तु वर्तमान विद्यालयों-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में अध्यात्म शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहींl विद्यालयों-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों की शिक्षा के अतिरिक्त भी शिक्षा के साधन हैंlपुरातन काल में कथा-कीर्तन, मन्दिर-तीर्थाटन इत्यादि के द्वारा भी शिक्षा दी जाती थी,परन्तु अत्यन्त क्षोभनीय बात है कि इन सबके स्थान पर अब सिनेमा-भवन, चलचित्र गृह आदि खुल गये हैं और उनमें जो चित्र अर्थात सिनेमा दिखलाये जाते हैं,वे शिक्षा के विचार से नहीं बनाये जाते हैं, उसमें मनोरंजन मुख्य होता है और चलचित्र निर्माता एक-एक  चलचित्र पर करोड़ों रूपये व्यय करते हैं और फिर उससे उनको लागत का सौ गुना उपार्जन करना होता हैlये कथा-कीर्तन की भान्ति लोक कल्याण की भावना से नहीं बनाये जाते वरन अधिकाधिक लोगों को आकर्षित करने के लिये होते हैं जिससे कि लगाया धन शताधिक लाभ सहित वापस हो सकेlभारतवर्ष जैसे विशाल देश में लाखो चलचित्र गृह हैं और उनमें दिखाई जाने वाली तस्वीरों के निर्माता भी लक्षाधिक हैंl ये लोग चित्र निर्माण में धन व्यय करते हैं धन एकत्रित करने के लियेlयह कार्य ऐसा नहीं जैसे कुछ वर्ष पूर्व भारतवर्ष में कथाएँ करने की प्रथा थीl एक विद्वान अर्थात एक पंडित किसी पुरातन ग्रन्थ से कथा करता थाlकथा करने के लिये स्थानीय जन उसके लिये मंच बना देते थे अथवा उसे किसी मन्दिर में स्थान मिल जाया करता थाlकथा पन्द्रह-बीस दिन अथवा कभी उससे अधिक काल के लिये चलती थीlअन्तिम दिन कथा का भोग पड़ता था और श्रोतागण अपनी श्रद्धा अनुसार कथा-वाचक को भेंट दे जाया करते थे, परन्तु चलचित्र में बात दूसरी हैlदर्शक को पहले मूल्य देना पड़ता है और फिर उसको तस्वीर देखने को मिलती हैlस्वाभाविक रूप में चित्र बनाने में व्यय के अतिरिक्त चित्र अर्थात सिनेमा के विज्ञापन पर भी जमकर खर्चा करना पड़ता है और तब सब वसूल करने के लिये चलचित्र में तीव्र आकर्षण उत्पन्न करने की आवश्यकता पड़ती हैlयह आकर्षण सुन्दर से सुन्दर अभिनेत्रियों अथवा उनकी निर्लज्ज कामनाओं को उतेजित करने वाली कहानी,गीत-संगीत व नृत्य और सैंकड़ों प्रकार से प्रलोभन उत्पन्न करने की योजना से चलचित्र बनाना होता है जिससे वह देश-विदेश में चल जाये और उस पर जो करोड़ों व्यय किये गये हैं वे लाभ सहित प्राप्त हो जायेंlकहने का अभिप्राय यह है कि सिनेमा कथा-कीर्तन,पूजा-पाठ,तीर्थ-स्नानादि का विकल्प नहीं हैं और न ही हो सकते हैंlये कामनाओं को उभारने वाले होने अनिवार्य हैंlये सात्विक प्रवृत्ति उत्पन्न करने वाले कदापि नहीं हो सकतेlयही कारण हैं है कि इस देश भारतवर्ष में रहने वाला घटक कामनाओं के पीछे भागता जा रहा हैlइन्दिर्यों पर नियन्त्रण असम्भव होना भी स्वाभाविक माना जा रहा हैl और आज स्थिति ऐसे बन आयी है कि कि यदि वर्तमान में देश की संसद इन चलचित्रों पर किसी प्रकार का नियन्त्रण रखने का विचार उत्पन्न करे तो संसद के सताधारी दल के पदच्युत हो जाने का भय उत्पन्न हो सकता हैlयही कारण है कि देश की संसद को इस व्यापक विषपान में सहायक होना पड़ रहा हैlवर्तमान में देश भर में हो रही बहुसंख्यक जनता के विरोध-प्रदर्शन और न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद विवादास्पद फिल्म “पी के” के बारे में में प्रचण्ड बहुमत से बनी केन्द्र की मोदी सरकार की मौन अख्तियार करने की नीति से भी इस अन्देशा को बल मिलता है कि सरकार इस मामले में टाँग अड़ाने से डरती हैl जब से बालक अथवा बालिका विद्यालय में भरती होती हैं और जब तक उनके अभिभावक नागरिक की जेब में मनोरंजन के लिये कुछ भी रहता है उसको इन्द्रियों को विषयों की ओर प्रेरित करने के साधन उपलब्ध रहते हैंlयही कारण है कि इस देश एवं जाति के प्रायः लोग कामनाओं के लिछे भागते जा रहे हैं और आसुरी स्वभाव वालों की संख्या में वृद्धि होती जाती हैlअतः समस्या का समाधान यह है कि देश में और यदि हो सके तो सम्पूर्ण भूमण्डल में दैवी स्वभाव के लोग उत्पन्न किये जायेंl

Saturday, January 3, 2015

भारतवर्ष के सांस्कृतिक पतन का इतिहास - अशोक "प्रवृद्ध"

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - ०३ / ०१ / २०१५ को प्रकाशित लेख- भारतवर्ष के सांस्कृतिक पतन का इतिहास



भारतवर्ष के सांस्कृतिक पतन का इतिहास
       -   अशोक "प्रवृद्ध"

वर्तमान युगीन बुद्धिमान इतिहासज्ञ यह मानते हैं कि सम्राट अशोक का काल भारतवर्ष का अति उज्जवल कीर्तिमान काल रहा है और अशोक के उपरान्त समुद्रगुप्त का काल भारतवर्ष का कीर्तिमान काल रहा है,परन्तु हम उनकी इस मान्यता से सहमत नहीं। किसी भी देश अथवा जाति का कीर्तिमान और उज्जवल काल वह होता है, जब उस काल में मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कला अर्थात् बुद्धि सुचारू रूप से कार्य कर रही हो। इन दोनों सम्राटों के काल में भारतवर्ष में बुद्धि का कार्य शून्य के तुल्य हो चुका था।अशोकवर्धन के काल को शान्ति का काल कहा जा सकता है,परन्तु वह काल जनमानस में बुद्धि-विहीनता का काल भी था। उस काल में बौद्ध भिक्षुओं और विहारों के महाप्रभुओं की तूती बोलती थी। दूसरी ओर समुद्रगुप्त के काल में अनपढ़ रूढ़िवादी ब्राह्मणों का बोलबाला था। परिणामस्वरुप दोनों काल देश और समाज को पतन की ओर द्रुतगति से ले जाने वाले सिद्ध हुए थे।समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया था,परन्तु यह ऐतिहासिक तथ्य है कि समुद्रगुप्त का अश्वमेघ यज्ञ सर्वथा असंगत रहा था। अश्वमेघ यज्ञ के, उद्देश्य से विपरीत परिणाम प्रकट हुए थे। यह यज्ञ व्यर्थ में धन और परिश्रम का व्यय ही कहा जा सकता है। केवल मात्र समुद्रगुप्त का कीर्तिस्तम्भ स्थापित करना, वह भी उसके अपने राज्य के महामात्य द्वारा संकलित , कितनी शोभा की बात हो सकती है, विचारणीय है। यह ऐसे ही है जैसे अशोक के काल में अनपढ़ समाज के निम्न वर्ग में से बने भिक्षुओं का लिखा इतिहास। यह कितना विश्वस्त होगा, ईश्वर ही बता सकता है।दोनों राज्यों के परिणाम भयंकर सिद्ध हुए थे। ऐसा क्यों ?
अशोक के राज्य का परिणाम था सफल विदेशीय आक्रमण। उस सीदियन आक्रमण द्वारा प्रचलित अवस्था को पलटकर ही निस्तेज किया जा सकता था। वैसा ही परिणाम गुप्त परिवार की प्रभुता से हुआ था।सीदियनों के आक्रमण से भी भयंकर हूण आक्रमण इस काल का परिणाम था।हमारा विचारित मत है कि दोनों कालों में समाज के अस्तित्व का हीन होना ब्राह्मणों के रूढ़िवादी व्यवहार के कारण ही था। उस व्यवहार में बुद्धि का किंचित् मात्र भी सहयोग नहीं था।
समुद्रगुप्त का तिथिकाल जो वर्तमान इतिहासकार मानते हैं, वह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य का काल 325 ईसा पूर्व माना जाता है। पुराणों से संकलित तिथिकाल के अनुसार यह 1502 ईसा पूर्व बनता है। इसी प्रकार समुद्रगुप्त का राज्यारोहण काल 333 ई. का बताया गया है। भारतीय प्रमाणों से समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी को विक्रम सम्वत् का आरम्भ करने वाला माना जाता है। इसका अभिप्राय हुआ कि समुद्रगुप्त लगभग 99 ई. पूर्व में राजगद्दी पर बैठा था। इसी प्रकार सब तिथियाँ बदल जाती हैं। अभिप्राय यह है कि भारतवर्ष का भी एक इतिहास है और उसके समझने का एक ढंग है। वर्तमान विश्वविद्यालयों के इतिहासकार भारतीय परमपराओं से सर्वथा अनभिज्ञ, राज्य आश्रय पर बगलें बजाते फिरते हैं। इसी प्रकार सिकन्दर के आक्रमण की बात है। इस बात के प्रमाण तो मिलते हैं कि सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार कर ली थी और झेलम नदी के तट पर पोरस से युद्ध हुआ था। परन्तु उसके बाद का वर्णन सिकन्दर के साथ आये इतिहासकार ने नहीं किया। एक यूनानी लेखक अरायन के अनुसार पोरस से सिकन्दर का युद्ध अनिर्णीत था। जीत किसी की नहीं हुई। सिकन्दर चौथे प्रहर थककर अपने डेरे पर चला गया था । वहाँ उसने पोरस को बुलाकर उससे सन्धि कर ली थी। उसके उपरान्त यह कहा मिलता है कि वह नौकाओं में व्यास नदी से लौट गया था। परन्तु झेलम और व्यास के बीच दो नदियाँ और पड़ती हैं, उनका लम्बा-चौड़ा क्षेत्र भी है। वह क्षेत्र जनशून्य और राज्य शून्य नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि झेलम नदी में ही नौकाएँ डाल सिकन्दर लौट गया था। उन दिनों झेलम का नाम बतिस्ता था। इसी को यूनानियों ने व्यास लिखा है। इसमें हमारा कथन यह है कि इस अनिर्णीत युद्ध के बाद पोरस के राज्यासीन रहने का अभिप्राय यही सिद्ध करता है कि सिकन्दर और उसकी सेना युद्ध से उपराम हो लौट गयी थी।
पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि महाभारत काल से लेकर गुप्त काल के ह्रास तक का इतिहास पुराणों में लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष का इतिहास लिखने वाले कहे जाने वाले विद्वान यहाँ की भाषा, भाव और पुराणों की शैली से अनभिज्ञ होने के कारण ऐसा लिख गये हैं, कि यह भारतवर्ष का वैभव काल था। भारतीय परंपरा के इतिहासकारों के अनुसार समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त ने शकों को सिन्ध पार भगाया था। दिल्ली में महरौली के समीप तथाकथित कुतुब मीनार के प्रांगण में लौह स्तम्भ में लिखे लेख के अनुसार वह विक्रम सम्वत् का आरम्भ काल था। यह समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरान्त चन्द्रगुप्त (विक्रम) के राज्य में हुआ था। यह राज्यारोहण के दूसरे वर्ष की बात है। रामगुप्त की मृत्यु के उपरान्त ही यह हो सका था। यह विक्रम सम्वत् पूर्व -12-13 वर्ष था। ईसा सम्वत् के अनुसार यह ई. पूर्व 69-70 वर्ष के लगभग होगा।
एक वंशावली जो एक विद्वान लेखक पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी ने पुराणों से संकलित की है, और जिसे विद्वतजनों ने स्वीकृति प्रदान की है, उसका सारांश कुछ इस प्रकार है ।
महाभारत युद्ध के उपरान्त मगध के राज्यों की तालिका पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी विज्ञ लेखक ने इस प्रकार लिखी है-
राजवंश कलि सम्वत् ईस्वी सम्वत् / ईस्वी पूर्व
वृहद् वंश 1 - 1001 3102 – 2101
प्रद्योत वंश 1001- 1139 2101 - 1964
शिशुनाक् वंश 1139 – 1501 1964 - 1602
पद्मनन्द वंश 1501 - 1602 1602 - 1502
मौर्य वंश 1602 - 1738 1502- 1365
शुंग वंश 1738 – 1850 1365 – 1253




इस तिथिकाल के अनुसार बुद्ध का जन्म लगभग 1285 कलि सम्वत् में अर्थात् ईसा से 1818 वर्ष पूर्व बनता है।
इसी तालिका के अनुसार समुद्रगुप्त का काल विक्रम पूर्व 42 से वि.पूर्व 2 तक बनता है। इसी गणना के अनुसार समुद्रगुप्त का राज्य हुआ ईसा पूर्व 99 से 59 तक।इतना और समझ लेना चाहिए कि भारतवर्ष के ह्रास का आरम्भ युधिष्ठिर के जुआ खेलने से पूर्व ही हो चुका था। वास्तव में जो कुछ जुआ खेलने में हुआ, उसका बीज पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा में निहित था। दोनों के गुरु थे द्रोणाचार्य और वह राज्य-सेवा में पल रहे पतित ब्राह्मण ही थे। द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य का पूर्ण जीवन राजाओं की चाटुकारी में व्यतीत हुआ था। यही महान् विनाश का आरम्भ कहा जा सकता है। तब से लुढकती सभ्यता हर्षवर्धन के काल के उपरान्त अस्त हो गयी प्रतीत होती है। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान युग भारतीयता की मध्य रात्रि का काल है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसे अन्धकार में मनुष्य कंचन और राँगा में भेद नहीं कर सकता, वैसे ही यही दशा अपने भारतवासियों की हो रही है। प्राचीन भारतीय धर्म और संस्कृति को राँगा समझा जा रहा है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के काल को भारतीय संस्कृति का मध्य दिवस काल कहा जा सकता है। प्रत्येक सफलता में ह्रास का बीज रहता है। यही उस यज्ञ में हुआ था। उसके उपरान्त चिकनी ढलवान् भूमि पर फिसलते पगों की भाँति ह्रास आरम्भ हुआ। हमारा यह कहना है कि अशोक का राज्यकाल और गुप्त परिवार का काल भारतीय संस्कृति का तीसरा प्रहर था। समाज द्रुतगति से रात्रि के अन्धकार की ओर जा रहा था। वर्तमान युग तो मध्य रात्रि ही माना जा सकता है। रात्रि के अन्धकार में टिमटिमाते दीपक ही प्रकाश का स्रोत प्रतीत होते हैं और उन्हीं को प्राप्त कर अपने को धन्य माना जाता है। यही बात इस समय हो रही है।

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