Saturday, February 28, 2015

शिक्षा का प्रथम पाठ यज्ञमय कार्य -अशोक”प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक -२८/०२/२०१५ को प्रकाशित लेख - शिक्षा का प्रथम पाठ यज्ञमय कार्य


शिक्षा का प्रथम पाठ यज्ञमय कार्य 
-अशोक”प्रवृद्ध”


जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभगुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषों को छोड़ के सदा आनन्दित हो सकें,वह शिक्षा कहाती है । वेद के उपांग छः दर्शनशास्त्र में से एक पूर्व-मीमांसा है lपाणिनि के अनुसार मीमांसा का अर्थ जिज्ञासा हैl जिज्ञासा अर्थात जानने की लालसा lअतः पूर्व-मीमांसा का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा lइसके सोलह अध्याय हैं lमनुष्य जब इस संसार में बना तो उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे?इसलिए इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है lग्रन्थारम्भ करते हुए महर्षि जैमिनी कहते हैं -
अथातो धर्म जिज्ञासा l
- पूर्व-मीमांसा १- १- १
अर्थात- अब धर्म (करणीय कर्म) के जानने की जिज्ञासा है l इस जिज्ञासा का उत्तर देने के लिये सोलह अध्याय वाला यह पूर्ण ग्रन्थ रचा गया है l धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में है और कर्म एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है lइस सोलह अध्याय और चौसठ पाद वाले ग्रन्थ के अनुसार वैदिक परिपाटी में यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है,वरन इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों का समावेश हो जाता है lबढ़ई जब बृक्ष की लकड़ी से बैठने के लिये कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है lबृक्ष का तना जो मूलरूप में ईंधन के अतिरिक्त और किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है lअतः उस बढ़ई का कार्य यज्ञरूप ही हैlइसी प्रकार कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सिने की मशीन बना देते हैं l इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ है,इस कारण यह यज्ञरूप है l
शिक्षा का मूल यजुर्वेद में हैl शिक्षा का आशय है मनुष्य को इसका ज्ञान कराना कि इस संसार में किस प्रकार रहना चाहिए?मनुष्य के लिये ज्ञान-प्राप्ति आवश्यक है, इतर जीव-जन्तुओं को नहीं lक्योंकि पृथ्वी पर जितनी भी प्राणी-योनियाँ हैं,सबमें सिर्फ मनुष्य ही वह योनि है जो अपने कर्मों की स्वयं अधिकारिणी हैं lअन्य योनियाँ यम-योनियाँ कहलाती हैं अर्थात उन योनियों के कर्म अपने अधीन नहीं होते lभूख लगती है तो खाना खा लेते हैं,प्यास लगती है तो पानी पी लेते हैं lयदि भूख-प्यास लगने पर भी खाने-पीने को कुछ न मिलता तो विवश होकर मुख देखते रहते हैं,कुछ कर नहीं सकते lक्योंकि कर्म करने में केवल मनुष्य ही स्वतंत्र है lयजुर्वेद का प्रथम मन्त्र शिक्षा के विषय में चमत्कारिक ढंग से व्यक्त करता है-

इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थोपायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे । आप्यायध्वम् अध्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीर् अनमीवा अयक्ष्माः मा व स्तेन ईशत माघशम्̇सः ।सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीः यजमानस्य पशून् पाहि ।।

- यजुर्वेद ,तैत्तिरीय संहिता ===== काण्ड 1-4 1.1 प्रपाठक 1 1.1.1 अनुवाक 1
इस मन्त्र का देवता (विषय) सविता (सूर्य) है।मंत्रार्थ इस प्रकार है-
(त्वा ऊर्ज्जे त्वा इषेवायवः स्थ) तुम्हारी दी हुई ऊर्जा और तुम्हारा दिया हुआ अन्न क्रियाओं का सिद्ध करने वाला।(वः)हमें (देवः सविता प्रार्पयतु) सविता देवता संयोजन (निर्माण) करे।(श्रेष्ठतमाय कर्मण) श्रेष्ठ कर्म करने के लिये।( आप्यायध्वम् अध्न्याः) जो अध्न्य है वह उन्नति को प्राप्त हो।(इन्द्राय भागं प्रजावतीः अनमीवाः अयक्ष्मा) सामर्थ्य का भाग प्रजाओं को प्राप्त हो,वे निरोग हों और ज्वरों से रहित हों।
(मा वः स्तेनः मा इशत) इसमें चोर-डाकू और पापी न हों न हों।(सः ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात वह्वीः यजमानस्य पशून पाहि) वह (सविता) हम सब में स्थिर रक्षक हो जाए और गृहस्थियों के पशुओं की रक्षा करे।
एक अभिप्राय यह है  कि परमात्मा ने सूर्य से दो पदार्थ इस पृथ्वी पर दिए हैं- एक ऊर्जा और दूसरा अन्न।आनन भी सूर्य से आ रही उर्जा से ही संपुष्ट होता है। अन्न में दो तत्व मुख्य हैं- कार्बोहाइड्रेट (स्टार्च इत्यादि) और प्रोटीन। ये दोनों पदार्थ पेड़-पौधों में सूर्य-रश्मियों से बनते हैं।यदि पेड़-पौधों पर सूर्य-रश्मियाँ न पड़ें तो ये नहीं बन सकते। संसार के सभी प्राणियों का जीवन इन दो पदार्थों पर ही निर्भर करता है।
इस मन्त्र में कहा गया है कि देव सविता द्वारा अन्न और उर्जा से हम और हमारे अध्न्य पशुओं (पालतू जानवरों) का रक्षण हो। इसके साथ ही कहा गया है कि हममें जो प्राणशक्ति उर्जा से आती है उससे हम धर्मकार्य करें जिससे हमारा यश और कीर्ति बढे। शिक्षा में कर्म का प्रथम पाठ यही है कि कर्म करने की शक्ति परमात्मा से सूर्य द्वारा हमें प्राप्त होती है, हम उसका सदुपयोग करें।पृथ्वी पर विद्युत, अग्नि तथा अन्य शक्ति का स्रोत भी केवल सूर्य ही है। कोयला एवं तेल में भी सूर्य से ही शक्ति संचित होती है।प्रश्न उत्पन्न होता है कि सूर्य की शक्ति का संचय स्थान कहाँ है? कहा जाता है कि सूर्य पर हाइड्रोजन के ऐटम (परिमण्डल) संयुक्त होकर हीलियम के परिमण्डल बना रहे हैं और उनसे शक्ति निकलती है। उनका संयुक्त होना भी तो किसी के करने से होता है। वह कौन है?वैदिक ग्रन्थों में कहा है कि वह परमात्मा का तेज है,जिससे यह सब हो रहा है।इस प्रकार सब कर्मों का स्रोत शक्ति और शक्ति का स्रोत सूर्य अर्थात परमात्मा बताकर कर्म की व्याख्या आरम्भ की गई है।
इसी यजुर्वेद के अगले तीन मन्त्र वसु के सम्बन्ध में है।वसु का अर्थ सामान्य भाषा मंअ यज्ञ है।यज्ञ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि वह सब कार्य जिससे मनुष्य मात्र को लाभ हो, उसे यज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ कर्म में परमात्मा के सृष्टि-रचना कार्य से लेकर मनुष्य के नित्य जीविकोपार्जन तक के सब कर्म आ जाते हैं।शर्तें दो हैं कि सब करी लोकहित में हों और उनसे किसी को हानि न पहुँचे।निर्माण कर्म से होता है,इसे सामान्य भाषा में प्रयत्न अर्थात काम कहते हैं।यजुर्वेद में कहा है कि जिस कार्य से प्राकृतिक पदार्थों से उपयोगी पदार्थ निर्माण हों,वह कार्य यज्ञ है।उदाहरणतः कोई हल चलाकर और भूमि में बीज डाल अन्न उत्पन्न करता है, वह यज्ञ करता है।इसी प्रकार कोई कच्चा लोहा लेकर उससे लोहे के गार्डर, सलाखें इत्यादि बनाता है तो वह यज्ञ करता है।कोई अन्य चूना-सीमेंट-ईंटें इत्यादि बनाता है तो वह भी यज्ञ कार्य है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है एक छोटा से छोटा कार्य अर्थात मोची तथा भंगी के कार्य  से लेकर सुन्दर भूषण अथवा वस्त्र बनाने वाले तक के सब कार्य यज्ञ होते हैं।इसमें केवल एक बन्धन होता है, वह यह कि कर्म करने में लोक कल्याण की भावना रहे।तब ही वह यज्ञ होता है अन्यथा वह स्वार्थ है।कई लोग स्वार्थ के कार्य को असुर-यज्ञ कहते हैं। वैसे शास्त्रों में तो केवल उसी कर्म को यज्ञ कहा है जिससे अधिक से अधिक लोगों का हित सिद्ध हो सके।इस प्रकार का कार्य करते हुए मनुष्य जब उसमें से अपने परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक ले तब ही उसका कार्य यज्ञ के लक्षणों में आता है।
यजुर्वेद १-५ में कहा है -
 अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच् छकेयं तन् मे राध्यताम् ।
इदमहमनृतात सत्यमुपैमि ।।
- यजुर्वेद १-५
अर्थात-(अग्ने) हे शक्ति स्वरुप परमात्मा। (व्रत्पते व्रतं चरिष्यामि) तू व्रतों का स्वामी है।मैं भी व्रत कर रहा हूँ।(तत् शकेयम् तत् में राध्यताम्) उस व्रत-पालन की मुझमे शक्ति हो।(मैं उसे पूर्ण कर सकूं)।(इदम् अहम् अनृतात् सत्यं उपी एमि) इस व्रत पालन करने से मैं अनृत से सत्य को प्राप्त होऊं।
मंत्र का अभिप्राय यह है कि मनुष्य जब इस संसार-संघर्ष में सम्मिलित हो तो शक्तिस्वरूप परमात्मा से प्रार्थना करे कि वह अब इस गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने लगा है।इसे वह सफलतापूर्वक पालन कर सके, ऐसा व्रत करे। हे परमात्मा, मैं इस संसार में जीवन का व्रत पालन कर सकूँ और इस व्रत का पालन कर्ता हुआ अनृत को छोड़कर सत्य का पालन कर सकूँ।वेद का यह कथन है उन युवा दम्पति के लिए है जो विवाह के उपरान्त अभी गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने लगे हैं।












Saturday, February 21, 2015

व्यक्ति , समाज , जगत का सिद्धान्त एक

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - २१/०२/२०१५ को प्रकाशित लेख - व्यक्ति , समाज , जगत का सिद्धान्त एक


एक ही सिद्धान्त से कार्य करते हैं व्यक्ति, समाज और जगत
- अशोक “प्रवृद्ध”

यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे यह नियम जैसा शरीर में वैसा ही ब्रह्माण्ड में समान रूपेण कार्य होता है। ब्रह्माण्ड को ब्रह्म का शरीर माना गया है।ब्रह्माण्ड के भी सब पदार्थ,शरीर की भान्ति प्रति क्षण क्षरित हो रहे हैं। जगत्यां जगत अर्थात गत्तिशील जगत शरीर है।इसमें परमात्मा सब की आयु को खाता चला जाता है।जगत के सम्बन्ध में परमात्मा के प्राण अर्थात सात प्रकार की शक्तियां जो इस जगत की रक्षा और पाला करती है,वे भी प्राण ही कहाती हैं।वेद इस प्राण के विषय में कहता है -
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे ।
यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।
-अथर्ववेद ११ - ४ -१
अर्थात - प्राणों को नमस्कार है (हम प्राणों का आदर करें) जिसके वश में पूर्ण जगत है।जो सब प्राणियों की रचना करने वाला है और जिसमें सब कुछ स्थित है।
इसी प्राण से जगत का व्यवहार चलता है।यह प्राण सात प्रकार का है - अग्नि, वायु, परिमण्डलान्तर्गत शक्ति (इण्टर-अटॉमिक एनर्जी), रासायनिक शक्ति (केमिकल एनर्जी), आण्विक कम्पन शक्ति (मोलेकुलर डाइनेमिक्स), भू-आकर्षण (ग्रैविटी) और चुम्बकीय शक्ति (मैग्नेटिक फ़ोर्स) । इस प्रकार ये सात प्रकार के प्राण चलायमान जगत की रक्षा और पालन करते हैं। वैदिक सिद्धांत है कि मनुष्य का शरीर जिस प्रकार कार्य करता है, वैसा ही चलायमान जगत (सूर्य, चन्द्र, तारागण इत्यादि) कार्य करता है। अन्तर यह है कि प्राणियों के शरीरों में पृथक-पृथक् जीवात्मा होता है और जगत के पदार्थों में पृथक-पृथक जीवात्मा नहीं होता।यही कारण है कि जहाँ जीवात्मा अपने कर्म-फल से जन्म-मरण के बन्धन में फँसे हुए हैं,वहाँ जगत के पदार्थ न तो कुछ कर्म करते हैं, न ही वे कर्म-फल से बन्धे हुए हैं।
अग्नि से अभिप्राय उस अग्नि से है जिससे सृष्टि-रचना आरम्भ हुई थी।ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम मन्त्र में ही इसका वर्णन है-

ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ॥
-ऋग्वेद: सूक्तं १ - १ -१
अर्थात - हे अग्नि! हम तुम्हारी स्तुति करते हैं (गुण, कर्म, स्वभाव का स्मरण करते) हैं।तुम सृष्टि-रचना से पहले हमारे हित में कार्य कर रही थी।सृष्टि-रचना यज्ञ भी तुम करने वाली हो और हमें अन्न, धन-दौलत देने वाली हो।
यह अग्नि वः शक्ति है जिससे जगत की रचना हुई है।
वायु के विषय में भी ऋग्वेद में कहा है -

वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृताः ।
तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥
-ऋग्वेद: सूक्तं १-२-१
अर्थात - वायु (वस्तुओं) को प्राप्त होती है तो इसका दर्शन (ज्ञान दृष्टि से) होता है।यह संसार के पदार्थों को सुन्दरतम बनाती है।वायु से ही उनकी रक्षा होती है।अभिप्राय यह है कि पदार्थों में और उसके अणुओं में गत्ति वायु से उत्पन्न होती है।इसीलिए कहा है कि जैसे शरीर में (सात प्राणों से) कार्य होता है, वैसे ही जगत में भी सात प्राणों से कार्य होता है।


ईश्वरीय शक्तियाँ जिस प्रकार प्राणी के शरीर में कार्य करती हैं, ठीक उसी प्रकार समाज में भी कार्य करती हैं।प्राणी के शरीर के अंगों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है- एक आदेश निर्माण करने वाले और आदेश देने वाले और दूसरे आदेश पाने अथवा मानने वाले अंग।आदेश निर्माण करने वाले अंग हैं- ज्ञानेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि।आदेश देने वाला तत्व है जीवात्मा और आदेश मानने वाले अंग हैं कर्मेन्द्रियाँ। इसी प्रकार समाज में विभाजन किया गया है।समाज के घटकों का विभाजन पाँच प्रकार के प्राणियों में है।इनको वेद में पञ्चजनाः कहा गया है।ऋग्वेद १०/५३/४ में कहा है-
तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुरां अभि देवा असाम ।
ऊर्जाद उत यज्ञियासः पंचजना मम होत्रं जुषध्वम् ।
- ऋग्वेद १०/५३/४
अर्थात - हम पञ्चजनाः (समाज के पाँचों अंग) वेद मन्त्रों पर मनन कर ईश्वर की दी हुई ऊर्जा का प्रयोग करें l इससे असुरों पर विजय प्राप्त करेंl
सब मानव समाजों में पाँच प्रकार के प्राणी ही हैं, इसका अभिप्राय यह है कि ,मानव समाज में कार्यों के विचार से पाँच प्रकार के जनसमूह होते हैंlयजुर्वेद में भी इन पाँच प्रकार के जनसमूह की गणना करायी है -
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः l
ब्रह्मराजन्याभ्यां , शूद्राय चार्यायच स्वाय चारणाय l  -यजुर्वेद – २६ / ०२
अर्थात – यह मेरी कल्याणमयी वाणी सम्पूर्ण (सब अंगों सहित) सब मनुष्य मात्र के लिये है l(और मनुष्यों में हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और अरण) l
यहाँ इस मन्त्र में भी मनुष्य समाज के पाँच भाग ही माने हैंlअब इस समाज के इन अंगों की तुलना मनुष्य के शरीर से भी की गई हैl कहा गया है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय बाहें हैं, वैश्य जंघाएँ हैं, शुद्र पाँव हैंl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि समाज के पाँच अंग वेद मानता है और इन पाँचों के कार्य की तुलना शरीर से की जा सकती हैlमुख, मनुष्य शरीर में पूर्ण शरीर का प्रवक्ता कहा जाता हैlयदि शरीर के किसी भी अंग में कोई कष्ट हो तो उस कष्ट को प्रकट करने वाला मुख ही होता हैlकष्ट भले ही पांव में हो, परन्तु उसका वर्णन मुख ही करता हैl बाहें शरीर की रक्षा के लिये होती हैं और जंघाएँ पूर्ण शरीर को आश्रय देने वाली हैंl पाँव शरीर को उठाकर इधर-उधर ले जाती हैंlसमाज की तुलना मानव शरीर से एक अन्य प्रकार से भी की जाती है। विचार यन्त्र और आदेश यन्त्र मुख्यतः प्राणी के सिर भाग में होता है।पाँच ज्ञानेन्द्रियों में चार के गोलक तो सिर में ही स्थित हैं।आँख, कान, नाक और रसना, ये सब सिर में ही हैं।त्वचा अर्थात स्पर्श-इन्द्रिय ही तो पूर्ण शरीर में,परन्तु यह सिर में भी है।इस कारण मानव शरीर में आदेश निर्माण करने वाले और आदेश देने वाले अंग ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और जीवात्मा मनुष्य के सिर बहग में ही होते हैं। परन्तु आदेश पालन करने वाले अंग पूर्ण शरीर में फैले हुए हैं। हठ रक्षा का काम करते हैं, पाँव शुद्र का काम करते हैं और पेट तथा जंघाएँ विषय का काम करती हैं।गुदा और मूत्रेन्द्रिय भी शरीर के नीचे के भाग में ही होते हैं।
मानव शरीर और समाज में तुलना केवल स्थान के विचार से ही नहीं की जाती,वरन इनके कार्यों की भी तुलना की जा सकती है।मानव श्री के अंगों की और उनके कर्मों की श्रेष्ठता की तुलना भी मानव शरीर से की जा सकती है।समाज में श्रेष्ठ अंग हैं ज्ञान प्राप्त करने वाला और ज्ञान का संचय करने वाला। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि विद्वत् (ब्राह्मण) वर्ग ज्ञानेन्द्रियों की भान्ति ज्ञान प्राप्त करता है , वे ही उसे संचय करते हैं और फिर बूढी की भान्ति उस ज्ञान का विश्लेषण कर, समाज का आदेश पालन करने वाले अंगों को कर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं। जैसे कि हाथ, पाँव, वाणी, यन्त्र, लिंग और गुदा अंग अपने कष्टों की सूचना मन और बुद्धि को देते हैं, वैसे ही समाज में शुद्र, वैश्य और क्षत्रिय वर्ण अपने कष्टों की सुचना विद्वानों को देते हैं और फिर मन तथा बुद्धि की भान्ति, विद्वान समाज के विभिन्न अंगों के कष्ट की चिकित्सा करते हैं।मनुष्य समाज और शरीर के विभिन्न अंगों में अन्तर भी है।प्रत्येक मनुष्य के अंगों के कर्मों का निश्चय उसके गुण, कर्म,स्वभाव से होता है और गुण, कर्म, स्वभाव मनूष्य की आयु,शिक्षा और खान-पान के अनुसार बदलते रहते हैं।शरीर में ऐसा नहीं होता।मनुष्य के शरीर में जो-जो अंग हाथ, पाँव का कार्य करने के लिए बने हैं,वे ही वे कार्य कर सकते हैं।पेट, पेट का ही काम कर सकता है।गुदा और लिंग के भी काम बदले नहीं जा सकते।इस बात का ध्यान रखकर ही समाज के कार्यों का विभाजन किया जा सकता है।इसी कारण यह कहा गया है कि मनुष्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ग गुण, कर्म और स्वभाव से ही निश्चय होते हैं।श्रीमद्भगवद्गीता १८/४१ में कहा है –
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शुद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।।
-श्रीमद्भगवद्गीता १८/४१
अर्थात- गुण, कर्म और स्वभाव से ही मनुष्य के ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य औअर शुद्र की श्रेणियों में बाँटे जाते हैं।
ये गुण, कर्म, स्वभाव पूर्वजन्म के कर्मों से हों, माता-पिता के घर के संस्कारों से हो अथवा मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा और प्रयत्न से हों, किसी भी कारण से हों, उसके आधार पर ही वर्ण मानने चाहियें और उसके अनुसार ही समाज को उनसे कार्य लेना चाहिये।जिसे पाँव, आँख, कान इत्यादि का कार्य नहीं कर सकते, वैसे ही एक अनपढ़ अथवा बुद्धि से हीन व्यक्ति अध्यापन का कार्य नहीं कर सकता।एक दुर्बल रूग्न शरीर वाला सेना में भरती नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार की पूर्ण कर्म-योजना एक ही विधि-विधान से बनी है।जो कुछ ब्रह्माण्ड में होता देखा जता है, वही कुछ प्राणी के शरीर में हो रहा है और वही कुछ मनुष्य-समाज में हो रहा है।प्रकृति का यह विधान है कि आदेश निर्माण और आदेश देने वाले अंग विशेष विशेष गुणों के स्वामी होने चाहियें और आदेश पालन करने वाले एनी गुणों से युक्त हों।ये भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य उन अंगों से तब तक ही लिए जाने चाहिये, जब तक उनमे अपने गुण तथा कर्म करने का सामर्थ्य होता है। मनुष्य शरीर हों, मानवों का कोई संगठन हों, कोई उद्योग-धन्धा हो अथवा राज्य कार्य हो, सब में एक ही सिद्धान्त ,एक ही विधि-विधान कार्य करता है।

Friday, February 13, 2015

व्यवहारिक भाषा सर्वोत्तम

राँची, झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - १३ / ०२ / २०१५ को प्रकाशित लेख- व्यवहारिक भाषा सर्वोत्तम


राष्ट्र के कामकाज और व्यवहार की भाषा ही देश की भाषा हो
-अशोक “प्रवृद्ध”

जातीय अर्थात राष्ट्रीय उत्थान और सुरक्षा के लिये किसी भी देश की भाषा वही होना श्रेयस्कर होता है,जो जाति अर्थात राष्ट्र के कामकाज और व्यवहार की भाषा होl समाज की बोल-चाल की भाषा का प्रश्न पृथक् हैlजातीय  सुरक्षा हेतु व्यक्तियों के नामों में समानता अर्थात उनके स्त्रोत में समानता होने या यों कहें कि नाम संस्कृत भाषा अथवा ऐतिहासिक पुरुषों एवं घटनाओं और जातीय उपलब्धियों से ही सम्बंधित होने का सम्बन्ध समस्त हिन्दू समाज से है, चाहे वह भारतवर्ष में रहने वाला हिन्दू हो अथवा किसी अन्य देश में रहने वाला होlहिन्दू समाज किसी देश अथवा भूखण्ड तक सीमित नहीं है वरन यह भौगोलिक सीमाओं को पार कर वैश्विक समाज बन गया है lइस कारण समाज की भाषा,नित्यप्रति के व्यवहार का माध्यम तो अपने-अपने देश की भाषा ही होनी चाहिये और होगी और अपने समाज का साहित्य और इतिहास उस देश की भाषा में अनूदित करने का प्रयत्न करना चाहिये, ताकि भावी पीढ़ी अपने मूल भारतीय समाज से कट कर रह न जायेl जातीय भाषा उस देश की भाषा ही होनी चाहिये जिस देश में समाज के घटक निवास करते होंlयद्यपि यह निर्विवाद सत्य है कि संस्कृत भाषा और इसकी लिपि देवनागरी सरलतम और पूर्णतः वैज्ञानिक हैं और यह भी सत्य है कि यदि मानव समाज कभी समस्त भूमण्डल की एक भाषा के निर्माण का विचार करेगी तो उस विचार में संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि अपने-अपने अधिकार से ही स्वतः स्वीकृत हो जायेंगीlजैसे किसी भी व्यवहार का प्रचलित होना उसके सबके द्वारा स्वीकृत किया जाना एक प्रबल युक्ति हैlइस पर भी व्यवहार की शुद्धता,सरलता और सुगमता उसके स्वीकार किये जाने में प्रबल युक्ति हैlसंसार कि वर्तमान परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न देशों में रहते हुए भी हिन्दू समाज अपने-अपने देश की भाषा को अपनी देश मानेंगे और भारतवर्ष के हिन्दू समाज का यह कर्तव्य है कि अपना मूल साहित्य वहाँ के लोगों से मिल कर उन देशों की भाषा में अनुदित कराएं जिन-जिन देशों में हिन्दू-संस्कृति के मानने वाले लोग रहते हैंl

समस्त संसार की एकमात्र भाषा व उसकी लिपि का प्रश्न तो अभी भविष्य के गर्भ में है, जब कभी इस प्रकार का प्रश्न उपस्थित होगा तब संस्कृत भाषा व देवनागरी लिपि का दावा प्रस्तुत किया जायेगा और भाषा के रूप में संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि अपनी योग्यता के आधार पर विचारणीय और अन्ततः सर्वस्वीकार्य होगीl

जहाँ तक हमारे देश भारतवर्ष का सम्बन्ध है यह प्रश्न इतना जटिल नहीं जितना कि संसार के अन्य देशों में हैlभारतवर्ष की सोलह राजकीय भाषाएँ हैंlइन भाषाओँ में परस्पर किसी प्रकार का विवाद भी नहीं हैlहिन्दी के समर्थकों ने कभी भी यह दावा नहीं किया कि किसी क्षेत्रीय भाषा के स्थान पर उसका प्रचलन किया जाये,ना ही कभी इस बात पर विवाद हुआ कि किसी क्षेत्रीय भाषा को भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा बनाने में बाधा उत्पन्न की जायेlस्वराज्य के आरम्भिक काल में किसी मूर्ख हिन्दी भाषी श्रोत्ता ने किसी के तमिल अथवा बँगला बोलने पर आपत्ति की होगी,यह उसके ज्ञान की शून्यता और बुद्धि की दुर्बलता के कारण हुआ होगाlहिन्दी का किसी भी क्षेत्रीय भाषा से न कभी किसी प्रकार का विवाद रहा है और न ही अब हैlवास्तविक विवाद तो अंग्रेजी और हिन्दी भाषा के मध्य है, और यह विवाद इंडियन नॅशनल काँग्रेस की देन हैlजब १८८५ में मुम्बई तत्कालीन बम्बई में काँग्रेस का प्रथम अधिवेशन हुआ था तब उसमें ही यह कहा गया था कि इस संस्था की कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में हुआ करेगीlउस समय इसका कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि उस काँग्रेसी समाज में केवल अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही थेlवहाँ कॉलेज अर्थात महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों के स्नात्तकों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं थाl न ही इस संस्था को किसी प्रकार का सार्वजनिक मंच बनाने का ही विचार थाl और न ही उस समय कोई यह सोच भी सकता था कि कभी भारवर्ष से ब्रिटिश साम्राज्य का सफाया भी होगाlकारण चाहे कुछ भी रहा हो किन्तु यह निश्चित है कि तब से ही अंग्रेजी की महिमा बढती रही है और यह निरन्तर बढती ही जा रही हैlबाल गंगाधर तिलक ने दक्षिण में और आर्य समाज ने उत्तर में इसका विरोध किया,परन्तु आर्य समाज का विरोध तो १९०७ में जब ब्रिटिश सरकार का कुठाराघात हुआ तो धीमा पड़ गया और बाल गंगाधर तिलक के आन्दोलनकी समाप्ति उनके पकड़े जाने और छः वर्ष तक बन्दी-गृह में बन्द रहकर गुजारने के कारण हुयीlजहाँ तिलक जी बन्दी-गृह से मुक्त होने के उपरान्तमोहन दास करमचन्द गाँधी की ख्याति का विरोध नहीं कर सके वहाँ आर्य समाज भी गाँधी के आंदोलन के सम्मुख नत हो गयाlगाँधी प्रत्यक्ष में तो सार्वजनिक नेता थे,परन्तु उन्होंने अपने और काँग्रेस के आंदोलन की जिम्मेदारी अर्थात लीडरी अंग्रेजी पढ़े-लिखे के हाथ में ही रखने का भरसक प्रयत्न कियाlपरिणाम यह हुआ कि काँग्रेस की जन्म के समय की नीति कि अंग्रेजी ही उनके आंदोलन की भाषा होगी,स्थिर रही और वही आज तक भी बिना विरोध के अनवरत चली आ रही हैl
स्वाधीनता आन्दोलनके इतिहास की जानकारी रखने वालों के अनुसार १९२०-२१ में जवाहर लाल नेहरु की प्रतिष्ठा गाँधी जी के मन में इसी कारण थी कि काँग्रेस के प्रस्तावों को वे अंग्रेजी भाषा में भली-भान्ति व्यक्त कर सकते थेlकालान्तर में तो नेहरु ही काँग्रेस के सर्वेसर्वा हो गये थे,किन्तु यह सम्भव तभी हो पाया था जबकि गाँधी ने आरम्भ में अपने कन्धे पर बैठाकर उनको प्रतिष्ठित करने में सहायता की थीlनेहरु तो मन से ही अंग्रेजी के भक्त थे और अंग्रेजी पढ़े-लिखों में उन्हें अंग्रेजी का अच्छा लेखक माना जाता थाlउनका सम्बन्ध भी अंग्रेजीदाँ लोगों से ही अधिक थाl१९२० से लेकर १९४७ तक गाँधीजी ने प्रयास करके नेहरु को काँग्रेस की सबसे पिछली पंक्ति से लाकर ना केवल प्रथम पंक्ति में बिठा दिया,अपितु उनको काँग्रेस का मंच भी सौंप दिया सन १९२० में जब पँजाबमें मार्शल लॉ लागू किया गया था तो काँग्रेस ने इसके लिये एक उप-समिति का गठन किया थाlउस समय एक बैठक में जवाहर लाल नेहरु की विचित्र स्थिति थेlलाहौर में नकेल की हवेली में जवाहर लाल नेहरु का भाषण आयोजित किया गया थाlउस समय नेहरु की करिश्माई व्यक्तित्व और वाकपटुता की ऊँचाई की स्थिति यह थी कि नेहरु को सुनने के लिये पन्द्रह-बीस से अधिक श्रोतागण वहाँ पर उपस्थित नहीं थेlसन १९२९ में लखनऊ के गंगाप्रसाद हॉल में काँग्रेस कमिटी का अधिवेशन हो रहा थाlउस बैठक के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरु थेlउसी वर्ष लाहौर में सम्पन्न होने वाले काँग्रेस के अधिवेशन के लिये अध्यक्ष का निर्वाचन किया जाना था,उसके लिये मोहनदास करमचंद गाँधी और डाक्टर पट्टाभि सितारामैय्या के नाम थेlसितारामैय्या ने गाँधी के पक्ष में अपना नाम वापस ले लियाlऐसी सबको आशा थी और ऐसा सर्वसम्मत निर्णय माना  जा रहा था कि अध्यक्ष पद के लिये गाँधी के नाम की घोषणा हो जायेगी,परन्तु तभी कुछ विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गयीlपहले तो कानाफूसी होती रही और फिर जब घोषणा करने का समय आया तो उससे कुछ ही क्षण पूर्व गाँधी और मोतीलाल नेहरु मंच से उठकर बराबर वाले कमरे में विचार-विमर्श करने के लिये चले गयेlपाँच-दस मिनट वहाँ मंत्रणा के उपरान्त जब दोनों वापस आये और अधिवेशन के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरु ने घोषणा करते हुए कहा कि गाँधी जी ने जवाहर लाल नेहरु के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया हैlइस प्रकार लाहौर काँग्रेस के अध्यक्ष पद के लिये जवाहर लाल नेहरु के नाम की घोषणा हो गयीlअधिवेशन में उपस्थित सभी सदस्य और दर्शक यह सुन अवाक रह गयेlकुछ मिनट तो इस घोषणा का अर्थ समझने में ही लग गये और जब बात समझ में आयी तो तब किसी ने ताली बजायी और फिर सबने उसका अनुकरण कियाlवहाँ से उठने पर कानाफूसी होने लगी कि यहाँ जवाहर लाल का नाम किस प्रकार आ गया?कसीस ने कहा कि कदाचित एक भी मत उसके पक्ष में नहीं थाl
इसी प्रकार सन १९३६ की लखनऊ काँग्रेस के अवसर पर गाँधीजी के आग्रह पर ही जवाहर लाल नेहरु को काँग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया थाlइसकी पुंरावृत्ति सन १९४६ में भी हुयी थीlउस समय किसी भी प्रांतीय कमिटी की ओर से जवाहर लाल के नाम का प्रस्ताव नहीं आया था,तदपि गाँधी के आग्रह पर श्री कृपलानी की कूटनीति के कारण जवाहर लाल नेहरु को काँग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया और फिर संयोग से भारतवर्ष विभाजन के पश्चात उन्हीं को भारतवर्ष का प्रधानमंत्री बनाया गयाlइस प्रकार स्पष्ट है कि गाँधी तो स्वयं हिन्दी के समर्थक थे,किन्तु सन १९२० से आरम्भ कर अपने अन्तिम क्षण तक वे अंग्रेजी भक्त नेहरु का ही समर्थन करते रहे थे,और जवाहरलाल का भरसक प्रयत्न था कि अंग्रेजी यहाँ की राष्ट्रभाषा बन जायेlइस प्रकार यह ऐतिहासिक सत्य है कि अपने आरम्भ से लेकर अन्त तक काँग्रेस हिन्दी को भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा बनने नहीं देना चाहती थीlउसका कारण यह नहीं था कि क्षेत्रीय भाषायें हिन्दी का विरोध करती थीं या करती हैंlभारतवर्ष विभाजन के पश्चात केन्द्र व अधिकाँश राज्यों में सर्वाधिक समय तक काँग्रेस ही सत्ता में रही है और उसने निरन्तर अंग्रेजी की ही सहायता की है,उसका ही प्रचार-प्रसार किया हैlवर्तमान में भी हिन्दी का विरोध किसी क्षेत्रीय भाषा के कारण नहीं वरन गुलामी का प्रतीक अंग्रेजी के पक्ष के कारण किया जा रहा हैlऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस देश की भाषा वही होगी जो देश की बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भाषा होगी अथवा कि उसके स्थान पर बैठी अंग्रेजी ही वह स्थान ले लेगी?लक्षण तो शुभ नहीं दिखलायी देते क्योंकि १८८५ में स्थापित काँग्रेस ने स्वयं तो बिना संघर्ष के मजे का जीवन जिया है, और जहाँ तक भाषा का सम्बन्ध है,काँग्रेस सदा ही अंग्रेजी के पक्ष में रही हैlइसमें काँग्रेस के नेताओं का भी किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है,हिन्दी के समर्थक ही इसके लिये दोषी हैंlस्पष्ट रूप से कहा जाये तो देश का बहुसंख्यक समाज इसके लिये दोषी हैlआज तक बहुसंख्यक हिन्दू समाज के नेता रहे हैं कि राज्य के विरोध करने पर भी हिन्दू समाज के आधारभूत सिद्धान्तों का चलन होता रहेगाl
काँग्रेस हिन्दू संस्था नहीं है वर्ण यह कहा जाये कि अपने आधारभूत सिद्धान्तों काँग्रेस हिन्दू विचारधारा का विरोध करने वाली संस्था है तो किसी प्रकार की कोई अतिशयोक्ति नहीं होगीlकाँग्रेस न केवल अंग्रेजियत को ही अपना कंठाभरण बनाये हुए है अपितु यह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की शिक्षा के आधार पर ईसाईयत के प्रचार को भी पाना कंठाभरण बनाये हुए हैlइस मानसिकता को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की मानसिकता का नाम दिय जाता है,क्योंकि इस यूनिवर्सिटी की स्थापना ही ईसाईयत के प्रचार के लिये ही की गयी थीlअधिकांश समय तक सत्ता में बैठी भारतवर्ष के काँग्रेस सरकार की मानसिकता यही रही है और इसके लिये जवाहरलाल नेहरु और नेहरु खानदान का काँग्रेस पर वर्चस्व ही मुख्य कारण हैlजवाहर लाल नेहरु की मानसिकता वही थीl

किसी भी प्रकार शिक्षा सरकारी हाथों में नहीं रहनी चाहियेlस्वाभाविक रूप में शिक्षा उअर फिर भाषा का प्रश्न राजनीतिक लोगों के हाथों से निकलकर शिक्षाविदों के हाथ में आ जाना चाहियेlशिक्षा का माध्यम जन साधारण की भाषा होनी चाहियेlविभिन्न प्रदेशों में यह क्षेत्रीय भाषाओँ में दी जानी चाहियेlऐसी परिस्थिति में हिन्दी और हिन्दू-संस्कृति का प्रचार-प्रसार क्षेत्रीय भाषाओँ का उत्तरदायित्व हो जायेगाlअपने क्षेत्र में हिन्दी भी ज्ञान-विज्ञान की वाहिका बन जायेगीlभारतीय संस्कृति अर्थात हिन्दू समाज का प्रचार क्षेत्रीय भाषाओँ के माध्यम से किया जाना अत्युत्तम सिद्ध होगाlशिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषा होlसरकारी कामकाज भी विभिन्न क्षेत्रों में उनकी क्षेत्रीय भाषा में ही होनी चाहियेlअंग्रेजी अवैज्ञानिक भाषा है और इसकी लिपि भी पूर्ण नहीं अपितु पंगु हैlक्षेत्रीय भाषाओँ के पनपने से यह स्वतः ही पिछड़ जायेगी अंग्रेजी के विरोध का कारण यह है कि अंग्रेजी का साहित्य संस्कृत उअर वैदिक साहित्य की तुलना में किसी महत्व का नहीं हैlहिन्दू मान्यताओं की भली-भान्ति विस्तार सहित व्याख्या कदाचित अंग्रेजी में उस सुन्दरता से हो भी नहीं सकती जिस प्रकार की संस्कृत में की जा सकती हैlसंस्कृत भाषा में वर्णित उद्गारों अथवा भावों का प्रकटीकरण हिन्दी में बड़ी सुगमता से किया जा सकता हैlइसके अतिरिक्त हिन्दी का अगला पग संस्कृत ही है कोई अन्य भाषा नहींlसंस्कृत के उपरान्त वेद भाषा उसका अगला पग हैlअतः भारतीय अर्थात बहुसंख्यक हिन्दू सुरक्षा का प्रश्न पूर्ण रूप से भाषा के साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि मानव मनके उत्थान के लिये हिन्दी और संस्कृत भाषा में अतुल साहित्य भण्डार विद्यमान हैl
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Monday, February 9, 2015

प्रथम स्वधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अर्थात तेलंगा खड़िया - अशोक "प्रवृद्ध"

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित राष्ट्रीय खबर में दिनांक- ०९ / ०२ /२०१५ को प्रकाशित लेख - १८५७ के पूर्व गुमला में स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अर्थात तेलंगा खड़िया

प्रथम स्वधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अर्थात तेलंगा खड़िया
-  अशोक "प्रवृद्ध"



झारखण्ड प्रांत के गुमला जिला के सिसई प्रखण्ड अन्तर्गत मुरूनगुर ग्राम (आज का मुर्गु ग्राम) के पाहन और नागवंशी महाराजा रातुगढ़ के भण्डारी ठुईया खड़िया एवं पेतो खड़िया (खडियाईन) के यहाँ 9 फरवरी 1806 को जन्म हुए पुत्र तेSबलंगा खड़िया बाल्यकाल से ही निडर और श्याम वर्ण का लंबा-छरहरा देखने में एक खूबसूरत नौजवान था। वह बचपन से ही बहुत बाचाल अर्थात अत्यधिक बोलने वाला बालक था और खड़िया भाषा में बहुत बोलने वाले बाचाल व्यक्ति को  तेSबलंगा कहा जाता है । इसीलिए ठुइया खड़िया के अत्यधिक बोलने वाले पुत्र को तेSबलंगा कहा जाने लगा । बाद में यही तेSबलंगा कहलाने वाला बालक तेलंगा के नाम से प्रसिद्ध होकर अन्ग्रेजों के लिए सिर दर्द साबित हुआ ।

 अपने संगी - साथियों के साथ तेSबलंगा मुरूनगुर और आसपास के जंगलों में निर्भीक घूमा करता था। खड़िया लोकगीतों के अनुसार एक बार तेSबलंगा (तेलंगा) अपने साथियों के साथ जंगल से घर लौट रहा था, कि रास्ते में शाम हो गयी । अभी गांव के मुहाने पर पहुँचने में कुछ देर थी कि तेलंगा के साथियों ने अंधेरे में दो चमकती आंखें देखी और भयभीत हो तेSबलंगा (तेलंगा) को पूकारने लगे । तेSबलंगा (तेलंगा) के साथियों ने मारे भय के मारे तेSबलंगा (तेलंगा) को घेर लिया। तेSबलंगा (तेलंगा) समझते देर नहीं लगी कि दो चमकती आंखें बाघ की है जो घात लगाए अपने शिकार को देख रहा है । तेSबलंगा (तेलंगा) को अपनी फिक्र नहीं थी, वह सोच रहा था कि उसके किसी भी साथी को कुछ होना नहीं चाहिए, नहीं तो अपने साथियों के माता-पिता को वो क्या जबाव देगा ? तेSबलंगा (तेलंगा) अपने बल और बुद्धि से परिस्थिति को भांफ गया और अपने सभी छह साथियों को पेड़ पर चढ़ जाने को कहा। तेSबलंगा ( तेलंगा) के सभी साथी भय से कांप रहे थे, धुंधलाती - गहराती शाम वातावरण को और भी डरावना बना रही थी। तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपने सभी साथियों को सहारा दे-देकर पेड़ में चढ़ा दिया । नजदीकी सरगोशियों से बाघ चौंकनना हो गया और एक लंबी छलांग मार कर तेSबलंगा (तेलंगा), जो अब तक पेड़ पर नहीं चढ़ पाया था, को अपने पंजों से दबोच लिया । तेलंगा बड़ा ही चुस्त और ताकतवर था उसने बाघ के अगले दो पंजों को अपने हाथों से पकड़ लिया और कहते है कि तेलंगा की पकड़ बाघ पर मजबूत होते - होते इतनी मजबूत हो गई थी कि बाघ हिल तक नहीं सका। सुनने में यह असंभव सा जान पड़ता है परंतु है खड़िया लोकगीतों व कथाओं के अनुसार है यह सत्य। शुद्ध हवाओं में जीने वाला तेSबलंगा (तेलंगा),दूध और दही का सेवन करने वाला तेSबलंगा (तेलंगा) और जंगलों को अपने पैरों से रौंदने वाला तेSबलंगा (तेलंगा) की बाहों में बाघ से ज्यादा ताकत होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। बाघ पर तेSबलंगा (तेलंगा) ने शीघ्र ही काबू पा लिया। अगर चाहता तो वह बाघ को अपने कमर में लटक रहे छूरे से मार भी सकता था परंतु तेSबलंगा (तेलंगा) था स्वभाव का बड़ा दयालु। बाघ को कमजोर पड़ते देखकर तेSबलंगा (तेलंगा) को अपनी ताकत पर घमंड़ नहीं हुआ बल्कि बाघ पर दया आ गयी और उसने बाघ को भाग जाने का मौका दे दिया । बाघ जिस प्रकार छलांग लगा कर तेSबलंगा (तेलंगा) पर झापटा था उसी प्रकार छलांग लगाकर जंगल के अंधेरे में भाग खड़ा हुआ।

तेSबलंगा (तेलंगा) के साथी उसे कोस रहे थे कि हाथ आए बाघ को उसने क्यों जाने दिया ? बाघ के सामने तो सभी की घिग्घी बंध गयी थी और जब बाघ पर तेSबलंगा (तेंलगा) ने काबू पा लिया तो अपने सभी साथियों को शेर बनते देख तेSबलंगा (तेलंगा) ने  अपने साथियों को समझाया कि कमजोर पड़े इंसान या जानवर को क्षमा अर्थात माफ़ कर देना चाहिए । क्षमा करना वीरों अरथात ताकतवरों का कार्य है, कमजोर माफ करना नहीं जानते। अब देखो न , बाघ तो भाग गया, तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपने साथियों को कहा और तुमलोग जानते हो न बाघ मुझे पहचान गया है अब कभी वह हमलोगों पर हमला नहीं करेगा। बात करते - करते तेSबलंगा (तेलंगा) अपने साथियों के साथ गांव पहुंच चुका था। गांव के लोगों को तेSबलंगा (तेलंगा) पर इतना विश्वास था कि अगर तेSबलंगा (तेलंगा) साथ है तो कोई फिक्र की बात नहीं है और इसी विश्वास को कायम रखने के लिए वह बाघ से लड़ने के लिए तैयार हो भिड़ गया था।


जंगल में फैले चारों तरफ उंचे-उंचे सखुआ , महुआ , पलाश, देवदारों के घने दरख्तों से छन-छन कर आती सुबह की सूर्य की किरणों को अपलक निहारना तेSबलंगा (तेलंगा) को अच्छा व मनोहारी लगता था और यह उसका मुख्य शौक (शगल) था। जंगल के बीचोंबीच स्थित दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ नामक जलप्रपात के चट्टानों पर लेट कर बांसुरी की टेर छेड़ना अर्थात बांसुरी बजाना तेSबलंगा (तेलंगा) का दूसरा मुख्य शौक था। धूप में बदन को तपते छोड़कर बांसूरी की धुन जब तेलंगा छेड़ता था तो मानो जंगल के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। गांव की युवतियाॅं झुण्ड बना कर जलप्रपात में स्नान करने और जंगल से फलों , पतियाँ , जलावन की लकड़ी व अन्यान्य वन्योत्पाद को तोड़ अथवा चुन कर ले जाने के लिए प्रतिदिन आती और तेलंगा के बासूरी के धुनों को सुन ठिठक कर खड़ी ही रह जाती। ये ग्रामीण बालाएं मन ही मन सोचा करती थी कि तेलंगा किसका होगा , यह किसका पति बनेगा ? सभी बालाओं में तेलंगा को अपनी ओर आकर्षित करने की , रिझाने की होड़ सी लगी रहती पर तेलंगा था कि लडकियों से दूर-दूर ही रहता , वह किसी को घास ही नहीं डालता । उसका मन सिर्फ और सिर्फ अपने समाज , गाँव और क्षेत्र के आदिवासी - गैरआदिवासी लोगों को संगठित कर परतंत्र भारतवर्ष को स्वाधीन करने के लिए जगह-जगह जन अभियान चलाने अथवा बैठकें आयोजित करने में ही लगा करता था । तेलंगा खड़िया सहृदय समाजसेवी थे। तेSबलंगा अर्थात तेलंगा खड़िया को आदि सनातन सरना धर्म पर अटूट व अगाध विश्वास था । एक किसान होने के साथ-साथ ये अस्त्र-शस्त्र चलाना भी जानते थे तथा अपने लोगों को इसकी शिक्षा भी देते थे । कुछ इसी तरह लगभग उनचालीस वर्ष गुजर गए , परन्तु तेSबलंगा को देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं सुहाता था ।

इसी समय की बात है । एक दिन तेSबलंगा (तेलंगा) अम्बाघाघ की जलप्रपात की चट्टान पर लेटा अपनी धुन में बांसूरी बजा रहा था कि उसे ‘बचाओ-बचाओ’ का शोर सुनाई दिया। तेSबलंगा
(तेलंगा) ने बांसूरी बजाना बंद कर आ रहे शोर की ओर अपने कान लगा दिए । आवाज जिधर से आ रही थी , उधर देखने से उसे ऐसा महसूस हुआ कि झरने के उपर से आठ-दस युवतियां ‘बचाओ-बचाओ’  की शोर मचाते हुये चिल्ला रही थी और नीचे गिर रहे जलप्रपात की ओर इशारा कर रही थी। तेSबलंगा
(तेलंगा) को समझते देर नहीं लगी कि इनमें से कोई युवती जलप्रपात में गिर गयी है। अम्बाघाघ के जलप्रपात में एक युवती के गिरने की बात जानते और समझते ही बिना समय गवाएं ही तेSबलंगा (तेलंगा) ने जलप्रपात में छलांग लगा दिया। कहा जाता है कि उस जलप्रपात की गहराईयों को सदियों से आज तक कोई माप नहीं सका था, लेकिन तेSबलंगा (तेलंगा) को इसकी फिक्र कहां थी ? वह तो योद्धा था, सब गुण आगर , तैरने में निपुण। अपने फौलादी बांहों से जलप्रपात के निकट तीव्र गति से बहती जल के वेग को चिरता हुआ वह तेजी से बहती जा रही युवती के निकट शीघ्र ही पहुंच गया और देखते ही देखते तेSबलंगा (तेलंगा) की बांहों में थी वह अम्बाघाघ में डूबती हुई युवती। उस युवती को पानी से बाहर निकालकर तेSबलंगा (तेलंगा) ने चट्टान पर लिटा दिया । तब तक उस युवती की सहेलियां वहां पहुंच चुकी थी और रतनी-रतनी कह कर उसे घेर पुकार रही थी । तेSबलंगा (तेलंगा) को पहली बार किसी युवती को अपने बांहों में उठाने का अवसर मिला था, किसी युवती की इतनी नजदीकियों का अहसास उसे जीवन में पहली बार हुआ था । इसलिए तेSबलंगा (तेलंगा) को अपने शरीर में एक अजीब , और अनोखी सिहरन सी महसूस हो रही थी ।


उसकी सहेलियां जिसे रतनी-रतनी कह कर पुकार रही थी वह अब होश में आने लगी थी । रतनी ने मुंह से पानी की उल्टियां की और थोडी देर में उठ कर बैठ गयी। तेSबलंगा (तेलंगा) ने पहली बार किसी युवती को इतने गौर और नजदीक से देखा था ,महसूस किया था । रतनी के श्यामल रूप में एक अदभूत आकर्षण था , जो तेSबलंगा (तेलंगा) को बरबस ही अपनी ओर खींच रहा था परंतु वह जड़ बना बस रतनी को ही देखे जा रहा था। रतनी को जब पता चला कि उसे पास खड़े नौजवान तेSबलंगा (तेलंगा) ने जान पर खेलकर अम्बाघाघ में डुबने से बचाया है तो रतनी के मन में भी तेSबलंगा (तेलंगा) के प्रति एक आकर्षण जागता हुआ सा महसूस हुआ। रतनी मन ही मन सोचने लगी थी कि काश इस वख्त उसकी सहेलियां अगर अभी साथ नहीं होती तो ढेर सारी बातें वो इस नवजवान से करती, उधर तेSबलंगा (तेलंगा) की भी कुछ ऐसी ही ईच्छा हो रही थी। ऐसी ही स्थिति में काफी समय बीत गई और रतनी अब बिल्कुल ठीक महसूस कर रही थी, वह उठ खडी हुयी और पास खडे तेSबलंगा (तेलंगा) के समीप जा कर कहा कि ‘‘अगर आज आप यहां नहीं होते तो मैं घाघ में डूब मर ही गयी होती।’’ तेSबलंगा (तेलंगा) रतनी की मधुर सुरीली आवाज को सुनकर जैसे मंत्रमुग्ध सा हो गया था। उसने कोई जबाव नहीं दिया, सिर्फ खडा-खडा रतनी को पूर्ववत देखता रहा।


जल्दी ही रतनी अपने सहेलियों के साथ गांव की ओर चली गयी। तेSबलंगा (तेलंगा) रतनी के जाने के बाद भी अपने बांसुरी के साथ वहां काफी देर तक अपने अंदर तरह-तरह के ख्यालों में खोया सा बैठा रहा। उसे अब बांसुरी बजाने का आनंद कुछ अलग सा महसूस हो रहा था। कहते है न कि दिल की आवाज ही साज बनकर निकलती है और जब किसी पर दिल आ जाता है तो साज के सहारे दिल की धडकती आवाज भी निकलने लगती है। यही कुछ हुआ तेSबलंगा के साथ भी, उसकी बांसुरी की धून दर्दीली हो गयी थी जिसे सूनकर पशु-पक्षी, पेड-पौधे भी कोलाहल करना बन्द कर मानो शांति से बांसुरी की दर्दीली धुन को सुनने लगे थे। झरने तक अपनी प्यास बुझाने के उद्देश्य से आए बाघ, चीता, भालू आदि हिन्श्र जन्तुओं के साथ ही हिरण , बकरी , गाय आदि कमजोर पशु भी पानी पीकर मंत्रमुग्ध से वहीं ठिठक से गए थे। निसंदेह संगीत की भाषा सशक्त होती है जो प्रकृति के सभी प्राणियों को आनंदित करती है। एक अद्वितीय दृश्य का सृजन हो चुका था वहां जब तेSबलंगा के बांसुरी के धुन में कोयल ने अपनी कू - कू कुहुकने के स्वर को इस तरह मिलाया कि ऐसा मालूम होता था कि कोई संगीतकार के बताए अनुसार लय और ताल को ध्यान में रखते हुए तेSबलंगा (तेलंगा) और पपीहे ने जुगलबंदी कर ली हो। तेSबलंगा (तेलंगा) भी इस जुगलबंदी का आनंद लेता रहा और उसे पता ही नही चला कि कब शाम हो गयी? उस रात न जाने क्यों तेSबलंगा को सिर्फ रतनी की ही याद आती रही?

तेSबलंगा (तेलंगा) की माँ ने इससे पहले अपने पुत्र तेSबलंगा को कभी भी इतना उदास नहीं देखी थी। सुबह को तेSबलंगा की माँ ने पूछा कि उसे क्या हुआ है ?  तेSबलंगा (तेलंगा) ने सुबह में अपनी प्यारी गाय चंपा का दूध भी नहीं दुहा, चंपा के बछड़े जोगिया के साथ खेतों में दौड़ भी नहीं लगाई । तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपनी माँ को रतनी के जलप्रपात में डूबने और उसे बचाने की घटना को विस्तार से सुनाई । तेSबलंगा की माँ को समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि तेSबलंगा अब उसका पुत्र शादी के लिए तैयार हो गया है और रतनी को बचाने के दौरान उसे अपना दिल दे बैठा है। तेSबलंगा की माँ ने कहा, बेटा तुम्हारी बीमारी को मैं समझ गयी हॅंू, चिन्ता मत करो, जल्दी ही तुम्हारी इस बीमारी का इलाज कर दिया जायेगा । तेSबलंगा को कुछ भी समझ में नहीं आया कि उसकी माँ क्या कह रही है? वह बस टुकुर - टुकुर  अपनी माँ को देखता रहा। छह फीट का लंबा , हट्ठा-कट्ठा तेSबलंगा (तेलंगा) अभी बिल्कुल बच्चे की तरह मासूम लग रहा था जिसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह रोज के दिनचर्या से आखिर क्यंू विमुख होता जा रहा है ?

तेSबलंगा (तेलंगा) की माँ उसी दिन रतनी के माता-पिता से मिलने रतनी के घर गयी और अपने पुत्र तेSबलंगा (तेलंगा) से रतनी की शादी की बात बिना लागलपेट के रतनी के माता-पिता के समक्ष रख दिया। तेSबलंगा (तेलंगा) अपने सामाजिक और देशभक्तिपरक कार्यों से क्षेत्र में सबका दुलारा और चहेता बन गया था , इसलिए रतनी के माता-पिता ने एक साथ तेSबलंगा की माँ को कहा , भला उससे कौन लड़की शादी नहीं करना चाहेगी और हमें क्या ऐतराज हो सकता है ? रतनी के पिता गणेश खड़िया ने तेSबलंगा की माँ को साफ शब्दों में कहा कि उसकी बेटी रतनी ने अवश्य कोई पुण्य का कार्य पिछले जन्म में किया होगा जो तेSबलंगा जैसा होनहार युवक की पत्नी बनेगी। तेSबलंगा की माँ शादी की बात तय कर चली गयी और कुछ ही दिनों में रतनी और तेSबलंगा पति-पत्नी बन गए।

तेSबलंगा (तेलंगा) के सानिध्य में भोली-भाली रतनी अब भोली-भाली नहीं रह गयी थी बल्कि शीघ्र ही अपने पति के अंग्रेजों के प्रति विद्रोही स्वभाव को अपनाने लगी और कंधे से कंधे मिलाकर रतनी अपने पति के साथ खडिया व अन्य समाज को संगठित करने में व्यस्त हो गयी । तेलंगा अपने साथियों को गांव के अखाड़ा में कुश्ती करना, तीर चलाना, गदका और गदा चलाना आदि संचालन का कार्य सीखाता था तो रतनी भी गांव में बच्चों के लिए अखाड़ा चलाती थी, जहां छोटे-छोटे बच्चों को बड़ा होकर तेSबलंगा की तरह बहादुर और निडर बनने की शिक्षा दी जाती थी।

तेSबलंगा (तेलंगा) में गजब की नेतृत्व क्षमता थी और साथ ही तेSबलंगा एक अच्छा पुत्र, एक अच्छा पति, एक अच्छा समाज सेवक और एक अच्छा देश प्रेमी था। तेSबलंगा की गृहस्थी खूशहाल थी और समाज , गाँव और क्षेत्र को खुशहाल बनाने में तेSबलंगा लगा हुआ था जिसमें उसका भरपूर साथ उसकी प्रिय पत्नी रतनी भी देती थी। तेSबलंगा खड़िया ने अंग्रेजी हुकूमत को नकार दिया था। उसने कहा- जमीन हमारी, जंगल हमारे, मेहनत हमारी, फसलें हमारी, तो फिर जमींदार और अंग्रेज कौन होते हैं हमसे लगान और मालगुजारी वसूलने वाले। अंग्रेजों के पास अगर गोली-बारूद हैं, तो हमारे पास भी तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, फरसे हैं। बस क्या था, आदिवासियों की तेज हुंकार से आसमान तक कांप उठा।तेSबलंगा ने गुमला के आसपास के गांवों में अपना संगठन बनाया जिसका नाम उसने ‘जूरी पंचायत’ रखा था , जिसकी शाखाएं मुरूनगुर (अब मुरगु) , सिसई , सोसो, नीमटोली, बघिमा, नाथपूर, दुन्दरिया, डोइसा, कुम्हारी , चैनपुर,बेन्दोरा, कोलेबिरा,लचरागढ़ , बानो , महाबुआंग आदि गांवों में बनायी गयी थी। जूरी पञ्चायत एक ऐसा संगठन था, जिसमें विद्रोहियों को तमाम तरह की युद्ध विद्याओं समेत रणनीति बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। रणनीतिक दस्ता युद्ध की योजनाएं बनाता और लड़ाके जंगलों, घाटियों में छिपकर गुरिल्ला युद्ध करते। प्रतिदिन अखाड़े में युवा युद्ध का अभ्यास करने लगे। हर जुरी पञ्चायत एक दूसरे से रणनीतिक तौर पर जुड़े थे। संवाद और तालमेल बेहद सुलझा हुआ था। जमींदारों के लठैतों और अंग्रेजी सेना के आने के पहले ही उसकी सूचना मिल जाती थी। विद्रोही सेना पहले से ही तैयार रहती और दुश्मनों की जमकर धुनाई करती । तेSबलंगा ने छोटे स्तर पर ही सही, मगर अंग्रेजों के सामानांतर सत्ता का एक स्वदेशी विकल्प खोल दिया था। अपने जुरी पंचायतों की शाखाओं में तेSबलंगा नियमित रूप से परिभ्रमण किया करता था। तेSबलंगा ने अपने अथक प्रयासों से न सिर्फ खडिया समुदाय बल्कि अन्य आदिवासी - गैरआदिवासी समुदायों को भी अंग्रेजों के अत्याचारों से अवगत कराना शुरू कर दिया और उनसे प्रतिशोध लेने के लिए भावनात्मक और शारीरिक तौर पर तैयार कर लिया। गुमला के आस - पास के क्षेत्रों में जूरी पंचायतों की बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेजों को चिंता सताने लगी। अधिकतर गांव जमींदारी और अंग्रेजी शोषण से पीडि़त थे। इसलिए विद्रोहियों को ग्रामीणों का भारी समर्थन मिल रहा था। गुरिल्ला युद्ध में दुश्मनों को पछाड़ने के बाद विद्रोही जंगलों में भूमिगत हो जाते।
 तेSबलंगा ने संपूर्ण पूर्वी, पश्चिमी एवं दक्षिणी गुमला के क्षेत्रों में इतनी प्रसिद्धी प्राप्त कर ली थी कि अंग्रेज इस कशेत्र में सीधा हस्तक्षेप करने से डरते थे और तेSबलंगा ने आङ्ग्ल शासकों की नई भू - कर नीति को खुल -ए - आम विरोध करते हुए लोगों को भू कर अदा करने से मना कर दिया था । तेSबलंगा जमींदारों और अंग्रेजी शासन के लिए खौफ बन चुका था। इसलिए उसे पकड़ने के लिए इनाम का जाल फेंका गया और अपनी चिर- परिचित आङ्ग्ल - नीति के तहत अंग्रेजों ने ‘फूट डालो अर्थात बाँटो और राज करो’ की नीति को अपनाते हुए मुरूनगुर के बगल के गाँव बरगांव के जंमीदार बोधन सिंह को रूपए का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और तेSबलंगा के पीछे लगा दिया। 21 मार्च सन 1852 ई. को बसिया प्रखंड के कुम्हारी गांव में अपने जूरी पंचायत की बैठक में तेSबलंगा व्यस्त था कि अंग्रेजों के दलाल बोधन सिंह ने पुलिस को खबर कर दिया और पुलिस ने अचानक  बैठक पर धावा बोलकर तेSबलंगा को गिरफतार कर लिया और  संपूर्ण इलाके में पुलिस दस्तों को खचाखच भर दिया , ताकि तेSबलंगा के अनुयायी इलाके में शांति भंग न कर सकें । गिरफ्तारी के पश्चात लोहरदगा कचहरी में पेश करने के बाद तेSबलंगा को चौदह वर्ष के लिए कलकता जेल भेज दिया गया।

 अंग्रेजों की इस कायरता पूर्ण कृत्य का पत्ता जब रतनी को हुआ तो वह आग बबूला हो गयी। अपने करीब छह - सात साल के पुत्र बलंगा को अपने पीठ में बांधकर सभी जूरी पंचायतों का भ्रमण करने लगी और अंदर-अंदर अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने के लिए क्षेत्र के विभिन्न समुदायों के लोगों को पूर्ण रूप से जागृत करने के कार्य में लग गई । उधर बोधन सिंह अंग्रेजों को जूरी पंचायतों की सक्रियता की पूरी खबर पहुंचाता रहता था। तेSबलंगा के जेल में रहने के बावजूद उसके जूरी पञ्चायत के संगठनों की लोकप्रियता रतनी के प्रयासों के कारण कम नहीं हो रही थी , बल्कि उल्टे बढ़ रही थी । अपने शासन को स्थिर रखने कके लिए अंग्रेज साम - दाम - दण्ड , भेद सभी प्रकार के नैतिक - अनैतिक नीति अपनाते थे , उन्होंने एक षड़यंत्र के तहत तेSबलंगा को गिरफ़्तारी के चौदह साल बाद जेल से एक दिन स्वतः ही बिना किसी कारर्वाई के छोड़ दिया। दरअसल अंग्रेजों ने एक षड़यंत्र रचा कि तेSबलंगा को जेल से रिहा करके उसे उसके गांव पहुंचने दिया जाए और एक दिन बोधन सिंह से उसकी हत्या करवा दिया जाए। इसी षडयंत्र के तहत तेSबलंगा को कलकता जेल से स्वतः छोड़ दिया गया और जेल से छूटने के बाद तेSबलंगा सीधा अपने  गांव मुरूनगुर पहुंचा और पुनः एक बार शुरू हुआ जूरी पंचायतों की लगातार बेठकें और अंग्रेजों से लोहा लेने की कवायदों का एक अन्तहीन सिलसिला । चौदह साल बाद जब तेSबलंगा के जेल से छूटने के बाद उसके विद्रोही तेवर और भी तल्ख हो गए। विद्रोहियों की दहाड़ से जमींदारों के बंगले कांप उठे। जुरी पञ्चायत पुनः जिन्दा हो उठा और युद्ध -- कौशल प्रशिक्षणों का दौर शुरू हो गया। बसिया से कोलेबिरा तक विद्रोह की लपटें फैल गईं। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, हर कोई उस विद्रोह में भाग ले रहा था। तेSबलंगा जमींदारों और सरकार के लिए एक भूखा बूढ़ा शेर बन चुका था। दुश्मन के पास एक ही रास्ता था- तेSबलंंगा को मार गिराया जाए। परन्तु उधर अपनी देशभक्ति की राह पर चल रहा भोला - भाला तेSबलंगा (तेलंगा )अंग्रेजों के षड्यंत्र को समझ नहीं सका , और वह वैसे भी अंग्रेजों की तरह कायर नहीं था इसलिए अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी सांगठनिक कारर्वाई को वह बेधड़क अंजाम देता रहा । क्योंकि वह स्वय देशभक्त था और खुद की तरह सभी को देशभक्त समझता था इसलिए बोधन सिंह उसके विरूद्ध मुखबरी भी कर रहा है तेSबलंगा ऐसा नहीं सोच भी नहीं सकता था ।

अंग्रेजों ने अपने षड़यंत्र को अंजाम देने के लिए बोधन सिंह को अकूत धन-दौलत का लालच देकर तेSबलंगा को अपने रास्ते से हटाने की सूपारी दे दी । ईष्यालु और कायर बोधन सिंह सिसई के अखाड़े में जब तेSबलंगा ने 23 अप्रैल 1880 ई. को सुबह अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करने के पूर्व अपने जूरी पञ्चायत के नियत ध्वज के समीप प्रार्थना के लिए जैसे ही अपने झुके हुए सिर को उठाया उसी समय झाड़ियों में छुपे हुए कायर बोधन सिंह ने उन पर गोली चला दी । गोली लगने पर तेSबलंगा ने देखा कि 23 अप्रैल 1880 की उस सुबह को स्वयं तेSबलंंगा समेत कई प्रमुख स्वाधीनता सेनानियों को अंग्रेजी सेना ने मैदान के कुछ दूर से घेर लिया है । यह देख घायल शेर की भांति तेSबलंंगा गरजा-  है हिम्मत तो सामने आकर लड़ो नपुंसकों । कहते हैं कि तेSबलंगा की उस दहाड़ से समूचा इलाका थर्रा गया था। युद्ध कौशल से प्रशिक्षित स्वाधीनता सेनानियों से सीधी टक्कर लेने की हिम्मत दुश्मन में नहीं थी। इसलिए अंग्रेजों के दलाल बोधन सिंह ने झाडि़यों में छिपकर तेलंगा की पीठ पर गोली चला दी थी । बाद में  तेSब्लंगा मूर्छित हो गिर पड़े , परन्तु  बेहोश तेSबलंगा के पास आने की भी हिम्मत दुश्मनों में नहीं थी। इस अवसर का लाभ उठाकर स्वाधीनता सेनानी तेSबलंगा को लेकर जंगल में गायब हो गए। तेSबलंगा के शव को देखकर रतनी आहत तो जरूर हुयी परंतु उसने आंसू नहीं बहाए। रतनी अपने जवान हो चुके बेटे बलंगा में अपने पति अर्थात उसके पिता की छवि देख रही थी। बलंगा अपने पिता की ही तरह निडर , साहसी हट्ठा-कट्ठा छह फीट का नवजवान बन चुका था, उसने अपने पिता के शिष्यों को पहली बार संबोधित करते हुए कहा कि उसके पिता तेSबलंगा खड़िया की मृत्यु नहीं हुयी है अपितु वे शहीद हुए है और उनकी सहादत व्यर्थ जाया नहीं जाएगी। बलंगा ने प्रण किया कि उसके पिता द्वारा आरम्भ किये गये आंदोलन का नेतृत्व अब वह स्वयं करेगा और चुन-चुन कर अंग्रेजों को मौत की घाट उतारेगा।

रतनी की आंखें भर आयी थी, उसे अम्बाघाघ जलप्रपात में डूबने से बचाने वाले तेSबलंगा की याद आ रही थी, जब तेSबलंगा ने उसे अपनी फौलादी बांहों में उठा लिया था और वह मरने से बच गयी थी। तेSबलंगा का शव यद्यपि गोली लगने के बाद भी बुलंद लग रहा था, बलंगा और तेSबलंगा के शिष्यों ने तेSबलंगा के शव को गुमला के सोसो नीमटोली ले गए और वहीं तेSबलंगा के शव को दफना दिया गया। बलंगा ने अपने पिता के कब्र पर एक स्मारक बनवाया जिसे आज भी "तेSबलंगा तोपा टाँड़" अर्थात  ‘तेलंगा तोपा टांड’ के नाम से याद किया जाता है।तेSबलंगा खडिया लोक गीतों और लोक कथाओं में आज भी जीवित हैं । प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अमर हैं । उनके जन्म दिवस पर कोटि - कोटि हार्दिक अभिनंदन ।

Saturday, February 7, 2015

पुरातन संस्कृति के अद्भुत केन्द्र तपोवन - अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक ०७ / ०२ / २०१५ को प्रकाशित लेख -पुरातन संस्कृति के अद्भुत केन्द्र तपोवन


पुरातन संस्कृति के अद्भुत केन्द्र तपोवन
- अशोक “प्रवृद्ध”

 यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि पश्चिम में जिस अरण्य अर्थात जंगल को असभ्यता की निशानी माना जाता है और जिस जंगल के कानून को बर्बरता का पर्यायवाची माना जाता है, वही जंगल हमारे देश भारतवर्ष में संस्कृति के अद्भुत केंद्र रहे हैं और जंगलों में बनाए गये कानूनों अर्थात स्मृति ग्रन्थों से भारतीय समाज आज भी प्रेरणा व मूल्य बोध प्राप्त करता रहा है। पुरातन भारतीय ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जंगलों को जीवन के मंगल से भर देने के उद्देश्य से देश के ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म-संस्कृति की प्रवाहिका नाड़ियों को अनवरत स्पन्दित रखने हेतु साधनापूर्ण जीवन जीते हुए समाज के सर्वांगीण विकास की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पुरातन गौरवमयी भारतवर्ष में जंगलों में भी संस्कृति और सभ्यता का प्रसार कर लिया गया था और प्राचीन काल में हमारे देश भारतवर्ष में अत्यन्त विकसित अरण्य अर्थात वन संस्कृति स्थापित थी। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में उल्लेखित दण्डकारण्य नामक अरण्य अर्थात वन , कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास कृत  महाभारत में उल्लेखित खाण्डववन , जहाँ पर बाद में इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हुई, विभिन्न पुरातन ग्रन्थों में उल्लेखित दण्डकारण्य , नैमिषारण्य आदि वन्यखण्डों से पुरातन भारतवर्ष मंन अरण्य अर्थात वनों की महता का पता चलता है। महाभारत की कथा के अनुसार आज जहाँ दिल्ली का पुराना किला है, अर्थात जो इन्द्रप्रस्थ है, वहाँ कभी खाण्डववन हुआ करता था, जिसे श्रीकृष्ण की मदद से जलाकर पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ नाम से एक नया नगर ही बसा दिया था और इसी  नगर में वह महल था जहां राजसूर्य यज्ञ देखने के लिए आए दुर्योधन का पाँव फिसला था, जिसे गिरते देख द्रौपदी हंस पड़ी थी। वनों की इसी श्रृंखला में नैमिषारण्य का भी नाम आता है जहां सूतजी के नेतृत्व में शौनक आदि सहस्त्रों ऋषि-मुनियों ने एक लम्बा ऐतिहासिक संवाद किया था। यह ऐतिहासिक सत्य है कि पुरातन भारतवर्ष में तपोवनों का जाल बिछा हुआ था और ये तपोवन तपस्या करने के स्थान वनों में हुआ करते थे। प्राचीन काल में तपोवन ऋषि - मुनियों का वन में निवास करने और तपस्या करने का स्थान अर्थात आश्रम हुआ करता था ।


आश्रम और तपोवन को कुछ उदाहरणों से आसानी से समझा जा सकता है । वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम ने अपनी भार्या सीता को उसकी गर्भिणी अवस्था में ही राजमहल से निकाल दिया था तो सीता को वाल्मीकि मुनि के आश्रम यानी तपोवन में ही सहारा मिला था जहां उसे लव-कुश नामक दो पुत्र हुए और उन्हें अस्त्र-शस्त्र की उस काल की अत्याधुनिक शिक्षा  भी वहीं तपोवन में मिली। जिन याज्ञवल्क्य को राजा जनक की ब्रह्मसभा में सोना मढ़ी सींगों वाली हजार गायें प्राप्त हुई थीं, वे महान याज्ञवल्क्य भी अपनी दो पत्नियों कात्यायनी और मैत्रेयी सहित आश्रम में ही रहा करते थे और उनकी गायें भी वहीं पर थीं।  श्रीराम वन गमन प्रकरण में श्रीराम को वनवास के समय अत्रि मुनि के तपोवन में जाने का अवसर प्राप्त हुआ था, वे अत्रि मुनि दण्डकारण्य के एक आश्रम में ही निवास किया करते थे जहां उनकी पत्नी  अनसूया ने सीता को सोने के गहनों से लाद दिया था। महाभारत के कथा के अनुसार हस्तिनापुर तत्कालीन प्रतिष्ठान के एक पुरुवंशी सम्राट दुष्यन्त का विश्वामित्र व मेनका की सन्तान शकुन्तला नामक ऋषिकन्या से पहले प्रेम हुआ था और फिर विवाह भी हो गया था, वह विश्वामित्र व मेनका की सन्तान शकुन्तला, कण्व ऋषि के आश्रम में ही निवास करती थी । श्रीकृष्ण और बलराम ने जिन सांदीपनि मुनि से शिक्षा ग्रहण की थी वे सांदीपनि मुनि अपने तपोवन में ही रहा करते थे। विद्यालयीन जीवन में पढ़ी एक उपनिषदीय कथा के अनुसार प्राचीन काल में धौम्य ऋषि के आश्रम में आरुणि पढ़ा करते थे। आरुणि ने एक रात मूसलाधार बारिश के पानी को आश्रम  में प्रवेश करने से रोकने के लिए खुद को रात भर मेढ़ पर लिटाए रखा और आरुणि के इस कठिन  कर्म से प्रभावित होकर आचार्य धौम्य ने उनका नाम रख दिया था, उद्दालक आरुणि यानी उद्धारक आरुणि।

पुरातन ग्रन्थों के इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि तपोवन अर्थात आश्रम का अर्थ सिर्फ वन के किसी हिस्से में ऋषि-मुनियों के बैठकर तपस्या करने,समाधि में बैठने का जगह नहीं वरन इसका अर्थ अपने विशेष परिधि और विस्तार में और भी विषद हो जाता है क्यूंकि इन तपोवनों में प्रेममय पारिवारिक जीवन भी सुखद रूप में फल-फूल रहा था। महान याज्ञवल्क्य के अपनी दो पत्नियों के साथ निवास करने , याज्ञवल्क्य के अपनी सैकड़ों गउओं के साथ आश्रम अर्थात तपोवन में रहने, कण्व के तपोवन में जाकर महाराज दुष्यन्त ऋषि कन्या शकुन्तला से प्रेम और फिर गन्धर्व विवाह करने, महर्षि अत्रि-पत्नी अनसूया के सीता को सोने के गहनों का अद्भुत उपहार देने आदि की कथाओं से इस तथ्य की पुष्टि ही होती है । पुरातन ग्रन्थों के अध्यन से इस सत्य की पुष्टि होती है कि पुरातन भारतवर्ष के प्रायः सभी वनों में तपोवन हुआ करते थे और तपोवनों में विद्याकुल । ऋषि-मुनि गहन वनों में कुटी छवाकर अर्थात बनाकर रहते थे। जहाँ वे ध्यान और तपस्या के साथ ही गृहस्थ और प्राचार्य के रूप में जीवन व्यतीत करते थे।इन्हें ही आश्रम अर्थात तपोवन कहा जाता था ।उस जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदाध्यन के अतिरिक्त अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। इन विद्याकुलों में बालक-बालिकायें अर्थात छात्र- छात्राएं  सामाजिक और आर्थिक भेद-भाव को भूलकर समन्वित रूप से एक साथ ज्ञान और विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन किया करते थे । इन तपोवनों में विद्यार्थियों को विविध ज्ञान की शिक्षा प्रदान किये जाने के कारण यहीं पर तर्क-वितर्क और दर्शन की अनेकों धारणाएँ विकसित हुई। सत्य की खोज, राज्य के सामयिक मामले व मुद्दे और अन्य समस्याओं के समाधान का यह प्रमुख केंद्र बन गया। कुछ लोग यहाँ सांसारिक झंझटों से बचकर शांतिपूर्वक रहकर गुरु की वाणी सुनते थे। इसे ही ब्रह्मचर्य और संन्यास आश्रम कहा जाने लगा। इन तपोवनों में विपुल संस्कृत साहित्य की रचना हुई । आरण्यक नाम से संस्कृत साहित्य की एक श्रृंखला ही है । वेद और उपनिषदें भी इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। प्राचीन काल में देश में अरण्य जीवन समाज की महत्वपूर्ण धारा थी, इसका प्रमाण वे चारों वेद हैं और वह उपनिषद साहित्य है जो तपोवनों में ही मुख्य रूप से लिखा गया है।
पुरातन ग्रन्थों के अनुसार प्राचीन काल में नगरीय जीवन के साथ ही वनीय जीवन अर्थात आश्रमों में भी मानवों का सामान्य निवास हुआ करता था । नगरीय जीवन में जहाँ शोर, व्यस्तता और उससे पैदा होने वाले तनाव और विलासितापूर्ण जीवन था, वहीँ आश्रमों अर्थात तपोवनों में वातावरण शान्त, सक्रिय मगर आपाधापी, मारामारी नहीं और सादगीपूर्ण जीवन हुआ करता था। शहरों की भान्ति ही तपोवन में सम्पूर्ण पारिवारिक जीवन था परन्तु शहर के विपरीत शान्त वातावरण था, अतिरिक्त ताम-झाम नहीं था, व्यर्थ की गहमागहमी नहीं थी अन्यथा वहाँ सम्पूर्ण सामाजिक जीवन था, एक अलग तरह का सामाजिक जीवन, जहाँ लोग सपरिवार रहते थे, परिवारों की संततियाँ बढती रहती थीं, और तपोवन पूर्णतः आत्मनिर्भर थे। तपोवनों में मानव समाज की तमाम शारीरिक व मानसिक समस्याएं थीं, तपोवन वासी जिनके समाधान अपनी जीवन शैली के अनुसार तलाशते रहा करते थे।वस्तुतः उस समय जीवन का तीन रूप था - शहरी , ग्रामीण और तपोवन ।
वन्य-प्रक्षेत्रों अर्थात जंगलों में जाकर तपोवन में पूर्ण सुसंसकृत और विकसित समाज का निर्माण कर प्रकृति और पर्यावरण के साथ अनुराग व स्वाभाविक स्नेह तथा हिंसक जंगली जानवरों के प्रति भी आत्मीयता मन से भरे निवास करने वाले अर्थात जंगलों में जीवन का मंगल पैदा करने वाले ऋषि-मुनियों के महान उद्देश्य तथा उच्चतम लक्ष्य ने ही भारतवर्ष में अरण्य संस्कृति को आश्रम जीवन की उतुंग ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया था , परन्तु धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया। और फिर जंगलों में हिंसक पशुओं और पर्यावरण के बीच ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म-संस्कृति का अद्भुत प्रसार करने की प्रवृत्ति लोगों में क्षीण होने लगी और गौरवमयी भारतवर्ष की अरण्य-संस्कृति का प्राचीन वैभव समाप्त होने लगा। इस गौरवमयी पुरातन वैभव की परम्परा निरन्तर कायम रहे इसीलिए आगे चलकर यह नियम बना दिया गया कि हर मनुष्य को ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन बिताने के बाद वानप्रस्थी हो जाना चाहिए अर्थात वन में प्रस्थान कर  जाना चाहिए। ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व केरल में पैदा हुए संस्कृत के महान नाटककार भास ने अपने  कुछ नाटकों में तपोवनों का वर्णन किया है ,परन्तु भास की वर्णन शैली से मालूम होता है कि तब तक तपोवनों का प्राचीन वैभव क्षीण हो चली थी और तपोवनों  की सिर्फ याद ही शेष बची थी। भास से कुछ सदी बाद उज्जयिनी में हुए कालिदास ने भी अपने विश्वप्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् में भी कुछ ऐसा ही अर्थात तपोवन परंपरा के क्षीण हो चलने का वर्णन किया है । वस्तुतः पुरातन काल में
भारतवर्ष में वन जीवन का अपना अलग ही विशिष्ट स्थान समाज में था, परन्तु जैसे-जैसे कृषि भूमि का फैलाव होने से जंगल कम होते गए वैसे-वैसे अरण्य जीवन का ह्रास स्वाभाविक रूप से होता चला गया और जिन जंगलों में हमने कभी अद्भूत सांस्कृतिक जीवन का विकास किया था, और शिक्षा, ज्ञान और विकास का केन्द्र कभी बनाया था, उन्हीं जंगलों को बचाने के लिए आज कानून बनाने पड़ रहे हैं क्योंकि कुछ दशकों के अन्तराल पर जंगल ढूंढे से भी नहीं नहीं मिलने के लक्षण दिखाई अर्थात आसार उत्पन्न होने लगे हैं ।




अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

  अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”   जैसा कि पूर्व से ही अंदेशा था कि पूर्व चुनाव आयुक्त अनू...