Monday, April 27, 2015

पुण्यसलिला भगीरथी गंगा -अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - २७/०४/२०१५ को प्रकाशित लेख - पुण्यसलिला भगीरथी गंगा
राष्ट्रीय खबर , दिनांक- २७/०४/२०१५ 


पुण्यसलिला भगीरथी गंगा
-अशोक “प्रवृद्ध”

भारतीय नदियों में देवताओं के रूप में संपूजित, तीर्थों में सर्वाधिक महिमा प्राप्त तथा भारतीय सभ्यता-संस्कृति के निर्माण में अत्यंत सहायता प्रदान करने वाली पुण्यसलिला भगवती भगीरथी गंगा इहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के श्रेय और प्रेय का सम्पादन कराने वाली हैl हिन्दुओं का विश्वास है कि भगवती गंगा के दर्शन-भज्जन एवं पान से आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दुःख-द्वन्द्व नष्ट हो जाते हैं तथा हिन्दुओं में सभी श्रेणी के लोग गंगा के प्रति अपूर्व श्रद्धा रखते हैं और कवि से लेकर साधारण जन तक इसे माँ अर्थात माता के रूप में देखते हैं l आर्य-संस्कृति के प्रारम्भिक काल से ही गंगा की तटवर्ती भूमि साधु-संतों की तपोभूमि रही है l गंगा के जल में अमृत का गुण माना-समझा जाता है l
लोक विश्वास के अनुसार, मरनोन्मुख व्यक्तियों के मुख में गंगा जल डालने से मृत्यु कष्ट से ही नहीं वरन अन्यान्य पापों से भी मनुष्य को मुक्ति मिल जाती है l यह एक निर्विवाद सत्य है कि गंगा जल चाहे कितने दिनों तक किसी वर्तन में क्यूँ न रखा जाए, उसमें कीड़े नहीं होते,जबकि संसार के अन्य नदियों के जल में, जब वह आदिस्त्रोत से पृथक कर किसी अन्य छोटे पात्र में बन्द कर रखा जाता है तो उसमें कीड़े पड़ जाते हैं l यही कारण है कि भारतीय एकता के प्रबल समर्थक हमारे पुरातन धर्माधिकारियों ने तथा संस्कृत के उच्चकोटि के कवियों ने नदियों की महिमा को श्लोकबद्ध करते हुए तथा पूजा जल में जिन सरिताओं के जल की सन्निधि की माँग की है, उनमे गंगा का नाम प्रथम है -
गंगेश्च यमुने चैव गोदावरी सरस्वतीl
नर्मदे, सिन्धु कावेरी, जलेस्मिन सन्निधिं कुरूंl l

हिमालय के उत्तरी भाग गंगोत्री से निकलकर नारायण पर्वत के पार्श्व से अनेक नामों में व्यक्त होती हुई ऋषिकेशा हरिद्वार, कान्यकुब्ज, कानपुर, प्रयाग, विन्ध्याचल, वाराणसी, बक्सर, पाटलिपुत्र, मुद्गगिरि, अंगदेश (भागलपुर), बंगदेश आदि को पवित्र करती हुई गंगासागर में मिल जाने वाली भगवती भगीरथी गंगा का इस पृथ्वी पर प्रादुर्भाव पापियों की सद्गति एवं पृथ्वी को पवित्र करने के लिए हुआ हैl वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ,रामायण,महाभारत, पुराण,इतिहास, निबन्ध,काव्य-ग्रथ सभी ने गंगा के महात्म्य क वर्णन किया हैl ऋग्वेद के नदी सूक्त में एक ही स्थान पर सर्वाधिक उन्नीस नामों का उल्लेख करते हुए गंगा का नाम भी लिया गया है-
इमं मे गंगे यमुने सरस्वति शतुद्रि स्तोमं सचता परूष्णया l
असिकन्या मरूद्धये वितस्त्याऽर्जीकये श्रुणुह्यासुषोमयाl l
-ऋग्वेद – 10/75/5
ऋग्वेद में तीस नदियों के नाम आये हैं, उनमे गंगा प्रमुख है l  तैतिरीय आरण्यक तथा कात्यायन श्रौतसूत्र में गंगा का नाम का उल्लेख हैl वेदोत्तर काल में गंगा को अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई तथा पुराणों में गंगा के प्रति अतिशय पूज्यभाव प्रकट किया गया हैl महाभारत काल में गंगा को त्रिपथगामिनी, रामायण में त्रिपथगा तथा रघुवंश और कुमारसम्भवम एवं शाकुन्तलम नाटक में त्रिस्त्रोता कहा गया है-
गंगा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च l
त्रीन् पथो भावयन्तीति तस्मात् त्रिपथगा स्मृता ll
-बाल्मीकि रामायण 1/44/6
यह त्रिपथगा स्वर्गलोक,मृत्युलोक और पाताललोक को पवित्र करती हुई प्रवाहित होती है l
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में गंगा को त्रैलोक्यव्यापिनी कहा गया है –
ब्रह्मन् विष्णुपदीगङ्गा त्रैलोक्यं व्याप्य तिष्ठतिl
शिवस्वरोदय में इडा नाड़ी को गंगा कहा गया है l पद्मपुराण में गंगा को लोकमाता कहा गया है -
पापबुद्धिं परित्यज्य गंगाया लोकमातरिl
स्नानं कुरुत हे लोका यदि सद्गति मिच्छथl l
-पद्मपुराण 7/9/57
स्कन्द पुराण में इनकी उत्पति गंगा दशहरा हैl
पुराणादि ग्रंथों में गंगा को विष्णुपादोद्भवा, शिवशीर्षनिवासिनी, शन्तनु की पत्नी, भीष्म एवं अष्ट वसुओं की माता, जह्नु के द्वारा पान किये जाने के कारण जाह्नवी के नाम से प्रसिद्ध होने की कथा भी विस्तृत रूप से अंकित हैl तीनों लोकों में रहने से आकाश-गंगा, स्वर्ग-गंगा, पाताल-गंगा, त्रिपथगा, हेमवती आदि नामों से और भगीरथ के द्वारा लाये जाने के कारण भगीरथी नाम से विख्यात हैl गंगा के नामों एवं विषयों से सम्बद्ध अनेक कथाएँ पुराणों में वर्णित करते हुए कहा गया है कि लोकमाता एवं विश्वपावनी गंगा जल शारीरिक एवं मानसिक क्लेशों का पूर्णतः विनाश करती है और गंगा के आश्रय से मानव भौतिक उन्नति ही नहीं अपितु मानवता को उपकृत और जनकल्याण हेतु आध्यात्मिक उन्नति भी कर सकता हैl गंगा के महात्म्य एवं आविर्भाव की कथा स्कन्दपुराण, ब्रह्मपुराण, भविष्य पुराण, मत्स्यपुराण आदि पुराणों में अंकित हैंl स्कन्दपुराण काशीखण्ड में तो यह भी कहा गया है कि समस्त भाग यज्ञों से अधिक पुण्य गंगा-स्नान से होता हैl गंगा का यह महात्म्य शैव, वैष्णव, गाणपत्य एवं सौर सम्प्रदाय सभी समान रूप से मानते हैं l सच ही गंगा, गौ और गीता हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के तीन प्रधान प्रतीक (चिह्न) हैंl
  गंगा के महात्म्य पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार करने पर यह पत्ता चलता है कि गंगा के द्वारा भारतीय संस्कृति के निर्माण मे बहुत बड़ी सहायता मिली हैl गंगा तट के वनों-उपवनों,आश्रमों, प्राचीन तीर्थों एवं नगरों में ही हमारी आर्य-संस्कृति का उद्भव एवं विकास  हुआ हैl अधिकांश संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश तथा देश के अधिकाँश भाषाओं के साहित्य वैदिक काल से लेकर आज तक गंगा तट पर ही निर्मित हुए हैंl इस प्रकार भारतीय सभ्यता-संस्कृति के उद्भव एवं विकास में गंगा के स्थान का पत्ता स्वतः ही चल जाता है l हरिद्वार, प्रयाग, काशी,गया आदि गंगा तट पर अवस्थित स्थल सिर्फ तीर्थ ही नहीं वरन प्रभावशाली विद्या-केन्द्र भी रहे हैंl गंगा के उपकूलों पर ही धर्म, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य एवं कला-कौशलों की श्रीवृद्धि हुईl उत्तर भारतवर्ष के अधिकाँश व्यापारिक नगर एवं औद्योगिक केन्द्र गंगा-तट पर ही अवस्थित हैंl भारतीय सभ्यता-संस्कृति को निरन्तर प्रवाहमान बनाये रखने के निमित हिन्दुओं के संग्रह केन्द्र अर्थात जमावड़े के रूप में निर्मित चार कुम्भ स्थलों में से दो कुम्भ स्थल प्रयाग और हरिद्वार गंगा के किनारे हैंl हरिद्वार का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है, फिर भी स्कन्दपुराण और एवं मत्स्यपुराण में हरिद्वार का उल्लेख हैl कालिदास ने मेघदूत में कनखल का उल्लेख किया है, लेकिन हरिद्वार का नहीं l इतिहासज्ञ इससे मिलते-जुलते अथवा निकटस्थ नामों का उल्लेख मायापुर, गंगा-द्वार आदि के रूप में करते हैंl आमेर के रजा सवाई मानसिंह ने सर्वप्रथम यहाँ एक छोटा सा घाट, शिवालिक की पहाड़ी को काटकर उन्हीं पत्थरों से बनाया था तथा घाट का नाम ब्रह्मकुण्ड रखा थाl पीछे यह तीर्थ बसता तथा प्रसिद्ध होता चला गयाl परन्तु गंगाद्वार नाम अत्यंत प्राचीन प्रतीत होता है, क्योंकि यहीं पर गंगा सर्वप्रथम मैदानों में उतरी है तथा यहाँ से ही हिमालय जो हरि का देश कहलाता है, प्रारम्भ होता हैl यही कारण है कि इस स्थान का नाम हरिद्वार प्रसिद्ध हुआ हैl पुराणादि ग्रन्थों के अनुसार कनखल में दक्ष के यज्ञ में सतीदाह हुआ था तथा दक्ष का यज्ञ शिव ने विध्वंस कर दिया थाl प्राचीन काल में मायापुरी एक संपन्न नगरी थीl पुराणों के अनुसार यहीं पर वेन राजा की गढ़ी थीl यह गढ़ी हरि की पेड़ी के पास कुश्यवर्त्त घाट के पास थी l जहाँ पर मेष की संक्रान्ति पर पिण्डदान होता हैl स्कन्दपुराण में इस स्थल का महात्म्य अंकित हैl कूर्मपुराण में कनखल की महिमा गई गई हैl महाभारत तथा वामनपुराण में भी गंगाद्वार का उल्लेख है l पद्मपुराण में अंकित है कि बैशाख शुक्ल सप्तमी को जह्नु मुनि ने गंगा-जल का पान किया थाl  इस तिथि को गंगा सप्तमी अथवा गंगा जयन्ती के नाम से जाना जाता है और इस दिन स्नान का बड़ा महत्व हैl जब बृहस्पति वृष राशि को संक्रमण करता है तब हरिद्वार में कुम्भ का पर्व होता हैl प्रयाग में गंगा-यमुना का संगम होने तथा सरस्वति के गुप्त प्रवाह होने के कारण प्रयाग के कुम्भ का महात्म्य अन्य तीर्थों के कुम्भ से अत्यधिक बढ़ गया हैlपुराणादि ग्रन्थों में गंगा के कवच, स्तोत्र, शतनाम, सहस्त्रनाम आदि अनेकानेक स्तुतियाँ पूजा-पद्धतियाँ अंकित हैंl पुराणों में गंगा के प्रति अतिशय पूज्य-भाव प्रकट किया गया है l

Wednesday, April 22, 2015

समाज में अव्यवस्था का कारण -अशोक “प्रवृद्ध

राँची, झारखण्ड से प्रकाशित राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - २२/४/२०१५ को प्रकाशित लेख - समाज में अव्यवस्था का कारण

समाज में अव्यवस्था का कारण 
-अशोक “प्रवृद्ध

यह सर्वविदित तथ्य है कि मानव शरीर, ब्रह्माण्ड और समाज सब में एक ही सिद्धांत कार्य करते हैं अर्थात इन सब में कार्य एक समान होता हैl उपनिषद की एक कथा में शरीर को चालू रखने वाली इन्द्रियों में विवाद हो गया कि वह सर्वश्रेष्ठ है l उस विवाद में प्रजापति के निर्णय के अनुसार यह निश्चय हुआ था कि महाप्राण जो शरीर के भीतरी अंगों को चलाता है, सर्वश्रेष्ठ हैl मनुष्य शरीर में वैसा विवाद कभी हुआ था कि नहीं जैसा कि विवाद उपनिषद में इन्द्रियों में हुआ कहा गया है, परन्तु मनुष्य समाज में तो ऐसा विवाद निरन्तर होता देखा जाता है l लोग जो एक कार्य करने की योग्यता नहीं रखते, उस कार्य को करने की लालसा करने लगते है lइसमें मुख्य कारण हैं मन के विकार - काम, क्रोध,लोभ, मोह तथा अहंकार l इन विकारों के कारण मनुष्य में एक श्रेष्ठ स्मृति-यंत्र का होना आवश्यक है l श्रेष्ठ मन ही इन विकारों को नियन्त्रण में रख सकता है l
मन का एक विकार है काम l कुछ प्राप्ति की इच्छा को कामना कहते हैं lकामना की पूर्ति न हो तो विक्षोभ होता है lयह क्रोध है lकामना की पूर्ति धन, सम्पदा तथा सामर्थ्य से होती है l इस सामर्थ्य की अधिक से अधिक प्राप्ति की इच्छा को लोभ कहते हैं l जो प्राप्त है उसको रखने की योग्यता न रहने पर भी उसे समेटे रखना मोह कहाता है lकिसी सामर्थ्य को रखने का प्रदर्शन,उनके सम्मुख जो वैसी सामर्थ्य नहीं रखते, अहंकार है l ये सब विकार मन के हैं और मन के स्मृति गुण के कारण उत्पन्न होते हैं lमन का एक अन्य गुण है, जिसे कल्पना करना कहते हैं lमन पूर्व स्मृतियों पर योजनायें बनाता है l जब ये योजनायें स्मृति के आधार पर बनती हैं तो मनुष्य को पथच्युत करने में सफल हो जाती हैं l शरीर का कोई अंग जब किसी कार्य को करने की योग्यता नहीं रखता तो वह उस कार्य को करता ही नहीं l आँख सुनने का कार्य नहीं करती lकान स्वाद लेने का यत्न नहीं करता l परन्तु समाज में कामनाओं के अधीन मनुष्य उस कार्य को भी करने का यत्न करता है जिसको करने की योग्यता उसमे नहीं होती और जब वह अयोग्य होने के कारण असफल होता है तो इसमें ऐसे कारण ढूंढने लगता है जिससे अपनी असफलता का दोष दूसरों पर डाल सकेl यही समांज में अव्यवस्था का मुख्य कारण होता हैl  किसी भी समाज में जब अव्यवस्था का कारण जानने का प्रयत्न किया जाता है तो पता चलता है कि इसका मुख्य कारण यह है कि कोई व्यक्ति योग्य होता हुआ अधिकार प्राप्त किये हुए है अथवा कर रहा हैl योग्यता ही अधिकार में कारण हो सकती हैl
जहाँ पाँव सिर का कार्य करने लगे तो उस प्राणी की जो अवस्था होगी, वही अवस्था एक शुद्र अर्थात योग्य व्यक्ति के अध्यापक, राज्य का मन्त्री अथवा राजा बन जाने पर होती हैl ज्ञान का संग्रह और ज्ञान का विश्लेषण क्र,उस पर आज्ञा देने का कार्य ज्ञानेन्द्रियाँ, मन,बुद्धि और जीवात्मा के समान योग्य व्यक्ति ही कर सकते हैंl मनुष्य के शरीर में अथवा मानव समाज में अव्यवस्था का मूल कारण यही है कि जो अधिकार पाने के योग्य नहीं,वे अधिकार पाने का यत्न करते हैं अथवा पा जाते हैं l शरीर के उदाहरण से इसे समझा जा सकता हैlअति स्वादिष्ट चटपटी चाट के सामने आने पर पेट का रोगी मनुष्य उस चाट को देखता है और उसके मुख में लार टपकने लगती हैl चाट खाने का आदेश तो जीवात्मा देता है और वह भी बुद्धि से विचार करने पर कि उसके पेट की अवस्था उस चाट को हजम करने की है अथवा नहींl कभी मनुष्य चाट खाकर हजम करने की शक्ति भी रखता है, परन्तु जिह्वा पूर्ण थाल में रखा सब कुछ खा जाने को कह रही हैl यह जिह्वा का कार्य नहीं कि उसको चाट खाने की सीमा बतायेl यह बुद्धि का कार्य हैl अतः चाट खाने वाला बुद्धि की स्वीकृति के बिना अथवा बुद्धि द्वारा सीमा निश्चय किए बिना चाट खाता जाए तो पूर्ण शरीर में अव्यवस्था अर्थात रोग की सृष्टि होगीl बिलकुल यही अवस्था समाज की भी हैl कोई अनधिकारी समाज के किसी कार्य का संचालन करने लगता है तो समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होती हैl समाज के प्रत्येक घटक अथवा घटक-समूह (वर्ण) के कार्य को यदि बुद्धि के प्रतीक विद्वान् व्यक्ति के राय के बिना किया जाएगा तो अन्ततोगत्वा समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होगीl और फिर जैसे शरीर के पेट में चाट खाने से अपची होने पर पूर्ण शरीर कष्ट भोगता है, ठीक उसी प्रकार अव्यवस्था केवल समाज के उस अंग में ही सीमित नहीं रहेगी,जिसमें वह योग्य व्यक्ति अधिकारी बना हुआ है, वरन पूर्ण समाज में ही उत्पन्न हो जायेगाl जिस प्रकार शरीर में श्रेष्ठ बुद्धि के सर्वत्र और सर्वदा प्रयोग की aaawshyktaआवश्यकता है,उसी प्रकार समाज में सर्वत्र और सर्वदा श्रेष्ठ विद्वानों की राय से कार्य करने अर्थात किए जाने की आवश्यकता हैl कभी योग्य चिकित्सक, हकीम अथवा वैद्य शरीर के किसी अंग के रोग को उसी अंग तक सीमित रखने में सफलता प्राप्त करता है,परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक अंग के रूग्न होने से शरीर के दूसरे अंगों के कार्यों में भी बाधा होती हैl यह बात समाज में अधिक व्यापक रूप में सत्य है l अव्यवस्था तब ही उत्पन्न होती है जब समाज में कोई व्यक्ति अपनी योग्यता से अधिक अधिकार पा जाता हैl यह उस कर्म में,जो वह करता है, व्यवस्था उत्पन्न करता ही है, साथ ही वह अव्यवस्था समाज के दूसरे अंगों में भी फैलती है और फिर एक रूग्न शरीर की भान्ति पूर्ण समाज अव्यवस्थित स्थिति में आ जाता हैl इस कारण समाज में विद्वानों की राय से ही सब कार्य चलने चाहियेंl शरीर में वे ही बुद्धि के स्थानापन्न होते हैंl
प्रश्न उत्पन्न होता है कि समाज के कार्यों मे योग्यता-योग्यता की परख अर्थात पहचान कैसे हो और कौन करे? मनुष्य में कष्ट होने पर बुद्धि यह कार्य करती हैl कारण यह है कि शरीर एक इकाई के रूप में कार्य करता हैl परन्तु समाज का एक इकाई के रूप में कार्य करना किसी साँझी शक्ति के अधीन न होने के कारण कठिन हो जाता हैl समाज की अवस्था में जहाँ विद्वान् को ढूँढना एक समस्या है वहाँ उस विद्वान् का कहा मनाने में भी कठिनाई होती हैl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विश्व में एक ही नियम से कार्य होता है,जगत हो, मानव शरीर हो अथवा समाज होl समाज एक कृत्रिम इकाई होने के कारण इसकी व्यवस्था मनुष्य शरीर से कठिन हैl इससे यह पत्ता तो चलता है कि समाज में जो भी जिस कार्य के योग्य व्यक्ति है वह वही कार्य करे और उस सीमा तक ही करे, जिस सीमा तक उसका सामर्थ्य तथा योग्यता हैl यदि समाज में ऐसा नहीं होगा तो अव्यवस्था वैसी ही होगी जैसी शरीर में होती है lतब दुःख की सृष्टि होती हैl इसका अभिप्राय है कि जहाँ दुःख है वहाँ उसका कारण अव्यवस्था है और वहाँ किसी अयोग्य के हाथ में अधिकार चले गए हैं, यह स्वतः सिद्ध हैl यदि अयोग्य के अधिकार पा जाने से अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है तो अव्यवस्था का होना यही सिद्ध करता है कि कोई योग्य व्यक्ति अधिकार पा गया हैl  

Tuesday, April 7, 2015

कर्म करने में स्वतंत्र है मनुष्य -अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- ०७/०४/२०१५ को प्रकाशित लेख - कर्म करने में स्वतंत्र है मनुष्य


कर्म करने में स्वतंत्र है  मनुष्य
-अशोक “प्रवृद्ध”

मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, परन्तु मनुष्य से इतर जीव-जन्तु कर्म करने में स्वतंत्र नहीं हैंl उनको जैसे-तैसे जीवन  यापन करना पड़ता है,उसमे किसी प्रकार के परिवर्तन का वे विचार नहीं कर सकतेlइस कारण वे यम (परमात्मा की नियन्त्रण शक्ति) के अधीन समझे जाते हैं lवैदिक ग्रन्थों के अनुसार मनुष्य के पथ-प्रदर्शन के लिए उसे वेद ज्ञान ईश्वरीय नियम से प्राप्त होता हैlयह ज्ञान ऐसा नहीं जैसा कि गाय के गले में रस्सा डालकर ग्वाला उसे कहीं ले जाएl यह प्रेरणारूप ही हैl इसे मानना या न मानना मनुष्य के अपने अधिकार में है परन्तु अपने स्वतन्त्रता से किए कर्म का फल वह भोगता हैl श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत l
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुनैः l l
-श्रीमद्भगवद्गीता 3-5
अर्थात- मनुष्य एक क्षण के लिए भी कर्म के बिना नहीं रह सकताl वह प्रकृति (जिसमें उसका संयोग हुआ है) के गुणों से विवश हो कर्म करता हैl
वैदिक मीमांसा भी यही हैl इसके साथ हि श्रीमद्भगवद्गीता में यह भी कहा है-
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय l
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ll
-श्रीमद्भगवद्गीता 2-49
अर्थात- बुद्धि के योग (सहाय) से किया कर्म अत्यन्त दूर है (सामान्य) कर्म सेl अतः बुद्धि की शरण को ग्रहण करो क्योंकि फल से प्रेरित हो किया कर्म अत्यन्त हीन हैl
अभिप्राय यह है कि कर्म किए बिना कोई नहीं रह सकताl इस कारण सोच-विचारकर कर्म करना चाहिएlफल (विषयों) की प्रेरणा से किया कर्म बहुत ही हीन फल वाला होता हैl
प्रह्लाद को पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन जन्म-मरण,कर्म फल की मीमांसा का ज्ञान हो गयाl हिरण्यकशिपु के मरने के बाद वह राजा भी बना,परन्तु प्रेरणा का स्रोत अर्थात वेद के विद्वानों को वह अपने देश में ला नहीं सकाl दैत्यों का पुरोहित शुक्राचार्य कहलाता थाl शुक्राचार्य एक पद का नाम है,यह किसी व्यक्ति का नाम नहींlजो कर्म की महिमा को तो जानता है,परन्तु कर्म-अकर्म में भेद करने के लिए बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकता अथवा परमात्मा और उसके ज्ञान की प्रेरणा की अवहेलना करता है, ऐसा आचार्य मिथ्या पथ-प्रदर्शन ही करता हैl ऐसे ही थे दैत्यों के आचार्य शुक्राचार्यl
परमात्मा ने मनुष्य के पथ-प्रदर्शन के लिए उसे बुद्धि दी हैlअतः कर्म अथवा कर्म बतलाने वाले किसी भी ग्रन्थ की परख सदा बुद्धि से होती रहे तो मनुष्य भटक भी जाए, परन्तु अन्त में सत्य मार्ग पा ही जाता हैl इसी कारण वैदिक विद्वानों ने कहा है कि वेदार्थ भी तर्क से सिद्ध होने चाहिएlसदा अर्थों को तर्क की कसौटी पर कसते रहने वाला कभी भूल भी करता है तो अपनी भूल को सुधारने का मार्ग सदैव खुला रखता है lप्रह्लाद ने पिता के विरूद्ध विद्रोह तो किया परन्तु पिता को मिथ्या प्ररेणा देने वाले शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाए रखाlइसका परिणाम यह हुआ कि प्रह्लाद का पुत्र विरोचन पुनः अनीश्वरवादी हो गयाlविरोचन का पुत्र बलि हुआlबलि का पुत्र बाण हुआlबाण महान असुर थाl महाभारत में कहा है-
बलेश्च प्रथितः पुत्रो बानो नाम महासुरः l
- महाभारत आदि पर्व 65-20
इसका कारण उनके संस्कार ही थेl कश्यप-दिति वंश को शुक्राचार्य गुरु मिल गयेlशुक्राचार्य भौतिकवादी था, वह सब कुछ प्रकृति से ही, स्वभाववश उत्पन्न हुआ मानता था lहिरण्यकशिपु शुक्राचार्य का शिष्य था जो नास्तिक और साथ ही दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हुआlअनीश्वरवादी अथवा वे ईश्वरवादी, जो दिखावे के लिए ही परमात्मा को मानते हैं, वे ही प्रकृति से दुष्ट हो सकते हैंl फिर भी यह आवश्यक नहीं कि अनीश्वरवादी अधर्माचरण करने वाला ही होlयद्यपि परमात्मा को स्वीकार न करने वाले जब वैभव सम्पन्न होते हैं तो कर्तव्याकर्तव्य में भेद भूल जाते हैं lकारण यह है कि कर्तव्य का  पालन करने में कुछ उद्देश्य नहीं रह जाता lजब तक मनुष्य हीन और दीन रहता है तब तक वह अपने से बलशाली सांसारिक जीवों से भयभीत दूसरों के साथ धर्मयुक्त व्यवहार रखता है परन्तु जब वह सांसारिक वैभव से युक्त हो स्वयं बलवान बन जाता है तब उसका अनीश्वरवादी होना उसे उलटे मार्ग पर ले जाने में सफल हो जाता हैl ठीक यही बात हिरण्यकशिपु के साथ हुई थी l वह शक्ति से युक्त होकर जब प्रचण्ड बल का स्वामी हुआ तो फिर उसे कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराने वाला कोई नहीं थाl परमात्मा नहीं, तो वेद भी नहीं, वेद नहीं तो उसमे वर्णित श्रेष्ठ व्यवहार भी नहीं lबलशाली होने पर परमात्मा तथा कर्मफल और पुनर्जन्म के ही विचार हैं, जो मनुष्य को सन्मार्ग पर आरूढ़ रख सकते हैं अर्थात आस्तिक्य (आस्तिकता) शक्तिशाली मनुष्यों को धर्मयुक्त मार्ग पर आरूढ़ रहने में सहायक होता है l
यही बात प्रह्लाद के सन्तान के साथ हुई थी lप्रहलाद अपने पूर्वजन्म के कर्मफलों से तथा गर्भावस्था में माँ से सुने नारद मुनि के उपदेशों से, परमात्मा पर अगाध विश्वास रखने वाला हो गया था lप्रह्लाद की सन्तान विरोचन और बलि तो कुछ ठीक मार्गों पर चलते रहे परन्तु बाण पुनः नास्तिक हो गयाl विरोचन ने आदित्यो के राजा इन्द्र पर आक्रमण कर दिया था lइन्द्र ने विरोचन को अपने प्रासाद में घुसने तक नहीं दिया lविरोचन के आक्रमण का कारण यही था कि लक्ष्मी जो दैत्यों की कन्या थी, दैत्यों का देश छोड़कर आदित्यों के पास चली गई थी l वहाँ उसका विवाह विष्णु से हो गया l इससे चिढकर विरोचन ने आदित्यों पर आक्रमण कर दिया l विरोचन पराजित हुआ तो शुक्राचार्य ने विरोचन और उसके पुत्र बलि को शक्ति-संचय करने की राय दी lबलि ने शक्ति-संचय कर देवलोक पर आक्रमण कर दिया lतब तक आदित्य आलस्य एवं प्रमादवश दुर्बल हो चुके थे lइस कारण बलि के देवलोक पर आक्रमण करने के कारण इन्द्रादि आदित्यों को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा lकहा जाता है कि बलि ने तीनों लोकों में राज्य स्थापित कर  उन लोगों का दोहन आरम्भ कर दिया थाl इसका अभिप्राय यह हुआ कि समाज में ब्राह्मण,क्षत्रिय तथा वैश्य ही उपजाऊ कार्य करते हैं और बलि ने समाज के इन तीनों अंगों पर अपना आधिपत्य कर लिया था l इनका अर्जित पूर्ण धन लेकर वह यज्ञों में दान कर देता था lआदित्यों में एक अति ओजस्वी और चतुर कुमार था वामनl उसने आदित्यों का राज्य बलि से वापस लेने के लिए एक योजना बनायी और बलि के यज्ञ में जा पहुँचाlउसके ओजस्वी स्वरुप को देख बलि अत्यन्त प्रभावित हुआl बलि यज्ञ में वामन को दक्षिणा देने लगा तो वामन ने कहा कि वह धन-दौलत, रजत, स्वर्ण इत्यादि नहीं लेना चाहताlये वस्तुएँ उसके उपयोग की नहीं हैंl वह तो तीन पग भूमि माँगता हैlयज्ञ में दान देने को वचनबद्ध जब बलि तैयार हुआ तो वामन ने तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) की मुक्ति माँग लीl इसे ही पुराणों में तीन पग भूमि कहा हैlजैसे भूमि सब सम्पति का उद्गम स्थान है, इसी प्रकार समाज का पूर्ण धन इन तीनों वर्णों की उपज ही हैlबलि इस दान के देने में हिचकिचाहट करने लगा परन्तु दिए वचन का उसने पालन किया और भूमण्डल के तीनों वर्ण स्वतंत्र हो अपने कर्मों का स्वयं भोग करने लगेl यह भारतीय परम्परा में लिखी इतिहास है और आज के इतिहास की भाषा में यह आदि वैदिक काल की कथा हैlकारण यह ही कि कश्यप इत्यादि अमैथुनीय सृष्टि के जीव थे और बलि कश्यप की चौथी पीढ़ी में ही हुआ थाl उस समय तक लगभग दो सौ वर्ष ही सृष्टि को हुए व्यतीत हुए होंगेlअतः तब तक वैदिक काल ही चल रहा थाl फिर भी सब के सब व्यक्ति वेद विचार को स्वीकार नहीं करते थेlवामन ने भी दान माँगने में चतुराई का प्रयोग किया थाlसामान्य भाषा में इसे छलना कहा जा सकता हैl इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल में भी मनुष्य वैदिक शिक्षा को अस्वीकार करने वाले हुए थेl
यह इस कारण कि मनुष्य कार्य करने में स्वतंत्र है और कार्य पर नियन्त्रण बुद्धि द्वारा ही हो सकता हैl पुनर्जन्म के कर्मफल से सबकी बुद्धि समान नहीं होतीlअतः आदि काल से ही दो प्रकार की प्रवृत्तियों के मनुष्य चले आते है- दैवी और आसुरीl इसका वैदिक काल के होने अथवा न होने से सम्बन्ध नहीं हैlधर्म का सम्बन्ध पूर्वजन्म के संस्कारों एवं शिक्षा-दीक्षा से होता हैlवेदों की भाषा को जानने और वेदार्थ को ठीक समझने से आचरण के ठीक होने का सम्बन्ध नहीं हैlआचरण तो संस्कारों के अधीन चलता हैl

Friday, April 3, 2015

चुल्लू भर पानी का सवाल है -अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक -०३/ ०४/ २०१५ को प्रकाशित लेख - चुल्लू भर पानी का सवाल है -अशोक "प्रवृद्ध"


चुल्लू भर पानी का सवाल है 
-अशोक “प्रवृद्ध”

जीव-जन्तु हो या पेड़-पौधे,सबो के जीवन के लिए अत्यन्त ही महत्व की चीज है-जल। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।इसीलिए कहा गया हैकि जल ही जीवन है।वेद,पुराण,उपनिषद,इतिहासादि ग्रन्थों में सर्वत्र जल की महिमा गायी गई है।ग्रीष्म काल में तो जल की महता और भी बढ़ जाती है।महानगरों में तो चुल्लू भर पानी का सवाल और भी गहराता जा रहा है।जल-सम्पदा के लिए संसार के संपन्नतम राष्ट्रों में गिने जाने के बाद भी हमारे देश में जलसंकट गहराता जा रहा है। भारतवर्ष में पानी की वर्तमान माँग,पूर्ति एवं उपलब्धता करने से यह स्पष्ट हो जाता है।एक ओर जहाँ घरेलू, औद्योगिक एवं कृषि-क्षेत्रों की विस्तार के लिए सिंचाई की जरूरतों के कारण पानी की माँग बढती ही जा रही है, वहीँ दूसरी ओर बेतहाशा जल प्रदूषण, साफ़ पानी की उपलब्ध मात्रा को कम कर पानी की समस्या को और भी गम्भीर बनाता जा रहा है।जल प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियों और भूमिगत पानी को खींचने पर किसी भी किस्म के कारगर नियन्त्रण के अभाव में भारतवर्ष के लिए जलसंकट आने वाले दिनों,वर्षों में भीषण परिस्थितियाँ खड़ी कर सकता हैं।

जल नहीं तो प्रकृति नहीं और प्रकृति नहीं तो मानवता नहीं। बारहमासी हो चली पानी की समस्या अब प्रकृति और प्राणियों के अस्तित्व पर बड़ा खतरा बन चुकी है। विशिष्ट पञ्च तत्वों में से एक जल के कारण संसार की अधिकतर जनसंख्या त्राहिमाम करने लगी है। विश्व में प्रत्येक सात में से एक व्यक्ति स्वच्छ पेयजल से दूर हो चुका है। समाचार है कि ब्राजील के साओ पाउलो में सरकार जलापूर्ति पर राशनिंग का विचार कर रही है। अमेरिका का कैलीफोर्निया लगातार चौथे वर्ष सूखे से ग्र्रस्त है। भारतवर्ष, बांग्लादेश सहित कई एशियाई देशों के कई क्षेत्रों में भूगर्भ जलस्तर पाताल में पहुँच चुका है। पश्चिम एशिया की उर्वर जमीन तेजी से रेगिस्तान में परिवर्तित होती जा रही है। संयुक्त अरब अमीरात के शहजादे भी अब जल को तेल से अधिक आवश्यक मानने लगे हैं। अनियमित वर्षा, कम व असमय वर्षा और बर्फ के पिघलने से कई क्षेत्रों की हाइड्रोलॉजिकल प्रणाली गड़बड़ा चुकी है। विश्व भर में ग्लेशियरों का आकार सिकुड़ रहा है। इण्टर गवर्नमेंट पैनल फार क्लाइमेट चेंज के अनुसार वर्तमान में भले ही जल की समस्या से संसार में कम लोग जूझ रहे हों लेकिन इक्कीसवीं सदी के अन्त तक इनकी संख्या बहुत अधिक होना नियति बन चुकी है। अत्यधिक दोहन, कम बारिश से जलस्त्रोत सूख रहे हैं। जो नहीं सूख रहे हैं उन्हें विकास की गलत परिपाटी सुखाने पर आमादा है। कृषि पर जल की किल्लत का विपरीत असर पड़ने लगा है। जल पर संग्राम की स्थिति उत्पन्न होने लगी है। जलवायु परिवर्तन इस समस्या का एक अतिरिक्त कारक बन चुका है। मौसम चक्र बिगड़ चुका है।

संसार में प्रयोग के लिए उपलब्ध स्वच्छ जल में भूगर्भ जल की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत है। करीब 1.5 अरब लोग पेयजल आपूर्ति के लिए भूगर्भ जल पर आश्रित हैं। परन्तु केन्द्रीय भूजल बोर्ड के द्वारा सरकार को देश के भूगर्भीय जल के विषय में सौंपी गई प्रतिवेदन काफी खतरनाक है। प्रतिवेदन के अनुसार देश के 802 ब्लॉकों में भूजल के अति दोहन से जलसंकट गहरा रहा है और यदि यही स्थिति रही तो अगले पन्द्रह वर्षों में देश की आधी जनसँख्या जलसंकट से जूझ रही होगी। भूजल बोर्ड के अनुसार राजस्थान, पंजाब, हरियाणा में जलस्तर में चार मीटर से अधिक की गिरावट हुई है। जलस्तर हर वर्ष दस से बीस सेंटीमीटर नीचे गिर रहा है। योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फिलहाल देश में 1123 अरब घनमीटर जल हमारे उपयोग के लिए उपलब्ध है, जबकि माँग 710 अरब घनमीटर की है। पर योजना आयोग का मानना है कि यह माँग 2025 में लगभग 1100 अरब घनमीटर हो जाएगी। जबकि जलस्तर गिरने से जलीय उपलब्धता उस समय इतनी कम हो जाएगी कि 2030 तक देश की आधी जनसंख्या पानी के लिए तरस रही होगी।दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तरप्रदेश के लिए केन्द्रीय भूजल बोर्ड का मानना है कि यहाँ स्थिति अत्यंत भयावह है। बोर्ड का आंकलन है कि पंजाब के 80 प्रतिशत, हरियाणा के 59 प्रतिशत, राजस्थान के 69 प्रतिशत दिल्ली के 74 प्रतिशत एवं उत्तरप्रदेश के नौ प्रतिशत ब्लॉकों का जल दोहन हुआ है। केन्द्र ने जल दोहन रोकने के लिए एक मॉडल विधेयक भी 1970 में राज्यों को भेजा था। बाद में यह विधेयक 1992, 1996 और 2005 में फिर राज्यों को भेजा गया, परन्तु इसका परिणाम कुछ नही निकला।




भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही भौतिक पदार्थों को भी देवता मानकर पूजन करने की परिपाटी रही है,उनमें जलदेवता भी एक है। यह भारतीय परम्परा है कि जो भी पदार्थ हमारे जीवन को गति व ऊर्जा प्रदान करता है अथवा जिनका होना हमारे लिए अति आवश्यक है उसे ही हमने देवता मान व कहकर उसकी पूजा की। पूजा का अभिप्राय गुणों के संकीर्तन से है, गुणों का सम्मान करने से है। आँग्ल शासकों ने सदैव ही हमारे प्रकृति के साथ इस तादात्म्य और सम्मानपूर्ण सहचर्य भाव को उपेक्षा और उपहास की दृष्टि से देखा और पारम्परिक वस्तुओं, तकनीकों और ज्ञान को मिटाने का हरसंभव प्रयास किया। भारतवर्ष विभाजन के पश्चात कई बातों में हमने पश्चिम की तथाकथित भौतिक उन्नति की नकल की, और अपने पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्यों को भुलाने या उपेक्षित करने में हरसम्भव शीघ्रता का प्रदर्शन किया। पश्चिम की देखा-देखी हमने देश की समस्याओं का एलौपैथिक चिकित्सा पद्धति के ढंग से इलाज करना प्रारम्भ कर दिया। ध्यातव्य है कि एलोपैथी चिकित्सा पद्धति में रोग को शीघ्र और जबरन शान्त किया जाता है, इसमें रोग को जड़ से समाप्त करने के संदर्भ में सोचा नही जाता। जबकि भारतीय आयुर्वेद पद्धति रोग को बढ़ाकर उसे जड़ से समाप्त करता है। इस एलोपैथिक चिकित्सा अर्थात ट्रीटमेंट  की तरह ही पूर्वजों द्वारा निर्मित देश के कुओं को भुलाकर यथाशीघ्र नलकूप क्रान्ति लाकर देश को खुशहाल कर देने के उद्देश्य से सरकार ने कार्य करना अपना कर्तव्य समझा था।परिणाम आज आपके सामने है ।
यह सर्वविदित है कि जब कुआँ थे, तो लोग उतना ही पानी जमीन से निकालते थे जितना आवश्यक होता था। उस पानी को भी पीने, नहाने-धोने आदि गृहकार्यों में व्यय करते थे और जो अवशिष्ट व्यर्थ जल बचता था वह समीप ही बने सोखता में चला जाता था और निक्षेपित होकर भूगर्भ में समां जाता था अर्थात अवशिष्ट व्यर्थ पानी घरों में ही ही निर्मित सोखता के माध्यम से वापस धरती को दे दिया जाता था। सोखता के द्वारा भूगर्भ जलस्तर ठीक रहता था। देश के अधिकांश हिस्सों में दो चार मीटर गहरा खोदते ही पानी का फव्वारा फूट पड़ता था,वहीँ अब यह फव्वारा बहुत से क्षेत्रों में तो 200-400 फुट गहरे जाकर भी नही मिल पा रहा है । नलकूपों ने पेयजल के सुरक्षित भूगर्भीय भण्डारों को मिटाने में अहम भूमिका निभाई और आज हम इन भण्डारों के सिमटते आधार को देखकर भविष्य के लिए चिंतित हो रहे हैं। सब कुछ गंवाने के बाद अब जाकर हमें जल देवता का देवत्व व महत्व समझ में आ रहा है।


अपनी पहचान, अस्मिता,पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्यों के रखरखाव के साथ ही हमें मानव व देशहित में राष्ट्रीय चरित्र को बलवती करने की भी आवश्यकता है। पानी व्यर्थ बर्वाद करना हम भारतीयों की मुख्य आदत है, लेकिन उसे सोखता अथवा वर्षा के जल को जलसंरक्षण के माध्यम से उसे धरती को पुनः वापस करने पर हम विचार ही नही करते । पारम्परिक पद्धति के वैज्ञानिकों के अनुसार मारने वाली नलकूप क्रान्ति के घातक फल हम भोग रहे हैं और आगामी पन्द्रह वर्षों बाद उन घातक फलों के शिकार बनने जा रहे हैं। हमारे ज्ञानी पूर्वजों ने जल का महत्व समझकर उसे देवता माना और जल के दोहन से बचाकर केवल कुआँ खोदना ही श्रेयस्कर समझा। हमें अपने पूर्वजों के दिखलाये मार्ग का अनुसरण करते हुए कुओं का महत्व समझ लेना चाहिए क्योंकि आने वाली प्रलय से सिर्फ कुआँ ही बचा सकता है। वर्तमान में देश के लिए नौ लाख इकतालीस हजार पाँच सौ इकतालीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वर्षा जल सहेज कर भूगर्भ में भरने की संभावनाएँ तलाशी जा चुकी हैं। जिसमें पिचासी अरब घनमीटर जलसंरक्षण पर 79,178 करोड़ रूपये खर्च होने का अनुमान है।अब देखना यह है कि सरकार की यह कोशिश आखिर क्या नया गुल खिलाती है ?


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