Saturday, May 30, 2015

पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा- अशोक"प्रवृद्ध"

पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा



अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता में दिनांक - २९ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख -पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा -अशोक "प्रवृद्ध"

पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा

Posted On May 29, 2015 by &filed under धर्म-अध्यात्म, विविधा.









 -अशोक “प्रवृद्ध”-





मानव जीवन ही नहीं, वरन मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करने वाली भारतवर्ष की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नदी राष्ट्र-नदी गंगा देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, वरन जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। गंगा निरन्तर गतिशीला और श्रम का प्रतीक है। इसीलिए गंगा को जीवन तत्त्व और जीवन प्रदायिनी कहा गया है तथा माता मानकर देवी के समान गंगा भारतीय समाज के मानवीय चेतना में पूजी जाती है। भारतवर्ष की राष्ट्र-नदी गंगा जल ही नहीं, अपितु भारत और हिन्दी साहित्य की समस्त मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है।हिन्दुओं के बहुत से पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुये हैं जिनमें वाराणसी और हरिद्वार सर्वाधिक  प्रमुख हैं। गंगा नदी को भारतवर्ष की पवित्र नदियों में सर्वाधिकाधिक पवित्र माना जाता है तथा यह मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाता है। मृत्युपरान्त लोग गंगा में अपनी राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक समझते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा भी रखते हैं। इसके घाटों पर लोग पूजा अर्चना करते हैं और ध्यान लगाते हैं। गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक माना जाता है। पंचामृत में भी गंगाजल को एक अमृत माना गया है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा सम्बन्ध है। विद्वानों का कथन है कि केवल राष्ट्र की एकता और अखण्डता पर्याप्त नहीं है, राष्ट्र का सम्पन्न होना भी आवश्यक है और यह तभी संभव है जब श्रम के महत्व को समझा जाये। गंगा अनवरत श्रमशीला बनी रहकर सभी को अथक, अविरल श्रम करने का संदेश देती है। गंगा को संस्कृत में गङ्गा कहा जाता है जो भारतवर्ष और बांग्लादेश में मिलाकर २,५१० किलोमीटर की दूरी तय करती हुई उत्तरांचल में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू भाग को सींचती है । २,०७१ किलोमीटर तक भारतवर्ष तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए गंगा सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट अर्थात ३१ मीटर की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ और देवी के रूप में की जाती है। गंगा की घाटी में एक ऐसी सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली रहा है। जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारतवर्ष वरन समस्त संसार आलोकित हुआ। प्राचीन सभ्यता –संस्कृति का जन्म और विकास यहाँ होने के अनेक साक्ष्य मिले हैं। इसी घाटी में रामायण और महाभारत कालीन युग का उद्भव और विलय हुआ। शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण, गौपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, कौशितकी आरण्यक, सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता और महाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से गंगा और गंगा घाटी की भारतीय सभ्यता-संस्कृति में महता, उपयोगिता और प्रवृद्धता की महती जानकारी मिलती है। प्राचीन मगध महाजनपद का उद्भव गंगा घाटी में ही हुआ जहाँ से गणराज्यों की परम्परा विश्व में पहली बार प्रारम्भ हुई। यहीं पर भारतवर्ष का वह स्वर्ण युग विकसित हुआ जब मौर्य और गुप्त वंशीय राजाओं ने यहाँ शासन किया। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौंदर्य और महत्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किए गए हैं।







गंगा मनुष्य मात्र में कोई भेद नहीं करती इसीलिए गंगा के महत्व को आर्य-अनार्य, वैष्णव-शैव, साहित्यकार-वैज्ञानिक सबों ने स्वीकार किया है। गंगा सब मनुष्य को एक सूत्र में पिरोती है और एक संसार के समस्त लोगों को एक सूत्र में बाँधे रखने का संकल्प प्रदान करती है। भारतीय पुरातन ग्रन्थ इस सत्य का सत्यापन करते हैं कि गंगा सिर्फ भारतवर्ष की भूमि ही नहीं अपितु आकाश, पाताल और इस पृथ्वी को मिलाती है और मन्दाकिनी, भोगावती और और भागीरथी की संज्ञा को सुशोभित करती है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में गंगा की अत्यधिक महता होने के कारण ही ऋग्वेद, महभारत और रामायण तथा अनेक पुराणों में पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। पुरातन ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है की ऋग्वैदिक काल में आर्य सप्त सिन्धु क्षेत्र में निवास करते थे। यह क्षेत्र वर्तमान में पंजाब एवं हरियाणा के कुछ भागों में पड़ता है। ऋग्वेद में चालीस नदियों तथा हिमालय (हिमवंत) त्रिकोता पर्वत, मूंजवत (हिंदु-कुश पर्वत) का उल्लेख हुआ है। आदिग्रंथ ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से गंगा नदी का उल्लेख एक बार और यमुना का तीन बार हुआ है। प्राचीनतम् और पवित्रतम् ऋगवेद में गंगा का उल्लेख ऋग्वेद के नदी सूक्त जिसे नादिस्तुति भी कहते हैं,में हुआ है। ॠग्वेद १०/७५ में पूर्व से पश्चिम को प्रवाहित होने वाली नदियों का वर्णन अंकित है, ज्सिमे स्पष्ट रूप से गंगा का उल्लेख हुआ है। ऋगवेद ६/४५/३१ में भी गंगा का उल्लेख तो मिलता है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह गंगा  नदी के सन्दर्भ में यह उल्लेख है। ऋगवेद ३.५८.६ कहता है कि, हे वीरो तुम्हारा प्राचीन गृह, तुम्हारी भाग्याशाली मित्रता, तुम्हारी सम्पत्ति जावी के तट पर है। विद्वानों के अनुसार यह श्लोक कदाचित गंगा के ही संदर्भ में हो सकता है। ऋगवेद १/११६/१८-१९ में के साथ ही दो अन्य श्लोक में भी जाह्नवी और गंगोत्री डालफिन का उल्लेख मिलता है।



आदि काल में विशेषकर ऋग्वेद के अनुसार सिन्धु और सरस्वती प्रमुख नदियां थी, गंगा नही। किन्तु बाद के काल में जैसा कि ऋग्वेद को छोड़ शेष तीन वेदों यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में गंगा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है और कई सन्दर्भों में इसकी आवश्यकता को दर्शाया गया है। हिन्दू पुराणों के अनुसार देवी गंगा का अस्तित्व केवल स्वर्ग में ही माना गया है। तब भगीरथ ने गंगा की कठोर तपस्या करके उसे पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की । इसी कारण गंगा को भगीरथी भी कहा जाता है। महाभारत में भी इसी कथा का उल्लेख है। एक और तथ्य की बात यह है कि महाभारत में गंगा एक प्रमुख मानव चरित्र है जहाँ वह भीष्म की माँ है। गंगा नदी की प्रधान शाखा भागीरथी है जो कुमायूँ में हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है। गंगा के इस उद्गम स्थल की ऊँचाई ३१४० मीटर है। यहाँ गंगा को समर्पित एक मंदिर भी है। गंगोत्री तीर्थ, शहर से १९ किलोमीटर उत्तर की ओर ३८९२ मित्र अर्थात १२,७७० फीट की ऊँचाई पर इस हिमनद का मुख है। यह हिमनद २५ किलोमीटर लंबा व ४ किलोमीटर चौड़ा और लगभग ४० मीटर ऊँचा है। इसी ग्लेशियर से भागीरथी एक छोटे से गुफानुमा मुख पर अवतरित होती है।



ज्येष्ठ महीने में शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन गंगा का स्वर्ग से धरती पर अवतरण हुआ था। इस पवित्र तिथि पर गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। संसार की सबसे पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने का पर्व है- गंगा दशहरा। परोपकार का संदेश देता ऋतु परिवर्तन का संदेशवाहक पर्व गंगा का पृथ्वी पर अवतरण दिवस अर्थात गंगा दशहरा इस बार अठाईस मई को मनाया जाएगा। मनुष्यों को मुक्ति देने वाली गंगा नदी अतुलनीय हैं। संपूर्ण विश्व में इसे सबसे पवित्र नदी माना जाता है। राजा भगीरथ ने इसके लिए वर्षो तक तपस्या की थी। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा धरती पर आई। इससे न केवल सूखा और निर्जीव क्षेत्र उर्वर बन गया, बल्कि चारों ओर हरियाली भी छा गई थी। गंगा-दशहरा पर्व मनाने की परम्परा इसी समय से प्रारम्भ हुई थी। राजा भगीरथ की गंगा को पृथ्वी पर लाने की कोशिशों के कारण इस नदी का एक नाम भगीरथी भी है। पौराणिक मान्यतानुसार हिन्दू जीवन मीमांसा में जीवन में एक बार भी गंगा में स्नान न कर पाना जीवन की अपूर्णता का द्योतक है। भविष्य पुराण, वराह पुराण ,स्कन्द पुराण आदि पुरातन ग्रन्थों में गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान करना अत्यंत शुभ, पावनकारी व पुण्यदायी माना गया है ।

लिंक- http://www.pravakta.com/painlessly-sin-rashtrandi-saritshreshtha-nissan-salvation-pruned-bhagwati-bhagirthi-ganga


Thursday, May 28, 2015

समाज की प्राचीन और सर्वमान्य रीति विवाह

अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता.कोम में दिनांक- १६ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख समाज की प्राचीन और सर्वमान्य रीति विवाह- अशोक "प्रवृद्ध"



समाज की प्राचीन और सर्वमान्य रीति विवाह

समाज की प्राचीन और सर्वमान्य रीति विवाह

Posted On May 16, 2015 by &filed under कला-संस्कृति, विविधा.









 -अशोक “प्रवृद्ध”-



मानव की शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति के लिए जन्म से मृत्युपर्यन्त भिन्न-भिन्न समय पर अलग-अलग संस्कारों की व्यवस्था प्राचीन ऋषि-मुनियों ने की है। मानव-जीवन की उन्नति में विशिष्ट महत्व रखने वाली सोलह संस्कारों मे से एक तेरहवाँ और अतिमहत्वपूर्ण संस्कार विवाह है। विवाह एक धार्मिक संस्कार है, जो धर्म की रक्षा करता है और धर्म उसकी रक्षा करता है। शास्त्रों में भी कहा गया है- स्त्री और पुरुष मिलकर एक पूर्ण शरीर बनाते हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है। आदिदेव शंकर का अर्द्धनारीश्वर रूप भी इसी का द्योत्तक है। पुरुष तथा स्त्री के अपेक्षाकृत स्थायी और समाज स्वीकृत प्रेम को विवाह कहते हैं। विवाह में दो बातें सम्मिलित हैं। एक तो दो परिवारों का सम्बन्ध- मुख्यतया एक लड़की का अपने माता-पिता का घर छोड़कर श्वसुर अथवा पति के घर में जाना और दूसरा पति-पत्नी का यौन-सम्बन्ध विवाहित जीवन को सुखी और आनन्दमय बनाने के लिए प्रथम बात, अर्थात लड़की का पति के घर में आना और रहना, अधिक महत्वपूर्ण है। पति-पत्नी में मुख्य बात तो दोनों का मिलकर गृहस्थ धर्म का पालन करना है।गृहस्थ धर्म में यौन-सम्बन्ध के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है। गृहस्थ धर्म यज्ञस्वरूप है। इस आश्रम के आश्रय ही ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम चलते हैं। इतना बड़ा उत्तरदायित्व पति-पत्नी दोनों मिलकर ही निभा सकते हैं। इस आश्रम में साथ रहने के क्रम में सन्तानोंत्पत्ति तो होगी ही। जहां स्त्री-पुरुष इकट्ठे रहेंगे,विवाहित हों अथवा अविवाहित, सम्बन्ध बन सकता है और सन्तानोंत्पत्ति भी हो सकती है, परन्तु संतान का पालन -पोषण,शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध गृहस्थी का धर्म होता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती के शब्दों में विवाह उसको कहते हैं जो पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत, विद्या, बल को प्राप्त तथा सब प्रकार से शुभ गुण, कर्म, स्वभावों में तुल्य परस्पर प्रीतियुक्त होक सन्तानोंत्पत्ति और अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुकूल उत्तम कर्म करने के लिए स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध होता है। वेद-पुराण, इतिहास और लोक परम्पराओं के अध्ययन से ऐसा भाष होता है की कदाचित् यह संस्था मानव समाज की सबसे पुरानी और सर्वमान्य रीतियों में से एक है।

विवाह शब्द का अर्थ है-खास सम्बन्ध। वैदिक साहित्यों में विवाह शब्द अत्यंत प्राचीन है। ऋग्वेद में वर्तमान अर्थों में विवाह शब्द नहीं मिलता । फिर भी ऋग्वेद मण्डल 2, सूक्त 17, मन्त्र 7 , ऋग्वेद 2/29/, ऋग्वेद 10/7, ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 46, मन्त्र 2-10 से विवाह शब्द का पत्ता चलता है। परम्परागत अर्थों में हिन्दू समाज की दृष्टि से विवाह का अर्थ है- स्त्री-पुरुष का जीवन भर अथवा जन्मान्तर के लिए एक दुसरे से अनुबन्धित होना। हिन्दू स्त्री एक बार विवाहित होकर जीवन-पर्यंत विच्छेदित नहीं हो सकती। यही नहीं पति के मृत्यु हो जाने पर भी वह उसी की विधवा रहती है। पति मृत हो अथवा जीवित, स्त्री वाग्दता हो या विवाहिता, हर हालत में उसे मन, वचन, कर्म से पति के प्रति सर्वथा अनुबंधित, अनुप्राणित एवं आत्मार्पित होनी पड़ती हैl विवाह के पश्चात् पति का स्त्री पर पूर्ण अधिकार है, परन्तु पुरुष पत्नी की भान्ति स्त्री के प्रति अनुबंधित नहींl हिन्दू धर्मानुबन्धन में पति एक या अनेक इसी भान्ति अनुबन्धित पत्नियाँ रखते हुए भी सर्वथा स्वतंत्र रूप से वैध अथवा अवैध अनगिनत पत्नियाँ बिना पत्नी के स्वीकृति के रख सकता हैl यहाँ तक की पुरुष दासियों, वेश्याओं, रखैलियों एवं व्यभिचारिणी स्त्रियों से भी स्वच्छंद सहवास कर एकता है तथा इससे दूषित भी नहीं होता हैl

यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रंथों से विवाह के विकास का आभाष मिलता है l इसके साथ ही यह भी पत्ता चलता है की विवाह तथा वर्ण का विकास साथ ही साथ एक ही आधार पर हुआ है, फिर भी वृहदारण्यक उपनिषद् 30 तथा ऐतरेय ब्राह्मण 3-33 से ज्ञात होता है कि स्त्रियाँ परदे में नहीं रहती थीं, पैत्रिक सम्पति में हिस्सा पाती थीं, सम्पति की अधिकारिणी होती थीं तथा धार्मिक कार्यों में सम्मिलित होती थीं l अथर्ववेद में कहा गया यह मन्त्र विवाह की परिपाटी स्थापित करता है l अथर्ववेद 14-15 में अंकित है कि सौभाग्य के लिए तेरा हाथ पकड़ता हूँ, मुझ पति के साथ रह,प्रतिष्ठित और नम्र पुरुषों ने मुझे तुझे दिया है.... l अथर्ववेद के अगले मन्त्रों में अथर्ववेद 1/14/3 तथा अथर्ववेद 14/1/43-44 में कन्यादान के पूर्व प्रकट रूप का विकास हुआ है l

विद्वानों का विचार है कि आर्यों में चार वर्णों का विभाजन तो पूर्व में ही हो चुका था,लेकिन आर्यों के पूरे भारतवर्ष में फैलने के पश्चात् जब अनुलोम विवाह, जहाँ कि ऊंचे वर्ग के पुरूष, नीचे वर्ग की स्त्रियों से विवाह कर सकते हैं,परन्तु स्त्रियाँ अपने ही वर्ण अथवा उच्च वर्ग में व्याही जाती हैं तथा प्रतिलोम विवाहों, जिसमें स्त्री की जाति पति की वर्ण अथवा जाति से ऊंचा होता है, ठीक अनुलोम विवाह के विपरीत, से उत्पन्न वर्ण-संकरों तथा अनार्य जातियों की स्त्रियों से आर्यों का संसर्ग होने के कारण उनसे उत्पन्न सन्तान की शाखाएं फ़ैल गई थीं तथा इस बात की अब जरुरत महसूस होने लगी थी कि विवाहों और इन विवाहों से उत्पन्न सन्तान की जातियों का नए सिरे से संगठन किया जाए l विवाहों के संगठन के सम्बन्ध में वशिष्ठ, आपस्तम्ब, गौतम आदि आचार्य कुछ मामलों में सहमत और कुछ मामलों में असहमत हैं l वशिष्ठ केवल छः विवाहों- ब्राह्म विवाह,देव,आर्ष,प्राजापत्य,आसुर और गान्धर्व विवाह को स्वीकार करते हैं l आपस्तम्ब भी इन्हीं छः को मानते हैं, परन्तु पिछले दो राक्षस और पैशाच विवाह को दुसरे अन्य नामों से स्वीकार करते हैं l गौतम तथा बोधायन विवाह की आठ रीतियों को मानते हैं l ये दोनों सूत्रकार वशिष्ठ से प्राचीन माने जाते हैं l इन्होने प्राजापत्य तथा पैशाच विवाह को अधिक माना है Lऐसा भाष होता है कि इस काल में भिन्न-भिन्न प्रदेशों में विवाह की अलग-अलग रीतियाँ प्रचलित थीं तथा विवाहित स्त्रियाँ अन्तःपुर में रहती थीं तथा पति की आज्ञानुवर्त्तिनी हुआ करती थींl

विवाह के प्रकार

पुरातन शास्त्रों में विवाह के आठ प्रकार कहे गए हैं l मनुस्मृति में कहा है-

ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽसुरः  l

गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः l

- मनुस्मृति 3/21

 ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच ये विवाह के आठ प्रकार होते हैंl मनुस्मृति में ही इन विवाहों की व्यवस्था है l वर-कन्या दोनों यथावत ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान, धार्मिक एवं सुशील हों उनका परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना अर्थात अच्छे-अच्छे शील-स्वभाव, गुणवान वर को घर बुलाकर उसका पूजन कर कन्यादान करना और वस्त्राभूषण प्रदान करना ‘ब्राह्म विवाह’ कहलाता हैl विस्तृत यज्ञकर्म करने में ऋत्विक कर्म करते हुए जामाता को अलंकारयुक्त कन्या को देना ‘दैव विवाह’ कहलता है l वर से कुछ ले के (बैल तथा गायें धर्मार्थ लेकर) उसे विधिवत कन्या प्रदान करना ‘आर्ष विवाह’, दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के अर्थ होना ’प्राजापत्य विवाह’ ,कन्या के पिता एवं अभिभावकों को यथाशक्ति कुछ धन देकर विवाह हेतु राजी करना ‘आसुर’ ,वर और कन्या की इच्छा से दोनों का संयोग होना और मन में परस्पर एक दूसरे को पति-पत्नी मान लेना ‘गान्धर्व विवाह’, लड़ाई करके बलात्कार अर्थात छीन-झपट अथवा कपट से कन्या का ग्रहण करना ‘राक्षस विवाह’ तथा सोती या अचेत अथवा पागल कन्या, नशा पीकर उन्मुक्त हुई कन्या को एकान्त पाकर दूषित अथवा सम्भोग कर देना,यह समस्त विवाहों में महानीच, दुष्ट अति दुष्ट ‘पैशाच विवाह’ कहलाता हैl मनुस्मृति में यह भी लिखा है कि ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य इन चार विवाहों में पाणिग्रहण किये गये (हुए) स्त्री-पुरूष से जो संतान उत्पन्न होते हैं, वे वेदादि विद्या से तेजस्वी आप्त पुरुषों के सम्मत अत्युत्तम होते हैंl वे पुत्र अथवा कन्या सुन्दर, रूप, बल, पराक्रम, शुद्ध, बुद्धि आदि उत्तम गुणयुक्त,बहुधनयुक्त, पुण्यकीर्तिमान तथा पूर्ण भोग के भोक्ता अतिशय धर्मात्मा होकर सौ वर्ष तक जीते हैंl इन चार विवाहों के अतिरिक्त शेष चार आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों से उत्पन्न संतान निन्दित कर्मकर्त्ता,मिथ्यावादी, वेदधर्म के द्वेषी, बड़े ही नीच स्वभाव के होते हैंl



महाभारत में केवल पाँच विवाह



महाभारत एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैl यह ग्रन्थ उस काल की सभ्यता का अप्रतिम प्रमाण है। महाभारत आदिपर्व अध्याय 74 तथा महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 में केवल पाँच ही विवाह का नाम अंकित है उन विवाहों के नाम महभारत में ब्राह्म, क्षात्र, गान्धर्व, आसुर और राक्षस विवाह अंकित है । दैव, आर्ष और प्राजापत्य को क्षात्र के अंतर्गत माना गया है।पैशाच विवाह को निर्दिष्ट नहीं माना गया है। महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 में प्रथम के चार ब्राह्म, क्षात्र ,गान्धर्व और आसुर को प्रशस्त और अंतिम राक्षस को निकृष्ट माना गया है।हालाँकि बलात् (जबरदस्ती) कन्याहरण भीष्म ने किया था तथा माद्री को मोल लिया था।क्षात्र विवाह की स्पष्ट व्याख्या महाभारत में नहीं है।परन्तु संभवतः क्षात्र विवाह गान्धर्व विवाह ही है, फिर भी गान्धर्व विवाह और स्वयम्बर विवाह में जो भेद है, वह स्पष्ट है। स्वयम्बर में तो एक न एक शर्त रखी जाती थी, जिसे वर को पूरा करना होता था। परन्तु ऐसे भी स्वयम्बर होते थे जिनमे कोई प्रण अथवा शर्त पूरी नहीं करनी होती थी।जैसे कि दमयन्ती का स्वयम्बर। इतिहासकारों के अनुसार प्राचीन काल से ही पंजाब की स्त्रियाँ अपने लिए अपने आप ही वर पसन्द करती थीं।ऐसा उन्होंने सिकन्दर के आक्रमण काल के लिए भी कहा है।इससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्वयम्बर प्रथा बहुत देर तक प्रचलित रही।इसी तरह गान्धर्व विवाह में किसी साक्षी अथवा गवाह का भी प्रश्न नहीं था ।गान्धर्व एक देवों की उपजाति का भी नाम है, जैसा कि महाभारत में कहा है हो सकता है गान्धर्व विवाह की उन्मुक्त रीति आर्यों ने उनसे सीखी हो और अपनी परम्परा में सम्मिलित कर ली हो। शर्मिष्ठा असुर कन्या थी। रामायण से पत्ता चलता है कि वह आर्य राजा को व्याही गयी थी। महाभारत तथा रामायण दोनों में अंकित है कि मद्र और कैकेय देश की स्त्रियों को मध्य देश के क्षत्रिय राजा मूल्य देकर लिया करते थे।ऐसा भान होता है कि समस्त दक्षिणावर्त में विशेष रूप से जिनके सम्बन्ध असुरों से थे, उनमे यह प्रथा कुल-परम्परा से चली आई थी तथा उच्च कुल की ऐसी अनार्य कन्याएं मोल खरीदकर व्याह ली जाती थीं ।मनुस्मृति से भी ऐसा ही पता चलता है ।असुर विवाह उनके सन्तानों के अधिकारों की रक्षा कर लेता था, परन्तु नीच जाति की कन्याएं दासी की भान्ति खरीदी जाती थीं और उनके सन्तानों को कोई अधिकार प्राप्त न थे। रामायण से पत्ता चलता है कि श्रीराम के पूर्व ही अगस्त मुनि ने आर्यों का एक उपनिवेश दक्षिण में स्थापित कर लिया था, तथा शरभंग ऋषि और परशुराम भी उधर ही चले गए थे । अनेक ऋषियों की इन राक्षसों से रिश्तेदारियाँ थीं। मत्स्यपुराण में अंकित है कि दैत्य- दानव श्वेत पर्वत पर, देवगण सुमेरू (पामीर) पर, राक्षस , यक्ष और पिशाच हिमालय पर, गान्धर्व अत्सरस हेमकूट (कारा-कोरम) पर तथा नाग और तक्षक निषध पर्वत पर रहते थे । राक्षस विवाह अति साहसी सुभट (वीर) ही कर सकते थे ।सुभद्राहरण और भीष्म के द्वारा काशीराज की कन्या का हरण इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।विवाहित स्त्रियों का भी हरण किया जाता था, जैसे कि जयद्रथ ने पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी का किया था।

प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि ब्राह्म विवाह सब विवाहों में मुख्य था। क्षात्र, आसुर, राक्षस आदि विवाह के द्वारा लायी गई कन्याओं को ब्राह्म विवाह की रीति से विवाह किया जाता था। कालान्तर में यही ब्राह्म विवाह ही एकमात्र प्रमुख विवाह तथा सर्वप्रचलित विवाह बन गया ।इस प्रकार पारम्परिक विवाह न तो व्यक्तिगत प्रेम सम्बन्ध थे न कोई धार्मिक-आद्यात्मिक गठजोड़, प्रत्युत ये विशुद्ध आर्थिक व्यवस्था से सम्बन्ध रखते थे । जिनका अभिप्राय सम्पति के उत्तराधिकारी तथा मातृ- पितृ-गुरु आदि ऋण के उद्धारक पुत्रों को उत्पन्न करना था।यह उत्तराधिकारी आज भी तब की भान्ति ही दीवानी कानून का बड़ा ही पेचीदा तथा सर्वाधिक महत्व का प्रश्न रखता है ।यही कारण है कि प्राचीन काल से ही पुत्र का अत्यधिक महत्व रहा है ।वैसे आधुनिक समाज में ब्राह्म विवाह के अतिरिक्त पाश्चात्य समाज एवं चलचित्रों के प्रभाव से एक रात्रि के लिए अथवा कुछ काल के लिए गान्धर्व विवाह का प्रचलन हो गया है तथा कोई-कोई युगल गान्धर्व विवाह के तहत कुछ कदम पैर आगे  न्यायालयीन विवाह अर्थात कोर्ट मैरिज का भी प्रमाण पत्र लेने से नहीं हिचकते । ऋग्वेद दशम मण्डल के पचासीवें सूक्त जिसे  आज विवाह सूक्त के नाम से जाना जाता है, अर्थात 10/85/47 अनुसार हिन्दू विवाह पद्धति में वर-कन्या (वधू) का हाथ पकड़ कर कहता है-

समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ ।

सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ ॥

- ऋग्वेद 10-85-47

‘हे विश्व के देवताओं ! हम प्रसन्नतापूर्वक एकत्रित रहने के लिए एक दूसरे को ग्रहण करते हैं ।हमारे ह्रदय दो जलों के समान मिल जाएँ ।जैसे प्राण वायु प्राणियों को प्रिय है, जैसे सर्वव्यापक परमात्मा सब में मिला हुआ है तथा उपदेष्टा से श्रोत्ता प्रीति करते हैं, वैसे ही हम परस्पर हों ।‘ यही विवाह अथवा पाणिग्रहण की मीमांसा है ।



लिंक- http://www.pravakta.com/the-ancient-society-and-widely-accepted-customs-of-marriage









समाज की प्राचीन और सर्वमान्य रीति विवाह

जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति

अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता.कोम में दिनांक - १४ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख-जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति -अशोक "प्रवृद्ध"

जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति

जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति-अशोक "प्रवृद्ध"

Posted On May 14, 2015 by &filed under विविधा.









 -अशोक “प्रवृद्ध”-

इस वर्ष वर्षा रानी वसन्त ऋतु में ही मेहरबान हो गई, और देश के प्रायः सभी इलाकों में वर्षा रानी की मेहरबानी के कारण बैशाख की तपिश और जंगलों में आग लगने की घटना में कमी दिखलाई दे रही है, परन्तु यह अनुभव सत्य है कि गर्मी का मौसम प्रारम्भ होते ही देश के जंगलों मे आग धधकने प्रारम्भ हो जाते हैं। यह कोई एक वर्ष की बात नहीं,वरन ऐसा प्रतिवर्ष ही गर्मी के दिनों में होता है और वसन्त के आगमन के साथ ही झारखण्ड, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा,महाराष्ट्र सहित देश के विभिन्न भागों के जंगलों में आग लगने की घटनाये बढ़ जाती हैं,  जिसकी जानकारी समाचार पत्रों के माध्यम से हमें मिलती, और चिन्तित करती रहती हैं। यह सर्वविदित है कि जंगल में आग लगने से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों को अपूरणीय क्षति होती है, जंगलों में दिन-रात सुलगती आग की दर्द भरी तपिश को बेजुबान पशु-पक्षियों को भटकते हुए और जंगली पादपों को अपनी वंशनाश करते हुए झेलनी पडती है, फिर भी देश के जंगलों में महुआ चुनने और अन्य उद्देश्यों को लेकर दशकों से जंगल में लगाई जाती रही है। उत्तराखण्ड,आसाम आदि देश के राज्यों में नए कृषि क्षेत्र के निर्माण, नयी घास उगाने, पेड़ काट कर उसके  निशान मिटाने के उदेश्य से लोग जंगलों में आग लगाते हैं तो झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ आदि में  महुआ चुनने के चक्कर में जंगल में आग लगाई जाती है। जंगलों में यह आग प्रतिवर्ष वसन्त काल में महुआ चुनने और विभिन्न अन्य उद्देश्यों के लिए लगाई जाती है जिससे जंगलों में नए-नए पनप रहे नवीन पादप आग से जल अथवा झुलस कर मर जाते हैं।इन पादपों में जंगली बृक्षों के साथ ही विभिन्न प्रकार की औषधीय पौधे और जड़ी-बूटियाँ भी शामिल होती हैं। जंगलों में लगने वाली आग की विभीषिका का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस आग की तपिश में वन्य प्राणियों के साथ ही विभिन्न पेड़-पौधे व जड़ी-बूटियाँ झुलस कर मर जाने के परिणामस्वरूप जीव-जन्तुओं और जंगल के पेड़,  मूल्यवान पौधे तथा औषधीय व जड़ी-बूटी आदि पादपों की कई विभिन्न प्रजातियों पर अस्तित्व का संकट उत्पन्न होता जा रहा है lऔर अब स्थिति ऐसी बन आई है कि जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियाँ ढूंढे से भी नहीं मिल रही हैं और बाहर के बाजारों से इनकी आपूर्ति पर स्थानीय लोग करने लगे हैं 
1988 में घोषित वननीति के तहत देश में वनों का प्रतिशत कुल क्षेत्रफल के मुकाबले 33 प्रतिशत होना  अनिवार्य घोषित किया गया है, इसके बावजूद वनों के निरन्तर सिकुड़ने कहीं-कहीं समाप्त होने के कगार पर पहुँचने की मुख्य कारण बनी, जंगल की आग का प्रकोप प्रतिवर्ष देश के जंगलों में जारी है। देश में 6,75,538 वर्गकिलोमीटर में जंगल होने के दावे किये जाते रहे हैं। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20.55 प्रतिशत ही है। देश के वन्य क्षेत्र को और फैलाने और पैंतालीस हजार से अधिक प्रकार की वनस्पतियों को बचाए रखने की चुनौती सरकार के सामने है, लेकिन सरकार और सरकारी पदाधिकारियों विशेषतः वन पदाधिकारियों के रुख और कार्य-प्रणाली से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी भी मंशा ठीक नहीं है। ऐसी परिस्थिति में यह बात और भी दुःखद हो जाती है कि झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा,पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के आपस में सटे क्षेत्रों के जंगलों में आग लगती नहीं बल्कि लगाई जाती है ।वह भी आसानी से महुआ का फल चुनने के लिए। लेकिन सिर्फ महुआ चुनने के उद्देश्य से लगायी गई इस आग से महत्वपूर्ण जंगली पादप प्रतिवर्ष आग की भेंट चढ़ जाने से इन पादपों के प्रजातियों के नष्ट हो जाने की संकट आन खड़ी हो रही है, परन्तु वन विभाग इस समस्या का समुचित समाधान कर पाने में अब तक असफल रहा है। स्थिति यह है कि जब जंगलों में आग लगती है तो सूचना देने के घंटों बाद वन्य कर्मी आग बुझाने के उपकरण के साथ पहुँचते हैं, और पहुँचने के बाद घंटों नहीं कई बार तो सप्ताहों तक वन्यकर्मियों के द्वारा आग बुझाने की प्रयास किये जने के बावजूद आग नहीं बुझती और दावानल बन भारी तबाही मचाती है। प्रत्येक स्थान से एकसमान शिकायत मिलती है कि वन्य कर्मी सक्रिय व  सजग नहीं रहते, वहीँ दूसरी ओर स्थानीय जनता का भी अपेक्षित सहयोग आग बुझाने में नहीं मिलती। ऐसी परिस्थिति में सरकारी लालफीताशाही और आम जनता की उपेक्षा का शिकार पूरा जंगल दावानल में परिवर्तित हो जाता है।

एक ओर वन विभाग द्वारा वन बचाओ का नारा दिया जा रहा है, और इस कार्य पर करोड़ों रूपये खर्च किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ग्रामीणों द्वारा जंगलों में आग लगा दिए जाने से अमूल्य धरोहरों को क्षति हो रही है। प्रतिवर्ष जंगलों में आग लगाये का सिलसिला वसन्त ऋतु के आगमन के साथ ही शुरु हो जाने से पेड़-पौधों,वन्य जीवों पर खतरा उत्पन्न हो गया है, वहीं वन एवं स्थानीय पर्यावरण को भी काफी क्षति हो रही है है। उल्लेखनीय है कि देश के कई अन्य राज्यों की भान्ति ही झारखण्ड में जंगलों को आग व विविध प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा, सरंक्षण और प्रवर्द्धन के लिए गाँवों में ग्राम वन सुरक्षा प्रबन्धन समिति का गठन किया गया है, ये वन समितियाँ वन्य ग्राम के वन्यवासियों को जंगलों की संरक्षण- परिवर्द्धन और सुरक्षा के लिए प्रेरित और उसके लाभ के प्रति जागरूक करती हैं। इसमें जंगलों को आग से बचाने के उपाय और उससे होने वाली लाभ से वन्यवासियों को अवगत कराना भी शामिल है,परन्तु इनके कोशिशों के बावजूद प्रत्येक वर्ष महुआ के फल लगने के दौरान महुआ चुनने वालों द्वारा जंगल में आग लगा दिया जाता है। पतझड़ के मौसम में सूखी पत्तों में चिंगारी लगने से पूरे जंगल में आग की लपटें फैल जाती है। वन विभाग द्वारा भी आग बुझाने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता है। जानकार लोग कहते हैं,वन सुरक्षा समिति सर्फ दिखावे के लिए है, इसका उद्देश्य वनों की रक्षा करना नहीं बल्कि इनके सहयोग, मिलीभगत और हस्ताक्षर से सरकारी निधि की सुरक्षित हेराफेरी की जाती है। यही कारण है कि वन सुरक्षा समिति के सदस्य भी जंगलों में आग लगने की स्थिति की ओर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते, बल्कि कई तो स्वयं महुआ चुनने और अपने स्वार्थी इरादों की पूर्ति इसकी आड़ में करने में लग जाते हैं। नतीजतन जंगल में आग की लपटें तेज होती जाती हैं । कई क्षेत्र के वन्यवासियों और ग्रामीणों का मानना है कि जंगल में गिरे पत्ते में आग लगाने से रुगड़ा का उत्पादन अधिक होता है और इसी अंधविश्वास के कारण कुछ लोग जंगल में आग लगा देते हैं, जिससे भारी नुकसान होता है।


जंगली क्षेत्रों में जंगल में लगी आग का दिन में तो पता नहीं चलता लेकिन रात होते ही जंगलों में ऊंची लपटे उठते देखी जा सकती हैं। पतझड़ में पेडों से पत्ते सूख कर गिर जाने से लोगों को शिकार करने व महुआ चुनने में काफी परेशानी होती है। इन परेशानियों से बचने के लिए लोग सूखे पत्तों को एकत्र कर आग लगा देते है। लेकिन यही आग देखते ही देखते भयंकर रूप धारण कर पूरे जंगल को अपनी चपेट में ले लेती है। प्रतिवर्ष जंगलों में आग लगने से वन्य-सम्पदा के जलकर राख हो जाने से करोड़ों का नुकसान तो पहुँचता ही है लेकिन सबसे ज्यादा कष्ट जंगलों के निवासी, बेजुबान वन्यप्राणियों को पहुँचता है। जंगलों में आग लगने से वन्य-प्राणी कराहने को मजबूर हो जाते हैं और खामोश होकर संकटों का सामना करने लगते है। वे उम्मीद की एकमात्र किरण समझ इस आशा में स्थानीय लोगो के पास भागे चले आते है कि वे हमें आग से बचायेंगे लेकिन इनकी आवाज को सुनने ,पहचानने के स्थान पर उल्टा खतरा समझकर इन्हें मार दिया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में उम्मीद की किरण स्थानीय जनता से जागने की आशा की जानी चाहिए थी, लेकिन चिन्तनीय बात है कि जंगलों पर निर्भर स्थानीय समाज भी खामोशी से सारी घटनाओं को एक तमाशे की तरह देख रहा है और कहीं-कहीं तो वह स्वयं ही इन आग को लगाने वालों में भी शामिल हुआ पाता देखा जा रहा है। कटु सच्चाई यह है कि सरकार के वन विभाग के पास न तो आग लगने से पहले और न ही आग लगने के बाद के लिए कोई रणनीति या उचित प्रबन्ध है। जिसके कारण वन विभाग अपनी पूरी सक्रियता के बावजूद हर बार आग नियंत्रण कार्य असफल हो जाता है।



लिंक- http://www.pravakta.com/woods-takes-the-fire-damage-to-the-organism-including-plants-jantu



जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति

लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं -अशोक "प्रवृद्ध"

लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं





अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता.कोम में दिनांक - १६ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख-लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं -अशोक "प्रवृद्ध"



लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं- अशोक "प्रवृद्ध"

Posted On May 16, 2015 by &filed under आर्थिकी.









 -अशोक “प्रवृद्ध”-



agricultureआदिकाल से ही भारतवर्ष के अधिकांश लोगों की आजीविका का साधन कृषि और कृषि से सम्बद्ध व्यवसाय रही है, और भारतवर्ष के कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि कृषि क्षेत्र में हमने बहुत उन्नति भी की है, परन्तु इस वर्ष मार्च , रील के महीने में हुई बेमौसम आंधी-तूफ़ान, बारिश और ओले ने खेतों में तैयार फसल को बर्बाद करके भारतीय कृषकों के लिए कृषि को जुआ मानने वाली कहावत को चरितार्थ करके रख दिया। वैसे तो प्रत्येक वर्ष देश के किसी न किसी भाग में आने वाली बाढ़ अथवा सूखे की स्थिति के कारण होने वाली क्षति का सामना करना भारतीय कृषकों की नियति रही है। विशेषकर लघु व सीमांत कृषक इस स्थिति से सदैव ही प्रभावित होते रहते हैं, परन्तु गत दिनों मार्च , अप्रैल के महीने में देश के पूर्वी और पश्चिमी देानों ही छोर से एक साथ नमी उठाई जाने के कारण बड़े पैमाने पर होने वाली असमय बेतहाशा बारिश व इसके साथ-साथ आने वाले आंधी-तूफान तथा ओलावृष्टि ने देश के कृषकों, विशेषकर उत्तर व मध्य भारत के किसानों की तो कमर ही तोड़ कर रख दी। खेतों में तैयार हो रही रवि की फसलें यथा, गेहूं, सरसों, अरहर , चना आदि के साथ ही मटर, टमाटर, आलू आदि सब्जी फसल और तम्बाकू,तिलहन और दलहन की फसलें नष्ट हो गईं। बारिश के साथ-साथ सक्रिय रही चक्रवाती हवाओं ने भी किसानों की आजीविका पर भारी कहर बरपा कर दिया। इसके कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों से कृषकों द्वारा आत्महत्या किए जाने, अपनी क्षतिग्रस्त फसल को देखकर हृदयगति रुक जाने से कृषकों की देहान्त हो जाने जैसी हृदयविदारक समाचार भी सुनाई देने लगे हैं। कुछ राज्यों की सरकारें ऐसे संकट के समय में कृषकों के सहायतार्थ आर्थिक पैकेज घोषित करती भी नज़र आईं। परन्तु यह भी सत्य है कि कृषकों के ऊपर टूटे इस प्राकृतिक प्रकोप के प्रभाव से आम नागरिक भी अछूता नहीं रहने वाला। आर्थिक और बाजार विशेषज्ञों के अनुसार शीघ्र ही दलहन,तिलहन और तत्काल रूप से विभिन्न सब्जि़यों की कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में आम देशवासियों को इस मौसम का भुगतान करना पड़ सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कृषि और विज्ञान के क्षेत्रों में लगतार हो रही प्रगति के बावजूद आज भी भारतीय कृषि व कृषक ईश्वर के सहारे ही अवलंबित हैं। यही कारण है कि 1950 में जीडीपी में कृषि का 51.9 प्रतिशत हिस्सा घटकर अब मात्र 13.7 प्रतिशत रह गया है। कभी देश की तीन चौथाई जनसंख्या को रोजगार मुहैय्या कराने वाला यह क्षेत्र अब मात्र 49 प्रतिशत जनसंख्या का ही आजीविका का साधन रह गया है। वर्तमान में कृषि कार्य में भी अधिक पूँजी लगने, मनरेगा के आने के पश्चात कृषि मजदूरी दर बढने और मजदूरों के द्वारा मजदूरी के बनिस्पत कार्य नहीं करने अर्थात कामचोर हो जाने , प्राकृतिक प्रकोप से फसलों के मारे जाने, सिंचाई के अपर्याप्त साधन, आधारभूत सुविधाओं की कमी, कृषि उत्पादों की बिक्री की खराब व्यवस्था और फिर बाजार से फसलोपज की उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण कृषि कार्य लाभदायक सौदा नहीं रह गया है।



ऐसे में कृषि और कृषक हित में सोचने वाले लोगों के मन में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि क्या देश में कृषि अर्थात खेती करना एक लाभदायक उद्यम या व्यवसाय रह गया है? और क्या सरकारी कृषि नीति कृषि उद्यम से जुड़ने के लिए लोगों को प्रेरित करती है? और आखिर क्या कारण है कि सम्पूर्ण देश का पेट भरने वाला किसान स्वयं भूख से मरता है अथवा आत्मह्त्या करता है ? उसके घर की छत टपकती है फिर भी वह बारिश का इन्तजार करता है ? एक आँकड़े के अनुसार प्रतिवर्ष हमारे देश मे सतर हजार किसान आत्महत्या कर रहे है लेकिन हमारे कृषि प्रधान देश मे ऐसा क्यों हो रहा है और इसका समाधान क्या है, इस बारे में गम्भीरता से सोचने के लिए कोई तैयार नहीं ? भारतवर्ष में कृषकों की आत्महत्या के इतिहास पर निगाह डाला जाए तो यह सपष्ट होता है कि गत सदी के नब्बे के दशक के अन्त में तथा सन 2000 के आस-पास कृषकों द्वारा आत्महत्या करने के मामले सामने आये । एक आंकड़े के अनुसार सन 1995 से 2011 तक के बीच लगभग तीन लाख कृषकों ने आत्महत्या की । वैसे तो कृषकों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति देश के अधिकांश भागों के कृषकों में पाई जा रही है परन्तु ये मामले मुख्यतः कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, तथा आंध्र प्रदेश से ही प्रतिवेदित किये गए हैं।देश मे कृषकों की आत्महत्या के पीछे का सबसे कारण यह है कि दिनानुदिन उनकी खेती का लागत अर्थात खर्च बढ़ता ही जा रहा है और आमदनी कम होती जा रही है जिससे किसान कर्जे मे डूब रहा है और आत्महत्या कर रहा है । खेती करने के लिए किसान अपने खेत में यूरिया, डाईअमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फोस्फेट आदि रसायानिक खाद और इंडोसल्फान ,मालाथियोन आदि कीटनाशक डाल रहा है । जो अधिकांशतया विदेशी कंपनियों से खरीदी जाती हैं और प्रतिवर्ष चार लाख अस्सी हजार करोड़ रुपये हमारे कृषकों से लूटकर विदेशी कम्पनियां ले जाती हैं। दूसरी ओर कृषकों को ऊन्नत प्रभेद के महंगे बीज प्रतिवर्ष खरीदने पड़ते हैं । रुपये के निरन्तर अवमूल्यन से भी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के दामों में वृद्धि होती है । देश में अधिकाँश किसान पिछ्ड़ी जातियों से हैं और छोटी जोत के मालिक हैं । संयुक्त परिवार के टूटने से तथा अन्य किसानों से आपसी लेन-देन ख़त्म होने से परिवार के मुखिया पर ही परिवार की सारी जिम्मेवारी होती है । इन परिस्तिथियों में कृषि-कार्य जैसे जोखिम भरे काम में हाथ डालना मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं ।



कृषि के क्षेत्र में बहुत प्रगति करने की दावा हमारे कृषि वैज्ञानिक व सरकारें करती रहती हैं, परन्तु यह भी परम सत्य है कि आज भी देश के 95 प्रतिशत से अधिक कृषक अपने खेतों की औसत उर्वर क्षमता का आधा पौना उपज ही ले पाते हैं अर्थात भरपूर उपज नहीं ले पाते। ऐसी स्थिति में सबको अन्न उपलब्ध कराने वाले अन्नदाता कृषकों की बदतर स्थिति आज किसी से छिपी नहीं है। देश में आये दिन कृषकों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की खबरें भी इस बात की पुष्टि करती हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि दिन भर खेतों में हाड़-तोड़ परिश्रम करने वाले कृषकों और उनके परिजनों को रात को भूखे पेट सोने को मजबूर होना पड़ता है। सेंटर फॉर डेवलपिंग सोसायटीज के द्वारा की गई एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण भारतीय कृषकों की इस दुखद स्थिति की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है । दिसम्बर 2013 से जनवरी 2014 के बीच हुए इस सर्वेक्षण में देश के 137 जिलों के 274 गाँवों को शामिल किया गया है। सर्वेक्षण में देश के कृषक अर्थात किसानों की कठिन जिन्दगी और सामाजिक-आर्थिक स्थिति की वास्तविकता प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि देश के 36% किसान अपने परिवार के साथ या तो झोपड़ी में रहते हैं या फिर कच्चे-पक्के मकान में। 44% किसान परिवार के पास कच्चा-पक्का मकान अथवा दोनों मिला-जुला है। सिर्फ 18% के पास ही स्वतंत्र रूप से पक्का मकान है । देश के कृषकों में शिक्षा की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि देश के 28% किसान निरक्षर हैं। 14% दसवीं तक और केवल छह प्रतिशत के पास ही महाविद्यालय अर्थात कॉलेज की डिग्र्री है। सर्वेक्षण के अनुसार 32% किसान परिवार चलाने के लिए कृषि के अतिरिक्त कोई अन्य काम करते हैं। सर्वेक्षण में प्रत्येक दस में से एक किसान ने माना कि विगत एक वर्ष के दौरान कुछ मौकों पर उसके परिवार को भूखे पेट सोना पड़ा। भारतीय कृषकों के द्वारा उर्वरकों के इस्तेमाल के सम्बन्ध में सर्वेक्षण में बताया गया है कि आर्गेनिक उर्वरक 16% किसान ,रासायनिक उर्वरक 35% किसान और दोनों का इस्तेमाल 40% किसान करते हैं। 9% किसानों ने इस सन्दर्भ में कह नहीं सकते कहा अर्थात कुछ नहीं कहा। किसानों द्वारा कीटनाशकों के इस्तेमाल किये जाने की स्थिति के सम्बन्ध में सर्वेक्षण में कहा गया है कि नियमित रूप से 18% किसान ,कभी-कभार 28% किसान कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। 10% किसानों के लिए तो कीटनाशकों का इस्तेमाल दुर्लभ बताया गया है। इसी प्रकार जरूरी हुआ तो 30% किसान कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं और जरुरी नहीं हुआ तो नहीं तथा 13% किसान तो कभी भी कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं करते ।



इससे यह स्पष्ट हो जाता है की हरित क्रांति के सहारे खाद्यान्न उत्पादन में भले ही हम आत्मनिर्भर हो गए हों परन्तु इस कार्य से जुड़े लोग इसके बलबूते आज तक आत्मनिर्भर नहीं हो सके हैं और अधिकांश कृषक इसे घाटे का सौदा मानते हैं। यही कारण है की कृषक कृषि छोड़ किसी अन्य उद्यम को अपनाने पर विवश हैं। फसल की बुआई से लेकर कटाई तक भारतीय कृषक को भाग्य भरोसे ही रहना पड़ता है। फसल चक्र के दौरान अनेक समस्याएं मुंह बाए खड़ी रहती हैं। हाड़-तोड़ मेहनत करके अगर वह फसल को खेत में तैयार कर ले जाता है तो आखिरी समय पर प्राकृतिक आपदाएं उसकी उम्मीदों पर तुषारापात कर देती हैं। रही-सही कसर फसलोपज की भंडारण की समस्या और बाजार में बिचौलियों की मौजूदगी से औने-पौने मूल्य कर देते हैं।



ऐसे में ग्लोबल वार्मिंग या मौसम में लगातार हो रहे परिवर्तन के परिणामस्वरूप प्रकृति के बदलते स्वरुप के मध्य अब वैज्ञानिकों तथा कृषि विशेषज्ञों को प्रकृति पर आश्रित रहने वाली कृषि के स्वरूप में बदलते मौसम के अनुरूप परिवर्तन लाए जाने पर विचार-विमर्श करना चाहिए । ग्लोबल वार्मिंग से न सिर्फ भारतवर्ष वरन दक्षिण एशियाई देशों सहित लगभग सम्पूर्ण संसार बदलते मौसम के कारण होने वाले प्राकृतिक व पर्यावरण संबंधी परिवर्तनों का शिकार हो रहा है। कहीं रेगिस्तान में बाढ़ आने, गर्म प्रदेशों में बर्फबारी होने, मनुष्येतर जीव-जन्तुओं यथा, कुते, मैना आदि पशु-पक्षियों में भी असमय प्राकृतिक क्रियाएँ जैसे रतिक्रिया, प्रजनन होते दिखलाई देने आदि जैसे समाचार मिलने लगे हैं तो कहीं हरियाली वाले क्षेत्र बिना बारिश के सूखे का शिकार होते सुने जा रहे हैं। इसलिए समय की मांग है कि प्रकृति के बदलते स्वरुप के अनुरूप मनुष्य और कृषि व्यवसाय को भी शीघ्रातिशीघ्र और यथासम्भव ढालने की कोशिश की जाए और तदनुसार कृषि-प्रणाली अपनाई जाए।



लिंक-http://www.pravakta.com/from-agro-action-no-longer-profitable-deal-death-to-invite-not-less-than

आर्यावर्त: विशेष : गंगा दशहरा अर्थात गंगावतरण की पौराणिक कथा

आर्यावर्त: विशेष : गंगा दशहरा अर्थात गंगावतरण की पौराणिक कथा


वेब समाचार न्यूज एण्ड व्यूज पोर्टल Indian Hindi News Portal -आर्यावर्त्त में दिनांक- २८ मई २०१५ को गंगा दशहरा के अवसर पर प्रकशित कथा - गंगा दशहरा अर्थात गंगावतरण की पौराणिक कथा- अशोक "प्रवृद्ध"

विशेष : गंगा दशहरा अर्थात गंगावतरण की पौराणिक कथा- अशोक "प्रवृद्ध"
Edited By Rajneesh K Jha on गुरुवार, 28 मई 2015
भारतवर्ष के पौराणिक राजवंशों में सबसे प्रसिद्ध राजवंश इक्ष्‍वाकु कुल है। इस कुल की अट्ठाईसवीं पीढ़ी में राजा हरिश्‍चन्द्र हुए, जिन्‍होंने सत्‍य की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया । इसी कुल की छत्‍तीसवीं पीढ़ी में अयोध्या में सगर नामक महाप्रतापी , दयालु, धर्मात्‍मा और प्रजा हितैषी राजा हुए। गर अर्थात विष के साथ पैदा होने के कारण वह सगर कहलाए। सगर का शाब्दिक अर्थ होता है विष के साथ जल। हैहय वंश के कालजंघ ने सगर के पिता वाहु को एक संग्राम में पराजित कर दिया था। राज्‍य से हाथ धो चुके वाहु अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गए। इसी समय वाहु के किसी दुश्‍मन ने उनकी पत्‍नी को विष खिला दिया। जब उन्‍हें जहर दिया गया उस समय वह गर्भवती थी। ऋषि और्व को जब यह पता चला तो उन्‍होंने अपने प्रयास से वाहु की पत्‍नी को विषमुक्‍त कर उसकी जान बचा ली। इस प्रकार भ्रूण की रक्षा हुई और समय पर सगर का जन्‍म हुंआ। विष को गरल कहते हैं। चूकिं बालक का जन्म गरल के साथ हुआ था इस लिए वह स+गर= सगर कहलाया। सगर के पिता वाहु का और्व ऋषि के आश्रम में ही निधन हो गया। सगर बड़े होकर काफी बलशाली और पराक्रमी हुए। उन्‍होंने अपने पिता का खोया हुआ राज्‍य वापस अपने बल और पराक्रम से जीता। इस प्रकार सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता की हार का बदला लिया। सातों समुद्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया और सगर चक्रवर्ती सम्राट बने। अपने गुरूदेव और्व की आज्ञा मानकर उन्‍होंने तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जाति के लोगों का वध न कर उन्‍हें विरूप बना दिया। कुछ के सिर मुँड़वा दिए, कुछ की मूँछ या दाढ़ी रखवा दी। कुछ को खुले बालों वाला रखा तो कुछ का आधा सिर मुँड़वा दिया। किसी को वस्‍त्र ओढ़ने की अनुमति दी, पहनने की नहीं और कुछ को केवल लँगोटी पहनने को कहा। संसार के अनेक देशों में इस प्रकार की परम्परा प्राचीन काल में प्रचलित थी । कहीं-कहीं इनकी झलक आज भी दिखती है। भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा गंगावतरण, जिसके द्वारा भारतवर्ष की धरती पवित्र हुई, इन राजा सगर से सम्बन्धित है।

ऋषि अग्नि और्व हैहयों के परम्परागतगत शत्रु थे। उन्‍होंने भी सगर को हैहयों के विरूद्ध संग्राम में हर प्रकार की सहायता प्रदान की। सगर की दो पत्‍नियां थी वैदर्भी और शैव्या। कुछ पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार उनकी पत्नियों का नाम केशिनी तथा सुमति है ।राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा।

वैदभी (केशिनी) के गर्भ से मात्र एक पुत्र था उसका नाम था असमंज। वह बड़ा ही दुष्‍ट और प्रजा को दुख पहुँचाने वाला था । जबकि सगर अत्यन्त ही धार्मिक सहिष्‍णु और उदार व्यक्तित्व के स्वामी थे। सगर के लिए असमंज का व्‍यवहार बड़ा ही कष्ट देने वाला साबित हो रहा था। जब उसकी आदतें नहीं सुधरी तो सगर ने असमंज को त्‍याग दिया। असमंज के औरस से अंशुमान का जन्‍म हुआ। वह बहुत ही पराक्रमी था। अंशुमान ने अश्‍वमेघ और राजसूय यज्ञ सम्‍पन्‍न कराया और राजर्षि की उपाधि प्राप्‍त की। शैव्‍या (सुमति) के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। सभी काफी वीर और पराक्रमी थे। उनके ही बल पर सगर ने मध्‍यभारत में एक विशाल साम्राज्‍य की स्‍थापना की ।

सगर न सिर्फ बाहुबली और पराक्रमी थे, बल्कि धार्मिक प्रकृति के व्‍यक्ति भी थे। वे ऋषियों महर्षियों का काफी आदर सत्‍कार और सम्‍मान किया करते थे। वशिष्‍ठ मुनि ने सगर को सलाह दी की अश्‍वमेघ यज्ञ का अनुष्‍ठान करें ताकि उनके साम्राज्‍य का विस्तार हो। पौराणिक मान्यतानुसार प्राचीन काल में किए जाने वाले यज्ञानुष्‍ठानों में अश्‍वमेघ यज्ञ और राजसूय यज्ञ सर्वश्रेष्‍ठ यज्ञ माने जाते थे। उन दिनों बड़े व प्रतापी और पराक्रमी सम्राट ही अश्‍वमेघ यज्ञ का आयोजन किया करते थे। इस यज्ञ में निन्यान्ब्बे यज्ञ सम्‍पन्‍न होने पर एक बहुत अच्‍छे गुणों वाले घोड़े पर जयपत्र बाँध कर राजा सगर ने छोड़ दिया । उस पत्र पर लिखा था कि घोड़ा जिस जगह से गुजरेगा वह राज्‍य यज्ञ करने वाले राजा सगर के अधीन माना जाएगा। जो राजा या जगह स्‍वामी अधीनता स्‍वीकार नहीं करना चाहते , वे उस घोड़े को रोक कर युद्ध हेतु तैयार रहें । घोड़े के साथ हजारों सैनिक साथ-साथ चल रहे थे। एक वर्ष पूरा होने पर उस घोड़ा वापस लौट आना था। इसके बाद ही यज्ञ की पूर्णाहुति सम्भव थी। महाराजा सगर ने अपने यज्ञ के घोड़े श्यामकर्ण की सुरक्षा के लिए हजारो सैनिकों की व्‍यवस्‍था की थी। वीर बाहुबलि सैनिक घोडे़ के साथ निकले, और आगे बढ़ते रहे। सगर का प्रताप चतुर्दिक फैल रहा था। जगह जगह उनके बल-पराक्रम और शौर्य की चर्चा होने लगी। इससे देवाधिपति देवराज इन्‍द्र को शंका हुई। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर इन्‍द्र यह सोचने लगे कि अगर यह अश्‍वमेघ यज्ञ सफल हो गया तो यज्ञ करने वाले को स्‍वर्गलोक का राजपाट मिल जाएगा। इन्‍द्र ने यज्ञ के घोड़े को अपने मायाजाल के बल पर चुरा लिया। इतना ही नहीं उन्‍होंने इस घोड़े को पाताललोक में तपस्‍यारत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। उस समय मुनि गहन साधना में लीन थे। फलतः उन्‍हें पता ही नहीं लगा कि क्‍या हो रहा है? एक साल पूरा होने को जब आया तो घोड़ा को लौटते न देखकर सगर चिन्‍तित हो उठे। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े।

सारा भूमण्डल छान मारा फिर भी अश्वमेध का अश्व नहीं मिला। फिर राजा सगर के सुमति से उत्पन्न साठ हजार पुत्र अश्व को खोजते-खोजते जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे तो वहाँ उन्होंने देखा कि सांख्‍य दर्शन के प्रणेता और भगवान् के अंशावतार साक्षात भगवान महर्षि कपिल के रूप में तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। कपिल के आश्रम में कपिला गाय कामधेनु थी, जो मनचाही वस्‍तु प्रदान कर सकती थी। यज्ञ के अश्व को वहीँ पर बंधा और चरता हुआ देख सगर के पुत्र उन्हें देखकर चोर-चोर शब्द कर तिरस्कृत, अपमानित और शोर –गुल करने लगे। इससे महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्योंही महर्षि ने अपने नेत्र खोले त्योंही सुमति के साठ हजार पुत्र सब जलकर भस्म हो गए।

यज्ञाश्व के नहीं मिलने से चिन्तित राजा सगर की आज्ञा से उनका पौत्र अंशुमान घोड़ा ढूँढ़ने निकला और खोजते हुए प्रदेश के किनारे चलकर कपिल मुनि के आश्रम में साठ हजार प्रजाजनों की भस्‍म के पास यज्ञ के घोड़े को देखा। अपने पितृव्य चरणों को खोजता हुआ राजा सगर का पौत्र अंशुमान जब मुनि के आश्रम में पहुँचे तो अंशुमान को  महात्मा गरुड़ ने उनके पूर्वजों के भस्म होने का सारा वृतान्त कह सुनाया। गरुड़ ने यह भी बताया कि यदि इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना।इस पर अंशुमान ने महर्षि कपिल की स्तुति और प्रार्थना की । अंशुमान की स्‍तुति से कपिल मुनि ने वह यज्ञ-पशु उसे दे दिया, जिससे सगर के यज्ञ की शेष क्रिया पूर्ण हुई। कपिल मुनि ने कहा, स्‍वर्ग की गंगा जब यहॉं आएगी तब भस्‍म हुए साठ हजार तुम्हारे पूर्वजों को मुक्ति मिलेगी । अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमण्डप पर पहुँचकर सगर से सब वृतांत कह सुनाया।

महर्षि कपिल की आज्ञानुसार अंशुमान ने स्‍वर्ग की गंगा को भारतभूमि में लाने की कामना से घोर तपस्‍या की। उनका और उनके पुत्र दिलीप का संपूर्ण जीवन इसमें लग गया, परन्तु उन्हें इस कार्य में सफलता न मिली। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन पर्यन्त तपस्या करके भी गंगा को मृत्युलोक में लाने में सफल न हो सके। सगर के वंश में अनेक राजा हुए सभी ने अपने साठ हज़ार पूर्वजों की भस्मी-पहाड़ को गंगा के प्रवाह के द्वारा पवित्र करने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु इस कार्य में वे सफल न हुए।  तत्पश्चात दिलीप के पुत्र भगीरथ ने यह बीड़ा उठाया और गंगा को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की । तपस्या करते-करते कई वर्ष व्यतीत हो जाने पर उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने वरदान माँगने को कहा तो भागीरथ ने अपने पूर्वजों और पृथ्वीलोक के कल्याण हेतु गंगा  की माँग की। वरदान में भागीरथ के गंगा माँगने पर ब्रह्मा ने कहा- राजन! तुम गंगा को पृथ्वी पर तो ले जाना चाहते हो , परन्तु स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरते समय गंगा के वेग को सम्भालेगा कौन? क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी?' ब्रह्मा ने आगे यह भी कहा कि भूलोक में गंगा का भार एवं वेग संभालने की शक्ति केवल भगवान शिव में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग को सम्भालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए। महाराज भागीरथ ने वैसा ही किया और एक अंगूठे के बल पर खड़ा होकर भगवान शिव की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटा में सम्भालने के लिए हामी भर दी । तब ब्रह्मा ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएँ बांध लीं। गंगा देवलोक से छोड़ी गईं और शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं शंकर की जटाओं को भेदकर रसातल में चली जाऊंगी। पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगा शंकर जी की जटाओं में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन उसे निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला। अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिन्ता  हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया। अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिव की जटाओं से छूटकर गंगा हिमालय में ब्रह्मा के द्वारा निर्मित बिन्दुसर सरोवर में गिरी, उसी समय इनकी सात धाराएँ हो गईं। आगे-आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल रही थी।

पृथ्वी पर गंगा के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से गंगा जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषिराज जहु का आश्रम तथा तपस्या स्थल पड़ता था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगा को पी गए। फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया। तभी से गंगा जाह्नवी कहलाईं। इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्मा ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हज़ार पुत्रों के अमर होने का वरदान दिया। साथ ही यह भी कहा कि तुम्हारे ही नाम पर गंगा का नाम भगीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर अपना राज-काज संभालो । ऐसा कहकर ब्रह्मा अन्तर्ध्यान हो गए। इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। भगीरथ लम्बी अवधी तक पुत्र लाभ प्राप्त कर तथा सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन कर गए। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं वरन मुक्ति भी देती है ।

पुरातन ग्रंथों के अनुसार भारतवर्ष के उत्तर में खडा यह हिमालय पर्वत (कैलाश) शिव का निवास है, और शिव के फैले हुए जटाजूट उसकी पर्वत-श्रेणियॉं हैं। त्रिविष्‍टप ( आधुनिक तिब्‍बत) को प्राचीन काल में स्‍वर्ग, अपवर्ग आदि नामों से पुकारा जाता था । उनके बीच स्थित है मानसरोवर झील, जिसकी यात्रा महाभारत काल में पाण्डवों ने सशरीर स्‍वर्गारोहण के लिए की थी । इस झील से प्रत्‍यक्ष तीन नदियॉं निकलती हैं। ब्रह्मपुत्र पूर्व की ओर बहती है, सिन्धु उत्‍तर-पश्चिम और सतलुज (शतद्रु) दक्षिण-पश्चिम की ओर। गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के कार्य में अर्थात गंगावतरण के द्वारा यह स्‍वर्ग का जल उत्‍तराखण्ड की प्‍यासी धरती को देने का , पहुँचाने की तकनीकी का आभियान्त्रिक अर्थात इंजीनियरिंग के सफलीभूत प्रयोग का अभूतपूर्व कमाल होना था । इसके लिए पूर्व की अलकनन्दा की घाटी अपर्याप्‍त थी। परन्तु राजा सगर के वंशजों द्वारा लम्बी अवधि तक धैर्यपूर्वक किया गया यह साहसिक कार्य अंशुमान के पौत्र भगीरथ के समय में पूर्ण हुआ, जब हिमालय के गर्भ से होता हुआ मानसरोवर अर्थात स्‍वर्ग का जल गोमुख से फूट निकला। गंगोत्री के प्रपात द्वारा भागीरथी एक गहरे खड्ड में बहती है, जिसके दोनों ओर सीधी दीवार सरीखी चट्टानें खड़ी हैं। किम्बदन्ती के अनुसार गंगा का वेग शिव की जटाजूट ने सँभाला। गंगा उसमें खो गई, उसका प्रवाह कम हो गया। जब वहॉं से समतल भूमि पर निकली तो भगीरथ आगे-आगे चले। गंगा उनके दिखाए मार्ग से उनके पीछे-पीछे चलीं। आज भी गंगा को प्रयाग तक देखने से उसके तट पर कोई बड़े कगार नहीं मिलते । मानो यह मनुष्‍य निर्मित नगर हो । ऐसा उसका मार्ग यम की पुत्री यमुना की नील, गहरे कगारों के बीच बहती धारा से वैषम्‍य उपस्थित करता है। प्रयाग में यमुना से मिलकर गंगा की धारा अंत में गंगासागर, जिसे महोदधि भी कहा जाता है, में मिल गई। राजा सगर का स्‍वप्‍न साकार हुआ। उनके द्वारा खुदवाया गया सागर भर गया और उत्‍तरी भारतवर्ष में पुन: प्रसन्नता छा गई ।गौर से देखने से ऐसा परिलक्षित होता है कि आज का भारतवर्ष और भारतीयों की प्रसन्नता सचमुच गंगा की ही देन है। मनुष्यों को मुक्ति देने वाली अतुलनीय गंगा नदी का पृथ्वी पर अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ था ।संसार की सर्वाधिक पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने अर्थात अवतरित होने का पर्व गंगा दशहरा है । वैसे तो प्रतिदिन ही पापमोचनी, स्वर्ग की नसैनी गंगा का स्नान एवं पूजन पुण्यदायक है और प्रत्येक अमावस्या एवं अन्य पर्वों पर भक्तगण दूर-दूर से आकर गंगा में स्नान-ध्यान, नाम-जप-स्मरण कर मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं , परन्तु गंगा दशहरा के दिन गंगा में स्नान-ध्यान, दान, तप, व्रतादि की अत्यंत महिमा पुराणिक ग्रन्थों में गायी गई है ।

-अशोक “प्रवृद्ध”
गुमला
झारखण्ड

सन्दर्भ ग्रन्थ – वाल्मिकीय रामायण , भविष्य पुराण , स्कन्द पुराण , श्रीमद्भागवत पुराण, वराह पुराण आदि ।
लिंक- http://www.liveaaryaavart.com/2015/05/ganga-dushehra.html

गंगा दशहरा अर्थात गंगावतरण की पौराणिक कथा- अशोक "प्रवृद्ध"

वेब समाचार न्यूज एण्ड व्यूज पोर्टल Indian Hindi News Portal -आर्यावर्त्त में दिनांक- २८ मई २०१५ को गंगा दशहरा के अवसर पर प्रकशित कथा - गंगा दशहरा अर्थात गंगावतरण की पौराणिक कथा- अशोक "प्रवृद्ध"

विशेष : गंगा दशहरा अर्थात गंगावतरण की पौराणिक कथा- अशोक "प्रवृद्ध"
Edited By Rajneesh K Jha on गुरुवार, 28 मई 2015
भारतवर्ष के पौराणिक राजवंशों में सबसे प्रसिद्ध राजवंश इक्ष्‍वाकु कुल है। इस कुल की अट्ठाईसवीं पीढ़ी में राजा हरिश्‍चन्द्र हुए, जिन्‍होंने सत्‍य की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया । इसी कुल की छत्‍तीसवीं पीढ़ी में अयोध्या में सगर नामक महाप्रतापी , दयालु, धर्मात्‍मा और प्रजा हितैषी राजा हुए। गर अर्थात विष के साथ पैदा होने के कारण वह सगर कहलाए। सगर का शाब्दिक अर्थ होता है विष के साथ जल। हैहय वंश के कालजंघ ने सगर के पिता वाहु को एक संग्राम में पराजित कर दिया था। राज्‍य से हाथ धो चुके वाहु अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गए। इसी समय वाहु के किसी दुश्‍मन ने उनकी पत्‍नी को विष खिला दिया। जब उन्‍हें जहर दिया गया उस समय वह गर्भवती थी। ऋषि और्व को जब यह पता चला तो उन्‍होंने अपने प्रयास से वाहु की पत्‍नी को विषमुक्‍त कर उसकी जान बचा ली। इस प्रकार भ्रूण की रक्षा हुई और समय पर सगर का जन्‍म हुंआ। विष को गरल कहते हैं। चूकिं बालक का जन्म गरल के साथ हुआ था इस लिए वह स+गर= सगर कहलाया। सगर के पिता वाहु का और्व ऋषि के आश्रम में ही निधन हो गया। सगर बड़े होकर काफी बलशाली और पराक्रमी हुए। उन्‍होंने अपने पिता का खोया हुआ राज्‍य वापस अपने बल और पराक्रम से जीता। इस प्रकार सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता की हार का बदला लिया। सातों समुद्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया और सगर चक्रवर्ती सम्राट बने। अपने गुरूदेव और्व की आज्ञा मानकर उन्‍होंने तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जाति के लोगों का वध न कर उन्‍हें विरूप बना दिया। कुछ के सिर मुँड़वा दिए, कुछ की मूँछ या दाढ़ी रखवा दी। कुछ को खुले बालों वाला रखा तो कुछ का आधा सिर मुँड़वा दिया। किसी को वस्‍त्र ओढ़ने की अनुमति दी, पहनने की नहीं और कुछ को केवल लँगोटी पहनने को कहा। संसार के अनेक देशों में इस प्रकार की परम्परा प्राचीन काल में प्रचलित थी । कहीं-कहीं इनकी झलक आज भी दिखती है। भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा गंगावतरण, जिसके द्वारा भारतवर्ष की धरती पवित्र हुई, इन राजा सगर से सम्बन्धित है।

ऋषि अग्नि और्व हैहयों के परम्परागतगत शत्रु थे। उन्‍होंने भी सगर को हैहयों के विरूद्ध संग्राम में हर प्रकार की सहायता प्रदान की। सगर की दो पत्‍नियां थी वैदर्भी और शैव्या। कुछ पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार उनकी पत्नियों का नाम केशिनी तथा सुमति है ।राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा।

वैदभी (केशिनी) के गर्भ से मात्र एक पुत्र था उसका नाम था असमंज। वह बड़ा ही दुष्‍ट और प्रजा को दुख पहुँचाने वाला था । जबकि सगर अत्यन्त ही धार्मिक सहिष्‍णु और उदार व्यक्तित्व के स्वामी थे। सगर के लिए असमंज का व्‍यवहार बड़ा ही कष्ट देने वाला साबित हो रहा था। जब उसकी आदतें नहीं सुधरी तो सगर ने असमंज को त्‍याग दिया। असमंज के औरस से अंशुमान का जन्‍म हुआ। वह बहुत ही पराक्रमी था। अंशुमान ने अश्‍वमेघ और राजसूय यज्ञ सम्‍पन्‍न कराया और राजर्षि की उपाधि प्राप्‍त की। शैव्‍या (सुमति) के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। सभी काफी वीर और पराक्रमी थे। उनके ही बल पर सगर ने मध्‍यभारत में एक विशाल साम्राज्‍य की स्‍थापना की ।

सगर न सिर्फ बाहुबली और पराक्रमी थे, बल्कि धार्मिक प्रकृति के व्‍यक्ति भी थे। वे ऋषियों महर्षियों का काफी आदर सत्‍कार और सम्‍मान किया करते थे। वशिष्‍ठ मुनि ने सगर को सलाह दी की अश्‍वमेघ यज्ञ का अनुष्‍ठान करें ताकि उनके साम्राज्‍य का विस्तार हो। पौराणिक मान्यतानुसार प्राचीन काल में किए जाने वाले यज्ञानुष्‍ठानों में अश्‍वमेघ यज्ञ और राजसूय यज्ञ सर्वश्रेष्‍ठ यज्ञ माने जाते थे। उन दिनों बड़े व प्रतापी और पराक्रमी सम्राट ही अश्‍वमेघ यज्ञ का आयोजन किया करते थे। इस यज्ञ में निन्यान्ब्बे यज्ञ सम्‍पन्‍न होने पर एक बहुत अच्‍छे गुणों वाले घोड़े पर जयपत्र बाँध कर राजा सगर ने छोड़ दिया । उस पत्र पर लिखा था कि घोड़ा जिस जगह से गुजरेगा वह राज्‍य यज्ञ करने वाले राजा सगर के अधीन माना जाएगा। जो राजा या जगह स्‍वामी अधीनता स्‍वीकार नहीं करना चाहते , वे उस घोड़े को रोक कर युद्ध हेतु तैयार रहें । घोड़े के साथ हजारों सैनिक साथ-साथ चल रहे थे। एक वर्ष पूरा होने पर उस घोड़ा वापस लौट आना था। इसके बाद ही यज्ञ की पूर्णाहुति सम्भव थी। महाराजा सगर ने अपने यज्ञ के घोड़े श्यामकर्ण की सुरक्षा के लिए हजारो सैनिकों की व्‍यवस्‍था की थी। वीर बाहुबलि सैनिक घोडे़ के साथ निकले, और आगे बढ़ते रहे। सगर का प्रताप चतुर्दिक फैल रहा था। जगह जगह उनके बल-पराक्रम और शौर्य की चर्चा होने लगी। इससे देवाधिपति देवराज इन्‍द्र को शंका हुई। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर इन्‍द्र यह सोचने लगे कि अगर यह अश्‍वमेघ यज्ञ सफल हो गया तो यज्ञ करने वाले को स्‍वर्गलोक का राजपाट मिल जाएगा। इन्‍द्र ने यज्ञ के घोड़े को अपने मायाजाल के बल पर चुरा लिया। इतना ही नहीं उन्‍होंने इस घोड़े को पाताललोक में तपस्‍यारत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। उस समय मुनि गहन साधना में लीन थे। फलतः उन्‍हें पता ही नहीं लगा कि क्‍या हो रहा है? एक साल पूरा होने को जब आया तो घोड़ा को लौटते न देखकर सगर चिन्‍तित हो उठे। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े।

सारा भूमण्डल छान मारा फिर भी अश्वमेध का अश्व नहीं मिला। फिर राजा सगर के सुमति से उत्पन्न साठ हजार पुत्र अश्व को खोजते-खोजते जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे तो वहाँ उन्होंने देखा कि सांख्‍य दर्शन के प्रणेता और भगवान् के अंशावतार साक्षात भगवान महर्षि कपिल के रूप में तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। कपिल के आश्रम में कपिला गाय कामधेनु थी, जो मनचाही वस्‍तु प्रदान कर सकती थी। यज्ञ के अश्व को वहीँ पर बंधा और चरता हुआ देख सगर के पुत्र उन्हें देखकर चोर-चोर शब्द कर तिरस्कृत, अपमानित और शोर –गुल करने लगे। इससे महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्योंही महर्षि ने अपने नेत्र खोले त्योंही सुमति के साठ हजार पुत्र सब जलकर भस्म हो गए।

यज्ञाश्व के नहीं मिलने से चिन्तित राजा सगर की आज्ञा से उनका पौत्र अंशुमान घोड़ा ढूँढ़ने निकला और खोजते हुए प्रदेश के किनारे चलकर कपिल मुनि के आश्रम में साठ हजार प्रजाजनों की भस्‍म के पास यज्ञ के घोड़े को देखा। अपने पितृव्य चरणों को खोजता हुआ राजा सगर का पौत्र अंशुमान जब मुनि के आश्रम में पहुँचे तो अंशुमान को  महात्मा गरुड़ ने उनके पूर्वजों के भस्म होने का सारा वृतान्त कह सुनाया। गरुड़ ने यह भी बताया कि यदि इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना।इस पर अंशुमान ने महर्षि कपिल की स्तुति और प्रार्थना की । अंशुमान की स्‍तुति से कपिल मुनि ने वह यज्ञ-पशु उसे दे दिया, जिससे सगर के यज्ञ की शेष क्रिया पूर्ण हुई। कपिल मुनि ने कहा, स्‍वर्ग की गंगा जब यहॉं आएगी तब भस्‍म हुए साठ हजार तुम्हारे पूर्वजों को मुक्ति मिलेगी । अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमण्डप पर पहुँचकर सगर से सब वृतांत कह सुनाया।

महर्षि कपिल की आज्ञानुसार अंशुमान ने स्‍वर्ग की गंगा को भारतभूमि में लाने की कामना से घोर तपस्‍या की। उनका और उनके पुत्र दिलीप का संपूर्ण जीवन इसमें लग गया, परन्तु उन्हें इस कार्य में सफलता न मिली। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन पर्यन्त तपस्या करके भी गंगा को मृत्युलोक में लाने में सफल न हो सके। सगर के वंश में अनेक राजा हुए सभी ने अपने साठ हज़ार पूर्वजों की भस्मी-पहाड़ को गंगा के प्रवाह के द्वारा पवित्र करने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु इस कार्य में वे सफल न हुए।  तत्पश्चात दिलीप के पुत्र भगीरथ ने यह बीड़ा उठाया और गंगा को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की । तपस्या करते-करते कई वर्ष व्यतीत हो जाने पर उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने वरदान माँगने को कहा तो भागीरथ ने अपने पूर्वजों और पृथ्वीलोक के कल्याण हेतु गंगा  की माँग की। वरदान में भागीरथ के गंगा माँगने पर ब्रह्मा ने कहा- राजन! तुम गंगा को पृथ्वी पर तो ले जाना चाहते हो , परन्तु स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरते समय गंगा के वेग को सम्भालेगा कौन? क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी?' ब्रह्मा ने आगे यह भी कहा कि भूलोक में गंगा का भार एवं वेग संभालने की शक्ति केवल भगवान शिव में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग को सम्भालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए। महाराज भागीरथ ने वैसा ही किया और एक अंगूठे के बल पर खड़ा होकर भगवान शिव की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटा में सम्भालने के लिए हामी भर दी । तब ब्रह्मा ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएँ बांध लीं। गंगा देवलोक से छोड़ी गईं और शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं शंकर की जटाओं को भेदकर रसातल में चली जाऊंगी। पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगा शंकर जी की जटाओं में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन उसे निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला। अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिन्ता  हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया। अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिव की जटाओं से छूटकर गंगा हिमालय में ब्रह्मा के द्वारा निर्मित बिन्दुसर सरोवर में गिरी, उसी समय इनकी सात धाराएँ हो गईं। आगे-आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल रही थी।

पृथ्वी पर गंगा के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से गंगा जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषिराज जहु का आश्रम तथा तपस्या स्थल पड़ता था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगा को पी गए। फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया। तभी से गंगा जाह्नवी कहलाईं। इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्मा ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हज़ार पुत्रों के अमर होने का वरदान दिया। साथ ही यह भी कहा कि तुम्हारे ही नाम पर गंगा का नाम भगीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर अपना राज-काज संभालो । ऐसा कहकर ब्रह्मा अन्तर्ध्यान हो गए। इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। भगीरथ लम्बी अवधी तक पुत्र लाभ प्राप्त कर तथा सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन कर गए। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं वरन मुक्ति भी देती है ।

पुरातन ग्रंथों के अनुसार भारतवर्ष के उत्तर में खडा यह हिमालय पर्वत (कैलाश) शिव का निवास है, और शिव के फैले हुए जटाजूट उसकी पर्वत-श्रेणियॉं हैं। त्रिविष्‍टप ( आधुनिक तिब्‍बत) को प्राचीन काल में स्‍वर्ग, अपवर्ग आदि नामों से पुकारा जाता था । उनके बीच स्थित है मानसरोवर झील, जिसकी यात्रा महाभारत काल में पाण्डवों ने सशरीर स्‍वर्गारोहण के लिए की थी । इस झील से प्रत्‍यक्ष तीन नदियॉं निकलती हैं। ब्रह्मपुत्र पूर्व की ओर बहती है, सिन्धु उत्‍तर-पश्चिम और सतलुज (शतद्रु) दक्षिण-पश्चिम की ओर। गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के कार्य में अर्थात गंगावतरण के द्वारा यह स्‍वर्ग का जल उत्‍तराखण्ड की प्‍यासी धरती को देने का , पहुँचाने की तकनीकी का आभियान्त्रिक अर्थात इंजीनियरिंग के सफलीभूत प्रयोग का अभूतपूर्व कमाल होना था । इसके लिए पूर्व की अलकनन्दा की घाटी अपर्याप्‍त थी। परन्तु राजा सगर के वंशजों द्वारा लम्बी अवधि तक धैर्यपूर्वक किया गया यह साहसिक कार्य अंशुमान के पौत्र भगीरथ के समय में पूर्ण हुआ, जब हिमालय के गर्भ से होता हुआ मानसरोवर अर्थात स्‍वर्ग का जल गोमुख से फूट निकला। गंगोत्री के प्रपात द्वारा भागीरथी एक गहरे खड्ड में बहती है, जिसके दोनों ओर सीधी दीवार सरीखी चट्टानें खड़ी हैं। किम्बदन्ती के अनुसार गंगा का वेग शिव की जटाजूट ने सँभाला। गंगा उसमें खो गई, उसका प्रवाह कम हो गया। जब वहॉं से समतल भूमि पर निकली तो भगीरथ आगे-आगे चले। गंगा उनके दिखाए मार्ग से उनके पीछे-पीछे चलीं। आज भी गंगा को प्रयाग तक देखने से उसके तट पर कोई बड़े कगार नहीं मिलते । मानो यह मनुष्‍य निर्मित नगर हो । ऐसा उसका मार्ग यम की पुत्री यमुना की नील, गहरे कगारों के बीच बहती धारा से वैषम्‍य उपस्थित करता है। प्रयाग में यमुना से मिलकर गंगा की धारा अंत में गंगासागर, जिसे महोदधि भी कहा जाता है, में मिल गई। राजा सगर का स्‍वप्‍न साकार हुआ। उनके द्वारा खुदवाया गया सागर भर गया और उत्‍तरी भारतवर्ष में पुन: प्रसन्नता छा गई ।गौर से देखने से ऐसा परिलक्षित होता है कि आज का भारतवर्ष और भारतीयों की प्रसन्नता सचमुच गंगा की ही देन है। मनुष्यों को मुक्ति देने वाली अतुलनीय गंगा नदी का पृथ्वी पर अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ था ।संसार की सर्वाधिक पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने अर्थात अवतरित होने का पर्व गंगा दशहरा है । वैसे तो प्रतिदिन ही पापमोचनी, स्वर्ग की नसैनी गंगा का स्नान एवं पूजन पुण्यदायक है और प्रत्येक अमावस्या एवं अन्य पर्वों पर भक्तगण दूर-दूर से आकर गंगा में स्नान-ध्यान, नाम-जप-स्मरण कर मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं , परन्तु गंगा दशहरा के दिन गंगा में स्नान-ध्यान, दान, तप, व्रतादि की अत्यंत महिमा पुराणिक ग्रन्थों में गायी गई है ।

-अशोक “प्रवृद्ध”
गुमला
झारखण्ड

सन्दर्भ ग्रन्थ – वाल्मिकीय रामायण , भविष्य पुराण , स्कन्द पुराण , श्रीमद्भावत पुराण, वराह पुराण आदि ।
लिंक- http://www.liveaaryaavart.com/2015/05/ganga-dushehra.html

Tuesday, May 26, 2015

मुफ्तखोर बना रहीं खैराती योजनायें -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - २६/५/२०१५ को प्रकाशित लेख - मुफ्तखोर  बना रहीं खैराती योजनायें -अशोक “प्रवृद्ध”

राष्ट्रीय खबर दिनांक - २६/५/२०१५ 
 मुफ्तखोर  बना रहीं खैराती योजनायें 
-अशोक “प्रवृद्ध”
विभाजन के पश्चात् हमारे देश भारतवर्ष में अधिकाँश समय तक केन्द्र की सत्ता में सत्तासीन रहने वाली कांग्रेस सहित उसकी सभी धर्मनिरपेक्ष सहयोगी राजनैतिक पार्टियां , और अब केन्द्र में तथा राज्यों में कुछ हद तक भारतीय जनता पार्टी भी अपनी वोट बैंक बनाने के उद्देश्य से आम जनता को भान्ति-भान्ति के अनुदान आधारित योजनाएं अर्थात सब्सिडी वाली खैराती योजनाएं चलाकर लुभाने का प्रयत्न करने में लगी रहती हैं । अगर इसी प्रकार वोट बैंक की लालच में राजनीतिक पार्टियाँ अनुदान वाली योजनाओं को चलाती रहीं तो इनकी लोक-लुभावन नीतियाँ भारतवर्ष को महा शक्तिनही वरण मुफ्तखोरों का देश बना कर रख देंगी जहाँ भारतवर्ष का आम आदमी जानवरों की तरह खायेंगे -पियेंगे, बच्चे पैदा करेंगे और फिर मर जायेंगे । केन्द्र व राज्यों की सरकार को चलाने में और बनाए रखने की लालच में इस्तेमाल की जा रही इस प्रकार की अदूरदर्शितापूर्ण नीतियों से यह देश एक बहुत बडा अराजक गाँव बन कर रह गया है अथवा बन कर रह जायेगा । तो यह है मित्रों इन विदेशी मानसिकता वाली कांग्रेस और उसकी छद्म धर्मनिरपेक्ष सहयोगी पार्टियों की अदूरदर्शी नीति। दिल्ली उपराज्य में उनचास दिनों तक और पुनः अब अनुदान वाली योजनाओं के नाम पर आम आदमी पार्टी के द्वारा कृत कार्य - कलापों से मचे आतंक , अव्यवस्था , उद्धम और उपजी अराजकता से इस सत्य का आभाष हो जाता है कि अनुदान आधारित खैराती योजनाएं देश में क्या अराजक स्थिति उत्पन्न कर रही हैं अथवा कर सकती है ? केन्द्र की सत्ता से बड़ी बेआबरू होकर सत्ताच्युत हुई कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियाँ अभी भी यही करने में लगी हुई हैं और बहुसख्यक हित में किये जा रहे मोदी सरकार के सभी कार्यों ,योजनाओं और नीतियों को आँख मूंदकर विरोध करने और भारतीय जनता को बरगलाने में लगी हुई हैं ।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि सिर्फ खाना - पीना और सुरक्षा के साथ आराम करना, बच्चे पैदा करना और मर जाना तो जानवर भी करते हैं परन्तु उन का कोई देश या इतिहास नहीं होता। उसी प्रकार जो मनुष्य शारीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता। विभाजन के पश्चात् भारतवर्ष में प्रजातांत्रिक प्रणाली आधारित राज्य व्यवस्था कायम है यहाँ सभी नागरिकों के मत समान माने जाते हैं अर्थात सभी देशवासियों के मत एकसमान महत्व के हैं । इसका अर्थ है कि देश के राष्ट्रपति के मत (वोट) का जो महत्व है , वही महत्व राष्ट्रपति के घर में चौका - बासन करने वाली या फिर झाड़ू करने वाली के मत का भी है ( माना जाता है ) । यह सभी जानते हैं कि कोई भी देश केवल आम आदमियों के बल पर महा शक्ति नहीं बन सकता , उसके लिए आम आदमियों के बीच भी खास आदमियों, विशिष्ठ प्रतिभाओं वाले नेताओं की आवश्यकता होती है।
सता की लालच में फंसी कांग्रेस , उसकी छद्म धर्मनिरपेक्ष सहयोगी पार्टियाँ तथा आम आदमी पार्टी व कुछ हद तक भाजपा के नेता यह नहीं जानते कि हमारे पूर्वजों ने मुफ्त खोरी के साथ जीने की प्रवृति को स्पष्टतः मना किया है , इनकार किया है , नकारा है और पुरुषार्थ के साथ ही कुछ पाने पर बल दिया है। पुरातन भारतीय ग्रंथों में श्रम की अनिवार्यता पर बल दिया गया है और समाज अर्थात मनुष्य के सभी चारों ही आश्रमों में श्रम करने की नितांत आवश्यकता व महता पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व जब पश्चिम के अमेरिका तथा यूरोप आदि विकसित देशों में जब मानव का नामोनिशान भी कहीं नहीं था तब संसार के सर्वप्रथम कानून (विधान) के ग्रन्थ अर्थात संहिता - मनुसंहिता के रचनाकार ऋषि मनु ने अपने विधान मनुस्मृति 7- 137-138 मे कहा है -
यत्किंचिदपि वर्षस्य दापयेत्करसंज्ञितम्।
व्यवहारेण जीवंन्तं राजा राष्ट्रे पृथग्जनम्।।
कारुकाञ्छिल्पिनश्चैव शूद्रांश्चात्मोपजीविनः।
एकैकं कारयेत्कर्म मसि मसि महीपतिः ।। - मनु स्मृति 7- 137-138
अर्थात -राजा (सभी तरह के प्रशासक) अपने राज्य में छोटे व्यापार से जीने वाले व्यपारियों से भी कुछ न कुछ वार्षिक कर लिया करे। कारीगरी का काम कर के जीने वाले, लोहार, बेलदार, और बोझा ढोने वाले मज़दूरों से कर स्वरुप महीने में एक दिन का काम ले।
नोच्छिन्द्यात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णाया।
उच्छिन्दव्ह्यात्मनो मूलमात्मानं तांश्च पीडयेत्।।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात्कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः ।। - मनु स्मृति 7- 139-140
अर्थात - (प्रशासन) कर न ले कर अपने मूल का उच्छेद न करे और अधिक लोभ वश प्रजा का मूलोच्छेदन भी न करे क्यों कि मूलोच्छेद से अपने को और प्रजा को पीड़ा होती है। कार्य को देख कर कोमल और कठोर होना चाहिये। समयानुसार राजा( प्रशासन) का कोमल और कठोर होना सभी को अच्छा लगता है।
अत्यन्त प्राचीन काल में लिखे गये मनुसमृति के ये श्लोक आज भी अत्यन्त ही प्रासंगिक हैं और आजकल के उन नेताओं के लिये भी अत्यन्त महत्वपूर्ण व महत्वशाली शिक्षा हैं जो चुनावों से पहले खास मजहब के लिए शिक्षण व चिकित्सीय संसथान , हज सब्सिडी , लैपटॉप, मुफ्त बिजली-पानी, और तरह तरह के लोक लुभावन वादे करते हैं और स्वार्थवश बिना सोचे समझे देश के बजट का संतुलन बिगाड देते हैं। अगर उन्हें जनता की बुनियादी जरुरियातों , आवश्यकताओं का अहसास है तो सत्ता समभालने के समय से ही जरूरी वस्तुओं का उत्पादन बढायें, वितरण प्रणाली सें सुधार करें, उन वस्तुओं पर सरकारी टैक्स कम करें न कि उन वस्तुओं को फोकट में बाँट कर, जनता को रिश्वत के बहाने अपने लिये वोट संचय करना शुरु कर दें। अगर लोगों को सभी कुछ मुफ्त पाने की लत पड जायेगी तो फिर काम करने और कर देने के लिये कोई भी व्यक्ति तैयार नहीं होगा।
सिवाय भारतवर्ष के आजकल पानी और बिजली जैसी सुविधायें संसार मे कहीं भी मुफ्त नहीं मिलतीं। उन्हें पैदा करने, संचित करने और फिर दूरदराज तक पहुँचाने में, उन का लेखा-जोखा रखने में काफी खर्चा होता है। अगर सभी सुविधायें मुफ्त में देनी शुरू हो जायेंगी तो एक तरफ तो उन की खपत बढ जाये गीऔर दूसरी तरफ सरकार पर बोझ निरंकुशता के साथ बढने लगेगा। क्या जरूरी नहीं कि इस विषय पर विचार किया जाये और सरकारी तंत्र की इस सार्वजनिक लूट पर अंकुश लगाया जाये। अगर ऐसा नहीं किया गया तो फोकट मार लोग देश को दीमक की तरह खोखला करते रहेंगे और एक दिन चाट जायेंगे।
आरक्षण और सबसिडी आदि दे कर अर्थात खैरात बांटकर चुनाव तो जीता जा सकता है, परन्तु वह समस्या का समाधान नहीं है। इस प्रकार की बातें समस्याओं को और जटिल कर देंगी। इमानदार और मेहनत से धन कमाने वालों को ही इस तरह का बोझा उठाना पडेगा जो कभी कम नहीं होगा और बढता ही जायेगा।

Thursday, May 14, 2015

असली परीक्षा तो होगी कृषि क्षेत्र में -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर क सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- १४/५/२०१५  को प्रकाशित लेख - असली परीक्षा तो होगी कृषि क्षेत्र में-अशोक "प्रवृद्ध"
राष्ट्रीय खबर , दिनांक- १४/५/२०१५ 

 असली परीक्षा तो होगी कृषि क्षेत्र में
-अशोक “प्रवृद्ध”

भारतीय मौसम परम्परानुसार वसन्त के आनन्द, उल्लास और ग्रीष्म की मस्ती भरी धूप के पश्चात जून के अन्तिम सप्ताह अथवा जुलाई के प्रथम सप्ताह तक भारतवर्ष के कृषि प्रधान क्षेत्र में हाल के वर्षों तक वर्षा होने लगती थी और खरीफ की बुआई प्रारम्भ हो जाती थी। इसके बाद नवम्बर एवं दिसम्बर की बारिश से रबी की फसल का कार्यारम्भ हो जाता था । परन्तु अब वसन्त ऋतु में ही ज्येष्ठ मास के समान गर्मी की तपिश तन और मन दोनों को ही अकुलाने लगी है और बैशाख व ज्येष्ठ मास में पड़ने वाली गर्मी की तकलीफदेह बेचैनी की क्या स्थिति होती है यह सब जानते ही हैं? प्रकृति की परिवर्तित होती स्वरुप में भारतवर्ष सहित सम्पूर्ण एशियाई देशों और संसार के कई अन्य क्षेत्रों की यही स्थिति बनती जा रही है । भारतीय समाजशास्त्र के अनुसार वसन्त ऋतु पश्चात काल में मौसम व पर्यावरण की स्थिति न तो अधिक ठण्डा और न ही अधिक गर्म वाली अर्थात सामान्य स्थिति में होना चाहिए , जिससे तन व मन दोनों को आनन्द , उल्लास और प्रसन्नता से प्रफ्फुल्लित होना चाहिए । परन्तु विगत कुछ वर्षों से जल, जंगल, जमीन, जान, जीव-जन्तु अर्थात समस्त पर्यावरण से मानव की अत्यधिक छेड़-छाड़, अन्धाधुन्ध दोहन और प्रकृति विरोधी कृत्य किए जाने से भारतवर्ष सहित सम्पूर्ण विश्व का पर्यावरण गड़बड़ाने लगा है और गर्मी जल्दी आने , गर्मी में अत्यधिक तपिश व चिपचिपाहट का अनुभव , बेमौसम व असमय वारिश और मनुष्येतर जीव-जन्तुओं यथा, कुते , मैना आदि पशु-पक्षियों में भी असमय प्राकृतिक क्रियाएँ जैसे रतिक्रिया, प्रजनन आदि देखने को मिल रहे हैं । अगर पर्यावरण से साहचर्य व सामंजस्य न बनाकर प्रकृति विरोधी कृत्यों को मानव द्वारा निष्पादित किए जाने की यही गति अनवरत जारी रहती है तो निकट भविष्य में हमारे पर्यावरण की क्या दुर्गति हमें दृष्टिगोचर होगी इसकी सहज कल्पना नहीं की जा सकती है ?उल्लेखनीय है कि वर्तमान वर्ष में वसन्त ऋतु के आगमन के समय से ही रह-रहकर वर्षा होती रही है इसके बाद भी मौसम की यह चिपचिपाती गर्मी लोगों को परेशान कर रही है ।
भारतीय परम्परा के अनुसार हमारे देश में जून-जुलाई में वर्षागमन होने की परम्परा रही है, परन्तु प्रकृति की लीला तो देखिये गत वर्ष का जुलाई-अगस्त महीना सूखा निकला और इस वर्ष के मार्च-अप्रैल महीने में खूब पानी बरसा और फिर अप्रैल के अन्तिम सप्ताह में भारतवर्ष और समीपस्थ देशों में धरती के हिलने से भूमि में हुई कम्पण में हम मानवों द्वारा निर्मित रहवास के टिक नहीं पाने के कारण जान-माल की अपार क्षति हुई । इसे सिर्फ दैवी प्रकोप मानकर हँसी में टालना ठीक नहीं हो सकता । यह संकेत है उस मौसम चक्र में बदलाव का जिसके बूते सम्पूर्ण  भारतवर्ष अपना कृषि उद्योग चलाता रहा है और सुख-चैन से निवास करता रहा है। भारतवर्ष के अधिकांश क्षेत्रों में मार्च-अप्रैल के महीने में भ्रमण के समय मार्ग में गेहूँ की पकी फसल और अन्य फसलों को देखकर ऐसा लगा करता था मानो जमीन पर सड़क के समानान्तर दो फीट की ऊंचाई पर सुनहले रंग की एक और सड़क प्रकृति ने बिछा अर्थात बना दी हो । पूरे यौवन के साथ लहलहाती हुई गेहूँ की ये बालियाँ किसान की समृद्घि और उसके विस्तार का प्रतीक हुआ करती थीं। हरियाणा, पंजाब व पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,बिहार, झारखण्ड सहित भारतवर्ष के अधिकांश भागों में ऐसा ही नजारा अभी पिछले वर्ष तक दिखा करता था। परन्तु इस वर्ष  सब कुछ चौपट हो गया। गेहूँ की वे बालियाँ मुरझा गई हैं, खड़ी हैं तो उनमे दाने नहीं हैं और किसान के माथे पर चिन्ता की लकीरें लम्बी और लम्बी होती जा रही हैं । कुछ कृषकों को तो बरबादी का यह दृश्य अर्थात मंजर देखते ही दिल का दौरा पड़ गया। कुछ ने इस चिन्ता से बचने के लिए आत्महत्या कर ली। उनकी हिम्मत नहीं हुई कि कैसे वे अपनी इस बरबादी के मंजर को देखें? किसान करे भी तो आखिर क्या करे? उसके पास न तो खरीफ का पैसा आया न रबी से ही कुछ उम्मीद बची। फसल क्षति के अनुपात में मुआवजा अत्यन्त अल्प मिलने की सम्भावना के मध्य कर्ज और भविष्य के खर्चे से भयभीत किसान के पास अपने बचाव का कोई साधन नहीं है। आखिर उसका इस साल का पूरा का पूरा चक्र ही गड़बड़ा जो गया।

विगत वर्षों की मौसम का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भारतीय मौसम परम्परा का यह चक्र अब बदलने लगा है ।ऐसी परिस्थिति में कृषि वैज्ञानिकों और मौसम के जानकारों को इस विषय पर विचार करना चाहिए कि मौसम के परिवर्तित होते स्वरुप के साथ फसलों की बुआई और कटाई का चक्र भी बदला जाए।परन्तु खेद की बात है कि हमारे देश में कृषि फसलोपजों के वृद्धि किये जाने के सम्बन्ध में चर्चा और विचार तो होता है लेकिन इस पर कभी विचार नहीं किया जाता कि कैसे परम्परागत खेती की बजाय ऐसी फसलों को विकसित किया जाए जिससे प्राकृतिक आपदा से फसलों को बचाया जा सके और वांछित फसलोपज भी पाई जा सके । हमारे देश की सरकार और शहरी मध्यवर्ग कृषि को लेकर कभी गम्भीर नहीं हुआ और वह यह मान और सोच कर चलता है कि कृषि पिछड़े हुए समाज की द्योतक है। उनकी इसी सोच का परिणाम है कि कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि वैज्ञानिकों ने आज तक कभी मौसम की मार से फसलों को बचाने का कोई उपाय तक खोजने की आवश्यकता महसूस नहीं की । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रस्तावित कौशल विकास कार्यक्रम को सिर्फ उद्योग तक सीमित कर रख दिया गया है और कभी यह नहीं सोचा गया (जाता) कि ग्रामीण भारतवर्ष के विकास के बिना भारतवर्ष का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं और देश में कौशल विकास की असली परीक्षा तो कृषि क्षेत्र में, ग्रामीण क्षेत्र में ऐसे समग्र विकास से ही होगी। कृषि क्षेत्र व ग्रामीण क्षेत्रों के परम्परागत उद्योगों में भी कौशल विकास विकसित करने के लिए सरकार को विचार करना चाहिए कि इस क्षेत्र में ऐसा कौशल विकसित किया जाए जिससे कि अगर कृषि उद्योग में कौशल विकास की कुशलता को बढ़ावा दिया अर्थात तरजीह दिया जाये तो निश्चित रूप से एक दिन किसान इस बेमौसमी बारिश और प्राकृतिक आपदाओं की मार से बच सकेंगे ।

आखिर यह हमारे देश के लिए कितनी वीभत्स स्थिति है कि फागुन-चैत-बैशाख अर्थात मार्च-अप्रैल की इस बेमौसमी बारिश ने किस प्रकार और कैसे किसानों के चेहरे सुखा दिए हैं? मौसम विज्ञान विभाग प्रत्येक वर्ष मई में एक विज्ञप्ति जारी करता है और देशवासियों को बतलाता है कि इस वर्ष मानसून समय पर आएगा और इस सूचना से किसानों के मुरझाए चेहरे खुशी से भर जाते हैं, परन्तु जैसे-जैसे आषाढ़-सावन अर्थात जुलाई-अगस्त निकलने लगता है और मानसून जब पश्चिमी घाट की पहाडिय़ों पर या सहयाद्रि की चोटियों पर अटका होता है तो तत्काल मौसम विज्ञान विभाग कहता है कि दरअसल पश्चिम विक्षोभ के कारण वर्षा थम गई और अभी मानसून के आने में विलम्ब है । अर्थात मौसम विभाग का सम्पूर्ण कौशल एक तरह से अफवाह तक ही सीमित है। आखिर यह पश्चिमी बाधा अर्थात वेस्टर्न डिस्टर्बेंस से निजात कैसे पाई जाए? इस पर कभी भी न तो केन्द्र व राज्यों में सत्तारूढ़ रही राजनीतिक दलों ने विचार-विर्मश किया और न मौसम विभाग ने और न ही कृषि वैज्ञानिकों ने भारतीय कृषि को मानसून पर निर्भर न रहने का कोई विकल्प तलाशा। आखिर ऐसी फसलें भी तो उगाई जा सकती हैं जो मानसून के ज्यादा आने अथवा कम आने पर निस्पृह, निष्प्रभावित रहें । लेकिन किसानों के हित के इस विषय पर सोचने तक के लिए किसी ने कोशिश नहीं की, क्योंकि राजनेताओं के केन्द्र में तो वैसे बड़े किसान होते हैं जो अपना पैसा कमाने के लिए कृषि को उद्योग बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। पर अगर कभी वे अपने केन्द्र में अपने भरण-पोषण के लिए कृषि को आजीविका बनाने वाले लघु व सीमांत कृषकों को लाकर उनके हितों की अनदेखी न करने अर्थात कृषि कार्य को अपनी आजीविका बनाने वाले किसानों की आजीविका को सुरक्षा प्रदान करने के उपायों के सम्बन्ध में शान्तचित होकर बुद्धिपूर्वक सोचें और तत्सम्बन्धी उपाय करें तो शायद कौशल विकास का ज्यादा गहन परीक्षण सम्भव है ।

वेब समाचार आर्यावर्त में १३ मई २०१५ बुधवार को प्रकाशित - कौशल विकास कार्यक्रम की असली परीक्षा तो होगी कृषि क्षेत्र में -
http://www.liveaaryaavart.com/2015/05/kaushal-vikash-and-modi.html

अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

  अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”   जैसा कि पूर्व से ही अंदेशा था कि पूर्व चुनाव आयुक्त अनू...