Tuesday, March 31, 2015

असीमित नहीं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता -अशोक "प्रवृद्ध"

राँची झारखण्ड से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर  दिनाँक- ३१/ ०३/२०१५ को प्रकाशित लेख - असीमित नहीं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता

असीमित नहीं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता 
-अशोक "प्रवृद्ध"

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक बनने वाले सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम अर्थात्त साइबर कानून 2008 की विवादास्पद धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों में प्रसन्नता,उत्साह और विजेता का भाव प्रदर्शित हो रहा है। यह कानून सोशल नेटवर्किंग साईट, वेबसाइटों पर तथाकथित अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देता था। साइबर कानून अर्थात आईटी ऐक्ट की धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के बाद सोशल मीडिया पर ‌टिप्पथणी करने के मामले में पुलिस अब आनन-फानन गिरफ्तारी नहीं कर सकेगी। सोशल मिडिया में सक्रिय लोगों का कहना है कि साइबर कानून की धारा 66 ए को देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित करना भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था पर जनता के ढहते विश्वास को बचाने और बहाल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण घटना है। अपने फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को और भी संवैधानिक सुदृढता प्रदान करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि साइबर कानून की धारा 66ए संविधधान के अनुच्छेद 19(2) के अनुरूप नहीं है। सोच और आत्माभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधारभूत बताते हुए सर्वोच्च न्ययालय की पीठ ने कहा,  साइबर कानून की धारा 66 ए से लोगों की जानकारी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार स्पष्ट तौर पर प्रभावित होता है।'इसे अस्पष्ट बताते हुए कहा कि किसी एक व्यक्ति के लिए जो बात अपमानजनक हो सकती है, वह दूसरे के लिए नहीं भी हो सकती है।

साइबर कानून की धारा 66 ए के हटने के बाद यद्यपि लोगों की प्रसन्नता सोशल मीडिया में देखी जा रही है और अब पूर्व से लिखने की अधिक स्वतंत्रता भले ही मिल गई है तथापि  इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि आप जो चाहें उल्टा-सीधा लिख सकते हैं और आप पर कोई कार्यवाही नहीं होगी। कारर्वाई होगी अवश्य होगी,  इसलिए अगर आप जोश में आकर कुछ भी लिखने का मन बना रहे हैं तो अभी भी जोखिम को समझते हुए और अन्य कानूनों के दायरे में रहकर ही लिखें। अधिकांश मामलों में तर्क यह दिया जाता है कि हमें इस तरह के कानून की कोई जानकारी नहीं थी लेकिन यह कोई सुरक्षित बचाव नहीं है। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित अर्थात अनलिमिटेड नहीं है, वरन यह कानून और संविधान के दायरे में है। उदाहरणतः साइबर कानून की धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के दूसरे ही दिन चेन्नई की न्यायालय ने कर्नाटक के श्रीनाथ नंबूदरी के द्वारा अपनी एक सहकर्मी को अश्लील और आपत्तिजनक ईमेल भेजे जाने मामले में अब दोष साबित हो जाने पर उसे एक साल जेल में बिताने की सजा सुनायी । सीबी-सीआईडी ने दिसम्बर 2011 में नंबूदरी के खिलाफ कई धाराओं के तहत केस दर्ज किया था। इसमें आईटी ऐक्ट की धारा 66ए भी (आपत्तिजनक और खतरनाक संदेश भेजने) भी शामिल थी। पुलिस के मुताबिक नंबूदरी सिरुसेरी स्थित टीसीएस में बतौर सॉफ्टवेयर इंजिनियर काम करता था, जो अपनी एक सहकर्मी के प्रति आकर्षित हो गया। परन्तु जब उसके सहकर्मी ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो नंबूदरी ने अप्रैल 2011 से उसे कई आपत्तिजनक और अपमानजनक ईमेल भेजने प्रारंभ कर दिए। एक बार जब वह महिला आधिकारिक काम से अमेरिका गई तो नंबूदरी ने उसके बारे में अश्लील कंटेंट कंपनी के हेड को ईमेल कर दिया। नंबूदरी ने फोटोशॉप टूल की मदद से महिला की नग्न तस्वीर उसके भाई को भेज दी। चेन्नई लौटने के बाद महिला ने इस पूरे मामले की शिकायत सीबीसीआईडी की आईटी शाखा में कराई। इसके बाद पुलिस ने नंबूदरी के खिलाफ मामला दर्ज किया। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आईटी ऐक्ट की धारा 66ए को असंवैधानिक बताते हुए इसे रद्द कर दिए जाने के बाद न्यायालय अदालत शायद श्रीनाथ को आरोपमुक्त घोषित करते हुए बरी कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विशेष सरकारी वकील मैरी जयंती ने कहा, 'नंबूदरी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से लगातार उसे परेशान करता रहा। न्यायालय ने आईटी ऐक्ट की धारा 67 (ई माध्यम से किसी आपत्तिजनक कंटेंट को प्रसारित या प्रकाशित करना), 506 (ii) (जान से मारने या चोट पहुंचाने की धमकी), और 509 (महिलाओं के सम्मान को चोट पहुंचाता कोई शब्द कहना या कोई अभद्र इशारा करना) इसके साथ ही तमिलनाडु राज्य महिला उत्पीड़न निषेध अधिनियम 1998, के तहत अपराधी माना।

सर्वोच्च न्यायालय ने 66A को अस्पष्ट बताते हुए इसे रद कर भले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में वृद्धि किया है लेकिन अन्य कानून जैसे एक्ट ऑफ डिफेमेशन, आई पीसी की धारा 499, सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने पर लगने वाली धारा 153 ए, धार्मिक भावनाओं को आहत करने पर लगने वाली धारा 295ए, और सी आर पी सी 95ए, अश्लीलता से संबंधित धारा 292 अभी अपनी जगह मौजूद हैं। कंटेप्ट ऑफ कोर्ट और पार्लियामेंटरी प्रिवेलेज के प्रावधान भी जारी हैं। इसके साथ ही भारतीय संविधान का 19 (1) (1) भी आपकी उलूल जुलूल हरकतों और कलम पर पाबंदी के लिए पूर्व से ही उपस्थित हैं। इसके तहत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 6 तरह की पाबंदियां लगाई गई हैं। साथ ही मानहानि के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 499 भी आपके गलत इरादों पर लगाम लगाने के लिए खड़ी है।
महाराष्ट्र की दो लड़कियों के साथ ही कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी आदि ऐसे लोग हैं, जो  इस कानून के तहत जेल की हवा खा चुके हैं। सोशल मीडिया में कमेंट की वजह से मुम्बई की दो छात्राओं की गिरफ्तारी के बाद साइबर कानून की धारा 66 ए को चुनौती दी गई थी। श्रेया सिंघल नामक छात्रा व सामाजिक कार्यकर्तृ ने एक याचिका दायर कर रखी थी । इस मामले में याचिकाकर्ता एक एनजीओ, मानवाधिकार संगठन और एक कानून की विद्यार्थिनी थी। इन याचिकाओं पर याचिकाकर्ताओं ने सरकार पर इस कानून के दुरुपयोग का इल्जाम लगाया था। याचिकाकर्ताओं का दावा यह भी था कि यह कानून अभिव्यक्ति के उनके मूल अधिकार का उल्लंघन करता है।66 ए के मामले पर लम्बी सुनवाई के बाद 27 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता श्रेया सिंघल की याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।

सर्वोच्च न्यायालय के जज जस्टिस जे चेलमेष्वर,आर एफ नरीमन की पीठ ने इन याचिकाओं के सुनवाई के दौरान कई बार इस धारा पर सवाल उठाए थे। वहीं केन्द्र सरकार एक्ट को बनाए रखने की वकालत करती आ रही थी। केन्द्र ने न्यायालय में कहा था कि इस एक्ट का इस्तेमाल गंभीर मामलों में ही किया जाएगा। 2014 में केन्द्र ने राज्यों को एडवाइज़री जारी कर कहा था कि ऐसे मामलों में बड़े पुलिस अफसरों की इजाजत के बगैर कार्रवाई न की जाए। हालाँकि सरकार ने इस याचिका के विरोध में कहा है कि यह एक्ट वैसे लोगों के लिए है जो सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक चीजें पोस्ट कर शान्ति को खतरा पहुँचाना चाहते हैं। सरकार ने न्यायालय में इस एक्ट के बचाव में यह दलील दी कि क्योंकि इंटरनेट की पहुँच अब बहुत व्यापक हो चुकी है इसलिए इस माध्यम पर टीवी और प्रिण्ट माध्यम के मुकाबले ज्यादा नियमन होना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने याचिकाकर्ता श्रेया सिंघल की याचिका पर फैसला सुनाते समय कहा है कि, धारा को समाप्त करना होगा क्योकि यह अभिव्यक्ति की आजादी पर लगने वाले मुनासिब प्रतिबंधों के आगे चली गई है। बहस, सलाह और भड़काने में अंतर है। बहस और सलाह लोगों को नाराज करती हो उन्हें रोका नहीं जा सकता। विचारों से फैले गुस्से को कानून व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखा जाए। अदालत में फैसला सुनाते हुए जस्टिस नरीमन ने कहा कि यह धारा (66 ए) साफ तौर पर संविधान में बताए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है। इसको असंवैधानिक ठहराने का आधार बताते हुए कोर्ट ने कहा कि प्रावधान में इस्तेमाल 'चिढ़ाने वाला', 'असहज करने वाला' और 'बेहद अपमानजनक' जैसे शब्द अस्पष्ट हैं क्योंकि कानून लागू करने वाली एजेंसी और अपराधी के लिए अपराध के तत्वों को जानना कठिन है। बेंच ने ब्रिटेन की अलग-अलग अदालतों के दो फैसलों का भी उल्लेख किया, जो अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुंचीं कि सवालों के घेरे में आई सामग्री अपमानजनक थी या बेहद अपमानजनक थी।
भारतवर्ष का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज की गारंटी देता है। संविधान में आत्माभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनुष्य का एक सार्वभौमिक और प्राकृतिक अधिकार है और लोकतंत्र, सहिष्णुता में विश्वास रखने वालों का कहना है कि कोई भी राज्य और धर्म इस अधिकार को छीन नहीं सकता। परन्तु यह भी सत्य है कि राष्ट्र में शान्ति, सुरक्षा, अस्मिता और विधि व्यवस्था बनाये रखने के लिए देश में इससे सम्बंधित अधिनियम होने आवश्यक हैं ।

Saturday, March 28, 2015

दुर्गतिनाशिनी भगवती श्रीदुर्गा -अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित दैनिक समाचर पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक- २८/०३/२०१५ को प्रकाशित लेख - दुर्गतिनाशिनी भगवती श्रीदुर्गा


दुर्गतिनाशिनी भगवती श्रीदुर्गा
-अशोक “प्रवृद्ध”

नारी देवताओं में सर्वोपरि, शाक्तमत की आधारशिला आद्याशक्ति दुर्गतिनाशिनी भगवती श्रीदुर्गा की उपासना बड़े व्यापक रूप में भारतवर्ष के समस्त अंचलों में विभिन्न रूपों में की जाती है तथा घर-घर में शक्तिरूपिणी ब्रह्म भगवती श्रीदुर्गा की उपासना के अनेक स्त्रोत,ध्यान के मन्त्र, सहस्त्रनाम, चालीसादि, जो कि संस्कृत वाङ्मय के अनेकानेक साहित्यों में उपलब्ध होते हैं, का पाठ होता है l त्रैलोक्यजननी, विश्वम्भरी, कृपासागरा, सच्चिदानन्दरूपिणी, भक्तवत्सला, अमृतरसदायिनी, कामदूहा,प्रकृतिरूपा श्रीदुर्गा एक ओर अपने संसार सागर में डूबता हुए पुत्रों (भक्तों) को अमोधवाणी से उत्साहित करती है तो दूसरी ओर वर प्रदान के लिए सर्वदा उन्मुक्तहस्त खड़ी रहती है lइसीलिए इसका नाम जगत्तारिणी है lसम्पूर्ण विश्व को सत्ता, स्फूर्ति और सरसता प्रदान करने वाली सच्चिदानन्दरूपा महाचित्ति भगवती श्रीदुर्गा अपने तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण करती हैं तथा जीवों पर दया करके स्वयं ही सगुण भाव को प्राप्त कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश से उत्पति, पालन और संहार करती है l विश्वजननी, मूलप्रकृतिईश्वरी, आद्याशक्ति श्रीदुर्गा सर्वागी, समस्त प्रकार से मंगल करने वाली एवं सर्वमंगलों की भी मंगल है l
परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं- ‘ब्रह्मचितीरीश्वरश्चेति’ l जब ईश्वर का विशेषण होगा तब ‘देव’ तथा जब ‘देवी’ का होगा तब ‘देवी’l इस परमेश्वर (देवी) का ही नाम ‘देवी’ है l ऐसा अनेक विद्वानों का कथन है lशक्ति शब्द की व्युत्पति करते हुए निरुक्ताचार्य का कथन है कि ‘शक्लृ शक्तौ’ इस धातु से ‘क्तिन’ प्रत्यय करने ए ‘शक्ति’शब्द निरूपण होता है l ‘यः सर्वजगत् कर्तुं सक्नोति सः शक्ति l’ जो सब जगत के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है l अमरकोश में अमरकोशकार ने शक्ति के अनेक अर्थ बतलाये हैं- ‘कासूसामर्थ्ययोशक्तिः’, ‘शक्तिः पराक्रमः प्राणः’ , षड्गुणाश्शक्तयस्तिशत्रः lशक्ति, माया , प्रकृति सभी पर्यायवाची शब्द हैं lसृष्टि क्रम में आद्य एवं प्रधान (प्रकृष्टा) देवी होने के कारण इन्हें ‘प्रकृति’ कहा है l शास्त्रों में इन्हें त्रिगुणात्मिका कहा गया है – सत्वं रजस्तमस्त्रीणि विज्ञेया प्रकृतेर्गुणाः l प्रकृति शब्द में तीन अक्षर होते हैं- ‘प्र’, ‘कृ’ और ‘ति’ l प्र’, ‘कृ’ और ‘ति’- ये तीनों क्रमशः ‘सत्व’, ‘रज’ और ‘तम’ तीनों गुणों के द्योतक हैं l अतः ये परिणामस्वरूपा हैं l श्वेताश्वर उपनिषद में कहा है -
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानांस्वरूपाः l
जो जन्मरहित सत्व, रज, तमोगुण रूप्प्रकृति है, वही स्वरूपाकार से बाहर प्रजारूप हो जाती है, अर्थात प्रकृति परिणामिनी होने से वह अवस्थांतर हो जाती है और पुरुष अपरिणामी होने से वह अवस्थांतर होकर दूसरे रूप में कभी प्राप्त नहीं होता, सदा कूटस्थ होकर निर्विकार रहता है l दुर्ज्ञेया होने के कारण प्रकृति को ‘दुर्गा’ शब्द में ‘दु’ अक्षर दुःख, दुर्भिक्ष, दुर्व्यसन, दारिद्रय आदि दैत्यों का नाश्वाचक, ‘रेफ’ रोगघ्न तथा ‘गकार’ पापघ्न और ‘आकार’ अधर्म, अन्याय, अनैक्य, आलस्यादि अनेकानेक असुरों का नाशकर्ता है lसर्वसम्पतस्वरूपा प्रकृति लक्ष्मी कहलाती है l वाक्, बुद्धि, विद्या, ज्ञानरूपिणी प्रकृति सरस्वती कहलाती है l

वैदिक वाङ्मय से इस सत्य का सत्यापन होता है कि प्रकृति स्वधा है, पृश्नि है तथा पिशंगिला, पिलिप्पिला, अजा, अमृता, अदिति, उत्, अप, अवि, सिन्धु, ब्रह्म, त्रदत् , त्रिधातु आदि अनेक नाम वाली हैंl प्रकृति से जीव को विविध प्रकार की भोग सामग्री प्राप्त होती है, जिसे वह अपने कौशल द्वारा और भी उपयोगी बना लेता है l वैदिक संहिताओं में अदिति, शचि,ऊषा, पृथ्वी वाक्, सरस्वती, गायत्री, रात्रि, धिषणा, इला, सिनीवाली, मही, भारती, अरण्यानी, नित्रदति, मेघा, पृश्नि, सरण्यू, राका, सीता, श्री आदि देवियों के नाम मिलते हैं l ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषदों में अम्बिका, इन्द्राणी, रूद्राणी, शर्वाणी,भवानी, कात्यायनी, कन्याकुमारी, उमा, हैमवती आदि देवियों का उल्लेख मिलता है lवैदिक रूद्र का अम्बिका नामक एक स्त्री देवता के सम्बन्ध था ,लेकिन वैदिक साहित्य में अम्बिका रूद्र की बहन के रूप में अंकित है स्त्री रूप में नहींl अम्बिका शब्द का अर्थ है माता l सिन्धु घटी की देवी भी माता मानी जाती थी तथा दोनों का सम्बन्ध उर्वरता से था (है) lतैतिरीय संहिता १/८/६/१ में अम्बिका को शिव-सहोदरा कहा है तथा तैतिरीय आरण्यक १०/१८ में विश्व का, अम्बिका-उमा का पति रूप में वर्णन अंकित है lमहाभारत वनपर्व में दुर्गा को यशोदा-नन्द की पुत्री और वासुदेव-कृष्ण की बहन बतलाया गया है l अतिप्राचीन दस उपनिषदों में से एक केनोपनिषद में उमा-हैमवती नामक एक देवी का उल्लेख है lइसमें कहा गया हैकि देवताओं को ब्रह्म ज्ञान उमा हैमवती नामक एक स्त्री देवता ने कराया था l केनोपनिषद ३/१२ में अपर वैदिक कालीन देवता उमा का वैदिक कालीन सर्वश्रेष्ठ देवता इन्द्र से साक्षात एक अद्भुत घटना का वर्णन है l
दुर्गा की प्रतिमा समस्त शक्ति अर्थात राष्ट्र शक्ति का प्रत्तिरूप है, जो कि व्यक्ति और व्यक्तियों का सम्मिलित रूप राष्ट्र, शारीरिक रूप बल, सम्पति-बल एवं ज्ञान-बल से सिंह सदृश है, उस व्यक्ति में, उस राष्ट्र पर शक्ति (दुर्गा) प्रकट होती है l राष्ट्र को पशुबल (कार्तिकेय),सम्पति-बल (लक्ष्मी) एवं ज्ञान-बल (सरस्वती) चाहिए,किन्तु बुद्धिहीन के लिए बल, सम्पति एवं ज्ञान निरर्थक ही नहीं, प्रत्युत आत्म-संहार के लिए प्रबल अस्त्र सिद्ध होते हैं l इसीलिए मनुष्यता के आदिदेव बुद्धि के महाकाय (गणपति) वर्तमान हैं, जिनकी विशाल बुद्धि (शरीर) के भार के नीचे सभी विघ्न (चूहे)विवश रहते हैं l समस्त दिशाओं में फैली हुई राष्ट्रशक्ति ही राष्ट्र की दो, चार, आठ, दस, सहस्त्र और अनन्त तथा असंख्य भुजाएं हैं तथा समस्त प्रकार के उपलब्ध अस्त्र-शस्त्रादि ही दिक्पालों के अस्त्र-शस्त्रादि इनके आयुध हैं l कोई व्यक्ति और राष्ट्र ऐसा नहीं है, जिसका विरोध न हो l यही महिष है lदुर्गा के रूपमे यः भारतशक्ति की उपासना है l
भगवती दुर्गा की प्रतिमा में हाथों की संख्या विभिन्न पुराणों में अलग-अलग अंकित है lवराह पुराण ९५/४१ में अंकित हि कि मा वाराही के बीस हाथों में अस्त्र-शस्त्र एवं धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों- शंख,चक्र, गदा, पद्म, शक्ति, महोल्का, हल,मूसल, खड्ग, परिधि, भृशुण्डि, मस्तक, खेमट, तोमर, परशु, पाश, कुन्त,त्रिशूल, सारंग, धनुषादि को धारण करती है lदेवी भागवतपुराण में इनके अठारह हाथों का उल्लेख है lहेमाद्री ग्रन्थ में इनके दस और आठ हाथों का उल्लेख है lमाँ की चतुर्भुजी प्रतिमा भी देखी जाती है,परन्तु देवी की ‘दसभुजा’और अष्टभुजा’ स्वरुप ही जनमानस में सर्वप्रचलित है lदेवी की दस भुजाएं दस दिशाओं की केन्द्रीय शक्ति होने तथा दस विभूतियों से मानव की रक्षा करने के भाव का प्रमुख रूप से द्योतक है lइसी प्रकार अष्टभुजा आठ दिशाओं में लोक के योग क्षेम के भाव का द्योतक है lइसी कारण देवी कि दस विद्या, नवदुर्गा अथव अष्ट मात्रिका रूप में नाम-स्मरण, पूजा-अर्चना की परिपाटी है l शताक्षी एवं शाकम्भरी भी इनका नाम है l
वेद एवं उपनिषदों में अंकित आद्याशक्ति के तत्वों का पौराणिक ग्रन्थों में विषद उल्लेख करते हुए देवी के स्वरुप, महिमा एवं उपासना प्रणाली के प्रदर्शंन के लिए अनेक प्रकार के कथा निरूपक आदि अंकित हैं l पौराणिक युग शक्ति की धारणा-उपासना के बहुमुखी विकास का युग है, क्योंकि पुराणों के व्यापक प्रचार -प्रसार से शक्ति उपासना घर-घर में प्रचलित हो गई तथा माता के रूप में पूजी जाने लगीl देवी के लिए प्रयुक्त हुए जगन्माता तथा जगदम्बा आदि विशेषण उनके मातृरूप के ही द्योतक हैंl देवी के इस रूप का पुराणादि ग्रन्थों में व्यापक वर्णन हुआ हैl श्रीमद्देवीभागवत, मार्कंडेय पुराण, ब्रह्म पुराण, स्कन्द पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, कालिका पुराण, देवी पुराण आदि पुराणों-उपपुराणों में देवी के आविर्भाव की कथा,स्वरुप,उपना पद्धति, कथा निरोपक आदि विपुल साहित्य राशि उपन्यस्त हैl देवी भागवत पुराण में इन सबका एक साथ ही वर्णन हैlकलिका पुराण, त्रिपुरा रहस्य, आदि कथा ग्रन्थों में यह  सर्वश्रेष्ठ माना गया हैlमार्कंडेय पुराण की देवी सप्तशती अथवा देवी महात्म्य, ब्रह्मपुराण के द्वितीय भाग के अंतर्गत ललितोपाख्यान (ललित रहस्य), ब्रह्म वैवर्तपुराण का प्रकृति खण्ड, शिवपुराण के अन्तर्गत उमा संहिता, उपपुराणों में कलिका एवं सूत-संहिता के यज्ञ वैभव खण्ड का सैंतालीसवाँ अध्याय का शक्ति स्त्रोत महत्वपूर्ण श्रेष्ठ वाङ्मय हैंlमार्कंडेय पुराण के अन्तर्गत सप्तशती चण्डी, देवी महात्म्य से सम्बंधित श्रेष्ठ एवं नित्य पठन-पाठन सेव सम्बंधित ग्रन्थ आज के हिन्दू समाज में घर-घर सर्वप्रचलित हैl

Wednesday, March 25, 2015

कर्म में भेदने वाली इन्द्रिय बुद्धि

राँची ,झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक- २५/०३/२०१५ को प्रकाशित लेख - कर्म में भेदने वाली इन्द्रिय बुद्धि

 कर्म में भेदने वाली इन्द्रिय बुद्धि 
करणीय और अकरणीय कर्म में भेद करने वाली इन्द्रिय बुद्धि 
-अशोक “प्रवृद्ध”

उपनिषदों की एक कथा के अनुसार शरीर के इन्द्रियों में अपनी-अपनी श्रेष्ठता को लेकर विवाद हो जाने और सर्वश्रेष्ठता का निश्चय नहीं कर पाने पर वे प्रजापति के समक्ष गई और कहने लगीं कि उनमे से कौन सर्वश्रेष्ठ है? प्रजापति के सुझाव पर सब इन्द्रियाँ एक-एक कर शरीर छोड़कर गयीं और वापस लौट आयीं और उन्होंने देखा कि उनके बिना भी शरीर का कार्य चलता रहता है, यद्यपि कार्य करने में दोष और कठिनाई हुई थी,परन्तु जब महाप्राण शरीर को छोड़ने लगा तो शरीर ठंडा पड़ने लगाl शरीर मरनासन्न होने लगा और अन्य सब इन्द्रियाँ भी शिथिल पड़ने लगींlइस पर यह निश्चय हो गया कई महाप्राण सर्वश्रेष्ठ इन्द्रिय हैl
वैदिक ग्रन्थों के अनुसार महाप्राण शरीर में वह शक्ति है जिससे शरीर के आभ्यांतरिक यंत्र कार्य करते हैंlउदाहरणतः ह्रदय, जो रक्त-संचालन का कार्य करता है, वह महाप्राण के आश्रय ही कार्य करता हैl यह दिन-रात जन्म से मरणपर्यन्त कार्य करता रहता हैl इसी प्रकार भोजन के गले से उतरते ही आगे धकेल पेट में पहुँचाने वाला, मल-मूत्र व शरीर के अन्य रस को गति प्रदान करने वाला शक्ति महाप्राण ही हैl मनुष्य चाहे अथवा न चाहे, महाप्राण अपना कार्य करता रहता है lकहा जाता है कि शरीर के मस्तिष्क में बैठा परमात्मा सब कार्य कर रहा हैlपरमात्मा के कार्य को रोका जा सकता है, जब गोली मारकर प्राणी की हत्या कर दी जाए अथवा विह खाकर या किसी ऊँची पहाड़ी से कूदकर, अथवा किसी अन्य प्रकार से इस महाप्राण को शरीर से निकाल दिया जाएl अर्थात मनुष्य शरीर में एक शक्ति है जो किसी भी कार्य को करने अथवा न करने में प्रेरित करती है, और जो भी अंग अथवा शक्ति यह कार्य करती है उसका नाम बुद्धि हैl सांख्यदर्शन में कहा है-
अध्यवसायो बुद्धिः l
तत्कार्यं धर्मादि ll – सांख्यदर्शन -२-१३,१४
अर्थात- निश्चय करने का काम बुद्धि का है और यह निश्चय करती है करणीय तथा अकरणीय मेंl
करणीय और अकरणीय में निश्चय करने का काम मनुष्य के मस्तिष्क में स्थित एक यंत्र करता है, इसे बुद्धि कहते हैंl आँख, नाक, कान इत्यादि इन्द्रियाँ केवल कार्य करती हैंl शरीर में कार्य करने के यंत्रों को करण कहते हैंl करण तेरह हैं- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, ग्यारहवीं आभ्यांतरिक इन्द्रिय, बारहवाँ मन तथा तेरहवीं बुद्धि हैl
इन्द्रियाँ देखती हैं, सुनती हैं, चखती हैं,सूंघती इत्यादि हैंl मन इनसे प्राप्त ज्ञान को संचय करता हैlबुद्धि निश्चय करती है कि अमुक कार्य वर्तमान परिस्थिति में करना ठीक है अथवा नहीं?अन्तिम आज्ञा देने वाला जीवात्मा हैl यदि इन्द्रियों में दोष हो तो मन और बुद्धि के कार्य में बाधा पड़ जाती हैl उदहारणतः अगर हमारी आँख में काला चश्मा चढ़ा हुआ हो और हम श्वेत वस्त्र खरीदने जाते हैं तो काले चश्मे के कारण श्वेत वस्त्र भी काला दिखाई देता हैl इस  कारण मन, बुद्धि और जीवात्मा ठीक कार्य तब ही कर सकते हैं जब इन्द्रियाँ ठीक-ठीक ज्ञान देंl इन्द्रियों के ठीक-ठीक ज्ञान देने से ही पूर्व से मन में संचित ज्ञान से बुद्धि के द्वारा तुलना की जा सकती हैlमनुष्य के मन में उठने वाली विभिन्न प्रश्नों का उत्तर बुद्धि देती हैl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मनुष्य को कार्य की दिशा बताने वाला एक यंत्र मनुष्य के मस्तिष्क में रहता है, उसका नाम बुद्धि हैl यह यंत्र कार्य कर्ता है इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर तथा मन पर अंकित पूर्व के ज्ञान से ज्ञान की तुलना करl इस कारण कार्य की दिशा निश्चय करने में जहाँ इन्द्रियाँ सहायक होती हैं, वहाँ मन भी सहायक होता हैlतदनंतर बुद्धि की राय से जीवात्मा निश्चय कर्ता है कि वह अमुक कार्य करे अथवा न करे?जीवात्मा, मन पर संचित पूर्व के ज्ञान से तुलना कर, बुद्धि को सम्मति से आज्ञा देता है कि वह अमुक कार्य करे या न करे?अतएव जब कार्य करने का समय आता है तो ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि द्वारा निश्चित किया गया कार्य कर्मेन्द्रियों द्वारा होने लगता हैl
इन तेरह करणों में पाँच कर्मेन्द्रियाँ तो शरीर के कार्य में आवश्यक होती हुई भी सम्मति नहीं देतीं अथवा कार्य में हाँ अथवा न करने में कुछ अधिकार नहीं रखतींl शेष रह गयीं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, आभ्यंतरिक इन्द्रिय तो संयोग-स्थान है और मन ज्ञान का संचय स्थान हैlअतः नियन्त्रण करने वाला यंत्र बुद्धि ही है और उसके बिना कार्य की दिशा ठीक नहीं बनतीlज्ञानेन्द्रियाँ का काम है, घट रही घटनाओं की सूचना लाना मात्र और मन तो एक प्रकार का पूर्ण ज्ञान का संचय स्थान हैl इसे आज की अंग्रेजी में रिकार्ड रूम कहा जा सकता हैl प्राप्त ज्ञान की पूर्व उपस्थित ज्ञान से तुलना और उस पर निश्चय कि कौन सा कार्य ठीक है, जो यंत्रकरता है, वह बुद्धि हैl वह अपनी सम्मति जीवात्मा को देती है तब जीवात्मा कार्य करता हैl
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शरीर का सर्वश्रेष्ठ आधार महाप्राण शरीर के आत्म-तत्व के अधीन नहींl मनुष्य जब सो जाता है, शरीर के सब अंग काम करना बन्द कर आराम करने लगते हैंlजीवात्मा सुसुप्ति अवस्था में क्या करता है,ज्ञात नहींlइसके लिंग (चिह्न) जिनसे जीवात्मा के अस्तित्व का पत्ता चलता है, वे एक सोये हुए शरीर में दिखाई नहीं देतेl न्यायदर्शन में आत्मा के लिंग के विषय में कहा है-
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् ll
- न्यायदर्शन -  १/ १/ १०
अर्थात- आत्मा के लिंग हैं इच्छा, द्वेष, प्रयत्न,सुख, दुःख और चेतनाl
किसी वस्तु का लिंग वह लक्षण है जो किसी अन्य में नहीं पाया जाता हो और जिससे वह दूसरे से पृथक पहचाना जा सकेl अर्थात जिस किसी में भी इच्छा होगी,उसमें आत्मतत्व का होना समझा जायेगाlजिस पदार्थ में प्रतिकूल परिस्थिति का विरोध दिखाई दे, वह आत्मतत्व हैlइसी प्रकार अन्य लिंगों के विषय में भी कहा जा सकता हैंlप्राणी के सो जाने पर छहों लिंग इच्छा,देवश, सुख, दुःख, प्रयत्न और चेतना नहीं रहतेlइसका अभिप्राय है कि सोये प्राणी में जीवात्मा सक्रिय नहीं होताlजीवात्मा उसमे सक्रिय तो रहता हैlयह इस प्रकार स्पष्ट जाना जा सकता है कि मृत शव और सोये शरीर में अन्तर होता हैl दोनों में जीवात्मा के छहों लिंगों का अभाव दिखाई देता है परन्तु जीवित प्राणी में महाप्राण कार्य करता रहता हैlकेवल वे कार्य नहीं होते जो आत्मा के लिंग हैंlऔर फिर मनुष्य के जागने पर आत्मा के लिंग पुनः कार्य करने लगते हैंlपरन्तु मृत प्राणी में न तो महाप्राण रहता है, न आत्मा के लिंगlइसका अभिप्राय यह है कि जीवित और जाग्रत प्राणी में दो आत्म-तत्व कार्य करते हैंlएक को जीवात्मा कहते हैं और दूसरे को परमात्मा कहते हैंlइस विषय में ब्रह्मसूत्र में ब्रह्मसूत्रकार कहता है-
गुहां प्रविष्टावात्मानौ हि तद्दर्शनात् ll
-ब्रह्मसूत्र – १/२/११
अर्थात- गुहा (बहुत छोटे से रिक्त स्थान) में दो आत्म तत्व के देखे जाने से (यह ऊपर कही बात सिद्ध होती है) l
अभिप्राय यह है कि शरीर के छोटे से रिक्त स्थान में दो आत्म तत्व देखे जाते हैं,ऊपर कहे लक्षणों मेंl
इस प्रकार छः लिंगों वाला आत्म तत्व शरीर में रहता हैlइन छः लिंगों से हि यह सिद्ध होता है कि यह आत्म तत्व शरीर में आज्ञा देने वाला है, परन्तु करणीय और अकरणीय के विषय में बताने वाली तो ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि हैंl  इनके सहाय से ही हाँ अथवा न का निर्णय होता है lइस प्रकार स्पष्ट हो जाता हैकि कार्य जीवात्मा करता है और कार्य करने में बुद्धि परामर्श देती हैlबुद्धि की सम्मति बनने में सहायक हैं ज्ञानेन्द्रियाँ और मन l

Friday, March 20, 2015

सृष्टि का सृजनोत्सव है नवसंवत्सर -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची  , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक- २० / ०३/ २०१५ को प्रकाशित लेख -सृष्टि का सृजनोत्सव है नवसंवत्सर


सृष्टि का सृजनोत्सव है नवसंवत्सर 
-अशोक “प्रवृद्ध”


भारतीय संस्कृति में नववर्ष का शुभारम्भ चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से माना गया है। भारतवर्ष का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत का प्रारम्भ भी आज से २०७२ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होता है। इस तिथि को भारतीय संस्कृति में अति पावन दिन माना गया है। क्योंकि पुरातन धर्मग्रन्थों के अनुसार  चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि ही सृष्टि की जन्मतिथि है और इसी प्रतिपदा तिथि दिन रविवार को सूर्योदय होने पर ब्रह्मा ने सृष्टि के निर्माण की शुरुआत की थी। उन्होंने इस प्रतिपदा तिथि को प्रवरा अथवा सर्वोत्तम तिथि कहा था। इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। इस दिन से संवत्सर का पूजन, वासंतिक नवरात्र घटस्थापन, ध्वजारोपण, वर्षेश का फल पाठ आदि विधि-विधान किए जाते हैं। वर्ष प्रतिपदा तिथि का अपना विशिष्ट पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व है । चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा तिथि ही विक्रमी संवत का पहला दिन, प्रभु श्री राम का राज्याभिषेक दिवस, नवरात्र स्थापना का प्रथम दिवस,सिख परम्परा के द्वितीय गुरू गुरू अंगददेव प्रगटोत्सव अर्थात जन्म दिवस, आर्य समाज स्थापना दिवस, संत झूलेलाल जन्म दिवस, शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस, युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन है।

 ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारम्भ हुआ था और इसी दिन भारतवर्ष में काल गणना प्रारम्भ हुई थी। कहा है कि -
चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। - ब्रह्म पुराण
 अर्थात- चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा को सूर्योदय के समय पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि के निर्माण का श्रीगणेश किया।
इस प्रकार असीम काल को संख्या में बाँधने का प्रथम स्तुत्य प्रयास ऋषियों ने किया । समय वह कालपुरुष है, जिसे कदापि पकड़ा नहीं जा सकता क्योंकि यह गतिमान होने के साथ ही अनन्त और असीम है, परन्तु हमारे त्रिकालदर्शी कालद्रष्टा ऋषियों ने समय के मापन हेतु समाधि में अन्तर्लीन होकर चेतना के साक्षात्कार से उद्भूत मेधा द्वारा काल की गणना का स्वरूप का अन्वेषण कर लिया था ।उन्होंने समय की सर्वाधिक सूक्ष्म इकाई त्रुटि से लेकर दीर्घ इकाई महायुग, कल्प, ब्राह्म वर्ष आदि वृहद इकाईयों में समय की गणना करके काल का निर्धारण किया है। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व भारतीय ज्योतिषियों ने वैदिक परम्परा के अनुरूप कालगणना की वैज्ञानिक पद्धति का विकास कर लिया था जो वर्तमान वैज्ञानिक गणना से भी अधिक सटीक है।इसलिए यह आज भी विश्व के काल वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणाप्रद है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र सृष्टि-उत्पति काल और मनुष्य-जन्म काल का काल नक्षत्रों को देखकर बतलाता है l ज्योतिष शास्त्र के अनुसार आज 2015 ई० की 21 मार्च अर्थात विक्रम सम्वत 2072 की प्रारम्भण दिवस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से 1,97,29,40,115 वर्ष पूर्व आरम्भ हुई , परन्तु यह मनुष्य के आविर्भाव का काल नहीं है l मनुष्य का इस पृथ्वी पर आविर्भाव वर्तमान चतुर्युगी माना जाता है l (इस सम्बन्ध में पृथक रूप से गत 11 दिसम्बर 2014 को  राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर वैदिक मान्यतानुसार मानव सृष्टि काल नामक  लेख प्रकाशित हो चुका है l) इसकी गणना इस प्रकार की गई है l4,32,00,00,000 सौर वर्ष का ब्रह्मदिन माना गया है l पूर्ण ब्रह्म दिन को 14 मन्वन्तरों में बांटा है l इन मन्वन्तरों में से अभी तक छः मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं और सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है l सातवें मन्वन्तर की 27 चतुर्युगियाँ व्यतीत हो चुकी हैं l अठाईसवीं चयुर्युगी का सतयुग , त्रेतायुग और द्वापर युग बीत चुका है और कलियुग के 5115 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं l यह सब बनता है 1,97,29,40,115 सौर वर्ष lकुछ विद्वान इसे 1,97,29,49,115 वर्ष मानते हैं ,परन्तु ज्योतिष संहिता ,मनुस्मृति और संकल्प मन्त्र के अनुसार यह 1,97,29,40,115 वर्ष ही सटीक है l यह सृष्टि रचना के आरम्भ से आज तक का व्यतीत काल है l सृष्टि - रचना का कार्य तब आरम्भ होता है , जब परमाणु की साम्यावस्था भंग होती है l सूर्य सिद्धांत के अनुसार ब्रह्माजी को सृष्टि की रचना करने में 47,400 दिव्य वर्ष लगे थे। चूँकि देवताओं का एक वर्ष (एक दिव्य वर्ष) हमारी पृथ्वी के 360 सौर वर्षों के बराबर होता है, इसलिए विक्रम संवत 2072 में सृष्टि की शुद्ध आयु =1,97,29,40,115 -1,70,64,000 =1,95,58,76,115 (1,97,29,49,115 -1,70,64,000 =1,95,58,85,115 ) सौर वर्ष होगी। अर्थात इतने समय पूर्व सृष्टि निर्माण का कार्य संपन्न (पूर्ण) हुआ था।


भारतीय कालगणना के मतानुसार आगामी शनिवार इक्कीस मार्च को चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा से जब नवसंवत्सर अर्थात विक्रम संवत  2072 का प्रारम्भ होगा, तब सृष्टि का निर्माण हुए 1,97,29,40,115 वर्ष व्यतीत हो चुके होंगे और 1,97,29,40,116 वाँ वर्ष प्रारम्भ हो चुका होगा । प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों ने चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा की महता और इस दिन को सृष्टियादि तिथि होने की बात को जानकर इसी तिथि से भारतीय संवत्सर (वर्ष) के शुभारम्भ को मान्यता दी।
ज्योतिषियों,काल वैज्ञानिकों, संवत्सर के अध्येताओं के अनुसार वर्तमान समय में प्रचलित कैलेण्डर में समय अर्थात काल के अध्ययन के मुख्यत: तीन मानक है- वर्ष, माह और तारीख। इसी कारण पाश्चात्य अंक ज्योतिष में समय का केवल त्रिआयामी अध्ययन ही होता है, जबकि भारतीय ज्योतिष में काल की पञ्च-आयामी विश्लेषण की जाती है। काल के इन पाँच अंगों के विधिवत अध्ययन करने के उपकरण को ही पञ्चांग कहा जाता है। भारतीय कैलेण्डर अर्थात पञ्चांग के पाँच प्रमुख अंग हैं- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण (तिथि का आधा भाग)। पञ्चांग के माध्यम से समय के विभिन्न अंगों का अध्ययन और विश्लेषण करके यह जाना जाता है कि किस कार्य को करने के लिए कौन सा दिन शुभ व सही है? इस प्रकार समय (काल) की सटीक गणना और उसकी प्रवृत्ति को जानकर सही समय पर उचित काम करके सफलता पाई जा सकती है। भारतीय संस्कृति में काल-गणना मात्र गणितीय नहीं है, वरन यह भविष्य के लिए संकेत भी करती है। यहाँ हर संवत्सर अर्थात वर्ष को एक पृथक नाम भी दिया गया है। उदाहरण के लिए बहुत अच्छे नक्षत्रों के साथ प्रारम्भ होने वाली 2072 संवत्सर को नाम दिया गया है कीलक।संवत्सर के नाम में ही उस वर्ष में होने वाली मुख्य घटनाओं का संकेत छुपा रहता है। संवत्सर का नामकरण प्रकृति सापेक्ष होने से हम संवत्सर को प्रकृति का दर्पण भी कह सकते हैं। वस्तुत: संवत्सर (वर्ष) सिर्फ अंकों का खेल नहीं, बल्कि वह ऐसा दर्पण है, जिसमें प्रकृति का हर अंग स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। पञ्चांग के माध्यम से संवत्सर में प्रकृति अर्थात मौसम का अति सूक्ष्म अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है।


नव-संवत्सर का उत्सव प्राचीन काल से ही चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा के दिन नव-संवत्सरोत्सव के रूप में बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है। इस दिन सृष्टिकर्ता ब्रह्मा तथा सृष्टि के समस्त अंगों के प्रति आभार व्यक्त किए जाने की परिपाटी है  और काल अर्थात समय एवं सृष्टि के समस्त अंगों का पूजन किया जाता है। सृष्टि के विभिन्न अंगों का पूजन करते समय पर्यावरण की शुद्धि और प्रदूषण की समाप्ति का विचार मनुष्य में स्वत: आ जाने के कारण प्राचीन काल से ही मनुष्य इनके प्रति जागरूक रहा है तथा वृक्ष, नदियों में देवत्व की भावना रखने के कारण इनकी सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान देने की प्रवृति जागृत हुई।वर्तमान में पाश्चात्य भोगवादी प्रवृति के कारण उपजी  हमारी उपेक्षा और लोभ के कारण पर्यावरण को चतुर्दिक क्षति पहुँच रही है।हमारी उदासीनता के कारण जल भण्डारों, नदियों में प्रदूषण बढ़ा है, जबकि प्राचीन काल में नव-संवत्सर के शुभारम्भ के समय सृष्टि के विभिन्न घटकों की पूजा करते समय इनकी सुरक्षा का संकल्प स्वयमेव ही मनुष्य ले लेता था। नवसंवत्सर का प्रमुख सन्देश है कि मानव यदि पृथ्वी एवं स्वअस्तित्व को सुरक्षित, प्रवृद्ध रखना चाहता है, तो उसे सृष्टि के विभिन्न घटकों, जैसे- पृथ्वी,जल और वायु आदि को प्रदूषण से मुक्त रखना होगा तथा वृक्षों की कटान और पहाड़ों के खनन को अत्यल्प करना होगा। नव-संवत्सरोत्सव में काल (समय) का, उसके विभिन्न अंगों- वर्ष, मास, तिथि, वार, नक्षत्र आदि के साथ पूजन करने का उद्देश्य समय की महत्ता को समझना-समझाना ही है। कारण कि समय का सदुपयोग ही लाभ है और दुरुपयोग हानि। आनन्द, उल्लास, उमंग, खुशी तथा चतुर्दिक पुष्पों की सुगन्धि से भरी वसन्त ऋतु का आरम्भ  वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो फसल पकने का प्रारम्भ अर्थात कृषकों के परिश्रम का फल मिलने का समय होता है। इस समय नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है। इसलिए इस शुभ पावन नववर्ष प्रतिपदा तिथि की सभी भारतीयों को असीम शुभ कामनाओं के साथ नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ईश्वर से प्रार्थना है कि वे सब पर कृपा बनाएँ रखें जिससे समस्त संसार के लिए यह संवत्सर कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न-बाधाएँ दूर व शान्त हो जायें ।


Wednesday, March 18, 2015

वैदिक ग्रन्थों में गुरुत्वाकर्षण नियम - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची झारखण्ड से प्रकाशित राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक- १८ / ०३/ २०१५ को प्रकाशित आलेख - वैदिक ग्रन्थों में गुरुत्वाकर्षण नियम-

 वैदिक ग्रन्थों में गुरुत्वाकर्षण नियम
- अशोक “प्रवृद्ध”


भारतवर्ष के प्रसिद्ध और जाने-माने वैज्ञानिक एवं भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) के भूतपूर्व प्रमुख जी माधवन नायर ने यह कहकर पाश्चात्य पद्धति से शिक्षित भारतीयजनों में हड़कम्प मचा दिया है कि वेद के कई श्लोकों में चन्द्रमा पर जल की उपलब्धता अर्थात मौजूदगी का विवरण अंकित है और आर्यभट्ट जैसे खगोलविद् न्यूटन से भी कहीं पहले गुरुत्वाकर्षण बल के बारे में जानते थे। वेदों पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए पद्म विभूषण पुरस्कार से विभूषित इकहतर वर्षीय भूतपूर्व इसरो प्रमुख जी माधवन नायर ने कहा कि न्यूटन से १५०० साल पहले भारत को गुरुत्वाकर्षण बल के बारे में जानकारी थी। भारतीय वेदों और प्राचीन हस्तलेखों में भी धातुकर्म, बीजगणित, खगोल विज्ञान, गणित, वास्तुकला एवं ज्योतिष-शास्त्र के बारे में सूचना थी और यह जानकारी उस वक्त से थी, जब पश्चिमी देशों को इनके बारे में पता तक नहीं था। वर्ष २००३ से २००९ तक इसरो के अध्यक्ष रहे नायर ने यह दावा भी किया कि हड़प्पा सभ्यता के दौरान शहरों के निर्माण में गणना के लिए ज्यामिति का इस्तेमाल किया गया और पायथागोरियन सिद्धांत वैदिक काल के समय से ही वजूद में है। उन्होंने कहा कि वेदों में दी गई जानकारी संक्षिप्त स्वरूप में थी, जिससे आधुनिक विज्ञान के लिए उन्हें स्वीकार करना मुश्किल हो गया। एक वेद के कुछ श्लोकों में कहा गया है कि चन्द्रमा पर जल है, लेकिन किसी ने इस पर भरोसा नहीं किया। हमारे चन्द्रयान मिशन के जरिये हम इसका पता लगा सके और यह पता लगाने वाला हमारा देश भारतवर्ष विश्व का पहला देश है। आदिग्रन्थ वेदों की प्रशंसा में नायर ने कहा कि वेदों में लिखी सारी बातें नहीं समझी जा सकतीं, क्योंकि वे क्लिष्ठ संस्कृत में हैं। पाँचवीं सदी के खगोलविद्-गणितज्ञ आर्यभट्ट की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा, हमें वास्तव में गर्व है कि आर्यभट्ट और भास्कर ने ग्रहों एवं बाहरी ग्रहों के विषय पर गहन कार्य किया है। यह एक चुनौतीपूर्ण क्षेत्र था। उन्होंने कहा, यहां तक कि चन्द्रयान के लिए भी आर्यभट्ट का समीकरण इस्तेमाल किया गया। वैदिक गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के बारे में भी न्यूटन को इसके बारे में करीब १५०० साल बाद पता चला, परन्तु गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त की यह जानकारी हमारे वैदिक और पौराणिक ग्रन्थों में पूर्व से ही अंकित है।

वेद और वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि न्यूटन के सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने वेदों से अपनी तपश्चर्या से गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को जान लिया था,जिसके समक्ष न्यूटन कहीं नहीं ठहरते हैं।यही कारण है कि वेद और वैदिक ग्रन्थों में गुरूत्वाकर्षण के नियम का विषद उल्लेख अंकित है और और यह भी सत्य है कि वैदिक ग्रन्थों में गुरूत्वाकर्षण के नियम को समझाने के लिये पर्याप्त सूत्र उपलब्ध हैं, परन्तु इन ग्रन्थों के अध्ययन नहीं करने के कारण पाश्चात्य शिक्षण पद्धति से शिक्षित भारतीयजन, प्रमुखतः आजकल के युवा वर्ग इस गौरवमयी भारतवर्ष की विद्वता से अनजान केवल पाश्चात्य वैज्ञानिकों के पीछे ही श्रद्धाभाव रखते हैं । जबकि यह सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व से ही परमेश्वरोक्त आदिग्रन्थ वेदों में सूक्ष्म ज्ञान के रूप में वर्णित हैं , परन्तु इस बात से अनजान भारतीय सहित सम्पूर्ण संसार के लोग इसे न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के नाम से जानते हैं । ऐसे लोगों ने आँग्ल शासकों द्वारा लागू की गई मैकाले की पाश्चात्य शिक्षा पद्धति द्वारा शिक्षित और दुर्भावना से प्रेरित बुद्धिजीवियों द्वारा विकृत किये गए भारतीय इतिहास को पढ़कर अपनी उपर्युक्त धारणाएँ बना रखीं हैं, उन्हें वेद और वैदिक ग्रन्थों तथा भारतीय परम्परा के अन्तर्गत लिखी गई इतिहास , पुराण के ग्रन्थों का शोधपरक अध्ययन करना चाहिए। उपर्युक्त कथन के विपरीत, सूर्य जैसा जगमगाता हुआ सच तो यह है कि भारतवर्ष के लोगों का गुरुत्वाकर्षण के साथ सर्वप्रथम परिचय न्यूटन से सहस्त्राब्दियों पूर्व हुआ था।अतः, इस कथन में कोई सच्चाई नहीं है कि गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार सर्वप्रथम न्यूटन ने सेव के फल को पेड़ से गिरते हुए देखकर किया था।





वैदिक ग्रन्थों में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का उल्लेख

गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लेख अनेक वैदिक ग्रन्थों में होने के कारण वैदिक सभ्यता-संस्कृति के प्रशंसक भारतीय जन इसे न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त  नहीं वरन प्राकृतिक गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत (Nature's Law Of Gravitation)  कहते हैं ।आर्यभट्ट ने तो आपने ग्रन्थ में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का वर्णन का वर्णन किया ही है । इसके साथ ही गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का उल्लेख ऋग्वेद , बृहत् जाबाल उपनिषद् ,प्रश्नोपनिषद, महाभारत, पतञ्जली कृत व्याकरण महाभाष्य , वराहमिहिर कृत ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका, भास्कराचार्य द्वितीय पूर्व की सिद्धान्तशिरोमणि आदि अनेक वैदिक और पुरातन ग्रन्थों में अंकित मिलता है। वेदव्यासकृत महाभारत में गुरुत्वाकर्षण का अंकन देखकर वैदिक ग्रन्थों के विद्वतजनों , अध्ययनकर्ताओं का मत है कि वस्तुतः न्यूटन को जो गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के आविष्कार का श्रेय मिला वह तो हमारे पितामह भीष्म को मिलना चाहिए,जो आइंस्टीन के सिद्धांत से अधिक समीप हैं ।भूत पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए भीष्म पितामह ने युद्धिष्ठिर से कहा था -

भूमै: स्थैर्यं गुरुत्वं च काठिन्यं प्र्सवात्मना, गन्धो भारश्च शक्तिश्च संघातः स्थापना धृति ।
- महाभारत-शान्ति पर्व . २६१

अर्थात- हे युधिष्ठिर! स्थिरता, गुरुत्वाकर्षण, कठोरता, उत्पादकता, गंध, भार, शक्ति, संघात, स्थापना, आदि भूमि के गुण है। -भीष्म पितामह

न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण (बल) कोई शक्ति नहीं है बल्कि पार्थिव आकर्षण मात्र है । यह गुण भूमि में ही नहीं वरण संसार के सभी पदार्थो में है कि वे अपनी तरह के सभी पदार्थो को आकर्षित करते है एवं प्रभावित करते है। इसका सर्वाधिक उत्तम व अच्छा विश्लेषण हजारों वर्ष पूर्व महर्षि पतंजलि ने सादृश्य एवं आन्तर्य के सिद्धान्त से कर दिया था। गुरुत्वाकर्षण सादृश्य का ही उपखण्ड है। सामान गुण वाली वस्तुएँ परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करती है। उससे आन्तर्य पैदा होता है । पतंजलि ने कहा है -

अचेतनेश्वपी, तद-यथा-लोष्ठ क्षिप्तो बाहुवेगम गत्वा नैव तिर्यग गच्छति नोर्ध्वमारोहती प्रिथिविविकारः प्रिथिविमेव गच्छति – आन्तर्यतः । तथा या एता आन्तरिक्ष्यः सूक्ष्मा आपस्तासां विकारो धूमः । स आकाश देवे निवाते नैव तिर्यग नवागवारोहती । अब्विकारोपि एव गच्छति आनार्यतः । तथा ज्योतिषो विकारो अर्चिराकाशदेशो निवाते सुप्रज्वलितो नैव तिर्यग गच्छति नावगवरोहति । ज्योतिषो विकारो ज्योतिरेव गच्छति आन्तर्यतः ।
पतंजलि महाभाष्य, सादृश्य एवं आन्तर्य- १/१/५०

अर्थात -चेतन अचेतन सबमें आन्तर्य सिद्धांत कार्य करता है।मिट्टी का ढेला आकाश में जितनी बाहुबल से फेका जाता है, वह उतना ऊपर चला जाता है, फिर ना वह तिरछे जाता है और ना ही ऊपर जाता है, वह पृथ्वी का विकार होने के कारण पृथ्वी में ही आ गिरता है। इसी का नाम आन्तर्य है । इसी प्रकार अंतरिक्ष में सूक्ष्म आपः (hydrogen) की तरह का सुक्ष्म जल तत्व का ही उसका विकार धूम है। यदि पृथ्वी में धूम होता तो वह पृथ्वी में क्यों नहीं आता?  वह आकाश में जहाँ हवा का प्रभाव नहीं, वहाँ चला जाता है- ना तिरछे जाता है ना नीचे ही आता है। इसी प्रकार ज्योति का विकार अर्चि  है। वह भी ना निचे आता है ना तिरछे जाता है। फिर वह कहा जाता है? ज्योति का विकार ज्योति को ही जाता है।

इसके पूर्व के मन्त्र व्याकरण महाभाष्य स्थानेन्तरतमः -१/१/४९ में महर्षि पतंजलि ने गुरूत्वाकर्षण के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा है -
लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यक् गच्छति नोर्ध्वमारोहति ।
पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति आन्तर्यतः ।
-महाभाष्य  स्थानेन्तरतमः, १/१/४९ सूत्र पर
अर्थात- पृथिवी की आकर्षण शक्ति इस प्रकार की है कि यदि मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका जाता है तो वह बहुवेग को पूरा करने पर, न टेढ़ा जाता है और न ऊपर चढ़ता है । वह पृथिवी का विकार है, इसलिये पृथिवी पर ही आ जाता है ।



उपनिषद ग्रन्थों में प्रमुख बृहत् जाबाल उपनिषद् में गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त का वर्णन है और वहाँ गुरुत्वाकर्षण को आधारशक्ति नाम से अंकित किया गया है।इस उपनिषद में इसके दो भाग किये गये हैं -पहला, ऊर्ध्वशक्ति या ऊर्ध्वग अर्थात ऊपर की ओर खिंचकर जाना । जैसे कि अग्नि का ऊपर की ओर जाना ।और दूसरा अधःशक्ति या निम्नग अर्थात नीचे की ओर खिंचकर जाना । जैसे जल का नीचे की ओर जाना या पत्थर आदि का नीचे आना ।
बृहत् उपनिषद् में भी गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के सूत्रांकित हैं -
अग्नीषोमात्मकं जगत् ।
- बृहत् उपनिषद् २.४
आधारशक्त्यावधृतः कालाग्निरयम् ऊर्ध्वगः । तथैव निम्नगः सोमः ।
- बृहत् उपनिषद् २.८
अर्थात- सारा संसार अग्नि और सोम का समन्वय है । अग्नि की ऊर्ध्वगति है और सोम की अधोःशक्ति । इन दोनो शक्तियों के आकर्षण से ही संसार रुका हुआ है ।


प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी भास्कराचार्य ,जिन्हें भाष्कर द्वितीय (1114 – 1185) भी कहा जाता है , के द्वारा रचित एक मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। भास्कराचार्य द्वितीय पूर्व ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि में यह कहा है-
आकृष्टिशक्तिश्चमहि तया यत्
खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।
आकृष्यते तत् पततीव भाति
समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।।
- सिद्धान्त० भुवन० १६
अर्थात - पृथिवी में आकर्षण शक्ति है जिसके कारण वह ऊपर की भारी वस्तु को अपनी ओर खींच लेती है । वह वस्तु पृथिवी पर गिरती हुई सी लगती है । पृथिवी स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है,अतः वह निराधार आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से हटती नहीं है और न गिरती है । वह अपनी कील पर घूमती है।
वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में कहा है-
पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः ।
खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।।
- पञ्चसिद्धान्तिका पृ०३१
अर्थात- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथिवी इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहा ।

अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर में आचार्य श्रीपति ने कहा है -
उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेःस्थितिरन्तरिक्षे ।।
 - सिद्धान्तशेखर १५/२१ )
नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।
आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।।
-सिद्धान्तशेखर  १५/२२
अर्थात -पृथिवी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी प्रकार स्वाभाविक है, जैसे सूर्य्य में गर्मी, चन्द्र में शीतलता और वायु में गतिशीलता । दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहे का गोला स्थिर रहता है, उसी प्रकार पृथिवी भी अपनी धुरी पर रुकी हुई है ।

प्रश्न उपनिषद् में ऋषि पिप्पलाद ने कहा है-
पायूपस्थे - अपानम् ।
- प्रश्न उपनिषद् ३.४
पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्य० ।
    - प्रश्न उपनिषद ३.८
तथा पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता ... सैषा पुरुषस्य अपानवृत्तिम् आकृष्य.... अपकर्षेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते । अन्यथा हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाशे वा उद्गच्छेत् ।
-शांकर भाष्य, प्रश्न० ३.८
अर्थात- अपान वायु के द्वारा ही मल मूत्र नीचे आता है । पृथिवी अपने आकर्षण शक्ति के द्वारा ही मनुष्य को रोके हुए है, अन्यथा वह आकाश में उड़ जाता ।

गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के लिए ऋग्वेद के यह मन्त्र प्रसिद्ध है -
यदा ते हर्य्यता हरी वावृधाते दिवेदिवे ।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे ।।
ऋग्वेद अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ३
अर्थात - सब लोकों का सूर्य्य के साथ आकर्षण और सूर्य्य आदि लोकों का परमेश्वर के साथ आकर्षण है । इन्द्र जो वायु , इसमें ईश्वर के रचे आकर्षण, प्रकाश और बल आदि बड़े गुण हैं । उनसे सब लोकों का दिन दिन और क्षण क्षण के प्रति धारण, आकर्षण और प्रकाश होता है । इस हेतु से सब लोक अपनी अपनी कक्षा में चलते रहते हैं, इधर उधर विचल भी नहीं सकते ।
ऋग्वेद के अन्य मन्त्र में कहा है-
यदा सूर्य्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः ।
आदित्ते विश्वा भुवनानी येमिरे ।।३।। -ऋग्वेद अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ५
अर्थात - हे परमेश्वर ! जब उन सूर्य्यादि लोकों को आपने रचा और आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं और आप अपने सामर्थ्य से उनका धारण कर रहे हैं , इसी कारण सूर्य्य और पृथिवी आदि लोकों और अपने स्वरूप को धारण कर रहे हैं । इन सूर्य्य आदि लोकों का सब लोकों के साथ आकर्षण से धारण होता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर सब लोकों का आकर्षण और धारण कर रहा है।


वैदिक ग्रन्थों में वर्णित गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त न्यूटन के तथाकथित सिद्धान्त से आगे की बात भी बतलाते हैं । पतंजलि महाभाष्य, सादृश्य एवं आन्तर्य- १/१/५०में वर्णित आन्तर्य के सिद्धांत से शरीर के स्थूल और सूक्ष्म सभी तत्वों का विश्लेषण किया जा सकता है । इनमे सभी स्थूल द्रव्य आदि अपने-अपने क्षेत्र की ओर चले जाते हैं ,परन्तु प्रत्येक क्षेत्र का अनुभव करने वाला अर्चि कहाँ जाता है? उसे भी आन्तर्य सिद्धांत से कहीं जाना चाहिए। उसका भी कोई ब्रह्माण्ड और ठिकाना होना चाहिए, जहाँ वह ठहर सके। जब इस प्रकार का ध्यान किया जाता है तब एक ऐसी उपस्थिति का बोध होता है जो समय, ब्रह्माण्ड, और गति से भी परे होता है! वह कारण चेतना ही ब्रह्म है।

योग का उद्देश्य शरीरस्थ क्षेत्रज्ञ को उस कारण सत्ता में मिला देना है ।आन्तर्य सिद्धांत ध्यान की इसी स्थिति को सिद्ध करता है। इसीलिए इसे प्रतिगुरुत्वाकर्षण बल कहा जा सकता है, अर्थात मन को अन्य सभी विकारों का परित्याग कर केवल चेतना को चेतना से ही, प्रकाश को प्रकाश से ही मिलाने का अभ्यास करना चाहिए। इसी से पदार्थ से परे, राग-द्वेष से परे शुद्ध-बुद्ध, निरंजन आत्मा और परमात्मा की अनुभूति की जा सकती है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि न्यूटन से हजारों वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने अपने ग्रन्थ में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का उल्लेख किया है तथा ऋग्वेद में गुरुत्वाकर्षण का उल्लेख होने से यह भी प्रमाणित सत्य है कि सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व भारतीय गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से भली-भान्ति परिचित ही नहीं थे वरन न्यूटन के सिद्धांत से आगे की बात के अन्तः तक पहुँच चुके थे ।

Saturday, March 14, 2015

अनुपम कला है गोदना -अशोक "प्रवृद्ध"

राँची, झारखण्ड से प्रकाशित समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - - १४ / ०३ / २०१५ को प्रकाशित लेख - अनुपम कला है गोदना
राष्ट्रीय खबर , दिनांक- १४/३/२०१५ 


अनुपम कला है गोदना
-अशोक “प्रवृद्ध”

भारतवर्ष में चित्रकला की अत्यन्त प्राचीन समृद्ध और गौरवशाली परम्परा रही है। सहस्त्राब्दियों पुरानी यह परम्परा भारतीय गौरवमयी इतिहास को विशिष्टिता प्रदान करती है। कहा जाता है कि चित्रकला के बिना देश का इतिहास बिल्कुल भिन्न होता। इतिहास लिखे जाने से पहले ही इस चित्रकला ने इतिहास रचना में कारगर भूमिका निभाई थी। चित्रकला की इस समृद्ध गौरवमयी परम्परा में ही अभिन्न रूप से सन्निहित भारतीय आम जनजीवन से जुडी लोक संस्कृति एक अत्यन्त पुरातन सुन्दर, मनमोहक व अनुपम कला है गोदना । मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति सदैव से ही रही है कि वह विभिन्न तरीकों,  साधनों व उपायों से अपने शरीर को सजाता-संवारता है और अपने को लोगों की नज़रों में सुन्दर दिखने-दिखाने की कोशिश करता रहता है। शरीर को सजा-संवार कर सुन्दर दिखने के मनुष्य के उन्हीं साधनों में से एक है–गोदना कला। गोदना को अंग्रेजी में टैटू कहते हैं। झारखण्ड, छतीसगढ़ आदि प्रदेशों में शरीर को प्राकृतिक विधि से रंगने की इस कला गोदना को खोदा भी कहा जाता है ।गोदने की प्रथा न सिर्फ भारतवर्ष में बल्कि विदेशों यथा, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में भी प्राचीन काल से ही  चली आ रही है और आज इसका भारतवर्ष में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अच्छा-खासा प्रचलन और व्यवसाय कायम हो चुका है।
गोदना अर्थात खोदा प्रथा की शुरूआत कब और कैसे हुई,इसके बारे में अनेक पुरानी कहानियाँ सदियों से प्रचलित हैं, परन्तु इसका अनुमान प्राचीन साहित्य, कला, प्राचीन प्रथाओं-परम्पराओं के अध्ययन में गोदने  की उपस्थिति व उसके उपलब्ध विवरणों से लगाया जा सकता है। सनातन संस्कृति में वेद-उपनिषद ,रामायण, महाभारत,पुराण व अन्य पुरातन ग्रन्थों- साहित्यों और प्रतीकों, छवियों, मिथकों, किंवदंतियों और घटनाओं के सम्मिश्रण से भाbhaaaaरतवर्ष में एक अत्यन्त जीवन्त और बहुरंगी इतिहास का निर्माण हुआ। वक्त के भयावह थपेडों, विदेशी हमलों के बावजूद हमारी चित्रकला की परम्परा न सिर्फ पुष्पित-पल्लवत और जीवित रही, बल्कि लगातार समृद्ध भी होती गई है।आदिकाल से ही मानव अपने सौंदर्य के प्रति सचेत रहा है, सुन्दर और दूसरों से अलग, विशिष्ट दिखने की चाह में स्त्रीद-पुरुष अपने शरीर पर विविध आकृतियों की गोदना गुदवाया करते थे।यह उनके जीवन का अहम अंग रहा है। बाद में इसी के आधार पर कई जातियों और जनजातियों को पहचाना जाने लगा जो आज भी कायम है और इन्हें इनके खास गोदने से ही पहचाना जाता था। गोदने का अंकन भाल पर बहुत प्राचीन समय से किया जाता रहा है,जिसे देखकर उस जनजाति की पहचान किया जाता है।अंधविश्वासों से उपजी इस कला का रूप, पुरातन मान्यताएँ आज भी बरकरार हैं, जिसका विवरण हमें मिथकों,प्रतीकों, किम्बदन्तियों ,लोक गीतों, किस्से-कहानियों में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में देखने-सुनने को मिलता है।
 वर्तमान में कुछ ग्रामीण व शहरी पुरुषों को अपने हाथों में अपना नाम, घड़ी, शेर, कोबरा, बिच्छू, श्रीहनुमान अन्य धार्मिक प्रतीक चिह्न आदि के चित्र गुदवाए देखा जा सकता है, और अब तो कुछ महिलाओं के भी विविध अंगों पर भान्ति-भान्ति के गोदना गुदवाने की कथाएँ बड़ी प्रचलित होने लगी हैं और बड़े ही चटखारे के देखी-सुनी जाती हैं परन्तु प्राचीन काल में वीर पुरूष, योद्धा स्वयं को कठोर, भयानक दिखाने के लिए भान्ति-भान्ति के गोदनों का प्रयोग करते थे। पुरातन ग्रन्थों में प्राचीन भारतवर्ष की सांग्रामिकता से सम्बंधित विवरणों के अध्ययन से स्पष्ट होता है गोदना प्रथा अत्यन्त प्राचीन काल से सौंदर्य वर्द्धन के साथ ही ऐयारी अर्थात जासूसी, गुप्तचरी आदि कई विविध प्रयोगों में कुशलता से प्रयोग में लायी जाती है और प्राचीन काल में इस कला से जासूसी की जाती थी और रहस्यमयी गुप्त संदेश भेजे जाते थे। पुराण और और बाद के कुछ प्राचीन ग्रंथीय विवरणों के अनुसार पहले जासूस का सिर मुड़कर उस पर गोदना गोदने की कला से गुप्त संदेश लिख दिया जाता था और फिर बाद में उसे बाल आने पर जासूसी करने के लिए भेजा जाता था। आधुनिक विवरणों के अनुसार वर्षों पहले विश्व में इस कला के असली प्रमाण ईसा से १३००  वर्ष पूर्व मिस्र में, तथा ३०० वर्ष ईसा पूर्व साइबेरिया के कब्रिस्तान में मिले हैं।भारतवर्ष की विभिन्न प्रदेशों में रहने वाली अनेक जनजाति और हिन्दू समाज में यह गोदना प्रथा प्राचीन काल से ही प्रचलित है।

भारतवर्ष के जातीय व जनजातीय समुदाय की परम्परा न केवल आकर्षक,मनमोहक व रोचक है, बल्कि उनमें विविधता व रंगीनियाँ भी है। गोदना कला की गहराई से अध्ययन से पत्ता चलता है कि जनजातीय समुदाय के लोग अपनी इच्छानुसार शरीर के विभिन्न हिस्सों पर प्राकृतिक विधि से चित्र अंकित कराते हैं जो बहुत प्रयत्न किए जाने बाद भी नहीं मिटता है। यह उनकी परम्परा भी है और काफी हद तक इससे उनकी कई सामाजिक, धार्मिक व सामुदायिक मान्यतायें भी जुड़ी हुई हैं। भारतवर्ष के जनजातीय समुदाय का मानना है कि गोदना एक ऐसी अलौकिक श्रृंगार है, जो जन्म से मृत्यु तक साथ रहता है। मरने के बाद परलोक में मृतक के वैतरणी पार करने के समय आने वाली मुश्किलों, यातनाओं से रक्षा करता है। मृतक व्यक्ति के तन से सारे जेवर उतारे जा सकते हैं, लेकिन एक गोदना है जो नहीं उतारा जा सकता। यह कहावत झारखण्ड की खड़िया, संथाल आदि जनजाति में प्रचलित है कि मरने पर सब गहने उतार लिये जाते हैं, परन्तु गोदना अर्थात खोदा दूसरी दुनिया तक साथ जाती है।

झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की कुछ जनजातियों में यह माना जाता है कि गोदना गुदवाये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। गोंडवाना समाज में यह मान्यता है कि गोदना कला जीवन के अन्तिम समय तक शरीर में मौजूद रहती है और आत्मा के साथ मिल जाती है। कुछ जनजातियों का यह मानना है कि गोदना के कारण आत्मायें क्षति नहीं पहुँचा सकती। भीलों की मान्यता है कि शरीर को इससे कई बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है। वही गोंड जनजाति की मान्यता है कि इसे कोई चुरा नहीं सकता। गोंड जनजाति गोदना को काला कुत्ता की भान्ति मानते हैं। काला कुत्ते को समाज बहुत अशुभ मानता है और उसे कोई चुराता नहीं, उसी प्रकार जिस शरीर में गोदना का चिन्ह अंकित है, उसे कोई नहीं चुरायेगा। गोदना के साथ शारीरिक सक्षमता को जोड़ा जाता है। जैसे गोंड जनजाति के लोगों की यह मान्यता हैं कि जो बच्चा चल नहीं सकता, चलने में कमजोर है, उस के जाँघ के आस-पास गोदने से वह न सिर्फ चलने लगेगा, बल्कि दौड़ना भी आरम्भ कर देगा। भील यह मानते हैं कि गोदने के कारण शरीर बीमारियों से बच जाता है, मनुष्य स्वस्थ रहता है।गोदना को सर्वाधिक पसन्द करने वाले बैगा जनजाति के लोगों की धार्मिक, सामाजिक मान्यता है कि यह स्वर्ग में उनकी पहचान कायम रखता है। दुनिया में जो गोदना नहीं गुदवाते, उन्हें भगवान के सामने साबल से गोदना गुदवाना पडे़गा। जिस स्त्रीु के शरीर पर जितने ज्यादा गोदना होगा, उसे ससुराल में उतना ही सम्मान मिलता है। जिसके शरीर पर गोदना नहीं होता, उसका मायका गरीब माना जाता है।छत्तीसगढ़ के बस्तर की लोक संस्कृति में गोदना कला का बहुत महत्व है।यहाँ न केवल गोंड समाज, वरन माडिसा, मुरिया समाज व हिन्दू समाज में भी इसका प्रचलन है। यहाँ गाँवों में गोदना कला का प्रचलन है। गोदना के बिना यहाँ बेटियाँ ब्याही नहीं जाती।इसी प्रकार अफ्रीका में गोदना को व्यक्ति के विभिन्न गुणों के साथ जोड़ा जाता है।अगर किसी के शरीर में बहुत सारे गोदना के चिन्ह है तो वह व्यक्ति बहुत साहसी माना जाता है।गोदने की प्रथा में शरीर में बहुत व्यथा होती है,इसके बाद भी शरीर में गोदना गुदवाने के कारण ऐसे व्यक्ति को साहसी माना जाता है।
वर्तमानयुगीन शहरी महिलायें जहाँ चेहरे के तिलों, मुहांसों के दागों को हटवाकर चेहरे को सुन्दर, आकर्षक बनाने में संलग्न हैं, वही ग्रामीण व जनजातीय महिलायें शरीर के विभिन्न हिस्सों, जैसे- माथे की बिंदिया, गालों पर तिल, ठुडड़ी पर तिल, आंखों के दोनों किनारे दो आड़ी रेखाएँ, हाथों पर सुन्दर फूल, चाँद, तारे, सूरज, तोता, हिरण, मोर, बेल-बुटे, अपने किसी प्रिय का नाम, धार्मिक चिन्ह, पैरों पर आभूषण, फूलों के चित्र आदि आकृतियों का निर्माण कराती है  और शरीर को सुन्दर बनाने में ज्यादा बिश्वास करती हैं। उन्हें सोने-चाँदी के गहनों की तरह गोदना से भी लगाव होता है। यह भी स्मरणीय है कि ग्रामीण महिलायें अपने पति का नाम नहीं लेती, इसलिए अपने नाम के साथ पति का नाम अपने हाथ पर लिखवाकर अपने पति से मधुर सम्बंधों और भावनाओं का प्रदर्शन करती हैं।
लोक संस्कृति के प्रतीक के साथ ही कला के मनमोहक रूप गोदना कला का भारतीय संस्कृति में अपना अलग विशिष्ट महत्व है। समाज कोई भी हो, कला का स्थान हर तरह से समाज में रहता है। भारतवर्ष के विविध  समाजों में कला की कई परम्पराएँ पल्लवित-पुष्पित,संवर्द्धित और संरक्षित हुई हैं। एक समाज विशेष में उपजी गोदना कला सभी समाजों को संबोधित करती है। इसलिए, इसका वजूद कल भी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। भले ही इसका रूप क्यों न बदल जाये, लेकिन यह संस्कृति, परम्परा की प्रतीक हमेशा बनी रहेगी।फिर भी गोदना कला के संरक्षण-संवर्द्धन की महती आवश्यकता महसूस की जा रही है ।
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हिमाचलप्रदेश ,उत्तराखण्ड से प्रकाशित दिव्य हिमाचल के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- १९/४/२०१५ को प्रकाशित आलेख - पहचान और अभिव्यक्ति की अनूठी कला गोदना
दिव्य हिमाचल , दिनांक- १९/४/२०१५ 

Thursday, March 5, 2015

उल्लास का पर्व मदनोत्सव -अशोक "प्रवृद्ध"

राँची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - ०५/०३/२०१५ को प्रकाशित आलेख -उल्लास का पर्व मदनोत्सव


उल्लास का पर्व मदनोत्सव 
-अशोक "प्रवृद्ध"

भारतीय समाजशास्त्र में वर्ष के बारह महीनों को छः ऋतुओं में बाँटा गया है जिसमें प्रीति पूर्वक परस्पर सहसम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रत्येक जीव-जन्तु  के लिए भिन्न-भिन्न ऋतुएँ होती हैं,परन्तु मनुष्य के लिए ऋषियों ने वसन्त ऋतु को ही सर्वाधिक उपयुक्त मानकर वसन्तपञ्चमी के दिन इसके स्वागत पर उत्सव मनाने का भी संकेत दिया है।जाड़े की ऋतु के पश्चात वसन्त की शीतोष्ण वायु जैसे ही तन-मन का स्पर्श करती है, सम्पूर्ण मानवता शीत की ठिठुरन छोड़ कर आनन्द और प्रस्फुरण का अनुभव कर हर्षोल्लास मनाने लगती है। यही कारण है कि ऋतुओं का राजा वसन्त सदा से ही कवियों , साहित्यकारों और रसिकजनों का भी प्रिय विषय रहा है। वैदिक ग्रन्थों से लेकर वर्तमानयुगीन साहित्यों में अर्थात प्रत्येक युग के भारतीय साहित्य में वसन्त के आनन्द, उत्प्रेरण और मनबहलावों का मनोरंजक वर्णन अंकित मिलता है। संस्कृत के प्राय: समस्त काव्यों, नाटकों, कथाओं में कहीं न कहीं वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव का वर्णन अवश्य ही अंकित मिलता है।पुरातन साहित्यों के अनुसार प्राचीन काल में वसन्त में वन विहार, झूला दोलन  (झूले पर झूलना), फूलों का श्रृंगार और मदन उत्सव मनाने की अदभुत परम्परा थी। भारतीय पुरातन ग्रन्थ इस बात का भरपूर प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि प्राचीनकाल से ही हमारे देश में वसन्तोत्सव, जिसे कि मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है, मनाने की अद्भुत, विशाल और मनमोहक परम्परा रही है। प्राचीनकाल में वसन्तोत्सव का दिन कामदेव के पूजन का दिन होता था और वसन्तपञ्चमी के बाद पूरे दो महीने तक वसन्तोत्सव अर्थात मदनोत्सव का कार्यक्रम चलता रहता था।आज भी भारतवर्ष का मौसम इस समय अर्थात वसन्त काल में इसी रंग में रंगा नजर आता रहता है, जो वास्तव में प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही मौसम होता है। होली का उत्सव इसका चरमबिन्दु है, जब रस के रसिया का एकाकार हो जाता है। वसन्त काम का सहचर है , इसीलिए भारतवर्ष में वसन्त ऋतु में मदनोत्सव मनाने का विधान है।पुरातन काल से ही भारतवर्ष में काम को निकृष्ट नहीं मानकर दैवी स्वरूप प्रदान कर उसे कामदेव के रूप में मान्यता दी गई है। यदि काम इतना विकृत होता तो भगवान शिव अपनी क्रोधाग्नि में काम को भस्म करने के बाद उसे अनंग रूप में पुनः क्यों जीवित करते ? इसका अर्थ यह है कि काम  का साहचर्य उत्सव मनाने योग्य है। जब तक वह मर्यादा में रहता है , उसे भगवान की विभूति माना जाता है,लेकिन जब और जैसे ही वह मर्यादा छोड़ देता है तो आत्मघाती बन जाता है , शिव का तीसरा नेत्र (विवेक) उसे भस्म कर देता है। भगवान शिव द्वारा किया गया काम-संहार मनुष्य को यही शिक्षा देता है ,समझाता है।

वेदों, उपनिषदों, पुराणों में काम के प्रति सहजता का एक भाव पाया जाता है। सम्पूर्ण पुरातन भारतीय साहित्य काम की सत्ता को स्वीकार करता है और जीवन में काम की महत्वपूर्ण भूमिका को मानकर जीवन जीने की सलाह देता है । पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि प्राचीन काल में वसन्तपञ्चमी का दिन मदनोत्सव और बसन्तोत्सव के रूप में मनाया जाता था। इस दिन स्त्रियाँ अपने पति की पूजा कामदेव के रूप में करती थीं ।वसन्तपञ्चमी  के दिन ही कामदेव और रति ने पहली बार मानव हदय में प्रेम एवं आकर्षण का संचार किया था और तभी से यह दिन वसन्तोत्सव तथा मदनोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। आनन्द,उल्लास और लोकानुरंजन के इस उत्सव को मदनोत्सव, वसन्तोत्सव, कामदेवोत्सव, कौमुदी महोत्सव, और शरदोत्सव आदि नामों से पुरातन साहित्य में अंकित किया गया है और इसमें काम और रति की पूजा का विधान है। कालिदास इसे ऋतु-उत्सव भी कहते हैं ।मदनोत्सव का अधिष्ठाता कामदेव को भारतीय शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है। उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वह विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वह इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, काम, विश्वकेतु,मन्मथ, मनसिजा (मनोज), मदन, प्रद्युमन, मीनकेतन, मकरध्वज,रतिपति, रतिनायक, दर्पक, पञ्चशर, स्मर, शंबरारि, कुसुमेषु, अनन्यज, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधन्वा आदि प्रसिद्ध हैं। यूनान में ये क्यूपिड है। कामदेव, हिंदू देवी श्रीलक्ष्मी के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का अवतार हैं। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण को भी माना जाता है। जिन्होंने रति के रूप में सोलह हजार पत्नियों से महारास रचाया था और व्रजमण्डल की सभी गोपियाँ उन पर न्यौछावर थीं।

भारतीय पुरातन साहित्य में कामदेव की कल्पना एक अत्यन्त रूपवान युवक के रूप में की गई है और ऋतुराज वसन्त को उसका मित्र माना गया है ।कामदेव के पास पाँच तरह के बाणों की कल्पना भी की गई है।य़ह हैं सफेद कमल, अशोक पुष्प, आम्रमंजरी, नवमल्लिका, और नीलकमल। वह तोते में बैठ कर भ्रमण करते हैं।कामदेव का धनुष प्रकृति के सबसे ज्यादा मजबूत उपादानों में से एक है।यह धनुष मनुष्य के काम में स्थिरता-चंचलता जैसे विरोधाभासी अलंकारों से युक्त है। इसीलिए इसका एक कोना स्थिरता का और एक कोना चंचलता का प्रतीक होता है। वसन्त, कामदेव का मित्र है इसलिए कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वर विहीन होती है अर्थात कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं, तो उसकी आवाज नहीं होती। इसका मतलब यह अर्थ भी समझा जाता है कि काम में शालीनता जरूरी है। तीर कामदेव का सबसे महत्वपूर्ण शस्त्र है। यह जिस किसी को बेधता है उसके पूर्व न तो आवाज करता है और न ही शिकार को सम्भलने का मौका देता है। इस तीर के तीन दिशाओं में तीन कोने होते हैं, जो क्रमश: तीन लोकों के प्रतीक माने गए हैं। इनमें एक कोना ब्रह्म के अधीन है, जो निर्माण का प्रतीक है। यह सृष्टि के निर्माण में सहायक होता है। दूसरा कोना विष्णु के अधीन है, जो ओंकार या उदर पूर्ति (पेट भरने) के लिए होता है। यह मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है। कामदेव के तीर का तीसरा कोना महेश (शिव) के अधीन होता है, जो मकार अर्थात मोक्ष का प्रतीक है। यह मनुष्य को मुक्ति का मार्ग बतलाता है, अर्थात काम न सिर्फ सृष्टि के निर्माण के लिए जरूरी है, प्रत्युत मनुष्य को कर्म का मार्ग बतलाने और अन्त में मोक्ष प्रदान करने का मार्ग भी  सुझाता है। कामदेव के धनुष का लक्ष्य विपरीत लिंगी होता है। इसी विपरीत लिंगी आकर्षण से बंधकर पूरी सृष्टि संचालित होती है। कामदेव का एक लक्ष्य स्वयं काम हैं, जिन्हें पुरुष माना गया है, जबकि दूसरा रति हैं जो स्त्री रूप में जानी जाती हैं। कवच सुरक्षा का प्रतीक है। कामदेव का रूप इतना बलशाली है कि यदि इसकी सुरक्षा नहीं की गई तो विप्लव ला सकता है। इसीलिए यह कवच कामदेव की सुरक्षा से निबद्ध है। यानी सुरक्षित काम प्राकृतिक व्यवहार केलिए आवश्यक माना गया है, ताकि सामाजिक बुराइयों और भयंकर बीमारियों को दूर रखा जा सके।
इतिहास कथाओं में कामदेव के नयन, भौं और माथे का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनके नयनों को बाण या तीर की संज्ञा दी गई है। शारीरिक रूप से नयनों का प्रतीकार्थ ठीक उनके शस्त्र तीर के समान माना गया है। उनकी भवों को कमान का संज्ञा दी गई है। ये शान्त होती हैं, लेकिन इशारों में ही अपनी बात कह जाती हैं। इन्हें किसी संग या सहारे की भी आवश्यकता नहीं होती। कामदेव का माथा धनुष के समान है, जो अपने भीतर चंचलता समेटे होता है, लेकिन यह पूर्णरूपेण स्थिर होता है। माथा पूरे शरीर का सर्वोच्च हिस्सा है, यह दिशा-निर्देश देता है।
हाथी को कामदेव का वाहन माना गया है। वैसे कुछ शास्त्रों में कामदेव को तोते पर बैठे हुए भी बताया गया है, लेकिन इसे मूल अवधारणा में शामिल नहीं किया गया है। प्रकृति में हाथी एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो चारों दिशाओं में स्वच्छन्द विचरण करता है। मादक चाल से चलने वाला हाथी तीन दिशाओं में देख सकता है और पीछे की तरफ हल्की सी भी आहट आने पर सम्भल सकता है। हाथी कानों से हर तरफ की ध्वनि सुन सकता है और अपनी सूँढ़ से चारों दिशाओं में वार कर सकता है। ठीक इसी प्रकार कामदेव का चरित्र भी भारतीय पुरातन शास्त्रों में देखने में आता है। ये स्वच्छन्द रूप से चारों दिशाओं में घूमते हैं और किसी भी दिशा में तीर छोड़ने को तत्पर रहते हैं। कामदेव किसी भी तरह के स्वर को शीघ्र ही भाँपने कि क्षमता अर्थात  माद्दा भी रखते हैं।
संस्कृत की कई प्राचीन ग्रन्थों में कामदेव के उत्सवों का उल्लेख अंकित मिलता है।इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतवर्ष में वसन्त ऋतु उत्सवों का काल हुआ करता था । कालिदास ने अपनी सभी कृतियों में वसन्त और वसन्तोत्सवों का व्यापक वर्णन किया है । ऐसे ही एक उत्सव का नाम था मदनोत्सव अर्थात प्रेम प्रर्दशन का उत्सव।यह कई दिनों तक चलता था ।राजा अपने महल में सबसे ऊंचे स्थान पर बैठ कर उल्लास का आनन्द लेता था । इसमें कामदेव के वाणों से आहत सुन्दरियाँ मादक नृत्य किया करती थीं। गुलाल व रंगों से पूरा माहैल रंगीन हो जाया करता था । सभी नागरिक आँगन में नाचते गाते और पिचकारियों से एक-दूसरे पर रंग फेकते। इसके लिए कालिदास के कुमारसम्भवम में श्रंगक शब्द का इस्तेमाल हुआ है।  नगरवासियों के शरीर पर शोभायामान स्वर्ण आभूषण और सिर पर धारण किए हुए अशोक के लाल फूल इस सुनहरी आभा को और भी अधिक बढ़ा देते थे । युवतियाँ भी इसमें शामिल हुआ करती थीं इस जल क्रीड़ा में वह सिहर उठतीं (श्रंगक जल प्रहार मुक्तसीत्कार मनोहरं ) महाकवि कालिदास के कुमारसम्भवम में ही कामदेव से संबधित एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है ।इस कथा के अनुसार भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था तब कामदेव की पत्नी रति ने जो मर्मस्पर्शी विलाप किया उसका बड़ा ही जीवंत वर्णन इसमें अंकित मिलता है।अशोक वृक्ष के नीचे रखी कामदेव की मूर्ति की पूजा का भी उल्लेख मिलता है । सुन्दर कन्याओं के लिए तो कामदेव प्रिय देवता थे । कालिदास की रत्नावली में भी यह उल्लेख है कि अंत;पुर की परिचारिकायें हाथों में आम्रमंजरी लेकर नाचती गाती थीं ।यह इतनी अधिक क्रीड़ा करती थीं लगता था मानो इनके स्तन भार से इनकी पतली कमर टूट ही जायेगी। मदनोत्सव का वर्णन कालिदास ने विषद रूप में अपने ग्रन्थों में किया है । ऋतुसंहार के षष्ठ सर्ग में कालिदास ने बसन्त का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है । कुछ उदाहरण देखिए-
इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों की मदमाती आंखों की चंचलता में, उनके गालों में पीलापन, कमर में गहरापन और नितंबों में  मोटापा बनकर बैठ जाता है। काम से स्त्रियां अलसा जाती हैं । मद से चलना बोलना भी कठिन हो जाता है और टेढ़ी भौंहों से चितवन कटीली जान पड़ती है। मदनोत्सव ही बाद में शांति निकेतन में गुरूदेव के सान्निध्य में दोलोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा । कामदेव के पुजारियों के अनुसार कृष्ण ने रासलीला के रूप में इस उत्सव को एक नया आयाम दिया । हर गोरी राधा बन गयी हैं ।

भवभूति के श्मालती-माधव के अनुसार वसन्तोत्सव मनाने के लिए विशेष मदनोत्सव बनाया जाता था जिसके केन्द्र में कामदेव का मन्दिर होता था। इसी मदनोत्सव में सभी स्त्री-पुरुष एकत्र होते, फूल चुनकर हार बनाते, एक-दूसरे पर अबीर-कुमकुम डालते और नृत्य संगीत आदि का आयोजन करते थे। बाद में वह सभी मन्दिर जाकर कामदेव की पूजा करते थे।संस्कृत साहित्य के नाटक भास के चारूदत्त में भी इसी प्रकार के एक उत्सव का उल्लेख मिलता है ।इसमें कामदेव का एक भव्य जुलूस गाजे-बाजों के साथ निकाला जाता था जिसमें कामदेव के एक चित्र के साथ संगीत नृत्य करते हुए अनेक नागरिक सम्मिलित होते हैं। यहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि गणिका वसन्तसेना की नायक चारूदत्त से पहली मुलाकात कामोत्सव के समय ही हुई थी। इसी प्रकार मृच्छकटिकम् नाटक में भी वसन्तसेना इसी प्रकार के जुलूस में भाग लेती है । एक अन्य पुस्तक वर्ष-क्रिया कौमुदी के अनुसार इसी त्योहार में सुबह गाने-बजाने, कीचड़ फेंकने के कार्य संपन्न किये जाते हैं । सायंकाल सज्जित होकर लोग मित्रों से मिलते हैं । धम्मपद के अनुसार महामूर्खों का मेला मनाया जाता है । सात दिनों तक गालियों का आदान-प्रदान किया जाता था । भविष्य पुराण के अनुसार बसन्त काल में कामदेव और रति की मूर्तियों की स्थापना और पूजा-अर्चना की जाती है । रत्नावली नामक पुस्तक में मदनपूजा का विषद वर्णन मिलता है । हर्ष चरित में भी मदनोत्सव का वर्णन मिलता है।दशकुमार चरित्र नामक पुस्तक में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है । इस त्योहार पर राजा और आम नागरिक सभी बराबर है।संस्कृत की पुस्तक कुट्टनीमतम् में भी गणिका और वेश्याओं के साथ मदनोत्सव मनाने का विषद वर्णन है।

अवदान कल्पलता नामक ग्रंथ में वाराणसी के राजा कलभु के सपरिवार वसन्तकालीन-विहार और वन केलि का वर्णन है। इसमें कहा गया है कि वह देर तक क्रीडा कौतुक कर, थक कर सो गया। इसी बीच उसकी प्रिय रानी मंजरी फूल तोड़ती हुई दूर निकल गयी। वहाँ महामुनि क्षांतिवादिन तपस्या कर रहे थे। उन्हें देख कर वह ठगी-सी रह गई। तभी राजा उसे ढूँढता हुआ वहाँ आ पहुँचा और रानी को उस अवस्था में देखकर क्रोध से पागल हो गया। उसने मुनि के हाथ पैर कटवा दिए। फलस्वरूप राज्य में भारी अकाल पड़ा। बाद में मुनि ने राजा को इस आपत्ति से उबारा।संस्कृत के एक ग्रन्थ पिण्ड नियुक्ति में चन्द्रानना नगरी के राजा चन्द्रवतंस के वसन्त विहार के सम्बन्ध में एक रोचक कथा मिलती है। नगरी के पूर्व तथा पश्चिम में सूर्योदय तथा चन्द्रोदय नामक दो बगीचे थे। राजा ने वसन्त काल में क्रीडा कौतुक के अभिप्राय से सूर्योदय उद्यान में विहार का निश्चय कर के घोषणा करवाई कि उस दिन नागरिक सूर्योदय उद्यान में न जाएँ। सूर्योदय उद्यान पर पहरे लगा दिए गए। रात में अचानक राजा को प्रात:कालीन धूप का ख्याल आया अत: यात्रा का कार्यक्रम सूर्योदय उद्यान के स्थान पर चन्द्रोदय उद्यान में परिवर्तित कर दिया गया। चन्द्रोदय उद्यान में अन्तःपुर की रानियों को राजा के साथ क्रीडा कौतुक करते हुए अनजाने ही अनेक नागरिकों ने देख लिया। इन नागरिकों को पहरेदारों ने पकड़ लिया। दूसरी ओर कुछ नागरिक जो पहले ही सूर्योदय उद्यान में राजा के क्रीडा कौतुक को देखने जा छिपे थे, वे भी पकड़ लिए गए। अन्त में जिन्होंने राजाज्ञा का उल्लंघन किया था वे दण्डित किए गए, शेष छोड़ दिए गए।

जातक ग्रन्थों में राजा शुद्धोदन की रानियों द्वारा लुम्बिनी उद्यान में शालभंजिका पर्व मनाने का बड़ा जीवन्त और सुन्दर वर्णन है। कपिलवस्तु और देवदह नगरों के मध्य सघन शालवन में वसन्त के स्पर्श के कारण प्रत्येक पत्र और पुष्प में सिहरन हो रही थी। हर शाख नवपल्लवित किसलय व पुष्पों से झुक गई थी। ऐसा मोहक दृश्य देख देवियाँ रह न सकीं और महादेवी सहेलियों सहित वसन्त विहार को निकल पड़ीं। एक मंगलमय शाल वृक्ष की टहनी को पकड़ने के लिए उन्होंने हाथ उठाया तो वह टहनी स्वयं ही झुक गई। महादेवी ने उसे थाम लिया। ऐसी अवस्था में महादेवी को प्रसव पीड़ा का अनुभव हुआ।शिशुपाल वध महाकाव्य में रैवतक पर्वत पर यादवों की वन केलि का खूब विस्तृत वर्णन है। प्राकृत भाषा के नाया धम्म कहाओ नामक ग्रन्थ में चम्पानगरी के दो संपन्न व्यापारी पुत्रों जिनदत्त और सागर दत्त की देवदत्ता नामक अत्यन्त सुन्दर और सम्पन्न गणिका के साथ उद्यान यात्रा का विस्तृत व श्रृंगारिक वर्णन है।पद्मचूड़ामणि में कुमार गौतम की रनिवास सहित उद्यान यात्रा का मनोरम वर्णन मिलता है। संक्षेप में मन बहलाव के लिये स्त्रियाँ कभी फूल पत्तियाँ चुनतीं, कभी उनके गहने बनातीं, कभी अशोक पर पैरों से प्रहार करतीं और कभी मौलश्री पर सुरा के कुल्ले करतीं। कभी केशों को फूलों से सजातीं, आम की कोपलें तोड़तीं, शेफाली और सिंदुवार के तिलक लगातीं ओर कभी प्रियतम के कानों में फूल खोंस कर उसे हृदय से लगातीं।

जैनियों के ग्रन्थ जैन हरिवंश का कथन है कि उद्यान यात्राएँ वन विहार और सैर सपाटे प्राय: वसन्त काल में ही होते थे, जबकि स्त्री-पुरुष एक साथ एकत्र होकर मद्यपान करते थे। फूलों को चुनने और सजाने से संबंधित अनेक प्रकार के वसन्तकालीन मनोरंजन भारतीय साहित्य में मिलते हैं। जैनहरिवंश  में लिखा गया है कि झूलते समय नागरिक हिंदोल राग गाते थे। जैनों के उत्तर पुराण में वसन्तकाल में झूले पर झूल कर मन बहलाने का वर्णन मिलता है।
कालिदास के मालविकाग्निमित्र  नाटक में महादेवी धारिणी ने मालविका को पाँव के प्रहार से अशोक वृक्ष को पल्लवित कुसुमित करने का कार्य सौंपा और सफल हो जाने पर मुँह माँगा पुरस्कार देने का वचन दिया।बाणभट्ट की कादम्बरी नामक ग्रन्थ में कादम्बरी अपनी सखियों से कहती है कि जिस अशोक वृक्ष को लात मार कर मैंने पाला था उसकी कोपलें कोई न तोड़े।पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कुंकुम क्रीडा का वर्णन हुआ है। कश्मीर की प्रशंसा में कहा गया है कि केसर की प्रचुर उपज होने के कारण वहाँ घर के आँगनों में केसर इस प्रकार उड़ता है कि उनसे सूर्य और चन्द्रमण्डल भी लाल हो जाते हैं।कुमार पाल चरित में दोला उत्सव का सजीव और श्रृंगारिक वर्णन इस प्रकार किया गया है - एक ही झूले पर बैठ कर पति पत्नी बेधड़क गीत गा रहे थे। स्त्रियाँ मदमत्त थीं, उनके नूपुर झूले की गति के साथ बज रहे थे। जब कभी वे अपने पैरों से अशोक वृक्षों को छू देतीं उनकी कलियाँ खिलने लगतीं।

संस्कृत साहित्य में माघ शुक्ला पञ्चमी को मदनोत्सव के रूप में मनाए जाने के सुन्दर वर्णन मिलते हैं। श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका में मदनोत्सव का बड़ा ही सजीव वर्णन अंकित है। नागरिकों ने इतना अधिक सुगन्धित केसर और कुंकुम बिखराया कि सम्पूर्ण नगर सोने सा पीला हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि छठी शताब्दी से पूर्व उत्तर भारत में मदनोत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा था। इसको मनाते समय लोग वय, लिंग और सामाजिक स्थिति को भुला देते थे। केशों को पुष्पों से सजा कर वे हल्दी चावल और कुंकुम का चूर्ण बिखराते तथा रंग खेलते।राजशेखर की काव्यमीमांसा और भोजराज के सरस्वती कण्ठाभरण में माघ शुक्ला पञ्चमी के दिन मनाए जाने वाले सुवसंतक या मदनोत्सव का उल्लेख मिलता है। इन वर्णनों में पिचकारी से रंग डालने और कीचड़ फेंकने के वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान होली जैसा उत्सव वसन्तपञ्चमी से ही प्रारम्भ हो जाता था और तब से रंग और गुलाल का यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा तक अनवरत चलता रहता था।

सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विषद वर्णन किया है ।नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विषद और रोचक वर्णन किया गया है । वाल्मीकि रामायण में भी वसन्तोत्सव का वर्णन मिलता है । दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवष्यक ऋतुओं को बताया है । पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति । वासवदत्ता नामक नाटक में सुबन्धु ने वसन्त के आगमन की खुषी में राजा उदयन तथा राजकुमारी वासवदत्ता के माध्यम से वसन्तोत्सव का वर्णन किया है । राजशेखर की काव्य-मीमांसा में भी ऋतु वर्णन है । यदि इस अवसर पर झूले डाले जाएं तो महिलायें झूलकर शान्त हो जाती है ।संस्कृत के अन्य ग्रन्थों में इन अवसरों पर हास-परिहास, नाटक, स्वांग, लोक नृत्य, गीत आदि के आयोजनों का भी वर्णन किया है । रास नृत्य का भी वर्णन है । गायन, हास्य, मादक द्रव्य और नाचती गाती, खेलती, इठलाती रूपवती महिलायें और सीमित समय । जो समय सीमा से मर्यादित था । सबसे बड़ी बात यह है कि निष्छल-स्वभाव और आनंद था । आज की तरह कामुकता का भौंडा प्रदर्षन नहीं ।

मदनोत्सव का वर्णन केवल साहित्यिक कृतियों में ही अंकित मिलता हो ऐसा नहीं है वरन  मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि के माध्यमों से भी कामोत्सव का वर्णन किया जाता था । ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ही इस प्रकार की मूर्तियों के निर्माण की जानकारी प्राप्त होती है । विभिन्न  पुराणों के अनुसार बहुत प्राचीन काल की बात है जिस समय भगवान शंकर तपस्यासन पर थे, उस समय उनको अपने सत्पथ से विचलित करने के लिए राजाधिराज सम्राट इन्द्र को विशेष चिन्ता हुई । अपने स्वार्थ-साधन के लिए उन्होंने कामदेव से मिलकर शिवजी के तपोमंग का जाल रचा तथा कनक और कामिनी की विकार-संचारी मोहिनी का उपयोग किया ।  देवताओं के कहने पर कामदेव ने जब शंकर की तपस्या भंग करनी चाही तो उन्होंने तृतीय नेत्र खोलकर अग्नि तेजस उत्पन्न किया और उससे  कामदेव जलकर भस्म हो गया था , परन्तु काम की महता और कामदेव की पत्नी रति के रूदन ,अनुनय-विनय व देवताओं के कहने पर शंकर ने कामदेव को पुनः अनंग रूप में जिन्दा कर दिया ।माना जाता है कि भगवान शंकर के द्वारा तृतीय नेत्र खोलने पर भस्म हो गए कामदेव का पुनर्जन्म तथा उनकी पत्नी रति के साथ पुनः मिलन हुआ था।वह स्थान असम में है और गुवाहाटी से लगभग चालीस किलोमीटर दूर, राष्ट्रीय राजमार्ग ५२ पर अवस्थित है जहाँ मदन- कामदेव का मन्दिर स्थित है जहाँ की आंशिक रूप ध्वस्त हो चुकी मूर्तियाँ कामदेव तथा उनकी पत्नी रति की कथा को आज भी जीवन्त बना रही हैं। असम के खजुराहो के नाम से प्रसिद्ध इस  मदन कामदेव मन्दिर के विषय में कम लोग ही जानते हैं क्योंकि यह मन्दिर सघन वन के भीतर वृक्षों से छुपा हुआ है। यह मन्दिर खजुराहो और कोणार्क के मन्दिरों की शैली में बना हुआ है। असम के पुरातत्व विभाग के अनुसार इस मन्दिर का निर्माण 10वी से 12वीं शताब्दी के मध्य हुआ था।उड़ीसा स्थित कोणार्क सूर्य मन्दिर और खजुराहो की गुफाओं में उत्कीर्ण काम कलाओं की मूर्तियां तो जगविख्यात ही हैं । राधा-कृष्ण के प्रेम के चित्र तथा होली और वसन्तोत्सव के चित्र मन को मोहते हैं । इसी प्रकार बाद के काल में मुगल शासन के दौरान भी चित्र कलाओं में श्रृंगार प्रधान विषय रहा है । उस जमाने में हर रात वसन्त थी और यह सब चलता रहा, जो अब जाकर होलिका या होली बन गया ।
वास्तव में काम सम्पूर्ण पुरूषार्थों में श्रेष्ठ है । प्रत्येक नर कामदेव और प्रत्येक नारी रति है । आधुनिक स्त्री-पुरूषों के सम्बन्धों के व्याख्याता शायद इस ओर ध्यान देंगे कि आखिर बीच में कौन-सा समय ऐसा आया जब काम अर्थात सेक्स के प्रति मानवीय आकर्षण को सामाजिक वर्जनाओं के अन्तर्गत एक प्रतिबन्धित वस्तु मान लिया गया और उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त व्यवहार का स्थान व्यभिचार, यौनाचार और कुण्ठाओं ने ले लिया ?भारतीय पुरातन ग्रंथों के अनुसार कामदेव की उपासना नहीं करने से कामदेव के शाप के कारण जीवन नरक हो जाता है । जीवन की कला (काम-कला) के विषद और प्रामाणिक ग्रन्थ  महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र अर्थात कामशास्त्र भी अमूल्य भारतीय धरोहर है । कुमारसम्भवम  में काम कलाओं का विषद वर्णन अंकित मिलता है,जो वसन्तोत्सव, मदनोत्सव अथवा शरदोत्सव या ऋतु उत्सव को दर्शाता है ।

बहरहाल कामदेव से जुड़े तमाम उत्सव अतीत का हिस्सा बन चुके हैं और समय के साथ सौंदर्य और मादक उल्लास के इस वसन्तउत्सव का स्वरूप बहुत बदल गया है । अब इस शालीनता का स्थान फुहड़ता ने ले लिया है ।अब कोई किसी से प्रणय निवेदन नही वरन जोर जबरदस्ती करता है और प्यार न मिलने पर चेहरा व शरीर जलाने के लिए अम्ल अर्थात एसिड फेकता है । आज प्रेम अर्थात प्यार सिर्फ दैहिक आकर्षण की वस्तु बन कर रह गया है । कामदेव के पुष्पवाणों से निकली मादकता, उमंग, उल्लास और मस्ती की रसधारा न जाने कहां खो गई।आधुनिक काल में होली का स्वरूप भले ही बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।

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