राँची झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - २६ / ०१ / २०१५ को प्रकाशित आलेख - विद्वानों के लिये समाज में स्थान सुरक्षित हो
विद्वानों के लिये समाज में स्थान सुरक्षित हो
- अशोक “प्रवृद्ध”
स्थूल रूप में ज्ञान को दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक है आधारभूत ज्ञान अर्थात फण्डामेण्टल साइंस और दूसरा है तकनीकी ज्ञानlआधारभूत ज्ञान में उन सिद्धान्तों का ज्ञान है जिनके अनुसार जगत की रचना होती हैlइसे वैदिक भाषा में ज्ञान,परब्रह्म का ज्ञान अथवा केवल परम का ज्ञान कहते हैंlदूसरी प्रकार का ज्ञान है जो उन आधारभूत सिद्धान्तों के प्रयोग से मनुष्य की सुख-सुविधा के लिये साधन निर्माण करता है,इसे तकनीकी कहते हैंl
आधारभूत ज्ञान अर्थात पहले परम का ज्ञान तो केवल विद्वानों द्वारा विद्वानों को जो कि राज्य तथा राज्य के नियमों से सर्वथा स्वतंत्र हों,जीवन और कार्य में लाने के योग्य हैंlइसके प्रसारण तथा इसमें अन्वेषण का अधिकार केवल मात्र जाति अर्थात राष्ट्र के विद्वानों को ही होना चाहियेlआधारभूत ज्ञान है सृष्टि रचना का इतिहास,इसमें कारण और उसके कार्य अर्थात इसके होने की प्रक्रिया,साथ ही उन प्राकृतिक शक्तियों का ज्ञान जिसमें जिनसे इस जगत की रचना सम्पन्न हुयीlवैभारतीय पुरातन शास्त्रों के अनुसार यह राज्य के कार्य का विषय नहीं हैlकारण यह है कि सृष्टि रचना में अनेक महान शक्तियाँ कार्यरत होती हैंlउनका ज्ञान राज्याधिकारियों के हाथ में देना ठीक नहीं क्योंकि राज्याधिकारी मूलतया क्षत्रिय प्रकृति के होते हैं ब्राह्मण प्रकृति के नहींlसृष्टि रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का अतिन्यून सा अंश भी यदि किसी राज्य अथवा राज्याधिकारी के अधिकार में होगा तो वह उस शक्ति के आश्रय समस्त संसार को अपनी अँगुलियों पर नचाने का यत्न करेगाlवर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या यही बनी हुयी है कि सृष्टि-रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का एक अंश भूमण्डल के कुछ राज्यों के अधीन हो गया है और अब तो यह भी दावे के साथ कहा जा रहा है कि कुछ आततायी आतंकवादी संगठनों यथा,अलकायदा, आई एस आई एस आदि कट्टर इस्लामी संगठनों के पास भी सृष्टि-रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का अंश उपलब्ध है जिससे वे संसार मे कभी भी किसी अनहोनी को अंजाम देने की क्षमता रखते हैंlअतः इसमें यह समान विधि-विधान होना चाहिये कि प्रकृति की आधारभूत शक्तियों का ज्ञान,उनमें खोज करने का अधिकार और उनपर नियन्त्रण राज्यों का न होlराज्यों को इसके समीप फटकना भी नहीं चाहियेlइस ईश्वरीय सकती के अतिरिक्त भी आधारभूत ज्ञान हैंlउदहारण के रूप में प्राणी की उत्पत्तिlमनुष्य ने इस ज्ञान को पर्याप्त रूप में प्राप्त किया हैlवर्तमान में भी वह अनथक प्रयत्न कर रहा है कि किसी प्रकार वह प्राणी के रचना के ज्ञान को प्राप्त कर सकेlसृष्टि रचना का ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार मानव को है,परन्तु अधिकार तो योग्यता के अनुरूप ही होना चाहिये नlअयोग्य अथवा बुद्धिविहीन व्यक्ति को कुछ भी अधिकार नहीं मिलना चाहियेlराज्य तो क्षत्रिय स्वभाव वालों की क्रीड़ा-भूमि होता हैlक्षत्रिय स्वभाव वाले राजसी बुद्धि के होते हैंlराजसी बुद्धि के लक्षण के संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-
यथा धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव चl
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसीll
-श्रीमद्भगवतगीता – १८ -३१
अर्थात-जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को कार्य और अकार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता वह बुद्धि राजसी हैl
राज्य कार्य में प्रायः इस बुद्धि के लोगों का प्रभुत्व होता हैlयदि कभी कोई सात्विकी बुद्धि वाला व्यक्ति वहाँ पहुँच भी जाये तो प्रायः वह राजकार्य में सफल नहीं हो पाताlवर्तमान संसार में विषमता का कारण ही यही है कि राज्य ने बुद्धियुक्त कार्य को अपने अधीन कर लिया हैlआज के किसी अल्प बुद्धिजीवी ने यह कह दिया कि राज्य प्रजातांत्रिक पद्धति का होना चाहिये, इससे राजसी प्रकृत्ति के लोग जनसाधारण के अधीन होने से संसार में सुख और शान्ति व्याप्त हो जायेगी, किन्तु बात इसके सर्वथा विपरीत हुयी हैlआज संसार में सुख और शान्ति सर्वथा विलुप्त सी हो गयी हैlसंसार के सभी राज्य अपनी बुद्धिविहीन नीति को चालू रखने के लिये दूसरों को धोखा देने का यत्न कर रहे हैं,परन्तु यह भी सोचने की बात है कि क्या उनको इसमें भी सफलता मिल रही है?प्रजातांत्रिक राज्य के कतिपय गुणों से इनकार नहीं किया जा सकता,किन्तु जब तक इसके दोषों को दूर नहीं किया तब तक यह पद्धति सफल नहीं हो सकतीlसमानता प्रजातान्त्रिक पद्धत्ति का मुख्य दोष हैlप्रजातंत्र में सब धन बाईस पसेरी होता हैlउसका परिणाम यह होता है कि धूर्तों की बन आती हैlधूर्त बलशालियों से समझौता करके प्रजातंत्र के स्थान पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से तानाशाही ही स्थापित करते हैंlइसका एकमात्र कारण है प्रजातांत्रिक राज्य में विद्वानों को राज्याधीन रखनाlउच्च से उच्च कोटि का वैज्ञानिक,मीमांसक,गणितज्ञ आदि राज्य के कर्मचारी बना दिए गये हैंlउनको तो अब अपनी विद्वता पर भी अधिकार न रहा हैlयदि कोई विद्वान अपना अधिकार व्यक्त करता है तो उसे बन्दीगृह में भेज दिया जाता है अथवा उसे निपट निर्धनता एवं कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करने को विवश कर दिया जाता हैlयदि प्रजातान्त्रिक राज्य को अपना स्वत्व रखना है तो उसके लिये यह नितान्त आवश्यक है कि वह राष्ट्र कल्याण हेतु विद्वानों के लिये स्थान सुरक्षित करेlइसके लिये आधारभूत ज्ञान का संचालन राज्य से स्वतंत्र रखकर उसको विद्वानों के अधीन कर दिया जाना चाहियेlवैदिक ग्रन्थों के अनुसार विद्वानों की परख तो विद्वान ही कर सकते हैंlअर्थात विद्वानों का निर्माण उनको विद्वान पद देने और उनको सुरक्षित रखने का कार्य विद्वानों के हाथ में ही होना चाहियेlशनैः-शनैः समय पाकर विद्वान मण्डली एक क्षेत्र ही बन जायेगी,उसमें क्षत्रिय स्वभाव के लोग अर्थात राजसी प्रकृति के लोग हस्तक्षेप नहीं कर पायेंगेlअभिप्राय यह है कि ज्ञान का वह आधारभूत अंग विद्वानों के संरक्षण में रहना चाहियेlभारतीय इतिहास के पुरातन ग्रन्थों में में अंकित मिलता है कि पुरातन काल में क्षत्रिय लोग दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा अथवा इन्द्र के पास जाया करते थे तब वे प्रार्थी की परीक्षा करके उसके एक-दो अस्त्र दे दिया करते थे,परन्तु इसमें भी कभी-कभी भूल हो जाया करती थी जिसके परिणामस्वरूप रावण,मेघनाद,कर्ण प्रभृत्ति राजसी स्वभाव के लोगों को वे दिव्यास्त्र मिल जाया करते थेlपरन्तु यह कभी-कभी होता थाlसात्विकी बुद्धि वालों को शस्त्रास्त्र देकर दूसरों को नियन्त्रण में किया जाता थाlवर्तमान में भी कुछ ऐसा ही व्यवस्था किया जाना चाहिये जिससे कि प्रकृत्ति की दिव्य शक्तियाँ यदि कभी अविद्वानों को मिल जायें तो अधिकारी को वह अथवा उससे भी श्रेष्ठ शक्ति देकर दुष्ट को नियन्त्रण में रखा जा सकेlयह तभी सम्भव है जबकि संसार में एक ऐसा मंच का निर्माण किया जाये जो ज्ञानवानों के अधीन हो और उनके अधीन ही अपना कार्य चलायेlइस प्रकार यह स्पष्ट है कि ज्ञान=विज्ञान और उसके प्रयोग पर केवल विद्वानों का ही नियन्त्रण होना चाहियेlराज्यकार्य करने वालों के अधीन यह बिलकुल नहीं दिया जाना चाहियेlइसके लिये भारतवर्ष सहित सम्पूर्ण संसार के विद्वानों और जनता को बहुत बड़ा संघर्ष करना होगा अन्यथा संसार के राज्य इसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं हो सकतेl
ज्ञान का दूसरा अंग है प्राकृतिक शक्ति से मानव की मूल सुविधा का प्रबन्ध करनाlइसको तकनीकी अर्थात टेक्नोलोजी कहते हैं,यह राज्यों के पास हो,अथवा कि धनी-मानी व्यक्तियों के पास यह पृथक् प्रश्न हैlएक उदहारण से बात को आसानी से समझा जा सकता हैlभारतवर्ष में जब से हिन्दू राज्य पद्धति क्षीण होने लगी है तब से राजा लोग अपने-अपने राज्य का इतिहास अपने अधीनस्थ इतिहासकारों से लिखवाने लगे हैंlउसका परिणाम यह हुआ है कि वह इतिहास एक साधारण बही-खाते जैसा बनकर केवल वृतान्त मात्र रह गया हैlवह इस प्रकार कि मानो उस बही-खाते को किसी मूर्ख और धूर्त ने साहूकार के लाभ के लिये लिखा होlराजा लोग अब अपनी इच्छा से इतिहास लिखवाने लगे हैंlइस प्रक्रिया से इतिहास लिखने का उद्देश्य ही निर्मूल हो गया हैlइतिहास भविष्य के आचरण का दिग्दर्शन कराता है,किन्तु उसकी अपेक्षा वह उच्छृंखल और धूर्त तथा मूर्ख राजाओं की चाटुकारिता मात्र बनकर रह गया हैlवर्तमान में यह माना जाने लगा है कि दिल्ली की कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन ने बनवाया थाlइसमें सन्देह नहीं कि कुतुबुद्धीन का यहाँ राज्य रहा हैlशाहजहाँ,जिसको अपनी हजारों विवाहिता और उससे अधिक अविवाहिता पत्नियों से ही अवकाश नहीं था,कहा जा रहा है कि उसने ताजमहल जैसे सुन्दरतम स्मारक का निर्माण करवाया थाlजिन मूर्खों को अपनी नाक तक साफ़ करने का ढंग नहीं आता,उनके नाम पर ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ लिखे माने जाते हैंlइस प्रकार यह स्पष्ट है कि मानव समाज एतदर्थ बहुसंख्यक भारतीय समाज का भविष्य इसी में है कि विद्वानों का कार्य राजसी कार्य से पृथक कर दी जाये और फिर प्रजातान्त्रिक पद्धत्ति से अथवा किसी और रीति से राज्य अधिकारियों को विद्वानों की इच्छानुसार कार्य करने पर विवश किया जायेlअर्थात आधारभूत ज्ञानार्जन का कार्य राज्य से पूर्णतः मुक्त किया जाये l
विद्वानों के लिये समाज में स्थान सुरक्षित हो
- अशोक “प्रवृद्ध”
स्थूल रूप में ज्ञान को दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक है आधारभूत ज्ञान अर्थात फण्डामेण्टल साइंस और दूसरा है तकनीकी ज्ञानlआधारभूत ज्ञान में उन सिद्धान्तों का ज्ञान है जिनके अनुसार जगत की रचना होती हैlइसे वैदिक भाषा में ज्ञान,परब्रह्म का ज्ञान अथवा केवल परम का ज्ञान कहते हैंlदूसरी प्रकार का ज्ञान है जो उन आधारभूत सिद्धान्तों के प्रयोग से मनुष्य की सुख-सुविधा के लिये साधन निर्माण करता है,इसे तकनीकी कहते हैंl
आधारभूत ज्ञान अर्थात पहले परम का ज्ञान तो केवल विद्वानों द्वारा विद्वानों को जो कि राज्य तथा राज्य के नियमों से सर्वथा स्वतंत्र हों,जीवन और कार्य में लाने के योग्य हैंlइसके प्रसारण तथा इसमें अन्वेषण का अधिकार केवल मात्र जाति अर्थात राष्ट्र के विद्वानों को ही होना चाहियेlआधारभूत ज्ञान है सृष्टि रचना का इतिहास,इसमें कारण और उसके कार्य अर्थात इसके होने की प्रक्रिया,साथ ही उन प्राकृतिक शक्तियों का ज्ञान जिसमें जिनसे इस जगत की रचना सम्पन्न हुयीlवैभारतीय पुरातन शास्त्रों के अनुसार यह राज्य के कार्य का विषय नहीं हैlकारण यह है कि सृष्टि रचना में अनेक महान शक्तियाँ कार्यरत होती हैंlउनका ज्ञान राज्याधिकारियों के हाथ में देना ठीक नहीं क्योंकि राज्याधिकारी मूलतया क्षत्रिय प्रकृति के होते हैं ब्राह्मण प्रकृति के नहींlसृष्टि रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का अतिन्यून सा अंश भी यदि किसी राज्य अथवा राज्याधिकारी के अधिकार में होगा तो वह उस शक्ति के आश्रय समस्त संसार को अपनी अँगुलियों पर नचाने का यत्न करेगाlवर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या यही बनी हुयी है कि सृष्टि-रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का एक अंश भूमण्डल के कुछ राज्यों के अधीन हो गया है और अब तो यह भी दावे के साथ कहा जा रहा है कि कुछ आततायी आतंकवादी संगठनों यथा,अलकायदा, आई एस आई एस आदि कट्टर इस्लामी संगठनों के पास भी सृष्टि-रचना में प्रयुक्त होने वाली शक्ति का अंश उपलब्ध है जिससे वे संसार मे कभी भी किसी अनहोनी को अंजाम देने की क्षमता रखते हैंlअतः इसमें यह समान विधि-विधान होना चाहिये कि प्रकृति की आधारभूत शक्तियों का ज्ञान,उनमें खोज करने का अधिकार और उनपर नियन्त्रण राज्यों का न होlराज्यों को इसके समीप फटकना भी नहीं चाहियेlइस ईश्वरीय सकती के अतिरिक्त भी आधारभूत ज्ञान हैंlउदहारण के रूप में प्राणी की उत्पत्तिlमनुष्य ने इस ज्ञान को पर्याप्त रूप में प्राप्त किया हैlवर्तमान में भी वह अनथक प्रयत्न कर रहा है कि किसी प्रकार वह प्राणी के रचना के ज्ञान को प्राप्त कर सकेlसृष्टि रचना का ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार मानव को है,परन्तु अधिकार तो योग्यता के अनुरूप ही होना चाहिये नlअयोग्य अथवा बुद्धिविहीन व्यक्ति को कुछ भी अधिकार नहीं मिलना चाहियेlराज्य तो क्षत्रिय स्वभाव वालों की क्रीड़ा-भूमि होता हैlक्षत्रिय स्वभाव वाले राजसी बुद्धि के होते हैंlराजसी बुद्धि के लक्षण के संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-
यथा धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव चl
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसीll
-श्रीमद्भगवतगीता – १८ -३१
अर्थात-जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को कार्य और अकार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता वह बुद्धि राजसी हैl
राज्य कार्य में प्रायः इस बुद्धि के लोगों का प्रभुत्व होता हैlयदि कभी कोई सात्विकी बुद्धि वाला व्यक्ति वहाँ पहुँच भी जाये तो प्रायः वह राजकार्य में सफल नहीं हो पाताlवर्तमान संसार में विषमता का कारण ही यही है कि राज्य ने बुद्धियुक्त कार्य को अपने अधीन कर लिया हैlआज के किसी अल्प बुद्धिजीवी ने यह कह दिया कि राज्य प्रजातांत्रिक पद्धति का होना चाहिये, इससे राजसी प्रकृत्ति के लोग जनसाधारण के अधीन होने से संसार में सुख और शान्ति व्याप्त हो जायेगी, किन्तु बात इसके सर्वथा विपरीत हुयी हैlआज संसार में सुख और शान्ति सर्वथा विलुप्त सी हो गयी हैlसंसार के सभी राज्य अपनी बुद्धिविहीन नीति को चालू रखने के लिये दूसरों को धोखा देने का यत्न कर रहे हैं,परन्तु यह भी सोचने की बात है कि क्या उनको इसमें भी सफलता मिल रही है?प्रजातांत्रिक राज्य के कतिपय गुणों से इनकार नहीं किया जा सकता,किन्तु जब तक इसके दोषों को दूर नहीं किया तब तक यह पद्धति सफल नहीं हो सकतीlसमानता प्रजातान्त्रिक पद्धत्ति का मुख्य दोष हैlप्रजातंत्र में सब धन बाईस पसेरी होता हैlउसका परिणाम यह होता है कि धूर्तों की बन आती हैlधूर्त बलशालियों से समझौता करके प्रजातंत्र के स्थान पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से तानाशाही ही स्थापित करते हैंlइसका एकमात्र कारण है प्रजातांत्रिक राज्य में विद्वानों को राज्याधीन रखनाlउच्च से उच्च कोटि का वैज्ञानिक,मीमांसक,गणितज्ञ आदि राज्य के कर्मचारी बना दिए गये हैंlउनको तो अब अपनी विद्वता पर भी अधिकार न रहा हैlयदि कोई विद्वान अपना अधिकार व्यक्त करता है तो उसे बन्दीगृह में भेज दिया जाता है अथवा उसे निपट निर्धनता एवं कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करने को विवश कर दिया जाता हैlयदि प्रजातान्त्रिक राज्य को अपना स्वत्व रखना है तो उसके लिये यह नितान्त आवश्यक है कि वह राष्ट्र कल्याण हेतु विद्वानों के लिये स्थान सुरक्षित करेlइसके लिये आधारभूत ज्ञान का संचालन राज्य से स्वतंत्र रखकर उसको विद्वानों के अधीन कर दिया जाना चाहियेlवैदिक ग्रन्थों के अनुसार विद्वानों की परख तो विद्वान ही कर सकते हैंlअर्थात विद्वानों का निर्माण उनको विद्वान पद देने और उनको सुरक्षित रखने का कार्य विद्वानों के हाथ में ही होना चाहियेlशनैः-शनैः समय पाकर विद्वान मण्डली एक क्षेत्र ही बन जायेगी,उसमें क्षत्रिय स्वभाव के लोग अर्थात राजसी प्रकृति के लोग हस्तक्षेप नहीं कर पायेंगेlअभिप्राय यह है कि ज्ञान का वह आधारभूत अंग विद्वानों के संरक्षण में रहना चाहियेlभारतीय इतिहास के पुरातन ग्रन्थों में में अंकित मिलता है कि पुरातन काल में क्षत्रिय लोग दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा अथवा इन्द्र के पास जाया करते थे तब वे प्रार्थी की परीक्षा करके उसके एक-दो अस्त्र दे दिया करते थे,परन्तु इसमें भी कभी-कभी भूल हो जाया करती थी जिसके परिणामस्वरूप रावण,मेघनाद,कर्ण प्रभृत्ति राजसी स्वभाव के लोगों को वे दिव्यास्त्र मिल जाया करते थेlपरन्तु यह कभी-कभी होता थाlसात्विकी बुद्धि वालों को शस्त्रास्त्र देकर दूसरों को नियन्त्रण में किया जाता थाlवर्तमान में भी कुछ ऐसा ही व्यवस्था किया जाना चाहिये जिससे कि प्रकृत्ति की दिव्य शक्तियाँ यदि कभी अविद्वानों को मिल जायें तो अधिकारी को वह अथवा उससे भी श्रेष्ठ शक्ति देकर दुष्ट को नियन्त्रण में रखा जा सकेlयह तभी सम्भव है जबकि संसार में एक ऐसा मंच का निर्माण किया जाये जो ज्ञानवानों के अधीन हो और उनके अधीन ही अपना कार्य चलायेlइस प्रकार यह स्पष्ट है कि ज्ञान=विज्ञान और उसके प्रयोग पर केवल विद्वानों का ही नियन्त्रण होना चाहियेlराज्यकार्य करने वालों के अधीन यह बिलकुल नहीं दिया जाना चाहियेlइसके लिये भारतवर्ष सहित सम्पूर्ण संसार के विद्वानों और जनता को बहुत बड़ा संघर्ष करना होगा अन्यथा संसार के राज्य इसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं हो सकतेl
ज्ञान का दूसरा अंग है प्राकृतिक शक्ति से मानव की मूल सुविधा का प्रबन्ध करनाlइसको तकनीकी अर्थात टेक्नोलोजी कहते हैं,यह राज्यों के पास हो,अथवा कि धनी-मानी व्यक्तियों के पास यह पृथक् प्रश्न हैlएक उदहारण से बात को आसानी से समझा जा सकता हैlभारतवर्ष में जब से हिन्दू राज्य पद्धति क्षीण होने लगी है तब से राजा लोग अपने-अपने राज्य का इतिहास अपने अधीनस्थ इतिहासकारों से लिखवाने लगे हैंlउसका परिणाम यह हुआ है कि वह इतिहास एक साधारण बही-खाते जैसा बनकर केवल वृतान्त मात्र रह गया हैlवह इस प्रकार कि मानो उस बही-खाते को किसी मूर्ख और धूर्त ने साहूकार के लाभ के लिये लिखा होlराजा लोग अब अपनी इच्छा से इतिहास लिखवाने लगे हैंlइस प्रक्रिया से इतिहास लिखने का उद्देश्य ही निर्मूल हो गया हैlइतिहास भविष्य के आचरण का दिग्दर्शन कराता है,किन्तु उसकी अपेक्षा वह उच्छृंखल और धूर्त तथा मूर्ख राजाओं की चाटुकारिता मात्र बनकर रह गया हैlवर्तमान में यह माना जाने लगा है कि दिल्ली की कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन ने बनवाया थाlइसमें सन्देह नहीं कि कुतुबुद्धीन का यहाँ राज्य रहा हैlशाहजहाँ,जिसको अपनी हजारों विवाहिता और उससे अधिक अविवाहिता पत्नियों से ही अवकाश नहीं था,कहा जा रहा है कि उसने ताजमहल जैसे सुन्दरतम स्मारक का निर्माण करवाया थाlजिन मूर्खों को अपनी नाक तक साफ़ करने का ढंग नहीं आता,उनके नाम पर ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ लिखे माने जाते हैंlइस प्रकार यह स्पष्ट है कि मानव समाज एतदर्थ बहुसंख्यक भारतीय समाज का भविष्य इसी में है कि विद्वानों का कार्य राजसी कार्य से पृथक कर दी जाये और फिर प्रजातान्त्रिक पद्धत्ति से अथवा किसी और रीति से राज्य अधिकारियों को विद्वानों की इच्छानुसार कार्य करने पर विवश किया जायेlअर्थात आधारभूत ज्ञानार्जन का कार्य राज्य से पूर्णतः मुक्त किया जाये l