हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों में समन्वय का सेक्युलर प्रयास कदापि सम्भव नहीं हो सकता
सांस्कृतिक आधार पर मुसलमान हिन्दू नहीं हैं और हिन्दू मुस्लमान नहीं हैं। फिर भी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग कहते हैं कि हिन्दू- मुस्लमान समस्या को सुलझाने के लिए दोनों की संस्कृति में समन्वय होना चाहिए। अर्थात दोनों समुदायों को मिल् जुलकर भाई-भाई की तरह रहना चाहिए। परन्तु हकीक़तन ऐसा हो सकता है क्या ? मुस्लमान ऐसा स्वीकार करेंगे क्या ? क्या वे कभी समन्वय के लिए तैयार हुए हैं अथवा उन्होंने कभी ऐसा यत्न किया है? हिन्दुओं ने तो इसके लिए यत्न किया है। सबसे बड़े समन्वयकर्ता आदिगुरू नानकजी हुए थे। परन्तु उनका प्रयास ही कहाँ तक सफल हुआ?
हिन्दुओं की संस्कृति में विचार -स्वतंत्रता को विशिष्ट स्थान
प्राप्त है। अध्यात्म के विषय में विभिन्न विचार रखने की स्वीकृति है, क्या मुस्लमान इसे स्वीकार कर मुहम्मद साहब पर ईमान न रखने वाले को भी मुस्लमान स्वीकार कर लेंगे अथवा क्या हिन्दू इस स्वतंत्रता को छोड़ मुसलमानों के पैगम्बर पर ईमान लाना समन्वित संस्कृति का अंग मान लेंगे?
हिन्दुओं के सनातन धर्मों में बुद्धि तथा ज्ञान धर्म का अंग माने जाते हैं। बुद्धि में विकास और इसका प्रयोग। इसी प्रकार
विद्या की प्राप्ति है। क्या मुस्लमान इसको मानकर यह स्वीकार कर लेंगे कि इस्लाम की परख बुद्धि से की जा सकती है?अथवा क्या हिन्दू यह मान लेंगे कि परमात्मा के विषय में अथवा जाति की किसी मान्यता के विषय में बुद्धि के प्रयोग
को वर्जित कर दिया जाये? यह नहीं होगा ।कदापि नहीं हो सकता। अर्थात जब परस्पर विरोधी हों तो समन्वय कदापि नहीं हो सकता। हिन्दुओं में बुद्धि के प्रयोग और विकास को वही स्थान प्राप्त है , जितना की अस्तेय और धर्म को।
समस्या का समाधान - हिन्दू और मुस्लमान का अपना -
अपना धर्म और संस्कृति बनीं रहे। इसका प्रचार और प्रसार विच-विनिमय से हो, परन्तु राज्य तथा देश को इससे पृथक रखा जाये। उसमें सब समान हों। यह तब ही हो सकेगा जब कि देश और राज्य को संस्कृति और धर्म के प्रचार- प्रसार में अथवा विस्तार में हस्तक्षेप न करने दिया जाये। इनके
अधिकारों का बंटवारा संस्कृति और धर्म के आधार पर न हो।
घड़ी
घड़ी बंधी हैं सबकी हाथ में घड़ियाँ।
मगर पकड़ में आता नहीं एक भी लम्हा है।।
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