अधिकार परस्त लोग निकम्मे होते हैं ,परन्तु मनुष्य को कर्मशील और कर्तव्यशील बने रहकर ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए ।
अशोक "प्रवृद्ध"
स्वाधीन भारतवर्ष में खाङ्ग्रेसी सरकार के अनुदान अर्थात सब्सिडी निति के परिणामस्वरूप भारतीय अब सारे कार्यों के लिए लोग राज्य की ओर टकटकी लगाये रहकर देखते रहते हैं। अधिकार परस्त लोग निकम्मे होते हैं और भारतवर्ष में खाङ्ग्रेसियो और साम्यवादी - कम्युनिस्टों ने मिलकर ऐसे ही समाज का निर्माण किया है।
जबकि भारतवर्ष की आदि सनातन काल से ही चली आ रही आश्रम व्यवस्था का तो शाब्दिक अर्थ भी आ+श्रम=श्रम से परिपूर्ण है। पुरातन वैदिक ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि मानव - जीवन के सभी चारों ही अवस्थाओं अर्थात आश्रमों में श्रम की आवश्यकता और महता बतलाई गई है । ब्रहमचर्याश्रम में विद्याध्ययन का श्रम है, गृहस्थ में गृहस्थी को चलाने का श्रम है, वानप्रस्थ में पुन: खोयी हुई शक्ति को हासिल करने का श्रम है तो संन्यास आश्रम में अर्जित ज्ञान को पुन: समाज के लिए बांटने का श्रम है। निकम्मा कोई नहीं है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मानव जीवन की चारों ही अवस्थाओं में श्रम साध्य है । इसीलिए वेद में भगवान् ने कहा है -
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समा नर:।
अर्थात मनुष्य को कर्मशील और कर्तव्यशील बने रहकर ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। नागरिक विषयों में राज्य का हस्तक्षेप कम से कम तभी होगा जब नागरिक स्वभावत: कत्र्तव्य परायण होंगे, कर्मशील होंगे और एक दूसरे के प्रति सहयोग का भाव रखते होंगे।
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