खाङ्ग्रेस अर्थात कांग्रेस के पतन का कारण
भारतवर्ष संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्रिक देश है और खाङ्ग्रेस अर्थात कांग्रेस पार्टी छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में सबसे पुरानी पार्टी है । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र से भी ज्यादा उम्र खाङ्ग्रेस अर्थात
कांग्रेस पार्टी की है। बावजूद इसके अत्यंत शर्मनाक बात यह है कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र काफी कमजोर है, जिसके बारे में भारतवर्ष की विभाजन की जिम्मेदार पार्टी कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी बार-बार कहते रहे हैं , लेकिन अब - तक इसमें कोई सुधार नहीं हो सका है। हद तो यह है कि इतनी पुरानी पार्टी का कोई भी प्रदेश इकाई अब भी अपना प्रदेश अध्यक्ष नहीं चुन सकती है एवं चुनाव जीतने के बाद भी चुने कांग्रेसी नेता मिलकर अपना मुख्यमंत्री नहीं चुन सकते हैं और राज्यों से संबंधित कोई बड़ा नीतिगत निर्णय भी पार्टी के नेता नहीं ले सकते हैं। और अंततः कांग्रेस अलाकमान को ही दिल्ली से राज्यों के लिए निर्णय लेना पड़ता है। जब पार्टी में ही लोकतंत्र इतना कमजोर है तो पार्टी कैसे एक साथ खड़ी रह सकती है? लेकिन इसे भी बड़ी बात यह है कि पार्टी के नेताओं को इससे मतलब नहीं है और वे अपना गुटबाजी में व्यस्त रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस का पतन तय है।
दूसरी बात यह है कि कांग्रेस अबतक पारंपरिक वोटरों के सहारे , बदौलत ही देश में सबसे ज्यादा समय तक राज करती रही है। लोगों की नज़रों में चूंकि भारतवर्ष की स्वाधीनता - संग्राम की लड़ाई कांग्रेस नामक संगठन ने लड़ी और देश को मिली छद्म स्वाधीनता को भी खाङ्ग्रेस ने ही स्वतन्त्रता के नाम पर प्रचारित किया और इसके बाद में यह संगठन राजनीतिक दल का स्वरूप ले लिया। फलस्वरूप, देश की भोली - भाली जनता , और पिछड़े - दलित लोग कांग्रेस को वोट देते रहे। लेकिन इस बीच कांग्रेस पार्टी ने शायद इस गलत फहमी में कैडर नहीं खड़ा किया कि उसके साथ पारंपरिक मतदाता हमेशा रहेंगे लेकिन वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मदद से पार्टी के लिए बड़े पैमाने पर कैडर खड़ा किया, जिसके लिए उन्होंने ‘हिन्दी, हिन्दु हिन्दुस्तान’ जैसा पुरातन सनातनी नारों का सहयोग लिया। इतना ही नहीं कांग्रेस पार्टी ने विकास के नाम पर बहुसख्यक हिन्दुओं और खेती - किसानी से जुड़े किसानों को संसाधनहीन बना दिया, जिससे उसकी पारंपरिक वोट खिसक गई और बहुसख्यक हिन्दू आज अपने दुर्दशा के लिए कांग्रेस पार्टी को ही जिम्मेदार मानती है । वहीं दूसरी ओर भाजपा ने पुरातन गौरवमयी भारतवर्ष के स्वदेशी व स्थानीय तकनीक से विकास और एक भारतवर्ष श्रेष्ठ भारतवर्ष का एक महा गठजोड़ तैयार कर इस लोकसभा चुनाव में उतरने का मन बना लिया है , जिसका नेतृत्व नरेन्द्र मोदी को प्रदान किया गया है। और इस गंठजोड़ को आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं , देश में व्यवसाय और समुचित सर्वांगीण विकास के इच्छुक मध्यवर्ग का समर्थन मिलता दिखाई पड़ता है, जिससे कांग्रेस ने समझने की बड़ी देर व भूल की ।
तीसरी परम सत्य बात यह है कि कांग्रेस के अंदर वंशवाद परम्परा और भाई-भतीजावाद की लड़ाई ने ही पार्टी को कमजोर कर दिया है और अगर इसे जल्द से जल्द नहीं निपटाया गया तो कई राज्यों में कांग्रेस गर्त में चली जाएगी। उदाहरण के तौर पर झारखंड के रांची स्थित हटिया विधानसभा सीट पिछले विधानसभा उप-चुनाव से पहले तक कांग्रेस का पारंपरिक सीट हुआ करता था। लेकिन कांग्रेस नेता गोपालनाथ सहदेव की मृत्यु के बाद झारखंड के ताकतवर कांग्रेसी नेता सुबोधकांत सहाय द्वारा जनाधारहीन वाले अपने भाई सुनीलकांत सहाय को टिकट दिलवाने के कारण कांग्रेस अपना पारंपरिक सीट गवां बैठी और आजसू जैसी नवसिखुआ पार्टी को वह सीट मुफ्त में मिल गई। इसी तरह छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी अपना बेटे अमित जोगी और पत्नी को टिकट दिलवाने के कारण पार्टी को गर्त में ले गए। पिछला चुनाव में तो यहां तक कहा गया कि अजीत जोगी ने ही अपने पार्टी के सात उम्मीदवारों को हरवाया। यह इसलिए क्योंकि वे छत्तीसगढ़ कांग्रेस में अपना दबदबा बनाकर रखना चाहते हैं इसलिए वे कोई भी तकतवार नेता को उभरने का मौका देते हैं। गत दिनों माओवादी हमले में मारे गए अधिकाँश छतीसगढ़ी खाङ्ग्रेसियो की घटने में भी प्रदेश कांग्रेस में भाई - भतीजावाद और वंशवाद का ही हाथ बताया जाता है ।
चौथी बात यह है कि कांग्रेस पार्टी के अंदर विभिन्न राज्यों में नेतृत्व का दोहरा लड़ाई चल रहा है। झारखंड जैसे राज्यों में पहली लड़ाई आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी नेतृत्व का है। चूंकि झारखंड पहला ऐसा राज्य है जो आदिवासियों के नाम पर बना है इसलिए राज्य का नेतृत्व आदिवासियों के हाथ से छिना नहीं जा सकता है। यह इसलिए भी क्योंकि आदिवासी लोग कांग्रेस के पारंपरिक वोटर रहे हैं लेकिन संघ परिवार द्वारा आदिवासियों के बीच अपना जनाधार बढ़ाने और झारखंड आंदोलन की वजह से आदिवासी वोट बैंक कांग्रेस, भाजपा और झारखंडी पार्टियों के बीच बिखर गई, जिसे सबसे ज्यादा हानि कांग्रेस को ही उठानी पड़ी है। ऐसी स्थिति में अगर राज्य का नेतृत्व गैर-आदिवासियों के हाथों में जाने से स्थिति और भी ज्यादा भयावह हो सकती है। लेकिन वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के सवर्ण नेता इस बात को पचा ही नहीं पा रहे हैं कि वे आदिवासी नेताओं के नेतृत्व में आगे बढ़े। इसलिए आदिवासी और गैर-आदिवासी नेताओं के बीच कलह बरकरार रहना तय है। इतना ही नहीं आदिवासी नेताओं के बीच भी एकता नहीं दिखती है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बालमुचू और वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव उरांव का झगड़ा आम जनता के सामना कई मरतबा खुलकर आ चुकी है। प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत प्रदेश की शिक्षा मंत्री गीताश्री उराँव की कार्य प्रणाली से नाखुश रहते हैं । जब प्रदेश के नेताओं के बीच ही एकता नहीं है तो पार्टी कैसे आगे बढ़ सकती है। इसके अलावे कई राज्यों में कांग्रेस के पास ऐसा को करिश्माई नेता भी नहीं है जो अपने दम पर पार्टी को पटरी पर ला सके और नेताओं के बीच चल रहे गुटबाजी को खत्म करते हुए सत्ता तक पहुंचे।
पांचवी बात यह है कि देश के लिए दो महत्वपूर्ण मुद्दा - भ्रष्टाचार, मंहगाई कांग्रेस के शासनकाल में अत्याधिक बढ़ती गई। देश के तीन बड़े अर्थशास्त्री - डा. मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम और मोटेक सिंह अहलुवालिया के शासनकाल में सरकार का एजेंडा सिर्फ और सिर्फ देश की आर्थिक तरक्की रही है। और इस तरक्की को सुनिश्चित करने के लिए तथाकथित लालगलियारा में ऑपरेशन ग्रीनहंट चलाया जा रहा है ताकि इन इलाकों को खाली कराकर पूंजीपतियों के हवाले कर दिया जाये। फलस्वरूप, नक्सलियों ने भी कांग्रेस नेताओं के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और नेता डर से गांवों में भ्रमण करना छोड़ दिये हैं। इसी तरह कई बार वादा करने के बाद भी केन्द्र सरकार मंहगाई को काबू नहीं कर पायी और जरूरत की चीजों की कीमत लगातार बढ़ती ही जा रही है। वहीं दूसरी ओर जयराम रमेश जैसे केन्द्रीय नेताओं को भी ग्रासरूट में पार्टी को बढ़ाने की चिंता नहीं है सिर्फ वे अपना नाम चमकाने के लगे रहते हैं। जब ये नेता सुदुर इलाकों में पहुंचते हैं तो वहां के स्थानीय नेताओं तक का पता नहीं होता है। कभी-कभी तो उन्हें केन्द्रीय नेताओं से भी मुलाकत करने के लिए मशक्कत करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस की जमीन लगातार घिसकती जा रही है।
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