राँची, झारखण्ड से प्रकाशित राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - २२/४/२०१५ को प्रकाशित लेख - समाज में अव्यवस्था का कारण
समाज में अव्यवस्था का कारण
-अशोक “प्रवृद्ध”
यह सर्वविदित तथ्य है कि मानव शरीर, ब्रह्माण्ड और समाज सब में एक ही सिद्धांत कार्य करते हैं अर्थात इन सब में कार्य एक समान होता हैl उपनिषद की एक कथा में शरीर को चालू रखने वाली इन्द्रियों में विवाद हो गया कि वह सर्वश्रेष्ठ है l उस विवाद में प्रजापति के निर्णय के अनुसार यह निश्चय हुआ था कि महाप्राण जो शरीर के भीतरी अंगों को चलाता है, सर्वश्रेष्ठ हैl मनुष्य शरीर में वैसा विवाद कभी हुआ था कि नहीं जैसा कि विवाद उपनिषद में इन्द्रियों में हुआ कहा गया है, परन्तु मनुष्य समाज में तो ऐसा विवाद निरन्तर होता देखा जाता है l लोग जो एक कार्य करने की योग्यता नहीं रखते, उस कार्य को करने की लालसा करने लगते है lइसमें मुख्य कारण हैं मन के विकार - काम, क्रोध,लोभ, मोह तथा अहंकार l इन विकारों के कारण मनुष्य में एक श्रेष्ठ स्मृति-यंत्र का होना आवश्यक है l श्रेष्ठ मन ही इन विकारों को नियन्त्रण में रख सकता है l
मन का एक विकार है काम l कुछ प्राप्ति की इच्छा को कामना कहते हैं lकामना की पूर्ति न हो तो विक्षोभ होता है lयह क्रोध है lकामना की पूर्ति धन, सम्पदा तथा सामर्थ्य से होती है l इस सामर्थ्य की अधिक से अधिक प्राप्ति की इच्छा को लोभ कहते हैं l जो प्राप्त है उसको रखने की योग्यता न रहने पर भी उसे समेटे रखना मोह कहाता है lकिसी सामर्थ्य को रखने का प्रदर्शन,उनके सम्मुख जो वैसी सामर्थ्य नहीं रखते, अहंकार है l ये सब विकार मन के हैं और मन के स्मृति गुण के कारण उत्पन्न होते हैं lमन का एक अन्य गुण है, जिसे कल्पना करना कहते हैं lमन पूर्व स्मृतियों पर योजनायें बनाता है l जब ये योजनायें स्मृति के आधार पर बनती हैं तो मनुष्य को पथच्युत करने में सफल हो जाती हैं l शरीर का कोई अंग जब किसी कार्य को करने की योग्यता नहीं रखता तो वह उस कार्य को करता ही नहीं l आँख सुनने का कार्य नहीं करती lकान स्वाद लेने का यत्न नहीं करता l परन्तु समाज में कामनाओं के अधीन मनुष्य उस कार्य को भी करने का यत्न करता है जिसको करने की योग्यता उसमे नहीं होती और जब वह अयोग्य होने के कारण असफल होता है तो इसमें ऐसे कारण ढूंढने लगता है जिससे अपनी असफलता का दोष दूसरों पर डाल सकेl यही समांज में अव्यवस्था का मुख्य कारण होता हैl किसी भी समाज में जब अव्यवस्था का कारण जानने का प्रयत्न किया जाता है तो पता चलता है कि इसका मुख्य कारण यह है कि कोई व्यक्ति योग्य होता हुआ अधिकार प्राप्त किये हुए है अथवा कर रहा हैl योग्यता ही अधिकार में कारण हो सकती हैl
जहाँ पाँव सिर का कार्य करने लगे तो उस प्राणी की जो अवस्था होगी, वही अवस्था एक शुद्र अर्थात योग्य व्यक्ति के अध्यापक, राज्य का मन्त्री अथवा राजा बन जाने पर होती हैl ज्ञान का संग्रह और ज्ञान का विश्लेषण क्र,उस पर आज्ञा देने का कार्य ज्ञानेन्द्रियाँ, मन,बुद्धि और जीवात्मा के समान योग्य व्यक्ति ही कर सकते हैंl मनुष्य के शरीर में अथवा मानव समाज में अव्यवस्था का मूल कारण यही है कि जो अधिकार पाने के योग्य नहीं,वे अधिकार पाने का यत्न करते हैं अथवा पा जाते हैं l शरीर के उदाहरण से इसे समझा जा सकता हैlअति स्वादिष्ट चटपटी चाट के सामने आने पर पेट का रोगी मनुष्य उस चाट को देखता है और उसके मुख में लार टपकने लगती हैl चाट खाने का आदेश तो जीवात्मा देता है और वह भी बुद्धि से विचार करने पर कि उसके पेट की अवस्था उस चाट को हजम करने की है अथवा नहींl कभी मनुष्य चाट खाकर हजम करने की शक्ति भी रखता है, परन्तु जिह्वा पूर्ण थाल में रखा सब कुछ खा जाने को कह रही हैl यह जिह्वा का कार्य नहीं कि उसको चाट खाने की सीमा बतायेl यह बुद्धि का कार्य हैl अतः चाट खाने वाला बुद्धि की स्वीकृति के बिना अथवा बुद्धि द्वारा सीमा निश्चय किए बिना चाट खाता जाए तो पूर्ण शरीर में अव्यवस्था अर्थात रोग की सृष्टि होगीl बिलकुल यही अवस्था समाज की भी हैl कोई अनधिकारी समाज के किसी कार्य का संचालन करने लगता है तो समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होती हैl समाज के प्रत्येक घटक अथवा घटक-समूह (वर्ण) के कार्य को यदि बुद्धि के प्रतीक विद्वान् व्यक्ति के राय के बिना किया जाएगा तो अन्ततोगत्वा समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होगीl और फिर जैसे शरीर के पेट में चाट खाने से अपची होने पर पूर्ण शरीर कष्ट भोगता है, ठीक उसी प्रकार अव्यवस्था केवल समाज के उस अंग में ही सीमित नहीं रहेगी,जिसमें वह योग्य व्यक्ति अधिकारी बना हुआ है, वरन पूर्ण समाज में ही उत्पन्न हो जायेगाl जिस प्रकार शरीर में श्रेष्ठ बुद्धि के सर्वत्र और सर्वदा प्रयोग की aaawshyktaआवश्यकता है,उसी प्रकार समाज में सर्वत्र और सर्वदा श्रेष्ठ विद्वानों की राय से कार्य करने अर्थात किए जाने की आवश्यकता हैl कभी योग्य चिकित्सक, हकीम अथवा वैद्य शरीर के किसी अंग के रोग को उसी अंग तक सीमित रखने में सफलता प्राप्त करता है,परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक अंग के रूग्न होने से शरीर के दूसरे अंगों के कार्यों में भी बाधा होती हैl यह बात समाज में अधिक व्यापक रूप में सत्य है l अव्यवस्था तब ही उत्पन्न होती है जब समाज में कोई व्यक्ति अपनी योग्यता से अधिक अधिकार पा जाता हैl यह उस कर्म में,जो वह करता है, व्यवस्था उत्पन्न करता ही है, साथ ही वह अव्यवस्था समाज के दूसरे अंगों में भी फैलती है और फिर एक रूग्न शरीर की भान्ति पूर्ण समाज अव्यवस्थित स्थिति में आ जाता हैl इस कारण समाज में विद्वानों की राय से ही सब कार्य चलने चाहियेंl शरीर में वे ही बुद्धि के स्थानापन्न होते हैंl
प्रश्न उत्पन्न होता है कि समाज के कार्यों मे योग्यता-योग्यता की परख अर्थात पहचान कैसे हो और कौन करे? मनुष्य में कष्ट होने पर बुद्धि यह कार्य करती हैl कारण यह है कि शरीर एक इकाई के रूप में कार्य करता हैl परन्तु समाज का एक इकाई के रूप में कार्य करना किसी साँझी शक्ति के अधीन न होने के कारण कठिन हो जाता हैl समाज की अवस्था में जहाँ विद्वान् को ढूँढना एक समस्या है वहाँ उस विद्वान् का कहा मनाने में भी कठिनाई होती हैl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विश्व में एक ही नियम से कार्य होता है,जगत हो, मानव शरीर हो अथवा समाज होl समाज एक कृत्रिम इकाई होने के कारण इसकी व्यवस्था मनुष्य शरीर से कठिन हैl इससे यह पत्ता तो चलता है कि समाज में जो भी जिस कार्य के योग्य व्यक्ति है वह वही कार्य करे और उस सीमा तक ही करे, जिस सीमा तक उसका सामर्थ्य तथा योग्यता हैl यदि समाज में ऐसा नहीं होगा तो अव्यवस्था वैसी ही होगी जैसी शरीर में होती है lतब दुःख की सृष्टि होती हैl इसका अभिप्राय है कि जहाँ दुःख है वहाँ उसका कारण अव्यवस्था है और वहाँ किसी अयोग्य के हाथ में अधिकार चले गए हैं, यह स्वतः सिद्ध हैl यदि अयोग्य के अधिकार पा जाने से अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है तो अव्यवस्था का होना यही सिद्ध करता है कि कोई योग्य व्यक्ति अधिकार पा गया हैl
समाज में अव्यवस्था का कारण
-अशोक “प्रवृद्ध”
यह सर्वविदित तथ्य है कि मानव शरीर, ब्रह्माण्ड और समाज सब में एक ही सिद्धांत कार्य करते हैं अर्थात इन सब में कार्य एक समान होता हैl उपनिषद की एक कथा में शरीर को चालू रखने वाली इन्द्रियों में विवाद हो गया कि वह सर्वश्रेष्ठ है l उस विवाद में प्रजापति के निर्णय के अनुसार यह निश्चय हुआ था कि महाप्राण जो शरीर के भीतरी अंगों को चलाता है, सर्वश्रेष्ठ हैl मनुष्य शरीर में वैसा विवाद कभी हुआ था कि नहीं जैसा कि विवाद उपनिषद में इन्द्रियों में हुआ कहा गया है, परन्तु मनुष्य समाज में तो ऐसा विवाद निरन्तर होता देखा जाता है l लोग जो एक कार्य करने की योग्यता नहीं रखते, उस कार्य को करने की लालसा करने लगते है lइसमें मुख्य कारण हैं मन के विकार - काम, क्रोध,लोभ, मोह तथा अहंकार l इन विकारों के कारण मनुष्य में एक श्रेष्ठ स्मृति-यंत्र का होना आवश्यक है l श्रेष्ठ मन ही इन विकारों को नियन्त्रण में रख सकता है l
मन का एक विकार है काम l कुछ प्राप्ति की इच्छा को कामना कहते हैं lकामना की पूर्ति न हो तो विक्षोभ होता है lयह क्रोध है lकामना की पूर्ति धन, सम्पदा तथा सामर्थ्य से होती है l इस सामर्थ्य की अधिक से अधिक प्राप्ति की इच्छा को लोभ कहते हैं l जो प्राप्त है उसको रखने की योग्यता न रहने पर भी उसे समेटे रखना मोह कहाता है lकिसी सामर्थ्य को रखने का प्रदर्शन,उनके सम्मुख जो वैसी सामर्थ्य नहीं रखते, अहंकार है l ये सब विकार मन के हैं और मन के स्मृति गुण के कारण उत्पन्न होते हैं lमन का एक अन्य गुण है, जिसे कल्पना करना कहते हैं lमन पूर्व स्मृतियों पर योजनायें बनाता है l जब ये योजनायें स्मृति के आधार पर बनती हैं तो मनुष्य को पथच्युत करने में सफल हो जाती हैं l शरीर का कोई अंग जब किसी कार्य को करने की योग्यता नहीं रखता तो वह उस कार्य को करता ही नहीं l आँख सुनने का कार्य नहीं करती lकान स्वाद लेने का यत्न नहीं करता l परन्तु समाज में कामनाओं के अधीन मनुष्य उस कार्य को भी करने का यत्न करता है जिसको करने की योग्यता उसमे नहीं होती और जब वह अयोग्य होने के कारण असफल होता है तो इसमें ऐसे कारण ढूंढने लगता है जिससे अपनी असफलता का दोष दूसरों पर डाल सकेl यही समांज में अव्यवस्था का मुख्य कारण होता हैl किसी भी समाज में जब अव्यवस्था का कारण जानने का प्रयत्न किया जाता है तो पता चलता है कि इसका मुख्य कारण यह है कि कोई व्यक्ति योग्य होता हुआ अधिकार प्राप्त किये हुए है अथवा कर रहा हैl योग्यता ही अधिकार में कारण हो सकती हैl
जहाँ पाँव सिर का कार्य करने लगे तो उस प्राणी की जो अवस्था होगी, वही अवस्था एक शुद्र अर्थात योग्य व्यक्ति के अध्यापक, राज्य का मन्त्री अथवा राजा बन जाने पर होती हैl ज्ञान का संग्रह और ज्ञान का विश्लेषण क्र,उस पर आज्ञा देने का कार्य ज्ञानेन्द्रियाँ, मन,बुद्धि और जीवात्मा के समान योग्य व्यक्ति ही कर सकते हैंl मनुष्य के शरीर में अथवा मानव समाज में अव्यवस्था का मूल कारण यही है कि जो अधिकार पाने के योग्य नहीं,वे अधिकार पाने का यत्न करते हैं अथवा पा जाते हैं l शरीर के उदाहरण से इसे समझा जा सकता हैlअति स्वादिष्ट चटपटी चाट के सामने आने पर पेट का रोगी मनुष्य उस चाट को देखता है और उसके मुख में लार टपकने लगती हैl चाट खाने का आदेश तो जीवात्मा देता है और वह भी बुद्धि से विचार करने पर कि उसके पेट की अवस्था उस चाट को हजम करने की है अथवा नहींl कभी मनुष्य चाट खाकर हजम करने की शक्ति भी रखता है, परन्तु जिह्वा पूर्ण थाल में रखा सब कुछ खा जाने को कह रही हैl यह जिह्वा का कार्य नहीं कि उसको चाट खाने की सीमा बतायेl यह बुद्धि का कार्य हैl अतः चाट खाने वाला बुद्धि की स्वीकृति के बिना अथवा बुद्धि द्वारा सीमा निश्चय किए बिना चाट खाता जाए तो पूर्ण शरीर में अव्यवस्था अर्थात रोग की सृष्टि होगीl बिलकुल यही अवस्था समाज की भी हैl कोई अनधिकारी समाज के किसी कार्य का संचालन करने लगता है तो समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होती हैl समाज के प्रत्येक घटक अथवा घटक-समूह (वर्ण) के कार्य को यदि बुद्धि के प्रतीक विद्वान् व्यक्ति के राय के बिना किया जाएगा तो अन्ततोगत्वा समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होगीl और फिर जैसे शरीर के पेट में चाट खाने से अपची होने पर पूर्ण शरीर कष्ट भोगता है, ठीक उसी प्रकार अव्यवस्था केवल समाज के उस अंग में ही सीमित नहीं रहेगी,जिसमें वह योग्य व्यक्ति अधिकारी बना हुआ है, वरन पूर्ण समाज में ही उत्पन्न हो जायेगाl जिस प्रकार शरीर में श्रेष्ठ बुद्धि के सर्वत्र और सर्वदा प्रयोग की aaawshyktaआवश्यकता है,उसी प्रकार समाज में सर्वत्र और सर्वदा श्रेष्ठ विद्वानों की राय से कार्य करने अर्थात किए जाने की आवश्यकता हैl कभी योग्य चिकित्सक, हकीम अथवा वैद्य शरीर के किसी अंग के रोग को उसी अंग तक सीमित रखने में सफलता प्राप्त करता है,परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक अंग के रूग्न होने से शरीर के दूसरे अंगों के कार्यों में भी बाधा होती हैl यह बात समाज में अधिक व्यापक रूप में सत्य है l अव्यवस्था तब ही उत्पन्न होती है जब समाज में कोई व्यक्ति अपनी योग्यता से अधिक अधिकार पा जाता हैl यह उस कर्म में,जो वह करता है, व्यवस्था उत्पन्न करता ही है, साथ ही वह अव्यवस्था समाज के दूसरे अंगों में भी फैलती है और फिर एक रूग्न शरीर की भान्ति पूर्ण समाज अव्यवस्थित स्थिति में आ जाता हैl इस कारण समाज में विद्वानों की राय से ही सब कार्य चलने चाहियेंl शरीर में वे ही बुद्धि के स्थानापन्न होते हैंl
प्रश्न उत्पन्न होता है कि समाज के कार्यों मे योग्यता-योग्यता की परख अर्थात पहचान कैसे हो और कौन करे? मनुष्य में कष्ट होने पर बुद्धि यह कार्य करती हैl कारण यह है कि शरीर एक इकाई के रूप में कार्य करता हैl परन्तु समाज का एक इकाई के रूप में कार्य करना किसी साँझी शक्ति के अधीन न होने के कारण कठिन हो जाता हैl समाज की अवस्था में जहाँ विद्वान् को ढूँढना एक समस्या है वहाँ उस विद्वान् का कहा मनाने में भी कठिनाई होती हैl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विश्व में एक ही नियम से कार्य होता है,जगत हो, मानव शरीर हो अथवा समाज होl समाज एक कृत्रिम इकाई होने के कारण इसकी व्यवस्था मनुष्य शरीर से कठिन हैl इससे यह पत्ता तो चलता है कि समाज में जो भी जिस कार्य के योग्य व्यक्ति है वह वही कार्य करे और उस सीमा तक ही करे, जिस सीमा तक उसका सामर्थ्य तथा योग्यता हैl यदि समाज में ऐसा नहीं होगा तो अव्यवस्था वैसी ही होगी जैसी शरीर में होती है lतब दुःख की सृष्टि होती हैl इसका अभिप्राय है कि जहाँ दुःख है वहाँ उसका कारण अव्यवस्था है और वहाँ किसी अयोग्य के हाथ में अधिकार चले गए हैं, यह स्वतः सिद्ध हैl यदि अयोग्य के अधिकार पा जाने से अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है तो अव्यवस्था का होना यही सिद्ध करता है कि कोई योग्य व्यक्ति अधिकार पा गया हैl
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