Friday, April 3, 2015

चुल्लू भर पानी का सवाल है -अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक -०३/ ०४/ २०१५ को प्रकाशित लेख - चुल्लू भर पानी का सवाल है -अशोक "प्रवृद्ध"


चुल्लू भर पानी का सवाल है 
-अशोक “प्रवृद्ध”

जीव-जन्तु हो या पेड़-पौधे,सबो के जीवन के लिए अत्यन्त ही महत्व की चीज है-जल। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।इसीलिए कहा गया हैकि जल ही जीवन है।वेद,पुराण,उपनिषद,इतिहासादि ग्रन्थों में सर्वत्र जल की महिमा गायी गई है।ग्रीष्म काल में तो जल की महता और भी बढ़ जाती है।महानगरों में तो चुल्लू भर पानी का सवाल और भी गहराता जा रहा है।जल-सम्पदा के लिए संसार के संपन्नतम राष्ट्रों में गिने जाने के बाद भी हमारे देश में जलसंकट गहराता जा रहा है। भारतवर्ष में पानी की वर्तमान माँग,पूर्ति एवं उपलब्धता करने से यह स्पष्ट हो जाता है।एक ओर जहाँ घरेलू, औद्योगिक एवं कृषि-क्षेत्रों की विस्तार के लिए सिंचाई की जरूरतों के कारण पानी की माँग बढती ही जा रही है, वहीँ दूसरी ओर बेतहाशा जल प्रदूषण, साफ़ पानी की उपलब्ध मात्रा को कम कर पानी की समस्या को और भी गम्भीर बनाता जा रहा है।जल प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियों और भूमिगत पानी को खींचने पर किसी भी किस्म के कारगर नियन्त्रण के अभाव में भारतवर्ष के लिए जलसंकट आने वाले दिनों,वर्षों में भीषण परिस्थितियाँ खड़ी कर सकता हैं।

जल नहीं तो प्रकृति नहीं और प्रकृति नहीं तो मानवता नहीं। बारहमासी हो चली पानी की समस्या अब प्रकृति और प्राणियों के अस्तित्व पर बड़ा खतरा बन चुकी है। विशिष्ट पञ्च तत्वों में से एक जल के कारण संसार की अधिकतर जनसंख्या त्राहिमाम करने लगी है। विश्व में प्रत्येक सात में से एक व्यक्ति स्वच्छ पेयजल से दूर हो चुका है। समाचार है कि ब्राजील के साओ पाउलो में सरकार जलापूर्ति पर राशनिंग का विचार कर रही है। अमेरिका का कैलीफोर्निया लगातार चौथे वर्ष सूखे से ग्र्रस्त है। भारतवर्ष, बांग्लादेश सहित कई एशियाई देशों के कई क्षेत्रों में भूगर्भ जलस्तर पाताल में पहुँच चुका है। पश्चिम एशिया की उर्वर जमीन तेजी से रेगिस्तान में परिवर्तित होती जा रही है। संयुक्त अरब अमीरात के शहजादे भी अब जल को तेल से अधिक आवश्यक मानने लगे हैं। अनियमित वर्षा, कम व असमय वर्षा और बर्फ के पिघलने से कई क्षेत्रों की हाइड्रोलॉजिकल प्रणाली गड़बड़ा चुकी है। विश्व भर में ग्लेशियरों का आकार सिकुड़ रहा है। इण्टर गवर्नमेंट पैनल फार क्लाइमेट चेंज के अनुसार वर्तमान में भले ही जल की समस्या से संसार में कम लोग जूझ रहे हों लेकिन इक्कीसवीं सदी के अन्त तक इनकी संख्या बहुत अधिक होना नियति बन चुकी है। अत्यधिक दोहन, कम बारिश से जलस्त्रोत सूख रहे हैं। जो नहीं सूख रहे हैं उन्हें विकास की गलत परिपाटी सुखाने पर आमादा है। कृषि पर जल की किल्लत का विपरीत असर पड़ने लगा है। जल पर संग्राम की स्थिति उत्पन्न होने लगी है। जलवायु परिवर्तन इस समस्या का एक अतिरिक्त कारक बन चुका है। मौसम चक्र बिगड़ चुका है।

संसार में प्रयोग के लिए उपलब्ध स्वच्छ जल में भूगर्भ जल की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत है। करीब 1.5 अरब लोग पेयजल आपूर्ति के लिए भूगर्भ जल पर आश्रित हैं। परन्तु केन्द्रीय भूजल बोर्ड के द्वारा सरकार को देश के भूगर्भीय जल के विषय में सौंपी गई प्रतिवेदन काफी खतरनाक है। प्रतिवेदन के अनुसार देश के 802 ब्लॉकों में भूजल के अति दोहन से जलसंकट गहरा रहा है और यदि यही स्थिति रही तो अगले पन्द्रह वर्षों में देश की आधी जनसँख्या जलसंकट से जूझ रही होगी। भूजल बोर्ड के अनुसार राजस्थान, पंजाब, हरियाणा में जलस्तर में चार मीटर से अधिक की गिरावट हुई है। जलस्तर हर वर्ष दस से बीस सेंटीमीटर नीचे गिर रहा है। योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फिलहाल देश में 1123 अरब घनमीटर जल हमारे उपयोग के लिए उपलब्ध है, जबकि माँग 710 अरब घनमीटर की है। पर योजना आयोग का मानना है कि यह माँग 2025 में लगभग 1100 अरब घनमीटर हो जाएगी। जबकि जलस्तर गिरने से जलीय उपलब्धता उस समय इतनी कम हो जाएगी कि 2030 तक देश की आधी जनसंख्या पानी के लिए तरस रही होगी।दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तरप्रदेश के लिए केन्द्रीय भूजल बोर्ड का मानना है कि यहाँ स्थिति अत्यंत भयावह है। बोर्ड का आंकलन है कि पंजाब के 80 प्रतिशत, हरियाणा के 59 प्रतिशत, राजस्थान के 69 प्रतिशत दिल्ली के 74 प्रतिशत एवं उत्तरप्रदेश के नौ प्रतिशत ब्लॉकों का जल दोहन हुआ है। केन्द्र ने जल दोहन रोकने के लिए एक मॉडल विधेयक भी 1970 में राज्यों को भेजा था। बाद में यह विधेयक 1992, 1996 और 2005 में फिर राज्यों को भेजा गया, परन्तु इसका परिणाम कुछ नही निकला।




भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही भौतिक पदार्थों को भी देवता मानकर पूजन करने की परिपाटी रही है,उनमें जलदेवता भी एक है। यह भारतीय परम्परा है कि जो भी पदार्थ हमारे जीवन को गति व ऊर्जा प्रदान करता है अथवा जिनका होना हमारे लिए अति आवश्यक है उसे ही हमने देवता मान व कहकर उसकी पूजा की। पूजा का अभिप्राय गुणों के संकीर्तन से है, गुणों का सम्मान करने से है। आँग्ल शासकों ने सदैव ही हमारे प्रकृति के साथ इस तादात्म्य और सम्मानपूर्ण सहचर्य भाव को उपेक्षा और उपहास की दृष्टि से देखा और पारम्परिक वस्तुओं, तकनीकों और ज्ञान को मिटाने का हरसंभव प्रयास किया। भारतवर्ष विभाजन के पश्चात कई बातों में हमने पश्चिम की तथाकथित भौतिक उन्नति की नकल की, और अपने पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्यों को भुलाने या उपेक्षित करने में हरसम्भव शीघ्रता का प्रदर्शन किया। पश्चिम की देखा-देखी हमने देश की समस्याओं का एलौपैथिक चिकित्सा पद्धति के ढंग से इलाज करना प्रारम्भ कर दिया। ध्यातव्य है कि एलोपैथी चिकित्सा पद्धति में रोग को शीघ्र और जबरन शान्त किया जाता है, इसमें रोग को जड़ से समाप्त करने के संदर्भ में सोचा नही जाता। जबकि भारतीय आयुर्वेद पद्धति रोग को बढ़ाकर उसे जड़ से समाप्त करता है। इस एलोपैथिक चिकित्सा अर्थात ट्रीटमेंट  की तरह ही पूर्वजों द्वारा निर्मित देश के कुओं को भुलाकर यथाशीघ्र नलकूप क्रान्ति लाकर देश को खुशहाल कर देने के उद्देश्य से सरकार ने कार्य करना अपना कर्तव्य समझा था।परिणाम आज आपके सामने है ।
यह सर्वविदित है कि जब कुआँ थे, तो लोग उतना ही पानी जमीन से निकालते थे जितना आवश्यक होता था। उस पानी को भी पीने, नहाने-धोने आदि गृहकार्यों में व्यय करते थे और जो अवशिष्ट व्यर्थ जल बचता था वह समीप ही बने सोखता में चला जाता था और निक्षेपित होकर भूगर्भ में समां जाता था अर्थात अवशिष्ट व्यर्थ पानी घरों में ही ही निर्मित सोखता के माध्यम से वापस धरती को दे दिया जाता था। सोखता के द्वारा भूगर्भ जलस्तर ठीक रहता था। देश के अधिकांश हिस्सों में दो चार मीटर गहरा खोदते ही पानी का फव्वारा फूट पड़ता था,वहीँ अब यह फव्वारा बहुत से क्षेत्रों में तो 200-400 फुट गहरे जाकर भी नही मिल पा रहा है । नलकूपों ने पेयजल के सुरक्षित भूगर्भीय भण्डारों को मिटाने में अहम भूमिका निभाई और आज हम इन भण्डारों के सिमटते आधार को देखकर भविष्य के लिए चिंतित हो रहे हैं। सब कुछ गंवाने के बाद अब जाकर हमें जल देवता का देवत्व व महत्व समझ में आ रहा है।


अपनी पहचान, अस्मिता,पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्यों के रखरखाव के साथ ही हमें मानव व देशहित में राष्ट्रीय चरित्र को बलवती करने की भी आवश्यकता है। पानी व्यर्थ बर्वाद करना हम भारतीयों की मुख्य आदत है, लेकिन उसे सोखता अथवा वर्षा के जल को जलसंरक्षण के माध्यम से उसे धरती को पुनः वापस करने पर हम विचार ही नही करते । पारम्परिक पद्धति के वैज्ञानिकों के अनुसार मारने वाली नलकूप क्रान्ति के घातक फल हम भोग रहे हैं और आगामी पन्द्रह वर्षों बाद उन घातक फलों के शिकार बनने जा रहे हैं। हमारे ज्ञानी पूर्वजों ने जल का महत्व समझकर उसे देवता माना और जल के दोहन से बचाकर केवल कुआँ खोदना ही श्रेयस्कर समझा। हमें अपने पूर्वजों के दिखलाये मार्ग का अनुसरण करते हुए कुओं का महत्व समझ लेना चाहिए क्योंकि आने वाली प्रलय से सिर्फ कुआँ ही बचा सकता है। वर्तमान में देश के लिए नौ लाख इकतालीस हजार पाँच सौ इकतालीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वर्षा जल सहेज कर भूगर्भ में भरने की संभावनाएँ तलाशी जा चुकी हैं। जिसमें पिचासी अरब घनमीटर जलसंरक्षण पर 79,178 करोड़ रूपये खर्च होने का अनुमान है।अब देखना यह है कि सरकार की यह कोशिश आखिर क्या नया गुल खिलाती है ?


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