राँची झारखण्ड से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक- ३१/ ०३/२०१५ को प्रकाशित लेख - असीमित नहीं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
असीमित नहीं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
-अशोक "प्रवृद्ध"
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक बनने वाले सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम अर्थात्त साइबर कानून 2008 की विवादास्पद धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों में प्रसन्नता,उत्साह और विजेता का भाव प्रदर्शित हो रहा है। यह कानून सोशल नेटवर्किंग साईट, वेबसाइटों पर तथाकथित अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देता था। साइबर कानून अर्थात आईटी ऐक्ट की धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के बाद सोशल मीडिया पर टिप्पथणी करने के मामले में पुलिस अब आनन-फानन गिरफ्तारी नहीं कर सकेगी। सोशल मिडिया में सक्रिय लोगों का कहना है कि साइबर कानून की धारा 66 ए को देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित करना भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था पर जनता के ढहते विश्वास को बचाने और बहाल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण घटना है। अपने फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को और भी संवैधानिक सुदृढता प्रदान करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि साइबर कानून की धारा 66ए संविधधान के अनुच्छेद 19(2) के अनुरूप नहीं है। सोच और आत्माभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधारभूत बताते हुए सर्वोच्च न्ययालय की पीठ ने कहा, साइबर कानून की धारा 66 ए से लोगों की जानकारी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार स्पष्ट तौर पर प्रभावित होता है।'इसे अस्पष्ट बताते हुए कहा कि किसी एक व्यक्ति के लिए जो बात अपमानजनक हो सकती है, वह दूसरे के लिए नहीं भी हो सकती है।
साइबर कानून की धारा 66 ए के हटने के बाद यद्यपि लोगों की प्रसन्नता सोशल मीडिया में देखी जा रही है और अब पूर्व से लिखने की अधिक स्वतंत्रता भले ही मिल गई है तथापि इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि आप जो चाहें उल्टा-सीधा लिख सकते हैं और आप पर कोई कार्यवाही नहीं होगी। कारर्वाई होगी अवश्य होगी, इसलिए अगर आप जोश में आकर कुछ भी लिखने का मन बना रहे हैं तो अभी भी जोखिम को समझते हुए और अन्य कानूनों के दायरे में रहकर ही लिखें। अधिकांश मामलों में तर्क यह दिया जाता है कि हमें इस तरह के कानून की कोई जानकारी नहीं थी लेकिन यह कोई सुरक्षित बचाव नहीं है। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित अर्थात अनलिमिटेड नहीं है, वरन यह कानून और संविधान के दायरे में है। उदाहरणतः साइबर कानून की धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के दूसरे ही दिन चेन्नई की न्यायालय ने कर्नाटक के श्रीनाथ नंबूदरी के द्वारा अपनी एक सहकर्मी को अश्लील और आपत्तिजनक ईमेल भेजे जाने मामले में अब दोष साबित हो जाने पर उसे एक साल जेल में बिताने की सजा सुनायी । सीबी-सीआईडी ने दिसम्बर 2011 में नंबूदरी के खिलाफ कई धाराओं के तहत केस दर्ज किया था। इसमें आईटी ऐक्ट की धारा 66ए भी (आपत्तिजनक और खतरनाक संदेश भेजने) भी शामिल थी। पुलिस के मुताबिक नंबूदरी सिरुसेरी स्थित टीसीएस में बतौर सॉफ्टवेयर इंजिनियर काम करता था, जो अपनी एक सहकर्मी के प्रति आकर्षित हो गया। परन्तु जब उसके सहकर्मी ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो नंबूदरी ने अप्रैल 2011 से उसे कई आपत्तिजनक और अपमानजनक ईमेल भेजने प्रारंभ कर दिए। एक बार जब वह महिला आधिकारिक काम से अमेरिका गई तो नंबूदरी ने उसके बारे में अश्लील कंटेंट कंपनी के हेड को ईमेल कर दिया। नंबूदरी ने फोटोशॉप टूल की मदद से महिला की नग्न तस्वीर उसके भाई को भेज दी। चेन्नई लौटने के बाद महिला ने इस पूरे मामले की शिकायत सीबीसीआईडी की आईटी शाखा में कराई। इसके बाद पुलिस ने नंबूदरी के खिलाफ मामला दर्ज किया। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आईटी ऐक्ट की धारा 66ए को असंवैधानिक बताते हुए इसे रद्द कर दिए जाने के बाद न्यायालय अदालत शायद श्रीनाथ को आरोपमुक्त घोषित करते हुए बरी कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विशेष सरकारी वकील मैरी जयंती ने कहा, 'नंबूदरी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से लगातार उसे परेशान करता रहा। न्यायालय ने आईटी ऐक्ट की धारा 67 (ई माध्यम से किसी आपत्तिजनक कंटेंट को प्रसारित या प्रकाशित करना), 506 (ii) (जान से मारने या चोट पहुंचाने की धमकी), और 509 (महिलाओं के सम्मान को चोट पहुंचाता कोई शब्द कहना या कोई अभद्र इशारा करना) इसके साथ ही तमिलनाडु राज्य महिला उत्पीड़न निषेध अधिनियम 1998, के तहत अपराधी माना।
सर्वोच्च न्यायालय ने 66A को अस्पष्ट बताते हुए इसे रद कर भले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में वृद्धि किया है लेकिन अन्य कानून जैसे एक्ट ऑफ डिफेमेशन, आई पीसी की धारा 499, सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने पर लगने वाली धारा 153 ए, धार्मिक भावनाओं को आहत करने पर लगने वाली धारा 295ए, और सी आर पी सी 95ए, अश्लीलता से संबंधित धारा 292 अभी अपनी जगह मौजूद हैं। कंटेप्ट ऑफ कोर्ट और पार्लियामेंटरी प्रिवेलेज के प्रावधान भी जारी हैं। इसके साथ ही भारतीय संविधान का 19 (1) (1) भी आपकी उलूल जुलूल हरकतों और कलम पर पाबंदी के लिए पूर्व से ही उपस्थित हैं। इसके तहत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 6 तरह की पाबंदियां लगाई गई हैं। साथ ही मानहानि के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 499 भी आपके गलत इरादों पर लगाम लगाने के लिए खड़ी है।
महाराष्ट्र की दो लड़कियों के साथ ही कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी आदि ऐसे लोग हैं, जो इस कानून के तहत जेल की हवा खा चुके हैं। सोशल मीडिया में कमेंट की वजह से मुम्बई की दो छात्राओं की गिरफ्तारी के बाद साइबर कानून की धारा 66 ए को चुनौती दी गई थी। श्रेया सिंघल नामक छात्रा व सामाजिक कार्यकर्तृ ने एक याचिका दायर कर रखी थी । इस मामले में याचिकाकर्ता एक एनजीओ, मानवाधिकार संगठन और एक कानून की विद्यार्थिनी थी। इन याचिकाओं पर याचिकाकर्ताओं ने सरकार पर इस कानून के दुरुपयोग का इल्जाम लगाया था। याचिकाकर्ताओं का दावा यह भी था कि यह कानून अभिव्यक्ति के उनके मूल अधिकार का उल्लंघन करता है।66 ए के मामले पर लम्बी सुनवाई के बाद 27 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता श्रेया सिंघल की याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सर्वोच्च न्यायालय के जज जस्टिस जे चेलमेष्वर,आर एफ नरीमन की पीठ ने इन याचिकाओं के सुनवाई के दौरान कई बार इस धारा पर सवाल उठाए थे। वहीं केन्द्र सरकार एक्ट को बनाए रखने की वकालत करती आ रही थी। केन्द्र ने न्यायालय में कहा था कि इस एक्ट का इस्तेमाल गंभीर मामलों में ही किया जाएगा। 2014 में केन्द्र ने राज्यों को एडवाइज़री जारी कर कहा था कि ऐसे मामलों में बड़े पुलिस अफसरों की इजाजत के बगैर कार्रवाई न की जाए। हालाँकि सरकार ने इस याचिका के विरोध में कहा है कि यह एक्ट वैसे लोगों के लिए है जो सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक चीजें पोस्ट कर शान्ति को खतरा पहुँचाना चाहते हैं। सरकार ने न्यायालय में इस एक्ट के बचाव में यह दलील दी कि क्योंकि इंटरनेट की पहुँच अब बहुत व्यापक हो चुकी है इसलिए इस माध्यम पर टीवी और प्रिण्ट माध्यम के मुकाबले ज्यादा नियमन होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने याचिकाकर्ता श्रेया सिंघल की याचिका पर फैसला सुनाते समय कहा है कि, धारा को समाप्त करना होगा क्योकि यह अभिव्यक्ति की आजादी पर लगने वाले मुनासिब प्रतिबंधों के आगे चली गई है। बहस, सलाह और भड़काने में अंतर है। बहस और सलाह लोगों को नाराज करती हो उन्हें रोका नहीं जा सकता। विचारों से फैले गुस्से को कानून व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखा जाए। अदालत में फैसला सुनाते हुए जस्टिस नरीमन ने कहा कि यह धारा (66 ए) साफ तौर पर संविधान में बताए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है। इसको असंवैधानिक ठहराने का आधार बताते हुए कोर्ट ने कहा कि प्रावधान में इस्तेमाल 'चिढ़ाने वाला', 'असहज करने वाला' और 'बेहद अपमानजनक' जैसे शब्द अस्पष्ट हैं क्योंकि कानून लागू करने वाली एजेंसी और अपराधी के लिए अपराध के तत्वों को जानना कठिन है। बेंच ने ब्रिटेन की अलग-अलग अदालतों के दो फैसलों का भी उल्लेख किया, जो अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुंचीं कि सवालों के घेरे में आई सामग्री अपमानजनक थी या बेहद अपमानजनक थी।
भारतवर्ष का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज की गारंटी देता है। संविधान में आत्माभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनुष्य का एक सार्वभौमिक और प्राकृतिक अधिकार है और लोकतंत्र, सहिष्णुता में विश्वास रखने वालों का कहना है कि कोई भी राज्य और धर्म इस अधिकार को छीन नहीं सकता। परन्तु यह भी सत्य है कि राष्ट्र में शान्ति, सुरक्षा, अस्मिता और विधि व्यवस्था बनाये रखने के लिए देश में इससे सम्बंधित अधिनियम होने आवश्यक हैं ।
असीमित नहीं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
-अशोक "प्रवृद्ध"
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक बनने वाले सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम अर्थात्त साइबर कानून 2008 की विवादास्पद धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों में प्रसन्नता,उत्साह और विजेता का भाव प्रदर्शित हो रहा है। यह कानून सोशल नेटवर्किंग साईट, वेबसाइटों पर तथाकथित अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देता था। साइबर कानून अर्थात आईटी ऐक्ट की धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के बाद सोशल मीडिया पर टिप्पथणी करने के मामले में पुलिस अब आनन-फानन गिरफ्तारी नहीं कर सकेगी। सोशल मिडिया में सक्रिय लोगों का कहना है कि साइबर कानून की धारा 66 ए को देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित करना भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था पर जनता के ढहते विश्वास को बचाने और बहाल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण घटना है। अपने फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को और भी संवैधानिक सुदृढता प्रदान करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि साइबर कानून की धारा 66ए संविधधान के अनुच्छेद 19(2) के अनुरूप नहीं है। सोच और आत्माभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधारभूत बताते हुए सर्वोच्च न्ययालय की पीठ ने कहा, साइबर कानून की धारा 66 ए से लोगों की जानकारी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार स्पष्ट तौर पर प्रभावित होता है।'इसे अस्पष्ट बताते हुए कहा कि किसी एक व्यक्ति के लिए जो बात अपमानजनक हो सकती है, वह दूसरे के लिए नहीं भी हो सकती है।
साइबर कानून की धारा 66 ए के हटने के बाद यद्यपि लोगों की प्रसन्नता सोशल मीडिया में देखी जा रही है और अब पूर्व से लिखने की अधिक स्वतंत्रता भले ही मिल गई है तथापि इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि आप जो चाहें उल्टा-सीधा लिख सकते हैं और आप पर कोई कार्यवाही नहीं होगी। कारर्वाई होगी अवश्य होगी, इसलिए अगर आप जोश में आकर कुछ भी लिखने का मन बना रहे हैं तो अभी भी जोखिम को समझते हुए और अन्य कानूनों के दायरे में रहकर ही लिखें। अधिकांश मामलों में तर्क यह दिया जाता है कि हमें इस तरह के कानून की कोई जानकारी नहीं थी लेकिन यह कोई सुरक्षित बचाव नहीं है। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित अर्थात अनलिमिटेड नहीं है, वरन यह कानून और संविधान के दायरे में है। उदाहरणतः साइबर कानून की धारा 66 ए को निरस्त कर दिए जाने के दूसरे ही दिन चेन्नई की न्यायालय ने कर्नाटक के श्रीनाथ नंबूदरी के द्वारा अपनी एक सहकर्मी को अश्लील और आपत्तिजनक ईमेल भेजे जाने मामले में अब दोष साबित हो जाने पर उसे एक साल जेल में बिताने की सजा सुनायी । सीबी-सीआईडी ने दिसम्बर 2011 में नंबूदरी के खिलाफ कई धाराओं के तहत केस दर्ज किया था। इसमें आईटी ऐक्ट की धारा 66ए भी (आपत्तिजनक और खतरनाक संदेश भेजने) भी शामिल थी। पुलिस के मुताबिक नंबूदरी सिरुसेरी स्थित टीसीएस में बतौर सॉफ्टवेयर इंजिनियर काम करता था, जो अपनी एक सहकर्मी के प्रति आकर्षित हो गया। परन्तु जब उसके सहकर्मी ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो नंबूदरी ने अप्रैल 2011 से उसे कई आपत्तिजनक और अपमानजनक ईमेल भेजने प्रारंभ कर दिए। एक बार जब वह महिला आधिकारिक काम से अमेरिका गई तो नंबूदरी ने उसके बारे में अश्लील कंटेंट कंपनी के हेड को ईमेल कर दिया। नंबूदरी ने फोटोशॉप टूल की मदद से महिला की नग्न तस्वीर उसके भाई को भेज दी। चेन्नई लौटने के बाद महिला ने इस पूरे मामले की शिकायत सीबीसीआईडी की आईटी शाखा में कराई। इसके बाद पुलिस ने नंबूदरी के खिलाफ मामला दर्ज किया। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आईटी ऐक्ट की धारा 66ए को असंवैधानिक बताते हुए इसे रद्द कर दिए जाने के बाद न्यायालय अदालत शायद श्रीनाथ को आरोपमुक्त घोषित करते हुए बरी कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विशेष सरकारी वकील मैरी जयंती ने कहा, 'नंबूदरी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से लगातार उसे परेशान करता रहा। न्यायालय ने आईटी ऐक्ट की धारा 67 (ई माध्यम से किसी आपत्तिजनक कंटेंट को प्रसारित या प्रकाशित करना), 506 (ii) (जान से मारने या चोट पहुंचाने की धमकी), और 509 (महिलाओं के सम्मान को चोट पहुंचाता कोई शब्द कहना या कोई अभद्र इशारा करना) इसके साथ ही तमिलनाडु राज्य महिला उत्पीड़न निषेध अधिनियम 1998, के तहत अपराधी माना।
सर्वोच्च न्यायालय ने 66A को अस्पष्ट बताते हुए इसे रद कर भले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में वृद्धि किया है लेकिन अन्य कानून जैसे एक्ट ऑफ डिफेमेशन, आई पीसी की धारा 499, सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने पर लगने वाली धारा 153 ए, धार्मिक भावनाओं को आहत करने पर लगने वाली धारा 295ए, और सी आर पी सी 95ए, अश्लीलता से संबंधित धारा 292 अभी अपनी जगह मौजूद हैं। कंटेप्ट ऑफ कोर्ट और पार्लियामेंटरी प्रिवेलेज के प्रावधान भी जारी हैं। इसके साथ ही भारतीय संविधान का 19 (1) (1) भी आपकी उलूल जुलूल हरकतों और कलम पर पाबंदी के लिए पूर्व से ही उपस्थित हैं। इसके तहत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 6 तरह की पाबंदियां लगाई गई हैं। साथ ही मानहानि के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 499 भी आपके गलत इरादों पर लगाम लगाने के लिए खड़ी है।
महाराष्ट्र की दो लड़कियों के साथ ही कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी आदि ऐसे लोग हैं, जो इस कानून के तहत जेल की हवा खा चुके हैं। सोशल मीडिया में कमेंट की वजह से मुम्बई की दो छात्राओं की गिरफ्तारी के बाद साइबर कानून की धारा 66 ए को चुनौती दी गई थी। श्रेया सिंघल नामक छात्रा व सामाजिक कार्यकर्तृ ने एक याचिका दायर कर रखी थी । इस मामले में याचिकाकर्ता एक एनजीओ, मानवाधिकार संगठन और एक कानून की विद्यार्थिनी थी। इन याचिकाओं पर याचिकाकर्ताओं ने सरकार पर इस कानून के दुरुपयोग का इल्जाम लगाया था। याचिकाकर्ताओं का दावा यह भी था कि यह कानून अभिव्यक्ति के उनके मूल अधिकार का उल्लंघन करता है।66 ए के मामले पर लम्बी सुनवाई के बाद 27 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता श्रेया सिंघल की याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सर्वोच्च न्यायालय के जज जस्टिस जे चेलमेष्वर,आर एफ नरीमन की पीठ ने इन याचिकाओं के सुनवाई के दौरान कई बार इस धारा पर सवाल उठाए थे। वहीं केन्द्र सरकार एक्ट को बनाए रखने की वकालत करती आ रही थी। केन्द्र ने न्यायालय में कहा था कि इस एक्ट का इस्तेमाल गंभीर मामलों में ही किया जाएगा। 2014 में केन्द्र ने राज्यों को एडवाइज़री जारी कर कहा था कि ऐसे मामलों में बड़े पुलिस अफसरों की इजाजत के बगैर कार्रवाई न की जाए। हालाँकि सरकार ने इस याचिका के विरोध में कहा है कि यह एक्ट वैसे लोगों के लिए है जो सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक चीजें पोस्ट कर शान्ति को खतरा पहुँचाना चाहते हैं। सरकार ने न्यायालय में इस एक्ट के बचाव में यह दलील दी कि क्योंकि इंटरनेट की पहुँच अब बहुत व्यापक हो चुकी है इसलिए इस माध्यम पर टीवी और प्रिण्ट माध्यम के मुकाबले ज्यादा नियमन होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने याचिकाकर्ता श्रेया सिंघल की याचिका पर फैसला सुनाते समय कहा है कि, धारा को समाप्त करना होगा क्योकि यह अभिव्यक्ति की आजादी पर लगने वाले मुनासिब प्रतिबंधों के आगे चली गई है। बहस, सलाह और भड़काने में अंतर है। बहस और सलाह लोगों को नाराज करती हो उन्हें रोका नहीं जा सकता। विचारों से फैले गुस्से को कानून व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखा जाए। अदालत में फैसला सुनाते हुए जस्टिस नरीमन ने कहा कि यह धारा (66 ए) साफ तौर पर संविधान में बताए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है। इसको असंवैधानिक ठहराने का आधार बताते हुए कोर्ट ने कहा कि प्रावधान में इस्तेमाल 'चिढ़ाने वाला', 'असहज करने वाला' और 'बेहद अपमानजनक' जैसे शब्द अस्पष्ट हैं क्योंकि कानून लागू करने वाली एजेंसी और अपराधी के लिए अपराध के तत्वों को जानना कठिन है। बेंच ने ब्रिटेन की अलग-अलग अदालतों के दो फैसलों का भी उल्लेख किया, जो अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुंचीं कि सवालों के घेरे में आई सामग्री अपमानजनक थी या बेहद अपमानजनक थी।
भारतवर्ष का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज की गारंटी देता है। संविधान में आत्माभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनुष्य का एक सार्वभौमिक और प्राकृतिक अधिकार है और लोकतंत्र, सहिष्णुता में विश्वास रखने वालों का कहना है कि कोई भी राज्य और धर्म इस अधिकार को छीन नहीं सकता। परन्तु यह भी सत्य है कि राष्ट्र में शान्ति, सुरक्षा, अस्मिता और विधि व्यवस्था बनाये रखने के लिए देश में इससे सम्बंधित अधिनियम होने आवश्यक हैं ।
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