Saturday, March 14, 2015

अनुपम कला है गोदना -अशोक "प्रवृद्ध"

राँची, झारखण्ड से प्रकाशित समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - - १४ / ०३ / २०१५ को प्रकाशित लेख - अनुपम कला है गोदना
राष्ट्रीय खबर , दिनांक- १४/३/२०१५ 


अनुपम कला है गोदना
-अशोक “प्रवृद्ध”

भारतवर्ष में चित्रकला की अत्यन्त प्राचीन समृद्ध और गौरवशाली परम्परा रही है। सहस्त्राब्दियों पुरानी यह परम्परा भारतीय गौरवमयी इतिहास को विशिष्टिता प्रदान करती है। कहा जाता है कि चित्रकला के बिना देश का इतिहास बिल्कुल भिन्न होता। इतिहास लिखे जाने से पहले ही इस चित्रकला ने इतिहास रचना में कारगर भूमिका निभाई थी। चित्रकला की इस समृद्ध गौरवमयी परम्परा में ही अभिन्न रूप से सन्निहित भारतीय आम जनजीवन से जुडी लोक संस्कृति एक अत्यन्त पुरातन सुन्दर, मनमोहक व अनुपम कला है गोदना । मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति सदैव से ही रही है कि वह विभिन्न तरीकों,  साधनों व उपायों से अपने शरीर को सजाता-संवारता है और अपने को लोगों की नज़रों में सुन्दर दिखने-दिखाने की कोशिश करता रहता है। शरीर को सजा-संवार कर सुन्दर दिखने के मनुष्य के उन्हीं साधनों में से एक है–गोदना कला। गोदना को अंग्रेजी में टैटू कहते हैं। झारखण्ड, छतीसगढ़ आदि प्रदेशों में शरीर को प्राकृतिक विधि से रंगने की इस कला गोदना को खोदा भी कहा जाता है ।गोदने की प्रथा न सिर्फ भारतवर्ष में बल्कि विदेशों यथा, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में भी प्राचीन काल से ही  चली आ रही है और आज इसका भारतवर्ष में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अच्छा-खासा प्रचलन और व्यवसाय कायम हो चुका है।
गोदना अर्थात खोदा प्रथा की शुरूआत कब और कैसे हुई,इसके बारे में अनेक पुरानी कहानियाँ सदियों से प्रचलित हैं, परन्तु इसका अनुमान प्राचीन साहित्य, कला, प्राचीन प्रथाओं-परम्पराओं के अध्ययन में गोदने  की उपस्थिति व उसके उपलब्ध विवरणों से लगाया जा सकता है। सनातन संस्कृति में वेद-उपनिषद ,रामायण, महाभारत,पुराण व अन्य पुरातन ग्रन्थों- साहित्यों और प्रतीकों, छवियों, मिथकों, किंवदंतियों और घटनाओं के सम्मिश्रण से भाbhaaaaरतवर्ष में एक अत्यन्त जीवन्त और बहुरंगी इतिहास का निर्माण हुआ। वक्त के भयावह थपेडों, विदेशी हमलों के बावजूद हमारी चित्रकला की परम्परा न सिर्फ पुष्पित-पल्लवत और जीवित रही, बल्कि लगातार समृद्ध भी होती गई है।आदिकाल से ही मानव अपने सौंदर्य के प्रति सचेत रहा है, सुन्दर और दूसरों से अलग, विशिष्ट दिखने की चाह में स्त्रीद-पुरुष अपने शरीर पर विविध आकृतियों की गोदना गुदवाया करते थे।यह उनके जीवन का अहम अंग रहा है। बाद में इसी के आधार पर कई जातियों और जनजातियों को पहचाना जाने लगा जो आज भी कायम है और इन्हें इनके खास गोदने से ही पहचाना जाता था। गोदने का अंकन भाल पर बहुत प्राचीन समय से किया जाता रहा है,जिसे देखकर उस जनजाति की पहचान किया जाता है।अंधविश्वासों से उपजी इस कला का रूप, पुरातन मान्यताएँ आज भी बरकरार हैं, जिसका विवरण हमें मिथकों,प्रतीकों, किम्बदन्तियों ,लोक गीतों, किस्से-कहानियों में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में देखने-सुनने को मिलता है।
 वर्तमान में कुछ ग्रामीण व शहरी पुरुषों को अपने हाथों में अपना नाम, घड़ी, शेर, कोबरा, बिच्छू, श्रीहनुमान अन्य धार्मिक प्रतीक चिह्न आदि के चित्र गुदवाए देखा जा सकता है, और अब तो कुछ महिलाओं के भी विविध अंगों पर भान्ति-भान्ति के गोदना गुदवाने की कथाएँ बड़ी प्रचलित होने लगी हैं और बड़े ही चटखारे के देखी-सुनी जाती हैं परन्तु प्राचीन काल में वीर पुरूष, योद्धा स्वयं को कठोर, भयानक दिखाने के लिए भान्ति-भान्ति के गोदनों का प्रयोग करते थे। पुरातन ग्रन्थों में प्राचीन भारतवर्ष की सांग्रामिकता से सम्बंधित विवरणों के अध्ययन से स्पष्ट होता है गोदना प्रथा अत्यन्त प्राचीन काल से सौंदर्य वर्द्धन के साथ ही ऐयारी अर्थात जासूसी, गुप्तचरी आदि कई विविध प्रयोगों में कुशलता से प्रयोग में लायी जाती है और प्राचीन काल में इस कला से जासूसी की जाती थी और रहस्यमयी गुप्त संदेश भेजे जाते थे। पुराण और और बाद के कुछ प्राचीन ग्रंथीय विवरणों के अनुसार पहले जासूस का सिर मुड़कर उस पर गोदना गोदने की कला से गुप्त संदेश लिख दिया जाता था और फिर बाद में उसे बाल आने पर जासूसी करने के लिए भेजा जाता था। आधुनिक विवरणों के अनुसार वर्षों पहले विश्व में इस कला के असली प्रमाण ईसा से १३००  वर्ष पूर्व मिस्र में, तथा ३०० वर्ष ईसा पूर्व साइबेरिया के कब्रिस्तान में मिले हैं।भारतवर्ष की विभिन्न प्रदेशों में रहने वाली अनेक जनजाति और हिन्दू समाज में यह गोदना प्रथा प्राचीन काल से ही प्रचलित है।

भारतवर्ष के जातीय व जनजातीय समुदाय की परम्परा न केवल आकर्षक,मनमोहक व रोचक है, बल्कि उनमें विविधता व रंगीनियाँ भी है। गोदना कला की गहराई से अध्ययन से पत्ता चलता है कि जनजातीय समुदाय के लोग अपनी इच्छानुसार शरीर के विभिन्न हिस्सों पर प्राकृतिक विधि से चित्र अंकित कराते हैं जो बहुत प्रयत्न किए जाने बाद भी नहीं मिटता है। यह उनकी परम्परा भी है और काफी हद तक इससे उनकी कई सामाजिक, धार्मिक व सामुदायिक मान्यतायें भी जुड़ी हुई हैं। भारतवर्ष के जनजातीय समुदाय का मानना है कि गोदना एक ऐसी अलौकिक श्रृंगार है, जो जन्म से मृत्यु तक साथ रहता है। मरने के बाद परलोक में मृतक के वैतरणी पार करने के समय आने वाली मुश्किलों, यातनाओं से रक्षा करता है। मृतक व्यक्ति के तन से सारे जेवर उतारे जा सकते हैं, लेकिन एक गोदना है जो नहीं उतारा जा सकता। यह कहावत झारखण्ड की खड़िया, संथाल आदि जनजाति में प्रचलित है कि मरने पर सब गहने उतार लिये जाते हैं, परन्तु गोदना अर्थात खोदा दूसरी दुनिया तक साथ जाती है।

झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की कुछ जनजातियों में यह माना जाता है कि गोदना गुदवाये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। गोंडवाना समाज में यह मान्यता है कि गोदना कला जीवन के अन्तिम समय तक शरीर में मौजूद रहती है और आत्मा के साथ मिल जाती है। कुछ जनजातियों का यह मानना है कि गोदना के कारण आत्मायें क्षति नहीं पहुँचा सकती। भीलों की मान्यता है कि शरीर को इससे कई बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है। वही गोंड जनजाति की मान्यता है कि इसे कोई चुरा नहीं सकता। गोंड जनजाति गोदना को काला कुत्ता की भान्ति मानते हैं। काला कुत्ते को समाज बहुत अशुभ मानता है और उसे कोई चुराता नहीं, उसी प्रकार जिस शरीर में गोदना का चिन्ह अंकित है, उसे कोई नहीं चुरायेगा। गोदना के साथ शारीरिक सक्षमता को जोड़ा जाता है। जैसे गोंड जनजाति के लोगों की यह मान्यता हैं कि जो बच्चा चल नहीं सकता, चलने में कमजोर है, उस के जाँघ के आस-पास गोदने से वह न सिर्फ चलने लगेगा, बल्कि दौड़ना भी आरम्भ कर देगा। भील यह मानते हैं कि गोदने के कारण शरीर बीमारियों से बच जाता है, मनुष्य स्वस्थ रहता है।गोदना को सर्वाधिक पसन्द करने वाले बैगा जनजाति के लोगों की धार्मिक, सामाजिक मान्यता है कि यह स्वर्ग में उनकी पहचान कायम रखता है। दुनिया में जो गोदना नहीं गुदवाते, उन्हें भगवान के सामने साबल से गोदना गुदवाना पडे़गा। जिस स्त्रीु के शरीर पर जितने ज्यादा गोदना होगा, उसे ससुराल में उतना ही सम्मान मिलता है। जिसके शरीर पर गोदना नहीं होता, उसका मायका गरीब माना जाता है।छत्तीसगढ़ के बस्तर की लोक संस्कृति में गोदना कला का बहुत महत्व है।यहाँ न केवल गोंड समाज, वरन माडिसा, मुरिया समाज व हिन्दू समाज में भी इसका प्रचलन है। यहाँ गाँवों में गोदना कला का प्रचलन है। गोदना के बिना यहाँ बेटियाँ ब्याही नहीं जाती।इसी प्रकार अफ्रीका में गोदना को व्यक्ति के विभिन्न गुणों के साथ जोड़ा जाता है।अगर किसी के शरीर में बहुत सारे गोदना के चिन्ह है तो वह व्यक्ति बहुत साहसी माना जाता है।गोदने की प्रथा में शरीर में बहुत व्यथा होती है,इसके बाद भी शरीर में गोदना गुदवाने के कारण ऐसे व्यक्ति को साहसी माना जाता है।
वर्तमानयुगीन शहरी महिलायें जहाँ चेहरे के तिलों, मुहांसों के दागों को हटवाकर चेहरे को सुन्दर, आकर्षक बनाने में संलग्न हैं, वही ग्रामीण व जनजातीय महिलायें शरीर के विभिन्न हिस्सों, जैसे- माथे की बिंदिया, गालों पर तिल, ठुडड़ी पर तिल, आंखों के दोनों किनारे दो आड़ी रेखाएँ, हाथों पर सुन्दर फूल, चाँद, तारे, सूरज, तोता, हिरण, मोर, बेल-बुटे, अपने किसी प्रिय का नाम, धार्मिक चिन्ह, पैरों पर आभूषण, फूलों के चित्र आदि आकृतियों का निर्माण कराती है  और शरीर को सुन्दर बनाने में ज्यादा बिश्वास करती हैं। उन्हें सोने-चाँदी के गहनों की तरह गोदना से भी लगाव होता है। यह भी स्मरणीय है कि ग्रामीण महिलायें अपने पति का नाम नहीं लेती, इसलिए अपने नाम के साथ पति का नाम अपने हाथ पर लिखवाकर अपने पति से मधुर सम्बंधों और भावनाओं का प्रदर्शन करती हैं।
लोक संस्कृति के प्रतीक के साथ ही कला के मनमोहक रूप गोदना कला का भारतीय संस्कृति में अपना अलग विशिष्ट महत्व है। समाज कोई भी हो, कला का स्थान हर तरह से समाज में रहता है। भारतवर्ष के विविध  समाजों में कला की कई परम्पराएँ पल्लवित-पुष्पित,संवर्द्धित और संरक्षित हुई हैं। एक समाज विशेष में उपजी गोदना कला सभी समाजों को संबोधित करती है। इसलिए, इसका वजूद कल भी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। भले ही इसका रूप क्यों न बदल जाये, लेकिन यह संस्कृति, परम्परा की प्रतीक हमेशा बनी रहेगी।फिर भी गोदना कला के संरक्षण-संवर्द्धन की महती आवश्यकता महसूस की जा रही है ।
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हिमाचलप्रदेश ,उत्तराखण्ड से प्रकाशित दिव्य हिमाचल के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- १९/४/२०१५ को प्रकाशित आलेख - पहचान और अभिव्यक्ति की अनूठी कला गोदना
दिव्य हिमाचल , दिनांक- १९/४/२०१५ 

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