राँची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - ०५/०३/२०१५ को प्रकाशित आलेख -उल्लास का पर्व मदनोत्सव
उल्लास का पर्व मदनोत्सव
-अशोक "प्रवृद्ध"
भारतीय समाजशास्त्र में वर्ष के बारह महीनों को छः ऋतुओं में बाँटा गया है जिसमें प्रीति पूर्वक परस्पर सहसम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रत्येक जीव-जन्तु के लिए भिन्न-भिन्न ऋतुएँ होती हैं,परन्तु मनुष्य के लिए ऋषियों ने वसन्त ऋतु को ही सर्वाधिक उपयुक्त मानकर वसन्तपञ्चमी के दिन इसके स्वागत पर उत्सव मनाने का भी संकेत दिया है।जाड़े की ऋतु के पश्चात वसन्त की शीतोष्ण वायु जैसे ही तन-मन का स्पर्श करती है, सम्पूर्ण मानवता शीत की ठिठुरन छोड़ कर आनन्द और प्रस्फुरण का अनुभव कर हर्षोल्लास मनाने लगती है। यही कारण है कि ऋतुओं का राजा वसन्त सदा से ही कवियों , साहित्यकारों और रसिकजनों का भी प्रिय विषय रहा है। वैदिक ग्रन्थों से लेकर वर्तमानयुगीन साहित्यों में अर्थात प्रत्येक युग के भारतीय साहित्य में वसन्त के आनन्द, उत्प्रेरण और मनबहलावों का मनोरंजक वर्णन अंकित मिलता है। संस्कृत के प्राय: समस्त काव्यों, नाटकों, कथाओं में कहीं न कहीं वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव का वर्णन अवश्य ही अंकित मिलता है।पुरातन साहित्यों के अनुसार प्राचीन काल में वसन्त में वन विहार, झूला दोलन (झूले पर झूलना), फूलों का श्रृंगार और मदन उत्सव मनाने की अदभुत परम्परा थी। भारतीय पुरातन ग्रन्थ इस बात का भरपूर प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि प्राचीनकाल से ही हमारे देश में वसन्तोत्सव, जिसे कि मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है, मनाने की अद्भुत, विशाल और मनमोहक परम्परा रही है। प्राचीनकाल में वसन्तोत्सव का दिन कामदेव के पूजन का दिन होता था और वसन्तपञ्चमी के बाद पूरे दो महीने तक वसन्तोत्सव अर्थात मदनोत्सव का कार्यक्रम चलता रहता था।आज भी भारतवर्ष का मौसम इस समय अर्थात वसन्त काल में इसी रंग में रंगा नजर आता रहता है, जो वास्तव में प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही मौसम होता है। होली का उत्सव इसका चरमबिन्दु है, जब रस के रसिया का एकाकार हो जाता है। वसन्त काम का सहचर है , इसीलिए भारतवर्ष में वसन्त ऋतु में मदनोत्सव मनाने का विधान है।पुरातन काल से ही भारतवर्ष में काम को निकृष्ट नहीं मानकर दैवी स्वरूप प्रदान कर उसे कामदेव के रूप में मान्यता दी गई है। यदि काम इतना विकृत होता तो भगवान शिव अपनी क्रोधाग्नि में काम को भस्म करने के बाद उसे अनंग रूप में पुनः क्यों जीवित करते ? इसका अर्थ यह है कि काम का साहचर्य उत्सव मनाने योग्य है। जब तक वह मर्यादा में रहता है , उसे भगवान की विभूति माना जाता है,लेकिन जब और जैसे ही वह मर्यादा छोड़ देता है तो आत्मघाती बन जाता है , शिव का तीसरा नेत्र (विवेक) उसे भस्म कर देता है। भगवान शिव द्वारा किया गया काम-संहार मनुष्य को यही शिक्षा देता है ,समझाता है।
वेदों, उपनिषदों, पुराणों में काम के प्रति सहजता का एक भाव पाया जाता है। सम्पूर्ण पुरातन भारतीय साहित्य काम की सत्ता को स्वीकार करता है और जीवन में काम की महत्वपूर्ण भूमिका को मानकर जीवन जीने की सलाह देता है । पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि प्राचीन काल में वसन्तपञ्चमी का दिन मदनोत्सव और बसन्तोत्सव के रूप में मनाया जाता था। इस दिन स्त्रियाँ अपने पति की पूजा कामदेव के रूप में करती थीं ।वसन्तपञ्चमी के दिन ही कामदेव और रति ने पहली बार मानव हदय में प्रेम एवं आकर्षण का संचार किया था और तभी से यह दिन वसन्तोत्सव तथा मदनोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। आनन्द,उल्लास और लोकानुरंजन के इस उत्सव को मदनोत्सव, वसन्तोत्सव, कामदेवोत्सव, कौमुदी महोत्सव, और शरदोत्सव आदि नामों से पुरातन साहित्य में अंकित किया गया है और इसमें काम और रति की पूजा का विधान है। कालिदास इसे ऋतु-उत्सव भी कहते हैं ।मदनोत्सव का अधिष्ठाता कामदेव को भारतीय शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है। उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वह विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वह इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, काम, विश्वकेतु,मन्मथ, मनसिजा (मनोज), मदन, प्रद्युमन, मीनकेतन, मकरध्वज,रतिपति, रतिनायक, दर्पक, पञ्चशर, स्मर, शंबरारि, कुसुमेषु, अनन्यज, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधन्वा आदि प्रसिद्ध हैं। यूनान में ये क्यूपिड है। कामदेव, हिंदू देवी श्रीलक्ष्मी के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का अवतार हैं। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण को भी माना जाता है। जिन्होंने रति के रूप में सोलह हजार पत्नियों से महारास रचाया था और व्रजमण्डल की सभी गोपियाँ उन पर न्यौछावर थीं।
भारतीय पुरातन साहित्य में कामदेव की कल्पना एक अत्यन्त रूपवान युवक के रूप में की गई है और ऋतुराज वसन्त को उसका मित्र माना गया है ।कामदेव के पास पाँच तरह के बाणों की कल्पना भी की गई है।य़ह हैं सफेद कमल, अशोक पुष्प, आम्रमंजरी, नवमल्लिका, और नीलकमल। वह तोते में बैठ कर भ्रमण करते हैं।कामदेव का धनुष प्रकृति के सबसे ज्यादा मजबूत उपादानों में से एक है।यह धनुष मनुष्य के काम में स्थिरता-चंचलता जैसे विरोधाभासी अलंकारों से युक्त है। इसीलिए इसका एक कोना स्थिरता का और एक कोना चंचलता का प्रतीक होता है। वसन्त, कामदेव का मित्र है इसलिए कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वर विहीन होती है अर्थात कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं, तो उसकी आवाज नहीं होती। इसका मतलब यह अर्थ भी समझा जाता है कि काम में शालीनता जरूरी है। तीर कामदेव का सबसे महत्वपूर्ण शस्त्र है। यह जिस किसी को बेधता है उसके पूर्व न तो आवाज करता है और न ही शिकार को सम्भलने का मौका देता है। इस तीर के तीन दिशाओं में तीन कोने होते हैं, जो क्रमश: तीन लोकों के प्रतीक माने गए हैं। इनमें एक कोना ब्रह्म के अधीन है, जो निर्माण का प्रतीक है। यह सृष्टि के निर्माण में सहायक होता है। दूसरा कोना विष्णु के अधीन है, जो ओंकार या उदर पूर्ति (पेट भरने) के लिए होता है। यह मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है। कामदेव के तीर का तीसरा कोना महेश (शिव) के अधीन होता है, जो मकार अर्थात मोक्ष का प्रतीक है। यह मनुष्य को मुक्ति का मार्ग बतलाता है, अर्थात काम न सिर्फ सृष्टि के निर्माण के लिए जरूरी है, प्रत्युत मनुष्य को कर्म का मार्ग बतलाने और अन्त में मोक्ष प्रदान करने का मार्ग भी सुझाता है। कामदेव के धनुष का लक्ष्य विपरीत लिंगी होता है। इसी विपरीत लिंगी आकर्षण से बंधकर पूरी सृष्टि संचालित होती है। कामदेव का एक लक्ष्य स्वयं काम हैं, जिन्हें पुरुष माना गया है, जबकि दूसरा रति हैं जो स्त्री रूप में जानी जाती हैं। कवच सुरक्षा का प्रतीक है। कामदेव का रूप इतना बलशाली है कि यदि इसकी सुरक्षा नहीं की गई तो विप्लव ला सकता है। इसीलिए यह कवच कामदेव की सुरक्षा से निबद्ध है। यानी सुरक्षित काम प्राकृतिक व्यवहार केलिए आवश्यक माना गया है, ताकि सामाजिक बुराइयों और भयंकर बीमारियों को दूर रखा जा सके।
इतिहास कथाओं में कामदेव के नयन, भौं और माथे का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनके नयनों को बाण या तीर की संज्ञा दी गई है। शारीरिक रूप से नयनों का प्रतीकार्थ ठीक उनके शस्त्र तीर के समान माना गया है। उनकी भवों को कमान का संज्ञा दी गई है। ये शान्त होती हैं, लेकिन इशारों में ही अपनी बात कह जाती हैं। इन्हें किसी संग या सहारे की भी आवश्यकता नहीं होती। कामदेव का माथा धनुष के समान है, जो अपने भीतर चंचलता समेटे होता है, लेकिन यह पूर्णरूपेण स्थिर होता है। माथा पूरे शरीर का सर्वोच्च हिस्सा है, यह दिशा-निर्देश देता है।
हाथी को कामदेव का वाहन माना गया है। वैसे कुछ शास्त्रों में कामदेव को तोते पर बैठे हुए भी बताया गया है, लेकिन इसे मूल अवधारणा में शामिल नहीं किया गया है। प्रकृति में हाथी एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो चारों दिशाओं में स्वच्छन्द विचरण करता है। मादक चाल से चलने वाला हाथी तीन दिशाओं में देख सकता है और पीछे की तरफ हल्की सी भी आहट आने पर सम्भल सकता है। हाथी कानों से हर तरफ की ध्वनि सुन सकता है और अपनी सूँढ़ से चारों दिशाओं में वार कर सकता है। ठीक इसी प्रकार कामदेव का चरित्र भी भारतीय पुरातन शास्त्रों में देखने में आता है। ये स्वच्छन्द रूप से चारों दिशाओं में घूमते हैं और किसी भी दिशा में तीर छोड़ने को तत्पर रहते हैं। कामदेव किसी भी तरह के स्वर को शीघ्र ही भाँपने कि क्षमता अर्थात माद्दा भी रखते हैं।
संस्कृत की कई प्राचीन ग्रन्थों में कामदेव के उत्सवों का उल्लेख अंकित मिलता है।इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतवर्ष में वसन्त ऋतु उत्सवों का काल हुआ करता था । कालिदास ने अपनी सभी कृतियों में वसन्त और वसन्तोत्सवों का व्यापक वर्णन किया है । ऐसे ही एक उत्सव का नाम था मदनोत्सव अर्थात प्रेम प्रर्दशन का उत्सव।यह कई दिनों तक चलता था ।राजा अपने महल में सबसे ऊंचे स्थान पर बैठ कर उल्लास का आनन्द लेता था । इसमें कामदेव के वाणों से आहत सुन्दरियाँ मादक नृत्य किया करती थीं। गुलाल व रंगों से पूरा माहैल रंगीन हो जाया करता था । सभी नागरिक आँगन में नाचते गाते और पिचकारियों से एक-दूसरे पर रंग फेकते। इसके लिए कालिदास के कुमारसम्भवम में श्रंगक शब्द का इस्तेमाल हुआ है। नगरवासियों के शरीर पर शोभायामान स्वर्ण आभूषण और सिर पर धारण किए हुए अशोक के लाल फूल इस सुनहरी आभा को और भी अधिक बढ़ा देते थे । युवतियाँ भी इसमें शामिल हुआ करती थीं इस जल क्रीड़ा में वह सिहर उठतीं (श्रंगक जल प्रहार मुक्तसीत्कार मनोहरं ) महाकवि कालिदास के कुमारसम्भवम में ही कामदेव से संबधित एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है ।इस कथा के अनुसार भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था तब कामदेव की पत्नी रति ने जो मर्मस्पर्शी विलाप किया उसका बड़ा ही जीवंत वर्णन इसमें अंकित मिलता है।अशोक वृक्ष के नीचे रखी कामदेव की मूर्ति की पूजा का भी उल्लेख मिलता है । सुन्दर कन्याओं के लिए तो कामदेव प्रिय देवता थे । कालिदास की रत्नावली में भी यह उल्लेख है कि अंत;पुर की परिचारिकायें हाथों में आम्रमंजरी लेकर नाचती गाती थीं ।यह इतनी अधिक क्रीड़ा करती थीं लगता था मानो इनके स्तन भार से इनकी पतली कमर टूट ही जायेगी। मदनोत्सव का वर्णन कालिदास ने विषद रूप में अपने ग्रन्थों में किया है । ऋतुसंहार के षष्ठ सर्ग में कालिदास ने बसन्त का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है । कुछ उदाहरण देखिए-
इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों की मदमाती आंखों की चंचलता में, उनके गालों में पीलापन, कमर में गहरापन और नितंबों में मोटापा बनकर बैठ जाता है। काम से स्त्रियां अलसा जाती हैं । मद से चलना बोलना भी कठिन हो जाता है और टेढ़ी भौंहों से चितवन कटीली जान पड़ती है। मदनोत्सव ही बाद में शांति निकेतन में गुरूदेव के सान्निध्य में दोलोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा । कामदेव के पुजारियों के अनुसार कृष्ण ने रासलीला के रूप में इस उत्सव को एक नया आयाम दिया । हर गोरी राधा बन गयी हैं ।
भवभूति के श्मालती-माधव के अनुसार वसन्तोत्सव मनाने के लिए विशेष मदनोत्सव बनाया जाता था जिसके केन्द्र में कामदेव का मन्दिर होता था। इसी मदनोत्सव में सभी स्त्री-पुरुष एकत्र होते, फूल चुनकर हार बनाते, एक-दूसरे पर अबीर-कुमकुम डालते और नृत्य संगीत आदि का आयोजन करते थे। बाद में वह सभी मन्दिर जाकर कामदेव की पूजा करते थे।संस्कृत साहित्य के नाटक भास के चारूदत्त में भी इसी प्रकार के एक उत्सव का उल्लेख मिलता है ।इसमें कामदेव का एक भव्य जुलूस गाजे-बाजों के साथ निकाला जाता था जिसमें कामदेव के एक चित्र के साथ संगीत नृत्य करते हुए अनेक नागरिक सम्मिलित होते हैं। यहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि गणिका वसन्तसेना की नायक चारूदत्त से पहली मुलाकात कामोत्सव के समय ही हुई थी। इसी प्रकार मृच्छकटिकम् नाटक में भी वसन्तसेना इसी प्रकार के जुलूस में भाग लेती है । एक अन्य पुस्तक वर्ष-क्रिया कौमुदी के अनुसार इसी त्योहार में सुबह गाने-बजाने, कीचड़ फेंकने के कार्य संपन्न किये जाते हैं । सायंकाल सज्जित होकर लोग मित्रों से मिलते हैं । धम्मपद के अनुसार महामूर्खों का मेला मनाया जाता है । सात दिनों तक गालियों का आदान-प्रदान किया जाता था । भविष्य पुराण के अनुसार बसन्त काल में कामदेव और रति की मूर्तियों की स्थापना और पूजा-अर्चना की जाती है । रत्नावली नामक पुस्तक में मदनपूजा का विषद वर्णन मिलता है । हर्ष चरित में भी मदनोत्सव का वर्णन मिलता है।दशकुमार चरित्र नामक पुस्तक में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है । इस त्योहार पर राजा और आम नागरिक सभी बराबर है।संस्कृत की पुस्तक कुट्टनीमतम् में भी गणिका और वेश्याओं के साथ मदनोत्सव मनाने का विषद वर्णन है।
अवदान कल्पलता नामक ग्रंथ में वाराणसी के राजा कलभु के सपरिवार वसन्तकालीन-विहार और वन केलि का वर्णन है। इसमें कहा गया है कि वह देर तक क्रीडा कौतुक कर, थक कर सो गया। इसी बीच उसकी प्रिय रानी मंजरी फूल तोड़ती हुई दूर निकल गयी। वहाँ महामुनि क्षांतिवादिन तपस्या कर रहे थे। उन्हें देख कर वह ठगी-सी रह गई। तभी राजा उसे ढूँढता हुआ वहाँ आ पहुँचा और रानी को उस अवस्था में देखकर क्रोध से पागल हो गया। उसने मुनि के हाथ पैर कटवा दिए। फलस्वरूप राज्य में भारी अकाल पड़ा। बाद में मुनि ने राजा को इस आपत्ति से उबारा।संस्कृत के एक ग्रन्थ पिण्ड नियुक्ति में चन्द्रानना नगरी के राजा चन्द्रवतंस के वसन्त विहार के सम्बन्ध में एक रोचक कथा मिलती है। नगरी के पूर्व तथा पश्चिम में सूर्योदय तथा चन्द्रोदय नामक दो बगीचे थे। राजा ने वसन्त काल में क्रीडा कौतुक के अभिप्राय से सूर्योदय उद्यान में विहार का निश्चय कर के घोषणा करवाई कि उस दिन नागरिक सूर्योदय उद्यान में न जाएँ। सूर्योदय उद्यान पर पहरे लगा दिए गए। रात में अचानक राजा को प्रात:कालीन धूप का ख्याल आया अत: यात्रा का कार्यक्रम सूर्योदय उद्यान के स्थान पर चन्द्रोदय उद्यान में परिवर्तित कर दिया गया। चन्द्रोदय उद्यान में अन्तःपुर की रानियों को राजा के साथ क्रीडा कौतुक करते हुए अनजाने ही अनेक नागरिकों ने देख लिया। इन नागरिकों को पहरेदारों ने पकड़ लिया। दूसरी ओर कुछ नागरिक जो पहले ही सूर्योदय उद्यान में राजा के क्रीडा कौतुक को देखने जा छिपे थे, वे भी पकड़ लिए गए। अन्त में जिन्होंने राजाज्ञा का उल्लंघन किया था वे दण्डित किए गए, शेष छोड़ दिए गए।
जातक ग्रन्थों में राजा शुद्धोदन की रानियों द्वारा लुम्बिनी उद्यान में शालभंजिका पर्व मनाने का बड़ा जीवन्त और सुन्दर वर्णन है। कपिलवस्तु और देवदह नगरों के मध्य सघन शालवन में वसन्त के स्पर्श के कारण प्रत्येक पत्र और पुष्प में सिहरन हो रही थी। हर शाख नवपल्लवित किसलय व पुष्पों से झुक गई थी। ऐसा मोहक दृश्य देख देवियाँ रह न सकीं और महादेवी सहेलियों सहित वसन्त विहार को निकल पड़ीं। एक मंगलमय शाल वृक्ष की टहनी को पकड़ने के लिए उन्होंने हाथ उठाया तो वह टहनी स्वयं ही झुक गई। महादेवी ने उसे थाम लिया। ऐसी अवस्था में महादेवी को प्रसव पीड़ा का अनुभव हुआ।शिशुपाल वध महाकाव्य में रैवतक पर्वत पर यादवों की वन केलि का खूब विस्तृत वर्णन है। प्राकृत भाषा के नाया धम्म कहाओ नामक ग्रन्थ में चम्पानगरी के दो संपन्न व्यापारी पुत्रों जिनदत्त और सागर दत्त की देवदत्ता नामक अत्यन्त सुन्दर और सम्पन्न गणिका के साथ उद्यान यात्रा का विस्तृत व श्रृंगारिक वर्णन है।पद्मचूड़ामणि में कुमार गौतम की रनिवास सहित उद्यान यात्रा का मनोरम वर्णन मिलता है। संक्षेप में मन बहलाव के लिये स्त्रियाँ कभी फूल पत्तियाँ चुनतीं, कभी उनके गहने बनातीं, कभी अशोक पर पैरों से प्रहार करतीं और कभी मौलश्री पर सुरा के कुल्ले करतीं। कभी केशों को फूलों से सजातीं, आम की कोपलें तोड़तीं, शेफाली और सिंदुवार के तिलक लगातीं ओर कभी प्रियतम के कानों में फूल खोंस कर उसे हृदय से लगातीं।
जैनियों के ग्रन्थ जैन हरिवंश का कथन है कि उद्यान यात्राएँ वन विहार और सैर सपाटे प्राय: वसन्त काल में ही होते थे, जबकि स्त्री-पुरुष एक साथ एकत्र होकर मद्यपान करते थे। फूलों को चुनने और सजाने से संबंधित अनेक प्रकार के वसन्तकालीन मनोरंजन भारतीय साहित्य में मिलते हैं। जैनहरिवंश में लिखा गया है कि झूलते समय नागरिक हिंदोल राग गाते थे। जैनों के उत्तर पुराण में वसन्तकाल में झूले पर झूल कर मन बहलाने का वर्णन मिलता है।
कालिदास के मालविकाग्निमित्र नाटक में महादेवी धारिणी ने मालविका को पाँव के प्रहार से अशोक वृक्ष को पल्लवित कुसुमित करने का कार्य सौंपा और सफल हो जाने पर मुँह माँगा पुरस्कार देने का वचन दिया।बाणभट्ट की कादम्बरी नामक ग्रन्थ में कादम्बरी अपनी सखियों से कहती है कि जिस अशोक वृक्ष को लात मार कर मैंने पाला था उसकी कोपलें कोई न तोड़े।पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कुंकुम क्रीडा का वर्णन हुआ है। कश्मीर की प्रशंसा में कहा गया है कि केसर की प्रचुर उपज होने के कारण वहाँ घर के आँगनों में केसर इस प्रकार उड़ता है कि उनसे सूर्य और चन्द्रमण्डल भी लाल हो जाते हैं।कुमार पाल चरित में दोला उत्सव का सजीव और श्रृंगारिक वर्णन इस प्रकार किया गया है - एक ही झूले पर बैठ कर पति पत्नी बेधड़क गीत गा रहे थे। स्त्रियाँ मदमत्त थीं, उनके नूपुर झूले की गति के साथ बज रहे थे। जब कभी वे अपने पैरों से अशोक वृक्षों को छू देतीं उनकी कलियाँ खिलने लगतीं।
संस्कृत साहित्य में माघ शुक्ला पञ्चमी को मदनोत्सव के रूप में मनाए जाने के सुन्दर वर्णन मिलते हैं। श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका में मदनोत्सव का बड़ा ही सजीव वर्णन अंकित है। नागरिकों ने इतना अधिक सुगन्धित केसर और कुंकुम बिखराया कि सम्पूर्ण नगर सोने सा पीला हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि छठी शताब्दी से पूर्व उत्तर भारत में मदनोत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा था। इसको मनाते समय लोग वय, लिंग और सामाजिक स्थिति को भुला देते थे। केशों को पुष्पों से सजा कर वे हल्दी चावल और कुंकुम का चूर्ण बिखराते तथा रंग खेलते।राजशेखर की काव्यमीमांसा और भोजराज के सरस्वती कण्ठाभरण में माघ शुक्ला पञ्चमी के दिन मनाए जाने वाले सुवसंतक या मदनोत्सव का उल्लेख मिलता है। इन वर्णनों में पिचकारी से रंग डालने और कीचड़ फेंकने के वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान होली जैसा उत्सव वसन्तपञ्चमी से ही प्रारम्भ हो जाता था और तब से रंग और गुलाल का यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा तक अनवरत चलता रहता था।
सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विषद वर्णन किया है ।नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विषद और रोचक वर्णन किया गया है । वाल्मीकि रामायण में भी वसन्तोत्सव का वर्णन मिलता है । दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवष्यक ऋतुओं को बताया है । पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति । वासवदत्ता नामक नाटक में सुबन्धु ने वसन्त के आगमन की खुषी में राजा उदयन तथा राजकुमारी वासवदत्ता के माध्यम से वसन्तोत्सव का वर्णन किया है । राजशेखर की काव्य-मीमांसा में भी ऋतु वर्णन है । यदि इस अवसर पर झूले डाले जाएं तो महिलायें झूलकर शान्त हो जाती है ।संस्कृत के अन्य ग्रन्थों में इन अवसरों पर हास-परिहास, नाटक, स्वांग, लोक नृत्य, गीत आदि के आयोजनों का भी वर्णन किया है । रास नृत्य का भी वर्णन है । गायन, हास्य, मादक द्रव्य और नाचती गाती, खेलती, इठलाती रूपवती महिलायें और सीमित समय । जो समय सीमा से मर्यादित था । सबसे बड़ी बात यह है कि निष्छल-स्वभाव और आनंद था । आज की तरह कामुकता का भौंडा प्रदर्षन नहीं ।
मदनोत्सव का वर्णन केवल साहित्यिक कृतियों में ही अंकित मिलता हो ऐसा नहीं है वरन मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि के माध्यमों से भी कामोत्सव का वर्णन किया जाता था । ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ही इस प्रकार की मूर्तियों के निर्माण की जानकारी प्राप्त होती है । विभिन्न पुराणों के अनुसार बहुत प्राचीन काल की बात है जिस समय भगवान शंकर तपस्यासन पर थे, उस समय उनको अपने सत्पथ से विचलित करने के लिए राजाधिराज सम्राट इन्द्र को विशेष चिन्ता हुई । अपने स्वार्थ-साधन के लिए उन्होंने कामदेव से मिलकर शिवजी के तपोमंग का जाल रचा तथा कनक और कामिनी की विकार-संचारी मोहिनी का उपयोग किया । देवताओं के कहने पर कामदेव ने जब शंकर की तपस्या भंग करनी चाही तो उन्होंने तृतीय नेत्र खोलकर अग्नि तेजस उत्पन्न किया और उससे कामदेव जलकर भस्म हो गया था , परन्तु काम की महता और कामदेव की पत्नी रति के रूदन ,अनुनय-विनय व देवताओं के कहने पर शंकर ने कामदेव को पुनः अनंग रूप में जिन्दा कर दिया ।माना जाता है कि भगवान शंकर के द्वारा तृतीय नेत्र खोलने पर भस्म हो गए कामदेव का पुनर्जन्म तथा उनकी पत्नी रति के साथ पुनः मिलन हुआ था।वह स्थान असम में है और गुवाहाटी से लगभग चालीस किलोमीटर दूर, राष्ट्रीय राजमार्ग ५२ पर अवस्थित है जहाँ मदन- कामदेव का मन्दिर स्थित है जहाँ की आंशिक रूप ध्वस्त हो चुकी मूर्तियाँ कामदेव तथा उनकी पत्नी रति की कथा को आज भी जीवन्त बना रही हैं। असम के खजुराहो के नाम से प्रसिद्ध इस मदन कामदेव मन्दिर के विषय में कम लोग ही जानते हैं क्योंकि यह मन्दिर सघन वन के भीतर वृक्षों से छुपा हुआ है। यह मन्दिर खजुराहो और कोणार्क के मन्दिरों की शैली में बना हुआ है। असम के पुरातत्व विभाग के अनुसार इस मन्दिर का निर्माण 10वी से 12वीं शताब्दी के मध्य हुआ था।उड़ीसा स्थित कोणार्क सूर्य मन्दिर और खजुराहो की गुफाओं में उत्कीर्ण काम कलाओं की मूर्तियां तो जगविख्यात ही हैं । राधा-कृष्ण के प्रेम के चित्र तथा होली और वसन्तोत्सव के चित्र मन को मोहते हैं । इसी प्रकार बाद के काल में मुगल शासन के दौरान भी चित्र कलाओं में श्रृंगार प्रधान विषय रहा है । उस जमाने में हर रात वसन्त थी और यह सब चलता रहा, जो अब जाकर होलिका या होली बन गया ।
वास्तव में काम सम्पूर्ण पुरूषार्थों में श्रेष्ठ है । प्रत्येक नर कामदेव और प्रत्येक नारी रति है । आधुनिक स्त्री-पुरूषों के सम्बन्धों के व्याख्याता शायद इस ओर ध्यान देंगे कि आखिर बीच में कौन-सा समय ऐसा आया जब काम अर्थात सेक्स के प्रति मानवीय आकर्षण को सामाजिक वर्जनाओं के अन्तर्गत एक प्रतिबन्धित वस्तु मान लिया गया और उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त व्यवहार का स्थान व्यभिचार, यौनाचार और कुण्ठाओं ने ले लिया ?भारतीय पुरातन ग्रंथों के अनुसार कामदेव की उपासना नहीं करने से कामदेव के शाप के कारण जीवन नरक हो जाता है । जीवन की कला (काम-कला) के विषद और प्रामाणिक ग्रन्थ महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र अर्थात कामशास्त्र भी अमूल्य भारतीय धरोहर है । कुमारसम्भवम में काम कलाओं का विषद वर्णन अंकित मिलता है,जो वसन्तोत्सव, मदनोत्सव अथवा शरदोत्सव या ऋतु उत्सव को दर्शाता है ।
बहरहाल कामदेव से जुड़े तमाम उत्सव अतीत का हिस्सा बन चुके हैं और समय के साथ सौंदर्य और मादक उल्लास के इस वसन्तउत्सव का स्वरूप बहुत बदल गया है । अब इस शालीनता का स्थान फुहड़ता ने ले लिया है ।अब कोई किसी से प्रणय निवेदन नही वरन जोर जबरदस्ती करता है और प्यार न मिलने पर चेहरा व शरीर जलाने के लिए अम्ल अर्थात एसिड फेकता है । आज प्रेम अर्थात प्यार सिर्फ दैहिक आकर्षण की वस्तु बन कर रह गया है । कामदेव के पुष्पवाणों से निकली मादकता, उमंग, उल्लास और मस्ती की रसधारा न जाने कहां खो गई।आधुनिक काल में होली का स्वरूप भले ही बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।
उल्लास का पर्व मदनोत्सव
-अशोक "प्रवृद्ध"
भारतीय समाजशास्त्र में वर्ष के बारह महीनों को छः ऋतुओं में बाँटा गया है जिसमें प्रीति पूर्वक परस्पर सहसम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रत्येक जीव-जन्तु के लिए भिन्न-भिन्न ऋतुएँ होती हैं,परन्तु मनुष्य के लिए ऋषियों ने वसन्त ऋतु को ही सर्वाधिक उपयुक्त मानकर वसन्तपञ्चमी के दिन इसके स्वागत पर उत्सव मनाने का भी संकेत दिया है।जाड़े की ऋतु के पश्चात वसन्त की शीतोष्ण वायु जैसे ही तन-मन का स्पर्श करती है, सम्पूर्ण मानवता शीत की ठिठुरन छोड़ कर आनन्द और प्रस्फुरण का अनुभव कर हर्षोल्लास मनाने लगती है। यही कारण है कि ऋतुओं का राजा वसन्त सदा से ही कवियों , साहित्यकारों और रसिकजनों का भी प्रिय विषय रहा है। वैदिक ग्रन्थों से लेकर वर्तमानयुगीन साहित्यों में अर्थात प्रत्येक युग के भारतीय साहित्य में वसन्त के आनन्द, उत्प्रेरण और मनबहलावों का मनोरंजक वर्णन अंकित मिलता है। संस्कृत के प्राय: समस्त काव्यों, नाटकों, कथाओं में कहीं न कहीं वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव का वर्णन अवश्य ही अंकित मिलता है।पुरातन साहित्यों के अनुसार प्राचीन काल में वसन्त में वन विहार, झूला दोलन (झूले पर झूलना), फूलों का श्रृंगार और मदन उत्सव मनाने की अदभुत परम्परा थी। भारतीय पुरातन ग्रन्थ इस बात का भरपूर प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि प्राचीनकाल से ही हमारे देश में वसन्तोत्सव, जिसे कि मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है, मनाने की अद्भुत, विशाल और मनमोहक परम्परा रही है। प्राचीनकाल में वसन्तोत्सव का दिन कामदेव के पूजन का दिन होता था और वसन्तपञ्चमी के बाद पूरे दो महीने तक वसन्तोत्सव अर्थात मदनोत्सव का कार्यक्रम चलता रहता था।आज भी भारतवर्ष का मौसम इस समय अर्थात वसन्त काल में इसी रंग में रंगा नजर आता रहता है, जो वास्तव में प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही मौसम होता है। होली का उत्सव इसका चरमबिन्दु है, जब रस के रसिया का एकाकार हो जाता है। वसन्त काम का सहचर है , इसीलिए भारतवर्ष में वसन्त ऋतु में मदनोत्सव मनाने का विधान है।पुरातन काल से ही भारतवर्ष में काम को निकृष्ट नहीं मानकर दैवी स्वरूप प्रदान कर उसे कामदेव के रूप में मान्यता दी गई है। यदि काम इतना विकृत होता तो भगवान शिव अपनी क्रोधाग्नि में काम को भस्म करने के बाद उसे अनंग रूप में पुनः क्यों जीवित करते ? इसका अर्थ यह है कि काम का साहचर्य उत्सव मनाने योग्य है। जब तक वह मर्यादा में रहता है , उसे भगवान की विभूति माना जाता है,लेकिन जब और जैसे ही वह मर्यादा छोड़ देता है तो आत्मघाती बन जाता है , शिव का तीसरा नेत्र (विवेक) उसे भस्म कर देता है। भगवान शिव द्वारा किया गया काम-संहार मनुष्य को यही शिक्षा देता है ,समझाता है।
वेदों, उपनिषदों, पुराणों में काम के प्रति सहजता का एक भाव पाया जाता है। सम्पूर्ण पुरातन भारतीय साहित्य काम की सत्ता को स्वीकार करता है और जीवन में काम की महत्वपूर्ण भूमिका को मानकर जीवन जीने की सलाह देता है । पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि प्राचीन काल में वसन्तपञ्चमी का दिन मदनोत्सव और बसन्तोत्सव के रूप में मनाया जाता था। इस दिन स्त्रियाँ अपने पति की पूजा कामदेव के रूप में करती थीं ।वसन्तपञ्चमी के दिन ही कामदेव और रति ने पहली बार मानव हदय में प्रेम एवं आकर्षण का संचार किया था और तभी से यह दिन वसन्तोत्सव तथा मदनोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। आनन्द,उल्लास और लोकानुरंजन के इस उत्सव को मदनोत्सव, वसन्तोत्सव, कामदेवोत्सव, कौमुदी महोत्सव, और शरदोत्सव आदि नामों से पुरातन साहित्य में अंकित किया गया है और इसमें काम और रति की पूजा का विधान है। कालिदास इसे ऋतु-उत्सव भी कहते हैं ।मदनोत्सव का अधिष्ठाता कामदेव को भारतीय शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है। उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वह विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वह इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, काम, विश्वकेतु,मन्मथ, मनसिजा (मनोज), मदन, प्रद्युमन, मीनकेतन, मकरध्वज,रतिपति, रतिनायक, दर्पक, पञ्चशर, स्मर, शंबरारि, कुसुमेषु, अनन्यज, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधन्वा आदि प्रसिद्ध हैं। यूनान में ये क्यूपिड है। कामदेव, हिंदू देवी श्रीलक्ष्मी के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का अवतार हैं। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण को भी माना जाता है। जिन्होंने रति के रूप में सोलह हजार पत्नियों से महारास रचाया था और व्रजमण्डल की सभी गोपियाँ उन पर न्यौछावर थीं।
भारतीय पुरातन साहित्य में कामदेव की कल्पना एक अत्यन्त रूपवान युवक के रूप में की गई है और ऋतुराज वसन्त को उसका मित्र माना गया है ।कामदेव के पास पाँच तरह के बाणों की कल्पना भी की गई है।य़ह हैं सफेद कमल, अशोक पुष्प, आम्रमंजरी, नवमल्लिका, और नीलकमल। वह तोते में बैठ कर भ्रमण करते हैं।कामदेव का धनुष प्रकृति के सबसे ज्यादा मजबूत उपादानों में से एक है।यह धनुष मनुष्य के काम में स्थिरता-चंचलता जैसे विरोधाभासी अलंकारों से युक्त है। इसीलिए इसका एक कोना स्थिरता का और एक कोना चंचलता का प्रतीक होता है। वसन्त, कामदेव का मित्र है इसलिए कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वर विहीन होती है अर्थात कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं, तो उसकी आवाज नहीं होती। इसका मतलब यह अर्थ भी समझा जाता है कि काम में शालीनता जरूरी है। तीर कामदेव का सबसे महत्वपूर्ण शस्त्र है। यह जिस किसी को बेधता है उसके पूर्व न तो आवाज करता है और न ही शिकार को सम्भलने का मौका देता है। इस तीर के तीन दिशाओं में तीन कोने होते हैं, जो क्रमश: तीन लोकों के प्रतीक माने गए हैं। इनमें एक कोना ब्रह्म के अधीन है, जो निर्माण का प्रतीक है। यह सृष्टि के निर्माण में सहायक होता है। दूसरा कोना विष्णु के अधीन है, जो ओंकार या उदर पूर्ति (पेट भरने) के लिए होता है। यह मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है। कामदेव के तीर का तीसरा कोना महेश (शिव) के अधीन होता है, जो मकार अर्थात मोक्ष का प्रतीक है। यह मनुष्य को मुक्ति का मार्ग बतलाता है, अर्थात काम न सिर्फ सृष्टि के निर्माण के लिए जरूरी है, प्रत्युत मनुष्य को कर्म का मार्ग बतलाने और अन्त में मोक्ष प्रदान करने का मार्ग भी सुझाता है। कामदेव के धनुष का लक्ष्य विपरीत लिंगी होता है। इसी विपरीत लिंगी आकर्षण से बंधकर पूरी सृष्टि संचालित होती है। कामदेव का एक लक्ष्य स्वयं काम हैं, जिन्हें पुरुष माना गया है, जबकि दूसरा रति हैं जो स्त्री रूप में जानी जाती हैं। कवच सुरक्षा का प्रतीक है। कामदेव का रूप इतना बलशाली है कि यदि इसकी सुरक्षा नहीं की गई तो विप्लव ला सकता है। इसीलिए यह कवच कामदेव की सुरक्षा से निबद्ध है। यानी सुरक्षित काम प्राकृतिक व्यवहार केलिए आवश्यक माना गया है, ताकि सामाजिक बुराइयों और भयंकर बीमारियों को दूर रखा जा सके।
इतिहास कथाओं में कामदेव के नयन, भौं और माथे का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनके नयनों को बाण या तीर की संज्ञा दी गई है। शारीरिक रूप से नयनों का प्रतीकार्थ ठीक उनके शस्त्र तीर के समान माना गया है। उनकी भवों को कमान का संज्ञा दी गई है। ये शान्त होती हैं, लेकिन इशारों में ही अपनी बात कह जाती हैं। इन्हें किसी संग या सहारे की भी आवश्यकता नहीं होती। कामदेव का माथा धनुष के समान है, जो अपने भीतर चंचलता समेटे होता है, लेकिन यह पूर्णरूपेण स्थिर होता है। माथा पूरे शरीर का सर्वोच्च हिस्सा है, यह दिशा-निर्देश देता है।
हाथी को कामदेव का वाहन माना गया है। वैसे कुछ शास्त्रों में कामदेव को तोते पर बैठे हुए भी बताया गया है, लेकिन इसे मूल अवधारणा में शामिल नहीं किया गया है। प्रकृति में हाथी एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो चारों दिशाओं में स्वच्छन्द विचरण करता है। मादक चाल से चलने वाला हाथी तीन दिशाओं में देख सकता है और पीछे की तरफ हल्की सी भी आहट आने पर सम्भल सकता है। हाथी कानों से हर तरफ की ध्वनि सुन सकता है और अपनी सूँढ़ से चारों दिशाओं में वार कर सकता है। ठीक इसी प्रकार कामदेव का चरित्र भी भारतीय पुरातन शास्त्रों में देखने में आता है। ये स्वच्छन्द रूप से चारों दिशाओं में घूमते हैं और किसी भी दिशा में तीर छोड़ने को तत्पर रहते हैं। कामदेव किसी भी तरह के स्वर को शीघ्र ही भाँपने कि क्षमता अर्थात माद्दा भी रखते हैं।
संस्कृत की कई प्राचीन ग्रन्थों में कामदेव के उत्सवों का उल्लेख अंकित मिलता है।इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतवर्ष में वसन्त ऋतु उत्सवों का काल हुआ करता था । कालिदास ने अपनी सभी कृतियों में वसन्त और वसन्तोत्सवों का व्यापक वर्णन किया है । ऐसे ही एक उत्सव का नाम था मदनोत्सव अर्थात प्रेम प्रर्दशन का उत्सव।यह कई दिनों तक चलता था ।राजा अपने महल में सबसे ऊंचे स्थान पर बैठ कर उल्लास का आनन्द लेता था । इसमें कामदेव के वाणों से आहत सुन्दरियाँ मादक नृत्य किया करती थीं। गुलाल व रंगों से पूरा माहैल रंगीन हो जाया करता था । सभी नागरिक आँगन में नाचते गाते और पिचकारियों से एक-दूसरे पर रंग फेकते। इसके लिए कालिदास के कुमारसम्भवम में श्रंगक शब्द का इस्तेमाल हुआ है। नगरवासियों के शरीर पर शोभायामान स्वर्ण आभूषण और सिर पर धारण किए हुए अशोक के लाल फूल इस सुनहरी आभा को और भी अधिक बढ़ा देते थे । युवतियाँ भी इसमें शामिल हुआ करती थीं इस जल क्रीड़ा में वह सिहर उठतीं (श्रंगक जल प्रहार मुक्तसीत्कार मनोहरं ) महाकवि कालिदास के कुमारसम्भवम में ही कामदेव से संबधित एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है ।इस कथा के अनुसार भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था तब कामदेव की पत्नी रति ने जो मर्मस्पर्शी विलाप किया उसका बड़ा ही जीवंत वर्णन इसमें अंकित मिलता है।अशोक वृक्ष के नीचे रखी कामदेव की मूर्ति की पूजा का भी उल्लेख मिलता है । सुन्दर कन्याओं के लिए तो कामदेव प्रिय देवता थे । कालिदास की रत्नावली में भी यह उल्लेख है कि अंत;पुर की परिचारिकायें हाथों में आम्रमंजरी लेकर नाचती गाती थीं ।यह इतनी अधिक क्रीड़ा करती थीं लगता था मानो इनके स्तन भार से इनकी पतली कमर टूट ही जायेगी। मदनोत्सव का वर्णन कालिदास ने विषद रूप में अपने ग्रन्थों में किया है । ऋतुसंहार के षष्ठ सर्ग में कालिदास ने बसन्त का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है । कुछ उदाहरण देखिए-
इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों की मदमाती आंखों की चंचलता में, उनके गालों में पीलापन, कमर में गहरापन और नितंबों में मोटापा बनकर बैठ जाता है। काम से स्त्रियां अलसा जाती हैं । मद से चलना बोलना भी कठिन हो जाता है और टेढ़ी भौंहों से चितवन कटीली जान पड़ती है। मदनोत्सव ही बाद में शांति निकेतन में गुरूदेव के सान्निध्य में दोलोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा । कामदेव के पुजारियों के अनुसार कृष्ण ने रासलीला के रूप में इस उत्सव को एक नया आयाम दिया । हर गोरी राधा बन गयी हैं ।
भवभूति के श्मालती-माधव के अनुसार वसन्तोत्सव मनाने के लिए विशेष मदनोत्सव बनाया जाता था जिसके केन्द्र में कामदेव का मन्दिर होता था। इसी मदनोत्सव में सभी स्त्री-पुरुष एकत्र होते, फूल चुनकर हार बनाते, एक-दूसरे पर अबीर-कुमकुम डालते और नृत्य संगीत आदि का आयोजन करते थे। बाद में वह सभी मन्दिर जाकर कामदेव की पूजा करते थे।संस्कृत साहित्य के नाटक भास के चारूदत्त में भी इसी प्रकार के एक उत्सव का उल्लेख मिलता है ।इसमें कामदेव का एक भव्य जुलूस गाजे-बाजों के साथ निकाला जाता था जिसमें कामदेव के एक चित्र के साथ संगीत नृत्य करते हुए अनेक नागरिक सम्मिलित होते हैं। यहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि गणिका वसन्तसेना की नायक चारूदत्त से पहली मुलाकात कामोत्सव के समय ही हुई थी। इसी प्रकार मृच्छकटिकम् नाटक में भी वसन्तसेना इसी प्रकार के जुलूस में भाग लेती है । एक अन्य पुस्तक वर्ष-क्रिया कौमुदी के अनुसार इसी त्योहार में सुबह गाने-बजाने, कीचड़ फेंकने के कार्य संपन्न किये जाते हैं । सायंकाल सज्जित होकर लोग मित्रों से मिलते हैं । धम्मपद के अनुसार महामूर्खों का मेला मनाया जाता है । सात दिनों तक गालियों का आदान-प्रदान किया जाता था । भविष्य पुराण के अनुसार बसन्त काल में कामदेव और रति की मूर्तियों की स्थापना और पूजा-अर्चना की जाती है । रत्नावली नामक पुस्तक में मदनपूजा का विषद वर्णन मिलता है । हर्ष चरित में भी मदनोत्सव का वर्णन मिलता है।दशकुमार चरित्र नामक पुस्तक में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है । इस त्योहार पर राजा और आम नागरिक सभी बराबर है।संस्कृत की पुस्तक कुट्टनीमतम् में भी गणिका और वेश्याओं के साथ मदनोत्सव मनाने का विषद वर्णन है।
अवदान कल्पलता नामक ग्रंथ में वाराणसी के राजा कलभु के सपरिवार वसन्तकालीन-विहार और वन केलि का वर्णन है। इसमें कहा गया है कि वह देर तक क्रीडा कौतुक कर, थक कर सो गया। इसी बीच उसकी प्रिय रानी मंजरी फूल तोड़ती हुई दूर निकल गयी। वहाँ महामुनि क्षांतिवादिन तपस्या कर रहे थे। उन्हें देख कर वह ठगी-सी रह गई। तभी राजा उसे ढूँढता हुआ वहाँ आ पहुँचा और रानी को उस अवस्था में देखकर क्रोध से पागल हो गया। उसने मुनि के हाथ पैर कटवा दिए। फलस्वरूप राज्य में भारी अकाल पड़ा। बाद में मुनि ने राजा को इस आपत्ति से उबारा।संस्कृत के एक ग्रन्थ पिण्ड नियुक्ति में चन्द्रानना नगरी के राजा चन्द्रवतंस के वसन्त विहार के सम्बन्ध में एक रोचक कथा मिलती है। नगरी के पूर्व तथा पश्चिम में सूर्योदय तथा चन्द्रोदय नामक दो बगीचे थे। राजा ने वसन्त काल में क्रीडा कौतुक के अभिप्राय से सूर्योदय उद्यान में विहार का निश्चय कर के घोषणा करवाई कि उस दिन नागरिक सूर्योदय उद्यान में न जाएँ। सूर्योदय उद्यान पर पहरे लगा दिए गए। रात में अचानक राजा को प्रात:कालीन धूप का ख्याल आया अत: यात्रा का कार्यक्रम सूर्योदय उद्यान के स्थान पर चन्द्रोदय उद्यान में परिवर्तित कर दिया गया। चन्द्रोदय उद्यान में अन्तःपुर की रानियों को राजा के साथ क्रीडा कौतुक करते हुए अनजाने ही अनेक नागरिकों ने देख लिया। इन नागरिकों को पहरेदारों ने पकड़ लिया। दूसरी ओर कुछ नागरिक जो पहले ही सूर्योदय उद्यान में राजा के क्रीडा कौतुक को देखने जा छिपे थे, वे भी पकड़ लिए गए। अन्त में जिन्होंने राजाज्ञा का उल्लंघन किया था वे दण्डित किए गए, शेष छोड़ दिए गए।
जातक ग्रन्थों में राजा शुद्धोदन की रानियों द्वारा लुम्बिनी उद्यान में शालभंजिका पर्व मनाने का बड़ा जीवन्त और सुन्दर वर्णन है। कपिलवस्तु और देवदह नगरों के मध्य सघन शालवन में वसन्त के स्पर्श के कारण प्रत्येक पत्र और पुष्प में सिहरन हो रही थी। हर शाख नवपल्लवित किसलय व पुष्पों से झुक गई थी। ऐसा मोहक दृश्य देख देवियाँ रह न सकीं और महादेवी सहेलियों सहित वसन्त विहार को निकल पड़ीं। एक मंगलमय शाल वृक्ष की टहनी को पकड़ने के लिए उन्होंने हाथ उठाया तो वह टहनी स्वयं ही झुक गई। महादेवी ने उसे थाम लिया। ऐसी अवस्था में महादेवी को प्रसव पीड़ा का अनुभव हुआ।शिशुपाल वध महाकाव्य में रैवतक पर्वत पर यादवों की वन केलि का खूब विस्तृत वर्णन है। प्राकृत भाषा के नाया धम्म कहाओ नामक ग्रन्थ में चम्पानगरी के दो संपन्न व्यापारी पुत्रों जिनदत्त और सागर दत्त की देवदत्ता नामक अत्यन्त सुन्दर और सम्पन्न गणिका के साथ उद्यान यात्रा का विस्तृत व श्रृंगारिक वर्णन है।पद्मचूड़ामणि में कुमार गौतम की रनिवास सहित उद्यान यात्रा का मनोरम वर्णन मिलता है। संक्षेप में मन बहलाव के लिये स्त्रियाँ कभी फूल पत्तियाँ चुनतीं, कभी उनके गहने बनातीं, कभी अशोक पर पैरों से प्रहार करतीं और कभी मौलश्री पर सुरा के कुल्ले करतीं। कभी केशों को फूलों से सजातीं, आम की कोपलें तोड़तीं, शेफाली और सिंदुवार के तिलक लगातीं ओर कभी प्रियतम के कानों में फूल खोंस कर उसे हृदय से लगातीं।
जैनियों के ग्रन्थ जैन हरिवंश का कथन है कि उद्यान यात्राएँ वन विहार और सैर सपाटे प्राय: वसन्त काल में ही होते थे, जबकि स्त्री-पुरुष एक साथ एकत्र होकर मद्यपान करते थे। फूलों को चुनने और सजाने से संबंधित अनेक प्रकार के वसन्तकालीन मनोरंजन भारतीय साहित्य में मिलते हैं। जैनहरिवंश में लिखा गया है कि झूलते समय नागरिक हिंदोल राग गाते थे। जैनों के उत्तर पुराण में वसन्तकाल में झूले पर झूल कर मन बहलाने का वर्णन मिलता है।
कालिदास के मालविकाग्निमित्र नाटक में महादेवी धारिणी ने मालविका को पाँव के प्रहार से अशोक वृक्ष को पल्लवित कुसुमित करने का कार्य सौंपा और सफल हो जाने पर मुँह माँगा पुरस्कार देने का वचन दिया।बाणभट्ट की कादम्बरी नामक ग्रन्थ में कादम्बरी अपनी सखियों से कहती है कि जिस अशोक वृक्ष को लात मार कर मैंने पाला था उसकी कोपलें कोई न तोड़े।पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कुंकुम क्रीडा का वर्णन हुआ है। कश्मीर की प्रशंसा में कहा गया है कि केसर की प्रचुर उपज होने के कारण वहाँ घर के आँगनों में केसर इस प्रकार उड़ता है कि उनसे सूर्य और चन्द्रमण्डल भी लाल हो जाते हैं।कुमार पाल चरित में दोला उत्सव का सजीव और श्रृंगारिक वर्णन इस प्रकार किया गया है - एक ही झूले पर बैठ कर पति पत्नी बेधड़क गीत गा रहे थे। स्त्रियाँ मदमत्त थीं, उनके नूपुर झूले की गति के साथ बज रहे थे। जब कभी वे अपने पैरों से अशोक वृक्षों को छू देतीं उनकी कलियाँ खिलने लगतीं।
संस्कृत साहित्य में माघ शुक्ला पञ्चमी को मदनोत्सव के रूप में मनाए जाने के सुन्दर वर्णन मिलते हैं। श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका में मदनोत्सव का बड़ा ही सजीव वर्णन अंकित है। नागरिकों ने इतना अधिक सुगन्धित केसर और कुंकुम बिखराया कि सम्पूर्ण नगर सोने सा पीला हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि छठी शताब्दी से पूर्व उत्तर भारत में मदनोत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा था। इसको मनाते समय लोग वय, लिंग और सामाजिक स्थिति को भुला देते थे। केशों को पुष्पों से सजा कर वे हल्दी चावल और कुंकुम का चूर्ण बिखराते तथा रंग खेलते।राजशेखर की काव्यमीमांसा और भोजराज के सरस्वती कण्ठाभरण में माघ शुक्ला पञ्चमी के दिन मनाए जाने वाले सुवसंतक या मदनोत्सव का उल्लेख मिलता है। इन वर्णनों में पिचकारी से रंग डालने और कीचड़ फेंकने के वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान होली जैसा उत्सव वसन्तपञ्चमी से ही प्रारम्भ हो जाता था और तब से रंग और गुलाल का यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा तक अनवरत चलता रहता था।
सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विषद वर्णन किया है ।नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विषद और रोचक वर्णन किया गया है । वाल्मीकि रामायण में भी वसन्तोत्सव का वर्णन मिलता है । दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवष्यक ऋतुओं को बताया है । पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति । वासवदत्ता नामक नाटक में सुबन्धु ने वसन्त के आगमन की खुषी में राजा उदयन तथा राजकुमारी वासवदत्ता के माध्यम से वसन्तोत्सव का वर्णन किया है । राजशेखर की काव्य-मीमांसा में भी ऋतु वर्णन है । यदि इस अवसर पर झूले डाले जाएं तो महिलायें झूलकर शान्त हो जाती है ।संस्कृत के अन्य ग्रन्थों में इन अवसरों पर हास-परिहास, नाटक, स्वांग, लोक नृत्य, गीत आदि के आयोजनों का भी वर्णन किया है । रास नृत्य का भी वर्णन है । गायन, हास्य, मादक द्रव्य और नाचती गाती, खेलती, इठलाती रूपवती महिलायें और सीमित समय । जो समय सीमा से मर्यादित था । सबसे बड़ी बात यह है कि निष्छल-स्वभाव और आनंद था । आज की तरह कामुकता का भौंडा प्रदर्षन नहीं ।
मदनोत्सव का वर्णन केवल साहित्यिक कृतियों में ही अंकित मिलता हो ऐसा नहीं है वरन मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि के माध्यमों से भी कामोत्सव का वर्णन किया जाता था । ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ही इस प्रकार की मूर्तियों के निर्माण की जानकारी प्राप्त होती है । विभिन्न पुराणों के अनुसार बहुत प्राचीन काल की बात है जिस समय भगवान शंकर तपस्यासन पर थे, उस समय उनको अपने सत्पथ से विचलित करने के लिए राजाधिराज सम्राट इन्द्र को विशेष चिन्ता हुई । अपने स्वार्थ-साधन के लिए उन्होंने कामदेव से मिलकर शिवजी के तपोमंग का जाल रचा तथा कनक और कामिनी की विकार-संचारी मोहिनी का उपयोग किया । देवताओं के कहने पर कामदेव ने जब शंकर की तपस्या भंग करनी चाही तो उन्होंने तृतीय नेत्र खोलकर अग्नि तेजस उत्पन्न किया और उससे कामदेव जलकर भस्म हो गया था , परन्तु काम की महता और कामदेव की पत्नी रति के रूदन ,अनुनय-विनय व देवताओं के कहने पर शंकर ने कामदेव को पुनः अनंग रूप में जिन्दा कर दिया ।माना जाता है कि भगवान शंकर के द्वारा तृतीय नेत्र खोलने पर भस्म हो गए कामदेव का पुनर्जन्म तथा उनकी पत्नी रति के साथ पुनः मिलन हुआ था।वह स्थान असम में है और गुवाहाटी से लगभग चालीस किलोमीटर दूर, राष्ट्रीय राजमार्ग ५२ पर अवस्थित है जहाँ मदन- कामदेव का मन्दिर स्थित है जहाँ की आंशिक रूप ध्वस्त हो चुकी मूर्तियाँ कामदेव तथा उनकी पत्नी रति की कथा को आज भी जीवन्त बना रही हैं। असम के खजुराहो के नाम से प्रसिद्ध इस मदन कामदेव मन्दिर के विषय में कम लोग ही जानते हैं क्योंकि यह मन्दिर सघन वन के भीतर वृक्षों से छुपा हुआ है। यह मन्दिर खजुराहो और कोणार्क के मन्दिरों की शैली में बना हुआ है। असम के पुरातत्व विभाग के अनुसार इस मन्दिर का निर्माण 10वी से 12वीं शताब्दी के मध्य हुआ था।उड़ीसा स्थित कोणार्क सूर्य मन्दिर और खजुराहो की गुफाओं में उत्कीर्ण काम कलाओं की मूर्तियां तो जगविख्यात ही हैं । राधा-कृष्ण के प्रेम के चित्र तथा होली और वसन्तोत्सव के चित्र मन को मोहते हैं । इसी प्रकार बाद के काल में मुगल शासन के दौरान भी चित्र कलाओं में श्रृंगार प्रधान विषय रहा है । उस जमाने में हर रात वसन्त थी और यह सब चलता रहा, जो अब जाकर होलिका या होली बन गया ।
वास्तव में काम सम्पूर्ण पुरूषार्थों में श्रेष्ठ है । प्रत्येक नर कामदेव और प्रत्येक नारी रति है । आधुनिक स्त्री-पुरूषों के सम्बन्धों के व्याख्याता शायद इस ओर ध्यान देंगे कि आखिर बीच में कौन-सा समय ऐसा आया जब काम अर्थात सेक्स के प्रति मानवीय आकर्षण को सामाजिक वर्जनाओं के अन्तर्गत एक प्रतिबन्धित वस्तु मान लिया गया और उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त व्यवहार का स्थान व्यभिचार, यौनाचार और कुण्ठाओं ने ले लिया ?भारतीय पुरातन ग्रंथों के अनुसार कामदेव की उपासना नहीं करने से कामदेव के शाप के कारण जीवन नरक हो जाता है । जीवन की कला (काम-कला) के विषद और प्रामाणिक ग्रन्थ महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र अर्थात कामशास्त्र भी अमूल्य भारतीय धरोहर है । कुमारसम्भवम में काम कलाओं का विषद वर्णन अंकित मिलता है,जो वसन्तोत्सव, मदनोत्सव अथवा शरदोत्सव या ऋतु उत्सव को दर्शाता है ।
बहरहाल कामदेव से जुड़े तमाम उत्सव अतीत का हिस्सा बन चुके हैं और समय के साथ सौंदर्य और मादक उल्लास के इस वसन्तउत्सव का स्वरूप बहुत बदल गया है । अब इस शालीनता का स्थान फुहड़ता ने ले लिया है ।अब कोई किसी से प्रणय निवेदन नही वरन जोर जबरदस्ती करता है और प्यार न मिलने पर चेहरा व शरीर जलाने के लिए अम्ल अर्थात एसिड फेकता है । आज प्रेम अर्थात प्यार सिर्फ दैहिक आकर्षण की वस्तु बन कर रह गया है । कामदेव के पुष्पवाणों से निकली मादकता, उमंग, उल्लास और मस्ती की रसधारा न जाने कहां खो गई।आधुनिक काल में होली का स्वरूप भले ही बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।
भाई अशोक, साधुवाद बहुत श्रमसाध्य एवं विद्वतापूर्ण आलेख है , पुनः साधुवाद
ReplyDeleteLazvab....
ReplyDeleteSir,mai shalbhanjika pr hi research kr rha hun,please help me.
8858774174 my what's up no.
ReplyDelete8858774174 my what's up no.
ReplyDeleteबहुत आवश्यक है यह सब बातें नई पीढ़ी तक पहुंचनी चाहिए। अपनी संस्कृति और परंपराओं को बचाये रखने के लिए यह आवश्यक है।
ReplyDeleteविषद वर्णन ससंदर्भ भाव भाषा कामदेव काम सौंदर्य का विस्तार सहज सरल पूर्ण विषय को उद्घाटित करता सारगर्भित लेख
ReplyDeleteसाधुवाद