Wednesday, March 25, 2015

कर्म में भेदने वाली इन्द्रिय बुद्धि

राँची ,झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक- २५/०३/२०१५ को प्रकाशित लेख - कर्म में भेदने वाली इन्द्रिय बुद्धि

 कर्म में भेदने वाली इन्द्रिय बुद्धि 
करणीय और अकरणीय कर्म में भेद करने वाली इन्द्रिय बुद्धि 
-अशोक “प्रवृद्ध”

उपनिषदों की एक कथा के अनुसार शरीर के इन्द्रियों में अपनी-अपनी श्रेष्ठता को लेकर विवाद हो जाने और सर्वश्रेष्ठता का निश्चय नहीं कर पाने पर वे प्रजापति के समक्ष गई और कहने लगीं कि उनमे से कौन सर्वश्रेष्ठ है? प्रजापति के सुझाव पर सब इन्द्रियाँ एक-एक कर शरीर छोड़कर गयीं और वापस लौट आयीं और उन्होंने देखा कि उनके बिना भी शरीर का कार्य चलता रहता है, यद्यपि कार्य करने में दोष और कठिनाई हुई थी,परन्तु जब महाप्राण शरीर को छोड़ने लगा तो शरीर ठंडा पड़ने लगाl शरीर मरनासन्न होने लगा और अन्य सब इन्द्रियाँ भी शिथिल पड़ने लगींlइस पर यह निश्चय हो गया कई महाप्राण सर्वश्रेष्ठ इन्द्रिय हैl
वैदिक ग्रन्थों के अनुसार महाप्राण शरीर में वह शक्ति है जिससे शरीर के आभ्यांतरिक यंत्र कार्य करते हैंlउदाहरणतः ह्रदय, जो रक्त-संचालन का कार्य करता है, वह महाप्राण के आश्रय ही कार्य करता हैl यह दिन-रात जन्म से मरणपर्यन्त कार्य करता रहता हैl इसी प्रकार भोजन के गले से उतरते ही आगे धकेल पेट में पहुँचाने वाला, मल-मूत्र व शरीर के अन्य रस को गति प्रदान करने वाला शक्ति महाप्राण ही हैl मनुष्य चाहे अथवा न चाहे, महाप्राण अपना कार्य करता रहता है lकहा जाता है कि शरीर के मस्तिष्क में बैठा परमात्मा सब कार्य कर रहा हैlपरमात्मा के कार्य को रोका जा सकता है, जब गोली मारकर प्राणी की हत्या कर दी जाए अथवा विह खाकर या किसी ऊँची पहाड़ी से कूदकर, अथवा किसी अन्य प्रकार से इस महाप्राण को शरीर से निकाल दिया जाएl अर्थात मनुष्य शरीर में एक शक्ति है जो किसी भी कार्य को करने अथवा न करने में प्रेरित करती है, और जो भी अंग अथवा शक्ति यह कार्य करती है उसका नाम बुद्धि हैl सांख्यदर्शन में कहा है-
अध्यवसायो बुद्धिः l
तत्कार्यं धर्मादि ll – सांख्यदर्शन -२-१३,१४
अर्थात- निश्चय करने का काम बुद्धि का है और यह निश्चय करती है करणीय तथा अकरणीय मेंl
करणीय और अकरणीय में निश्चय करने का काम मनुष्य के मस्तिष्क में स्थित एक यंत्र करता है, इसे बुद्धि कहते हैंl आँख, नाक, कान इत्यादि इन्द्रियाँ केवल कार्य करती हैंl शरीर में कार्य करने के यंत्रों को करण कहते हैंl करण तेरह हैं- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, ग्यारहवीं आभ्यांतरिक इन्द्रिय, बारहवाँ मन तथा तेरहवीं बुद्धि हैl
इन्द्रियाँ देखती हैं, सुनती हैं, चखती हैं,सूंघती इत्यादि हैंl मन इनसे प्राप्त ज्ञान को संचय करता हैlबुद्धि निश्चय करती है कि अमुक कार्य वर्तमान परिस्थिति में करना ठीक है अथवा नहीं?अन्तिम आज्ञा देने वाला जीवात्मा हैl यदि इन्द्रियों में दोष हो तो मन और बुद्धि के कार्य में बाधा पड़ जाती हैl उदहारणतः अगर हमारी आँख में काला चश्मा चढ़ा हुआ हो और हम श्वेत वस्त्र खरीदने जाते हैं तो काले चश्मे के कारण श्वेत वस्त्र भी काला दिखाई देता हैl इस  कारण मन, बुद्धि और जीवात्मा ठीक कार्य तब ही कर सकते हैं जब इन्द्रियाँ ठीक-ठीक ज्ञान देंl इन्द्रियों के ठीक-ठीक ज्ञान देने से ही पूर्व से मन में संचित ज्ञान से बुद्धि के द्वारा तुलना की जा सकती हैlमनुष्य के मन में उठने वाली विभिन्न प्रश्नों का उत्तर बुद्धि देती हैl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मनुष्य को कार्य की दिशा बताने वाला एक यंत्र मनुष्य के मस्तिष्क में रहता है, उसका नाम बुद्धि हैl यह यंत्र कार्य कर्ता है इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर तथा मन पर अंकित पूर्व के ज्ञान से ज्ञान की तुलना करl इस कारण कार्य की दिशा निश्चय करने में जहाँ इन्द्रियाँ सहायक होती हैं, वहाँ मन भी सहायक होता हैlतदनंतर बुद्धि की राय से जीवात्मा निश्चय कर्ता है कि वह अमुक कार्य करे अथवा न करे?जीवात्मा, मन पर संचित पूर्व के ज्ञान से तुलना कर, बुद्धि को सम्मति से आज्ञा देता है कि वह अमुक कार्य करे या न करे?अतएव जब कार्य करने का समय आता है तो ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि द्वारा निश्चित किया गया कार्य कर्मेन्द्रियों द्वारा होने लगता हैl
इन तेरह करणों में पाँच कर्मेन्द्रियाँ तो शरीर के कार्य में आवश्यक होती हुई भी सम्मति नहीं देतीं अथवा कार्य में हाँ अथवा न करने में कुछ अधिकार नहीं रखतींl शेष रह गयीं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, आभ्यंतरिक इन्द्रिय तो संयोग-स्थान है और मन ज्ञान का संचय स्थान हैlअतः नियन्त्रण करने वाला यंत्र बुद्धि ही है और उसके बिना कार्य की दिशा ठीक नहीं बनतीlज्ञानेन्द्रियाँ का काम है, घट रही घटनाओं की सूचना लाना मात्र और मन तो एक प्रकार का पूर्ण ज्ञान का संचय स्थान हैl इसे आज की अंग्रेजी में रिकार्ड रूम कहा जा सकता हैl प्राप्त ज्ञान की पूर्व उपस्थित ज्ञान से तुलना और उस पर निश्चय कि कौन सा कार्य ठीक है, जो यंत्रकरता है, वह बुद्धि हैl वह अपनी सम्मति जीवात्मा को देती है तब जीवात्मा कार्य करता हैl
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शरीर का सर्वश्रेष्ठ आधार महाप्राण शरीर के आत्म-तत्व के अधीन नहींl मनुष्य जब सो जाता है, शरीर के सब अंग काम करना बन्द कर आराम करने लगते हैंlजीवात्मा सुसुप्ति अवस्था में क्या करता है,ज्ञात नहींlइसके लिंग (चिह्न) जिनसे जीवात्मा के अस्तित्व का पत्ता चलता है, वे एक सोये हुए शरीर में दिखाई नहीं देतेl न्यायदर्शन में आत्मा के लिंग के विषय में कहा है-
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् ll
- न्यायदर्शन -  १/ १/ १०
अर्थात- आत्मा के लिंग हैं इच्छा, द्वेष, प्रयत्न,सुख, दुःख और चेतनाl
किसी वस्तु का लिंग वह लक्षण है जो किसी अन्य में नहीं पाया जाता हो और जिससे वह दूसरे से पृथक पहचाना जा सकेl अर्थात जिस किसी में भी इच्छा होगी,उसमें आत्मतत्व का होना समझा जायेगाlजिस पदार्थ में प्रतिकूल परिस्थिति का विरोध दिखाई दे, वह आत्मतत्व हैlइसी प्रकार अन्य लिंगों के विषय में भी कहा जा सकता हैंlप्राणी के सो जाने पर छहों लिंग इच्छा,देवश, सुख, दुःख, प्रयत्न और चेतना नहीं रहतेlइसका अभिप्राय है कि सोये प्राणी में जीवात्मा सक्रिय नहीं होताlजीवात्मा उसमे सक्रिय तो रहता हैlयह इस प्रकार स्पष्ट जाना जा सकता है कि मृत शव और सोये शरीर में अन्तर होता हैl दोनों में जीवात्मा के छहों लिंगों का अभाव दिखाई देता है परन्तु जीवित प्राणी में महाप्राण कार्य करता रहता हैlकेवल वे कार्य नहीं होते जो आत्मा के लिंग हैंlऔर फिर मनुष्य के जागने पर आत्मा के लिंग पुनः कार्य करने लगते हैंlपरन्तु मृत प्राणी में न तो महाप्राण रहता है, न आत्मा के लिंगlइसका अभिप्राय यह है कि जीवित और जाग्रत प्राणी में दो आत्म-तत्व कार्य करते हैंlएक को जीवात्मा कहते हैं और दूसरे को परमात्मा कहते हैंlइस विषय में ब्रह्मसूत्र में ब्रह्मसूत्रकार कहता है-
गुहां प्रविष्टावात्मानौ हि तद्दर्शनात् ll
-ब्रह्मसूत्र – १/२/११
अर्थात- गुहा (बहुत छोटे से रिक्त स्थान) में दो आत्म तत्व के देखे जाने से (यह ऊपर कही बात सिद्ध होती है) l
अभिप्राय यह है कि शरीर के छोटे से रिक्त स्थान में दो आत्म तत्व देखे जाते हैं,ऊपर कहे लक्षणों मेंl
इस प्रकार छः लिंगों वाला आत्म तत्व शरीर में रहता हैlइन छः लिंगों से हि यह सिद्ध होता है कि यह आत्म तत्व शरीर में आज्ञा देने वाला है, परन्तु करणीय और अकरणीय के विषय में बताने वाली तो ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि हैंl  इनके सहाय से ही हाँ अथवा न का निर्णय होता है lइस प्रकार स्पष्ट हो जाता हैकि कार्य जीवात्मा करता है और कार्य करने में बुद्धि परामर्श देती हैlबुद्धि की सम्मति बनने में सहायक हैं ज्ञानेन्द्रियाँ और मन l

No comments:

Post a Comment

सरल बाल सत्यार्थ प्रकाश

  सरल सत्यार्थ प्रकाश ओ३म् सरल बाल सत्यार्थ प्रकाश (कथा की शैली में सत्यार्थ प्रकाश का सरल बालोपयोगी संस्करण) प्रणेता (स्वर्गीय) वेद प्रकाश ...