झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक -२८/०२/२०१५ को प्रकाशित लेख - शिक्षा का प्रथम पाठ यज्ञमय कार्य
शिक्षा का प्रथम पाठ यज्ञमय कार्य
-अशोक”प्रवृद्ध”
जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभगुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषों को छोड़ के सदा आनन्दित हो सकें,वह शिक्षा कहाती है । वेद के उपांग छः दर्शनशास्त्र में से एक पूर्व-मीमांसा है lपाणिनि के अनुसार मीमांसा का अर्थ जिज्ञासा हैl जिज्ञासा अर्थात जानने की लालसा lअतः पूर्व-मीमांसा का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा lइसके सोलह अध्याय हैं lमनुष्य जब इस संसार में बना तो उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे?इसलिए इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है lग्रन्थारम्भ करते हुए महर्षि जैमिनी कहते हैं -
अथातो धर्म जिज्ञासा l
- पूर्व-मीमांसा १- १- १
अर्थात- अब धर्म (करणीय कर्म) के जानने की जिज्ञासा है l इस जिज्ञासा का उत्तर देने के लिये सोलह अध्याय वाला यह पूर्ण ग्रन्थ रचा गया है l धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में है और कर्म एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है lइस सोलह अध्याय और चौसठ पाद वाले ग्रन्थ के अनुसार वैदिक परिपाटी में यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है,वरन इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों का समावेश हो जाता है lबढ़ई जब बृक्ष की लकड़ी से बैठने के लिये कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है lबृक्ष का तना जो मूलरूप में ईंधन के अतिरिक्त और किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है lअतः उस बढ़ई का कार्य यज्ञरूप ही हैlइसी प्रकार कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सिने की मशीन बना देते हैं l इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ है,इस कारण यह यज्ञरूप है l
शिक्षा का मूल यजुर्वेद में हैl शिक्षा का आशय है मनुष्य को इसका ज्ञान कराना कि इस संसार में किस प्रकार रहना चाहिए?मनुष्य के लिये ज्ञान-प्राप्ति आवश्यक है, इतर जीव-जन्तुओं को नहीं lक्योंकि पृथ्वी पर जितनी भी प्राणी-योनियाँ हैं,सबमें सिर्फ मनुष्य ही वह योनि है जो अपने कर्मों की स्वयं अधिकारिणी हैं lअन्य योनियाँ यम-योनियाँ कहलाती हैं अर्थात उन योनियों के कर्म अपने अधीन नहीं होते lभूख लगती है तो खाना खा लेते हैं,प्यास लगती है तो पानी पी लेते हैं lयदि भूख-प्यास लगने पर भी खाने-पीने को कुछ न मिलता तो विवश होकर मुख देखते रहते हैं,कुछ कर नहीं सकते lक्योंकि कर्म करने में केवल मनुष्य ही स्वतंत्र है lयजुर्वेद का प्रथम मन्त्र शिक्षा के विषय में चमत्कारिक ढंग से व्यक्त करता है-
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थोपायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे । आप्यायध्वम् अध्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीर् अनमीवा अयक्ष्माः मा व स्तेन ईशत माघशम्̇सः ।सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीः यजमानस्य पशून् पाहि ।।
- यजुर्वेद ,तैत्तिरीय संहिता ===== काण्ड 1-4 1.1 प्रपाठक 1 1.1.1 अनुवाक 1
इस मन्त्र का देवता (विषय) सविता (सूर्य) है।मंत्रार्थ इस प्रकार है-
(त्वा ऊर्ज्जे त्वा इषेवायवः स्थ) तुम्हारी दी हुई ऊर्जा और तुम्हारा दिया हुआ अन्न क्रियाओं का सिद्ध करने वाला।(वः)हमें (देवः सविता प्रार्पयतु) सविता देवता संयोजन (निर्माण) करे।(श्रेष्ठतमाय कर्मण) श्रेष्ठ कर्म करने के लिये।( आप्यायध्वम् अध्न्याः) जो अध्न्य है वह उन्नति को प्राप्त हो।(इन्द्राय भागं प्रजावतीः अनमीवाः अयक्ष्मा) सामर्थ्य का भाग प्रजाओं को प्राप्त हो,वे निरोग हों और ज्वरों से रहित हों।
(मा वः स्तेनः मा इशत) इसमें चोर-डाकू और पापी न हों न हों।(सः ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात वह्वीः यजमानस्य पशून पाहि) वह (सविता) हम सब में स्थिर रक्षक हो जाए और गृहस्थियों के पशुओं की रक्षा करे।
एक अभिप्राय यह है कि परमात्मा ने सूर्य से दो पदार्थ इस पृथ्वी पर दिए हैं- एक ऊर्जा और दूसरा अन्न।आनन भी सूर्य से आ रही उर्जा से ही संपुष्ट होता है। अन्न में दो तत्व मुख्य हैं- कार्बोहाइड्रेट (स्टार्च इत्यादि) और प्रोटीन। ये दोनों पदार्थ पेड़-पौधों में सूर्य-रश्मियों से बनते हैं।यदि पेड़-पौधों पर सूर्य-रश्मियाँ न पड़ें तो ये नहीं बन सकते। संसार के सभी प्राणियों का जीवन इन दो पदार्थों पर ही निर्भर करता है।
इस मन्त्र में कहा गया है कि देव सविता द्वारा अन्न और उर्जा से हम और हमारे अध्न्य पशुओं (पालतू जानवरों) का रक्षण हो। इसके साथ ही कहा गया है कि हममें जो प्राणशक्ति उर्जा से आती है उससे हम धर्मकार्य करें जिससे हमारा यश और कीर्ति बढे। शिक्षा में कर्म का प्रथम पाठ यही है कि कर्म करने की शक्ति परमात्मा से सूर्य द्वारा हमें प्राप्त होती है, हम उसका सदुपयोग करें।पृथ्वी पर विद्युत, अग्नि तथा अन्य शक्ति का स्रोत भी केवल सूर्य ही है। कोयला एवं तेल में भी सूर्य से ही शक्ति संचित होती है।प्रश्न उत्पन्न होता है कि सूर्य की शक्ति का संचय स्थान कहाँ है? कहा जाता है कि सूर्य पर हाइड्रोजन के ऐटम (परिमण्डल) संयुक्त होकर हीलियम के परिमण्डल बना रहे हैं और उनसे शक्ति निकलती है। उनका संयुक्त होना भी तो किसी के करने से होता है। वह कौन है?वैदिक ग्रन्थों में कहा है कि वह परमात्मा का तेज है,जिससे यह सब हो रहा है।इस प्रकार सब कर्मों का स्रोत शक्ति और शक्ति का स्रोत सूर्य अर्थात परमात्मा बताकर कर्म की व्याख्या आरम्भ की गई है।
इसी यजुर्वेद के अगले तीन मन्त्र वसु के सम्बन्ध में है।वसु का अर्थ सामान्य भाषा मंअ यज्ञ है।यज्ञ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि वह सब कार्य जिससे मनुष्य मात्र को लाभ हो, उसे यज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ कर्म में परमात्मा के सृष्टि-रचना कार्य से लेकर मनुष्य के नित्य जीविकोपार्जन तक के सब कर्म आ जाते हैं।शर्तें दो हैं कि सब करी लोकहित में हों और उनसे किसी को हानि न पहुँचे।निर्माण कर्म से होता है,इसे सामान्य भाषा में प्रयत्न अर्थात काम कहते हैं।यजुर्वेद में कहा है कि जिस कार्य से प्राकृतिक पदार्थों से उपयोगी पदार्थ निर्माण हों,वह कार्य यज्ञ है।उदाहरणतः कोई हल चलाकर और भूमि में बीज डाल अन्न उत्पन्न करता है, वह यज्ञ करता है।इसी प्रकार कोई कच्चा लोहा लेकर उससे लोहे के गार्डर, सलाखें इत्यादि बनाता है तो वह यज्ञ करता है।कोई अन्य चूना-सीमेंट-ईंटें इत्यादि बनाता है तो वह भी यज्ञ कार्य है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है एक छोटा से छोटा कार्य अर्थात मोची तथा भंगी के कार्य से लेकर सुन्दर भूषण अथवा वस्त्र बनाने वाले तक के सब कार्य यज्ञ होते हैं।इसमें केवल एक बन्धन होता है, वह यह कि कर्म करने में लोक कल्याण की भावना रहे।तब ही वह यज्ञ होता है अन्यथा वह स्वार्थ है।कई लोग स्वार्थ के कार्य को असुर-यज्ञ कहते हैं। वैसे शास्त्रों में तो केवल उसी कर्म को यज्ञ कहा है जिससे अधिक से अधिक लोगों का हित सिद्ध हो सके।इस प्रकार का कार्य करते हुए मनुष्य जब उसमें से अपने परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक ले तब ही उसका कार्य यज्ञ के लक्षणों में आता है।
यजुर्वेद १-५ में कहा है -
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच् छकेयं तन् मे राध्यताम् ।
इदमहमनृतात सत्यमुपैमि ।।
- यजुर्वेद १-५
अर्थात-(अग्ने) हे शक्ति स्वरुप परमात्मा। (व्रत्पते व्रतं चरिष्यामि) तू व्रतों का स्वामी है।मैं भी व्रत कर रहा हूँ।(तत् शकेयम् तत् में राध्यताम्) उस व्रत-पालन की मुझमे शक्ति हो।(मैं उसे पूर्ण कर सकूं)।(इदम् अहम् अनृतात् सत्यं उपी एमि) इस व्रत पालन करने से मैं अनृत से सत्य को प्राप्त होऊं।
मंत्र का अभिप्राय यह है कि मनुष्य जब इस संसार-संघर्ष में सम्मिलित हो तो शक्तिस्वरूप परमात्मा से प्रार्थना करे कि वह अब इस गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने लगा है।इसे वह सफलतापूर्वक पालन कर सके, ऐसा व्रत करे। हे परमात्मा, मैं इस संसार में जीवन का व्रत पालन कर सकूँ और इस व्रत का पालन कर्ता हुआ अनृत को छोड़कर सत्य का पालन कर सकूँ।वेद का यह कथन है उन युवा दम्पति के लिए है जो विवाह के उपरान्त अभी गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने लगे हैं।
शिक्षा का प्रथम पाठ यज्ञमय कार्य
-अशोक”प्रवृद्ध”
जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभगुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषों को छोड़ के सदा आनन्दित हो सकें,वह शिक्षा कहाती है । वेद के उपांग छः दर्शनशास्त्र में से एक पूर्व-मीमांसा है lपाणिनि के अनुसार मीमांसा का अर्थ जिज्ञासा हैl जिज्ञासा अर्थात जानने की लालसा lअतः पूर्व-मीमांसा का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा lइसके सोलह अध्याय हैं lमनुष्य जब इस संसार में बना तो उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे?इसलिए इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है lग्रन्थारम्भ करते हुए महर्षि जैमिनी कहते हैं -
अथातो धर्म जिज्ञासा l
- पूर्व-मीमांसा १- १- १
अर्थात- अब धर्म (करणीय कर्म) के जानने की जिज्ञासा है l इस जिज्ञासा का उत्तर देने के लिये सोलह अध्याय वाला यह पूर्ण ग्रन्थ रचा गया है l धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में है और कर्म एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है lइस सोलह अध्याय और चौसठ पाद वाले ग्रन्थ के अनुसार वैदिक परिपाटी में यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है,वरन इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों का समावेश हो जाता है lबढ़ई जब बृक्ष की लकड़ी से बैठने के लिये कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है lबृक्ष का तना जो मूलरूप में ईंधन के अतिरिक्त और किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है lअतः उस बढ़ई का कार्य यज्ञरूप ही हैlइसी प्रकार कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सिने की मशीन बना देते हैं l इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ है,इस कारण यह यज्ञरूप है l
शिक्षा का मूल यजुर्वेद में हैl शिक्षा का आशय है मनुष्य को इसका ज्ञान कराना कि इस संसार में किस प्रकार रहना चाहिए?मनुष्य के लिये ज्ञान-प्राप्ति आवश्यक है, इतर जीव-जन्तुओं को नहीं lक्योंकि पृथ्वी पर जितनी भी प्राणी-योनियाँ हैं,सबमें सिर्फ मनुष्य ही वह योनि है जो अपने कर्मों की स्वयं अधिकारिणी हैं lअन्य योनियाँ यम-योनियाँ कहलाती हैं अर्थात उन योनियों के कर्म अपने अधीन नहीं होते lभूख लगती है तो खाना खा लेते हैं,प्यास लगती है तो पानी पी लेते हैं lयदि भूख-प्यास लगने पर भी खाने-पीने को कुछ न मिलता तो विवश होकर मुख देखते रहते हैं,कुछ कर नहीं सकते lक्योंकि कर्म करने में केवल मनुष्य ही स्वतंत्र है lयजुर्वेद का प्रथम मन्त्र शिक्षा के विषय में चमत्कारिक ढंग से व्यक्त करता है-
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थोपायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे । आप्यायध्वम् अध्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीर् अनमीवा अयक्ष्माः मा व स्तेन ईशत माघशम्̇सः ।सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीः यजमानस्य पशून् पाहि ।।
- यजुर्वेद ,तैत्तिरीय संहिता ===== काण्ड 1-4 1.1 प्रपाठक 1 1.1.1 अनुवाक 1
इस मन्त्र का देवता (विषय) सविता (सूर्य) है।मंत्रार्थ इस प्रकार है-
(त्वा ऊर्ज्जे त्वा इषेवायवः स्थ) तुम्हारी दी हुई ऊर्जा और तुम्हारा दिया हुआ अन्न क्रियाओं का सिद्ध करने वाला।(वः)हमें (देवः सविता प्रार्पयतु) सविता देवता संयोजन (निर्माण) करे।(श्रेष्ठतमाय कर्मण) श्रेष्ठ कर्म करने के लिये।( आप्यायध्वम् अध्न्याः) जो अध्न्य है वह उन्नति को प्राप्त हो।(इन्द्राय भागं प्रजावतीः अनमीवाः अयक्ष्मा) सामर्थ्य का भाग प्रजाओं को प्राप्त हो,वे निरोग हों और ज्वरों से रहित हों।
(मा वः स्तेनः मा इशत) इसमें चोर-डाकू और पापी न हों न हों।(सः ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात वह्वीः यजमानस्य पशून पाहि) वह (सविता) हम सब में स्थिर रक्षक हो जाए और गृहस्थियों के पशुओं की रक्षा करे।
एक अभिप्राय यह है कि परमात्मा ने सूर्य से दो पदार्थ इस पृथ्वी पर दिए हैं- एक ऊर्जा और दूसरा अन्न।आनन भी सूर्य से आ रही उर्जा से ही संपुष्ट होता है। अन्न में दो तत्व मुख्य हैं- कार्बोहाइड्रेट (स्टार्च इत्यादि) और प्रोटीन। ये दोनों पदार्थ पेड़-पौधों में सूर्य-रश्मियों से बनते हैं।यदि पेड़-पौधों पर सूर्य-रश्मियाँ न पड़ें तो ये नहीं बन सकते। संसार के सभी प्राणियों का जीवन इन दो पदार्थों पर ही निर्भर करता है।
इस मन्त्र में कहा गया है कि देव सविता द्वारा अन्न और उर्जा से हम और हमारे अध्न्य पशुओं (पालतू जानवरों) का रक्षण हो। इसके साथ ही कहा गया है कि हममें जो प्राणशक्ति उर्जा से आती है उससे हम धर्मकार्य करें जिससे हमारा यश और कीर्ति बढे। शिक्षा में कर्म का प्रथम पाठ यही है कि कर्म करने की शक्ति परमात्मा से सूर्य द्वारा हमें प्राप्त होती है, हम उसका सदुपयोग करें।पृथ्वी पर विद्युत, अग्नि तथा अन्य शक्ति का स्रोत भी केवल सूर्य ही है। कोयला एवं तेल में भी सूर्य से ही शक्ति संचित होती है।प्रश्न उत्पन्न होता है कि सूर्य की शक्ति का संचय स्थान कहाँ है? कहा जाता है कि सूर्य पर हाइड्रोजन के ऐटम (परिमण्डल) संयुक्त होकर हीलियम के परिमण्डल बना रहे हैं और उनसे शक्ति निकलती है। उनका संयुक्त होना भी तो किसी के करने से होता है। वह कौन है?वैदिक ग्रन्थों में कहा है कि वह परमात्मा का तेज है,जिससे यह सब हो रहा है।इस प्रकार सब कर्मों का स्रोत शक्ति और शक्ति का स्रोत सूर्य अर्थात परमात्मा बताकर कर्म की व्याख्या आरम्भ की गई है।
इसी यजुर्वेद के अगले तीन मन्त्र वसु के सम्बन्ध में है।वसु का अर्थ सामान्य भाषा मंअ यज्ञ है।यज्ञ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि वह सब कार्य जिससे मनुष्य मात्र को लाभ हो, उसे यज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ कर्म में परमात्मा के सृष्टि-रचना कार्य से लेकर मनुष्य के नित्य जीविकोपार्जन तक के सब कर्म आ जाते हैं।शर्तें दो हैं कि सब करी लोकहित में हों और उनसे किसी को हानि न पहुँचे।निर्माण कर्म से होता है,इसे सामान्य भाषा में प्रयत्न अर्थात काम कहते हैं।यजुर्वेद में कहा है कि जिस कार्य से प्राकृतिक पदार्थों से उपयोगी पदार्थ निर्माण हों,वह कार्य यज्ञ है।उदाहरणतः कोई हल चलाकर और भूमि में बीज डाल अन्न उत्पन्न करता है, वह यज्ञ करता है।इसी प्रकार कोई कच्चा लोहा लेकर उससे लोहे के गार्डर, सलाखें इत्यादि बनाता है तो वह यज्ञ करता है।कोई अन्य चूना-सीमेंट-ईंटें इत्यादि बनाता है तो वह भी यज्ञ कार्य है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है एक छोटा से छोटा कार्य अर्थात मोची तथा भंगी के कार्य से लेकर सुन्दर भूषण अथवा वस्त्र बनाने वाले तक के सब कार्य यज्ञ होते हैं।इसमें केवल एक बन्धन होता है, वह यह कि कर्म करने में लोक कल्याण की भावना रहे।तब ही वह यज्ञ होता है अन्यथा वह स्वार्थ है।कई लोग स्वार्थ के कार्य को असुर-यज्ञ कहते हैं। वैसे शास्त्रों में तो केवल उसी कर्म को यज्ञ कहा है जिससे अधिक से अधिक लोगों का हित सिद्ध हो सके।इस प्रकार का कार्य करते हुए मनुष्य जब उसमें से अपने परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक ले तब ही उसका कार्य यज्ञ के लक्षणों में आता है।
यजुर्वेद १-५ में कहा है -
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच् छकेयं तन् मे राध्यताम् ।
इदमहमनृतात सत्यमुपैमि ।।
- यजुर्वेद १-५
अर्थात-(अग्ने) हे शक्ति स्वरुप परमात्मा। (व्रत्पते व्रतं चरिष्यामि) तू व्रतों का स्वामी है।मैं भी व्रत कर रहा हूँ।(तत् शकेयम् तत् में राध्यताम्) उस व्रत-पालन की मुझमे शक्ति हो।(मैं उसे पूर्ण कर सकूं)।(इदम् अहम् अनृतात् सत्यं उपी एमि) इस व्रत पालन करने से मैं अनृत से सत्य को प्राप्त होऊं।
मंत्र का अभिप्राय यह है कि मनुष्य जब इस संसार-संघर्ष में सम्मिलित हो तो शक्तिस्वरूप परमात्मा से प्रार्थना करे कि वह अब इस गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने लगा है।इसे वह सफलतापूर्वक पालन कर सके, ऐसा व्रत करे। हे परमात्मा, मैं इस संसार में जीवन का व्रत पालन कर सकूँ और इस व्रत का पालन कर्ता हुआ अनृत को छोड़कर सत्य का पालन कर सकूँ।वेद का यह कथन है उन युवा दम्पति के लिए है जो विवाह के उपरान्त अभी गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने लगे हैं।
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