राँची , झारखण्ड से प्रकाशित हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक - २१/०२/२०१५ को प्रकाशित लेख - व्यक्ति , समाज , जगत का सिद्धान्त एक
एक ही सिद्धान्त से कार्य करते हैं व्यक्ति, समाज और जगत
- अशोक “प्रवृद्ध”
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे यह नियम जैसा शरीर में वैसा ही ब्रह्माण्ड में समान रूपेण कार्य होता है। ब्रह्माण्ड को ब्रह्म का शरीर माना गया है।ब्रह्माण्ड के भी सब पदार्थ,शरीर की भान्ति प्रति क्षण क्षरित हो रहे हैं। जगत्यां जगत अर्थात गत्तिशील जगत शरीर है।इसमें परमात्मा सब की आयु को खाता चला जाता है।जगत के सम्बन्ध में परमात्मा के प्राण अर्थात सात प्रकार की शक्तियां जो इस जगत की रक्षा और पाला करती है,वे भी प्राण ही कहाती हैं।वेद इस प्राण के विषय में कहता है -
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे ।
यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।
-अथर्ववेद ११ - ४ -१
अर्थात - प्राणों को नमस्कार है (हम प्राणों का आदर करें) जिसके वश में पूर्ण जगत है।जो सब प्राणियों की रचना करने वाला है और जिसमें सब कुछ स्थित है।
इसी प्राण से जगत का व्यवहार चलता है।यह प्राण सात प्रकार का है - अग्नि, वायु, परिमण्डलान्तर्गत शक्ति (इण्टर-अटॉमिक एनर्जी), रासायनिक शक्ति (केमिकल एनर्जी), आण्विक कम्पन शक्ति (मोलेकुलर डाइनेमिक्स), भू-आकर्षण (ग्रैविटी) और चुम्बकीय शक्ति (मैग्नेटिक फ़ोर्स) । इस प्रकार ये सात प्रकार के प्राण चलायमान जगत की रक्षा और पालन करते हैं। वैदिक सिद्धांत है कि मनुष्य का शरीर जिस प्रकार कार्य करता है, वैसा ही चलायमान जगत (सूर्य, चन्द्र, तारागण इत्यादि) कार्य करता है। अन्तर यह है कि प्राणियों के शरीरों में पृथक-पृथक् जीवात्मा होता है और जगत के पदार्थों में पृथक-पृथक जीवात्मा नहीं होता।यही कारण है कि जहाँ जीवात्मा अपने कर्म-फल से जन्म-मरण के बन्धन में फँसे हुए हैं,वहाँ जगत के पदार्थ न तो कुछ कर्म करते हैं, न ही वे कर्म-फल से बन्धे हुए हैं।
अग्नि से अभिप्राय उस अग्नि से है जिससे सृष्टि-रचना आरम्भ हुई थी।ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम मन्त्र में ही इसका वर्णन है-
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ॥
-ऋग्वेद: सूक्तं १ - १ -१
अर्थात - हे अग्नि! हम तुम्हारी स्तुति करते हैं (गुण, कर्म, स्वभाव का स्मरण करते) हैं।तुम सृष्टि-रचना से पहले हमारे हित में कार्य कर रही थी।सृष्टि-रचना यज्ञ भी तुम करने वाली हो और हमें अन्न, धन-दौलत देने वाली हो।
यह अग्नि वः शक्ति है जिससे जगत की रचना हुई है।
वायु के विषय में भी ऋग्वेद में कहा है -
वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृताः ।
तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥
-ऋग्वेद: सूक्तं १-२-१
अर्थात - वायु (वस्तुओं) को प्राप्त होती है तो इसका दर्शन (ज्ञान दृष्टि से) होता है।यह संसार के पदार्थों को सुन्दरतम बनाती है।वायु से ही उनकी रक्षा होती है।अभिप्राय यह है कि पदार्थों में और उसके अणुओं में गत्ति वायु से उत्पन्न होती है।इसीलिए कहा है कि जैसे शरीर में (सात प्राणों से) कार्य होता है, वैसे ही जगत में भी सात प्राणों से कार्य होता है।
ईश्वरीय शक्तियाँ जिस प्रकार प्राणी के शरीर में कार्य करती हैं, ठीक उसी प्रकार समाज में भी कार्य करती हैं।प्राणी के शरीर के अंगों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है- एक आदेश निर्माण करने वाले और आदेश देने वाले और दूसरे आदेश पाने अथवा मानने वाले अंग।आदेश निर्माण करने वाले अंग हैं- ज्ञानेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि।आदेश देने वाला तत्व है जीवात्मा और आदेश मानने वाले अंग हैं कर्मेन्द्रियाँ। इसी प्रकार समाज में विभाजन किया गया है।समाज के घटकों का विभाजन पाँच प्रकार के प्राणियों में है।इनको वेद में पञ्चजनाः कहा गया है।ऋग्वेद १०/५३/४ में कहा है-
तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुरां अभि देवा असाम ।
ऊर्जाद उत यज्ञियासः पंचजना मम होत्रं जुषध्वम् ।
- ऋग्वेद १०/५३/४
अर्थात - हम पञ्चजनाः (समाज के पाँचों अंग) वेद मन्त्रों पर मनन कर ईश्वर की दी हुई ऊर्जा का प्रयोग करें l इससे असुरों पर विजय प्राप्त करेंl
सब मानव समाजों में पाँच प्रकार के प्राणी ही हैं, इसका अभिप्राय यह है कि ,मानव समाज में कार्यों के विचार से पाँच प्रकार के जनसमूह होते हैंlयजुर्वेद में भी इन पाँच प्रकार के जनसमूह की गणना करायी है -
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः l
ब्रह्मराजन्याभ्यां , शूद्राय चार्यायच स्वाय चारणाय l -यजुर्वेद – २६ / ०२
अर्थात – यह मेरी कल्याणमयी वाणी सम्पूर्ण (सब अंगों सहित) सब मनुष्य मात्र के लिये है l(और मनुष्यों में हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और अरण) l
यहाँ इस मन्त्र में भी मनुष्य समाज के पाँच भाग ही माने हैंlअब इस समाज के इन अंगों की तुलना मनुष्य के शरीर से भी की गई हैl कहा गया है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय बाहें हैं, वैश्य जंघाएँ हैं, शुद्र पाँव हैंl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि समाज के पाँच अंग वेद मानता है और इन पाँचों के कार्य की तुलना शरीर से की जा सकती हैlमुख, मनुष्य शरीर में पूर्ण शरीर का प्रवक्ता कहा जाता हैlयदि शरीर के किसी भी अंग में कोई कष्ट हो तो उस कष्ट को प्रकट करने वाला मुख ही होता हैlकष्ट भले ही पांव में हो, परन्तु उसका वर्णन मुख ही करता हैl बाहें शरीर की रक्षा के लिये होती हैं और जंघाएँ पूर्ण शरीर को आश्रय देने वाली हैंl पाँव शरीर को उठाकर इधर-उधर ले जाती हैंlसमाज की तुलना मानव शरीर से एक अन्य प्रकार से भी की जाती है। विचार यन्त्र और आदेश यन्त्र मुख्यतः प्राणी के सिर भाग में होता है।पाँच ज्ञानेन्द्रियों में चार के गोलक तो सिर में ही स्थित हैं।आँख, कान, नाक और रसना, ये सब सिर में ही हैं।त्वचा अर्थात स्पर्श-इन्द्रिय ही तो पूर्ण शरीर में,परन्तु यह सिर में भी है।इस कारण मानव शरीर में आदेश निर्माण करने वाले और आदेश देने वाले अंग ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और जीवात्मा मनुष्य के सिर बहग में ही होते हैं। परन्तु आदेश पालन करने वाले अंग पूर्ण शरीर में फैले हुए हैं। हठ रक्षा का काम करते हैं, पाँव शुद्र का काम करते हैं और पेट तथा जंघाएँ विषय का काम करती हैं।गुदा और मूत्रेन्द्रिय भी शरीर के नीचे के भाग में ही होते हैं।
मानव शरीर और समाज में तुलना केवल स्थान के विचार से ही नहीं की जाती,वरन इनके कार्यों की भी तुलना की जा सकती है।मानव श्री के अंगों की और उनके कर्मों की श्रेष्ठता की तुलना भी मानव शरीर से की जा सकती है।समाज में श्रेष्ठ अंग हैं ज्ञान प्राप्त करने वाला और ज्ञान का संचय करने वाला। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि विद्वत् (ब्राह्मण) वर्ग ज्ञानेन्द्रियों की भान्ति ज्ञान प्राप्त करता है , वे ही उसे संचय करते हैं और फिर बूढी की भान्ति उस ज्ञान का विश्लेषण कर, समाज का आदेश पालन करने वाले अंगों को कर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं। जैसे कि हाथ, पाँव, वाणी, यन्त्र, लिंग और गुदा अंग अपने कष्टों की सूचना मन और बुद्धि को देते हैं, वैसे ही समाज में शुद्र, वैश्य और क्षत्रिय वर्ण अपने कष्टों की सुचना विद्वानों को देते हैं और फिर मन तथा बुद्धि की भान्ति, विद्वान समाज के विभिन्न अंगों के कष्ट की चिकित्सा करते हैं।मनुष्य समाज और शरीर के विभिन्न अंगों में अन्तर भी है।प्रत्येक मनुष्य के अंगों के कर्मों का निश्चय उसके गुण, कर्म,स्वभाव से होता है और गुण, कर्म, स्वभाव मनूष्य की आयु,शिक्षा और खान-पान के अनुसार बदलते रहते हैं।शरीर में ऐसा नहीं होता।मनुष्य के शरीर में जो-जो अंग हाथ, पाँव का कार्य करने के लिए बने हैं,वे ही वे कार्य कर सकते हैं।पेट, पेट का ही काम कर सकता है।गुदा और लिंग के भी काम बदले नहीं जा सकते।इस बात का ध्यान रखकर ही समाज के कार्यों का विभाजन किया जा सकता है।इसी कारण यह कहा गया है कि मनुष्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ग गुण, कर्म और स्वभाव से ही निश्चय होते हैं।श्रीमद्भगवद्गीता १८/४१ में कहा है –
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शुद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।।
-श्रीमद्भगवद्गीता १८/४१
अर्थात- गुण, कर्म और स्वभाव से ही मनुष्य के ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य औअर शुद्र की श्रेणियों में बाँटे जाते हैं।
ये गुण, कर्म, स्वभाव पूर्वजन्म के कर्मों से हों, माता-पिता के घर के संस्कारों से हो अथवा मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा और प्रयत्न से हों, किसी भी कारण से हों, उसके आधार पर ही वर्ण मानने चाहियें और उसके अनुसार ही समाज को उनसे कार्य लेना चाहिये।जिसे पाँव, आँख, कान इत्यादि का कार्य नहीं कर सकते, वैसे ही एक अनपढ़ अथवा बुद्धि से हीन व्यक्ति अध्यापन का कार्य नहीं कर सकता।एक दुर्बल रूग्न शरीर वाला सेना में भरती नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार की पूर्ण कर्म-योजना एक ही विधि-विधान से बनी है।जो कुछ ब्रह्माण्ड में होता देखा जता है, वही कुछ प्राणी के शरीर में हो रहा है और वही कुछ मनुष्य-समाज में हो रहा है।प्रकृति का यह विधान है कि आदेश निर्माण और आदेश देने वाले अंग विशेष विशेष गुणों के स्वामी होने चाहियें और आदेश पालन करने वाले एनी गुणों से युक्त हों।ये भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य उन अंगों से तब तक ही लिए जाने चाहिये, जब तक उनमे अपने गुण तथा कर्म करने का सामर्थ्य होता है। मनुष्य शरीर हों, मानवों का कोई संगठन हों, कोई उद्योग-धन्धा हो अथवा राज्य कार्य हो, सब में एक ही सिद्धान्त ,एक ही विधि-विधान कार्य करता है।
एक ही सिद्धान्त से कार्य करते हैं व्यक्ति, समाज और जगत
- अशोक “प्रवृद्ध”
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे यह नियम जैसा शरीर में वैसा ही ब्रह्माण्ड में समान रूपेण कार्य होता है। ब्रह्माण्ड को ब्रह्म का शरीर माना गया है।ब्रह्माण्ड के भी सब पदार्थ,शरीर की भान्ति प्रति क्षण क्षरित हो रहे हैं। जगत्यां जगत अर्थात गत्तिशील जगत शरीर है।इसमें परमात्मा सब की आयु को खाता चला जाता है।जगत के सम्बन्ध में परमात्मा के प्राण अर्थात सात प्रकार की शक्तियां जो इस जगत की रक्षा और पाला करती है,वे भी प्राण ही कहाती हैं।वेद इस प्राण के विषय में कहता है -
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे ।
यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।
-अथर्ववेद ११ - ४ -१
अर्थात - प्राणों को नमस्कार है (हम प्राणों का आदर करें) जिसके वश में पूर्ण जगत है।जो सब प्राणियों की रचना करने वाला है और जिसमें सब कुछ स्थित है।
इसी प्राण से जगत का व्यवहार चलता है।यह प्राण सात प्रकार का है - अग्नि, वायु, परिमण्डलान्तर्गत शक्ति (इण्टर-अटॉमिक एनर्जी), रासायनिक शक्ति (केमिकल एनर्जी), आण्विक कम्पन शक्ति (मोलेकुलर डाइनेमिक्स), भू-आकर्षण (ग्रैविटी) और चुम्बकीय शक्ति (मैग्नेटिक फ़ोर्स) । इस प्रकार ये सात प्रकार के प्राण चलायमान जगत की रक्षा और पालन करते हैं। वैदिक सिद्धांत है कि मनुष्य का शरीर जिस प्रकार कार्य करता है, वैसा ही चलायमान जगत (सूर्य, चन्द्र, तारागण इत्यादि) कार्य करता है। अन्तर यह है कि प्राणियों के शरीरों में पृथक-पृथक् जीवात्मा होता है और जगत के पदार्थों में पृथक-पृथक जीवात्मा नहीं होता।यही कारण है कि जहाँ जीवात्मा अपने कर्म-फल से जन्म-मरण के बन्धन में फँसे हुए हैं,वहाँ जगत के पदार्थ न तो कुछ कर्म करते हैं, न ही वे कर्म-फल से बन्धे हुए हैं।
अग्नि से अभिप्राय उस अग्नि से है जिससे सृष्टि-रचना आरम्भ हुई थी।ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम मन्त्र में ही इसका वर्णन है-
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ॥
-ऋग्वेद: सूक्तं १ - १ -१
अर्थात - हे अग्नि! हम तुम्हारी स्तुति करते हैं (गुण, कर्म, स्वभाव का स्मरण करते) हैं।तुम सृष्टि-रचना से पहले हमारे हित में कार्य कर रही थी।सृष्टि-रचना यज्ञ भी तुम करने वाली हो और हमें अन्न, धन-दौलत देने वाली हो।
यह अग्नि वः शक्ति है जिससे जगत की रचना हुई है।
वायु के विषय में भी ऋग्वेद में कहा है -
वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृताः ।
तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥
-ऋग्वेद: सूक्तं १-२-१
अर्थात - वायु (वस्तुओं) को प्राप्त होती है तो इसका दर्शन (ज्ञान दृष्टि से) होता है।यह संसार के पदार्थों को सुन्दरतम बनाती है।वायु से ही उनकी रक्षा होती है।अभिप्राय यह है कि पदार्थों में और उसके अणुओं में गत्ति वायु से उत्पन्न होती है।इसीलिए कहा है कि जैसे शरीर में (सात प्राणों से) कार्य होता है, वैसे ही जगत में भी सात प्राणों से कार्य होता है।
ईश्वरीय शक्तियाँ जिस प्रकार प्राणी के शरीर में कार्य करती हैं, ठीक उसी प्रकार समाज में भी कार्य करती हैं।प्राणी के शरीर के अंगों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है- एक आदेश निर्माण करने वाले और आदेश देने वाले और दूसरे आदेश पाने अथवा मानने वाले अंग।आदेश निर्माण करने वाले अंग हैं- ज्ञानेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि।आदेश देने वाला तत्व है जीवात्मा और आदेश मानने वाले अंग हैं कर्मेन्द्रियाँ। इसी प्रकार समाज में विभाजन किया गया है।समाज के घटकों का विभाजन पाँच प्रकार के प्राणियों में है।इनको वेद में पञ्चजनाः कहा गया है।ऋग्वेद १०/५३/४ में कहा है-
तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुरां अभि देवा असाम ।
ऊर्जाद उत यज्ञियासः पंचजना मम होत्रं जुषध्वम् ।
- ऋग्वेद १०/५३/४
अर्थात - हम पञ्चजनाः (समाज के पाँचों अंग) वेद मन्त्रों पर मनन कर ईश्वर की दी हुई ऊर्जा का प्रयोग करें l इससे असुरों पर विजय प्राप्त करेंl
सब मानव समाजों में पाँच प्रकार के प्राणी ही हैं, इसका अभिप्राय यह है कि ,मानव समाज में कार्यों के विचार से पाँच प्रकार के जनसमूह होते हैंlयजुर्वेद में भी इन पाँच प्रकार के जनसमूह की गणना करायी है -
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः l
ब्रह्मराजन्याभ्यां , शूद्राय चार्यायच स्वाय चारणाय l -यजुर्वेद – २६ / ०२
अर्थात – यह मेरी कल्याणमयी वाणी सम्पूर्ण (सब अंगों सहित) सब मनुष्य मात्र के लिये है l(और मनुष्यों में हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और अरण) l
यहाँ इस मन्त्र में भी मनुष्य समाज के पाँच भाग ही माने हैंlअब इस समाज के इन अंगों की तुलना मनुष्य के शरीर से भी की गई हैl कहा गया है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय बाहें हैं, वैश्य जंघाएँ हैं, शुद्र पाँव हैंl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि समाज के पाँच अंग वेद मानता है और इन पाँचों के कार्य की तुलना शरीर से की जा सकती हैlमुख, मनुष्य शरीर में पूर्ण शरीर का प्रवक्ता कहा जाता हैlयदि शरीर के किसी भी अंग में कोई कष्ट हो तो उस कष्ट को प्रकट करने वाला मुख ही होता हैlकष्ट भले ही पांव में हो, परन्तु उसका वर्णन मुख ही करता हैl बाहें शरीर की रक्षा के लिये होती हैं और जंघाएँ पूर्ण शरीर को आश्रय देने वाली हैंl पाँव शरीर को उठाकर इधर-उधर ले जाती हैंlसमाज की तुलना मानव शरीर से एक अन्य प्रकार से भी की जाती है। विचार यन्त्र और आदेश यन्त्र मुख्यतः प्राणी के सिर भाग में होता है।पाँच ज्ञानेन्द्रियों में चार के गोलक तो सिर में ही स्थित हैं।आँख, कान, नाक और रसना, ये सब सिर में ही हैं।त्वचा अर्थात स्पर्श-इन्द्रिय ही तो पूर्ण शरीर में,परन्तु यह सिर में भी है।इस कारण मानव शरीर में आदेश निर्माण करने वाले और आदेश देने वाले अंग ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और जीवात्मा मनुष्य के सिर बहग में ही होते हैं। परन्तु आदेश पालन करने वाले अंग पूर्ण शरीर में फैले हुए हैं। हठ रक्षा का काम करते हैं, पाँव शुद्र का काम करते हैं और पेट तथा जंघाएँ विषय का काम करती हैं।गुदा और मूत्रेन्द्रिय भी शरीर के नीचे के भाग में ही होते हैं।
मानव शरीर और समाज में तुलना केवल स्थान के विचार से ही नहीं की जाती,वरन इनके कार्यों की भी तुलना की जा सकती है।मानव श्री के अंगों की और उनके कर्मों की श्रेष्ठता की तुलना भी मानव शरीर से की जा सकती है।समाज में श्रेष्ठ अंग हैं ज्ञान प्राप्त करने वाला और ज्ञान का संचय करने वाला। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि विद्वत् (ब्राह्मण) वर्ग ज्ञानेन्द्रियों की भान्ति ज्ञान प्राप्त करता है , वे ही उसे संचय करते हैं और फिर बूढी की भान्ति उस ज्ञान का विश्लेषण कर, समाज का आदेश पालन करने वाले अंगों को कर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं। जैसे कि हाथ, पाँव, वाणी, यन्त्र, लिंग और गुदा अंग अपने कष्टों की सूचना मन और बुद्धि को देते हैं, वैसे ही समाज में शुद्र, वैश्य और क्षत्रिय वर्ण अपने कष्टों की सुचना विद्वानों को देते हैं और फिर मन तथा बुद्धि की भान्ति, विद्वान समाज के विभिन्न अंगों के कष्ट की चिकित्सा करते हैं।मनुष्य समाज और शरीर के विभिन्न अंगों में अन्तर भी है।प्रत्येक मनुष्य के अंगों के कर्मों का निश्चय उसके गुण, कर्म,स्वभाव से होता है और गुण, कर्म, स्वभाव मनूष्य की आयु,शिक्षा और खान-पान के अनुसार बदलते रहते हैं।शरीर में ऐसा नहीं होता।मनुष्य के शरीर में जो-जो अंग हाथ, पाँव का कार्य करने के लिए बने हैं,वे ही वे कार्य कर सकते हैं।पेट, पेट का ही काम कर सकता है।गुदा और लिंग के भी काम बदले नहीं जा सकते।इस बात का ध्यान रखकर ही समाज के कार्यों का विभाजन किया जा सकता है।इसी कारण यह कहा गया है कि मनुष्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ग गुण, कर्म और स्वभाव से ही निश्चय होते हैं।श्रीमद्भगवद्गीता १८/४१ में कहा है –
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शुद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।।
-श्रीमद्भगवद्गीता १८/४१
अर्थात- गुण, कर्म और स्वभाव से ही मनुष्य के ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य औअर शुद्र की श्रेणियों में बाँटे जाते हैं।
ये गुण, कर्म, स्वभाव पूर्वजन्म के कर्मों से हों, माता-पिता के घर के संस्कारों से हो अथवा मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा और प्रयत्न से हों, किसी भी कारण से हों, उसके आधार पर ही वर्ण मानने चाहियें और उसके अनुसार ही समाज को उनसे कार्य लेना चाहिये।जिसे पाँव, आँख, कान इत्यादि का कार्य नहीं कर सकते, वैसे ही एक अनपढ़ अथवा बुद्धि से हीन व्यक्ति अध्यापन का कार्य नहीं कर सकता।एक दुर्बल रूग्न शरीर वाला सेना में भरती नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार की पूर्ण कर्म-योजना एक ही विधि-विधान से बनी है।जो कुछ ब्रह्माण्ड में होता देखा जता है, वही कुछ प्राणी के शरीर में हो रहा है और वही कुछ मनुष्य-समाज में हो रहा है।प्रकृति का यह विधान है कि आदेश निर्माण और आदेश देने वाले अंग विशेष विशेष गुणों के स्वामी होने चाहियें और आदेश पालन करने वाले एनी गुणों से युक्त हों।ये भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य उन अंगों से तब तक ही लिए जाने चाहिये, जब तक उनमे अपने गुण तथा कर्म करने का सामर्थ्य होता है। मनुष्य शरीर हों, मानवों का कोई संगठन हों, कोई उद्योग-धन्धा हो अथवा राज्य कार्य हो, सब में एक ही सिद्धान्त ,एक ही विधि-विधान कार्य करता है।
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