Wednesday, July 29, 2015

गरीबी में जीने को मजबूर ग्रामीण -अशोक “प्रवृद्ध”

रांची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ अभिव्यक्ति पर दिनांक २४ जुलाई २०१५ को प्रकाशित लेख -गरीबी में जीने को मजबूर ग्रामीण  -अशोक “प्रवृद्ध”
राष्ट्रीय खबर, दिनाँक- २४ जुलाई २०१५ 
गरीबी में जीने को मजबूर ग्रामीण 
-अशोक “प्रवृद्ध”
भारत विभाजन के पश्चात् बारह पंचवर्षीय योजनाओं में लाखों करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी ग्रामीण भारत घनघोर गरीबी व अति दयनीय हालत में जीने को मजबूर है। तीन जुलाई शुक्रवार को जारी सामाजिक, आर्थिक व जातिगत जनगणना रिपोर्ट-2011 के नवीनतम आंकड़ों ने ग्रामीण विकास के लिए दशकों से चलाई जा रही सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की पोल खोल कर रख दी है। उल्लेखनीय है कि पूरे देश की 125 करोड़ आबादी के 24.39 करोड़ परिवारों की आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा 80 वर्ष पश्चात् सामने आया है। इसके पूर्व 1932 में ऐसे सर्वेक्षण आंग्ल शासकों ने कराये थे। वित्त मंत्री अरुण जेटली और ग्रामीण विकास मंत्री बीरेंद्र सिंह के द्वारा जारी किए गए इस जनगणना के आंकड़ों में निर्धनता की हालत यह है कि ग्रामीण भारत के 75 प्रतिशत यानी 13.34 करोड़ परिवारों की मासिक आय पांच हजार रुपये से भी कम है। गांवों में दस हजार से अधिक की आमदनी वाले परिवार लगभग आठ प्रतिशत ही हैं। सामाजिक, आर्थिक व जातिगत जनगणना रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल 24.39 करोड़ परिवारों में 17.91 करोड़ परिवार ग्रामीण भारत से आते हैं। इसमें तीन-चौथाई ग्रामीण परिवार आज भी 5000 रुपये महीना से कम पर गुजारा करने को मजबूर हैं। गरीबी की सर्वाधिक मार पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के ग्रामीण इलाकों में है। यहां 78 प्रतिशत परिवारों की मासिक आमदनी 5000 रुपये से कम है।शेष ग्रामीण भारत की भी कमोबेश यही स्थिति है। शहरी इलाकों के आंकड़े फिलहाल जारी नहीं किए गए हैं। पर जब भी वे सामने आएंगे, देश की कुल तस्वीर कमोबेश ऐसी ही उभरेगी यह इसलिए कि देश की तिहत्तर प्रतिशत आबादी का सच सामने आ चुका है। दूसरे, शहरों में भी, एक छोटा वर्ग भले संपन्नता के टापू पर रहता हो, परन्तु गरीबी का दायरा बहुत बड़ा है। दूसरी ओर देश के निन्यानबे प्रतिशत नेता करोड़पति हैं। 2014 में लोकसभा के लिए हुए आम चुनावों में नामांकन भरने की प्रक्रिया के दौरान नेताओं के द्वारा दी गई अपने संपत्ति के ब्यौरों से तो कम से कम यही लगता है। निवार्चन आयोग के समक्ष दिए हलफनामे में कई शीर्ष नेताओं की संपत्ति का विवरण गरीब देशवासियों को चौंकाने वाला नहीं है। देश के पूंजीपति व्यवसायी और उद्योगपतियों के पास अरबों खरबों की संपत्ति है। कुछ की गिनती दुनिया के सर्वाधिक अमीरों में होती है। आज हमारे देश में विदेशी कंपनियां आधिकारिक रूप से 2,32,000 करोड़ का शुद्ध मुनाफा कमा रही हैं। बाकी सभी तरह का फर्जी हिसाब, उनका आयातित कच्चे माल का भुगतान, चोरी आदि को जोड़ा जाय तो यह रकम 25,00,000 करोड़ सालाना बैठती है। यहां दवाओं का सालाना कारोबार 10,00,000 करोड़ का है। सालाना 6,00,000 करोड़ का जहर का व्यापार विदेशी कंपनियां कर रही है। देश में 10,000 लाख करोड़ का खनिज पाया जाता है और इसका दोहन भी विदेशी कंपनियां बहुत ही सस्ते भाव पर कर रही हैं। वहीं भारत विभाजन के बाद 400 लाख करोड़ रुपया प्रतिवर्ष विदेशी बैंकों में जमा होता है। विदेशी कम्पनियों के इस फलते-फूलते व्यापार पर मन्दी का भी कोई असर नहीं पड़ता है। उल्टा आज जब भारतीय अर्थव्यस्था संकट के दलदल में फँसती जा रही है तो विदेशी कम्पनियों के सालाना कारोबार की रक़म लगातार बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़े यह भी बताते हैं कि गांवों में रहने वाले इक्वावन प्रतिशत परिवार अस्थायी, हाड़-तोड़ मजदूरी के सहारे जीते हैं। करीब तीस प्रतिशत परिवार भूमिहीन मजदूर हैं। सवा तेरह प्रतिशत परिवार एक कमरे के कच्चे मकान में रहते हैं।
भारतवर्ष विभाजन के पश्चात् ग्रामीण विकास के लिए विभिन्न कार्यक्रमों व योजनाओं के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपए पानी की तरह बहाए जाने के बाद भी यह चिंतनीय स्थिति है कि दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश भारत में छह लाख 68 हजार ग्रामीण परिवार भीख मांगकर और चार लाख आठ हजार परिवार कूड़ा इकट्ठा कर गुजारा करते हैं। आंकड़ों के अनुसार देश में कुल ग्रामीण परिवारों में 0.37 प्रतिशत परिवार भीख मांगकर और 0.23 प्रतिशत परिवार कूड़ा इकट्ठा कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के परिवारों की संख्या तीन करोड़ 86 लाख है, जो कुल ग्रामीण परिवारों का 21.53 प्रतिशत है। ग्रामीण इलाकों में दो करोड़ 37 लाख परिवारों के पास एक कमरे का कच्चा घर है। पांच करोड़ 37 लाख भूमिहीन परिवार मजदूरी कर गुजारा करते हैं। ग्रामीण इलाकों में पांच करोड़ 39 लाख परिवार खेती से गुजारा करते हैं, जबकि नौ करोड़ 16 लाख परिवार अस्थायी तौर पर मजदूरी करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे परिवारों की संख्या 68 लाख 96 हजार है, जिनमें परिवार की मुखिया महिला है और उनमें 16 से 59 उम्र के बीच का कोई पुरुष नहीं है। 65 लाख 15 हजार परिवारों में 18 से 59 आयु वर्ग का कोई सदस्य नहीं है। चार करोड़ 21 लाख परिवारों में 25 साल से अधिक उम्र का कोई भी सदस्य साक्षर नहीं है।
ठीक इसके विपरीत वैश्विक आर्थिक आंकड़ों के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था अब दो ट्रिलियन (20 खरब) डॉलर की हो गई है। भारतीय मुद्रा में यह राशि करीब 1,26,800 अरब रुपये बैठती है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार केवल सात साल में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में एक टिलियन डॉलर यानी लगभग 63,400 अरब रुपये जोड़ लिए हैं। लेकिन देश की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का फायदा सभी तबकों को नहीं मिल पाया है। फिलहाल भारत का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 2.0 टिलियन डॉलर है। इसके बावजूद भारत अब भी निम्न मध्य आय वर्ग वाला देश है। यहां सालाना प्रति व्यक्ति आय करीब 1,01,430 रुपये (1,610 डॉलर) है। भारत इस साल दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है। अमेरिका 18.4 ट्रिलियन डॉलर के साथ दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत इस सूची में नौवें स्थान पर है। आर्थिक विश्लेषक कहते हैं, बढ़ते सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी से भारत भले ही दुनिया की बड़ी ताकत होने का दंभ भरे परंतु आज भी हम विश्व की निम्न मध्य आमदनी वाले देशों की श्रेणी में आते हैं। ग्रामीण भारत के लिए चिंतनीय स्थिति यह भी है कि इस विषम और डरावने यथार्थ पर राजनीतिक बहस भी नहीं हो रही, क्योंकि आंकड़ों का संग्रहण पुरानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के काल 2011 का है , और कुछ राज्यों में 2013 तक के आंकड़ें हैं तथा इनका सिर्फ प्रस्तुतीकरण वर्तमान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार द्वारा किया गया है। इन आंकड़ों से यह जाहिर है कि देश में विकास का आयातित मोडल ग्रामीण भारत की अनदेखी के कारण पूर्णतः विफल हो गया है। जहां न तो ऊपरी वर्ग का लाभ निचले स्तर पर पहुंचा है और न ही शहर केंद्रित विकास योजनाओं से गांवों को लाभ मिला है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सब्सिडी और ग्रामीण रोजगार के अधिकांश कार्यक्रम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए हैं, जिससे गांवों में नए प्रकार के राजनीतिक सामंतवाद का सृजन हुआ और गरीब लाख कोशिश के बाद भी गरीब के गरीब ही रह गए ।
अस्सी वर्ष पश्चात हुए आर्थिक जनगणना के महत्वपूर्ण पहलुओं की उपेक्षा कर अगर ग्रामीण भारत की अनदेखी करते हुए सिर्फ लोकलुभावन योजनाओं में बड़ी पूंजी निवेश के विकास को मोडल बनाया गया तो विषमता के अतिरिक्त देश एक बड़े कर्ज तथा आर्थिक संकट का शिकार हो सकता है। ग्रीस में जीडीपी का 177 प्रतिशत कर्ज था और आज वहां की जनता सड़कों पर मोहताज है। कृषि और ग्राम्य लघु उद्योगों को बढ़ावा देने और उनमे निवेश से भारतीय गांवों की अर्थव्यवस्था और तस्वीर बदल सकती है तथा गांवों की सर्वांगीण विकास संभव है और यदि कर्ज लेकर भ्रामक योजनाएं बनाई गईं तो देश नए आर्थिक संकट में फंस सकता है। महत्वपूर्ण प्रश्न प्राथमिकताओं और संवैधानिक उत्तरदायित्वों का है। संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन का अधिकार मूलभूत अधिकार है परंतु भारत विभाजन के बाद की सरकारें उस जिम्मेदारी को पूरा करने में विफल रही हैं। औद्योगिक क्रांति में पीछे रहने की भरपाई सिर्फ डिजिटल क्रांति व अपने वेतन-भत्तों की वृद्धि में आगे रहकर नहीं हो सकती। यह कितनी क्षोभनाक बात है कि गरीब जनता द्वारा चुने गए सांसद इन महत्वपूर्ण मुद्‌दों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय अपने वेतन को 100 प्रतिशत तथा पेंशन को 75 प्रतिशत बढ़वाने की कोशिश में लगे हैं। जिस देश में 18 करोड़ परिवार गांवों में रहते हों वहां नदियों के किनारे की कृषि तथा लघु उद्योगों की क्रांति से ही सभी का विकास हो सकता है जो देश के संविधान निर्माताओं का स्वप्न था और आज के राजनेताओं की संवैधानिक जिम्मेदारी भी है।

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