Thursday, December 11, 2014

वैदिक मान्यतानुसार मानव सृष्टि काल

झारखण्ड की राजधानी राँची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - ०८ /१२ / २०१४ को प्रकाशित लेख - वैदिक मान्यतानुसार मानव सृष्टि काल

वैदिक मान्यतानुसार मानव - सृष्टि काल 
- अशोक “प्रवृद्ध”


वैदिक मान्यतानुसार मानव - सृष्टि काल 
- अशोक “प्रवृद्ध”

इस संसार में मानव सृष्टि कब हुई ? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए भूगर्भ शास्त्र , पदार्थ विज्ञान और न जाने कौन - कौन से विभाग के वैज्ञानिक व विद्वतजन लगे हुए हैं l कई पुस्तकों व मजहबी किताबों में भी सृष्टि रचना का वर्णन अंकित हैं और उन्होंने अपनी वर्णनों में जो कहा है वह गलत साबित हो चुका है क्यूंकि उनकी बतलाई अवधि से बहुत पूर्व काल के मानव - कंकाल वैज्ञानिकों को मिल चुके हैं l  इस विषय में हिंदुओं के धर्म ग्रंथों में भी विशद वर्णन अंकित मिलते हैं l भारतीय ज्योतिष शास्त्र मे भी सृष्टि रचना और मानुष जन्म काल का वर्णन मिलता है l
भारतीय ज्योतिष शास्त्र सृष्टि - उत्पति काल और मनुष्य - जन्म काल का काल नक्षत्रों को देखकर बतलाता है l ज्योतिष शास्त्र के अनुसार आज २०१४ ई० से १,९७,२९,४०,११४ वर्ष पूर्व आरम्भ हुई , परन्तु यह मनुष्य के आविर्भाव का काल नहीं है l मनुष्य का इस पृथ्वी पर आविर्भाव वर्तमान चतुर्युगी माना जाता है l इसकी गणना इस प्रकार की गई है l ४,३२,००,००,००० सौर वर्ष का ब्रह्मदिन माना गया है l पूर्ण ब्रह्म दिन को १४ मन्वन्तरों में बांटा है l इन मन्वन्तरों में से अभी तक छः मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं और सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है l सातवें मन्वन्तर की २७ चतुर्युगियाँ व्यतीत हो चुकी हैं l अठाईसवीं चयुर्युगी का सतयुग , त्रेतायुग और द्वापर युग बीत चुका है और कलियुग के ५११४ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं l यह सब बनता है १,९७,२९,४०,११४ सौर वर्ष l यह सृष्टि रचना के आरम्भ से आज २०१४ तक का व्यतीत काल है , परन्तु फिर भी इस प्रश्न का उतर न मिला कि इस पृथ्वी पर मनुष्य कब बना ? सृष्टि - रचना का कार्य तब आरम्भ होता है , जब परमाणु की साम्यावस्था भंग होती है l मानव - सृष्टि के सम्बन्ध में भारतीय ज्योतिष शास्त्र में भी वर्णन मिलता है l ब्रह्मदिन (सृष्टि – रचना काल) ४,३२,००,००,००० वर्ष का होता है l  अथर्ववेद में इनका वर्णन इस प्रकार किया है -
शतं ते ऽयुतं हायनान् द्वे युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः |
 इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्ताम् अहृणीयमानाः ||
अथर्ववेद ८ - २ - २१
इस मन्त्र का देवता अर्थात विषय प्रजापत्ति है l प्रजापत्ति का अर्थ है सृष्टि का रचने वाला l मंत्रार्थ इस प्रकार है -
(ते) तेरे लिए l (युगे कृण्म) युगों को (रचना - काल को) करते हैं (यहाँ “हम” परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है) l
(शतं अयुतं) सौ के दो शून्य और अयुत से पाँच शून्य (से पहले क्रमवार) (द्वे त्रीणि चत्वारि) दो , तीन और चार के अंक (के लगने से) (इन्द्राग्नि ते विश्वे देवा) इन्द्र और अग्नि (जो महान देवता हैं उनकी सहायता से) (देवाः नु) ये देवता (अहृणीयमानाः मन्यन्ताम्) पूर्ण शक्ति से अनुकूल रहें l
इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि प्रजापत्ति (परमात्मा) ने हमारे लिए सृष्टि रचना की है और उसकी अवधि निश्चित की है ४,३२,००,००,००० सौर वर्ष  इसमें दिव्य गुण युक्त पदार्थ बनाए हैं और वे हमारे अनुकूल हैं l अर्थात उन द्वारा हमारा पालन - पोषण होता है l
अथर्ववेद में कहे गए इस मन्त्र के अनुसार ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र भी गणना करता है l इस प्रकार एक ब्रह्म दिन (सृष्टि - रचना - काल) = ४,३२,००,००,००० सौर वर्ष का होता है l
ब्रह्म दिन को वेद में स्कम्भ कहा है , स्कम्भ का अर्थ है - खम्भा l यह काल - रचना को आश्रय प्रदान करता है l इस कारण इसे स्कम्भ कहते हैं l इस सन्दर्भ अथर्ववेद में एक मन्त्र इस प्रकार है -
 यस्मिन्त् स्तब्ध्वा प्रजापतिर् लोकान्त् सर्वां अधारयत् |
 स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विद् एव सः ||
अथर्ववेद १० - ७ - ७
अर्थात – (यस्मिन्) जिसमें (प्रजापतिः) परमात्मा ने l (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (आकाश गंगा अर्थात galaxy) (स्तब्ध्वा अधारयत्) रोककर धारण किया हुआ है l (तम् स्कम्भं ब्रूहि) उसको स्कम्भ कहो l (कतमः स्विदेव सः) कौन सा वह है ? अभिप्राय यह है कि स्कम्भ वह है जिसमें प्रजापति (परमात्मा) द्वारा बनायी सृष्टि धारण की हुई रहती है l अर्थात वह काल जिसमें सृष्टि बनी रहती है , इसी को ब्रह्म दिन कहते हैं l अर्थात मन्त्र ब्रह्म दिन को ही स्कम्भ कहा है l इस स्कम्भ के विषय में अगले ही मन्त्र में कहा गया है -
यत् परमम् अवमम् यच्च मध्यमं प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम् |
कियता स्कम्भः प्र विवेश तत्र यत्र प्राविशत् कियत् तद् बभूव ||
अथर्ववेद १० - ७ – ८
अर्थात - (प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम्) प्रजापति (परमात्मा) ने सब रूपों में सृष्टि का सृजन (निर्माण) किया l वह  सृष्टि (यत् परमम् अवमम्) जो अति ऊँची और नीची है l (यच्च मध्यमं) और जो बिच में है (अभिप्राय यह है कि पूर्ण जगत) l
(कियता स्कम्भ) कब से यह काल है जो प्रवेश किया था अर्थात आरम्भ हुआ था ? और (तत्र यत्र न प्राविशत्) और वह कब नहीं रचा गया था l (कियत् तद् बभूव) कब यह नहीं होगा l
इस मन्त्र में उस रचित जगत की अवधी पूछी गई है l पहले पूछा है कि जो परमात्मा ने ऊपर , नीचे और मध्य में सब प्रकार का निर्माण किया है , वह कब से है , कब तक रहेगा और कब नहीं था ?

 कियता स्कम्भः प्र विवेश भूतम् कियद् भविष्यद् अन्वाशयेऽस्य |
 एकं यद् अङ्गम् अकृणोत् सहस्रधा कियता स्कम्भः प्र विवेश तत्र ||
अथर्ववेद १० - ७ -९  
अर्थात – (कियता स्कम्भः प्र विवेश भूतम्) भूतकाल में यह कब तक बना हुआ था ? (कियद् भविष्यद् अन्वाशयेऽस्य) कब तक निरन्तर इसका भविष्य है ? (एकं यद् अङ्गम् अकृणोत्) इसको एक अंग करके (सहस्रधा कियता) एक सहस्त्र प्रकार से (स्कम्भः प्र विवेश तत्र) ब्रह्म दिन वाहन रचा रहेगा l

इस प्रकार स्पष्ट है कि जहाँ अथर्ववेद ८ - २ - २१ में पूर्ण ब्रह्म दिन की अवधि ४,३२,००,००,००० वर्ष बतलाई थी वहीँ अथर्ववेद १० - ७ - ७ , ८ , ९ में ब्रह्म दिन में विविध प्रकार की रचना उस रचना के बने रहने के काल को एक सहस्त्र भागों में बाँटा है l एक भाग को देवयुग कहा है l देववर्ष पूर्ण ब्रह्म दिन की अवधि को सहस्त्र से भाग देने पर बनेगा l इस प्रकार एक चतुर्युगी = ४३,२०,००० वर्ष l
भारतीय ज्योतिष शास्त्रों में बताया है कि इसमें चार युग - सतयुग , त्रेतायुग , द्वापर और कलियुग की अवधि भी है l प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह पत्ता कैसे चली ? ज्योतिष के जानकार ज्योतिषाचार्य कहते हैं कि नक्षत्रों की गत्ति से पत्ता चलता है कि प्रत्येक  ४३,२०,००० वर्ष के उपरान्त काल में परिवर्तन होता है l ब्रह्म दिन का विभाजन मन्वन्तरों में भी किया गया है l सृष्टि के आरम्भ होने से लेकर इसके पुनः लय होने तक के काल को १४ (चौदह) भागों में बाँटा गया है l प्रत्येक भाग को मन्वन्तर कहते हैं l जबसे रचना काल आरम्भ हुआ है तब से छः मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं और सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है l प्रत्येक मन्वन्तर में रचना का विशेष कार्य हुआ है और उस कार्य को प्रकट करने के लिए ही मन्वन्तरों के नाम रखे गए हैं l मनुस्मृति में इन मन्वन्तरों के नाम इस प्रकार अंकित हैं -
स्वायम्भुव , स्वारोचिष , उत्तम , तामस , रैवत , चाक्षुष , विवस्वतसु l
वर्तमान में सातवाँ मन्वन्तर विवस्वतसुत मन्वन्तर चल रहा है l विकासवाद के मत के विपरीत वैदिक मत मानता  है कि सब जीव - जन्तु जब - जब भी उत्पन हुए हैं , वैसे ही उत्पन्न हुए हैं , जैसे अब हैं अथवा कभी भी रहे हैं l यह ध्यातव्य है कि प्रत्येक मन्वन्तर में रचना का विशेष कार्य हुआ है और उस कार्य को प्रकट करने के लिए ही मन्वन्तरों के नाम रखे गए हैं l इसी क्रम में स्वायम्भुव मन्वन्तर में परमात्मा का तेज उत्पन्न हुआ और कार्य करता रहा l इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के मन्त्र १०- १२९ - ३ में इस प्रकार कहा है –
तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥
- ऋग्वेद १० - १२९ -३ll
(अग्रे तमसा गूळ्हम् तमः आसीत्त्) सबसे पहले अन्धकार से आच्छादित प्रकृत्ति साम्यावस्था में थी l यहाँ तमः के अर्थ साम्यावस्था में प्रकृति ही है l वह प्रकृति (सर्वम् इदम् सलिलं०यह सब सलिलावस्था (fluid) , अर्थात जल की भान्ति अथवा कणदार रेत की भान्ति बह जाने वाली अवस्था में थी (तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्त) जो (प्रकृति) कारण रूप से उपस्थित थी अर्थात परमाणु रूप में - (तत् तपसः महिना एकम अजायत्) उसके ताप के प्रभाव से एक (तेज) उत्पान हुआ l
ऋग्वेद के इस मन्त्र में सृष्टि - रचना से पूर्व की स्थिति की वर्णन करते हुए कह है कि एक शक्ति उत्पन्न हुई l इस अर्थ अर्थात भाव को एक और मन्त्र में अधिक स्पष्ट रूप से कहा गया है -
यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्समुद्रादुत वा पुरीषात् ।
श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ॥
ऋग्वेद १- १६३ - १॥
(श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं) बाज के पंखों और हिरण की बाहों (के सामान तीव्रगत्ति से चलने वाला) (प्रथमं जायमान उद्यन्समुद्रादुत वा पुरीषात् यत् अक्रन्दः ते अर्वन्) अर्वन जो बहुत शब्द करता हुआ पैदा होता हुआ ऊपर अन्तरिक्ष में सब कार्य पूर्ण करने के लिए उठा l
 (प्रथमं जायमान)  पहले ऊत्पन्न होता हुआ (उत् वा यत् समुद्रात्) जो ऊपर उठता हुआ अंतरिक्ष में (यदक्रन्दः) बहुत शब्द करता हुआ l ऊपर ऋग्वेद १० - १२९ - ३ में जो कहा था , यही हुआ l यहाँ कहा है कि फ़ैल गया अंतरिक्ष में l इसी काल की बात ऋग्वेद १ - १६३ - २ में अंकित मिलती है –
यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ।
गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वं वसवो निरतष्ट ॥
-ऋग्वेद १- १६३ -   २॥
अर्थात - (यमेन दत्तं) पहले यह नियंत्रण कर्ता परमात्म से दिया गया था l (वह शब्द करता हुआ तेज जो पहले उत्पन्न हुआ था , वह परमात्मा से दिया गया था l)  (आयुनक् एनम् त्रित अध्यतिष्ठत्) लगाम की भान्ति त्रित से ग्रहण किया गया अर्थात वह तेज त्रित अर्थात परमाणु से ग्रहण किया गया l (गन्धर्वो अस्य सूरात् रश्नाम्) सूर्य की किरणों की भान्ति उसने परमाणुओं को सिधाया l
इसी काल अर्थात समय की बात ऋग्वेद के अगले मन्त्र १ - १६३ - ३ में लिखा है -
असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन ।
असि सोमेन समया विपृक्त आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि ॥
-ऋग्वेद १- १६३ -   ३॥
(असि यमः) तू यमन करने वाला (त्रित को नियंत्रण में रखने वाला) है l (असि आदित्यः) तू प्रकाशस्वरूप है l (अर्वन असि) तू अर्वन (तेज मांगने वाला) है l (त्रितो गुह्येन व्रतेन) परमाणु गुप्त रूप से गठित होने से (असि सोमेन समया) साम्यावस्था में समीप - समीप थे l (विकृप्त) पृथक – पृथक थे l (आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि) यह कहा जाता है की तीन दिव्य संगठनों में बंध गए l
अर्थात - (असि सोमेन समया) जो साम्यावस्था में परमाणु थे , (विपुक्ता) उनका रूप बदल दिया l इसका अभिप्राय यह है कि साम्यावस्था भंग हुई और बदलकर असाम्यावस्था उत्पन्न हुई l उस बदली अवस्था में (आहुः ते त्रीणि दिवि बन्धनानि) तीन प्रकार के बन्धन परमाणुओं के बने जो दिव्य गुण युक्त थे , ऐसा कहा है l इसका अभिप्राय यह हुआ कि परमाणुओं के संयोग बने तीन प्रकार के थे , वे संयोग दिव्य गुण युक्त थे l ये थे अहंकार (atomic particles) l यह स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ l इसी मन्वन्तर में एक अंडा बना जिसे आंग्ल भाषा में नेब्युला (nebula) कहते हैं l इसे संस्कृत भाषा में हिरण्यगर्भ कहा है l यह सब प्रथम मन्वंतर स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ l
तदनन्तर द्वितीय स्वारोचिष मन्वन्तर में यह हिरण्यगर्भ अर्थात नेब्युला फटा और पृथ्वी अर्थात ठोस पदार्थ (मनुस्मृति १ l १३) ग्रह और दिवे (सूर्य) तथा अंतरिक्ष निर्माण हुए . इस फटने से घोर शब्द हुआ  इसी कारण इस मन्वन्तर को स्वारोचिष कहा है l यह अति भयंकर हुआ होगा l इसके उपरान्त हिरण्यगर्भ के भिन्न - भिन्न भाग उड़कर , कोई दूर , कोई समीप गए और दिव्य शक्ति के एक बड़े चक्के की भांति घूमने लगे l यह आकाश - गंगा अर्थात गैलेक्सी बनी l इसका स्वरुप गोल चक्के सा बन गया l यह सब द्वितीय मन्वन्तर स्वारोचिष में हुआ l
तीसरे मन्वन्तर उत्तम मन्वन्तर में इस आकाश - गंगा की स्थिति स्थिर हुई और यह भली प्रकार से चलने लगी l
चौथे तापस मन्वन्तर में हिरण्यगर्भ की गर्मी से , जो प्रकाशयुक्त था , वह अब ठंडा होने से अन्धकारयुक्त हो गया l
पाँचवें रैवत मन्वन्तर में रैवत सूर्य जितने भी आकाश - गंगा में थे , वे चमकने लगे और अपने प्रकाश से अपने ग्रहों को प्रदीप्त करने लगे l इसी मन्वन्तर में सोम उत्पन्न हुआ जिससे इस मन्वन्तर का नाम रैवत पड़ा l सोम जीवन तत्व का जन्मदाता था l इस तत्व का प्रभाव पृथ्वी पर छठे मन्वन्तर में हुआ , जिसे चाक्षुष मन्वन्तर कहा है l सोम और सूर्य के योग से वनस्पतियाँ उत्पन्न हुईं l वनस्पतियों के उपरान्त जीव - जन्तु बने l जीव - जन्तु सूर्य और पृथ्वी के संयोग से बने l ये सब सातवें मन्वन्तर में बने. ऋषि - मुनियों , आप्त जनों व विद्वानों का अनुमान है कि मानव - रचना वर्तमान चतुर्युगी के प्रारंभिक काल में हुई l
वेदादि ग्रंथों में सृष्टि रचना का क्रम तो वर्णित मिलता है , परन्तु कुछ बातें स्पष्ट नहीं हैं अथवा हो सकता है मैं अल्पबुद्धि मानव इस तक नहीं पहुँच पाया हूँ l यथा , सब मन्वन्तर एक समान अवधि के हैं अथवा छोटे – बड़े हैं ?   सृष्टि – रचना का क्रम विदित होते हुए भी यह स्पष्ट पत्ता नहीं चलता की किस - किस क्रम को कितना काल लगा ? वेद में सामान्य प्रक्रिया का वर्णन तो मिलता है , परन्तु निश्चयात्मक तिथिकाल उसमें अंकित नहीं मिलती l
ऋषि – मुनियों , आप्त जनों व विद्वानों के अनुमान के अनुसार मानव - रचना इस सातवें विवस्वतसुत मन्वन्तर के वर्तमान चतुर्युगी के प्रारंभिक काल में हुई मान ली जाये तो यह सृष्टि - रचना काल से १,८५,२४,०७,००० वर्ष व्यतीत होने पर जब वर्तमान मन्वन्तर विवस्वतसुत आया , तब हुई l पहले वनस्पतियाँ बनी तदनन्तर बड़े - बड़े पेड़ बने l तत्पश्चात ११,६६,४०,००० वर्ष व्यतीत होने पर - मानव सृष्टि उत्पन्न हुई और मानव - सृष्टि को हुए ३०,९३,११३ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं l

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