राँची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - १२ / १२ / २०१४ को प्रकाशित लेख - मानव स्वभाव अर्थात मानव प्रवृति
मानव स्वभाव अर्थात मानव प्रवृति
- अशोक “प्रवृद्ध”
इस संसार में दो प्रकार के मानव स्वभाव अर्थात दो प्रकार के प्रकृति वाले मनुष्य पाए जाते हैं - दैवी स्वभाव और आसुरी स्वभाव। श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक ६ में कहा है -
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥
-श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक ६
अर्थात - इस लोक अर्थात संसार में दो प्रकार के प्राणियों की सृष्टि है - दैवी स्वभाव वाले और दूसरे आसुरी स्वभाव वाले। संसार में सर्वत्र दो ही प्रकार के मनुष्य उत्पन्न होते हैं।
दैवी सम्पदा अर्थात दैवी स्वभाव का अभिप्राय है -श्रेष्ठ गुण। श्रेष्ठ गुण हैं- निर्भय होना, मन-बुद्धि की निर्मलता, ज्ञान से सदा सम्पर्क, दान में रुचि, इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण, लोक-कल्याण में रुचि, स्वाध्याय, जप, चित्त की सरलता, अहिंसा, सत्य-वादन, क्रोध न करना, त्याग, चित्त की स्थिरता, निन्दा करने में अरूचि, दयाभाव, लोभ न करना,व्यवहार में कोमलता, व्यर्थ की चेष्टाओं में अरूचि, बल, क्षमाभाव, धैर्य, मन, वचन और कर्म में शुद्धता, वैर-भाव का त्याग, अभिमान न करना। दैवी स्वभाव वालों के यही पच्चीस गुण भारतीय पुरातन ग्रंथों में बतलाये गये हैं।पाखण्ड अर्थात धोखाधड़ी, घमण्ड, अभिमान, क्रोद्ध, कठोर व्यवहार आसुरी प्रकृति वालों के स्वभाव (लक्षण) पुरातन ग्रंथों में बताये गये हैं।
आसुरी प्रकृति के व्यक्तियों के स्वभाव (लक्षण) को बतलाते हुए श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ में धोखाधड़ी, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोर व्यवहार- ये पाँच आसुरी गुण कहे गये हैं। कहा है -
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥
-श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ ,श्लोक ४
अर्थात - पाखण्ड, घमण्ड और अभिमान, क्रोध, अज्ञान, कठोर वाणी ये आसुरी संपत्ति को प्राप्त हुए के लक्षण है ।
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ में इन दोनों प्रकार के मनुष्यों के लक्षण भी बतलाये गये हैं। उदाहरणतः दैवी स्वभाव के लोगों के सन्दर्भ में श्रीमदभगवद गीता के अध्याय १६ में कहा है -
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥१६ - १॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१६-२॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥१६-३॥
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक १ - ३॥
अर्थात- वह व्यक्ति जो निर्भीक, अन्तःकरण से निर्मल,ज्ञान और योग (मेल-मिलाप) में विश्वास करता है, दान देता है, इन्द्रियों को वश में रखता है, यज्ञ (ईश्वरार्पण कार्य), स्वाध्याय,तपस्या, धर्म कार्य के लिये कठोर परिश्रम करता है और चित्त से सरल है। १६ - १॥
जो दूसरों को हानि न पहुँचाने का सदा संकल्प कर, सत्य भाषण करता हुआ क्रोध न करने का संकल्प, चित्त की शान्ति, दूसरे में दोष न ढूँढना, हीन प्राणियों पर दया करना, लोभ न करना, चित्त की कोमलता, बुरे कार्यों का त्याग और मन को स्थिर रखता है। १६-२
तेज (भले कार्यों में उत्साह), पश्चाताप करने वालों (दोषियों)को क्षमा के लिये तत्पर, विपत्ति में धैर्य, (मन, वचन और कर्म से) शुद्धता , वैर-भाव का त्याग,किसी के लिये बुरा न चाहना। ये दैवी रकृति वालों के गुण हैं।
इसी प्रकार आसुरी प्रकृति वालों के स्वभाव के विषय में भी श्रीमद भगवद्गीता के षोडशोऽध्याय: दैवासुरसंपद्विभागयोग (अध्याय १६) में कहा है -
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥१६- ७॥
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥१६- ८॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥१६- ९॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥१६- १०॥
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६, श्लोक ७ -१०
अर्थात - आसुरी स्वभाव वाले नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इस कारण उनके मन, शरीर और बुद्धि की पवित्रता नहीं होती, न ही चरित्र की शुद्धता। न चरित्र के विषय में और न ही सत्य के विषय में वह कुछ जानते हैं। १०-७।।
वह कहते हैं कि यह जगत असत्य है। इसका कोई आधार नहीं। इसका बनाने वाला कोई नहीं।यह अपने आप बिना प्रयोजन के बना है। इस कारण यह भोग-विलास के योग्य है। १०- ८।।
इस प्रकार के मिथ्या ज्ञान से नष्ट आत्मा वाले,अल्पबुद्धि वाले, हानिकर कार्य - कर्म करने वाले, जगत् में हीन (नाश) होने वाले और अहित कर्म करने वाले ये लोग होते हैं। १०-९ ।।
कामनाओं के अधीन कठिनाई से होने वाले कर्मों का, दम्भ से अभिमान, मदमस्त, असीम इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करने में लगे रहते हैं ।१०-१० ।।
इस प्रकार मनुष्यों को इन दो प्रकार से बाँटा गया है, और जब किसी समाज में किसी एक प्रकार के मनुष्यों का बाहुल्य हो जाता है तब वह समाज भी वैसा ही दैवी अथवा आसुरी हो जाता है।
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६, श्लोक ७ में यह कहा गया है कि जो आसुरी स्वभाव वाले हैं, वे कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं जानते अर्थात वे बुद्धिहीन होते हैं। बुद्धिमान मनुष्य करने योग्य और न करने योग्य को समझ सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है । आसुरी स्वभाव वाले दुर्बल बुद्धि रखते हैं। आसुरी स्वभाव वालो के लिये जो हमारे पुरातन ग्रंथों में कहा गया है वह सब कुछ बुद्धि की दुर्बलता का ही परिचायक है और बुद्धिविहीनता के कारण ही आगे की सब बातें स्वयं सब कुछ होने लगती हैं। बुद्धिविहीनता का एक लक्षण यह भी है कि वे इस संसार को स्वतः, बिना बनाने वाले के बना मानने लगते हैं अर्थात परमात्मा को नहीं मानते। शास्त्रों में ईश्वर को नहीं मन्ना बुद्धिविहीनता कही गई है। यह इस कारण कि प्रकृति का ही ज्ञान उनको नहीं होता। प्रकृति स्वयं गत्ति में नहीं आती। अनात्म तत्व वाली कोई भी वस्तु स्वतः गत्ति में नहीं आती। आज के वैज्ञानिक भी ऐसा ही मानते हैं। इस कारण पृथ्वी, सूर्य और अन्य तारागन जो निरन्तर गत्ति कर रहे हैं, उनको गत्ति देने वाला कोई है? यह शुद्ध वैज्ञानिक एवं बुद्धियुक्त तथ्य है। ऐसे लोगों का एक लक्षण यह भी होता है कि ये लोग अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये, जो कभी पूर्ण नहीं होती, संसार का अहित करते हैं और महान ह्त्या-काण्डों को सम्पन्न करते हैं। फिर वे जो भी कर्म करते हैं, उनके मूल में अपनी कामनाओं की पूर्ती होती है। कामनाएँ अग्नि में घी के समान होती हैं। ज्यों-ज्यों उनकी पूर्ति होती जाती है, त्यों-त्यों इनकी वृद्धि होती जाती है। ये बुद्धि विहीन लोग उनके पीछे भागते हुए मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करने लगते हैंऔर अपार जनसंहार की चेष्टा करते हैं। आज के युग के युरोप में नेपोलियन, मुसोलिनी, हिटलर के दृष्टांत इन आसुरी प्रवृत्तिवालों के व्यवहार का भली-भान्ति दर्शन कराते हैं। ये तानाशाह विस्तारवादी प्रवृति को लिये हुए विदेशों पर आक्रमण करते थे। लाखों लोगों को इन्होने युद्ध में झोंक दिया। ठीक यही बात द्वापर के महाभारत के युद्ध में हुई थी। दुर्योधनके लोभ से लाखों लोग मरे गये थे। महाभारत के कथा के अनुसार अन्त में दुर्योधन का नाश हुआ था। यही बात नेपोलियन, मुसोलिनी और हिटलर की हुई थी। श्रीमदभगवदगीता का प्रवक्ता यह कह रहा है कि ऐसे लोग आसुरी प्रवृति के होते हैं । ऐसे आसुरी प्रवृत्ति वालों के लिये श्रीमदभगवदगीता के इसी अध्याय १६ के श्लोक १९ में अर्जुन को समझाते हुए योगनिष्ठ श्रीकृष्ण ने कहा गया है कि उन द्वेष करने वाले पापियों और क्रूर कर्म करने वाले नराधमों को मैं इस संसार में बार-बार आसुरी योनियों में गिराता हूँ।
आसुरी योनि का अभिप्राय वेद में भी समझाया गया है। ऋग्वेद में एक मन्त्र इस प्रकार है -
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के आत्महनो जनाः ।।
ऋग्वेद ४०-३२
अर्थात- असुर सम्बन्धी योनियाँ अज्ञान से आच्छादित हैं। इन योनियों में वे मनुष्य आते हैं जो आत्मा का हनन करने वाले हैं। आत्मा का हनन करने वाले के विषय में अगले मन्त्र में कहा है कि ये वे लोग हैं जो आत्मवत् सर्वभूतेषु अर्थात सब प्राणियों को अपने सदृश्य नहीं मानते। अन्धकारमय, अज्ञानयुक्त योनियाँ हैं पशुओं की अथवा पशुओं के समान आचरण करने वाले मनुष्यों की।पशुओं का मन ज्ञान का संचय नहीं कर सकता। इस कारण वे अन्धकार में फँसे हुए रहते हैं।
मानव स्वभाव अर्थात मानव प्रवृति
- अशोक “प्रवृद्ध”
इस संसार में दो प्रकार के मानव स्वभाव अर्थात दो प्रकार के प्रकृति वाले मनुष्य पाए जाते हैं - दैवी स्वभाव और आसुरी स्वभाव। श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक ६ में कहा है -
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥
-श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक ६
अर्थात - इस लोक अर्थात संसार में दो प्रकार के प्राणियों की सृष्टि है - दैवी स्वभाव वाले और दूसरे आसुरी स्वभाव वाले। संसार में सर्वत्र दो ही प्रकार के मनुष्य उत्पन्न होते हैं।
दैवी सम्पदा अर्थात दैवी स्वभाव का अभिप्राय है -श्रेष्ठ गुण। श्रेष्ठ गुण हैं- निर्भय होना, मन-बुद्धि की निर्मलता, ज्ञान से सदा सम्पर्क, दान में रुचि, इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण, लोक-कल्याण में रुचि, स्वाध्याय, जप, चित्त की सरलता, अहिंसा, सत्य-वादन, क्रोध न करना, त्याग, चित्त की स्थिरता, निन्दा करने में अरूचि, दयाभाव, लोभ न करना,व्यवहार में कोमलता, व्यर्थ की चेष्टाओं में अरूचि, बल, क्षमाभाव, धैर्य, मन, वचन और कर्म में शुद्धता, वैर-भाव का त्याग, अभिमान न करना। दैवी स्वभाव वालों के यही पच्चीस गुण भारतीय पुरातन ग्रंथों में बतलाये गये हैं।पाखण्ड अर्थात धोखाधड़ी, घमण्ड, अभिमान, क्रोद्ध, कठोर व्यवहार आसुरी प्रकृति वालों के स्वभाव (लक्षण) पुरातन ग्रंथों में बताये गये हैं।
आसुरी प्रकृति के व्यक्तियों के स्वभाव (लक्षण) को बतलाते हुए श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ में धोखाधड़ी, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोर व्यवहार- ये पाँच आसुरी गुण कहे गये हैं। कहा है -
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥
-श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ ,श्लोक ४
अर्थात - पाखण्ड, घमण्ड और अभिमान, क्रोध, अज्ञान, कठोर वाणी ये आसुरी संपत्ति को प्राप्त हुए के लक्षण है ।
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ में इन दोनों प्रकार के मनुष्यों के लक्षण भी बतलाये गये हैं। उदाहरणतः दैवी स्वभाव के लोगों के सन्दर्भ में श्रीमदभगवद गीता के अध्याय १६ में कहा है -
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥१६ - १॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१६-२॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥१६-३॥
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक १ - ३॥
अर्थात- वह व्यक्ति जो निर्भीक, अन्तःकरण से निर्मल,ज्ञान और योग (मेल-मिलाप) में विश्वास करता है, दान देता है, इन्द्रियों को वश में रखता है, यज्ञ (ईश्वरार्पण कार्य), स्वाध्याय,तपस्या, धर्म कार्य के लिये कठोर परिश्रम करता है और चित्त से सरल है। १६ - १॥
जो दूसरों को हानि न पहुँचाने का सदा संकल्प कर, सत्य भाषण करता हुआ क्रोध न करने का संकल्प, चित्त की शान्ति, दूसरे में दोष न ढूँढना, हीन प्राणियों पर दया करना, लोभ न करना, चित्त की कोमलता, बुरे कार्यों का त्याग और मन को स्थिर रखता है। १६-२
तेज (भले कार्यों में उत्साह), पश्चाताप करने वालों (दोषियों)को क्षमा के लिये तत्पर, विपत्ति में धैर्य, (मन, वचन और कर्म से) शुद्धता , वैर-भाव का त्याग,किसी के लिये बुरा न चाहना। ये दैवी रकृति वालों के गुण हैं।
इसी प्रकार आसुरी प्रकृति वालों के स्वभाव के विषय में भी श्रीमद भगवद्गीता के षोडशोऽध्याय: दैवासुरसंपद्विभागयोग (अध्याय १६) में कहा है -
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥१६- ७॥
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥१६- ८॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥१६- ९॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥१६- १०॥
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६, श्लोक ७ -१०
अर्थात - आसुरी स्वभाव वाले नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इस कारण उनके मन, शरीर और बुद्धि की पवित्रता नहीं होती, न ही चरित्र की शुद्धता। न चरित्र के विषय में और न ही सत्य के विषय में वह कुछ जानते हैं। १०-७।।
वह कहते हैं कि यह जगत असत्य है। इसका कोई आधार नहीं। इसका बनाने वाला कोई नहीं।यह अपने आप बिना प्रयोजन के बना है। इस कारण यह भोग-विलास के योग्य है। १०- ८।।
इस प्रकार के मिथ्या ज्ञान से नष्ट आत्मा वाले,अल्पबुद्धि वाले, हानिकर कार्य - कर्म करने वाले, जगत् में हीन (नाश) होने वाले और अहित कर्म करने वाले ये लोग होते हैं। १०-९ ।।
कामनाओं के अधीन कठिनाई से होने वाले कर्मों का, दम्भ से अभिमान, मदमस्त, असीम इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करने में लगे रहते हैं ।१०-१० ।।
इस प्रकार मनुष्यों को इन दो प्रकार से बाँटा गया है, और जब किसी समाज में किसी एक प्रकार के मनुष्यों का बाहुल्य हो जाता है तब वह समाज भी वैसा ही दैवी अथवा आसुरी हो जाता है।
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १६, श्लोक ७ में यह कहा गया है कि जो आसुरी स्वभाव वाले हैं, वे कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं जानते अर्थात वे बुद्धिहीन होते हैं। बुद्धिमान मनुष्य करने योग्य और न करने योग्य को समझ सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है । आसुरी स्वभाव वाले दुर्बल बुद्धि रखते हैं। आसुरी स्वभाव वालो के लिये जो हमारे पुरातन ग्रंथों में कहा गया है वह सब कुछ बुद्धि की दुर्बलता का ही परिचायक है और बुद्धिविहीनता के कारण ही आगे की सब बातें स्वयं सब कुछ होने लगती हैं। बुद्धिविहीनता का एक लक्षण यह भी है कि वे इस संसार को स्वतः, बिना बनाने वाले के बना मानने लगते हैं अर्थात परमात्मा को नहीं मानते। शास्त्रों में ईश्वर को नहीं मन्ना बुद्धिविहीनता कही गई है। यह इस कारण कि प्रकृति का ही ज्ञान उनको नहीं होता। प्रकृति स्वयं गत्ति में नहीं आती। अनात्म तत्व वाली कोई भी वस्तु स्वतः गत्ति में नहीं आती। आज के वैज्ञानिक भी ऐसा ही मानते हैं। इस कारण पृथ्वी, सूर्य और अन्य तारागन जो निरन्तर गत्ति कर रहे हैं, उनको गत्ति देने वाला कोई है? यह शुद्ध वैज्ञानिक एवं बुद्धियुक्त तथ्य है। ऐसे लोगों का एक लक्षण यह भी होता है कि ये लोग अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये, जो कभी पूर्ण नहीं होती, संसार का अहित करते हैं और महान ह्त्या-काण्डों को सम्पन्न करते हैं। फिर वे जो भी कर्म करते हैं, उनके मूल में अपनी कामनाओं की पूर्ती होती है। कामनाएँ अग्नि में घी के समान होती हैं। ज्यों-ज्यों उनकी पूर्ति होती जाती है, त्यों-त्यों इनकी वृद्धि होती जाती है। ये बुद्धि विहीन लोग उनके पीछे भागते हुए मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करने लगते हैंऔर अपार जनसंहार की चेष्टा करते हैं। आज के युग के युरोप में नेपोलियन, मुसोलिनी, हिटलर के दृष्टांत इन आसुरी प्रवृत्तिवालों के व्यवहार का भली-भान्ति दर्शन कराते हैं। ये तानाशाह विस्तारवादी प्रवृति को लिये हुए विदेशों पर आक्रमण करते थे। लाखों लोगों को इन्होने युद्ध में झोंक दिया। ठीक यही बात द्वापर के महाभारत के युद्ध में हुई थी। दुर्योधनके लोभ से लाखों लोग मरे गये थे। महाभारत के कथा के अनुसार अन्त में दुर्योधन का नाश हुआ था। यही बात नेपोलियन, मुसोलिनी और हिटलर की हुई थी। श्रीमदभगवदगीता का प्रवक्ता यह कह रहा है कि ऐसे लोग आसुरी प्रवृति के होते हैं । ऐसे आसुरी प्रवृत्ति वालों के लिये श्रीमदभगवदगीता के इसी अध्याय १६ के श्लोक १९ में अर्जुन को समझाते हुए योगनिष्ठ श्रीकृष्ण ने कहा गया है कि उन द्वेष करने वाले पापियों और क्रूर कर्म करने वाले नराधमों को मैं इस संसार में बार-बार आसुरी योनियों में गिराता हूँ।
आसुरी योनि का अभिप्राय वेद में भी समझाया गया है। ऋग्वेद में एक मन्त्र इस प्रकार है -
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के आत्महनो जनाः ।।
ऋग्वेद ४०-३२
अर्थात- असुर सम्बन्धी योनियाँ अज्ञान से आच्छादित हैं। इन योनियों में वे मनुष्य आते हैं जो आत्मा का हनन करने वाले हैं। आत्मा का हनन करने वाले के विषय में अगले मन्त्र में कहा है कि ये वे लोग हैं जो आत्मवत् सर्वभूतेषु अर्थात सब प्राणियों को अपने सदृश्य नहीं मानते। अन्धकारमय, अज्ञानयुक्त योनियाँ हैं पशुओं की अथवा पशुओं के समान आचरण करने वाले मनुष्यों की।पशुओं का मन ज्ञान का संचय नहीं कर सकता। इस कारण वे अन्धकार में फँसे हुए रहते हैं।
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