लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं
अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता.कोम में दिनांक - १६ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख-लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं -अशोक "प्रवृद्ध"
लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं- अशोक "प्रवृद्ध"
Posted On May 16, 2015 by &filed under आर्थिकी.
-अशोक “प्रवृद्ध”-
agricultureआदिकाल से ही भारतवर्ष के अधिकांश लोगों की आजीविका का साधन कृषि और कृषि से सम्बद्ध व्यवसाय रही है, और भारतवर्ष के कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि कृषि क्षेत्र में हमने बहुत उन्नति भी की है, परन्तु इस वर्ष मार्च , रील के महीने में हुई बेमौसम आंधी-तूफ़ान, बारिश और ओले ने खेतों में तैयार फसल को बर्बाद करके भारतीय कृषकों के लिए कृषि को जुआ मानने वाली कहावत को चरितार्थ करके रख दिया। वैसे तो प्रत्येक वर्ष देश के किसी न किसी भाग में आने वाली बाढ़ अथवा सूखे की स्थिति के कारण होने वाली क्षति का सामना करना भारतीय कृषकों की नियति रही है। विशेषकर लघु व सीमांत कृषक इस स्थिति से सदैव ही प्रभावित होते रहते हैं, परन्तु गत दिनों मार्च , अप्रैल के महीने में देश के पूर्वी और पश्चिमी देानों ही छोर से एक साथ नमी उठाई जाने के कारण बड़े पैमाने पर होने वाली असमय बेतहाशा बारिश व इसके साथ-साथ आने वाले आंधी-तूफान तथा ओलावृष्टि ने देश के कृषकों, विशेषकर उत्तर व मध्य भारत के किसानों की तो कमर ही तोड़ कर रख दी। खेतों में तैयार हो रही रवि की फसलें यथा, गेहूं, सरसों, अरहर , चना आदि के साथ ही मटर, टमाटर, आलू आदि सब्जी फसल और तम्बाकू,तिलहन और दलहन की फसलें नष्ट हो गईं। बारिश के साथ-साथ सक्रिय रही चक्रवाती हवाओं ने भी किसानों की आजीविका पर भारी कहर बरपा कर दिया। इसके कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों से कृषकों द्वारा आत्महत्या किए जाने, अपनी क्षतिग्रस्त फसल को देखकर हृदयगति रुक जाने से कृषकों की देहान्त हो जाने जैसी हृदयविदारक समाचार भी सुनाई देने लगे हैं। कुछ राज्यों की सरकारें ऐसे संकट के समय में कृषकों के सहायतार्थ आर्थिक पैकेज घोषित करती भी नज़र आईं। परन्तु यह भी सत्य है कि कृषकों के ऊपर टूटे इस प्राकृतिक प्रकोप के प्रभाव से आम नागरिक भी अछूता नहीं रहने वाला। आर्थिक और बाजार विशेषज्ञों के अनुसार शीघ्र ही दलहन,तिलहन और तत्काल रूप से विभिन्न सब्जि़यों की कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में आम देशवासियों को इस मौसम का भुगतान करना पड़ सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कृषि और विज्ञान के क्षेत्रों में लगतार हो रही प्रगति के बावजूद आज भी भारतीय कृषि व कृषक ईश्वर के सहारे ही अवलंबित हैं। यही कारण है कि 1950 में जीडीपी में कृषि का 51.9 प्रतिशत हिस्सा घटकर अब मात्र 13.7 प्रतिशत रह गया है। कभी देश की तीन चौथाई जनसंख्या को रोजगार मुहैय्या कराने वाला यह क्षेत्र अब मात्र 49 प्रतिशत जनसंख्या का ही आजीविका का साधन रह गया है। वर्तमान में कृषि कार्य में भी अधिक पूँजी लगने, मनरेगा के आने के पश्चात कृषि मजदूरी दर बढने और मजदूरों के द्वारा मजदूरी के बनिस्पत कार्य नहीं करने अर्थात कामचोर हो जाने , प्राकृतिक प्रकोप से फसलों के मारे जाने, सिंचाई के अपर्याप्त साधन, आधारभूत सुविधाओं की कमी, कृषि उत्पादों की बिक्री की खराब व्यवस्था और फिर बाजार से फसलोपज की उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण कृषि कार्य लाभदायक सौदा नहीं रह गया है।
ऐसे में कृषि और कृषक हित में सोचने वाले लोगों के मन में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि क्या देश में कृषि अर्थात खेती करना एक लाभदायक उद्यम या व्यवसाय रह गया है? और क्या सरकारी कृषि नीति कृषि उद्यम से जुड़ने के लिए लोगों को प्रेरित करती है? और आखिर क्या कारण है कि सम्पूर्ण देश का पेट भरने वाला किसान स्वयं भूख से मरता है अथवा आत्मह्त्या करता है ? उसके घर की छत टपकती है फिर भी वह बारिश का इन्तजार करता है ? एक आँकड़े के अनुसार प्रतिवर्ष हमारे देश मे सतर हजार किसान आत्महत्या कर रहे है लेकिन हमारे कृषि प्रधान देश मे ऐसा क्यों हो रहा है और इसका समाधान क्या है, इस बारे में गम्भीरता से सोचने के लिए कोई तैयार नहीं ? भारतवर्ष में कृषकों की आत्महत्या के इतिहास पर निगाह डाला जाए तो यह सपष्ट होता है कि गत सदी के नब्बे के दशक के अन्त में तथा सन 2000 के आस-पास कृषकों द्वारा आत्महत्या करने के मामले सामने आये । एक आंकड़े के अनुसार सन 1995 से 2011 तक के बीच लगभग तीन लाख कृषकों ने आत्महत्या की । वैसे तो कृषकों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति देश के अधिकांश भागों के कृषकों में पाई जा रही है परन्तु ये मामले मुख्यतः कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, तथा आंध्र प्रदेश से ही प्रतिवेदित किये गए हैं।देश मे कृषकों की आत्महत्या के पीछे का सबसे कारण यह है कि दिनानुदिन उनकी खेती का लागत अर्थात खर्च बढ़ता ही जा रहा है और आमदनी कम होती जा रही है जिससे किसान कर्जे मे डूब रहा है और आत्महत्या कर रहा है । खेती करने के लिए किसान अपने खेत में यूरिया, डाईअमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फोस्फेट आदि रसायानिक खाद और इंडोसल्फान ,मालाथियोन आदि कीटनाशक डाल रहा है । जो अधिकांशतया विदेशी कंपनियों से खरीदी जाती हैं और प्रतिवर्ष चार लाख अस्सी हजार करोड़ रुपये हमारे कृषकों से लूटकर विदेशी कम्पनियां ले जाती हैं। दूसरी ओर कृषकों को ऊन्नत प्रभेद के महंगे बीज प्रतिवर्ष खरीदने पड़ते हैं । रुपये के निरन्तर अवमूल्यन से भी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के दामों में वृद्धि होती है । देश में अधिकाँश किसान पिछ्ड़ी जातियों से हैं और छोटी जोत के मालिक हैं । संयुक्त परिवार के टूटने से तथा अन्य किसानों से आपसी लेन-देन ख़त्म होने से परिवार के मुखिया पर ही परिवार की सारी जिम्मेवारी होती है । इन परिस्तिथियों में कृषि-कार्य जैसे जोखिम भरे काम में हाथ डालना मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं ।
कृषि के क्षेत्र में बहुत प्रगति करने की दावा हमारे कृषि वैज्ञानिक व सरकारें करती रहती हैं, परन्तु यह भी परम सत्य है कि आज भी देश के 95 प्रतिशत से अधिक कृषक अपने खेतों की औसत उर्वर क्षमता का आधा पौना उपज ही ले पाते हैं अर्थात भरपूर उपज नहीं ले पाते। ऐसी स्थिति में सबको अन्न उपलब्ध कराने वाले अन्नदाता कृषकों की बदतर स्थिति आज किसी से छिपी नहीं है। देश में आये दिन कृषकों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की खबरें भी इस बात की पुष्टि करती हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि दिन भर खेतों में हाड़-तोड़ परिश्रम करने वाले कृषकों और उनके परिजनों को रात को भूखे पेट सोने को मजबूर होना पड़ता है। सेंटर फॉर डेवलपिंग सोसायटीज के द्वारा की गई एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण भारतीय कृषकों की इस दुखद स्थिति की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है । दिसम्बर 2013 से जनवरी 2014 के बीच हुए इस सर्वेक्षण में देश के 137 जिलों के 274 गाँवों को शामिल किया गया है। सर्वेक्षण में देश के कृषक अर्थात किसानों की कठिन जिन्दगी और सामाजिक-आर्थिक स्थिति की वास्तविकता प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि देश के 36% किसान अपने परिवार के साथ या तो झोपड़ी में रहते हैं या फिर कच्चे-पक्के मकान में। 44% किसान परिवार के पास कच्चा-पक्का मकान अथवा दोनों मिला-जुला है। सिर्फ 18% के पास ही स्वतंत्र रूप से पक्का मकान है । देश के कृषकों में शिक्षा की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि देश के 28% किसान निरक्षर हैं। 14% दसवीं तक और केवल छह प्रतिशत के पास ही महाविद्यालय अर्थात कॉलेज की डिग्र्री है। सर्वेक्षण के अनुसार 32% किसान परिवार चलाने के लिए कृषि के अतिरिक्त कोई अन्य काम करते हैं। सर्वेक्षण में प्रत्येक दस में से एक किसान ने माना कि विगत एक वर्ष के दौरान कुछ मौकों पर उसके परिवार को भूखे पेट सोना पड़ा। भारतीय कृषकों के द्वारा उर्वरकों के इस्तेमाल के सम्बन्ध में सर्वेक्षण में बताया गया है कि आर्गेनिक उर्वरक 16% किसान ,रासायनिक उर्वरक 35% किसान और दोनों का इस्तेमाल 40% किसान करते हैं। 9% किसानों ने इस सन्दर्भ में कह नहीं सकते कहा अर्थात कुछ नहीं कहा। किसानों द्वारा कीटनाशकों के इस्तेमाल किये जाने की स्थिति के सम्बन्ध में सर्वेक्षण में कहा गया है कि नियमित रूप से 18% किसान ,कभी-कभार 28% किसान कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। 10% किसानों के लिए तो कीटनाशकों का इस्तेमाल दुर्लभ बताया गया है। इसी प्रकार जरूरी हुआ तो 30% किसान कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं और जरुरी नहीं हुआ तो नहीं तथा 13% किसान तो कभी भी कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं करते ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है की हरित क्रांति के सहारे खाद्यान्न उत्पादन में भले ही हम आत्मनिर्भर हो गए हों परन्तु इस कार्य से जुड़े लोग इसके बलबूते आज तक आत्मनिर्भर नहीं हो सके हैं और अधिकांश कृषक इसे घाटे का सौदा मानते हैं। यही कारण है की कृषक कृषि छोड़ किसी अन्य उद्यम को अपनाने पर विवश हैं। फसल की बुआई से लेकर कटाई तक भारतीय कृषक को भाग्य भरोसे ही रहना पड़ता है। फसल चक्र के दौरान अनेक समस्याएं मुंह बाए खड़ी रहती हैं। हाड़-तोड़ मेहनत करके अगर वह फसल को खेत में तैयार कर ले जाता है तो आखिरी समय पर प्राकृतिक आपदाएं उसकी उम्मीदों पर तुषारापात कर देती हैं। रही-सही कसर फसलोपज की भंडारण की समस्या और बाजार में बिचौलियों की मौजूदगी से औने-पौने मूल्य कर देते हैं।
ऐसे में ग्लोबल वार्मिंग या मौसम में लगातार हो रहे परिवर्तन के परिणामस्वरूप प्रकृति के बदलते स्वरुप के मध्य अब वैज्ञानिकों तथा कृषि विशेषज्ञों को प्रकृति पर आश्रित रहने वाली कृषि के स्वरूप में बदलते मौसम के अनुरूप परिवर्तन लाए जाने पर विचार-विमर्श करना चाहिए । ग्लोबल वार्मिंग से न सिर्फ भारतवर्ष वरन दक्षिण एशियाई देशों सहित लगभग सम्पूर्ण संसार बदलते मौसम के कारण होने वाले प्राकृतिक व पर्यावरण संबंधी परिवर्तनों का शिकार हो रहा है। कहीं रेगिस्तान में बाढ़ आने, गर्म प्रदेशों में बर्फबारी होने, मनुष्येतर जीव-जन्तुओं यथा, कुते, मैना आदि पशु-पक्षियों में भी असमय प्राकृतिक क्रियाएँ जैसे रतिक्रिया, प्रजनन होते दिखलाई देने आदि जैसे समाचार मिलने लगे हैं तो कहीं हरियाली वाले क्षेत्र बिना बारिश के सूखे का शिकार होते सुने जा रहे हैं। इसलिए समय की मांग है कि प्रकृति के बदलते स्वरुप के अनुरूप मनुष्य और कृषि व्यवसाय को भी शीघ्रातिशीघ्र और यथासम्भव ढालने की कोशिश की जाए और तदनुसार कृषि-प्रणाली अपनाई जाए।
लिंक-http://www.pravakta.com/from-agro-action-no-longer-profitable-deal-death-to-invite-not-less-than
अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता.कोम में दिनांक - १६ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख-लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं -अशोक "प्रवृद्ध"
लाभदायक सौदा नहीं रह जाने से कृषि-कार्य मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं- अशोक "प्रवृद्ध"
Posted On May 16, 2015 by &filed under आर्थिकी.
-अशोक “प्रवृद्ध”-
agricultureआदिकाल से ही भारतवर्ष के अधिकांश लोगों की आजीविका का साधन कृषि और कृषि से सम्बद्ध व्यवसाय रही है, और भारतवर्ष के कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि कृषि क्षेत्र में हमने बहुत उन्नति भी की है, परन्तु इस वर्ष मार्च , रील के महीने में हुई बेमौसम आंधी-तूफ़ान, बारिश और ओले ने खेतों में तैयार फसल को बर्बाद करके भारतीय कृषकों के लिए कृषि को जुआ मानने वाली कहावत को चरितार्थ करके रख दिया। वैसे तो प्रत्येक वर्ष देश के किसी न किसी भाग में आने वाली बाढ़ अथवा सूखे की स्थिति के कारण होने वाली क्षति का सामना करना भारतीय कृषकों की नियति रही है। विशेषकर लघु व सीमांत कृषक इस स्थिति से सदैव ही प्रभावित होते रहते हैं, परन्तु गत दिनों मार्च , अप्रैल के महीने में देश के पूर्वी और पश्चिमी देानों ही छोर से एक साथ नमी उठाई जाने के कारण बड़े पैमाने पर होने वाली असमय बेतहाशा बारिश व इसके साथ-साथ आने वाले आंधी-तूफान तथा ओलावृष्टि ने देश के कृषकों, विशेषकर उत्तर व मध्य भारत के किसानों की तो कमर ही तोड़ कर रख दी। खेतों में तैयार हो रही रवि की फसलें यथा, गेहूं, सरसों, अरहर , चना आदि के साथ ही मटर, टमाटर, आलू आदि सब्जी फसल और तम्बाकू,तिलहन और दलहन की फसलें नष्ट हो गईं। बारिश के साथ-साथ सक्रिय रही चक्रवाती हवाओं ने भी किसानों की आजीविका पर भारी कहर बरपा कर दिया। इसके कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों से कृषकों द्वारा आत्महत्या किए जाने, अपनी क्षतिग्रस्त फसल को देखकर हृदयगति रुक जाने से कृषकों की देहान्त हो जाने जैसी हृदयविदारक समाचार भी सुनाई देने लगे हैं। कुछ राज्यों की सरकारें ऐसे संकट के समय में कृषकों के सहायतार्थ आर्थिक पैकेज घोषित करती भी नज़र आईं। परन्तु यह भी सत्य है कि कृषकों के ऊपर टूटे इस प्राकृतिक प्रकोप के प्रभाव से आम नागरिक भी अछूता नहीं रहने वाला। आर्थिक और बाजार विशेषज्ञों के अनुसार शीघ्र ही दलहन,तिलहन और तत्काल रूप से विभिन्न सब्जि़यों की कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में आम देशवासियों को इस मौसम का भुगतान करना पड़ सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कृषि और विज्ञान के क्षेत्रों में लगतार हो रही प्रगति के बावजूद आज भी भारतीय कृषि व कृषक ईश्वर के सहारे ही अवलंबित हैं। यही कारण है कि 1950 में जीडीपी में कृषि का 51.9 प्रतिशत हिस्सा घटकर अब मात्र 13.7 प्रतिशत रह गया है। कभी देश की तीन चौथाई जनसंख्या को रोजगार मुहैय्या कराने वाला यह क्षेत्र अब मात्र 49 प्रतिशत जनसंख्या का ही आजीविका का साधन रह गया है। वर्तमान में कृषि कार्य में भी अधिक पूँजी लगने, मनरेगा के आने के पश्चात कृषि मजदूरी दर बढने और मजदूरों के द्वारा मजदूरी के बनिस्पत कार्य नहीं करने अर्थात कामचोर हो जाने , प्राकृतिक प्रकोप से फसलों के मारे जाने, सिंचाई के अपर्याप्त साधन, आधारभूत सुविधाओं की कमी, कृषि उत्पादों की बिक्री की खराब व्यवस्था और फिर बाजार से फसलोपज की उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण कृषि कार्य लाभदायक सौदा नहीं रह गया है।
ऐसे में कृषि और कृषक हित में सोचने वाले लोगों के मन में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि क्या देश में कृषि अर्थात खेती करना एक लाभदायक उद्यम या व्यवसाय रह गया है? और क्या सरकारी कृषि नीति कृषि उद्यम से जुड़ने के लिए लोगों को प्रेरित करती है? और आखिर क्या कारण है कि सम्पूर्ण देश का पेट भरने वाला किसान स्वयं भूख से मरता है अथवा आत्मह्त्या करता है ? उसके घर की छत टपकती है फिर भी वह बारिश का इन्तजार करता है ? एक आँकड़े के अनुसार प्रतिवर्ष हमारे देश मे सतर हजार किसान आत्महत्या कर रहे है लेकिन हमारे कृषि प्रधान देश मे ऐसा क्यों हो रहा है और इसका समाधान क्या है, इस बारे में गम्भीरता से सोचने के लिए कोई तैयार नहीं ? भारतवर्ष में कृषकों की आत्महत्या के इतिहास पर निगाह डाला जाए तो यह सपष्ट होता है कि गत सदी के नब्बे के दशक के अन्त में तथा सन 2000 के आस-पास कृषकों द्वारा आत्महत्या करने के मामले सामने आये । एक आंकड़े के अनुसार सन 1995 से 2011 तक के बीच लगभग तीन लाख कृषकों ने आत्महत्या की । वैसे तो कृषकों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति देश के अधिकांश भागों के कृषकों में पाई जा रही है परन्तु ये मामले मुख्यतः कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, तथा आंध्र प्रदेश से ही प्रतिवेदित किये गए हैं।देश मे कृषकों की आत्महत्या के पीछे का सबसे कारण यह है कि दिनानुदिन उनकी खेती का लागत अर्थात खर्च बढ़ता ही जा रहा है और आमदनी कम होती जा रही है जिससे किसान कर्जे मे डूब रहा है और आत्महत्या कर रहा है । खेती करने के लिए किसान अपने खेत में यूरिया, डाईअमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फोस्फेट आदि रसायानिक खाद और इंडोसल्फान ,मालाथियोन आदि कीटनाशक डाल रहा है । जो अधिकांशतया विदेशी कंपनियों से खरीदी जाती हैं और प्रतिवर्ष चार लाख अस्सी हजार करोड़ रुपये हमारे कृषकों से लूटकर विदेशी कम्पनियां ले जाती हैं। दूसरी ओर कृषकों को ऊन्नत प्रभेद के महंगे बीज प्रतिवर्ष खरीदने पड़ते हैं । रुपये के निरन्तर अवमूल्यन से भी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के दामों में वृद्धि होती है । देश में अधिकाँश किसान पिछ्ड़ी जातियों से हैं और छोटी जोत के मालिक हैं । संयुक्त परिवार के टूटने से तथा अन्य किसानों से आपसी लेन-देन ख़त्म होने से परिवार के मुखिया पर ही परिवार की सारी जिम्मेवारी होती है । इन परिस्तिथियों में कृषि-कार्य जैसे जोखिम भरे काम में हाथ डालना मौत को निमंत्रण देने से कम नहीं ।
कृषि के क्षेत्र में बहुत प्रगति करने की दावा हमारे कृषि वैज्ञानिक व सरकारें करती रहती हैं, परन्तु यह भी परम सत्य है कि आज भी देश के 95 प्रतिशत से अधिक कृषक अपने खेतों की औसत उर्वर क्षमता का आधा पौना उपज ही ले पाते हैं अर्थात भरपूर उपज नहीं ले पाते। ऐसी स्थिति में सबको अन्न उपलब्ध कराने वाले अन्नदाता कृषकों की बदतर स्थिति आज किसी से छिपी नहीं है। देश में आये दिन कृषकों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की खबरें भी इस बात की पुष्टि करती हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि दिन भर खेतों में हाड़-तोड़ परिश्रम करने वाले कृषकों और उनके परिजनों को रात को भूखे पेट सोने को मजबूर होना पड़ता है। सेंटर फॉर डेवलपिंग सोसायटीज के द्वारा की गई एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण भारतीय कृषकों की इस दुखद स्थिति की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है । दिसम्बर 2013 से जनवरी 2014 के बीच हुए इस सर्वेक्षण में देश के 137 जिलों के 274 गाँवों को शामिल किया गया है। सर्वेक्षण में देश के कृषक अर्थात किसानों की कठिन जिन्दगी और सामाजिक-आर्थिक स्थिति की वास्तविकता प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि देश के 36% किसान अपने परिवार के साथ या तो झोपड़ी में रहते हैं या फिर कच्चे-पक्के मकान में। 44% किसान परिवार के पास कच्चा-पक्का मकान अथवा दोनों मिला-जुला है। सिर्फ 18% के पास ही स्वतंत्र रूप से पक्का मकान है । देश के कृषकों में शिक्षा की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि देश के 28% किसान निरक्षर हैं। 14% दसवीं तक और केवल छह प्रतिशत के पास ही महाविद्यालय अर्थात कॉलेज की डिग्र्री है। सर्वेक्षण के अनुसार 32% किसान परिवार चलाने के लिए कृषि के अतिरिक्त कोई अन्य काम करते हैं। सर्वेक्षण में प्रत्येक दस में से एक किसान ने माना कि विगत एक वर्ष के दौरान कुछ मौकों पर उसके परिवार को भूखे पेट सोना पड़ा। भारतीय कृषकों के द्वारा उर्वरकों के इस्तेमाल के सम्बन्ध में सर्वेक्षण में बताया गया है कि आर्गेनिक उर्वरक 16% किसान ,रासायनिक उर्वरक 35% किसान और दोनों का इस्तेमाल 40% किसान करते हैं। 9% किसानों ने इस सन्दर्भ में कह नहीं सकते कहा अर्थात कुछ नहीं कहा। किसानों द्वारा कीटनाशकों के इस्तेमाल किये जाने की स्थिति के सम्बन्ध में सर्वेक्षण में कहा गया है कि नियमित रूप से 18% किसान ,कभी-कभार 28% किसान कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। 10% किसानों के लिए तो कीटनाशकों का इस्तेमाल दुर्लभ बताया गया है। इसी प्रकार जरूरी हुआ तो 30% किसान कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं और जरुरी नहीं हुआ तो नहीं तथा 13% किसान तो कभी भी कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं करते ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है की हरित क्रांति के सहारे खाद्यान्न उत्पादन में भले ही हम आत्मनिर्भर हो गए हों परन्तु इस कार्य से जुड़े लोग इसके बलबूते आज तक आत्मनिर्भर नहीं हो सके हैं और अधिकांश कृषक इसे घाटे का सौदा मानते हैं। यही कारण है की कृषक कृषि छोड़ किसी अन्य उद्यम को अपनाने पर विवश हैं। फसल की बुआई से लेकर कटाई तक भारतीय कृषक को भाग्य भरोसे ही रहना पड़ता है। फसल चक्र के दौरान अनेक समस्याएं मुंह बाए खड़ी रहती हैं। हाड़-तोड़ मेहनत करके अगर वह फसल को खेत में तैयार कर ले जाता है तो आखिरी समय पर प्राकृतिक आपदाएं उसकी उम्मीदों पर तुषारापात कर देती हैं। रही-सही कसर फसलोपज की भंडारण की समस्या और बाजार में बिचौलियों की मौजूदगी से औने-पौने मूल्य कर देते हैं।
ऐसे में ग्लोबल वार्मिंग या मौसम में लगातार हो रहे परिवर्तन के परिणामस्वरूप प्रकृति के बदलते स्वरुप के मध्य अब वैज्ञानिकों तथा कृषि विशेषज्ञों को प्रकृति पर आश्रित रहने वाली कृषि के स्वरूप में बदलते मौसम के अनुरूप परिवर्तन लाए जाने पर विचार-विमर्श करना चाहिए । ग्लोबल वार्मिंग से न सिर्फ भारतवर्ष वरन दक्षिण एशियाई देशों सहित लगभग सम्पूर्ण संसार बदलते मौसम के कारण होने वाले प्राकृतिक व पर्यावरण संबंधी परिवर्तनों का शिकार हो रहा है। कहीं रेगिस्तान में बाढ़ आने, गर्म प्रदेशों में बर्फबारी होने, मनुष्येतर जीव-जन्तुओं यथा, कुते, मैना आदि पशु-पक्षियों में भी असमय प्राकृतिक क्रियाएँ जैसे रतिक्रिया, प्रजनन होते दिखलाई देने आदि जैसे समाचार मिलने लगे हैं तो कहीं हरियाली वाले क्षेत्र बिना बारिश के सूखे का शिकार होते सुने जा रहे हैं। इसलिए समय की मांग है कि प्रकृति के बदलते स्वरुप के अनुरूप मनुष्य और कृषि व्यवसाय को भी शीघ्रातिशीघ्र और यथासम्भव ढालने की कोशिश की जाए और तदनुसार कृषि-प्रणाली अपनाई जाए।
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