पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा
अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता में दिनांक - २९ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख -पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा -अशोक "प्रवृद्ध"
पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा
Posted On May 29, 2015 by &filed under धर्म-अध्यात्म, विविधा.
-अशोक “प्रवृद्ध”-
मानव जीवन ही नहीं, वरन मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करने वाली भारतवर्ष की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नदी राष्ट्र-नदी गंगा देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, वरन जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। गंगा निरन्तर गतिशीला और श्रम का प्रतीक है। इसीलिए गंगा को जीवन तत्त्व और जीवन प्रदायिनी कहा गया है तथा माता मानकर देवी के समान गंगा भारतीय समाज के मानवीय चेतना में पूजी जाती है। भारतवर्ष की राष्ट्र-नदी गंगा जल ही नहीं, अपितु भारत और हिन्दी साहित्य की समस्त मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है।हिन्दुओं के बहुत से पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुये हैं जिनमें वाराणसी और हरिद्वार सर्वाधिक प्रमुख हैं। गंगा नदी को भारतवर्ष की पवित्र नदियों में सर्वाधिकाधिक पवित्र माना जाता है तथा यह मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाता है। मृत्युपरान्त लोग गंगा में अपनी राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक समझते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा भी रखते हैं। इसके घाटों पर लोग पूजा अर्चना करते हैं और ध्यान लगाते हैं। गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक माना जाता है। पंचामृत में भी गंगाजल को एक अमृत माना गया है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा सम्बन्ध है। विद्वानों का कथन है कि केवल राष्ट्र की एकता और अखण्डता पर्याप्त नहीं है, राष्ट्र का सम्पन्न होना भी आवश्यक है और यह तभी संभव है जब श्रम के महत्व को समझा जाये। गंगा अनवरत श्रमशीला बनी रहकर सभी को अथक, अविरल श्रम करने का संदेश देती है। गंगा को संस्कृत में गङ्गा कहा जाता है जो भारतवर्ष और बांग्लादेश में मिलाकर २,५१० किलोमीटर की दूरी तय करती हुई उत्तरांचल में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू भाग को सींचती है । २,०७१ किलोमीटर तक भारतवर्ष तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए गंगा सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट अर्थात ३१ मीटर की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ और देवी के रूप में की जाती है। गंगा की घाटी में एक ऐसी सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली रहा है। जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारतवर्ष वरन समस्त संसार आलोकित हुआ। प्राचीन सभ्यता –संस्कृति का जन्म और विकास यहाँ होने के अनेक साक्ष्य मिले हैं। इसी घाटी में रामायण और महाभारत कालीन युग का उद्भव और विलय हुआ। शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण, गौपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, कौशितकी आरण्यक, सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता और महाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से गंगा और गंगा घाटी की भारतीय सभ्यता-संस्कृति में महता, उपयोगिता और प्रवृद्धता की महती जानकारी मिलती है। प्राचीन मगध महाजनपद का उद्भव गंगा घाटी में ही हुआ जहाँ से गणराज्यों की परम्परा विश्व में पहली बार प्रारम्भ हुई। यहीं पर भारतवर्ष का वह स्वर्ण युग विकसित हुआ जब मौर्य और गुप्त वंशीय राजाओं ने यहाँ शासन किया। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौंदर्य और महत्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किए गए हैं।
गंगा मनुष्य मात्र में कोई भेद नहीं करती इसीलिए गंगा के महत्व को आर्य-अनार्य, वैष्णव-शैव, साहित्यकार-वैज्ञानिक सबों ने स्वीकार किया है। गंगा सब मनुष्य को एक सूत्र में पिरोती है और एक संसार के समस्त लोगों को एक सूत्र में बाँधे रखने का संकल्प प्रदान करती है। भारतीय पुरातन ग्रन्थ इस सत्य का सत्यापन करते हैं कि गंगा सिर्फ भारतवर्ष की भूमि ही नहीं अपितु आकाश, पाताल और इस पृथ्वी को मिलाती है और मन्दाकिनी, भोगावती और और भागीरथी की संज्ञा को सुशोभित करती है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में गंगा की अत्यधिक महता होने के कारण ही ऋग्वेद, महभारत और रामायण तथा अनेक पुराणों में पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। पुरातन ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है की ऋग्वैदिक काल में आर्य सप्त सिन्धु क्षेत्र में निवास करते थे। यह क्षेत्र वर्तमान में पंजाब एवं हरियाणा के कुछ भागों में पड़ता है। ऋग्वेद में चालीस नदियों तथा हिमालय (हिमवंत) त्रिकोता पर्वत, मूंजवत (हिंदु-कुश पर्वत) का उल्लेख हुआ है। आदिग्रंथ ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से गंगा नदी का उल्लेख एक बार और यमुना का तीन बार हुआ है। प्राचीनतम् और पवित्रतम् ऋगवेद में गंगा का उल्लेख ऋग्वेद के नदी सूक्त जिसे नादिस्तुति भी कहते हैं,में हुआ है। ॠग्वेद १०/७५ में पूर्व से पश्चिम को प्रवाहित होने वाली नदियों का वर्णन अंकित है, ज्सिमे स्पष्ट रूप से गंगा का उल्लेख हुआ है। ऋगवेद ६/४५/३१ में भी गंगा का उल्लेख तो मिलता है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह गंगा नदी के सन्दर्भ में यह उल्लेख है। ऋगवेद ३.५८.६ कहता है कि, हे वीरो तुम्हारा प्राचीन गृह, तुम्हारी भाग्याशाली मित्रता, तुम्हारी सम्पत्ति जावी के तट पर है। विद्वानों के अनुसार यह श्लोक कदाचित गंगा के ही संदर्भ में हो सकता है। ऋगवेद १/११६/१८-१९ में के साथ ही दो अन्य श्लोक में भी जाह्नवी और गंगोत्री डालफिन का उल्लेख मिलता है।
आदि काल में विशेषकर ऋग्वेद के अनुसार सिन्धु और सरस्वती प्रमुख नदियां थी, गंगा नही। किन्तु बाद के काल में जैसा कि ऋग्वेद को छोड़ शेष तीन वेदों यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में गंगा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है और कई सन्दर्भों में इसकी आवश्यकता को दर्शाया गया है। हिन्दू पुराणों के अनुसार देवी गंगा का अस्तित्व केवल स्वर्ग में ही माना गया है। तब भगीरथ ने गंगा की कठोर तपस्या करके उसे पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की । इसी कारण गंगा को भगीरथी भी कहा जाता है। महाभारत में भी इसी कथा का उल्लेख है। एक और तथ्य की बात यह है कि महाभारत में गंगा एक प्रमुख मानव चरित्र है जहाँ वह भीष्म की माँ है। गंगा नदी की प्रधान शाखा भागीरथी है जो कुमायूँ में हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है। गंगा के इस उद्गम स्थल की ऊँचाई ३१४० मीटर है। यहाँ गंगा को समर्पित एक मंदिर भी है। गंगोत्री तीर्थ, शहर से १९ किलोमीटर उत्तर की ओर ३८९२ मित्र अर्थात १२,७७० फीट की ऊँचाई पर इस हिमनद का मुख है। यह हिमनद २५ किलोमीटर लंबा व ४ किलोमीटर चौड़ा और लगभग ४० मीटर ऊँचा है। इसी ग्लेशियर से भागीरथी एक छोटे से गुफानुमा मुख पर अवतरित होती है।
ज्येष्ठ महीने में शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन गंगा का स्वर्ग से धरती पर अवतरण हुआ था। इस पवित्र तिथि पर गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। संसार की सबसे पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने का पर्व है- गंगा दशहरा। परोपकार का संदेश देता ऋतु परिवर्तन का संदेशवाहक पर्व गंगा का पृथ्वी पर अवतरण दिवस अर्थात गंगा दशहरा इस बार अठाईस मई को मनाया जाएगा। मनुष्यों को मुक्ति देने वाली गंगा नदी अतुलनीय हैं। संपूर्ण विश्व में इसे सबसे पवित्र नदी माना जाता है। राजा भगीरथ ने इसके लिए वर्षो तक तपस्या की थी। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा धरती पर आई। इससे न केवल सूखा और निर्जीव क्षेत्र उर्वर बन गया, बल्कि चारों ओर हरियाली भी छा गई थी। गंगा-दशहरा पर्व मनाने की परम्परा इसी समय से प्रारम्भ हुई थी। राजा भगीरथ की गंगा को पृथ्वी पर लाने की कोशिशों के कारण इस नदी का एक नाम भगीरथी भी है। पौराणिक मान्यतानुसार हिन्दू जीवन मीमांसा में जीवन में एक बार भी गंगा में स्नान न कर पाना जीवन की अपूर्णता का द्योतक है। भविष्य पुराण, वराह पुराण ,स्कन्द पुराण आदि पुरातन ग्रन्थों में गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान करना अत्यंत शुभ, पावनकारी व पुण्यदायी माना गया है ।
लिंक- http://www.pravakta.com/painlessly-sin-rashtrandi-saritshreshtha-nissan-salvation-pruned-bhagwati-bhagirthi-ganga
अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता में दिनांक - २९ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख -पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा -अशोक "प्रवृद्ध"
पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा , राष्ट्रनदी भगवती भगीरथी गंगा
Posted On May 29, 2015 by &filed under धर्म-अध्यात्म, विविधा.
-अशोक “प्रवृद्ध”-
मानव जीवन ही नहीं, वरन मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करने वाली भारतवर्ष की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नदी राष्ट्र-नदी गंगा देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, वरन जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। गंगा निरन्तर गतिशीला और श्रम का प्रतीक है। इसीलिए गंगा को जीवन तत्त्व और जीवन प्रदायिनी कहा गया है तथा माता मानकर देवी के समान गंगा भारतीय समाज के मानवीय चेतना में पूजी जाती है। भारतवर्ष की राष्ट्र-नदी गंगा जल ही नहीं, अपितु भारत और हिन्दी साहित्य की समस्त मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्यसलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है।हिन्दुओं के बहुत से पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुये हैं जिनमें वाराणसी और हरिद्वार सर्वाधिक प्रमुख हैं। गंगा नदी को भारतवर्ष की पवित्र नदियों में सर्वाधिकाधिक पवित्र माना जाता है तथा यह मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाता है। मृत्युपरान्त लोग गंगा में अपनी राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक समझते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा भी रखते हैं। इसके घाटों पर लोग पूजा अर्चना करते हैं और ध्यान लगाते हैं। गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक माना जाता है। पंचामृत में भी गंगाजल को एक अमृत माना गया है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा सम्बन्ध है। विद्वानों का कथन है कि केवल राष्ट्र की एकता और अखण्डता पर्याप्त नहीं है, राष्ट्र का सम्पन्न होना भी आवश्यक है और यह तभी संभव है जब श्रम के महत्व को समझा जाये। गंगा अनवरत श्रमशीला बनी रहकर सभी को अथक, अविरल श्रम करने का संदेश देती है। गंगा को संस्कृत में गङ्गा कहा जाता है जो भारतवर्ष और बांग्लादेश में मिलाकर २,५१० किलोमीटर की दूरी तय करती हुई उत्तरांचल में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू भाग को सींचती है । २,०७१ किलोमीटर तक भारतवर्ष तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए गंगा सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट अर्थात ३१ मीटर की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ और देवी के रूप में की जाती है। गंगा की घाटी में एक ऐसी सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली रहा है। जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारतवर्ष वरन समस्त संसार आलोकित हुआ। प्राचीन सभ्यता –संस्कृति का जन्म और विकास यहाँ होने के अनेक साक्ष्य मिले हैं। इसी घाटी में रामायण और महाभारत कालीन युग का उद्भव और विलय हुआ। शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण, गौपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, कौशितकी आरण्यक, सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता और महाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से गंगा और गंगा घाटी की भारतीय सभ्यता-संस्कृति में महता, उपयोगिता और प्रवृद्धता की महती जानकारी मिलती है। प्राचीन मगध महाजनपद का उद्भव गंगा घाटी में ही हुआ जहाँ से गणराज्यों की परम्परा विश्व में पहली बार प्रारम्भ हुई। यहीं पर भारतवर्ष का वह स्वर्ण युग विकसित हुआ जब मौर्य और गुप्त वंशीय राजाओं ने यहाँ शासन किया। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौंदर्य और महत्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किए गए हैं।
गंगा मनुष्य मात्र में कोई भेद नहीं करती इसीलिए गंगा के महत्व को आर्य-अनार्य, वैष्णव-शैव, साहित्यकार-वैज्ञानिक सबों ने स्वीकार किया है। गंगा सब मनुष्य को एक सूत्र में पिरोती है और एक संसार के समस्त लोगों को एक सूत्र में बाँधे रखने का संकल्प प्रदान करती है। भारतीय पुरातन ग्रन्थ इस सत्य का सत्यापन करते हैं कि गंगा सिर्फ भारतवर्ष की भूमि ही नहीं अपितु आकाश, पाताल और इस पृथ्वी को मिलाती है और मन्दाकिनी, भोगावती और और भागीरथी की संज्ञा को सुशोभित करती है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में गंगा की अत्यधिक महता होने के कारण ही ऋग्वेद, महभारत और रामायण तथा अनेक पुराणों में पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। पुरातन ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है की ऋग्वैदिक काल में आर्य सप्त सिन्धु क्षेत्र में निवास करते थे। यह क्षेत्र वर्तमान में पंजाब एवं हरियाणा के कुछ भागों में पड़ता है। ऋग्वेद में चालीस नदियों तथा हिमालय (हिमवंत) त्रिकोता पर्वत, मूंजवत (हिंदु-कुश पर्वत) का उल्लेख हुआ है। आदिग्रंथ ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से गंगा नदी का उल्लेख एक बार और यमुना का तीन बार हुआ है। प्राचीनतम् और पवित्रतम् ऋगवेद में गंगा का उल्लेख ऋग्वेद के नदी सूक्त जिसे नादिस्तुति भी कहते हैं,में हुआ है। ॠग्वेद १०/७५ में पूर्व से पश्चिम को प्रवाहित होने वाली नदियों का वर्णन अंकित है, ज्सिमे स्पष्ट रूप से गंगा का उल्लेख हुआ है। ऋगवेद ६/४५/३१ में भी गंगा का उल्लेख तो मिलता है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह गंगा नदी के सन्दर्भ में यह उल्लेख है। ऋगवेद ३.५८.६ कहता है कि, हे वीरो तुम्हारा प्राचीन गृह, तुम्हारी भाग्याशाली मित्रता, तुम्हारी सम्पत्ति जावी के तट पर है। विद्वानों के अनुसार यह श्लोक कदाचित गंगा के ही संदर्भ में हो सकता है। ऋगवेद १/११६/१८-१९ में के साथ ही दो अन्य श्लोक में भी जाह्नवी और गंगोत्री डालफिन का उल्लेख मिलता है।
आदि काल में विशेषकर ऋग्वेद के अनुसार सिन्धु और सरस्वती प्रमुख नदियां थी, गंगा नही। किन्तु बाद के काल में जैसा कि ऋग्वेद को छोड़ शेष तीन वेदों यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में गंगा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है और कई सन्दर्भों में इसकी आवश्यकता को दर्शाया गया है। हिन्दू पुराणों के अनुसार देवी गंगा का अस्तित्व केवल स्वर्ग में ही माना गया है। तब भगीरथ ने गंगा की कठोर तपस्या करके उसे पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की । इसी कारण गंगा को भगीरथी भी कहा जाता है। महाभारत में भी इसी कथा का उल्लेख है। एक और तथ्य की बात यह है कि महाभारत में गंगा एक प्रमुख मानव चरित्र है जहाँ वह भीष्म की माँ है। गंगा नदी की प्रधान शाखा भागीरथी है जो कुमायूँ में हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है। गंगा के इस उद्गम स्थल की ऊँचाई ३१४० मीटर है। यहाँ गंगा को समर्पित एक मंदिर भी है। गंगोत्री तीर्थ, शहर से १९ किलोमीटर उत्तर की ओर ३८९२ मित्र अर्थात १२,७७० फीट की ऊँचाई पर इस हिमनद का मुख है। यह हिमनद २५ किलोमीटर लंबा व ४ किलोमीटर चौड़ा और लगभग ४० मीटर ऊँचा है। इसी ग्लेशियर से भागीरथी एक छोटे से गुफानुमा मुख पर अवतरित होती है।
ज्येष्ठ महीने में शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन गंगा का स्वर्ग से धरती पर अवतरण हुआ था। इस पवित्र तिथि पर गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। संसार की सबसे पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने का पर्व है- गंगा दशहरा। परोपकार का संदेश देता ऋतु परिवर्तन का संदेशवाहक पर्व गंगा का पृथ्वी पर अवतरण दिवस अर्थात गंगा दशहरा इस बार अठाईस मई को मनाया जाएगा। मनुष्यों को मुक्ति देने वाली गंगा नदी अतुलनीय हैं। संपूर्ण विश्व में इसे सबसे पवित्र नदी माना जाता है। राजा भगीरथ ने इसके लिए वर्षो तक तपस्या की थी। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा धरती पर आई। इससे न केवल सूखा और निर्जीव क्षेत्र उर्वर बन गया, बल्कि चारों ओर हरियाली भी छा गई थी। गंगा-दशहरा पर्व मनाने की परम्परा इसी समय से प्रारम्भ हुई थी। राजा भगीरथ की गंगा को पृथ्वी पर लाने की कोशिशों के कारण इस नदी का एक नाम भगीरथी भी है। पौराणिक मान्यतानुसार हिन्दू जीवन मीमांसा में जीवन में एक बार भी गंगा में स्नान न कर पाना जीवन की अपूर्णता का द्योतक है। भविष्य पुराण, वराह पुराण ,स्कन्द पुराण आदि पुरातन ग्रन्थों में गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान करना अत्यंत शुभ, पावनकारी व पुण्यदायी माना गया है ।
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