राँची , झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर मेदिनांक - १४ / ०१ / २०१५ को प्रकाशित आलेख -वसुधैव कुतुम्बकम का पाठ पढ़ाता नागफेनी के मकरध्वज भगवान की रथयात्रा
वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढाता नागफेनी के मकरध्वज भगवान की रथयात्रा
- अशोक “प्रवृद्ध”
भारतीय संस्कृति की अति प्राचीन उदार-उज्जवल परम्परा में अखिल विश्व को अपना परिवार मानने की सूक्ति “वसुधैव कुटुम्बकम” को चरितार्थ करने वाला दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नागफेनी की मकरध्वज भगवान की रथयात्रा सहस्त्रों लोगों के प्रगाढ़ महामिलन का एक अति विशिष्ट उदाहरण हैlप्रत्तिवर्ष मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर चौदह जनवरी को बड़े ही धूम-धाम के साथ आयोजित होने वाली रथयात्रा के समय उमड़ता जनशैलाब दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ जलप्रपात,जिसे स्थानीय लोग घाघ कहते हैं, में स्नान कर भगवान जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर की पवित्रतम छाया में बगैर किसी भेद-भाव के आपस में मिल-जुलकर दही-चुरा एवं तिल के लड्डू का क्रय कर प्रसाद (परसाद) के ग्रहण करता हैlमकर संक्रान्ति के अतिरिक्त भी प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को भगवान जगन्नाथ की चलती रथयात्र तथा उसके नवें दिन आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी को जगन्नाथ की घुरती अर्थात वापसी रथयात्रा नागफेनी के दक्षिण कोयल नदी के तट पर आयोजित की जाती हैl
मन्दिर की ऐतिहासिकता
झारखण्ड प्रान्त के गुमला जिला मुख्यालय से अठारह किलोमीर उत्तर-पूर्व के कोण पर सिसई प्रखण्डान्तर्गत मुरगु ग्राम-पञ्चायत के नागफेनी गाँव में दक्षिणी कोयल नदी के तट पर बाँस-झुण्ड के मध्य भगवान श्री जगन्नाथ महाप्रभु के भव्य ऐतिहासिक मन्दिर का निर्माण रातूगढ़ के महाराजा श्री रघुनाथ शाह ने विक्रम सम्वत १७६१ में करवाया थाlरघुनाथ शाह विक्रम सम्वत १७३१ से १७६७ तक लगभग ३६ वर्षों तक रातूगढ़ के महाराजा थेlरघुनाथ शाह छोटानागपुर के राजपरिवार नागवंशी महाराजाओं की परम्परा में ४९वें महराजा थेl
प्रकृति के इस रमणीय छोटे-छोटे शिलाखण्डों के मध्य बहती दक्षिणी कोयल नदी के तट एवं पहाड़ी के नीचे बसे समसार आदिवासी बहुल इलाके में पतित पावन शक्ति,भक्ति,श्रद्धा एवं असीम अनुकम्पा के प्रतीक भगवन जगन्नाथ महाप्रभु का यह मन्दिर सचमुच ही भारतवर्ष की अतिप्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर है,लेकिन अत्यन्त क्षोभनीय बात है कि छोटानागपुर के राजवंश नागवंशी महाराजाओं के द्वारा धन्य-धान्य हेतु हजारों एकड़ जमींन, जायदाद, बाग-बगीचादि चल-अचल सम्पति और सोना-चांदी आदि कीमती धातुओं के भूषण जेवरातादि के माध्यम से वित्तपोषित इस मन्दिर के पुजाई व कर्ता-धर्ताओं द्वारा सरकारी लाभ की प्राप्ति की प्रत्याशा मे,जो आपसी सामंजस्य के कारण अन्ततः नहीं मिल सकी,मन्दिर की उचित देख्भाल्के अव्भाव में मन्दिर-प्राँगनके कुछ भाग टूटने के कगार पर पहुँच चुके हैं और कुछ भाग नवनिर्माण के नाम पर किये गये मरम्मतादि कार्यों से मन्दिर की पुरातनता और वास्तविकता नष्ट हो गयी हैl
दक्षिणी कोयल नदी के तट पर चास-तालचर को जोड़ने वाली राष्ट्रीय उच्च पथ संख्या २३ अब १३४ पर अवस्थित नागफेनी के जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर-निर्माण से सम्बंधित पौराणिक कथा के बैव में मन्दिर के वर्तमान सेवक एवं पुजारी श्री मनोहर पण्डा बतलाते हैं कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन भगवान श्रीकृष्ण एवं उनके अग्रज बलभद्र अपनी परम प्यारी बहन सुभद्रा को अपने रथ बिठाकर व्याहने हेतु ले जा रहे थे,तब इस अति मनोहर दृश्य को देखकर सुभद्रा ने भगवान श्रीकृष्ण को कहा कि आप राधा,रुक्मिणी एवं लक्ष्मी के साथ भिन्न-भिन्न रूपों में विभिन्न तीर्थों में प्रतिष्ठित-पूजित हैं,मगर भाई-बहन के पवित्रतम प्रेम का भी एक तीर्थ होना चाहियेlइस बात को सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा,कलियुग में मेरा जगन्नाथ रूप होगा तथा जगन्नाथपुरी में हम बहन-भाइयों के अमर प्रेम के रूप में प्रतिष्ठित होंगे तथा इसी भक्ति-भाव से तीनों बहन-भाइयों की एक साथ पूजा-अर्चना होगीlवर्तमान में उडीसा के जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ मन्दिर में जगन्नाथ रूप में श्रीकृष्ण,बलराम और सुभद्रा की भव्य काष्ठ-मूर्ति प्रतिष्ठित है,जिसकी नित्यप्रति और आषाढ़ मास में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है और आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से एकादशी तक रथयात्रा निकाली व उत्सव मनाई जाती हैlश्रीपण्डा आगे बतलाते हैं-विक्रम सम्वत के अनुसार जब कुछ् वर्षों पर मलमास के रूप में दो आषाढ़ एक ही वर्ष में पड़ते हैं तब जगन्नाथपुरी के मन्दिर की मूर्ति को बदला जाता हैlइसी क्रम में परिवर्तित जगन्नाथ की मूर्ति को लाकर रघुनाथ शाह महाराजा ने नागफेनी स्थित जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर में प्रतिष्ठित किया था तथा उड़ीसा से ही पण्डों को लाकर मन्दिर के पुजारी के रूप में नियुक्त किया था एवं पुजारी व उसके परिजनों के जीवन-यापन हेतु जमीन-जायदाद प्रदान की थीlगौर की बात है कि आज भी पुजारी एव्म्गँव के अन्य परिवार के लोग आपसी वार्तालाप में ओड़िया भाषा का ही प्रयोग करते हैंl
प्रारम्भिक आवास के प्रतीक
भारी वाहनों के द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली मुम्बई-कोलकाता मार्ग सह राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या २३ अब १३४ पर अवस्थित मुरगु मोड़ नागफेनी के होटल के मालिक जो कि इसी क्षेत्र के निवासी हैं, के अनुसार भगवान जगन्नाथ के नागफेनी पहुँचने पर प्रारम्भिक दिनों में ठहरने के स्थान पर ही आज मौसी बाड़ी (उड़ीसा स्थित जगन्नाथपुरी मेंजिसे गुण्डिचा गढ़ी कहा जाता है) अवस्थित हैlमौसी बारी के सामने चिकने पत्थर रुपी अवशेष आज भी यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैंlइन पत्थरों को भगवान जगन्नाथ के यहाँ आने के पश्चात प्रारम्भिक दिनों के अवशेष जानकर यहाँ के स्थानीय निवासी आज भी विशेष आदर भाव की नजरों से देखते हैंlवर्तमान में साप्ताहिक हाट के दिनों में मौसी बाड़ी के समक्ष शराब तथा हड़िया (चावल से बनी एक प्रकार की शराब) की बिक्री भी की जाने लगी है,लेकिन मद्यपान हेतु इन चिकने पत्थरों पर बैठने वाले ग्राहकों को पत्थरों पर बैठने से मना किया जाता हैlकारण पूछे जाने पर स्थानीय लोग व मन्दिर के सेवाक्व पुजारी वही आस्था दुहराते हैंl
आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन श्री जगन्नाथ महाप्रभु की रथयात्रा काष्ठ निर्मित रथ पर बायीं ओर भगवान जगन्नाथ,मध्य में बहन सुभद्रा एवं दायीं ओर बलभद्र स्वामीजी की मूर्तियाँ रखकर करीब एक किलोमीटर के अन्तराल पर अवस्थित मौसी बाड़ी तक बड़ी ही धूमधाम व समारोहपूर्वक लायी जाती हैlइस रथयात्रा को जगन्नाथ की चलती रथयात्रा के नाम से जाना जाता हैlमौसी बाड़ी में भगवान जगन्नाथ आठ दिनों तक निवास करते हैंlनवें दिन आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को रथ पर आरूढ़ हो वापस अपने मूलमन्दिर लौट आते हैंlइस वापसी रथयात्रा को जगन्नाथ की घुरती रथयात्रा कहा जाता हैlइन दिनों में भगवान के दर्शन का अति महत्व होने के कारण स्थानीय लोग बहुत बड़ी संख्या में मेले में दर्शन के लिये आते हैंlमेले से पूर्व ही ज्येष्ठ मॉस की पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ को स्नान कराकर नवीन वस्त्र धारण कराने की परिपाटी है, जिसे स्थानीय लोग स्नान जतरा के नाम से जानते हैंlज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन रात्रि में एक मेले का आयोजन किया जाता है,जिसमें आदिवासी युवक-युवतियाँ अपने खोढ़ों (समूहों) के साथ अपना-अपना झण्डा लिये नृत्य-गान करते हैंlमेले की समाप्ति पर सभी खोढ़ों को एक-एक झण्डा उपहार के रूप में दिया जाता हैlज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ के स्नानादि कार्यक्रम की समाप्ति के साथ ही स्थानीय लोग चलती रथयात्रा की बेसब्री से इन्तजार करने लगते हैंl
प्रतिवर्ष आषाढ़ मास में लगने वाली इन रथयात्राओं के अतिरिक्त मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर १४ जनवरी को प्रतिवर्ष एक दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता हैlमकर संक्रान्ति के अवसर पर १४ जनवरी को भी नागफेनी स्थित भगवान जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर से भगवान बलभद्र अर्थात मकरध्वज की सवारी रथयात्रा के रूप में निकली जाती हैlयह रथयात्रा मूलमन्दिर से मौसी बाड़ी तक चलती हैlभगवान का मौसी बड़ी में समुचित सेवा-सत्कार किया जाता है तथा उसी दिन सन्ध्या काल मौसी बाड़ी से बलभद्र की सवारी वापस अपने मूलमन्दिर लौटती हैl मकर संक्रान्ति के अवसर चौदह जनवरी आयोजित होने नागफेनी के माघ मेला के प्रारंभ होने की पौराणिक कथा बतलाते हुए मन्दिर के पुजारी सह सेवक मनोहर पण्डा कहते हैं,उड़ीसा प्रदेश के तालचेर ढेंकानाल नामक स्थान में एक गरीब ब्राह्मण अपनी दो पत्नियोंके साथ रहता थाlदो पत्नियों का स्वामी होने के बावजूद उसका एक भी सन्तान नहीं थाlदोनों पत्नियों की परस्पर सहमति के पश्चात उसने तीसरी शादी कीlतीसरी पेनी से उसे सात पुत्रों की प्राप्ति हुयीlवह गरीब ब्राह्मण बलभद्र स्वामी का परम भक्त थाlपुत्रों के बड़े होने पर दो छोटे पुत्रों को छोड़ सभी पुत्रों का व्याह कर दिया,परन्तु काल के क्र्रूर पंजों ने उसके सातों पुत्रों तथा निःसंतान पत्नियों को छीन लियाlभगवान बलभद्र की नित्य पूजा-अर्चना करने के पश्चात ही अन्न-जल ग्रहण करने वाले उस गरीब ब्राह्मण ने अपने परिवार की ऐसी दुर्गात्ति होते देख क्रोधित हो बलभद्र की मूर्ति को गाँव के निकट बहने वाली एक नदी में प्रवाहित कर दियाlबलभद्र की वह मूर्ति इसके-उसके हाथों में होती हुयी दक्षिणी कोयल नदी के नागफेनी ग्राम के समीप स्थित अम्बाघाघ नामक जलप्रपात में बाढ़ के जल के साथ आकार अटक गयीlनागफेनी के जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर के तत्कालीन सेवक एवं पुजारी कृपासिन्धु पण्डा को इस पिछली सदी के प्रारम्भिक वर्षों में एक रात रात्रिकाल में सपना दिखलायी दियाlस्वप्न में बलभद्र स्वामी ने पुजारी कृपासिन्धु पण्डा को बतलाया कि दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ नामक स्थान में बाढ़ के जल के साथ बहता हुआ आकार मैं अटक गया हूँlमूर्ति को दक्षिणी कोयल नदी से निकालकर भगवान जगन्नाथ स्वामी के मन्दिर में विधिपूर्वक स्थापित करो तथा प्रतिदिन मेरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करते हुए मकर-संक्रान्ति के शुभ अवसर पर,जब सूर्य उत्तरायण होते हैं,तब एक भव्य मेले का आयोजन करने कीई व्यवस्था करो,तुम्हारे एवं समस्त ग्रामवासी का कल्याण होगाlपहचान के रूप में नदी तट पर घाघ में ग्रामदेवता नाग मेरी मूर्ति की रक्षा में तत्पर हैंlप्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त्त होते ही कृपासिन्धु पण्डा ने ग्रामवासियों के सहयोग से मूर्ति को निकालकर मन्दिर में विधिवत स्थापित कर दियाlनित्यप्रति सेवा,पूजा-अर्चना करते हुए मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर मेले का भी आयोजन पण्डा के द्वारा किया गयाlमकर संक्रांति के पावन अवसर पर भगवान के आदेशानुसार मेले का आयोजन होने के कारण पुजारी कृपासिन्धु पण्डा ने भगवान को मकरध्वज नामकरण कियाl तब से ही मकरध्वज भगवान की नित्यप्रति सेवा करते हुए मकर संक्रान्ति के अवसर पर दक्षिणी कोयल नदी तट पर मकरध्वज भगवान की रथयात्रा निकाली जाती हैl
मकर संक्रान्ति के अवसर पर समस्त भारतवर्ष के हिन्दू समाज में नदी-स्नान की अतिपावनकारी पुरातन परम्परा होने के कारण १४ जनवरी को दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नागफेनी की रथयात्रा का विशेष महत्व हैlइस मेले का आयोजन १४ जनवरी को निश्चितरूपेण किया जाता है,भले ही पूस अथवा मार्गशीर्ष अर्थात माघ का महीना हो,स्थानीय लोग इसे माघ मेले के नाम से जानते हैंlहाल के वर्षों में सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करने का समय बढकर १५ जनवरी को होने का ज्योतिषीय निर्णय घोषित किये जाने बावजूद नागफेनी रथयात्रा १४ जनवरी को ही आयोजित किये जाने की परम्परा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा हैl
नागफेनी के ग्रामदेवता के रूप में एक नाग का अवशेष गाँव के समीप अवस्थित एक पहाड़ी के नीचे तीन टुकड़ों के रूप में आज भी विद्यमान है जिसे लोग नागवंशियों का पूर्वज अथवा पूर्वजों का प्रत्तीक मानते हैंlपत्थर के तीन टुकड़ों को गौर करने पर नाग के समस्त शरीर का खाका मानस पटल पर बनता हैlस्थानीय मुरगु निवासी रामकुमार साहु,जो स्थानीय दर्शनीय स्थलों के मर्मज्ञ हैं,के अनुसार पहले यह पत्थर का नाग सम्पूर्ण रूप में विद्यमान थाlपत्थर के नाग के तीन टुकड़ों में विभक्त होने की कहानी बतलाते हुए श्री रामुमार साहु कहते हैं,सन १९४४ में जब भारतीय स्वाधीनता संग्राम जोरों पर था,आस-पास की उराँव जनजाति के टाना भगतों के एक बड़े हुजूम ने,यहाँ पर जो अंग्रेजों के कारिन्दे पहाड़ी में रहते थे,को मार भगाने के उद्देश्य से हथियारों से लैस होकर पहुँचाlघँटा-ध्वनि के साथ ही यह नारा चहुँओर गूँज रहा था –
टाना भगत टाना ,
भूतानि के ताना ,
बाभन के काटा पूजा ,
देवता के पासा - कूचा ,
काँसा पीतल माना ,
ढकनी में खाना ,
टाना भगत टाना l
अंग्रेजों को हराने क्रम में टाना भगतों के हुजूम में पहाड़ी पर अवस्थित पत्थर रुपी नाग को दो स्थानों पर लोहे के हथियारों से माराlभले ही टाना भगतों का अंग्रेजों को डराने का उद्देश्य पूरा न हुआ हो,लेकिन नाग रुपी पत्थर के तीन टुकड़े आज भी विद्यमान हैंlबाद में टाना भगतों के हुजूम ने जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर पर भी हमला कर दिया,लेकिन स्थानीय भक्तों के अनथक प्रयास से मन्दिर को किसी प्रकार की क्षति पहुँचने से बचा लिया गयाl पत्थर रुपी नाग के अवशेष में से एक तिकडे को नाग के फुफकार मारकर फेन उठाते हुए तथा अन्य दो टुकड़ों को आज भी पहाड़ी के नीचे देखा सकता हैlपहाड़ी के ऊपर-नीचे,आस-पास बहुत से दर्शनीय स्थल हैंlपहाड़ी में बहुत पुराने जमाने के मकानोंके ध्वंशावशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैंlस्थानीय कथाओं के आधार पर पूर्वमें यहाँ किसी राजा का गढ़ भी था जिसके अवशेष पहाड़ी पर आज भी विद्यमान हैं lपहाड़ी में ही एक स्थान पर गुफा का द्वार है,जो पहाड़ी के अंदर बहुत दूर तक चला गया हैlगुफा का द्वार काफी समय से प्रयोग में नहीं आने के कारण बन्द सा हो गया है,जिसे सिर्फ पुराने जानकार लोग ही जानते हैं,जो कि अब कम ही बचे हैंlनागफेनी और आस-पास के बुजुर्ग जानकार व्यक्तियों ने बतलाया- इस गुफा में बड़े भयंकर नाग,अजगर एवं अन्यान्य विषैले सर्पों का निवास हैlवर्षों पूर्व एक बार स्थानीय ग्रामीण इस गुफा के अंदर प्रवेश किये थेlअपने साथ हथियार,मशलादी लेकर गुफा के अंदर गये थेlउन्होंने बाहर आकार बतलाया था कि गुफा के अंदर कई हजार मनुष्य एक साथ जा सकते हैंlइसके अंदर दूर तक चौड़ा लेकिन गहन अन्धकार हैlइसके चारों तरफ सर्पों के मल त्याग के बड़े-बड़े ढेर पड़े हुए हैंl
अष्टकमलनाथ बाबा सती महादेव
पहाड़ी के नीचे दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नीम के पेड़ के नीचे बाबा अष्टकमलनाथ सती-महादेव की मूर्ति (लिंग) हैlलंग की यह विशेषता है कि यह अष्टकमल डाल फूल के ऊपर बना हुआ हैlनीम के पेड़ के नीचे खुले आकाश में सती महादेव की मूर्ति वर्षों से पूजी जाती रही है, परन्तु अब श्रद्धालुओं के सहयोग से इसे मन्दिर का रूप दिया जा रहा हैlखुले आकाश के नीचे अवस्थित सती महादेव को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व मवं इस स्थान पर भी मन्दिर था,लेकिन वख्त के थपेडों ने मन्दिर को अपने साथ ही मिला लियाlसती महादेव के समीप ही दक्षिणी कोयल नदी भी बहती हुयी आती हैlदक्षिणी कोयल नदी की यहाँ पर बहने वाली घारा को राजा धारा कहा जाता हैlनागफेनी का श्म्श्हन घात भी वहीँ पर हैlश्रावन मास में राजा धारा में स्नान कर सती महादेव पर जल चढाने की परिपाटी हैlश्री रामकुमार साहु के अनुसार अष्टकमालनाथ बाबा सती महादेव की श्रद्धापूर्वक उपासना से कई लोगों की मनोकामना पूर्ण होते देखी गयी हैlपहाड़ी पर भी एक बड़े हवनकुण्डका भग्नावशेष आज भी मौजूद हैl
भगवान जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर,नागफेनी में श्रीकृष्ण,बलभद्र व सुभद्रा और अन्य कई बड़ी काष्ठ मूर्तियों के साथ-साथ अनेकानेक छोटी-छोटी मूर्तियां हैंlइन बड़ी मूर्तियों के नीचे एक कुआँ हैlकहा जाता है कि मूर्ति के नीचे स्थित कुआँ दक्षिणी कोयल नदी स्थित अम्बाघाघ तक जाने वाली एक सुरंग हैLइस सम्बन्ध में पुजारी मनोहर पण्डा कहते हैं कि वर्षों से सुरंग में भयवश कोई नहीं गया हैlबहुत दिनों से प्रयिग में नहीं आने के कारण इसमें प्रवेश करना भी एक दुःस्साहसिक कार्य हैlहमारे पूर्वज तो कहते थे कि सुरंग में बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश से उनके दृष्टिविहीन हो जाने की सम्भावना हैlकोलकाता से सुरंग में प्रवेश करने की मंशा से आया एक पर्यटक यह सुनकर वापस लौट गयाl
नागफेनी के आस-पास दर्शनीय स्थानों की भरमार है,लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा के कारण इनका पर्याप्त विकास नहीं हो पाया हैlकरीब दस वर्ष पूर्व पहाड़ी के नीचे झारखण्ड सरकार के कल्याण विभाग द्वारा सौ शैय्या वाले एक अस्पताल का निर्माण कराया गया है,लेकिन करोड़ों रूपये व्यय कर बनाये गये इस अस्पताल में निर्माण के बाद से आज तक किसी चिकित्सक अथवा अन्य स्वास्थ्यकर्मी की नियुक्ति की गयी है और न ही चिकित्सकों के अभाव में किसी मरीज की चिकित्सा ही हो सकी हैlबगैर देख-रेख के खाली पड़े भवन को प्रेमी जोड़े अथवा अवैध सम्बन्ध वाले युगल रंगरेलियों का आशियाना बनाये हुए हैं,फिर भी अब यह करोड़ों का भवन बिना स्थायी प्रयोग के जीर्णावस्था को प्राप्त करने लगा हैlयही स्थिति क्षेत्र के अन्य दर्शनीय व पर्यटक स्थलों की हैlआषाढ़ मास के दो और मकर संक्रान्ति के अवसर पर आयोजित होने रथयात्राओं का पाना विशिष्ट महत्व हैlशास्त्रों एवं पुराणादि ग्रन्थों में रथयात्रा का बड़ी महिमा उल्लेख मिलता हैlस्कन्द पुराण के अनुसार रथयात्रा के दौरान भगवान के नाम की रत लगाकर चलने वाला दर्शक तथा राथ्यातर में भगवान का रथ खींचने वाली डोर को पकड़ने वाले माता के गर्भ में निवास करने का दुःख नहीं भोगते और समस्त पापों से छुटकारा पाकर मोक्ष की प्राप्ति करते हैंlआज के वर्तमान भौतिकवादी युग में घोर संघर्ष में पड़े हुए लोगों के लिये वसुधैव कुटुम्बकम् को चरितार्थ करता नागफेनी की रथयात्रा इस आदिवासी सदान बहुल इलाके में कल्याणमय एवं मोक्षदायक सिद्ध हो रही हैl
विशेष - वैदिक धर्मी होकर पौराणिक गल्पों पर आधारित आलेख लेखन हेतु क्षमाप्रार्थी हूँ , परन्तु मैंने झारखण्ड के विस्मृत स्थलों से लोगों को परिचित कराने , कुछ परिचितों के कथन को मुख्य परिपटल पर लाने और आम धारणा को तुष्ट करने के उद्देश्य से अविद्यारूपी लेखन को बाध्य हुआ हूँ !
वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढाता नागफेनी के मकरध्वज भगवान की रथयात्रा
- अशोक “प्रवृद्ध”
भारतीय संस्कृति की अति प्राचीन उदार-उज्जवल परम्परा में अखिल विश्व को अपना परिवार मानने की सूक्ति “वसुधैव कुटुम्बकम” को चरितार्थ करने वाला दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नागफेनी की मकरध्वज भगवान की रथयात्रा सहस्त्रों लोगों के प्रगाढ़ महामिलन का एक अति विशिष्ट उदाहरण हैlप्रत्तिवर्ष मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर चौदह जनवरी को बड़े ही धूम-धाम के साथ आयोजित होने वाली रथयात्रा के समय उमड़ता जनशैलाब दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ जलप्रपात,जिसे स्थानीय लोग घाघ कहते हैं, में स्नान कर भगवान जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर की पवित्रतम छाया में बगैर किसी भेद-भाव के आपस में मिल-जुलकर दही-चुरा एवं तिल के लड्डू का क्रय कर प्रसाद (परसाद) के ग्रहण करता हैlमकर संक्रान्ति के अतिरिक्त भी प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को भगवान जगन्नाथ की चलती रथयात्र तथा उसके नवें दिन आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी को जगन्नाथ की घुरती अर्थात वापसी रथयात्रा नागफेनी के दक्षिण कोयल नदी के तट पर आयोजित की जाती हैl
मन्दिर की ऐतिहासिकता
झारखण्ड प्रान्त के गुमला जिला मुख्यालय से अठारह किलोमीर उत्तर-पूर्व के कोण पर सिसई प्रखण्डान्तर्गत मुरगु ग्राम-पञ्चायत के नागफेनी गाँव में दक्षिणी कोयल नदी के तट पर बाँस-झुण्ड के मध्य भगवान श्री जगन्नाथ महाप्रभु के भव्य ऐतिहासिक मन्दिर का निर्माण रातूगढ़ के महाराजा श्री रघुनाथ शाह ने विक्रम सम्वत १७६१ में करवाया थाlरघुनाथ शाह विक्रम सम्वत १७३१ से १७६७ तक लगभग ३६ वर्षों तक रातूगढ़ के महाराजा थेlरघुनाथ शाह छोटानागपुर के राजपरिवार नागवंशी महाराजाओं की परम्परा में ४९वें महराजा थेl
प्रकृति के इस रमणीय छोटे-छोटे शिलाखण्डों के मध्य बहती दक्षिणी कोयल नदी के तट एवं पहाड़ी के नीचे बसे समसार आदिवासी बहुल इलाके में पतित पावन शक्ति,भक्ति,श्रद्धा एवं असीम अनुकम्पा के प्रतीक भगवन जगन्नाथ महाप्रभु का यह मन्दिर सचमुच ही भारतवर्ष की अतिप्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर है,लेकिन अत्यन्त क्षोभनीय बात है कि छोटानागपुर के राजवंश नागवंशी महाराजाओं के द्वारा धन्य-धान्य हेतु हजारों एकड़ जमींन, जायदाद, बाग-बगीचादि चल-अचल सम्पति और सोना-चांदी आदि कीमती धातुओं के भूषण जेवरातादि के माध्यम से वित्तपोषित इस मन्दिर के पुजाई व कर्ता-धर्ताओं द्वारा सरकारी लाभ की प्राप्ति की प्रत्याशा मे,जो आपसी सामंजस्य के कारण अन्ततः नहीं मिल सकी,मन्दिर की उचित देख्भाल्के अव्भाव में मन्दिर-प्राँगनके कुछ भाग टूटने के कगार पर पहुँच चुके हैं और कुछ भाग नवनिर्माण के नाम पर किये गये मरम्मतादि कार्यों से मन्दिर की पुरातनता और वास्तविकता नष्ट हो गयी हैl
दक्षिणी कोयल नदी के तट पर चास-तालचर को जोड़ने वाली राष्ट्रीय उच्च पथ संख्या २३ अब १३४ पर अवस्थित नागफेनी के जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर-निर्माण से सम्बंधित पौराणिक कथा के बैव में मन्दिर के वर्तमान सेवक एवं पुजारी श्री मनोहर पण्डा बतलाते हैं कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन भगवान श्रीकृष्ण एवं उनके अग्रज बलभद्र अपनी परम प्यारी बहन सुभद्रा को अपने रथ बिठाकर व्याहने हेतु ले जा रहे थे,तब इस अति मनोहर दृश्य को देखकर सुभद्रा ने भगवान श्रीकृष्ण को कहा कि आप राधा,रुक्मिणी एवं लक्ष्मी के साथ भिन्न-भिन्न रूपों में विभिन्न तीर्थों में प्रतिष्ठित-पूजित हैं,मगर भाई-बहन के पवित्रतम प्रेम का भी एक तीर्थ होना चाहियेlइस बात को सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा,कलियुग में मेरा जगन्नाथ रूप होगा तथा जगन्नाथपुरी में हम बहन-भाइयों के अमर प्रेम के रूप में प्रतिष्ठित होंगे तथा इसी भक्ति-भाव से तीनों बहन-भाइयों की एक साथ पूजा-अर्चना होगीlवर्तमान में उडीसा के जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ मन्दिर में जगन्नाथ रूप में श्रीकृष्ण,बलराम और सुभद्रा की भव्य काष्ठ-मूर्ति प्रतिष्ठित है,जिसकी नित्यप्रति और आषाढ़ मास में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है और आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से एकादशी तक रथयात्रा निकाली व उत्सव मनाई जाती हैlश्रीपण्डा आगे बतलाते हैं-विक्रम सम्वत के अनुसार जब कुछ् वर्षों पर मलमास के रूप में दो आषाढ़ एक ही वर्ष में पड़ते हैं तब जगन्नाथपुरी के मन्दिर की मूर्ति को बदला जाता हैlइसी क्रम में परिवर्तित जगन्नाथ की मूर्ति को लाकर रघुनाथ शाह महाराजा ने नागफेनी स्थित जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर में प्रतिष्ठित किया था तथा उड़ीसा से ही पण्डों को लाकर मन्दिर के पुजारी के रूप में नियुक्त किया था एवं पुजारी व उसके परिजनों के जीवन-यापन हेतु जमीन-जायदाद प्रदान की थीlगौर की बात है कि आज भी पुजारी एव्म्गँव के अन्य परिवार के लोग आपसी वार्तालाप में ओड़िया भाषा का ही प्रयोग करते हैंl
प्रारम्भिक आवास के प्रतीक
भारी वाहनों के द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली मुम्बई-कोलकाता मार्ग सह राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या २३ अब १३४ पर अवस्थित मुरगु मोड़ नागफेनी के होटल के मालिक जो कि इसी क्षेत्र के निवासी हैं, के अनुसार भगवान जगन्नाथ के नागफेनी पहुँचने पर प्रारम्भिक दिनों में ठहरने के स्थान पर ही आज मौसी बाड़ी (उड़ीसा स्थित जगन्नाथपुरी मेंजिसे गुण्डिचा गढ़ी कहा जाता है) अवस्थित हैlमौसी बारी के सामने चिकने पत्थर रुपी अवशेष आज भी यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैंlइन पत्थरों को भगवान जगन्नाथ के यहाँ आने के पश्चात प्रारम्भिक दिनों के अवशेष जानकर यहाँ के स्थानीय निवासी आज भी विशेष आदर भाव की नजरों से देखते हैंlवर्तमान में साप्ताहिक हाट के दिनों में मौसी बाड़ी के समक्ष शराब तथा हड़िया (चावल से बनी एक प्रकार की शराब) की बिक्री भी की जाने लगी है,लेकिन मद्यपान हेतु इन चिकने पत्थरों पर बैठने वाले ग्राहकों को पत्थरों पर बैठने से मना किया जाता हैlकारण पूछे जाने पर स्थानीय लोग व मन्दिर के सेवाक्व पुजारी वही आस्था दुहराते हैंl
आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन श्री जगन्नाथ महाप्रभु की रथयात्रा काष्ठ निर्मित रथ पर बायीं ओर भगवान जगन्नाथ,मध्य में बहन सुभद्रा एवं दायीं ओर बलभद्र स्वामीजी की मूर्तियाँ रखकर करीब एक किलोमीटर के अन्तराल पर अवस्थित मौसी बाड़ी तक बड़ी ही धूमधाम व समारोहपूर्वक लायी जाती हैlइस रथयात्रा को जगन्नाथ की चलती रथयात्रा के नाम से जाना जाता हैlमौसी बाड़ी में भगवान जगन्नाथ आठ दिनों तक निवास करते हैंlनवें दिन आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को रथ पर आरूढ़ हो वापस अपने मूलमन्दिर लौट आते हैंlइस वापसी रथयात्रा को जगन्नाथ की घुरती रथयात्रा कहा जाता हैlइन दिनों में भगवान के दर्शन का अति महत्व होने के कारण स्थानीय लोग बहुत बड़ी संख्या में मेले में दर्शन के लिये आते हैंlमेले से पूर्व ही ज्येष्ठ मॉस की पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ को स्नान कराकर नवीन वस्त्र धारण कराने की परिपाटी है, जिसे स्थानीय लोग स्नान जतरा के नाम से जानते हैंlज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन रात्रि में एक मेले का आयोजन किया जाता है,जिसमें आदिवासी युवक-युवतियाँ अपने खोढ़ों (समूहों) के साथ अपना-अपना झण्डा लिये नृत्य-गान करते हैंlमेले की समाप्ति पर सभी खोढ़ों को एक-एक झण्डा उपहार के रूप में दिया जाता हैlज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ के स्नानादि कार्यक्रम की समाप्ति के साथ ही स्थानीय लोग चलती रथयात्रा की बेसब्री से इन्तजार करने लगते हैंl
प्रतिवर्ष आषाढ़ मास में लगने वाली इन रथयात्राओं के अतिरिक्त मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर १४ जनवरी को प्रतिवर्ष एक दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता हैlमकर संक्रान्ति के अवसर पर १४ जनवरी को भी नागफेनी स्थित भगवान जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर से भगवान बलभद्र अर्थात मकरध्वज की सवारी रथयात्रा के रूप में निकली जाती हैlयह रथयात्रा मूलमन्दिर से मौसी बाड़ी तक चलती हैlभगवान का मौसी बड़ी में समुचित सेवा-सत्कार किया जाता है तथा उसी दिन सन्ध्या काल मौसी बाड़ी से बलभद्र की सवारी वापस अपने मूलमन्दिर लौटती हैl मकर संक्रान्ति के अवसर चौदह जनवरी आयोजित होने नागफेनी के माघ मेला के प्रारंभ होने की पौराणिक कथा बतलाते हुए मन्दिर के पुजारी सह सेवक मनोहर पण्डा कहते हैं,उड़ीसा प्रदेश के तालचेर ढेंकानाल नामक स्थान में एक गरीब ब्राह्मण अपनी दो पत्नियोंके साथ रहता थाlदो पत्नियों का स्वामी होने के बावजूद उसका एक भी सन्तान नहीं थाlदोनों पत्नियों की परस्पर सहमति के पश्चात उसने तीसरी शादी कीlतीसरी पेनी से उसे सात पुत्रों की प्राप्ति हुयीlवह गरीब ब्राह्मण बलभद्र स्वामी का परम भक्त थाlपुत्रों के बड़े होने पर दो छोटे पुत्रों को छोड़ सभी पुत्रों का व्याह कर दिया,परन्तु काल के क्र्रूर पंजों ने उसके सातों पुत्रों तथा निःसंतान पत्नियों को छीन लियाlभगवान बलभद्र की नित्य पूजा-अर्चना करने के पश्चात ही अन्न-जल ग्रहण करने वाले उस गरीब ब्राह्मण ने अपने परिवार की ऐसी दुर्गात्ति होते देख क्रोधित हो बलभद्र की मूर्ति को गाँव के निकट बहने वाली एक नदी में प्रवाहित कर दियाlबलभद्र की वह मूर्ति इसके-उसके हाथों में होती हुयी दक्षिणी कोयल नदी के नागफेनी ग्राम के समीप स्थित अम्बाघाघ नामक जलप्रपात में बाढ़ के जल के साथ आकार अटक गयीlनागफेनी के जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर के तत्कालीन सेवक एवं पुजारी कृपासिन्धु पण्डा को इस पिछली सदी के प्रारम्भिक वर्षों में एक रात रात्रिकाल में सपना दिखलायी दियाlस्वप्न में बलभद्र स्वामी ने पुजारी कृपासिन्धु पण्डा को बतलाया कि दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ नामक स्थान में बाढ़ के जल के साथ बहता हुआ आकार मैं अटक गया हूँlमूर्ति को दक्षिणी कोयल नदी से निकालकर भगवान जगन्नाथ स्वामी के मन्दिर में विधिपूर्वक स्थापित करो तथा प्रतिदिन मेरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करते हुए मकर-संक्रान्ति के शुभ अवसर पर,जब सूर्य उत्तरायण होते हैं,तब एक भव्य मेले का आयोजन करने कीई व्यवस्था करो,तुम्हारे एवं समस्त ग्रामवासी का कल्याण होगाlपहचान के रूप में नदी तट पर घाघ में ग्रामदेवता नाग मेरी मूर्ति की रक्षा में तत्पर हैंlप्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त्त होते ही कृपासिन्धु पण्डा ने ग्रामवासियों के सहयोग से मूर्ति को निकालकर मन्दिर में विधिवत स्थापित कर दियाlनित्यप्रति सेवा,पूजा-अर्चना करते हुए मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर मेले का भी आयोजन पण्डा के द्वारा किया गयाlमकर संक्रांति के पावन अवसर पर भगवान के आदेशानुसार मेले का आयोजन होने के कारण पुजारी कृपासिन्धु पण्डा ने भगवान को मकरध्वज नामकरण कियाl तब से ही मकरध्वज भगवान की नित्यप्रति सेवा करते हुए मकर संक्रान्ति के अवसर पर दक्षिणी कोयल नदी तट पर मकरध्वज भगवान की रथयात्रा निकाली जाती हैl
मकर संक्रान्ति के अवसर पर समस्त भारतवर्ष के हिन्दू समाज में नदी-स्नान की अतिपावनकारी पुरातन परम्परा होने के कारण १४ जनवरी को दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नागफेनी की रथयात्रा का विशेष महत्व हैlइस मेले का आयोजन १४ जनवरी को निश्चितरूपेण किया जाता है,भले ही पूस अथवा मार्गशीर्ष अर्थात माघ का महीना हो,स्थानीय लोग इसे माघ मेले के नाम से जानते हैंlहाल के वर्षों में सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करने का समय बढकर १५ जनवरी को होने का ज्योतिषीय निर्णय घोषित किये जाने बावजूद नागफेनी रथयात्रा १४ जनवरी को ही आयोजित किये जाने की परम्परा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा हैl
नागफेनी के ग्रामदेवता के रूप में एक नाग का अवशेष गाँव के समीप अवस्थित एक पहाड़ी के नीचे तीन टुकड़ों के रूप में आज भी विद्यमान है जिसे लोग नागवंशियों का पूर्वज अथवा पूर्वजों का प्रत्तीक मानते हैंlपत्थर के तीन टुकड़ों को गौर करने पर नाग के समस्त शरीर का खाका मानस पटल पर बनता हैlस्थानीय मुरगु निवासी रामकुमार साहु,जो स्थानीय दर्शनीय स्थलों के मर्मज्ञ हैं,के अनुसार पहले यह पत्थर का नाग सम्पूर्ण रूप में विद्यमान थाlपत्थर के नाग के तीन टुकड़ों में विभक्त होने की कहानी बतलाते हुए श्री रामुमार साहु कहते हैं,सन १९४४ में जब भारतीय स्वाधीनता संग्राम जोरों पर था,आस-पास की उराँव जनजाति के टाना भगतों के एक बड़े हुजूम ने,यहाँ पर जो अंग्रेजों के कारिन्दे पहाड़ी में रहते थे,को मार भगाने के उद्देश्य से हथियारों से लैस होकर पहुँचाlघँटा-ध्वनि के साथ ही यह नारा चहुँओर गूँज रहा था –
टाना भगत टाना ,
भूतानि के ताना ,
बाभन के काटा पूजा ,
देवता के पासा - कूचा ,
काँसा पीतल माना ,
ढकनी में खाना ,
टाना भगत टाना l
अंग्रेजों को हराने क्रम में टाना भगतों के हुजूम में पहाड़ी पर अवस्थित पत्थर रुपी नाग को दो स्थानों पर लोहे के हथियारों से माराlभले ही टाना भगतों का अंग्रेजों को डराने का उद्देश्य पूरा न हुआ हो,लेकिन नाग रुपी पत्थर के तीन टुकड़े आज भी विद्यमान हैंlबाद में टाना भगतों के हुजूम ने जगन्नाथ महाप्रभु के मन्दिर पर भी हमला कर दिया,लेकिन स्थानीय भक्तों के अनथक प्रयास से मन्दिर को किसी प्रकार की क्षति पहुँचने से बचा लिया गयाl पत्थर रुपी नाग के अवशेष में से एक तिकडे को नाग के फुफकार मारकर फेन उठाते हुए तथा अन्य दो टुकड़ों को आज भी पहाड़ी के नीचे देखा सकता हैlपहाड़ी के ऊपर-नीचे,आस-पास बहुत से दर्शनीय स्थल हैंlपहाड़ी में बहुत पुराने जमाने के मकानोंके ध्वंशावशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैंlस्थानीय कथाओं के आधार पर पूर्वमें यहाँ किसी राजा का गढ़ भी था जिसके अवशेष पहाड़ी पर आज भी विद्यमान हैं lपहाड़ी में ही एक स्थान पर गुफा का द्वार है,जो पहाड़ी के अंदर बहुत दूर तक चला गया हैlगुफा का द्वार काफी समय से प्रयोग में नहीं आने के कारण बन्द सा हो गया है,जिसे सिर्फ पुराने जानकार लोग ही जानते हैं,जो कि अब कम ही बचे हैंlनागफेनी और आस-पास के बुजुर्ग जानकार व्यक्तियों ने बतलाया- इस गुफा में बड़े भयंकर नाग,अजगर एवं अन्यान्य विषैले सर्पों का निवास हैlवर्षों पूर्व एक बार स्थानीय ग्रामीण इस गुफा के अंदर प्रवेश किये थेlअपने साथ हथियार,मशलादी लेकर गुफा के अंदर गये थेlउन्होंने बाहर आकार बतलाया था कि गुफा के अंदर कई हजार मनुष्य एक साथ जा सकते हैंlइसके अंदर दूर तक चौड़ा लेकिन गहन अन्धकार हैlइसके चारों तरफ सर्पों के मल त्याग के बड़े-बड़े ढेर पड़े हुए हैंl
अष्टकमलनाथ बाबा सती महादेव
पहाड़ी के नीचे दक्षिणी कोयल नदी के तट पर नीम के पेड़ के नीचे बाबा अष्टकमलनाथ सती-महादेव की मूर्ति (लिंग) हैlलंग की यह विशेषता है कि यह अष्टकमल डाल फूल के ऊपर बना हुआ हैlनीम के पेड़ के नीचे खुले आकाश में सती महादेव की मूर्ति वर्षों से पूजी जाती रही है, परन्तु अब श्रद्धालुओं के सहयोग से इसे मन्दिर का रूप दिया जा रहा हैlखुले आकाश के नीचे अवस्थित सती महादेव को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व मवं इस स्थान पर भी मन्दिर था,लेकिन वख्त के थपेडों ने मन्दिर को अपने साथ ही मिला लियाlसती महादेव के समीप ही दक्षिणी कोयल नदी भी बहती हुयी आती हैlदक्षिणी कोयल नदी की यहाँ पर बहने वाली घारा को राजा धारा कहा जाता हैlनागफेनी का श्म्श्हन घात भी वहीँ पर हैlश्रावन मास में राजा धारा में स्नान कर सती महादेव पर जल चढाने की परिपाटी हैlश्री रामकुमार साहु के अनुसार अष्टकमालनाथ बाबा सती महादेव की श्रद्धापूर्वक उपासना से कई लोगों की मनोकामना पूर्ण होते देखी गयी हैlपहाड़ी पर भी एक बड़े हवनकुण्डका भग्नावशेष आज भी मौजूद हैl
भगवान जगन्नाथ महाप्रभु मन्दिर,नागफेनी में श्रीकृष्ण,बलभद्र व सुभद्रा और अन्य कई बड़ी काष्ठ मूर्तियों के साथ-साथ अनेकानेक छोटी-छोटी मूर्तियां हैंlइन बड़ी मूर्तियों के नीचे एक कुआँ हैlकहा जाता है कि मूर्ति के नीचे स्थित कुआँ दक्षिणी कोयल नदी स्थित अम्बाघाघ तक जाने वाली एक सुरंग हैLइस सम्बन्ध में पुजारी मनोहर पण्डा कहते हैं कि वर्षों से सुरंग में भयवश कोई नहीं गया हैlबहुत दिनों से प्रयिग में नहीं आने के कारण इसमें प्रवेश करना भी एक दुःस्साहसिक कार्य हैlहमारे पूर्वज तो कहते थे कि सुरंग में बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश से उनके दृष्टिविहीन हो जाने की सम्भावना हैlकोलकाता से सुरंग में प्रवेश करने की मंशा से आया एक पर्यटक यह सुनकर वापस लौट गयाl
नागफेनी के आस-पास दर्शनीय स्थानों की भरमार है,लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा के कारण इनका पर्याप्त विकास नहीं हो पाया हैlकरीब दस वर्ष पूर्व पहाड़ी के नीचे झारखण्ड सरकार के कल्याण विभाग द्वारा सौ शैय्या वाले एक अस्पताल का निर्माण कराया गया है,लेकिन करोड़ों रूपये व्यय कर बनाये गये इस अस्पताल में निर्माण के बाद से आज तक किसी चिकित्सक अथवा अन्य स्वास्थ्यकर्मी की नियुक्ति की गयी है और न ही चिकित्सकों के अभाव में किसी मरीज की चिकित्सा ही हो सकी हैlबगैर देख-रेख के खाली पड़े भवन को प्रेमी जोड़े अथवा अवैध सम्बन्ध वाले युगल रंगरेलियों का आशियाना बनाये हुए हैं,फिर भी अब यह करोड़ों का भवन बिना स्थायी प्रयोग के जीर्णावस्था को प्राप्त करने लगा हैlयही स्थिति क्षेत्र के अन्य दर्शनीय व पर्यटक स्थलों की हैlआषाढ़ मास के दो और मकर संक्रान्ति के अवसर पर आयोजित होने रथयात्राओं का पाना विशिष्ट महत्व हैlशास्त्रों एवं पुराणादि ग्रन्थों में रथयात्रा का बड़ी महिमा उल्लेख मिलता हैlस्कन्द पुराण के अनुसार रथयात्रा के दौरान भगवान के नाम की रत लगाकर चलने वाला दर्शक तथा राथ्यातर में भगवान का रथ खींचने वाली डोर को पकड़ने वाले माता के गर्भ में निवास करने का दुःख नहीं भोगते और समस्त पापों से छुटकारा पाकर मोक्ष की प्राप्ति करते हैंlआज के वर्तमान भौतिकवादी युग में घोर संघर्ष में पड़े हुए लोगों के लिये वसुधैव कुटुम्बकम् को चरितार्थ करता नागफेनी की रथयात्रा इस आदिवासी सदान बहुल इलाके में कल्याणमय एवं मोक्षदायक सिद्ध हो रही हैl
विशेष - वैदिक धर्मी होकर पौराणिक गल्पों पर आधारित आलेख लेखन हेतु क्षमाप्रार्थी हूँ , परन्तु मैंने झारखण्ड के विस्मृत स्थलों से लोगों को परिचित कराने , कुछ परिचितों के कथन को मुख्य परिपटल पर लाने और आम धारणा को तुष्ट करने के उद्देश्य से अविद्यारूपी लेखन को बाध्य हुआ हूँ !
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