Thursday, January 22, 2015

भयंकर भूलों का परिणाम जम्मू-कश्मीर समस्या -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची,  झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - २१ / ०१ /२०१५ को सम्पादकीय पृष्ठ में प्रकाशित लेख - भयंकर भूलों का परिणाम जम्मू - कश्मीर समस्या


भयंकर भूलों का परिणाम जम्मू-कश्मीर समस्या
-          -अशोक प्रवृद्ध


इतिहास की भयंकर भूलों के कारण राष्ट्र को क्षत्ति पहुंची है और इससे देश व राज्यों के सत्ता प्रतिष्ठानों में विविध प्रकार की भूलें, अव्यवस्था व अनाचार सर्वत्र व्याप्त हैं, परन्तु उन भूलों को सुधारने का ढंग देश के नैतिक पतन के कारण असम्भव हो रहा है l वर्तमान में देश के कई राज्य केन्द्र के अधीन रहना नहीं चाहतेlकश्मीर तो पहले ही दूध पीने वाला मजनू बना हुआ है lकुछ वर्ष पूर्व पंजाब में ऐसी ही परिस्थिति थी जैसी कश्मीर में है lवर्तमान में असम में भी ऐसी ही परिस्थिति बनती जा रही है lभले हम खुल-ए-आम स्वीकार न करें परन्तु पश्चिम बंगाल के कुछ जिले और सीमान्त प्रदेशों के कई क्षेत्रों की भी यही स्थिति है lकहने का अभिप्राय यह है कि पंजाब में तो अलगाववाद की भावना को शीघ्र ही कुचल दिया गया परन्तु वर्तमान में असम और अन्यान्य क्षेत्रों में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती जा रही है जैसे कि कश्मीर में है l कश्मीर-पंजाब अथवा कश्मीर-असम में समानता नहीं थी अथवा नहीं है, परन्तु समानता प्रकट की जा रही है lकश्मीर की विशेष स्थिति इस कारण स्वीकार की जा रही कही जाती है क्योंकि वहाँ मुसलमानों की जनसँख्या अत्यधिक है lकश्मीर के मुसलमानों की रुचि तो पाकिस्तान के साथ मिल जाने की थी lएक समय कश्मीर के प्रधानमंत्री ने यत्न भी किया था कि वह भागकर पाकिस्तान चला जाए और वहाँ से कश्मीर को भारतवर्ष से पृथक करने का यत्न करे lयह यत्न सफल नहीं हो सका l एक अन्य समय कश्मीर के मुख्यमंत्री ने कुछ ऐसा वक्तव्य दे दिया था कि भारतवर्ष से स्वतंत्र होना चाहता है और इसमें उसने संयुक्त राज्य अमेरिका की सहायता भी माँगी थी lभारतवर्ष के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने अपने न जाने किन सम्बन्धों के कारण उस मुख्यमंत्री को राजद्रोह में बन्दी बनाये जाने से रोका था lयह तो अब स्पष्ट हो चुका है कि कश्मीर एक ऐसी स्थिति प्राप्त कर चुका है कि इसका सम्बन्ध केन्द्र से अत्यन्त ढीला हैlप्रचण्ड बहुँमत के साथ केन्द्र में सत्तासीन और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव २०१५ में राज्य में दूसरे स्थान पर रही भारतीय जनता पार्टी के अथक प्रयासों के बावजूद राज्य में सरकार गठन हेतु भाजपा का पी डी पी अथवा नेशनल कोंफ्रेंस आदि राज्य की पार्टी तक को साध नहीं पाना भी केन्द्र-राज्य सम्बन्ध को भली-भान्ति प्रकट कर रहा है कि क्या और कैसी कठिनाई है?कहने का अभिप्राय यह है कि भारतवर्ष विभाजन के पश्चात भी केन्द्र सरकारों के छद्म धर्मनिरपेक्ष रवैयों के कारण जम्मू-कश्मीर के साथ केन्द्र का संबद्ध अत्यन्त ढीला हैl यदि कहीं पाकिस्तान की अवस्था अच्छी होती तो और वहाँ से उसे स्वतन्त्रता में सम्मिलित होने की सुविधा होती तो कई वर्ष पूर्व कश्मीर पाकिस्तान में सम्मिलित हो चुका होताlपाकिस्तान की कठिनाई यह रही है कि कश्मीर को पाकिस्तान की वर्तमान समस्या से एक अंश मात्र भी अधिक स्वतन्त्रता की आशा ही नहीं हैl

पँजाब में भी एक ऐसे पन्थ के लोग बसे हुए हैं जो अपने को हिन्दुओं से वैसे ही पृथक् समझने लगे हैं जैसे मुसलमान हैंlसिक्ख हिन्दुओं से भिन्न मत नहीं,परन्तु कुछ मिथ्या प्रचार के कारण सिक्ख अपने आपको एक पृथक मत मानने लगे हैंlउधर असम और सीमावर्ती प्रदेशों में भी देश से बाहर से आकर ऐसे लोग बस गये हैं जो हिन्दू मत से भिन्न मत मानने वाले हैंlपरिणामस्वरूप वर्तमान झगड़ा हैlपूर्व में सिक्खों के झगड़े को उसी ढंग से निपटाने का यत्न किया गया है जैसा कश्मीर के मुआमिले कोlपरिणामस्वरूप अकालियों का आनन्दपुर प्रस्ताव उतना ही भानयुक्त हो गया है जैसा कुरआन का यह कहना जो मुहम्मद साहब पर ईमान नहीं लाता वह काफिर हैऔर वह निःशेष किये जाने के योग्य हैlइस प्रस्ताव के परिप्रेक्ष्य में दो महान भूलें हुयी हैंlएक तो मजहब और राज्य को परस्पर सम्बंधित माना गया हैlयह क्यों माना जाता है,यह परम्परा भी पहले बौद्धों ने फिर ईसाईयों ने और फिर मुसलमानों ने निर्माण कीlउस पर मुसलामानों में यह व्यवहार आज भी माना जाता है और प्रायः उन देशों में जहाँ मुसलमानों की संख्या कुछ अधिक है,राज्य के ;लिये झगड़ा हो रहा हैlयह झगड़ा ब्रिटिश काल में मुसलमानों ने भारतवर्ष से आरम्भ किया थाlअंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिये इस झगड़े को हवा दी थीlयह नहीं कि भारतवर्ष में झगड़ा अंग्रेजों ने उत्पन्न किया था,वरन झगड़ा इस्लामी मजहब के कारण हैlयहाँ मजहब और राज्य में अन्तर नहीं मन जाताlअंग्रेजों ने तो अपने स्वार्थ के लिये इसका प्रयोग कियाl परिणामस्वरूप भारतवर्ष विभाजन हुआlकुछ वर्ष पूर्व वही झगड़ा अकालियों ने आरम्भ की थीlप्रायः सिक्ख समुदाय के लोग इसको व्यर्थ की बात मानते हुए भी सहन कर रहे थेlअकाली सिक्ख मत को न केवल गुरुग्रन्थ साहब में उल्लिखित सिद्धान्तों का स्रोत मानते हैं वरन पाँच ककारों को भी इसका एक अंग मानने लगे हैंlसाथ ही इन मजहबी चिह्नों के साथ राज्य का भी सम्बन्ध मानने लगे हैंlयह स्थिति केवल पँजाब ही नहीं अपितु असम,नागालैण्ड,त्रिपुरा और मेघालय में भी उपस्थित हैlयह अस्वाभाविक स्थिति हैlभारतवर्ष में आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू मुख्य समाज के रूप में हैlसमाज का अभिप्राय है वह जन समुदाय समूह जिसमें जीवन के विधि-विधान समान हैंlयदि देशमें सब लोग एक समान विधि-विधान के रखने वाले हों तब तो राज्य उन विधि-विधानों में एक सीमा तक हस्तक्षेप कर सकता है,परन्तु जब एक से अधिक जीवन-विधि वाले लोग देश में रहते हैं तो राज्य उन विधि-विधानों में हेर-फेर नहीं कर सकताlयदि करेगा तो वह किसी एक समुदाय से रियायत अथवा विरोध करता हुआ माना जाएगाlऐसी स्थिति में राज्य और सामाजिक व्यवहार के बीच सीमा-रेखा खींचनी पडेगीlजहाँ तक राज्य का है,यह सीमा-रेखा सब समुदायों के लिये समान हो सकती हैlयह १९५०-१९५२ में निर्मित संविधान में नहीं हो सकाlकश्मीर,मुस्लिमों की,तथा सिक्ख समुदाय की समस्या और एक सीमा तक ईसाईयों की समस्या भी राज्य के कार्यक्षेत्र की सीमा से बाहर की हैlसंविधान निर्माताओं में या तो बुद्धि नहीं थी कि वह इस विषय पर विचार कर सकते अथवा थी तो उनके मन में कुटिलता थी,जो हिन्दू-मुसलमान-ईसाई इत्यादि समुदायों के लिये पृथक-पृथक क़ानून बनाने लगे थे lउदाहरण के रूप में कश्मीर का विषय ही लिया जा सकता हैlसंविधान में उल्लिखित है कि मजहब का राज्य में हस्तक्षेप नहीं होगाlइसका यह भी अभिप्राय है कि राज्य का किसी भी मजहब में हस्तक्षेप नहीं हो सकताlअतः जब संविधान में कश्मीर का प्रश्न उपस्थित हुआ तो इसके लिये विशेषाधिकार किस लिये रखे गये और यदि रखे गये तो जब हैदराबाद का विलय भारतवर्ष में हुआ तो उसके लिये किसी विशेषता की बात क्यों नहीं विचार की गयी?हमारे कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि हैदराबाद को भी वैसे ही विशेषाधिकार दिए जाते जैसे कश्मीर को दिए गये थे,बल्कि कश्मीर का विलय भारतवर्ष के साथ वैसा ही होना चाहिये था जैसा हैदराबाद का हुआ थाlएक में मुस्लिम जन्संझ्या बहुसंख्या में थी और शासक हिन्दू था तो दूसरे में हिन्दू जनसँख्या अधिक थी और शासक मुसलमान थाlकश्मीर में छाँटकर एक ऐसा शासक नियुक्त कर दिया गया जिसका पूर्व इतिहास फिरकापरस्त रह चुका थाlकश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस में दो-चार हिन्दू सम्मिलित कर लेने से वह मुस्लिम मजलिस कश्मीरी अथवा मजहब से ऊपर नहीं समझी जा सकती थीlभारतीय पुरातन शास्त्रों के ज्ञाताओं और पुरातन राजनीतिक पद्धत्ति की समझ रखने वाले विद्वतजनों के अनुसार मजहब और राज्य की सीमा-रेखा खींच दी जाती और फिर कश्मीर को पँजाब,उत्तरप्रदेशादि राज्यों के समान रखा जा सकता थाlपरन्तु ऐसा नहीं हुआ,यह क्यों?इसका कारण यह है कि भारतवर्ष विभाजन के पश्चात १९४७ में जो अधिकारी बने थे उनमें सूझ-बूझ नहीं थीlउनमें न तो राज्य करने की बुद्धि थी और न ही लोककल्याण करने की भावनाlपरिणामतः वर्तमान भारतवर्ष में शासन में त्रुटियाँ चहुँओर दृष्टिगोचर हो रही हैlइसका मूल कारण शासक और संविधान में दोष होना हैlतत्कालीन शासक न तो राज्य के अधिकार की सीमा जानते थे न ही उनको यह ज्ञान था कि भारतवर्ष जैसे बहुसमुदाय वाले देश में राज्य के बाहर क्या है और न ही राज्य के भीतर क्या है?



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