झारखण्ड की राजधानी राँची , झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख - दूषित शिक्षा से आसुरी प्रवृत्ति
दूषित शिक्षा से आसुरी प्रवृति
- अशोक “प्रवृद्ध”
अंग्रेजी राज्य से पूर्व भारतवर्ष में विद्यालय-महाविद्यालय शिक्षा-पद्धति अर्थात स्कूल-कॉलेज की शिक्षा-प्रणाली नहीं थीl जातीय आकांक्षाएँ बहुत कम थीं और उसके लिये व्यावसायिक शिक्षा कुछ अधिक नहीं होती थी, विद्यार्थियों की व्यवसायिक शिक्षा के अतिरिक्त,पूजा,कथा-कीर्तन और शारीरिक व्यायामशालाओं का प्रचार-प्रसार पर्याप्त थाlअतः जातीय अर्थात राष्ट्रीय स्वभाव प्रायः दैवी दिशा की ओर उन्मुख थाlपरिणाम यह होता था कि प्रायः बहुसंख्यक समाज के घटक सात्विक विचार के थेlजाति-भेद तो था,परन्तु इसका स्वभाव से सम्बन्ध नहीं थाlब्राह्मण से लेकर मुग़ल काल में बने जाति भंगी-चमार तक भक्त-जन प्रचुर मात्रा में थेlहम अपने मुरूनगुर के पूर्वजों स्व० खुदी साहु, स्व० पारसनाथ पण्डित, रामलगन चौधरी, रामाशंकर गंझु आदि से सुना करते थे कि अमुक व्यक्ति लिखत- पढ़त के बिना व्याज पर रूपये दिया करता है, वस्तुएँ रखकर भी और बिना जमानत पर भीlयह समझा जाता था कि वे रूपये दे नहीं सकेंगे, यह नहीं कि वे देना नहीं चाहेंगे, परन्तु जब भूषण अथवा जमीनादि कीमती वस्तुएँ गिरवी रखे जाते थे तो भूषणादि गिरवी रखी जाने वाली वस्तु प्रायः उधार की राशि से अधिक मूल्य के होते थेlफिर भी साहूकार अपने उधार दिए धन से ही वास्ता रखता थाlरूपये वापस करने पर मूल्यवान गिरवी रखी वस्तु वापस कर दी जाती थीlन्यायालयों अर्थात अदालतों, में बहुत कम झगड़े जाते थेlवर्तमान की भान्ति बैंकों का चलन नहीं थाlयह नहीं कि उधार देने वाले सब भले लोग ही होते थेlकुछ अत्यन्त लोभी और क्रूर स्वभाव के लोग भी होते थेlफिर भी अधिकाँश स्वनिर्मित नियम का पालन करते थे,परन्तु अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से यह अवस्था बिगड़ीlयह शिक्षा कोलकाता में १८३७ ईस्वी से आरम्भ हुयी, परन्तु इस एकाँगी शिक्षा का प्रभाव तो भारतवर्ष विभाजन के पश्चात दिखलाई देने लगाl
आँग्ल काल में प्रादुर्भित और भारतवर्ष विभाजन के पश्चात पुष्पित-पल्लवित विद्यालय-महाविद्यालयों की शिक्षा-पद्धति में पढ़े-लिखे लोगों ने वर्तमान में यह अवस्था उत्पन्न कर दी है कि देश की राजधानी में ही बैंक लुटे जाते हैं, सरे-बाजार हत्याएँ होती हैं, दिन- दहाड़े बलात्कार व छेड़-छाड़ की घटनाएँ होती हैं और इस सबमे कोई अपराधी बिरले ही पकड़ा जाता है lकहने का अभिप्राय यह है कि दूषित शिक्षा ने भारतीय जनता में आसुरी स्वभाव उत्पन्न किया है,वहीं शान्ति-व्यवस्था रखने वाले अधिकारी भी अयोग्य बना दिए गये हैं lअत्यन्त पुरातन काल के पश्चात मुसलमानी काल से पूर्व की शिक्षा-पद्धत्ति भी अधूरी थीl उस अधूरी शिक्षा का ही परिणाम था कि देश पर आक्रमण पर आक्रमण होने लगे थे और देश उनका प्रतिकार नहीं कर सका था lयह अधूरी शिक्षा बौद्ध जीवन मीमांसा का परिणाम थीlबौद्ध मत की शिक्षा का उद्देश्य था कि प्राणी शून्य में भँवर से बना है और भँवर मिट जाने पर प्राणी समाप्त हो शून्य हो जायेगाl इससे जीवन निरुद्देश्य बन गया था l मनुष्य का एक दूसरे से सम्बन्ध उतना ही था जितना जल में पड़े एक भँवर का दूसरे के साथ थाl सिर्फ शुद्ध प्रचार से व्यवहार की शुद्धि अपने तक ही सीमित रह सकती हैl दण्ड-विधान दुष्टों को ठीक रखने के लिये आवश्यक होता है l छुपकर पाप करने से बचने का उपाय अध्यात्म शिक्षा थी lयह बौद्धों में नहीं थी lइसका दुष्परिणाम यह हुआ कि व्यभिचार-अनाचार छुप सकने के साथ सम्बन्ध रखने लगेl इससे आसुरी शक्ति के लोग उत्पन्न हुएl इसका भयंकर परिणाम हुआ l देश में स्वार्थ बढ़ने लगा और देश में दासता का बीजारोपण हुआl
भारतवर्ष में इन्द्रिय संयम की शिक्षा तो विद्यालयों-महाविद्यालयों में दी जानी चाहिये,परन्तु आज हमारे देश में सिर्फ टेक्निकल उन्नत्ति अर्थात तकनीकी शिक्षा के लिये होड़ लगी हुयी हैlउसके लिये गणित,विज्ञान और भूगोल पर इतना बल दिया जा रहा है कि विद्यालय-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को आत्मनिरीक्षण और आत्म-नियन्त्रण की प्रेरणा के लिये समय ही नहीं रहताlपरिणाम यह होता है कि इन्द्रियों के कार्य,उनको संयम में रखने के उपाय और उन उपायों को अभ्यास करने के लिये विद्यालय-महाविद्यालयों में समय नहीं रहताl वर्तमान शिक्षा केवल भौतिक उन्नत्ति के निमित है,इसमें भी अध्यात्म का आधार नहींl परिणाम यह हो रहा है कि जिसका जैसे वश चलता है वह वैसे ही अपना जीवन-सुख प्राप्त करने का यत्न करता है और दूसरों की चिन्ता नहीं करता l वर्तमान में विद्यालय-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों की शिक्षा में वही दोष है जो मुसलमानी काल के पूर्व बौद्ध जीवन-मीमांसा से उत्पन्न हो गया थाlपरिणामस्वरूप वर्तमान पूर्ण समाज में आसुरी प्रवृति व्याप्त हो रही हैl
अध्यात्म शिक्षा के प्रभाव से ही जीवन में कठोर-व्रत धारण करके रहा जा सकता है और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखा जा सकता हैl दैवी स्वभाव दैवी व्यवहार से बनता है और इसके लिये कामनाओं पर नियन्त्रण करना आवश्यक हैl यह तब ही हो सकेगा जब इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण रखा जायेगाlव्यापक अध्यात्म की शिक्षा से जातीय अर्थात राष्ट्रीय व्यवहार दैवी होगा और प्रायः सात्विक स्वभाव के आत्मा ही इस देश के समाज में जन्म लेंगे और समाज स्थायी रूप से दैवी प्रकृत्ति वाला बनाया जा सकेगा, परन्तु वर्तमान विद्यालयों-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में अध्यात्म शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहींl विद्यालयों-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों की शिक्षा के अतिरिक्त भी शिक्षा के साधन हैंlपुरातन काल में कथा-कीर्तन, मन्दिर-तीर्थाटन इत्यादि के द्वारा भी शिक्षा दी जाती थी,परन्तु अत्यन्त क्षोभनीय बात है कि इन सबके स्थान पर अब सिनेमा-भवन, चलचित्र गृह आदि खुल गये हैं और उनमें जो चित्र अर्थात सिनेमा दिखलाये जाते हैं,वे शिक्षा के विचार से नहीं बनाये जाते हैं, उसमें मनोरंजन मुख्य होता है और चलचित्र निर्माता एक-एक चलचित्र पर करोड़ों रूपये व्यय करते हैं और फिर उससे उनको लागत का सौ गुना उपार्जन करना होता हैlये कथा-कीर्तन की भान्ति लोक कल्याण की भावना से नहीं बनाये जाते वरन अधिकाधिक लोगों को आकर्षित करने के लिये होते हैं जिससे कि लगाया धन शताधिक लाभ सहित वापस हो सकेlभारतवर्ष जैसे विशाल देश में लाखो चलचित्र गृह हैं और उनमें दिखाई जाने वाली तस्वीरों के निर्माता भी लक्षाधिक हैंl ये लोग चित्र निर्माण में धन व्यय करते हैं धन एकत्रित करने के लियेlयह कार्य ऐसा नहीं जैसे कुछ वर्ष पूर्व भारतवर्ष में कथाएँ करने की प्रथा थीl एक विद्वान अर्थात एक पंडित किसी पुरातन ग्रन्थ से कथा करता थाlकथा करने के लिये स्थानीय जन उसके लिये मंच बना देते थे अथवा उसे किसी मन्दिर में स्थान मिल जाया करता थाlकथा पन्द्रह-बीस दिन अथवा कभी उससे अधिक काल के लिये चलती थीlअन्तिम दिन कथा का भोग पड़ता था और श्रोतागण अपनी श्रद्धा अनुसार कथा-वाचक को भेंट दे जाया करते थे, परन्तु चलचित्र में बात दूसरी हैlदर्शक को पहले मूल्य देना पड़ता है और फिर उसको तस्वीर देखने को मिलती हैlस्वाभाविक रूप में चित्र बनाने में व्यय के अतिरिक्त चित्र अर्थात सिनेमा के विज्ञापन पर भी जमकर खर्चा करना पड़ता है और तब सब वसूल करने के लिये चलचित्र में तीव्र आकर्षण उत्पन्न करने की आवश्यकता पड़ती हैlयह आकर्षण सुन्दर से सुन्दर अभिनेत्रियों अथवा उनकी निर्लज्ज कामनाओं को उतेजित करने वाली कहानी,गीत-संगीत व नृत्य और सैंकड़ों प्रकार से प्रलोभन उत्पन्न करने की योजना से चलचित्र बनाना होता है जिससे वह देश-विदेश में चल जाये और उस पर जो करोड़ों व्यय किये गये हैं वे लाभ सहित प्राप्त हो जायेंlकहने का अभिप्राय यह है कि सिनेमा कथा-कीर्तन,पूजा-पाठ,तीर्थ-स्नानादि का विकल्प नहीं हैं और न ही हो सकते हैंlये कामनाओं को उभारने वाले होने अनिवार्य हैंlये सात्विक प्रवृत्ति उत्पन्न करने वाले कदापि नहीं हो सकतेlयही कारण हैं है कि इस देश भारतवर्ष में रहने वाला घटक कामनाओं के पीछे भागता जा रहा हैlइन्दिर्यों पर नियन्त्रण असम्भव होना भी स्वाभाविक माना जा रहा हैl और आज स्थिति ऐसे बन आयी है कि कि यदि वर्तमान में देश की संसद इन चलचित्रों पर किसी प्रकार का नियन्त्रण रखने का विचार उत्पन्न करे तो संसद के सताधारी दल के पदच्युत हो जाने का भय उत्पन्न हो सकता हैlयही कारण है कि देश की संसद को इस व्यापक विषपान में सहायक होना पड़ रहा हैlवर्तमान में देश भर में हो रही बहुसंख्यक जनता के विरोध-प्रदर्शन और न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद विवादास्पद फिल्म “पी के” के बारे में में प्रचण्ड बहुमत से बनी केन्द्र की मोदी सरकार की मौन अख्तियार करने की नीति से भी इस अन्देशा को बल मिलता है कि सरकार इस मामले में टाँग अड़ाने से डरती हैl जब से बालक अथवा बालिका विद्यालय में भरती होती हैं और जब तक उनके अभिभावक नागरिक की जेब में मनोरंजन के लिये कुछ भी रहता है उसको इन्द्रियों को विषयों की ओर प्रेरित करने के साधन उपलब्ध रहते हैंlयही कारण है कि इस देश एवं जाति के प्रायः लोग कामनाओं के लिछे भागते जा रहे हैं और आसुरी स्वभाव वालों की संख्या में वृद्धि होती जाती हैlअतः समस्या का समाधान यह है कि देश में और यदि हो सके तो सम्पूर्ण भूमण्डल में दैवी स्वभाव के लोग उत्पन्न किये जायेंl
दूषित शिक्षा से आसुरी प्रवृति
- अशोक “प्रवृद्ध”
अंग्रेजी राज्य से पूर्व भारतवर्ष में विद्यालय-महाविद्यालय शिक्षा-पद्धति अर्थात स्कूल-कॉलेज की शिक्षा-प्रणाली नहीं थीl जातीय आकांक्षाएँ बहुत कम थीं और उसके लिये व्यावसायिक शिक्षा कुछ अधिक नहीं होती थी, विद्यार्थियों की व्यवसायिक शिक्षा के अतिरिक्त,पूजा,कथा-कीर्तन और शारीरिक व्यायामशालाओं का प्रचार-प्रसार पर्याप्त थाlअतः जातीय अर्थात राष्ट्रीय स्वभाव प्रायः दैवी दिशा की ओर उन्मुख थाlपरिणाम यह होता था कि प्रायः बहुसंख्यक समाज के घटक सात्विक विचार के थेlजाति-भेद तो था,परन्तु इसका स्वभाव से सम्बन्ध नहीं थाlब्राह्मण से लेकर मुग़ल काल में बने जाति भंगी-चमार तक भक्त-जन प्रचुर मात्रा में थेlहम अपने मुरूनगुर के पूर्वजों स्व० खुदी साहु, स्व० पारसनाथ पण्डित, रामलगन चौधरी, रामाशंकर गंझु आदि से सुना करते थे कि अमुक व्यक्ति लिखत- पढ़त के बिना व्याज पर रूपये दिया करता है, वस्तुएँ रखकर भी और बिना जमानत पर भीlयह समझा जाता था कि वे रूपये दे नहीं सकेंगे, यह नहीं कि वे देना नहीं चाहेंगे, परन्तु जब भूषण अथवा जमीनादि कीमती वस्तुएँ गिरवी रखे जाते थे तो भूषणादि गिरवी रखी जाने वाली वस्तु प्रायः उधार की राशि से अधिक मूल्य के होते थेlफिर भी साहूकार अपने उधार दिए धन से ही वास्ता रखता थाlरूपये वापस करने पर मूल्यवान गिरवी रखी वस्तु वापस कर दी जाती थीlन्यायालयों अर्थात अदालतों, में बहुत कम झगड़े जाते थेlवर्तमान की भान्ति बैंकों का चलन नहीं थाlयह नहीं कि उधार देने वाले सब भले लोग ही होते थेlकुछ अत्यन्त लोभी और क्रूर स्वभाव के लोग भी होते थेlफिर भी अधिकाँश स्वनिर्मित नियम का पालन करते थे,परन्तु अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से यह अवस्था बिगड़ीlयह शिक्षा कोलकाता में १८३७ ईस्वी से आरम्भ हुयी, परन्तु इस एकाँगी शिक्षा का प्रभाव तो भारतवर्ष विभाजन के पश्चात दिखलाई देने लगाl
आँग्ल काल में प्रादुर्भित और भारतवर्ष विभाजन के पश्चात पुष्पित-पल्लवित विद्यालय-महाविद्यालयों की शिक्षा-पद्धति में पढ़े-लिखे लोगों ने वर्तमान में यह अवस्था उत्पन्न कर दी है कि देश की राजधानी में ही बैंक लुटे जाते हैं, सरे-बाजार हत्याएँ होती हैं, दिन- दहाड़े बलात्कार व छेड़-छाड़ की घटनाएँ होती हैं और इस सबमे कोई अपराधी बिरले ही पकड़ा जाता है lकहने का अभिप्राय यह है कि दूषित शिक्षा ने भारतीय जनता में आसुरी स्वभाव उत्पन्न किया है,वहीं शान्ति-व्यवस्था रखने वाले अधिकारी भी अयोग्य बना दिए गये हैं lअत्यन्त पुरातन काल के पश्चात मुसलमानी काल से पूर्व की शिक्षा-पद्धत्ति भी अधूरी थीl उस अधूरी शिक्षा का ही परिणाम था कि देश पर आक्रमण पर आक्रमण होने लगे थे और देश उनका प्रतिकार नहीं कर सका था lयह अधूरी शिक्षा बौद्ध जीवन मीमांसा का परिणाम थीlबौद्ध मत की शिक्षा का उद्देश्य था कि प्राणी शून्य में भँवर से बना है और भँवर मिट जाने पर प्राणी समाप्त हो शून्य हो जायेगाl इससे जीवन निरुद्देश्य बन गया था l मनुष्य का एक दूसरे से सम्बन्ध उतना ही था जितना जल में पड़े एक भँवर का दूसरे के साथ थाl सिर्फ शुद्ध प्रचार से व्यवहार की शुद्धि अपने तक ही सीमित रह सकती हैl दण्ड-विधान दुष्टों को ठीक रखने के लिये आवश्यक होता है l छुपकर पाप करने से बचने का उपाय अध्यात्म शिक्षा थी lयह बौद्धों में नहीं थी lइसका दुष्परिणाम यह हुआ कि व्यभिचार-अनाचार छुप सकने के साथ सम्बन्ध रखने लगेl इससे आसुरी शक्ति के लोग उत्पन्न हुएl इसका भयंकर परिणाम हुआ l देश में स्वार्थ बढ़ने लगा और देश में दासता का बीजारोपण हुआl
भारतवर्ष में इन्द्रिय संयम की शिक्षा तो विद्यालयों-महाविद्यालयों में दी जानी चाहिये,परन्तु आज हमारे देश में सिर्फ टेक्निकल उन्नत्ति अर्थात तकनीकी शिक्षा के लिये होड़ लगी हुयी हैlउसके लिये गणित,विज्ञान और भूगोल पर इतना बल दिया जा रहा है कि विद्यालय-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को आत्मनिरीक्षण और आत्म-नियन्त्रण की प्रेरणा के लिये समय ही नहीं रहताlपरिणाम यह होता है कि इन्द्रियों के कार्य,उनको संयम में रखने के उपाय और उन उपायों को अभ्यास करने के लिये विद्यालय-महाविद्यालयों में समय नहीं रहताl वर्तमान शिक्षा केवल भौतिक उन्नत्ति के निमित है,इसमें भी अध्यात्म का आधार नहींl परिणाम यह हो रहा है कि जिसका जैसे वश चलता है वह वैसे ही अपना जीवन-सुख प्राप्त करने का यत्न करता है और दूसरों की चिन्ता नहीं करता l वर्तमान में विद्यालय-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों की शिक्षा में वही दोष है जो मुसलमानी काल के पूर्व बौद्ध जीवन-मीमांसा से उत्पन्न हो गया थाlपरिणामस्वरूप वर्तमान पूर्ण समाज में आसुरी प्रवृति व्याप्त हो रही हैl
अध्यात्म शिक्षा के प्रभाव से ही जीवन में कठोर-व्रत धारण करके रहा जा सकता है और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखा जा सकता हैl दैवी स्वभाव दैवी व्यवहार से बनता है और इसके लिये कामनाओं पर नियन्त्रण करना आवश्यक हैl यह तब ही हो सकेगा जब इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण रखा जायेगाlव्यापक अध्यात्म की शिक्षा से जातीय अर्थात राष्ट्रीय व्यवहार दैवी होगा और प्रायः सात्विक स्वभाव के आत्मा ही इस देश के समाज में जन्म लेंगे और समाज स्थायी रूप से दैवी प्रकृत्ति वाला बनाया जा सकेगा, परन्तु वर्तमान विद्यालयों-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में अध्यात्म शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहींl विद्यालयों-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों की शिक्षा के अतिरिक्त भी शिक्षा के साधन हैंlपुरातन काल में कथा-कीर्तन, मन्दिर-तीर्थाटन इत्यादि के द्वारा भी शिक्षा दी जाती थी,परन्तु अत्यन्त क्षोभनीय बात है कि इन सबके स्थान पर अब सिनेमा-भवन, चलचित्र गृह आदि खुल गये हैं और उनमें जो चित्र अर्थात सिनेमा दिखलाये जाते हैं,वे शिक्षा के विचार से नहीं बनाये जाते हैं, उसमें मनोरंजन मुख्य होता है और चलचित्र निर्माता एक-एक चलचित्र पर करोड़ों रूपये व्यय करते हैं और फिर उससे उनको लागत का सौ गुना उपार्जन करना होता हैlये कथा-कीर्तन की भान्ति लोक कल्याण की भावना से नहीं बनाये जाते वरन अधिकाधिक लोगों को आकर्षित करने के लिये होते हैं जिससे कि लगाया धन शताधिक लाभ सहित वापस हो सकेlभारतवर्ष जैसे विशाल देश में लाखो चलचित्र गृह हैं और उनमें दिखाई जाने वाली तस्वीरों के निर्माता भी लक्षाधिक हैंl ये लोग चित्र निर्माण में धन व्यय करते हैं धन एकत्रित करने के लियेlयह कार्य ऐसा नहीं जैसे कुछ वर्ष पूर्व भारतवर्ष में कथाएँ करने की प्रथा थीl एक विद्वान अर्थात एक पंडित किसी पुरातन ग्रन्थ से कथा करता थाlकथा करने के लिये स्थानीय जन उसके लिये मंच बना देते थे अथवा उसे किसी मन्दिर में स्थान मिल जाया करता थाlकथा पन्द्रह-बीस दिन अथवा कभी उससे अधिक काल के लिये चलती थीlअन्तिम दिन कथा का भोग पड़ता था और श्रोतागण अपनी श्रद्धा अनुसार कथा-वाचक को भेंट दे जाया करते थे, परन्तु चलचित्र में बात दूसरी हैlदर्शक को पहले मूल्य देना पड़ता है और फिर उसको तस्वीर देखने को मिलती हैlस्वाभाविक रूप में चित्र बनाने में व्यय के अतिरिक्त चित्र अर्थात सिनेमा के विज्ञापन पर भी जमकर खर्चा करना पड़ता है और तब सब वसूल करने के लिये चलचित्र में तीव्र आकर्षण उत्पन्न करने की आवश्यकता पड़ती हैlयह आकर्षण सुन्दर से सुन्दर अभिनेत्रियों अथवा उनकी निर्लज्ज कामनाओं को उतेजित करने वाली कहानी,गीत-संगीत व नृत्य और सैंकड़ों प्रकार से प्रलोभन उत्पन्न करने की योजना से चलचित्र बनाना होता है जिससे वह देश-विदेश में चल जाये और उस पर जो करोड़ों व्यय किये गये हैं वे लाभ सहित प्राप्त हो जायेंlकहने का अभिप्राय यह है कि सिनेमा कथा-कीर्तन,पूजा-पाठ,तीर्थ-स्नानादि का विकल्प नहीं हैं और न ही हो सकते हैंlये कामनाओं को उभारने वाले होने अनिवार्य हैंlये सात्विक प्रवृत्ति उत्पन्न करने वाले कदापि नहीं हो सकतेlयही कारण हैं है कि इस देश भारतवर्ष में रहने वाला घटक कामनाओं के पीछे भागता जा रहा हैlइन्दिर्यों पर नियन्त्रण असम्भव होना भी स्वाभाविक माना जा रहा हैl और आज स्थिति ऐसे बन आयी है कि कि यदि वर्तमान में देश की संसद इन चलचित्रों पर किसी प्रकार का नियन्त्रण रखने का विचार उत्पन्न करे तो संसद के सताधारी दल के पदच्युत हो जाने का भय उत्पन्न हो सकता हैlयही कारण है कि देश की संसद को इस व्यापक विषपान में सहायक होना पड़ रहा हैlवर्तमान में देश भर में हो रही बहुसंख्यक जनता के विरोध-प्रदर्शन और न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद विवादास्पद फिल्म “पी के” के बारे में में प्रचण्ड बहुमत से बनी केन्द्र की मोदी सरकार की मौन अख्तियार करने की नीति से भी इस अन्देशा को बल मिलता है कि सरकार इस मामले में टाँग अड़ाने से डरती हैl जब से बालक अथवा बालिका विद्यालय में भरती होती हैं और जब तक उनके अभिभावक नागरिक की जेब में मनोरंजन के लिये कुछ भी रहता है उसको इन्द्रियों को विषयों की ओर प्रेरित करने के साधन उपलब्ध रहते हैंlयही कारण है कि इस देश एवं जाति के प्रायः लोग कामनाओं के लिछे भागते जा रहे हैं और आसुरी स्वभाव वालों की संख्या में वृद्धि होती जाती हैlअतः समस्या का समाधान यह है कि देश में और यदि हो सके तो सम्पूर्ण भूमण्डल में दैवी स्वभाव के लोग उत्पन्न किये जायेंl
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