राँची , झारखण्ड से प्रकाशित हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - ०३ / ०१ / २०१५ को प्रकाशित लेख- भारतवर्ष के सांस्कृतिक पतन का इतिहास
भारतवर्ष के सांस्कृतिक पतन का इतिहास
- अशोक "प्रवृद्ध"
वर्तमान युगीन बुद्धिमान इतिहासज्ञ यह मानते हैं कि सम्राट अशोक का काल भारतवर्ष का अति उज्जवल कीर्तिमान काल रहा है और अशोक के उपरान्त समुद्रगुप्त का काल भारतवर्ष का कीर्तिमान काल रहा है,परन्तु हम उनकी इस मान्यता से सहमत नहीं। किसी भी देश अथवा जाति का कीर्तिमान और उज्जवल काल वह होता है, जब उस काल में मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कला अर्थात् बुद्धि सुचारू रूप से कार्य कर रही हो। इन दोनों सम्राटों के काल में भारतवर्ष में बुद्धि का कार्य शून्य के तुल्य हो चुका था।अशोकवर्धन के काल को शान्ति का काल कहा जा सकता है,परन्तु वह काल जनमानस में बुद्धि-विहीनता का काल भी था। उस काल में बौद्ध भिक्षुओं और विहारों के महाप्रभुओं की तूती बोलती थी। दूसरी ओर समुद्रगुप्त के काल में अनपढ़ रूढ़िवादी ब्राह्मणों का बोलबाला था। परिणामस्वरुप दोनों काल देश और समाज को पतन की ओर द्रुतगति से ले जाने वाले सिद्ध हुए थे।समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया था,परन्तु यह ऐतिहासिक तथ्य है कि समुद्रगुप्त का अश्वमेघ यज्ञ सर्वथा असंगत रहा था। अश्वमेघ यज्ञ के, उद्देश्य से विपरीत परिणाम प्रकट हुए थे। यह यज्ञ व्यर्थ में धन और परिश्रम का व्यय ही कहा जा सकता है। केवल मात्र समुद्रगुप्त का कीर्तिस्तम्भ स्थापित करना, वह भी उसके अपने राज्य के महामात्य द्वारा संकलित , कितनी शोभा की बात हो सकती है, विचारणीय है। यह ऐसे ही है जैसे अशोक के काल में अनपढ़ समाज के निम्न वर्ग में से बने भिक्षुओं का लिखा इतिहास। यह कितना विश्वस्त होगा, ईश्वर ही बता सकता है।दोनों राज्यों के परिणाम भयंकर सिद्ध हुए थे। ऐसा क्यों ?
अशोक के राज्य का परिणाम था सफल विदेशीय आक्रमण। उस सीदियन आक्रमण द्वारा प्रचलित अवस्था को पलटकर ही निस्तेज किया जा सकता था। वैसा ही परिणाम गुप्त परिवार की प्रभुता से हुआ था।सीदियनों के आक्रमण से भी भयंकर हूण आक्रमण इस काल का परिणाम था।हमारा विचारित मत है कि दोनों कालों में समाज के अस्तित्व का हीन होना ब्राह्मणों के रूढ़िवादी व्यवहार के कारण ही था। उस व्यवहार में बुद्धि का किंचित् मात्र भी सहयोग नहीं था।
समुद्रगुप्त का तिथिकाल जो वर्तमान इतिहासकार मानते हैं, वह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य का काल 325 ईसा पूर्व माना जाता है। पुराणों से संकलित तिथिकाल के अनुसार यह 1502 ईसा पूर्व बनता है। इसी प्रकार समुद्रगुप्त का राज्यारोहण काल 333 ई. का बताया गया है। भारतीय प्रमाणों से समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी को विक्रम सम्वत् का आरम्भ करने वाला माना जाता है। इसका अभिप्राय हुआ कि समुद्रगुप्त लगभग 99 ई. पूर्व में राजगद्दी पर बैठा था। इसी प्रकार सब तिथियाँ बदल जाती हैं। अभिप्राय यह है कि भारतवर्ष का भी एक इतिहास है और उसके समझने का एक ढंग है। वर्तमान विश्वविद्यालयों के इतिहासकार भारतीय परमपराओं से सर्वथा अनभिज्ञ, राज्य आश्रय पर बगलें बजाते फिरते हैं। इसी प्रकार सिकन्दर के आक्रमण की बात है। इस बात के प्रमाण तो मिलते हैं कि सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार कर ली थी और झेलम नदी के तट पर पोरस से युद्ध हुआ था। परन्तु उसके बाद का वर्णन सिकन्दर के साथ आये इतिहासकार ने नहीं किया। एक यूनानी लेखक अरायन के अनुसार पोरस से सिकन्दर का युद्ध अनिर्णीत था। जीत किसी की नहीं हुई। सिकन्दर चौथे प्रहर थककर अपने डेरे पर चला गया था । वहाँ उसने पोरस को बुलाकर उससे सन्धि कर ली थी। उसके उपरान्त यह कहा मिलता है कि वह नौकाओं में व्यास नदी से लौट गया था। परन्तु झेलम और व्यास के बीच दो नदियाँ और पड़ती हैं, उनका लम्बा-चौड़ा क्षेत्र भी है। वह क्षेत्र जनशून्य और राज्य शून्य नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि झेलम नदी में ही नौकाएँ डाल सिकन्दर लौट गया था। उन दिनों झेलम का नाम बतिस्ता था। इसी को यूनानियों ने व्यास लिखा है। इसमें हमारा कथन यह है कि इस अनिर्णीत युद्ध के बाद पोरस के राज्यासीन रहने का अभिप्राय यही सिद्ध करता है कि सिकन्दर और उसकी सेना युद्ध से उपराम हो लौट गयी थी।
पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि महाभारत काल से लेकर गुप्त काल के ह्रास तक का इतिहास पुराणों में लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष का इतिहास लिखने वाले कहे जाने वाले विद्वान यहाँ की भाषा, भाव और पुराणों की शैली से अनभिज्ञ होने के कारण ऐसा लिख गये हैं, कि यह भारतवर्ष का वैभव काल था। भारतीय परंपरा के इतिहासकारों के अनुसार समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त ने शकों को सिन्ध पार भगाया था। दिल्ली में महरौली के समीप तथाकथित कुतुब मीनार के प्रांगण में लौह स्तम्भ में लिखे लेख के अनुसार वह विक्रम सम्वत् का आरम्भ काल था। यह समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरान्त चन्द्रगुप्त (विक्रम) के राज्य में हुआ था। यह राज्यारोहण के दूसरे वर्ष की बात है। रामगुप्त की मृत्यु के उपरान्त ही यह हो सका था। यह विक्रम सम्वत् पूर्व -12-13 वर्ष था। ईसा सम्वत् के अनुसार यह ई. पूर्व 69-70 वर्ष के लगभग होगा।
एक वंशावली जो एक विद्वान लेखक पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी ने पुराणों से संकलित की है, और जिसे विद्वतजनों ने स्वीकृति प्रदान की है, उसका सारांश कुछ इस प्रकार है ।
महाभारत युद्ध के उपरान्त मगध के राज्यों की तालिका पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी विज्ञ लेखक ने इस प्रकार लिखी है-
राजवंश कलि सम्वत् ईस्वी सम्वत् / ईस्वी पूर्व
वृहद् वंश 1 - 1001 3102 – 2101
प्रद्योत वंश 1001- 1139 2101 - 1964
शिशुनाक् वंश 1139 – 1501 1964 - 1602
पद्मनन्द वंश 1501 - 1602 1602 - 1502
मौर्य वंश 1602 - 1738 1502- 1365
शुंग वंश 1738 – 1850 1365 – 1253
इस तिथिकाल के अनुसार बुद्ध का जन्म लगभग 1285 कलि सम्वत् में अर्थात् ईसा से 1818 वर्ष पूर्व बनता है।
इसी तालिका के अनुसार समुद्रगुप्त का काल विक्रम पूर्व 42 से वि.पूर्व 2 तक बनता है। इसी गणना के अनुसार समुद्रगुप्त का राज्य हुआ ईसा पूर्व 99 से 59 तक।इतना और समझ लेना चाहिए कि भारतवर्ष के ह्रास का आरम्भ युधिष्ठिर के जुआ खेलने से पूर्व ही हो चुका था। वास्तव में जो कुछ जुआ खेलने में हुआ, उसका बीज पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा में निहित था। दोनों के गुरु थे द्रोणाचार्य और वह राज्य-सेवा में पल रहे पतित ब्राह्मण ही थे। द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य का पूर्ण जीवन राजाओं की चाटुकारी में व्यतीत हुआ था। यही महान् विनाश का आरम्भ कहा जा सकता है। तब से लुढकती सभ्यता हर्षवर्धन के काल के उपरान्त अस्त हो गयी प्रतीत होती है। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान युग भारतीयता की मध्य रात्रि का काल है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसे अन्धकार में मनुष्य कंचन और राँगा में भेद नहीं कर सकता, वैसे ही यही दशा अपने भारतवासियों की हो रही है। प्राचीन भारतीय धर्म और संस्कृति को राँगा समझा जा रहा है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के काल को भारतीय संस्कृति का मध्य दिवस काल कहा जा सकता है। प्रत्येक सफलता में ह्रास का बीज रहता है। यही उस यज्ञ में हुआ था। उसके उपरान्त चिकनी ढलवान् भूमि पर फिसलते पगों की भाँति ह्रास आरम्भ हुआ। हमारा यह कहना है कि अशोक का राज्यकाल और गुप्त परिवार का काल भारतीय संस्कृति का तीसरा प्रहर था। समाज द्रुतगति से रात्रि के अन्धकार की ओर जा रहा था। वर्तमान युग तो मध्य रात्रि ही माना जा सकता है। रात्रि के अन्धकार में टिमटिमाते दीपक ही प्रकाश का स्रोत प्रतीत होते हैं और उन्हीं को प्राप्त कर अपने को धन्य माना जाता है। यही बात इस समय हो रही है।
भारतवर्ष के सांस्कृतिक पतन का इतिहास
- अशोक "प्रवृद्ध"
वर्तमान युगीन बुद्धिमान इतिहासज्ञ यह मानते हैं कि सम्राट अशोक का काल भारतवर्ष का अति उज्जवल कीर्तिमान काल रहा है और अशोक के उपरान्त समुद्रगुप्त का काल भारतवर्ष का कीर्तिमान काल रहा है,परन्तु हम उनकी इस मान्यता से सहमत नहीं। किसी भी देश अथवा जाति का कीर्तिमान और उज्जवल काल वह होता है, जब उस काल में मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कला अर्थात् बुद्धि सुचारू रूप से कार्य कर रही हो। इन दोनों सम्राटों के काल में भारतवर्ष में बुद्धि का कार्य शून्य के तुल्य हो चुका था।अशोकवर्धन के काल को शान्ति का काल कहा जा सकता है,परन्तु वह काल जनमानस में बुद्धि-विहीनता का काल भी था। उस काल में बौद्ध भिक्षुओं और विहारों के महाप्रभुओं की तूती बोलती थी। दूसरी ओर समुद्रगुप्त के काल में अनपढ़ रूढ़िवादी ब्राह्मणों का बोलबाला था। परिणामस्वरुप दोनों काल देश और समाज को पतन की ओर द्रुतगति से ले जाने वाले सिद्ध हुए थे।समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया था,परन्तु यह ऐतिहासिक तथ्य है कि समुद्रगुप्त का अश्वमेघ यज्ञ सर्वथा असंगत रहा था। अश्वमेघ यज्ञ के, उद्देश्य से विपरीत परिणाम प्रकट हुए थे। यह यज्ञ व्यर्थ में धन और परिश्रम का व्यय ही कहा जा सकता है। केवल मात्र समुद्रगुप्त का कीर्तिस्तम्भ स्थापित करना, वह भी उसके अपने राज्य के महामात्य द्वारा संकलित , कितनी शोभा की बात हो सकती है, विचारणीय है। यह ऐसे ही है जैसे अशोक के काल में अनपढ़ समाज के निम्न वर्ग में से बने भिक्षुओं का लिखा इतिहास। यह कितना विश्वस्त होगा, ईश्वर ही बता सकता है।दोनों राज्यों के परिणाम भयंकर सिद्ध हुए थे। ऐसा क्यों ?
अशोक के राज्य का परिणाम था सफल विदेशीय आक्रमण। उस सीदियन आक्रमण द्वारा प्रचलित अवस्था को पलटकर ही निस्तेज किया जा सकता था। वैसा ही परिणाम गुप्त परिवार की प्रभुता से हुआ था।सीदियनों के आक्रमण से भी भयंकर हूण आक्रमण इस काल का परिणाम था।हमारा विचारित मत है कि दोनों कालों में समाज के अस्तित्व का हीन होना ब्राह्मणों के रूढ़िवादी व्यवहार के कारण ही था। उस व्यवहार में बुद्धि का किंचित् मात्र भी सहयोग नहीं था।
समुद्रगुप्त का तिथिकाल जो वर्तमान इतिहासकार मानते हैं, वह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य का काल 325 ईसा पूर्व माना जाता है। पुराणों से संकलित तिथिकाल के अनुसार यह 1502 ईसा पूर्व बनता है। इसी प्रकार समुद्रगुप्त का राज्यारोहण काल 333 ई. का बताया गया है। भारतीय प्रमाणों से समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी को विक्रम सम्वत् का आरम्भ करने वाला माना जाता है। इसका अभिप्राय हुआ कि समुद्रगुप्त लगभग 99 ई. पूर्व में राजगद्दी पर बैठा था। इसी प्रकार सब तिथियाँ बदल जाती हैं। अभिप्राय यह है कि भारतवर्ष का भी एक इतिहास है और उसके समझने का एक ढंग है। वर्तमान विश्वविद्यालयों के इतिहासकार भारतीय परमपराओं से सर्वथा अनभिज्ञ, राज्य आश्रय पर बगलें बजाते फिरते हैं। इसी प्रकार सिकन्दर के आक्रमण की बात है। इस बात के प्रमाण तो मिलते हैं कि सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार कर ली थी और झेलम नदी के तट पर पोरस से युद्ध हुआ था। परन्तु उसके बाद का वर्णन सिकन्दर के साथ आये इतिहासकार ने नहीं किया। एक यूनानी लेखक अरायन के अनुसार पोरस से सिकन्दर का युद्ध अनिर्णीत था। जीत किसी की नहीं हुई। सिकन्दर चौथे प्रहर थककर अपने डेरे पर चला गया था । वहाँ उसने पोरस को बुलाकर उससे सन्धि कर ली थी। उसके उपरान्त यह कहा मिलता है कि वह नौकाओं में व्यास नदी से लौट गया था। परन्तु झेलम और व्यास के बीच दो नदियाँ और पड़ती हैं, उनका लम्बा-चौड़ा क्षेत्र भी है। वह क्षेत्र जनशून्य और राज्य शून्य नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि झेलम नदी में ही नौकाएँ डाल सिकन्दर लौट गया था। उन दिनों झेलम का नाम बतिस्ता था। इसी को यूनानियों ने व्यास लिखा है। इसमें हमारा कथन यह है कि इस अनिर्णीत युद्ध के बाद पोरस के राज्यासीन रहने का अभिप्राय यही सिद्ध करता है कि सिकन्दर और उसकी सेना युद्ध से उपराम हो लौट गयी थी।
पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि महाभारत काल से लेकर गुप्त काल के ह्रास तक का इतिहास पुराणों में लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष का इतिहास लिखने वाले कहे जाने वाले विद्वान यहाँ की भाषा, भाव और पुराणों की शैली से अनभिज्ञ होने के कारण ऐसा लिख गये हैं, कि यह भारतवर्ष का वैभव काल था। भारतीय परंपरा के इतिहासकारों के अनुसार समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त ने शकों को सिन्ध पार भगाया था। दिल्ली में महरौली के समीप तथाकथित कुतुब मीनार के प्रांगण में लौह स्तम्भ में लिखे लेख के अनुसार वह विक्रम सम्वत् का आरम्भ काल था। यह समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरान्त चन्द्रगुप्त (विक्रम) के राज्य में हुआ था। यह राज्यारोहण के दूसरे वर्ष की बात है। रामगुप्त की मृत्यु के उपरान्त ही यह हो सका था। यह विक्रम सम्वत् पूर्व -12-13 वर्ष था। ईसा सम्वत् के अनुसार यह ई. पूर्व 69-70 वर्ष के लगभग होगा।
एक वंशावली जो एक विद्वान लेखक पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी ने पुराणों से संकलित की है, और जिसे विद्वतजनों ने स्वीकृति प्रदान की है, उसका सारांश कुछ इस प्रकार है ।
महाभारत युद्ध के उपरान्त मगध के राज्यों की तालिका पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी विज्ञ लेखक ने इस प्रकार लिखी है-
राजवंश कलि सम्वत् ईस्वी सम्वत् / ईस्वी पूर्व
वृहद् वंश 1 - 1001 3102 – 2101
प्रद्योत वंश 1001- 1139 2101 - 1964
शिशुनाक् वंश 1139 – 1501 1964 - 1602
पद्मनन्द वंश 1501 - 1602 1602 - 1502
मौर्य वंश 1602 - 1738 1502- 1365
शुंग वंश 1738 – 1850 1365 – 1253
इस तिथिकाल के अनुसार बुद्ध का जन्म लगभग 1285 कलि सम्वत् में अर्थात् ईसा से 1818 वर्ष पूर्व बनता है।
इसी तालिका के अनुसार समुद्रगुप्त का काल विक्रम पूर्व 42 से वि.पूर्व 2 तक बनता है। इसी गणना के अनुसार समुद्रगुप्त का राज्य हुआ ईसा पूर्व 99 से 59 तक।इतना और समझ लेना चाहिए कि भारतवर्ष के ह्रास का आरम्भ युधिष्ठिर के जुआ खेलने से पूर्व ही हो चुका था। वास्तव में जो कुछ जुआ खेलने में हुआ, उसका बीज पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा में निहित था। दोनों के गुरु थे द्रोणाचार्य और वह राज्य-सेवा में पल रहे पतित ब्राह्मण ही थे। द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य का पूर्ण जीवन राजाओं की चाटुकारी में व्यतीत हुआ था। यही महान् विनाश का आरम्भ कहा जा सकता है। तब से लुढकती सभ्यता हर्षवर्धन के काल के उपरान्त अस्त हो गयी प्रतीत होती है। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान युग भारतीयता की मध्य रात्रि का काल है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसे अन्धकार में मनुष्य कंचन और राँगा में भेद नहीं कर सकता, वैसे ही यही दशा अपने भारतवासियों की हो रही है। प्राचीन भारतीय धर्म और संस्कृति को राँगा समझा जा रहा है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के काल को भारतीय संस्कृति का मध्य दिवस काल कहा जा सकता है। प्रत्येक सफलता में ह्रास का बीज रहता है। यही उस यज्ञ में हुआ था। उसके उपरान्त चिकनी ढलवान् भूमि पर फिसलते पगों की भाँति ह्रास आरम्भ हुआ। हमारा यह कहना है कि अशोक का राज्यकाल और गुप्त परिवार का काल भारतीय संस्कृति का तीसरा प्रहर था। समाज द्रुतगति से रात्रि के अन्धकार की ओर जा रहा था। वर्तमान युग तो मध्य रात्रि ही माना जा सकता है। रात्रि के अन्धकार में टिमटिमाते दीपक ही प्रकाश का स्रोत प्रतीत होते हैं और उन्हीं को प्राप्त कर अपने को धन्य माना जाता है। यही बात इस समय हो रही है।
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