साप्ताहिक से दैनिक समाचार पत्र में परिणत दैनिक उगता भारत के प्रथम अंक में दिनांक - १७ जून २०१५ को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित -किसान और मनरेगा अधिनियम -अशोक “प्रवृद्ध”
किसान और मनरेगा अधिनियम
-अशोक “प्रवृद्ध”
गोंदल सिंह गाँव का एक लघु कृषक था और अपने गाँव में रहकर खेती एवं पशुपालन करते हुए अपनी आजीविका मजे में चला रहा था। संपन्न नही था फिर भी खुशहाल जीवन जी रहा था। गोंदल सिंह को खेती से बहुत प्यार था और किसान होने पर उसे गर्व था। वह कहता था - हम किसान अनाज न पैदा करें तो दुनिया भूख से मर जायेगी, जीवन में भोजन की आवश्यकता सबसे पहले और बाकी चीजें बाद में होती है। सत्य ही है, इतनी बडी दुनिया को अगर अनाज न मिले तो लोग पेट की आग शान्त करने के लिये एक दूसरे को मार कर खाने लगेंगे । गोंदल सिंह स्वयं अपनी और बच्चों की तरक्की के लिये नित नये सपने देखता रहता था। कहता बच्चों को पढा लिखा कर बडा आदमी बनाउंगा, चाहे मुझे जितनी मेहनत करनी पडे लेकिन मुझे अपनी गरीबी दूर करना ही है, बच्चों को पढ़ा - लिखाकर शिक्षित करना है।
सन 2006 में भारतवर्ष की कांग्रेसी सरकार ने विदेशियों के इशारे पर महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना (मनरेगा) अधिनियम देश में लागू की तो गोंदल सिंह बडा प्रसन्न हुआ कि अब गाँव के लडकों को शहरों मे मजदूरी करने और ईंट - भट्ठा में काम करने जाने की बजाय गाँव में ही रोजगार मिल सकेगा और गाँव की उन्नति भी होगी, लेकिन मनरेगा धरातल पर आते ही अन्य सरकारी योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ गयी । गाँव के लोग पंचायत सचिव , ग्राम प्रधान और मुखिया की मिली भगत से योजना में अपना नाम लिखवा लेते और बिना काम किये ही आधी मजदूरी झटक लेते और केन्द्र सरकार का गुणगान करते न थकते।
इधर योजना के दुष्प्रभाव के कारण गोंदल सिंह जैसे किसानों को खेती के लिये मजदूर मिलना मुश्किल होता जा रहा था, गाँव के मजदूर अब मनरेगा के बराबर मजदूरी व काम में ज्यादा सहूलियत माँग रहे थे । मरता क्या न करता ? गोंदल सिंह ने भी मजदूरों की बात मानते हुए उन्हे ज्यादा मजदूरी देनी शुरु कर दी । जिससे खेती की लागत तो बढ ही गयी, समय से काम भी न हो पाता। खेती में लगातार घाटा होने से गोंदल सिंह जैसे न जाने कितने किसान मनरेगा की भेंट चढ गये। मजदूरों की दिनानुदिन बढती हुई माँगो से तंग आ गोंदल सिंह और बहुत से अन्य किसानों ने अपने - अपने खेत साझा अधबटाई ( खेत को दुसरे कृषक को खेती करने के लिए दे देने पर किसान के द्वारा फसलोपाज में से आधा फसल अथवा उसका बाजार मूल्य जमीन मालिक को देने की प्रथा अधबटाई कहते हैं।)पर दे दिये। जब खेती बंद हुई तो जानवरों के लिये भूसा-चारा मिलना भी महंगा हो गया, लिहाजा गोंदल सिंह ने अपने पालतू जानवरों को भी एक -एक कर बेच दिया।
गोंदल सिंह के पास अब कोई विशेष काम नहीं था, तो उसकी संगति भी गाँव के नेता टाईप लोगों से हो गयी, उन लोगों ने कुछ ले - दे कर गोंदल सिंह का नाम पहले मनरेगा में निबंधन करवाया और फिर बीपीएल सूची में दर्ज करवा दिया । अब बिना कुछ किये आधी मजदूरी और लगभग मुफ्त मिलने वाले अनाज से उसके जीवन की गाडी चलने लगी थी। जो गोंदल सिंह अपने परिवार की उन्नति बच्चों की तरक्की की बात करता था, वह अब सरकारी योजनाओं से कैसे लाभ लिया जाये इसकी बात करता था। बच्चों को उसने उनके हाल पर छोड दिया था, कहता इनके भाग्य में लिखा होगा तो कमा-खा लेंगे।
मनरेगा ने गोंदल सिंह जैसे लाखों किसानों का जीवन जीने का तरीका बदल दिया ,जो गोंदल सिंह पहले मेहनत से अपने परिवार का जीवन बदलना चाहता था, वह अब भाग्य भरोसे बैठ गया था।
दैनिक उगता भारत, दिनाँक- १७ जून २०१५ |
-अशोक “प्रवृद्ध”
गोंदल सिंह गाँव का एक लघु कृषक था और अपने गाँव में रहकर खेती एवं पशुपालन करते हुए अपनी आजीविका मजे में चला रहा था। संपन्न नही था फिर भी खुशहाल जीवन जी रहा था। गोंदल सिंह को खेती से बहुत प्यार था और किसान होने पर उसे गर्व था। वह कहता था - हम किसान अनाज न पैदा करें तो दुनिया भूख से मर जायेगी, जीवन में भोजन की आवश्यकता सबसे पहले और बाकी चीजें बाद में होती है। सत्य ही है, इतनी बडी दुनिया को अगर अनाज न मिले तो लोग पेट की आग शान्त करने के लिये एक दूसरे को मार कर खाने लगेंगे । गोंदल सिंह स्वयं अपनी और बच्चों की तरक्की के लिये नित नये सपने देखता रहता था। कहता बच्चों को पढा लिखा कर बडा आदमी बनाउंगा, चाहे मुझे जितनी मेहनत करनी पडे लेकिन मुझे अपनी गरीबी दूर करना ही है, बच्चों को पढ़ा - लिखाकर शिक्षित करना है।
सन 2006 में भारतवर्ष की कांग्रेसी सरकार ने विदेशियों के इशारे पर महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना (मनरेगा) अधिनियम देश में लागू की तो गोंदल सिंह बडा प्रसन्न हुआ कि अब गाँव के लडकों को शहरों मे मजदूरी करने और ईंट - भट्ठा में काम करने जाने की बजाय गाँव में ही रोजगार मिल सकेगा और गाँव की उन्नति भी होगी, लेकिन मनरेगा धरातल पर आते ही अन्य सरकारी योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ गयी । गाँव के लोग पंचायत सचिव , ग्राम प्रधान और मुखिया की मिली भगत से योजना में अपना नाम लिखवा लेते और बिना काम किये ही आधी मजदूरी झटक लेते और केन्द्र सरकार का गुणगान करते न थकते।
इधर योजना के दुष्प्रभाव के कारण गोंदल सिंह जैसे किसानों को खेती के लिये मजदूर मिलना मुश्किल होता जा रहा था, गाँव के मजदूर अब मनरेगा के बराबर मजदूरी व काम में ज्यादा सहूलियत माँग रहे थे । मरता क्या न करता ? गोंदल सिंह ने भी मजदूरों की बात मानते हुए उन्हे ज्यादा मजदूरी देनी शुरु कर दी । जिससे खेती की लागत तो बढ ही गयी, समय से काम भी न हो पाता। खेती में लगातार घाटा होने से गोंदल सिंह जैसे न जाने कितने किसान मनरेगा की भेंट चढ गये। मजदूरों की दिनानुदिन बढती हुई माँगो से तंग आ गोंदल सिंह और बहुत से अन्य किसानों ने अपने - अपने खेत साझा अधबटाई ( खेत को दुसरे कृषक को खेती करने के लिए दे देने पर किसान के द्वारा फसलोपाज में से आधा फसल अथवा उसका बाजार मूल्य जमीन मालिक को देने की प्रथा अधबटाई कहते हैं।)पर दे दिये। जब खेती बंद हुई तो जानवरों के लिये भूसा-चारा मिलना भी महंगा हो गया, लिहाजा गोंदल सिंह ने अपने पालतू जानवरों को भी एक -एक कर बेच दिया।
गोंदल सिंह के पास अब कोई विशेष काम नहीं था, तो उसकी संगति भी गाँव के नेता टाईप लोगों से हो गयी, उन लोगों ने कुछ ले - दे कर गोंदल सिंह का नाम पहले मनरेगा में निबंधन करवाया और फिर बीपीएल सूची में दर्ज करवा दिया । अब बिना कुछ किये आधी मजदूरी और लगभग मुफ्त मिलने वाले अनाज से उसके जीवन की गाडी चलने लगी थी। जो गोंदल सिंह अपने परिवार की उन्नति बच्चों की तरक्की की बात करता था, वह अब सरकारी योजनाओं से कैसे लाभ लिया जाये इसकी बात करता था। बच्चों को उसने उनके हाल पर छोड दिया था, कहता इनके भाग्य में लिखा होगा तो कमा-खा लेंगे।
मनरेगा ने गोंदल सिंह जैसे लाखों किसानों का जीवन जीने का तरीका बदल दिया ,जो गोंदल सिंह पहले मेहनत से अपने परिवार का जीवन बदलना चाहता था, वह अब भाग्य भरोसे बैठ गया था।
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