आर्यावर्त: विशेष : पुण्यसलिला सरित्श्रेष्ठ सरस्वती आखिर कहाँ गई ?
विशेष : पुण्यसलिला सरित्श्रेष्ठ सरस्वती आखिर कहाँ गई ?
Edited By Rajneesh K Jha on सोमवार, 18 मई 2015
भारतीय जीवन एवं साधना में अप्रतिम महत्व रखने वाली सरस्वती भारतीय सभ्यता के उषाकाल से लेकर अद्यपर्यन्त अपने आप में ही नहीं,प्रत्युत अपनी अर्थ,परिधि एवं सम्बन्धों के विस्तार के कारण भी अत्यन्त महत्वपूर्ण रही हैlसरस्वती शब्द की व्युत्पति गत्यर्थक सृ धातु से असुन प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है शब्द सरस,जिसका अर्थ होता है गतिशील जलlसरस का अर्थ गतिशीलता के कारण जल भी हो सकता है,लेकिन केवल जल ही गतिशील नहीं होता,ज्ञान भी गतिशील होता हैlसूर्य-रश्मि भी गतिशील होती हैlअतः सरस का अर्थ ज्ञान, वाणी (अन्तःप्रेरणा की वाणी), ज्योति, सूर्य-रश्मि, यज्ञ ज्वाला, आदि भी किया गया हैlज्ञान के आधार पर सरस्वती का अर्थ सर्वत्र और सर्वज्ञानमय परमात्मा भी हो जाती हैlआदिकाव्य ऋग्वेद में सरस्वती नाम देवता (विभिन्न वैदिक देवता एक ही देव के भिन्न-भिन्न दिव्यगुणों के कारण अनेक नाम अर्थात सरस्वती मात्र देवता,परमात्मा का सूचक नाम मात्र है,दृश्य रूप भौतिक नदी विशेष नहीं है) तथा नदी वत दोनों ही रूपों में प्रयुक्त हुआ हैlसरस्वती शब्द का अर्थ करते हुए यास्क ने निरुक्त में लिखा है-
वाङ नामान्युत्तराणि सप्तपञ्चाशत् वाक्क्स्मात् वचेः l तत्र सरस्वतीत्येत्स्य नदीवद् देवतावच्चा निगमा भवन्ति l
तद्यद् देवतावदुपरिष्टातद् व्याख्यास्यामः l अथैतन्न्दीवत ll
-निरूक्त २/७/२३
अर्थात- वाक् शब्द के सत्तावन रूप कहे गये हैंlवाक् के उन सत्तावन रूपों में एक रूप सरस्वती हैlवेदों में सरस्वती शब्द का प्रयोग देवतावत् और नदीवत् आया हैlनदीवत् अर्थात नदी की भान्ति (नदी नहीं) बहने वालीlसायन एवं निघण्टुकार ने भी सरस्वती के नदी एवं देवता दोनों दोनों रूप स्वीकार किये हैंlयास्काचार्य की उक्ति सरस्वती – सरस इत्युदकनाम सर्तेस्तद्वती (निरूक्त ९/३/२४) से यह स्पष्ट नहीं होता कि उनका अभिप्राय नदी विशेष है अथवा सामान्य नदियों से अथवा जलाशयों से परिपूर्ण भूमि सेl फिर कतिपय विद्वानों ने इसे सरस्वती नाम की नदी विशेष अर्थ (रूप) में स्वीकार किया हैlऋग्वेद में यास्कानुसार केवल छः मन्त्रों में ही सरस्वती नदी रूप में वर्णित है,शेष वर्णन उसके देवता रूप विषयक हैंlऋग्वेद में सरस्वती का नाम प्रथम वाक् देवता के रूप में प्रयुक्त हुआ है या नदी के लिये यह आज भी विद्वानों के मध्य विवाद के विषय बना हुआ हैlयद्यपि मनुस्मृति १/२१ के अनुसार सरस्वती के देवता रूप की कल्पना ही पहले होनी चाहिये तथापि कतिपय विद्वानों के अनुसार बाद में देवता रूप के आधार पर ही नदी विशेष के लिये सरस्वती नाम प्रचलित हुआlउनके अनुसार ऋग्वेद की सरस्वती मात्र एक दिव्य अन्तःप्रेरणा की देवी, वाणी की देवी ही नहीं वरन प्राचीन आर्य जगत की सात नदियों में से एक भी हैl
वैदिक विचार
विद्वानों का विचार है कि ऋग्वैदिक काल में सिन्धु और सरस्वती दो नदियाँ थींlऋग्वेद में अनेक स्थलों पर दोनों नदियों का साथ-साथ वर्णन तो उल्लेख है ही विशालता में भी दोनों एक सी कही गईं हैंlफिर भी सिन्धु के अपेक्षतया सरस्वती को ही अधिक महिमामयी एवं महत्वशालिनी माना गया हैlऋग्वेद के अनुसार सरस्वती की अवस्थिति यमुना और शतुद्रि (सतलज) के मध्य (यमुने सरस्वति शतुद्रि) थीlऋग्वेद में सरस्वती के लिये प्रयुक्त विशेषण सप्तनदीरूपिणी, सप्तभगिनीसेविता, सप्तस्वसा, सप्तधातु आदि हैंlसरस्वती से सम्बद्ध ऋग्वेद में उल्लिखित स्थान अथवा व्यक्ति सभी भारतीय हैंlऋग्वेद ७/९५/२ में सरस्वति का पर्वत से उद्भूत हो समुद्रपर्यन्त प्रवाहित होने का उल्लेख मिलता हैlभूमि सर्वेक्षण के कई प्रतिवेदनों अर्थात रिपोर्टों से प्रमाणित होता है कि लुप्त सरस्वती कभी पँजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान से प्रवाहित होने वाली विशाल नदी थीlस्पेस एप्लीकेशनसेंटर और फिजिकल लेबोरेट्री द्वारा प्रस्तुत लैंड सैटेलाईट इमेजरी एरियल फोटोग्राफ्स से भी सरस्वती की ऋग्वैदिक स्थिति की पुष्टि होती हैl
ऋग्वेद में सरस्वती के उल्लेखों वाले मन्त्रों को दृष्टिगोचर करने से इस सत्य का सत्यापन होता है कि ऋग्वैदिक सभ्यता का उद्भव एवं विकास सरस्वती के काँठे में ही हुआ था,वह सारस्वत प्रदेश की सभ्यता थीlबाद में यह सभ्यता क्षेत्र विस्तार के क्रम में मुख्यतः पश्चिमाभिमुख होकर एवं कुछ दूर तक पूर्व की ओर बढती हैlसभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट से सिन्धु एवं उसके सहायिकाओं के तट पर पहुँचता है और इस सिलसिले में इसकी व्यापारिक गतिविधियों का व्यापक विस्तार होता हैlकहा जाता है कि सारस्वत प्रदेश के अग्रजन्माओं की आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का श्रेय सरस्वती नदी को ही थाlपशुपालक व कृषिजीवी जहाँ सरस्वती के तटीय वनों और उपजाऊ भूमि से आधिभौतिक उन्नति कर रहे थे,वहीँ ऋषि-मुनिगण इसके तट पर सामगायन कर याजिकीय अनुष्ठानों द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष कर रहे थेl
ऋग्वेद के सूक्तों से इस सत्य का सत्यापन होता है कि सरस्वती नदी नाहन पहाड़ियों से आगे आदिबदरी के निकट निकलकर पँजाब, हरियाणा, उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान में प्रवाहित होती हुई समुद्र में प्रभाष क्षेत्र में मिलती हैlइसकी स्थिति यमुना और शतुद्रि के मध्य (ऋग्वेद १०/७५/५) किन्तु दृषद्वती (चितांग) के पश्चिम (ऋग्वेद ७/९५/२) कही गई हैlइसकी उत्पति दैवी (असुर्या ऋग्वेद ७/९६/१) भी मानी गई हैlब्राह्मण ग्रन्थों,श्रौतसूत्रों एवं पुराणादि ग्रन्थों में सरस्वती का उद्गम स्थान प्लक्ष प्राश्रवण कहा गया हैlयमुना नदी के उद्गम स्थल को प्लाक्षावतरण कहा गया हैlऋग्वेद में सरस्वती सम्बन्धी (करीब) पैंतीस मन्त्र अंकित हैं,जिनमें से तीन ऋग्वेद ६/६१,ऋग्वेद ७/९५ और ७/९६ स्तुतियाँ हैंlविविध मन्त्रों में सरस्वती की अपरिमित जलराशि,अनवरत बदलती रहने वाली प्रचण्ड वेगवती धारा,भयंकर गर्जना,उससे होने वाले संभावित खतरों,महनीयता आदि के भी जीवन्त वर्णन हैंl(ऋग्वेद ६/६१/३, ६/६१/८, ६/६१/११,६/६१/१३)सरस्वती प्रचण्ड वेगवाली होने के साथ ही सर्वाधिक जलराशि वाली होने के कारण बाढ़ के समय इसका पाट इतना चौड़ा और विस्तृत हो जाता है कि यह आक्षितिज फैली हुई प्रतीत होती हैlऋग्वेद६/६१/७ में अंकित है कि सरस्वती कूल किनारों को तोड़ती हुई बहुधा अपना प्रवाह बदल लेती हैl
प्रसविणी सरस्वती
ऋग्वेद १०/६४/९ में में सरस्वती,सरयू सिन्धु की गणना बड़े नदों में हुई है जिसमें ऋग्वेद ७/३६/३ में सरस्वती ही सरिताओं की प्रसविणी कही गई हैlऋग्वेद ६/६१/१२ में अंकित है कि सरस्वती में सात नदियों के मिलने के कारण सप्तधातु एवं ऋग्वेद ६/६१/१० में सप्तस्वसा कही गई हैlऋग्वेद ७/९६/३ के अनुसार सरस्वती सदा कल्याण ही करती हैlसरस्वती का जल सदा और सबको पवित्र करने वाला हैlयह पूषा की तरह पोषक अन्न देने वाली हैlअन्यान्य नदियों की तुलना में यह सबसे अधिक धन-धान्य प्रदायिनी हैlऋग्वेद ७/९६/३ में यह अन्नदात्री, अन्न्मयी एवं वाजिनीवती कही गई हैlधन, समृद्धि, ज्ञान प्रदायिनी होने के कारण ही सरस्वती को वाजिनीवती कहा गया हैlसरस्वती के माध्यम से नहुष ने अकूत धन-सम्पदा अर्जित की थीlइसी कारण धन-धन्य प्राप्ति के लिये सरस्वती की प्रार्थना करने की परिपाटी बाद में चल पड़ीlसरस्वती का जल स्वच्छ एवं सुस्वादु होने के कारण अन्नोत्पादिका होने के परिणामस्वरूप यह कल्याणकारिणी एवं धन-धान्य प्रदायिनी कही गई हैlसरस्वती अग्रजन्माओं की भूमि प्रदायिनी कही गई हैlऋग्वेद ६/६१/३ एवं ८/२१/१८ के अनुसार सारस्वत प्रदेश की प्राचीनता सिद्ध होती हैlसरस्वती के तट पर एक प्रसिद्द राजा और पञ्चजन निवास करते हैं जिन तटवासियों को सरस्वती स्मृद्धि प्रदान करती हैlऋग्वेद ६/६१/७ के अनुसार वृत्र का संहार सरस्वती तट पर हुआ था जिसके कारण इसकी नाम वृत्रघ्नी भी हुईlसर्वप्रथम यज्ञाग्नि सरस्वती तट पर प्रज्वलित हुई थीlतटवासी भरतों ने सर्वप्रथम अग्नि जलाई थीlइसी कारण सरस्वती का एक नाम भारती भी हुईlसरस्वती तट से ही अग्नि का अन्यत्र विस्तार भी हुआlफलतः सरस्वती के साथ ही दृषद्वती और आपया के तटों पर भी यज्ञों का संपादन होने लगाlनदियों में सरस्वती की इतनी महिमा मणि गई है कि इसे नदीतमे ही नहीं अम्बितमे और देवितमे भी घोषित करते हुए कहा गया है –
अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती l
प्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिम्ब नस्कृधि ll
-ऋग्वेद २/४१/६
ऋग्वेद ७/९६/१ में सरस्वती की महता गायन करने वशिष्ठ को आदेश देते हुए ऋषि कहते हैं, हे वशिष्ठ! तुम नदियों से बलवती सरस्वती के लिये वृहद स्तोत्र का गायन करोlऋग्वेद ६/६१/१० के अनुसार सरस्वती के स्तुतिगायकों ने अपने पूर्वजों द्वारा भी इसके स्तुति का उल्लेख किया है l इससे भी सरस्वती तट पर वैदिकों के निवास की प्राचीनता का संकेत मिलता हैlकतिपय विद्वान कहते हैं, भरतों की आदिम वासभूमि सरस्वती तटवर्त्ती भूमि (सारस्वत प्रदेश) ही थी जहाँ उन्होंने सर्वप्रथम यज्ञाग्नि जलाई थीlमैकडानल के अनुसार भी सूर्यवंशियों की प्राचीन वासभूमि भी जलाई थी, किन्तु विद्वानों के अनुसार सरस्वती के उद्गम स्थान पर हिमराशि का गलकर समाप्त हो जाने, जलग्रहण क्षेत्र से ही अन्य नदियों के द्वारा सरस्वती के जल का कर्षण कर लिये जाने आदि भौगोलिक कारणों से ख्य्यातिप्राप्त और पुण्यतमा सरस्वती का प्रवाह बहुधा परिवर्तित होता रहता थाlसम्भवतः उद्गम स्थल से सरस्वती का जल यमुना ने ही सबसे अधिक कर्षित किया होगाlइसी कारण यह मान्यता बनी कि प्रयाग में यमुना के साथ ही गुप्त रूप से सरस्वती भी गंगा में मिलती हैlभौगोलिक कारणों से सरस्वती वैदिक काल में ही क्षीण होते-होते सूखने भी लगी थीlफलतः उस समय तक उसका जो धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व कायम हो चुका था वह तो आगे भी मान्य रहा,परन्तु उसका सामाजिक-आर्थिक,आधिभौतिक महत्व घटता गयाlउत्तर वैदिक कालीन साहित्यों में धार्मिक-आध्यात्मिक दृष्टियों से सरस्वती एवं उसके तटवर्ती स्थानों के उल्लेख अंकित हैं,लेकिन आधिभौतिक महत्व के साक्ष्यों का प्रायः अभाव ही हैlलाट्टायानी श्रौतसूत्र में कहा है –
सरस्वती नाम नदी प्रत्यकस्त्रोत प्रवहति, तस्याः प्रागपर भागौसर्वलोके प्रत्यक्षौ ,
मध्यमस्तभागः भूम्यन्तःनिमग्नः प्रवहति,नासौ केनचिद् तद्धिनशनमुच्यते ll
- लाट्टायन श्रौतसूत्र १०/१५/१
अर्थात - सरस्वती पश्चिमोभिमुख हो प्रवाहित होती हैlउसका आरम्भिक एवं अन्तिम भाग सबके लिये दृश्य हैlमध्यभाग पृथ्वी में अन्तर्निहित है जो किसी को भी दिखलाई नहीं पड़ताlलाट्टायन श्रौतसूत्र में उद्धृत इस सन्दर्भ से सरस्वती के लुप्त होने का संकेत मिलता हैlसरस्वती के मरुभूमि में समाहित होने अथवा सूखने के काल के सम्बन्ध में विद्वानों का अनुमान है कि ब्राह्मण ग्रन्थों के काल में रेतीले स्थलों में अन्तर्निहित हो गईlकुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि ऐतरेय ब्राह्मण के काल में अथवा उसके पूर्व ही सरस्वती सुख चुकी थीlविज्ञान के अनेकानेक नवीन सोच भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैंlब्राह्मण ग्रन्थों एवं श्रौत सूत्रों से ज्ञात होता है कि सरस्वती के तट पर धार्मिक-आध्यात्मिक कृत्यों का संपादन भी किया जाता है,थाlसरस्वती एवं दृषद्वती (चिनांग)के संगम पर भी अपां नपात इष्टि में पक्वचरू की आहुति देने का विधान भी अंकित हैlकात्यायन श्रौतसूत्र २४/६/६ के अनुसार सरस्वती दृषद्वती का संगम दृशद्वात्याय्यव कहा जाता थाlकात्यायन श्रौतसूत्र के ही २३/१/१२-१३ में अंकित है कि उक्त संगम पर ही अग्निकाम इष्टि भी संपादित होती थीlताण्ड्य ब्राह्मण २५/१६/११-१२ आपस्तम्ब के अनुसार सरस्वती तट पर तीन सारस्वत सत्र मित्र एवं वरुण के सम्मान में, इन्द्र एवं मित्र के सम्मान में, अर्यमा के सम्मान में किये जाते थेl
उद्गम स्थान
सरस्वती का उद्गम स्थान जैमिनीय ब्राह्मण ४/२६/१२ के अनुसार प्लक्ष प्रास्त्रवन, एवं आश्वलायन श्रौतसूत्र १२/६/१ के अनुसर प्लाक्ष प्रस्त्रवन कहा जाता हैlयमुना का उद्गम स्थल प्लाक्षावतरणभी इसके पास ही थाlमहाभारत वनपर्व १२९/१३-१४-२१-२३ से स्पष्ट भाष होता है कि यमुना क्ले उद्गम स्थल प्लाक्षातरण के निकट ही सरस्वती भी प्रवाहित थी, जसी स्थान पर सरस्वती भूमि के गर्त्त में अन्तर्निहित हुई वह ताण्डय ब्राह्मण २५/१०/६ के अनुसार विनशन (सम्प्रति कोलायत, बीकानेर के दक्षिण-पश्चिम-दक्षिण) कहा जाता थाlसरस्वती-प्रवाह के लुप्त होने को विनशन तथा कई बार इसकी धारा पुनः प्रकट हो जाती थी,जिसे उद्भेद कहा जाता थाlसरस्वती प्रवाह के लुप्त हो जाने की स्थिति में सरस्वती के सूखे तट पर विनशन में किसी धार्मिक अनुष्ठन अथवा यज्ञादि के दीक्षा लेने का विधान थाlकात्यायन श्रौतसूत्र में अंकित है कि दीक्षा शुक्ल पक्ष की सप्तमी को होती थीlसरस्वती के लुप्त होने के स्थान विनाशन से प्लक्ष प्रास्त्रवन की दूरी उन दिनों घुड़सवारी के माध्यम से चौवालीस दिनों में पूरी की जाती थीlअनुष्ठान करने वाले प्लक्ष प्रास्त्रवन पहुँच कर ही अनुष्ठान समाप्ति एवं कारपचव देश में प्रवाहित यमुना में (सरस्वती में जल होने पर भी उसमें नहीं) अवभृथ स्नान करने का विधान थाlकात्यायन श्रौतसूत्र १०/१०/१ के अनुसार कुरुक्षेत्र के परीण नामक समुद्रतटीय स्थान पर श्रौतयज्ञ किये जाते थेlआश्वलायन श्रौतसूत्र के अनुसार विनशन से प्रक्षिप्त शय्या की दूरी पर यजमानों के द्वारा एक दिन में व्यतीत किया जाता थाlऐतरेय ब्राह्मण ८/१ की गाथानुसार सरस्वती तट विनशन पर ऋषियों द्वारा सम्पादित सत्र से जन्म लिये (उत्पन्न) कवष नामक दासीपुत्र को प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाने के लिये मरुभूमि में छोड़ दिए जाने पर कवष ने अपां नपात (ऋग्वेद १०/३०) स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर उसके रक्षार्थ सरस्वती उसे घेरते हुए प्रकट हुई उसे परिसरक नाम से जाना जाता हैlमहाभारत वनपर्व ८३/७५ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य १५/२० में सरक कहा गया हैlमहाराज मनु के समय में सरस्वती एवं दृषद्वती के मध्य का प्रदेश देवकृतयोनि के नाम से जाना जाता हैl
पुराणादि ग्रन्थों में सरस्वती के नदी रूप की अपेक्षा देवतारूप को अत्यधिक महत्व प्रदान करते हुए कहा गया है कि सरस्वती का प्रवाह हालाँकि सूख गया था फिर भी उसका परम्परागत महत्व पौराणिक काल में भी कायम थाlभौगोलिक कारणों से सरस्वती के प्रवाह क्रम में हुए परिवर्तन को पुराणादि ग्रन्थों में शाप तथा वरदान की कथाओं से महिमामण्डित करने के साथ ही धार्मिक स्वरुप प्रदान किया गया हैlसरस्वती तटवर्ती कई स्थानों को तीर्थ रूप में वर्णन करते हुए उनके यात्राओं का जिक्र किया गया हैlमहाभारत में धौम्य पुलस्त्य, पाण्डव और बलराम की तीर्थयात्राएँ भी पुराणों की साक्ष्यता को ही प्रमाणित एवं पुष्ट करती हैlसरस्वती के नदी रूप का वर्णन महभारत वनपर्व अध्याय ८३, ८४, १२९ एवं शल्य पर्व अध्याय ३५-५५, एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य, ब्रह्म पुराण,कूर्म पुराण , पद्म पुराण, वृह्न्नारदीय पुराण, स्कन्द पुराण, वृह्द्धर्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृति खण्ड) आदि ग्रन्थों में अंकित हैंlमहभारत में पाण्डव तीर्थयात्रा के क्रम में कहा गया है कि यमुना के उद्गम स्थल प्लाक्षवतरण से पुण्यसलिला सरस्वती दिखलाई पडती हैlइससे स्पष्ट पत्ता चलता है कि सरस्वती का उद्गम स्थल प्लक्ष प्रास्त्रवण यमुना के उद्गम स्थल प्लाक्षावतरण के नजदीक ही थीlवामन पुराण सरोवर महात्म्य ११/३ एवं महाभारत वनपर्व ८४/७ एवं शल्य पर्व ५४/११ के अनुसार सरस्वती की उत्पति के सम्बन्ध सौगन्धिक वन के आगे प्लक्ष (पांकड़) वृक्ष की जड़ की बांबी प्लक्ष प्रास्त्रवण से कही गई हैl महाभारत शल्य पर्व ४२/३० एवं वामन पूर्ण सरोवर महात्म्य १९/१३ में सरस्वती को ब्रह्मा की सरोवर से उत्पन्न होना भी कहा हैl
पुराणों में वेदों की भान्ति प्लक्ष प्रास्त्रवण तीर्थरूप में स्वीकृत है लेकिन ब्रह्मा का सरोवर इस रूप में मान्य न हो सका हैlब्रह्म पुराण में सरस्वती नदी को अग्नि ने स्पष्टतः ब्रह्मा की कन्या तान्देवान्कन्या कहा है इसके साथ ही ब्रह्मा ने इसे स्वीकार भी किया हैl(ब्रह्म पुराण १०/२०१, २०३, २०४) l महाभारत शल्य पर्व ३५/७७ एवं वन पर्व ८२/६० के अनुसर ब्रह्मा के सरोवर से उद्भुत पश्चिमाभिमुख हो प्रवाहित होती हुई सरस्वती पश्चिमी समुद्र में जिस स्थान पर मिलती थी,वह सरस्वती समुद्र संगम तीर्थ के नाम से विख्यात थाlब्रह्म पुराण १०१/२१० के अनुसार भी अग्नि को समुद्र तक ले जाने की पौराणिक आख्यान से भी सरस्वती का समुद्र से मिलना सिद्ध होता हैlसरस्वती के द्वारा अग्नि को समुद्र तक पहुँचाये जाने की यह कथा थोड़े अन्तर से ब्रह्मपुराण में भी अंकित है तथा सरस्वती के सूखने का एक कारण अग्नि को समुद्र तक पहुँचाया जाना भी माना गया हैl
ऋग्वेद की भान्ति ही पुराणों में भी सरस्वती को महानदी,हजारों पर्वतों को विदीर्ण करने वाली,सर्व लोगों की माता आदि कहा गया हैlमहाभारत शल्य पर्व ३८/२२ एवं वृहन्नारदीय पुराण १/८४/८० के अनुसार सरस्वती का उद्गम स्थल हिमालय किवां हिमालय का रमणीय शिखर हैlवामन पुराण सरोवर महात्म्य १३/६-८ एवं वृहन्नारदीय पुराण २/६४/१९ मे अंकित है कि सरस्वती पहाड़ों से उत्तर द्वैतवन से होती हुई कुरुक्षेत्र के रन्तुक नामक स्थान से पश्चिमोभिमुख होकर प्रवाहित होती हैlकुरुक्षेत्र में प्रवाहित होने वाली अन्य नदियाँ बरसाती हैं लेकिन सरस्वती में सालों भर जल प्रवाहित रहता हैlविद्वानों के अनुसार कुरुक्षेत्र से पश्चिमी समुद्र के बीच सरस्वती का प्रवाह रेगिस्तान में खो चुका था,फिर भी अनेकानेक स्थलों पर उपलब्ध उसके अवशेषों को तीर्थों की मान्यता मिल चुकी थीlप्राचीन समय में द्वारावती से कुरुक्षेत्र तक जाने का प्रमुख मार्ग सरस्वती तट के साथ-साथ ही थाlभागवतपुराण में दो बार श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर से द्वारिका और दूसरी बार द्वारिका से हस्तिनापुर आने के समय इस मार्ग का वर्णन अंकित हैlबलराम की द्वारिका से कुरुक्षेत्र की तीर्थयात्रा का मार्ग भी यही रहा हैlइन यात्राओं के क्रम में प्रभास तीर्थ, चमसोद्भेद, शिवोद्भेद, नागोद्भेद, शशयान,उद्पान अथवा सरस्वती कूप,विनशन, सुभूमिक अथवा गन्धर्ववती तीर्थ, गर्गस्त्रोत, शंखतीर्थ, द्वैतवन,नागधन्वा, द्वैपायन सरोवर तीर्थ आदि का नाम महाभारत के वनपर्व एवं शल्य पर्व में अंकित हैंlइन तीर्थों में चमसोद्भेद,शिवोद्भेद और नागोद्भेद ऐसे स्थल हैं जहाँ लुप्त सरस्वती पुनः प्रकट हुई थीlविद्वान कहते हैं, सरस्वती का पराचिन मार्ग यही है जो सूख जाने पर भी कतिपय विशिष्टताओं के कारण तीर्थ रूप में मान्य हो गयेlउद्पान अथवा सरस्वती कूपतीर्थ के सम्बन्ध में महाभारत शल्य पर्व ३५/९० के अनुसार वहाँ औषधियाँ (वृक्ष लताओं) की स्निग्धता और भूमि आर्द्रता से सरस्वती का अनुमान होता हैl शल्य पर्व के अध्याय ४२ के अनुसार वशिष्ठोद्वाह (सरस्वती-अरुणा संगम) से सरस्वती तीर्थ (विश्वामित्र आश्रम) तक सरस्वती द्वारा वशिष्ठ को प्रवाहित कर ले जाने से इसके वेगवती होने का प्रमाण मिलता है लेकिन विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठोद्वाह में सरस्वती का जल एक वर्ष के लिये अपवित्र एवं रक्तयुक्त हो जाता हैlमहाभारत शल्यपर्व ४३/१६ एवं वामन पुराण (स० म०) १९/३० के अनुसार ऋषियों के वरदान से सरस्वती नदी पुनः पवित्र और शुद्ध हो गईlइसी प्रकार महाभारत शल्य पर्व ४३/६ एवं वमन पुराण सरोवर महात्म्य १९/३० में पश्चिम-दक्षिण अभिमुखी सरस्वती के वैसे ही किसी घटना के कारण नागधन्वा तीर्थ से पूर्वाभिमुख होने की कथा भी अंकित हैlइसे आलंकारिक रूप में नैमिषारण्यवासी ऋषियों पर सरस्वती की कथा के रूप में महाभारत शल्य परत्व ३७/३६-६० में कहा गया हैl
विद्वानों के अनुसार सरस्वती-प्रवाह के किन्हीं भौतिक कारणों के परिणामस्वरुप सूख जाने, दूषित एवं शुद्ध होने की कथाओं को पुराणों में शाप एवं वरदान की कथाओं से महिमामण्डित किया गया हैlब्रह्मपुराण १०१/११ के अनुसार उर्वशी के आग्रह पर ब्रह्मसुता सरस्वती पुरुरवा से मिलीlपुरुरवा के साथ सरस्वती के मेल-जोल और उनके घर आने-जाने की बात ब्रह्मा )पिता को अनुचित लगीlइस पर उन्होंने सरस्वती को महानदी होने का शाप दे दियाlइसी अध्याय के सोलहवें श्लोक में ब्रह्मा के शाप से शाप-मोचन हेतु प्राप्त वरदान के कारण सरस्वती के दृश्य एवं अदृश्य दो रूपों की हो जाने की कथा हैlब्रह्मवैवर्त पुराण में अंकित है कि देवी सरस्वती को गंगा के शाप के कारण नदी रूप में अवतरित होना पद थाlमहाभारत शल्य पर्व ३७/१-२ में विनशन तीर्थ के वर्णन में सरस्वती-प्रवाह के सूखने का कारण दुष्कर्म परायण शूद्रों और आभीरों के प्रति द्वेष की कथा अंकित हैlशान्ति पर्व १८५/१५ में सरस्वती के चारों वर्णों के लिये एकमात्र देवी कहा गया हैlमहाभारत में ही अन्यत्र सरस्वती के सूखने का कारण उतथ्य ऋषि का शाप भी कहा हैlमहाभारत पुराणादि ग्रन्थों में ऋषियोंके आह्वान पर विभिन्न स्थानों पर सरस्वती के प्रकट होने की कथा कही गई हैlइसके साथ ही विविध स्थानों प्रकट उन छोटी नदी-कल्याओं को सरस्वती नदी की पवित्रता, महता आदि के साथ जोड़ा गया हैlमहाभारत शल्य पर्व अध्याय ३८ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य अध्याय १६ में ब्रह्मा के आह्वान पर पुष्कर में सुप्रभा,सत्रयाजी मुनियों के कहने पर नैमिशारण्य में कांचनाक्षी, गय के आह्वान पर गया में विशाला, उद्दालक आदि ऋषियों के आह्वान पर उत्तर कोशल में मनोरमा, कुरु के आह्वान पर कुरुक्षेत्र में सुरेणु तथा दक्ष के आह्वान पर गंगाद्वार, वाशिष्ठ के आह्वान पर कुरुक्षेत्र में ओधवती तथा ब्रह्मा के आह्वान पर हिमालय में विमलोदका नाम से सरस्वती के प्रकट होने की कथा अंकित हैlमंकणक ऋषि ने उपर्युक्त सातों सरस्वतियों (नदियों) को कुरुक्षेत्र में आह्वान कर जिस स्थान पर स्थापित किया था वह सप्त सरस्वती तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हैl
वैदिक साहित्यों में अंकित सरस्वती नदी को पौराणिक काल में सूख जाने के पश्चात पुराणादि ग्रन्थों में अनेकानेक स्थानों पर पुण्यसलिला एवं सरित्श्रेष्ठ कहते हुए अत्यन्त महता प्रदान की गई है तथा पुराणों में ही सरस्वती के देवी रूप में मान्यता भी पूर्णता को प्राप्त होती हैlअनेक ऋषियों के स्तुति इसके प्रमाण ही हैंlमहाभारत शल्य पर्व अध्याय ४२ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य अध्याय १९ में वशिष्ठ ऋषि सरस्वती नदी को स्तुति करते हुए उसे पुष्टि,कीर्ति, धृत्ति, बुद्धि, उमा,वाणी और स्वाहा,क्षमा, कान्ति,स्वधा आदि जगत् को अपने अधीन रखने वाली एवं सभी प्राणियों में चार रूपों- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी में निवास करने वाली कहा हैlयह स्तुति सरस्वती को नदी रूप की अपेक्षा देवता रूप को ही महिमामण्डित करता हैl
वेद-पुराणादि ग्रन्थों में अंकित इन वर्णनों से कतिपय विद्वानों के अनुसार सरस्वती मूलतः नदी थी जो हिमालय से निकलकर पश्चिमी समुद्र में जा मिलती थीlकालान्तर में भौगोलिक कारणों से सरस्वती सूख गई फिर भी उसकी दृश्य भौतिक नदी रूप से होने वाले अनगिनत लाभों को देखते हुए वैदिक एवं पौराणिक श्लोकों में उसे नदीतमे और अम्बितमे ही नहीं देवितमे भी स्वीकार किया गया हैlधीरे-धीरे सरस्वती नदी रूप की अपेक्षा देवता रूप में ही अधिक स्वीकृत, अंगीकृत और आत्मार्पित की गई,इसके साथ ही सरस्वती की देवी रूप ही प्रमुखता प्राप्त कर लोक आराध्या बन गई और वर्तमान में मार्ग शीर्ष अर्थात माघ मास के पञ्चमी,जिसे वसन्तपञ्चमी के नाम से जाना जाता है, को अत्यन्त धूम-धाम के साथ समारोहपूर्वक देवी सरस्वती की प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चा की जाती है l
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