हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता है
आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं के विरोधी , हिन्दुत्व विद्वेषी , विदेशी , विधर्मियों ने आर्य सभ्यता - संस्कृति , साहित्य - भाषा ,हिन्दू देवी - देवताओं का उपहास कर अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भारतीय पुरातन ग्रंथों में छेड़ - छाड़ के साथ ही अनेक प्रकार की विभ्रांति फ़ैलाने का प्रयास किया है। वैदिक ग्रंथों के अनुसार तैंतीस कोटि अर्थात तैंतीस प्रकार के वैदिक देवता सर्वसिद्ध हैं , परन्तु वेद और आर्य सनातन विरोधियों ने कोटि का अर्थ करोड़ बतलाकर हिन्दुओं में तैंतीस करोड़ देवी - देवता होने का असत्य प्रचार किया। परिणामस्वरूप आम जन में यह विभ्रांति घर कर गई है कि हिन्दुओं में तैंतीस करोड़ देवी - देवता में श्रेष्ठ , पूजनीय और श्रेष्ठ उपास्य कौन है ?
तैंतीस कोटि देवी - देवता के सम्बन्ध में वैदिक विश्लेषण -
देवता शब्द का वास्तविक अर्थ
देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा घोतनाद्वा, घुस्थानो भवतीति व । । : निरुक्त अ० ७ । खं० १५
अर्थात दान देने से देव नाम पड़ता है । और दान कहते है अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना ।
दीपन कहते है प्रकाश करने को, धोतन कहते है सत्योपदेश को, इनमे से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है कि जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है , तथा विद्वान मनुष्य भी विधादि पदार्थों के देने वाले होने से देव कहलाते है ।
दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सुर्यादि लोको का नाम भी देव है ।
देव शब्द में 'तल्' प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है ।
नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्शत् : यजुर्वेद अ० ४० । मं० ४
इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है । जोकि श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , जीभ , नाक और मन , ये छ : देव कहाते है । क्योकि शब्द , स्पर्श, रूप, रस, गंध , सत्य तथा असत्य आदि अर्थों का इनके प्रकाश होता है अर्थात इन्ही ६ इन्द्रियों से हमें उपरोक्त ६ लक्षणों (शब्द , स्पर्श, रूप .....) का ज्ञान होता है ।
देव कहने का अभिप्राय ये नही की श्रोत्र , त्वचा , नेत्र ... आदि पूजनीय हो गये .
मातृदेवो भव , पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव । प्रपा ० । अनु ० ११
माता पिता , आचार्य और अतिथि भी पालन , विद्या और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते है वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करने वाला है , सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव है , अन्य कोई नही । इसमें कठोपनिषद का भी प्रमाण है :
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विधुतो भान्ति कुतोSयमग्नि : ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । ।
-कठ ० वल्ली ५ । मं ० १५
सूर्य , चन्द्रमा , तारे , बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नही कर सकते , किन्तु इन सबका प्रकाश करने वाला एक वही है क्योकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा है । इसमें यह जानना चाहिए कि ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतंत्र प्रकाश करने वाला नही है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव है ।
अब ३३ देवता (न कि करोड़) के विषय में देखा जाये -
ये त्रिंशति त्रयस्परो देवासो बर्हिरासदन् | विदन्नह द्वितासनन् ||
ऋग्वेद अ ० ६ । अ ० २ । व० ३५ । मं ० १
त्रयस्त्रिं;शतास्तुवत भूतान्यशाम्यन् प्रजापति : परमेष्ठय्द्हिपतिरासीत् ||
यजुर्वेद अ० १४ मं० ३१
त्रयस्त्रिं;शत् अर्थात व्यवहार के ये तैंतीस (33) देवता है :
8 (आठ) वसु ,
11 (ग्यारह) रूद्र ,
12 (बारह) आदित्य ,
1 (एक) इन्द्र ओर
1 (एक) प्रजापति |
उनमें से 8 वसु ये हैं - अग्नि , पृथिवि , वायु , अन्तरिक्ष , आदित्य , घौ: , चन्द्रमा ओर नक्षत्र |
इनके नाम वसु इसलिये है कि सब पदार्थ इन्ही में वास करते है और ये ही सबके निवास करने के स्थान है ।
११ रूद्र ये कहलाते हैं - जो शरीर में दश प्राण है अर्थात प्राण, अपान , व्यान , समान , उदान , नाग , कुर्म , कृकल , देवदत्त, धनज्जय और १ १ वां जीवात्मा । क्योंकि जब वे इस शरीर से निकल जाते है तब मरण होने से उसके सब सम्बन्धी लोग रोते है । वे निकलते हुए उनको रुलाते है , इससे इनका नाम रूद्र है ।
इसी प्रकार आदित्य 1२ महीनो को कहते है, क्योकि वे सब जगत के पदार्थों का आदान अर्थात सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते है , इसी से इनका नाम आदित्य है ।
ऐसे ही इंद्र नाम बिजली का है , क्योकि वह उत्तम ऐश्वर्य की विधा का मुख्य हेतु है और यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहते है की उससे वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है । तथा पशुओं की यज्ञसंज्ञा होने का यह कारण है कि उनसे भी प्रजा का जीवन होता है । ये सब मिलके अपने दिव्यगुणों से ३ ३ देव कहाते है ।
इनमे से कोई भी उपासना के योग्य नही है, किन्तु व्यवहार मात्र की सिद्धि के लिए ये सब देव है, और सब मनुष्यों के उपासना के योग्य तो देव एक ब्रह्म ही है ।
स ब्रह्मा स विष्णु : स रुद्रस्य शिवस्सोअक्षरस्स परम: स्वरातट । -केवल्य उपनिषत खंड १ । मंत्र ८
सब जगत के बनाने से ब्रह्मा , सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु , दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से रूद्र , मंगलमय और सबका कल्याणकर्ता होने से शिव है ।
मित्रों !! आर्य समाजियों और अन्य धर्मद्वेषियों के घोर कुतर्क से क्षुब्ध होकर आज हम आपके समक्ष शास्त्रों के आधार पर यह सिद्ध करने जा रहे हैं कि देवता वास्तव में 33 करोड़ ही हैं। 33 प्रकार के नहीं।
ReplyDeleteआम तौर पर जो जन यह समझते हैं कि 33 कोटि शब्द में कोटि का अर्थ 'प्रकार' है, वे अपनी बात के समर्थन में निम्न बाते करते हैं।
भ्रमपूर्ण कुतर्क :---
उनका कहना है कि
हिन्दू धर्म को भ्रमित करने के लिए अक्सर देवी और देवताओं की संख्या 33 करोड़ बताई जाती रही है। धर्मग्रंथों में देवताओं की 33 कोटि बताई गई है ( करोड़ ) नहीं ।
जिस प्रकार एक ही शब्द को अलग अलग स्थान पर प्रयोग करने पर अर्थ भिन्न हो जाता है ।उसी प्रकार
देवभाषा संस्कृत में कोटि शब्द के दो अर्थ होते हैं।
कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता है ।
लेकिन यहां कोटि का अर्थ
प्रकार है, करोड़ नहीं ।
इस बात के समर्थन में वे यह भी कहते हैं कि ग्रंथों को खंगालने के बाद कुल 33 प्रकार के देवी-देवताओं का वर्णन मिलता है ।
ये निम्न प्रकार से हैं:-
12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं ।
कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं।
12 आदित्य:-
1.अंशुमान, 2.अर्यमा, 3.इन्द्र, 4.त्वष्टा, 5.धाता, 6.पर्जन्य, 7.पूषा, 8.भग, 9.मित्र, 10.वरुण, 11.विवस्वान और 12.विष्णु।
8 वसु:- 1.अप, 2.ध्रुव, 3.सोम, 4.धर, 5.अनिल, 6.अनल, 7.प्रत्यूष और 8. प्रभाष।
11 रुद्र :- 1.शम्भु, 2.पिनाकी, 3.गिरीश, 4.स्थाणु, 5.भर्ग, 6.भव, 7.सदाशिव, 8.शिव, 9.हर, 10.शर्व और 11.कपाली।
2 अश्विनी कुमार:- 1.नासत्य और 2.दस्त्र
कुल : 12+8+11+2=33
33 देवी और देवताओं के कुल के अन्य बहुत से देवी-देवता हैं: सभी की संख्या मिलकर भी 33 करोड़ नहीं होती, लाख भी नहीं होती और हजार भी नहीं। वर्तमान में इनकी पूजा होती है।
इनके कुतर्क का खंडन :-
प्रथम तो कोटि शब्द का अर्थ करोड़ भी है, और प्रकार भी है, इसे हम अवश्य स्वीकार करते हैं, परंतु यह नहीं स्वीकार करते कि यहाँ कोटि का अर्थ करोड़ न होकर प्रकार होगा।
पहले तो कोटि शब्द को समझें। कोटि का अर्थ प्रकार लेने से कोई भी व्यक्ति 33 देवता नहीं गिना पायेगा। कारण, कि स्पष्ट है, कोटि यानी प्रकार यानी श्रेणी। अब यदि हम कहें कि आदित्य एक श्रेणी यानी प्रकार यानी कोटि है, तो यह कह सकते हैं कि आदित्य की कोटि में बारह देवता आते हैं, जिनके नाम अमुक अमुक है। लेकिन आप ये कहें कि सभी बारह अलग अलग कोटि हैं, तो ज़रा हमें बताएं कि पर्जन्य, इंद्र और त्वष्टा की कोटि में कितने सदस्य हैं ? ऐसी गणना ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि कोटि कोई हो सकता है, तो वह आदित्य है। आदित्य की कोटि में बारह सदस्य, वसु की कोटि या प्रकार में 8 सदस्य आदि आदि। लेकिन यहाँ तो एक एक देवता को एक एक श्रेणी कह दिया है कुतर्कियों ने।
द्वितीय, उन्हें कैसे ज्ञात कि यहाँ कोटि का अर्थ प्रकार ही होगा, करोड़ नहीं ? प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, योनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ़्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानि श्रेणियाँ हैं, जिसमें इतने इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। देव योनि में मात्र यही 33 देव नहीं आते। इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेकों यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गन्धर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां होती हैं देवों में। जिनमें से दो तीन हज़ार के नाम तो प्रत्यक्ष ऊँगली पर गिनाये जा सकते हैं।
शुक्ल यजुर्वेद ने कहा :- अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्रा देवतादित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता।
अथर्ववेद में आया है :- अहमादित्यरुत विश्वेदेवै।
इसमें अग्नि और वायु का नाम भी देवता के रूप में आया है। अब क्या ऊपर की फ़र्ज़ी 33 देव नामावली में ये न होने से देव नहीं गिने जायेंगे ? मैंने ये नहीं कह रहा कि ये ऊपर के गिनाये गए 33 देवता नहीं होते। बिलकुल होते हैं। लेकिन इनके अलावा भी करोड़ों देव हैं।
भगवती दुर्गा की 5 प्रधान श्रेणियों में 64 योगिनियां हैं। हर श्रेणी में 64 योगिनी। इनके साथ 52 भैरव भी होते हैं। सैकड़ों योगिनी, अप्सरा, यक्षिणी के नाम मैं बता सकता हूं। 49 प्रकार के मरुद्गण और 56 प्रकार के विश्वेदेव होते हैं। ये सब कहाँ गए ? इनकी गणना क्यों न की गयी ?
ReplyDeleteइनके कुतर्क का पुनः खंडन :-
यदि कश्यप आदि को आप इसीलिए देव नहीं मानते क्योंकि ब्रह्मा के द्वारा इनका प्राकट्य हुआ है सो ये सब ब्रह्मरूप हुए सो इनकी गिनती नहीं होगी, तो कश्यप के द्वारा प्रकट किये गए 12 आदित्य और 8 वसु तथा 11 रुद्रो को आप कश्यपरूप मान कर छोड़ क्यों नहीं देते ? इनकी गिनती के समय आपकी प्रज्ञा कहाँ गयी ?
यदि सारे रूद्र शिव के अवतार हैं, स्वयं हनुमान जी भी हैं, तो क्या आप पार्वती को हनुमान जी की पत्नी कह सकते हैं ? क्यों नही ? इसीलिए क्योंकि हनुमान रुद्रावतार हैं। उस समय अवतार यानी वही ऊर्जा होने पर भी स्वरूपतः और उद्देश्यतः भिन्न हैं। ऐसे ही समग्र संसार नारायण रूप होने पर भी स्वरूपतः और उद्देश्यतः भिन्न है। इसी कारण आप सीता को कृष्ण पत्नी और रुक्मिणी को राम पत्नी नहीं कह सकते। क्योंकि अभेद में भी भेद है। और जो सबों के एक होने की बात करते हैं वे यदि इतने ही बड़े ब्रह्मज्ञानी हैं तो क्या उन्हें शिव और विष्णु की एकाकारता नहीं दिखती ? शिव और विष्णु में इन्हेंभेद दीखता है इसलिए इन्हें अलग अलग गिनेंगे, और राम और विष्णु में अभेद दीखता है सो इन्हें नहीं गिनेंगे। वाह री मूर्खता !! समग्र संसार ही विष्णुरूप है, रुद्ररूप है, देवीरूप है। भेद भी है और अभेद भी है। लेकिन यदि अभेद मानते हो फिर ये तो 33 देव गिना रहे हो ये भी न गिना पाओगे । क्योंकि जब विष्णु के अवतार राम और कृष्ण को अभेद मानकर नहीं गिन रहे, सती के दस महाविद्या अवतार को नहीं गिन रहे तो फिर शिव जी के 11 रूद्र अवतार को किस सिद्धांत से गिन रहे हो ? और यदि एक मानने का परिणाम देखना चाहते हो तो कमला महाविद्या के साथ धूमावती का या फिर मातंगी के साथ महिषमर्दिनी का मन्त्र जप कर देखना । जिन्दा बचे तो आगे बात करेंगे। सभी ग्रामदेव, कुलदेव, अजर आदि क्षेत्रपाल, ये सबको कौन गिनेगा ? ये छोडो, इस 33 वाली गणना में तो गणेश, कार्तिकेय, वीरभद्र, अग्नि, वायु, कुबेर, यमराज जैसे प्रमुख देवों को भी नहीं गिना गया।
वेदों में कही कहीं तेरह देवता की भी बात आई है। और कहीं कहीं 36 देवता की भी चर्चा है। 3339 और 6000 की भी चर्चा है। अकेले वालखिल्यों की संख्या 60000 है। तो वहाँ इन 33 में से कुछ को लिया भी गया है और कुछ को नहीं भी। तो क्या वह असत्य है ? बिलकुल नहीं। जैसे जहाँ मनुष्य की चर्चा हो वहाँ आप केवल उनका ही नाम लेते हैं, जिसका उस चर्चा से सम्बन्ध हो, सबों का नहीं। वैसे ही जहाँ जैसे प्रसंग हैं वहाँ वैसे ही देवों का नाम लिया गया है। इसका अर्थ ये नहीं। कि जिनकी चर्चा नहीं की गयी, या अन्यत्र की गयी, उसका ककी अस्तित्व ही नहीं। इस 33 की श्रेणी में गरुड, नन्दी आदि का नाम नहीं जबकि वेदों में तो है। विनायक की श्रेणी में, वक्रतुण्ड के श्रेणी में गणेश जी के सैकड़ों अवतार के नाम तंत्र में आये हैं।
हाँ 33 कोटि देव की बात है ज़रूर और कोटि का अर्थ करोड़ ही है। क्योंकि देवता केवल स्वर्ग में नहीं रहते। उनके सैकड़ों अन्य दिव्यलोक भी हैं। और ऐसे कहा जाय तो फिर सभी एक रूप होने से सीधे ब्रह्म के ही अंश हैं तो ये 33 भी गिनती में नहीं आएंगे। फिर वैसे तो हम सब भी गिनती में नहीं आएंगे। सभी भारतीय ही हैं तो अलग अलग क्यों गिनते हैं ?
देवता 33 करोड़ ही हैं और उनमें से मैं आपको व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क करने पर हज़ारों में नाम बता सकता हूँ। इस लेख को हर जगह अग्रेषित और साझा करके इसी रूप में फैला दीजिये ताकि धर्म का यह सत्य सबों के सामने आ सके।
लेखक :- श्रीभागवतानंद गुरु (Shri Bhagavatananda Guru)
Actually Bharat ki Satyug and Tretayug ki population 33 crore thi. Wo sabhi Deaviya Attama thi.
ReplyDelete