Wednesday, September 11, 2013

बाजारवाद और विज्ञापनबाजी से प्रभावित हो रहे माता- पिता, गुरू ,मित्रादि रिश्ते - अशोक "प्रवृद्ध"

बाजारवाद और विज्ञापनबाजी से प्रभावित हो रहे माता- पिता, गुरू ,मित्रादि रिश्ते
              अशोक "प्रवृद्ध"
आज बाजारवाद और विज्ञापनबाजी का युग है । वर्तमान में संसार का हर
काम और समाज का हर रिश्ता बाजार और विज्ञापन से प्रभावित
होता नजर आ रहा है।मैकाले की आङ्ग्ल शिक्षा नीति से शिक्षित भारतीय
समाज वैदिक ज्ञान से वंचित होकर
बाजारवाद और विज्ञापनबाजी के प्रभाव में आकर पश्चिमी सभ्यता -
संस्कृति के अन्धानुकरण में अपने आपको गौरवान्वित मह्सूस करनें लगा है।
यही कारण है कि भारतीय समाज अपने सर्वाधिक पुराने अर्थात
आदि सनातन काल से चले आ रहे रिश्तों और उसकी महत्ता को भूलने
लगा है और पश्चिमी सभ्यता और बाजार के द्वारा विज्ञापन के माध्यम से
थोपे गए रिश्तों को महत्व दे रहा है।
पुरातन भारतीय वैदिक मान्यतानुसार माता-पिता, गुरू , मित्र,पूर्वज,
परिजन और राष्ट्र ईश्वर की भांति सदैव स्मरणीय और वन्दनीय हैं । इनके
प्रति आदर,सम्मान और कृतज्ञताज्ञापन के लिए कोई एक दिन की नियत
समय सीमा कदापि नहीं हो सकती है और न ही इसे किसी एक दिन
की समय सीमा में बाँधा ही जा सकता है।परन्तु बड़े ही खेद की बात है
कि पाश्चात्य सभ्यत्ता- संस्कृति की भोगवादी परम्परा के वाहक बाजार
और विज्ञापन के प्रभाव में आकर आज भारतीय समाज
अपनी नित्यप्रति की दैनन्दिनी धार्मिक क्रिया- कलापों को भी भूलकर
अपने माता , पिता , गुरू और मित्र को नित्य नहीं वरण
क्रमशः मात्रि दिवस , पितृ दिवस , शिक्षक दिवस और मित्रता दिवस
(Mother's day , Father's day , Teacher's day and Friend's
day) को ही सिर्फ याद करता और उपहार में कोई वस्तु देकर उन्हें
सम्मानित करने की रस्म अदा करता है। जबकि हमारे वैदिक ग्रन्थ ठीक
इसके विपरीत है।
विदेशी गण अपने मित्र को वर्ष में एक बार चौदह फरवरी को याद करते हैं
जबकि वैदिक सभ्यता में ईश्वर रुपी मित्र को सदैव स्मरण रखते हुए कर्म
करने का विधान हैं -
वैदिक मान्यतानुसार “मित्र” नाम ईश्वर का ही हैं।
स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में लिखते हैं
जो सबसे स्नेह करके और सब को प्रीती करने योग्य हैं, इससे उस परमेश्वर
का नाम मित्र हैं।
जैसा परमेश्वर सब जगत का निश्चित मित्र, न किसी का शत्रु और न
किसी से उदासीन हैं, इससे भिन्न कोई भी जीव एक प्रकार
का कभी नहीं हो सकता। इसलिए मित्र ही का ग्रहण इस शब्द से होता हैं,
वेदों में ईश्वर को अनेक मन्त्रों में मित्र नाम से कहा गया हैं
परमेश्वर को इन्द्र, मित्र और वरुण कहते हैं- ऋग्वेद १/१६४/४६
मित्र-स्नेह करने वाला परमात्मा हमारे लिए कल्याणकारी हो – यजुर्वेद
३६/९
सबके मित्र परमेश्वर ने पृथ्वी और धुलोक को भी धारण किया हुआ हैं-
ऋग्वेद ३/४९/१
हमें हर रोज वैदिक मित्र दिवस मनाना चाहिए।

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