पश्चिम ने चेचक का टीका लगाना भारतवर्ष से सीखा
अशोक "प्रवृद्ध"
पुरातन भारतवर्ष और उसके सभ्यता - संस्कृति, ज्ञान - विज्ञानं , भाषा - साहित्य, तकनीकी आदि विश्व में सदैव ही गौरवमयी रहे हैं और सम्पूर्ण विश्व भारतवर्ष का ऋणी रहा है।१७१० के समय में एक आङ्ग्ल - नागरिक भारतवर्ष आया था। उसका नाम था डा० ओलीवर । वह भारतवर्ष के कलकत्ता शहर में आया बंगाल घूमा और भ्रमण के इसने एक दैनन्दिनी अर्थात डायरी लिखी। उसने अपनी दैनन्दिनी अर्थात डायरी के एक पन्ने में भारतीय ज्ञान - विज्ञानं की प्रशंसा करते हुए उस समय महामारी माने जाने वाले चेचक के इलाज के लिए भारतवर्ष में प्रचलित टीके की भारतीय पुरातन पद्धति का वर्णन किया है । जिसका एक छोटा सा छंद अर्थात एक संक्षिप्त टिपण्णी आपके समक्ष प्रस्तुत है -
डॉo ओलीवर अपनी दैनन्दिनी में लिखता है, कि मैने भारत में आकर पहली बार देखा कि इलाज के द्वारा चेचक जैसी महामारी को कितनी आसानी के साथ भारत वासी ठीक कर लेते हैं। आपको विदित हो कि सत्रहवी शताबदी में सम्पूर्ण विश्व में एक महामारी फ़ैली थी, पूरे विश्व भर में इसका इलाज़ नही था। अफ़रीका में लेटिन अमेरीका में लाखों लोग मर गये थे इसके कारण ये महामारी थी बीमारी नही थी।
अब उस डा० ने क्या देखा कि भारतवासी इस बीमारी से लड़्ने के लिये टीका लगाते थे और वो कहता है की मैने दूनिया में पहली बार देखा डा० होते हुए। डा० ओलीवर इंगलैण्ड में एक बहुत बड़ा नाम है एक बड़ी हस्ती रहे हैं।
तो वो अपनी डायरी में लिखते है कि उस समय भारतवर्ष मे चेचक की बिमारी सबसे कम है क्योंकी टीका लगता था। अब टीका लगाने का तरीका क्या है। टीका जो लगता था एक सुई जैसी वस्तू से लगता था जिसके बाद थोड़ा सा ज्वर होता था और तीन दिन में आदमी के शरीर में चेचक से लड़ने की प्रतीरोधक शक्ति मिल जाती थी। एक बार टीका जिसने ले लिया जिंदगी भर के लिये वो चेचक से मुक्त हो गया।
डॉo ओलीवर ने चेचक की इलाज की भारतीय टीका पद्धति से पश्चिम को अवगत कराया। इसके बाद ही पश्चिम में चेचक से बचाव के सन्दर्भ में चिकित्सीय उपचार- प्रक्रिया के आरम्भ होने की विवरणी इतिहास में अंकित मिलता है।
यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि......
"अंग्रेजों ने टीका लगाना भारत से सीखा"
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