डॉ . श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान
श्यामा प्रसाद मुखर्जी (जन्म-6जुलाई 1901 ,कोलकाता और मृत्यु अर्थात बलिदान दिवस - 23 जून 1953)
डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जीवन तथा राजनीतिक अन्तिम यात्रा
जम्मू - कश्मीर जैसी छ: सौ के लगभग अन्य देसी रियासतें ब्रिटिश काल के भारत में थीं,
वैसी ही कश्मीर एक रियासत थी। स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् जैसे प्राय: वे
सब रियासतें भारत में विलीन हो गईं, वैसे कश्मीर नहीं हुआ। इसका कारण
पंडित जवाहरलाल नेहरू का सर्व-विख्यात हठ ही था। उन्होंने श्री वल्लभ
भाई पटेल को, जिनके हाथ में शेष भारतीय रियासतों की समस्या थी,
कश्मीर की समस्या न देकर यह समस्या स्वयं सुलझाने के लिए अपने
हाथों में रखी। जब जब श्री पटेल से कश्मीर के विषय में बात करने
का प्रयास किया गया उन्होंने श्री नेहरू की ओर उँगली से संकेत कर
दिया और श्री नेहरू ने देश के किसी अन्य जानकार
अथवा नेता की सम्मति लिये बिना कश्मीर के विषय में स्वयं
ही अपनी नीति निर्धारित की।
जब महाराजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला ने ये वक्तव्य दिए कि कश्मीर
भारत के साथ मिलना चाहता है तो श्री नेहरू को चाहिए था कि वे इस
रियासत के विषय में श्री पटेल को उचित कार्रवाई करने की स्वीकृति दे देते;
परन्तु ऐसा न कर श्री नेहरू ने इस विषय को सर्वथा अपने हाथों में रखा और
इस पर अपनी इच्छानुसार प्रयोग करने लगे, जिससे समस्या दिन-प्रतिदिन
बिगड़ती गई। सर्वप्रथम पंडित नेहरू ने कश्मीर भारत का अंग हो या न हो,
इस पर कश्मीर में जनमत-संग्रह (Plebiscite) करने की घोषणा कर दी।
एक ओर तो शेख अब्दुल्ला को देश का नेता मान लिया और उनको कश्मीर
का मुख्य मंत्री बनवाने का हठ किया एवं दूसरी ओर उसके कहने
को भी अमान्य कर यह सिद्ध कर दिया कि वह वहाँ कुछ नहीं है। जूनागढ़
राज्य के भारत में सम्मिलित न होने पर जनमत हुआ था, परन्तु तब
वहाँ की जनता के नेता श्री साँवलदास गांधी और वहाँ के नवाब में मतभेद
था। कश्मीर में जनता के नेता शेख अब्दुल्ला और कश्मीर के महाराजा,
दोनों कश्मीर को भारत में सम्मिलित करने के पक्ष में थे।
दूसरी भूल जो श्री नेहरू से कश्मीर के विषय में हुई वह कश्मीर के प्रश्न
को यू.एन.ओ.में ले जाना था। तत्पश्चात् जिस विषय में यू.एन.ओ.में
मामला ले जाया गया था, उसको छोड़ कश्मीर के प्लैबिसाइट का विषय
यू.एन.ओ.में उपस्थित होने दिया गया। यह स्मरण रखना चाहिए
कि यू.एन.ओ. में भारत सरकार का दावा यह था कि कश्मीर पर, जो भारत
का एक अंग बन चुका है, पाकिस्तान ने आक्रमण किया है पहले
तो पाकिस्तान ने माना नहीं कि उसने आक्रमण किया है। जब
माना तो आक्रमणकारी सेनाओं को वापस किये बिना ही प्लैबिसाइट करने
पर विचार होने लगा। पंडित नेहरू ने यू.एन.ओ.में इस विषय पर बात होने
दी और स्वयं इस विषय में बातचीत में सहयोग दिया। परिणाम यह हुआ
कि शेख अब्दुल्ला के मस्तिष्क में कश्मीर को स्वतन्त्र रखने का विचार
उत्पन्न हो गया। लोगों ने पंडित नेहरू को सचेत किया, परन्तु नेहरू जी ने
परिस्थिति को स्पष्ट न कर लीपा-पोती से काम लिया।
शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने 1950 में, पैरिस में, स्वतन्त्र कश्मीर का विचार
सबसे पहले प्रकट किया था। कश्मीर भारत के साथ मिले अथवा पाकिस्तान
के साथ, इस विषय में शेख साहब ने यह कहा कि एक तीसरा विचार भी है
और वह यह कि कश्मीर स्वतन्त्र देश हो। इस पर भारत में हल्ला-
गुल्ला मचा। जब शेख साहब पैरिस से दिल्ली लौटे तो उनको अपनी सफाई
पेस करने के लिए श्री पटेल ने पार्लियामैण्टरी कांग्रेस पार्टी के सम्मुख
उपस्थित होने पर बाध्य किया। शेख साहब ने बहुत चतुराई से यह कह
दिया कि उनका अभिप्राय यह नहीं था। इसके पश्चात् भी यत्र-तत्र वे इस
बात की चर्चा करते रहे कि कश्मीर स्वतन्त्र राज्य है और यदि भारत के
साथ सम्मिलित होगा तो कुछ राजनीतिक विषयों में ही होगा।
भारत के संविधान में यह लिखा है कि कश्मीर भारत के साथ सुरक्षा,
यातायात और विदेशीय सम्बन्धों में सम्मिलित होता है। आरम्भ में प्राय:
सब भारतीय राज्य इतने अंशों में ही भारत में सम्मिलित हुए थे, परन्तु
संविधान बनने से पूर्व ही श्री पटेल जी के प्रयत्न से वे सब रियासतें पूर्ण
रूप से भारत में सम्मिलित हो गई थीं। इधर कश्मीर
जिसकी समस्या को श्री पंडित नेहरू जी ने अपने हाथों में सुलझाने के लिए
लिया हुआ था, संविधान बनने तक केवल इन विषयों में ही सम्मिलित
हो सका। इस संविधान पर कश्मीर के प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर हुए हैं। पर
इस पर भी इस विषय पर लोकमत संग्रह का हठ बना रहा और शेख साहब ने
अपना पैंतरा बदलना आरम्भ कर दिया। कश्मीर भारत के साथ सम्मिलित
हो अथवा पाकिस्तान के साथ, इस विषय पर जनमत होना भारत के संविधान
के विरुद्ध है। यह बात पंडित जी ने अपने निजी रूप में कही थी। देश इसके
लिए उत्तरदायी नहीं।
1951 में कश्मीर की विधान सभा का निर्वाचन हुआ और कर शेख
अब्दुल्ला के पार्टी के लोग पूर्ण रूप में निर्वाचन में सफल हुए। इस ज्यों-
त्यों का अर्थ असंगत होने से यहाँ नहीं लिखा जाता। इस पर भी इस विधान
सभा को बने दो वर्ष हो चुके थे, इस पर भी कश्मीर का भारत से किस
प्रकार का सम्बन्ध हो, इस विषय में कुछ निश्चय नहीं हो सका था।
जम्मू में प्रजा परिषद् के लोग कश्मीर की विधान सभा में जाकर
अपना दृष्टिकोण उपस्थित करना चाहते थे, परन्तु जब इस पार्टी के
उम्मीदवारों के, असत्य तथा कृत्रिम कारणों से, आवेदन पत्र रद्द कर दिये
गये तो उन्होंने इस विधान सभा में न जा सकने पर अपनी माँगें घोषित कर
दीं। उनकी माँगें कश्मीर विधान सभा के सम्मुख थीं। पंडित नेहरू
जी तथा भारत सरकार को यह विषय कश्मीर के भीतर का विषय मान, इसमें
हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था। एक ओर तो पंडित नेहरू ने कश्मीर विधान
सभा बनने दी और साथ ही तत्कालीन कश्मीर सरकार से प्रजा परिषद् के
उम्मीदवारों के आवेदन-पत्रों के रद्द हो जाने पर हस्तक्षेप करना उचित
नहीं माना, तो प्रजा परिषद् पार्टी ने अपनी मांगें घोषित कर दीं।
उनका कहना था कि कश्मीर की विधान सभा यह पारित कर दे कि कश्मीर
भारत का पूर्ण रूप में अभिन्न अंग है। जैसे अन्य ‘बी’ श्रेणी के राज्य हैं वैसे
कश्मीर भी हो। यह माँग न तो असंगत थी और न ही साम्प्रदायिक।
यदि तो यह कहा जाता कि कश्मीर के किसी क्षेत्र में से
मुसलमानों अथवा हिन्दुओं को निकाला जाए अथवा हिन्दुओं के
किसी अधिकार की माँग की जाती, तब तो इस कहने में कुछ तथ्य
भी था कि प्रजा परिषद् की माँग साम्प्रदायिक है ? परन्तु ऐसा नहीं था और
इस मांग को साम्प्रदायिक क्यों कहा गया, इसका उत्तर अभी तक
संतोषजनक नहीं मिला।
जम्मू के लोग कश्मीर के अन्तर्गत थे। उनको सन्देह हुआ कि जम्मू कश्मीर
की विधान सभा कश्मीर का भारत से सम्बन्ध अधूरा और शिथिल
रखना चाहती है। उन्होंने अपना संशय कश्मीर की जनता के सम्मुख रखा।
इस पर शेख अब्दुल्ला की पार्टी ने प्रजा परिषद् को गालियाँ देनी आरम्भ
कर दीं। जब प्रजा परिषद् का आन्दोलन जोर पकड़ने लगा तो शेख साहब ने,
उनको आश्वासन देने के स्थान पर उनसे झगड़ा आरम्भ कर दिया।
प्रजा परिषद् को अवैध घोषित कर दिया। जम्मू में धारा 50 लगा दी।
इसका अभिप्राय आन्दोलन का मुख बंद करना था।
यहाँ एक भ्रम-निवारण करना आवश्यक है। आन्दोलन का अर्थ कानून भंग
करना नहीं होता। आन्दोलन का अर्थ तो जनता में विचार-प्रोत्साहन
करना और अपने विचारों का प्रचार करना मात्र है। इतने मात्र को दबाने के
लिए यदि सरकार कोई कठोर कार्य करती है तो उस कार्रवाई का विरोध
कानून भंग नहीं प्रत्युत अपने नागरिक अधिकारों की रक्षा है। यही जम्मू में
हुआ। प्रजा परिषद् के लोग अपनी विधान सभा से यह माँग कर रहे थे
कि कश्मीर का भारत में पूर्ण रूप से विलय हो। यह आन्दोलन जम्मू में बल
पकड़ने लगा तो सरकार का आसन डोलने लगा और सरकार के कारिन्दों ने
प्रजा परिषद् का मुख बन्द करने के लिए धारा 50 का प्रयोग किया।
प्रजा परिषद् के जलसे-जुलूस व्याख्यान बन्द करने के लिए
लाठियाँ चलीं और गोलीकाण्ड होने लगे। कोई भी स्वाभिमानी मनुष्य इस
प्रकार के अत्याचार को सहन नहीं कर सकता। 25 नवम्बर 1952 से पूर्व
प्रजा परिषद् के आन्दोलन में कोई भी अशान्तिमय घटना नहीं हुई थी।
इसपर भी इसको बन्द करने के लिए उक्त व्यवहार किया गया। इससे प्रजा-
परिषद् के उद्देश्यों से सहानुभूति रखने वाले भारतवासियों के मन में
चिन्ता उत्पन्न हो गई।
यहाँ एक विचारणीय बात यह भी है कि भारत सरकार ने प्रजा परिषद् के
आन्दोलन को दबाने के लिए भारत से पुलिस और सेना भेजी। उन
लोगों का गला घोंटने के लिए, जो जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय
चाहते थे, भारत सरकार फौज और पुलिस भेजे, यह बात
देशभक्तों को असह्य हो उठी। यह देख कि भारत सरकार, जो उस समय
पूर्णरूपेण पंडित जवाहरलाल नेहरू की मुट्ठी में थी, उन पर लाठी और
गोली चलवा रही है जो लोग जम्मू कश्मीर को भारत का अंग बनाने के लिए
आन्दोलन चला रहे थे, देश का हित-चिन्तन करने वालों की आँखों में
रक्ताश्रु आ गए। ऐसी मूर्खता और नृशंसता का चित्र संसार में
कहीं नहीं मिलेगा।
इस पर भारतीय जनसंघ ने कानपुर में, अपने एक प्रस्ताव में यह घोषित
किया कि वह प्रजा परिषद् जम्मू की माँग का समर्थन करता है तथा जम्मू
कश्मीर सरकार से अनुरोध करता है कि प्रजा परिषद् के लोगों और भारत
सरकार से इस विषय में एक गोलमेज़ कान्फरेन्स कर अपने विचार प्रकाशित
करे। यदि ऐसा नहीं किया जाएगा तो इस विषय पर पूर्ण देश में आन्दोलन
खड़ा किया जाएगा।
इसविषय पर भारतीय जनसंघ के प्रधान श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने पंडित
जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला से पत्र व्यवहार किया और उनसे
निवेदन किया कि गोलमेज़ कान्फरेन्स की जाए। एक लम्बी चिट्ठी-पत्री पर
भी जब प्रजा परिषद् से बातचीत करने के लिए शेख अब्दुल्ला तैयार नहीं हुए
और श्री पंडित नेहरू जी ने इस पत्र-व्यवहार में प्रजा परिषद् पर
तथा भारतीय जनसंघ पर असंगत और असत्य दोषारोपण किए तथा कश्मीर
में प्रजा परिषद् पर लगाए प्रतिबन्धों को हटाने के स्थान, उन पर
गोलीकाण्ड होने लगे तो इइच्छा न रहते हुए भी भारतवर्ष में प्रजा परिषद्
की मांग के समर्थन में जलसे-जुलूस और प्रदर्शन किए जाने लगे।
इससे नेहरू सरकार घबराने लगी। भारतीय जनसंघ का कहना यह
था कि कश्मीर तथा जम्मू का भारतवर्ष से सम्बन्ध स्थापित हो चुका है,
उस विषय में जनमत-संग्रह व्यर्थ और विधान के विरुद्ध है। रही उस
सम्बन्ध की सीमा, वह कश्मीर की विधान सभा निश्चय करे और उस
सीमा को अधिक कराने के लिए तथा इस विषय में शीघ्र निश्चय कराने में
आन्दोलन करना प्रजा परिषद् का अधिकार है। इस अधिकार को दबाने
का शेख अब्दुल्ला का प्रयास अन्याय है। इसी कारण प्रजा परिषद् पर
लगाए प्रतिबन्ध उठ जाने चाहिएँ।
जनसंघ के आन्दोलन का प्रभाव सबसे अधिक पंजाब में हुआ। कांग्रेस
सरकार की दूषित नीति की निन्दा चारों ओर होने लगी।
कांग्रेसी मिनिस्टरों को जनता में जाकर भाषण देना कठिन होने लगा। इस पर
भी पंजाब अथवा दिल्ली में किसी भी स्थान पर कोई हिंसात्मक कार्य
नहीं हुआ। प्रजातन्त्रात्मक पद्धति में राज्य को नियन्त्रण में रखने
का एक ही उपाय है कि यदि किसी विषय पर जनता का मत सरकार के
अनुकूल न रहे तो जनता जलसे-जुलूसों तथा प्रदर्शनों से अपने मन की बात
सरकार तक पहुंचाए। इसको बन्द करना तो भारत के संविधान
की अवहेलना करना है। यह मनुष्य के नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात
करना है।
इस पर भी जब कांग्रेसी सरकार ने अपने पाँव तले से मिट्टी खिसकती देखी,
तो धारा 144 का आश्रय लेकर सारे पंजाब में जलसे-जुलूस व प्रदर्शन बन्द
कर दिए। यह फरवरी 1953 में हुआ। मार्च में जलसे इत्यादि दिल्ली में
भी बन्द कर दिये गए।
इस पर भारतीय जनसंघ ने यह निश्चय किया कि धारा 144
की अवहेलना की जाए। यद्यपि जम्मू की प्रजा परिषद् के आन्दोलन
का समर्थन भारतीय जनसंघ करता था, इसपर भी धारा 144
की अवज्ञा तो केवल मात्र नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक
हो गई। यदि तो जनता की ओर से अथवा भारतीय जनसंघ के
अधिकारियों की ओर से कोई हिंसात्मक व्यवहार होता, तब तो धारा 144 के
लगाने की आवश्यकता होती और इस धारा की अवज्ञा करना अनुचित
होता। दिल्ली में तो कश्मीर के विषय में सैकड़ों सभाएँ हुईं, परन्तु एक
भी सभा में शान्ति-भंग नहीं हुई। कुछ सभाओं में तो जनसंख्या चालीस-
पचास हजार तक पहुँच गई थी। इनसे नगर में किसी प्रकार
की अशान्ति उत्पन्न नहीं हुई। एक बात हुई कि म्यूनिसिपल उपचुनावों में,
डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के उपचुनावों में तथा दिल्ली की विधान सभा के
उपचुनावों में कांग्रेस की करारी हार होने लगी। इससे कांग्रेस घबरा उठी और
धारा 144 को लागू कर दिया। जिस प्रकार यह धारा चलाई गई, वह तो केवल
विरोधी विचार धारा को कुचलने का प्रयत्न मात्र था। यदि इस प्रकार के
अन्याय का विरोध न किया जाता तो घोर पाप हो जाता।
अतएव 6 मार्च 1953 को धारा 144 की अवज्ञा आरम्भ हुई और इस
अवज्ञा में डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी, प्रधान भारतीय जनसंघ,
श्री निर्मलचन्द चटर्जी, प्रधान हिन्दू महासभा, श्री नन्दलाल शास्त्री,
मन्त्री रामराज्य परिषद् और वैद्य गुरुदत्त तथा आठ अन्य व्यक्तियों ने
इसका श्रीगणेश किया। ये लोग पकड़ लिये गए और इंडियन पीनल कोड
की धारा 188 के अनुसार इन पर अभियोग स्थापित किया गया। परन्तु
पकड़कर जेल में रखने में मजिस्ट्रेट की किसी अनियमित कार्रवाई के कारण
उक्त चारों व्यक्तियों को सुप्रीमकोर्ट ने छोड़ दिया। यद्यपि कोर्ट ने
डॉक्टर मुखर्जी को जेल में रखना अनुचित बताया, इस पर भी धारा 188
का अभियोग चलता रहा।
इस समय एक घटना और घटी। इस घटना का इतिहास इस प्रकार है।
भारतीय जनसंघ के कानपुर के अधिवेशन में यह निश्चय
किया गया था कि जनसंघ का शिष्टमण्डल जम्मू में जाकर
वहाँ की परिस्थिति का अध्ययन करे और प्रजा परिषद् को सम्मति दे
कि वह अपनी धारा 50 की अवज्ञा का आन्दोलन जारी रखे अथवा नहीं।
यह दिसम्बर 1952 में निश्चय किया गया था। इस शिष्टमण्डल में वैद्य
गुरुदत्त और छ: अन्य मान्य सदस्य थे। इनके नाम थे श्री चिरंजीलाल
मिश्र, रिटायर्ड जज जयपुर, श्री हरिदत्त, श्री लालसिंह शक्तावत,
डिप्टी स्पीकर राजस्थान असैम्बली, श्री प्रोफेसर महावीर, श्री प्रेमनाथ
जोशी तथा ठाकुर उम्मेदसिंह। जनवरी 1953 में सरकार से कश्मीर जाने
की स्वीकृति मांगी गई, परन्तु स्वीकृति नहीं दी गई। कश्मीर जाने के लिए
भारत के सुरक्षा विभाग ने परमिट बनाया हुआ था। परमिट सिस्टम
सुरक्षा विभाग की ओर से होने से यह बात स्पष्ट
थी कि फौजी सुरक्षा का ध्यान रख यह परमिट व्यवस्था की गई थी।
इसका यह अर्थ नहीं कि देश के भीतर की संस्थाओं के आने जाने पर
प्रतिबन्ध के लिए यह व्यवस्था थी। वास्तव में यह प्रबन्ध देश के संविधान
के विरुद्ध था। देश के प्रत्येक नागरिक को अधिकार है कि वह देश के
किसी भी भाग में जा सके। इस अधिकार को छीनने
की क्षमता सुरक्षा विभाग के पास नहीं।
प्रजा परिषद् के आन्दोलन को धारा 50 से कुचलने का प्रयत्न करते हुए
जम्मू-कश्मीर सरकार को लगभग छ: मास हो गए थे और भारतीय जनसंघ के
भारत की जनता को सचेत करने के आन्दोलन को कुचलने के, भारत सरकार
के प्रयत्न को चलते दो मास हो गये थे। भारत सरकार को कश्मीर सरकार
पर दवाब डालना चाहिए था कि प्रजा परिषद् के आन्दोलन को विधिवत्
चलने में बाधा न डाले, जब तक प्रजा परिषद् के जलसे-जुलूस और प्रदर्शन
शान्तिमय ढंग से चलते हैं, उन पर प्रतिबंध न लगाए। किसी नागरिक
अथवा संस्था को, शान्तिमय ढंग से अपने विचारों का प्रचार करने
का अधिकार होना चाहिए। इसकी अपेक्षा सरकार ने न केवल जम्मू-कश्मीर
सरकार की नृशंसतापूर्ण दमन-नीति का समर्थन किया, न केवल इस दमन
के लिए अपनी पुलिस और फौज का प्रयोग किया, प्रत्युत भारत में भी,
भारत सरकार की नीति की आलोचना बन्द करने के लिए 144 का विस्तृत
रूप में प्रयोग किया। लाठी व अश्रुगैस का विस्तृत प्रयोग किया गया।
भारतीय जनसंघ के प्रधान डॉ.मुखर्जी को साम्प्रदायिक कहकर अपशब्द
कहे और उनसे बातचीत तक करने के इन्कार कर दिया। केवल इतना ही नहीं,
प्रत्युत राजनीतिक विरोध को कुचलने के लिए विदेशी जासूसों पर प्रतिबंध
लगाने के लिए प्रचलित परमिट का प्रयोग एक अति घृणित कार्य था। पंडित
जवाहरलाल नेहरू अपना दृष्टिकोण रखते थे, और उनके सहयोगी भी उसे
ठीक समझते थे, परन्तु अपने विचारों के विरुद्ध विचार रखने वालों का, जब
तक वे शान्तिमय हैं, कैसे धारा 144 के प्रयोग से मुख बन्द कर सकते थे ?
धारा 144 लगाने से पूर्व कोई ऐसी घटना, जिसमें किसी प्रकार से
शान्ति भंग हुई हो, का न होना इस बात का प्रमाण है कि श्री नेहरू इन सब
घटनाओं के उत्तरदायी थे जो इसके पश्चात् घटीं।
पहली मई के लगभग डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने एक पत्र सचिव
सुरक्षा विभाग को लिखा जिसमें उनसे पूछा गया कि यह परमिट
व्यवस्था किस कानून के अनुसार चालू की गई है और इसका प्रयोग
क्यों राजनीतिक विरोधी पक्षवालों पर किया जा रहा है ? इस समय यह
बता देना अनुचित नहीं होगा कि ऐसा कहा जाता है कि पठान कोट में और
शायद अन्य जिला मैजिस्ट्रेटों के पास भी भारत सरकार ने कुछ
नामों की एक सूची दे रखी थी, जिनको कश्मीर जाने के लिए
किसी भी अवस्था में परमिट नहीं देना। ऐसा कहा जाता है कि उस सूची में
डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी और भारतीय जनसंघ के अन्य प्रमुख
कार्यकर्ताओं के नाम थे।
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