Friday, August 29, 2014

श्रद्घेय प्रधानमंत्री जी के भाषण में महर्षि दयानंद की ये उपेक्षा क्यों ?

श्रद्घेय प्रधानमंत्री जी के भाषण में महर्षि दयानंद की ये उपेक्षा क्यों ?


 राष्ट्र की चेतना को झंकृत कर चेतना में से निकलकर चेतना में ही समाहित हो जाने वाले, स्वाधीनता दिवस की पावन बेला पर लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वार दिये गये अपने अनुपम और अद्वितीय संबोधन महर्षि दयानंद जैसे समग्र-क्रांति के अग्रदूत भारत-गौरव और राष्ट्रचेता महापुरूष का नाम न सुनकर निराशा हुई। सचमुच महर्षि दयानंद भारतीय राष्ट्र की वह थाती हैं, जिनके सामने अन्य कोई टिकता हुआ नही दीखता। बहुत से लोग इस गुजरात भूमि से उठकर राष्ट्र और विश्व पटल पर उभरे हैं, निस्संदेह उनमें ऋषि दयानंद, सरदार पटेल जैसे कई लोग सम्मिलित हैं, और अब देश मोदी में भी महानता के नये-नये आयाम खोज रहा है, इस संदर्भ में गुजरात की पावनभूमि नमनीय और अभिनंदनीय है। देश में अनेकों महापुरूष हुए हैं जिनमें से किसी ने स्वदेश का, किसी ने स्वधर्म का, किसी ने स्वभाषा का, किसी ने स्वसंस्कृति का और किसी ने स्वराज्य का मूलमंत्र फूंककर अपनी महानता की ध्वजा फहराई है, परंतु कोई एक ऐसा शक्तिपुंज जिसमेें ये सारे ‘स्व’ एक साथ केन्द्रीभूत हों, यदि कहीं है तो वह ऋषि दयानंद हैं। हमें अनावश्यक किसी की निंदा से बचना चाहिए, परंतु कई लोग हैं जो थोड़ा करके बहुत ‘यश’ कमा गये तो कुछ हैं जो ‘बहुत कुछ’ नही अपितु ‘सब कुछ’ करके भी यश के पात्र नही बने। ऐसे ‘सब कुछ’ करने वाले ‘उग्रसेनों’ के लिए सारा देश एक कारागृह बनाकर रख दिया गया है। नमो ने अपने हाथों में सत्ता की कमान संभालते ही बहुत से ‘उग्रसेनों’ को कारा से मुक्त भी कराया है, परंतु लालकिले की प्राचीर से नमो संबोधन में ऋषि दयानंद का नाम न सुनकर लगा कि अभी नमो उन्हें ‘क्रूर-कंस’ की ‘क्रूर-कारा’ में और देर तक बंदी बने रहने देना चाहते हैं।


 महर्षि दयानंद जी महाराज किस प्रकार सारे महापुरूषों के उच्च्तम गुणों के एकीभूत पुंज हैं, इसके लिए स्वामी सत्यानंद जी ने उनके विषय में सच ही कहा था कि वह गुण ही न होगा जो महर्षि के सर्वसंपन्न रूप में विकसित ही न हुआ हो। महाराज का हिमालय की चोटियों पर चक्कर लगाना विन्ध्याचल की यात्रा करना, नर्मदा के तट पर घूमना, स्थान-स्थान पर साधुसंतों के दर्शन तथा सत्संग प्राप्त करना मंगलमय श्रीराम का स्मरण कराता है। कर्णवास में कर्णसिंह के बिजली के समान चमकते खडग को देखकर भी महाराज नही कांपे, तलवार की अति तीक्ष्ण धार को अपनी ओर झुका हुआ अवलोकन करके भी निर्भय बने रहे और साथ ही गंभीर भाव से कहने लगे कि आत्मा अमर है, अविनाशी है, इसे कोई हनन नही कर सकता। यह घटना और ऐसी ही अनेकों घटनाएं ज्ञान के सागर श्रीकृष्ण को नेत्रों के आगे मूर्तिमान बना देती हैं। ….अपनी प्यारी भगिनी और पूज्य चाचा की मृत्यु से वैराग्यवान होकर वन में कौपीन मात्रावशेष दिगम्बरी दिशा में फिरना, घोरतम तपस्या करना तथा अंत में मृत्युंजय महौषध को ब्रह्मसमाधि में लाभ कर लेना महर्षि के जीवन का अंश बुद्घदेव के समान दिखाई देता है।

 दीन दुखियों अपाहिजों और अनाथों को देखकर महर्षि दयानंद जी क्राइस्ट बन जाते हैं। धुरंधर वादियों के सम्मुख श्रीशंकराचार्य का रूप दिखाई देते हैं। एक ईश्वर का प्रचार करते और विस्तृत भ्रातृभाव की शिक्षा देते हुए भगवान दयानंद जी श्रीमान मुहम्मद जी प्रतीत होने लगते हैं। ईश्वर का यशोगान करते हुए स्तुति-प्रार्थना में जब प्रभु इतने निमग्न हो जाते हैं कि उनकी आंखों से परमात्म प्रेम की अविरल धारा निकल आती है, गदगद कण्ठ और पुलकित गात हो जाते हैं, तो सन्तवर रामदास, कबीर, नानक दादू चेतन और तुकाराम का समां बंध जाता है। वे संत शिरोमणि जान पड़ते हैं। आर्यत्व की रक्षा के समय वे प्रात: स्मरणीय प्रताप और शिवाजी तथा गुरूगोविन्द सिंह का रूप धारण कर लेते हैं। महाराज के जीवन को जिस पक्ष से देखें वह सर्वांग सुंदर प्रतीत होता है। त्याग और वैराग्य की उसमें न्यूनता नही है। श्रद्घा और भक्ति उसमें अपार पायी जाती है। उसमें ज्ञान अगाध है। तर्क अथाह है। वह समायोचित मति का मंदिर है। प्रेम और उपकार का पुंज है। कृपा और सहानुभूति उसमें कूट कूटकर भरी है। वह ओज है, तेज है, परमप्रताप है, लोकहित है, और सकल कला संपूर्ण है। 

 माननीय प्रधानमंत्री जैसे संस्कृति और धर्म भक्त प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा नही थी कि वे जब इतिहास के नररत्नों के मंदिर में पुष्पांजलि अर्पित कर वहां से प्रसाद ग्रहण कर रहे हों, तो उस समय आप्तपुरूष महर्षि दयानंद जैसे महान व्यक्तित्व से आशीर्वाद लेना ही भूल जाएं। आशा है आगे से नमो भारत की समग्र क्रांति के अग्रदूत महर्षि दयानंद का पावन स्मरण कर देश की आर्य जनता (हिंदू राष्ट्रीयता के संदर्भ में ग्रहण करेंगे तो प्रत्येक भारतीय को) उपकृत करेंगे।

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