बुद्धिवाद अर्थात तर्कपूर्ण ज्ञान के प्रत्तिपादक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती
सदियों से प्रताडित , पीड़ित , शोषित परतंत्र भारतवर्ष में अपनी बात उपदेश-पद्धति के द्वारा ही नहीं, बल्कि वाद-विवाद और तर्क-वितर्क के द्वारा कहने की अद्भुत - विलक्षण शक्ति के स्वामी महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती बुद्धिवाद अर्थात तर्कपूर्ण ज्ञान के प्रत्तिपादक थे , उन्होंने लोगों को केवल आस्थावान नहीं बनाया, बल्कि बात सप्रमाण कहकर ज्ञानवान बनाया। उनकी करियों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि लोग प्रश्न पूछते थे, और वे उनका सप्रमाण उत्तर देते थे। चूंकि उनके उत्तर तर्क पर आधारित होते थे, इसलिए लोगों पर उनका प्रभाव पड़ता था।
बुद्धिवाद के अनन्य समर्थक तर्क सम्राट स्वामी दयानंद सरस्वती तर्क को ज्ञान का मुख्य आधार मानते थे। दिनांक २४ जुलाई, १८७७ को बंबई में आर्य समाज के जो दस मूल सिद्धांत बनाए गए थे, उनमें चौथा और पाँचवा सिद्धांत तर्क की प्रधानता वाले हैं। चौथे सिद्धांत के अंतर्गत कहा गया है-
‘‘हमें हमेशा सत्य को स्वीकार करने, तथा असत्य को अस्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।’’
अगले नियम में कहा गया है-
‘‘हमारे प्रत्येक कार्य सही एवं गलत का निर्णय करने के बाद धर्मा के अनुकूल होने चाहिए।’’
यहां तक कि उन्होंने ईश्वर पर भी विश्वास करने की बात नहीं कही, बल्कि ज्ञान के आधार पर उसे जानने की बात कही। आर्य समाज के पहले नियम में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा-
‘‘ईश्वर उन सभी सच्चे ज्ञान और सभी वस्तुओं का आदि स्त्रोत है, जिन्हें ज्ञान द्वारा जाना जा सकता है।’’
दयानंद सरस्वती जी ने उस समय समाज की कुरीतियों, अंधविश्वासों और जड़ताओं के विरोध का जो बीड़ा उठाया, उसका भी मूल आधार तर्क ही था। स्वाभाविक है कि इसलिए उन्होंने शिक्षा पर बहुत अधिक जोर दिया। वे शिक्षा को व्यक्ति और राष्ट्र की उन्नति का आधार मानते थे। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के तृतीय समुल्लास में हमें शिक्षा के बारे में उनके विचार जानने को मिलते हैं। उन्होंने तृतीय समुल्लास के आरंभ में ही लिखा है-
‘‘संतानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभावरूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है।’’
उन्होंने यहां तक लिखा है-
‘‘राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवे-आठवें वर्ष की आगे अपने लड़कों ओर लड़कियों को घर में न रखें। पाठशाला में अवश्य भेज देवें। जो न भेजे, वह दंडनीय हो।’’
दयानंद सरस्वती ने जिस ‘आर्य समाज’ की स्थापना की थी, उसका हमारे देश में शिक्षा के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मुझे इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह लगती है कि दयानंन्द सरस्वती ने लड़कियों के लिए शिक्षा की बात कहकर अपने समय के समाज में एक हलचल पैदा की थी। अभी मैंने जो उदाहरण दिया, उसमें उन्होंने लड़कियों के लिए भी शिक्षा की बात कही है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने नारी-विकास के लिए अन्य अनेक महत्वपूर्ण बातें कहीं। इनका उल्लेख ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में मिलता है। उन्होंने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा-
लड़कियों को भी लड़कों के समान पढ़ाना चाहिए।
प्रत्येक कन्या का अपने भाई के समान यज्ञोपवित संस्कार होना चाहिए।
लड़कियों का विवाह न तो बाल्यावस्था में हो, न हो उसकी इच्छा के विपरीत हो।
पुत्री भी अपने भाई के समान दायभाग में अधिकारिणी हो।
विधवा को भी विधुर के समान विवाह का अधिकार है।
उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा-
‘‘विवाह लड़के और लड़की की पसंद के बिना नहीं होना चाहिए, क्योंकि एक-दूसरे की पसंद से विवाह होने से विरोध बहुत कम होता है, और संतान उत्तम होती है।’’
निश्चित रूप में आर्य समाज ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया। दयानन्द जी के इन प्रगतिशील विचारों का प्रभाव समाज पर पड़ने से धीरे-धीरे नारी के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदला। यह बात अत्यंत महत्व की है कि दयानंद सरस्वती के निधन से पचास वर्ष से भी पहले बाल-विवाह को रोकने के लिए ‘शारदा विवाह कानून’ पारित हुआ। इसी प्रकार अंतर्जातीय विवाहों को वैध घोषित करने के लिए ‘आर्य विवाह कानून’ भी पारित किया गया।
यदि वेदों का आश्रय लिया जाए, और तर्क के आधार पर सोचा जाए, तो मानव-मानव में कोई भेद मालूम नहीं पड़ता। वेदों में कहा गया है- ‘‘एकैव मानुषि जाति’’। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी संपूर्ण मानव-जाति को एक मानते हुए, उनके आचारण को प्रधानता दी है। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा-
‘‘जो दुष्टकर्मकारी-द्विज को श्रेष्ठ और श्रेष्ठकर्मकारी-शूद्र को नीच माने, तो इससे परे पक्षपात, अन्याय, अधर्म दूसरा अधिक क्या होगा।’’
स्पष्ट है कि उनके लिए आचारण महत्वपूर्ण था, जन्म नहीं। वे धर्म को भी सीधे-सीधे आचारण से जोड़ते थे। उन्होंने धर्म से जुड़े सभी आडंबरों, पाखंडों और अंधविश्वासों का अपने तर्क के बल पर खण्डन किया, और धर्म को सीधे-सीधे जीवन-व्यवहार का अंग बनाया। उन्होंने ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ के अनुच्छेद 3 में लिखा है-
‘‘जो पक्षपातरहित न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म…… मानता हूँ।’’
इसी प्रकार ‘‘ऋग्वेदादिभाष्य’’ के पृष्ठ के 395 पर धर्म के लक्षण की चर्चा करते हुए वे लिखते है-
‘‘सत्यभाषणात् सत्याचरणाच्च परं धर्म लक्षणां किचिंन्नास्त्येव’’
अर्थात्, सत्यभाषण और सत्याचरण के अतिरिक्त धर्म का कोई दूसरा लक्षण नहीं है।
महर्षि दयानंद सरस्वती का धर्म न तो किसी जाति, क्षेत्र और लोगों तक सीमित था, और न ही उसका संबंध किसी प्रकार की संकीर्णता और अव्यवहारिकता से था। उनके लिए धर्म व्यक्ति के आचरण का निर्माण करने वाला तत्व था। इसके साथ ही वह समाज का विधान करने वाली व्यवस्था थी। मैं समझता हूं कि दयानंद सरस्वती के विचारों को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। विशेषकर एक ऐसे समय में, जबकि निहित स्वार्थ धर्म की अपनी-अपनी दृष्टि से व्याख्या कर रहे हों, यह जरूरी हो जाता है कि दयानंद सरस्वती जैसे महापुरुषों के विचार लोगों के सामने रखे जाएं, ताकि लोग धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ सकें, और उसके अनुकूल आचरण कर सकें।
यदि दयानंद सरस्वती जी की स्वराज्य का प्रवक्ता कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। श्रीमती एनी बेसेंट ने ‘इडिया ए नेशन’ से बिल्कुल सही लिखा है-
‘‘स्वामी दयानंद जी ने सर्वप्रथम घोषणा की कि भारत भारतीयों के लिए है।’’
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