Friday, August 29, 2014

गणेश चतुर्थी के पावन अवसर पर आप सभी भारतीयों को कोटिशः मांगलिक शुभ कामनाएं

गणेश चतुर्थी के पावन अवसर पर आप सभी भारतीयों को कोटिशः मांगलिक शुभ कामनाएं

ओउम् 

 जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी और पालन करनेहारा है ऐसे उस ईश्वर , जिसका नाम गणेश वा "गणपति" है ,  को हमारा नमन , सादर प्रणाम !
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास में परमेश्वर के अनंत दिव्य गुणों के कारण असंख्य नाम होने का सोदाहरण वर्णन करते हुए कहा गया है -

गण संख्याने इस धातु से "गण" शब्द सिद्ध होता है l इसके आगे "ईश" वा "पति"  शब्द रखने से "गणेश" और "गणपति" शब्द सिद्ध होते हैं l
"ये प्रकृत्यादयो जड़ा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा "
जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी और पालन करनेहारा है इससे उस ईश्वर का नाम गणेश वा "गणपति" है l

गणेश चतुर्थी के पावन अवसर पर आप सभी भारतीयों को कोटिशः मांगलिक शुभ कामनाएं और बहुत - बहुत बधाई !!


श्रद्घेय प्रधानमंत्री जी के भाषण में महर्षि दयानंद की ये उपेक्षा क्यों ?

श्रद्घेय प्रधानमंत्री जी के भाषण में महर्षि दयानंद की ये उपेक्षा क्यों ?


 राष्ट्र की चेतना को झंकृत कर चेतना में से निकलकर चेतना में ही समाहित हो जाने वाले, स्वाधीनता दिवस की पावन बेला पर लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वार दिये गये अपने अनुपम और अद्वितीय संबोधन महर्षि दयानंद जैसे समग्र-क्रांति के अग्रदूत भारत-गौरव और राष्ट्रचेता महापुरूष का नाम न सुनकर निराशा हुई। सचमुच महर्षि दयानंद भारतीय राष्ट्र की वह थाती हैं, जिनके सामने अन्य कोई टिकता हुआ नही दीखता। बहुत से लोग इस गुजरात भूमि से उठकर राष्ट्र और विश्व पटल पर उभरे हैं, निस्संदेह उनमें ऋषि दयानंद, सरदार पटेल जैसे कई लोग सम्मिलित हैं, और अब देश मोदी में भी महानता के नये-नये आयाम खोज रहा है, इस संदर्भ में गुजरात की पावनभूमि नमनीय और अभिनंदनीय है। देश में अनेकों महापुरूष हुए हैं जिनमें से किसी ने स्वदेश का, किसी ने स्वधर्म का, किसी ने स्वभाषा का, किसी ने स्वसंस्कृति का और किसी ने स्वराज्य का मूलमंत्र फूंककर अपनी महानता की ध्वजा फहराई है, परंतु कोई एक ऐसा शक्तिपुंज जिसमेें ये सारे ‘स्व’ एक साथ केन्द्रीभूत हों, यदि कहीं है तो वह ऋषि दयानंद हैं। हमें अनावश्यक किसी की निंदा से बचना चाहिए, परंतु कई लोग हैं जो थोड़ा करके बहुत ‘यश’ कमा गये तो कुछ हैं जो ‘बहुत कुछ’ नही अपितु ‘सब कुछ’ करके भी यश के पात्र नही बने। ऐसे ‘सब कुछ’ करने वाले ‘उग्रसेनों’ के लिए सारा देश एक कारागृह बनाकर रख दिया गया है। नमो ने अपने हाथों में सत्ता की कमान संभालते ही बहुत से ‘उग्रसेनों’ को कारा से मुक्त भी कराया है, परंतु लालकिले की प्राचीर से नमो संबोधन में ऋषि दयानंद का नाम न सुनकर लगा कि अभी नमो उन्हें ‘क्रूर-कंस’ की ‘क्रूर-कारा’ में और देर तक बंदी बने रहने देना चाहते हैं।


 महर्षि दयानंद जी महाराज किस प्रकार सारे महापुरूषों के उच्च्तम गुणों के एकीभूत पुंज हैं, इसके लिए स्वामी सत्यानंद जी ने उनके विषय में सच ही कहा था कि वह गुण ही न होगा जो महर्षि के सर्वसंपन्न रूप में विकसित ही न हुआ हो। महाराज का हिमालय की चोटियों पर चक्कर लगाना विन्ध्याचल की यात्रा करना, नर्मदा के तट पर घूमना, स्थान-स्थान पर साधुसंतों के दर्शन तथा सत्संग प्राप्त करना मंगलमय श्रीराम का स्मरण कराता है। कर्णवास में कर्णसिंह के बिजली के समान चमकते खडग को देखकर भी महाराज नही कांपे, तलवार की अति तीक्ष्ण धार को अपनी ओर झुका हुआ अवलोकन करके भी निर्भय बने रहे और साथ ही गंभीर भाव से कहने लगे कि आत्मा अमर है, अविनाशी है, इसे कोई हनन नही कर सकता। यह घटना और ऐसी ही अनेकों घटनाएं ज्ञान के सागर श्रीकृष्ण को नेत्रों के आगे मूर्तिमान बना देती हैं। ….अपनी प्यारी भगिनी और पूज्य चाचा की मृत्यु से वैराग्यवान होकर वन में कौपीन मात्रावशेष दिगम्बरी दिशा में फिरना, घोरतम तपस्या करना तथा अंत में मृत्युंजय महौषध को ब्रह्मसमाधि में लाभ कर लेना महर्षि के जीवन का अंश बुद्घदेव के समान दिखाई देता है।

 दीन दुखियों अपाहिजों और अनाथों को देखकर महर्षि दयानंद जी क्राइस्ट बन जाते हैं। धुरंधर वादियों के सम्मुख श्रीशंकराचार्य का रूप दिखाई देते हैं। एक ईश्वर का प्रचार करते और विस्तृत भ्रातृभाव की शिक्षा देते हुए भगवान दयानंद जी श्रीमान मुहम्मद जी प्रतीत होने लगते हैं। ईश्वर का यशोगान करते हुए स्तुति-प्रार्थना में जब प्रभु इतने निमग्न हो जाते हैं कि उनकी आंखों से परमात्म प्रेम की अविरल धारा निकल आती है, गदगद कण्ठ और पुलकित गात हो जाते हैं, तो सन्तवर रामदास, कबीर, नानक दादू चेतन और तुकाराम का समां बंध जाता है। वे संत शिरोमणि जान पड़ते हैं। आर्यत्व की रक्षा के समय वे प्रात: स्मरणीय प्रताप और शिवाजी तथा गुरूगोविन्द सिंह का रूप धारण कर लेते हैं। महाराज के जीवन को जिस पक्ष से देखें वह सर्वांग सुंदर प्रतीत होता है। त्याग और वैराग्य की उसमें न्यूनता नही है। श्रद्घा और भक्ति उसमें अपार पायी जाती है। उसमें ज्ञान अगाध है। तर्क अथाह है। वह समायोचित मति का मंदिर है। प्रेम और उपकार का पुंज है। कृपा और सहानुभूति उसमें कूट कूटकर भरी है। वह ओज है, तेज है, परमप्रताप है, लोकहित है, और सकल कला संपूर्ण है। 

 माननीय प्रधानमंत्री जैसे संस्कृति और धर्म भक्त प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा नही थी कि वे जब इतिहास के नररत्नों के मंदिर में पुष्पांजलि अर्पित कर वहां से प्रसाद ग्रहण कर रहे हों, तो उस समय आप्तपुरूष महर्षि दयानंद जैसे महान व्यक्तित्व से आशीर्वाद लेना ही भूल जाएं। आशा है आगे से नमो भारत की समग्र क्रांति के अग्रदूत महर्षि दयानंद का पावन स्मरण कर देश की आर्य जनता (हिंदू राष्ट्रीयता के संदर्भ में ग्रहण करेंगे तो प्रत्येक भारतीय को) उपकृत करेंगे।

Friday, August 22, 2014

खान्ग्रेस की जिस मुस्लिमपरस्त हिन्दू विरोधी राजनीति के परिणामस्वरूप अखण्ड भारतवर्ष के टुकड़े हुए -अशोक "प्रवृद्ध"

खान्ग्रेस की जिस मुस्लिमपरस्त हिन्दू विरोधी राजनीति के परिणामस्वरूप अखण्ड भारतवर्ष के टुकड़े हुए
अशोक "प्रवृद्ध"

१५ अगस्त १९४७ को मुस्लिम जेहादी उन्माद के परिणामस्वरूप खान्ग्रेस अर्थात कांग्रेस द्वारा अखण्ड भारतवर्ष का विभाजन करवाकर मुसलमानों के लिए पृथक देश बनवा देने के पश्चात बहुसंख्यक सनातनी भारतीयों को एक उम्मीद जगी थी कि खान्ग्रेस की जिस मुस्लिमपरस्त हिन्दू विरोधी राजनीति के परिणामस्वरूप अखण्ड भारतवर्ष के टुकड़े हुए उस राजनीति से खान्ग्रेस हमेशा - हमेशा के लिए तौवा कर लेगी । मुहम्मदअली जिन्ना जैसे नेता कांग्रेस कभी दोवारा पैदा नहीं करेगी ।कभी दोवारा न कांग्रेस का अध्यक्ष कोई विदेशी अंग्रेज बनेगा न देश फिर किसी अंग्रेज का गुलाम होगा ।लेकिन उस वक्त सब देशभक्त बहुसंख्यक भारतीयों की उम्मीदों पर पानी फिर गया जब कांग्रेस के कुछ हिन्दुविरोधी नेताओं ने ईसाई देशों में प्राप्त आंग्ल शिक्षा के परिणामस्वरूप बनी गुलामी सोच को आगे बढ़ाते हुए देश को हिन्दुराष्ट्र घोषित करने का विरोध करते हुए जिनके कारण देश का विभाजन हुआ था उन्हें ही शेष राष्ट्र में पुनः रहने की स्वीकृति देते हुए शेष भारतवर्ष के सेकुलर घोषित कर उनके ऊपर धन व सुख सुविधाएँ की सरकारी मेहरबानियों की बरसात का बौछार कर दिया l

भारतवर्ष विभाजन के पश्चात भारतवर्ष की गद्दी पर येन- केन प्रकारेण कब्जा जमाने वाले काले अंग्रेजों ने भारतीय सभ्यता - संस्कृति की पावन प्रतीक परमपूजनीय भगवाध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाने का विरोध कर दिया । मर्यादा पुर्षोतम श्री राम को भारतवर्ष का आदर्श घोषित करने की जगह एक ने स्वयं को बापू तो दूसरे ने स्वयं को चाचा घोषित करते हुए देश के अन्दर एक ऐसी भारत , भारतीय और भारतीयता अर्थात हिन्दुविरोधी विभाजनकारी राजनीति को जन्म दिया जिसके परिणाम स्वरूप आज सिर्फ ६७ - ६८ वर्ष बाद भारतवर्ष फिर से उसी स्थान पर पहुंच गया है जहां विभाजन के पूर्व सन १९४६ में था ।आज एक बार फिर अपनी चरित्रहीनता भारत , भारतीय व भारतीयता विरोधी मानसिकता को प्रदर्शित करते हुए खान्ग्रेसियों ने एक कुलक्षणा , कुलनाशिनी , चरित्रहीन फिरंगन को अपनी अम्मा बनाकर बहुसंख्यक भारतीयों के उम्मीदों पर पानी फेर दिया है l गत लोकसभा चुनाव २९१४ में खान्ग्रेसियों की भारत , भारतीय व भारतीयता विरोधी मानसिकता के कारण मिली बेशर्म पराजय के पश्चात भी अपने आपको देश की सर्वप्राचीन कहने वाली पार्टी खान्ग्रेस और उसकी अम्मा कोई समझ नहीं आई है l

बुद्धिवाद अर्थात तर्कपूर्ण ज्ञान के प्रत्तिपादक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती



बुद्धिवाद अर्थात तर्कपूर्ण ज्ञान के प्रत्तिपादक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती 

सदियों से प्रताडित , पीड़ित , शोषित परतंत्र भारतवर्ष में अपनी बात उपदेश-पद्धति के द्वारा ही नहीं, बल्‍कि वाद-विवाद और तर्क-वितर्क के द्वारा कहने की अद्भुत - विलक्षण शक्‍ति के स्वामी महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती बुद्धिवाद अर्थात तर्कपूर्ण ज्ञान के प्रत्तिपादक थे , उन्‍होंने लोगों को केवल आस्‍थावान नहीं बनाया, बल्‍कि बात सप्रमाण कहकर ज्ञानवान बनाया। उनकी करियों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि लोग प्रश्‍न पूछते थे, और वे उनका सप्रमाण उत्तर देते थे। चूंकि उनके उत्तर तर्क पर आधारित होते थे, इसलिए लोगों पर उनका प्रभाव पड़ता था।

बुद्धिवाद के अनन्य समर्थक तर्क सम्राट स्वामी दयानंद सरस्वती तर्क को ज्ञान का मुख्‍य आधार मानते थे। दिनांक २४ जुलाई, १८७७  को बंबई में आर्य समाज के जो दस  मूल सिद्धांत बनाए गए थे, उनमें चौथा और पाँचवा सिद्धांत तर्क की प्रधानता वाले हैं। चौथे सिद्धांत के अंतर्गत कहा गया है-

‘‘हमें हमेशा सत्‍य को स्‍वीकार करने, तथा असत्‍य को अस्‍वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।’’

अगले नियम में कहा गया है-

‘‘हमारे प्रत्‍येक कार्य सही एवं गलत का निर्णय करने के बाद धर्मा के अनुकूल होने चाहिए।’’

यहां तक कि उन्‍होंने ईश्‍वर पर भी विश्‍वास करने की बात नहीं कही, बल्‍कि ज्ञान के आधार पर उसे जानने की बात कही। आर्य समाज के पहले नियम में उन्‍होंने स्‍पष्‍ट रूप से कहा-

‘‘ईश्‍वर उन सभी सच्‍चे ज्ञान और सभी वस्‍तुओं का आदि स्‍त्रोत है, जिन्‍हें ज्ञान द्वारा जाना जा सकता है।’’

दयानंद सरस्‍वती जी ने उस समय समाज की कुरीतियों, अंधविश्‍वासों और जड़ताओं के विरोध का जो बीड़ा उठाया, उसका भी मूल आधार तर्क ही था। स्‍वाभाविक है कि इसलिए उन्‍होंने शिक्षा पर बहुत अधिक जोर दिया। वे शिक्षा को व्‍यक्‍ति और राष्‍ट्र की उन्‍नति का आधार मानते थे। ‘सत्‍यार्थ प्रकाश’ के तृतीय समुल्‍लास में हमें शिक्षा के बारे में उनके विचार जानने को मिलते हैं। उन्‍होंने तृतीय समुल्‍लास के आरंभ में ही लिखा है-

‘‘संतानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्‍वभावरूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्‍बन्‍धियों का मुख्‍य कर्म है।’’

उन्‍होंने यहां तक लिखा है-

‘‘राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवे-आठवें वर्ष की आगे अपने लड़कों ओर लड़कियों को घर में न रखें। पाठशाला में अवश्‍य भेज देवें। जो न भेजे, वह दंडनीय हो।’’

दयानंद सरस्‍वती ने जिस ‘आर्य समाज’ की स्‍थापना की थी, उसका हमारे देश में शिक्षा के विकास में अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है। मुझे इससे भी अधिक महत्‍वपूर्ण बात यह लगती है कि दयानंन्‍द सरस्‍वती ने लड़कियों के लिए शिक्षा की बात कहकर अपने समय के समाज में एक हलचल पैदा की थी। अभी मैंने जो उदाहरण दिया, उसमें उन्‍होंने लड़कियों के लिए भी शिक्षा की बात कही है। केवल इतना ही नहीं, बल्‍कि उन्‍होंने नारी-विकास के लिए अन्‍य अनेक महत्‍वपूर्ण बातें कहीं। इनका उल्‍लेख ‘सत्‍यार्थ प्रकाश’ में मिलता है। उन्‍होंने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा-

लड़कियों को भी लड़कों के समान पढ़ाना चाहिए।
प्रत्‍येक कन्‍या का अपने भाई के समान यज्ञोपवित संस्‍कार होना चाहिए।
लड़कियों का विवाह न तो बाल्‍यावस्‍था में हो, न हो उसकी इच्छा के विपरीत हो।
पुत्री भी अपने भाई के समान दायभाग में अधिकारिणी हो।
विधवा को भी विधुर के समान विवाह का अधिकार है।
उन्‍होंने स्‍पष्‍ट रूप से कहा-

‘‘विवाह लड़के और लड़की की पसंद के बिना नहीं होना चाहिए, क्‍योंकि एक-दूसरे की पसंद से विवाह होने से विरोध बहुत कम होता है, और संतान उत्तम होती है।’’

निश्‍चित रूप में आर्य समाज ने इस दिशा में महत्‍वपूर्ण काम किया। दयानन्‍द जी के इन प्रगतिशील विचारों का प्रभाव समाज पर पड़ने से धीरे-धीरे नारी के प्रति समाज का दृष्‍टिकोण बदला। यह बात अत्‍यंत महत्‍व की है कि दयानंद सरस्‍वती के निधन से पचास वर्ष से भी पहले बाल-विवाह को रोकने के लिए ‘शारदा विवाह कानून’ पारित हुआ। इसी प्रकार अंतर्जातीय विवाहों को वैध घोषित करने के लिए ‘आर्य विवाह कानून’ भी पारित किया गया।

यदि वेदों का आश्रय लिया जाए, और तर्क के आधार पर सोचा जाए, तो मानव-मानव में कोई भेद मालूम नहीं पड़ता। वेदों में कहा गया है- ‘‘एकैव मानुषि जाति’’। स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती ने भी संपूर्ण मानव-जाति को एक मानते हुए, उनके आचारण को प्रधानता दी है। ‘सत्‍यार्थ प्रकाश’ में उन्‍होंने स्‍पष्‍ट रूप से लिखा-

‘‘जो दुष्‍टकर्मकारी-द्विज को श्रेष्‍ठ और श्रेष्‍ठकर्मकारी-शूद्र को नीच माने, तो इससे परे पक्षपात, अन्‍याय, अधर्म दूसरा अधिक क्‍या होगा।’’

स्‍पष्‍ट है कि उनके लिए आचारण महत्‍वपूर्ण था, जन्‍म नहीं। वे धर्म को भी सीधे-सीधे आचारण से जोड़ते थे। उन्‍होंने धर्म से जुड़े सभी आडंबरों, पाखंडों और अंधविश्‍वासों का अपने तर्क के बल पर खण्‍डन किया, और धर्म को सीधे-सीधे जीवन-व्‍यवहार का अंग बनाया। उन्‍होंने ‘स्‍वमन्‍तव्‍यामन्‍तव्‍यप्रकाश’ के अनुच्‍छेद 3 में लिखा है-

‘‘जो पक्षपातरहित न्‍यायाचरण, सत्‍यभाषणादियुक्‍त ईश्‍वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म…… मानता हूँ।’’

इसी प्रकार ‘‘ऋग्‍वेदादिभाष्‍य’’ के पृष्‍ठ के 395 पर धर्म के लक्षण की चर्चा करते हुए वे लिखते है-

‘‘सत्‍यभाषणात् सत्‍याचरणाच्‍च परं धर्म लक्षणां किचिंन्‍नास्‍त्‍येव’’

अर्थात्, सत्‍यभाषण और सत्‍याचरण के अतिरिक्‍त धर्म का कोई दूसरा लक्षण नहीं है।

महर्षि दयानंद सरस्‍वती का धर्म न तो किसी जाति, क्षेत्र और लोगों तक सीमित था, और न ही उसका संबंध किसी प्रकार की संकीर्णता और अव्‍यवहारिकता से था। उनके लिए धर्म व्‍यक्‍ति के आचरण का निर्माण करने वाला तत्‍व था। इसके साथ ही वह समाज का विधान करने वाली व्‍यवस्‍था थी। मैं समझता हूं कि दयानंद सरस्‍वती के विचारों को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। विशेषकर एक ऐसे समय में, जबकि निहित स्‍वार्थ धर्म की अपनी-अपनी दृष्‍टि से व्‍याख्‍या कर रहे हों, यह जरूरी हो जाता है कि दयानंद सरस्‍वती जैसे महापुरुषों के विचार लोगों के सामने रखे जाएं, ताकि लोग धर्म के सच्‍चे स्‍वरूप को समझ सकें, और उसके अनुकूल आचरण कर सकें।

यदि दयानंद सरस्‍वती जी की स्‍वराज्‍य का प्रवक्‍ता कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। श्रीमती एनी बेसेंट ने ‘इडिया ए नेशन’ से बिल्‍कुल सही लिखा है-

‘‘स्‍वामी दयानंद जी ने सर्वप्रथम घोषणा की कि भारत भारतीयों के लिए है।’’



Thursday, August 7, 2014

संसार का सबसे बड़ा समय गणना तंत्र भारतीय संस्कृति की देन

संसार का सबसे बड़ा समय गणना तंत्र भारतीय संस्कृति की देन 
संसार का सबसे बड़ा समय गणना तंत्र भारतीय संस्कृति कीई देन


संसार का सबसे बड़ा समय गणना तंत्र हमारी भारतीय संस्कृति की ही देन है . पुरातन भारतीय गणना तंत्र में अति न्यून से लेकर दीर्घावधि तक की गणना करने की अद्भुत गणना प्रणाली हमारे विद्वत पूर्वजों के द्वारा विकसित कर ली गई थी , जो आज भी अचूक है . 
देखिये - 

1 क्रति = सेकंड का ३४००० वा भाग
1त्रुति = सेकंड का ३०० वॉ भाग
2 त्रुति = 1 लव
2 लव = 1 क्षण
30 क्षण = विपल
60 विपल = 1 पल या निमिष
60 पल = 1 घडी (२४ मिनट )
2.5 घडी = 1 हीरा (घंटा )
24 हीरा = 1 दिवस ( दिन या वार )
7 दिवस = 1 सप्ताह
4 सप्ताह = 1 माह
2 माह = 1ऋतु
6 ऋतु = 1 वर्ष
100वर्ष = 1 शताब्दी
10 शताब्दी = 1 सह्शताब्दी
432 सह्शताब्दी = 1 युग
1 युग = कल युग
2 युग = द्वापुर युग
3 युग = त्रेता युग
2 युग = सतयुग
सतयुग + त्रेता युग + द्वापुर युग + कल युग = 1 महायुग
76 महायुग = 1 मनवन्तर
1000 महायुग = 1 कल्प
एक नियत प्रलय = १ महायुग ( धरती पर जीवन अन्त और फिर प्रारम्भ )
1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प (देवो का अंत और पुनर्जन्म )
1 महाप्रलय = ७३० कल्प ( ब्रह्मा का अन्त और पुनर्जन्म )

अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”

  अधिसूचना जारी होने के साथ देश में आदर्श चुनाव संहिता लागू -अशोक “प्रवृद्ध”   जैसा कि पूर्व से ही अंदेशा था कि पूर्व चुनाव आयुक्त अनू...