आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार विषैले भोजन की पहचान जरूरी
अशोक "प्रवृद्ध"
वर्तमान काल में खाद्य और पेय वस्तुओं में मिलावट की बात आम हो गयी है। स्थिति यहाँ तक आ पहुँचीं है कि ज्यादा आय करने के इच्छुकं अनेक लालची और धूर्त लोग खाने के सामान में अभक्ष्य तथा अपच सामान मिलाकर बेचते हैं। कुछ ऐसे भी अत्यधिक दुष्ट प्रवृति के लोग हैं जो यह जानते हुए कि उनकी सामग्री विषाक्त है वह उसे खाने पीने के लिये ग्राहक या प्रयोक्ताओं को बेच देते हैं। देश में खाद्य - पेय पदार्थों की रख - रखाव व बिक्री की स्थिति यह है कि हम हर जगह इस विश्वास के साथ भोजन नहीं कर सकते कि वह स्वच्छ है। सामान्य लोगों को भोजन के दूषित होने की जानकारी सहजता से नहीं रहती , जबकि हमारे पुरातन भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की पुस्तकों में इस विषय में अनेक प्रमाण दिये गये हैं।
कौटिल्य के अर्थशासत्र में बताया गया है कि
भोज्यमन्नम् परीक्षार्थ प्रदद्यात्पूर्दमग्नये।
वयोभ्यश्व तत दद्मातत्र लिङ्गानि लक्षयेत्।।
अर्थात , भोजन योग्य अन्न की परीक्षा करने के लिये पहले अग्नि को दें और फिर पक्षियों को देकर उनकी चेष्टा का अध्ययन किया जा सकता है।
धूमार्चिर्नीलता वह्नेः शब्दफोटश्व जायते।
अन्नेन विषदिग्धेन वयसां मरणभवेत्।।
अर्थात - यदि अग्नि से नीला धुआं निकले और फूटने के समान शब्द हो, अथवा पक्षी खाने के बाद मर जाये तो मानना चाहिये कि वह अन्न विषैला है।
अस्विन्नता मादकत्यमाशु शल्यं विवर्णता।
अन्नस्य विषदिगधस्य तथाष्मा स्निगधमेचकः।।
अर्थास्त - विष मिला हुआ भोजन आवश्यकता से अधिक गर्म तथा चिकना होता है।
व्यञ्जनस्याशु शुष्कत्वं क्वथने श्यामफेनता।
गंधस्पर्शरसाश्वव नश्यन्ति विषदूषाणात्।।
अर्थात -बने हुए व्यंजन का जल्दी सुखता है। पकाते समय काला फेल उठना विष दूषित अन्न के ही लक्षण है।
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