Saturday, January 11, 2014

मनुस्मृति के अनुसार भ्रष्ट राज्यकर्मियों की संपत्ति जब्त की जानी चाहिये - अशोक "प्रवृद्ध"

मनुस्मृति के अनुसार भ्रष्ट राज्यकर्मियों की संपत्ति जब्त की जानी चाहिये
अशोक "प्रवृद्ध"

                       यह एक सर्वविदित तथ्य है कि हमारे देश में राजकीय क्षेत्र में भ्रष्टाचार अत्यंत गहरे स्तर तक व्याप्त हो चूका है । पुरातन भारतीय  ग्रंथों के अनुसार जिन लोगों के पास राज्यकर्म करने का अधिकार अर्थात जिम्मा होता है उनमें भी सामान्य मनुष्यों की तरह अधिक धन कमाने की प्रवृत्ति होती है और राजकीय अधिकार प्राप्त होने से वे उसका गलत इस्तेमाल करने लगते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक है परन्तु राज्य प्रमुख को इसके प्रति सजग रहना चाहिये।  राज्य के राजा अर्थात राज्य प्रमुख (आज के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री गण) का यह कर्तव्य है कि वह अपने कर्मचारियों की गुप्त जांच कराता रहे और उनको दंड देने के साथ ही अन्य कर्मचारियों को अपना काम ईमानदारी से काम करने के लिये प्रेरित करे। भारतीय पुरातन ग्रंथों में भ्रष्ट राज्यकर्मियों और भ्रष्ट राज्यकर्मियों के दंड , यहाँ तक कि भ्रष्ट राज्यकर्मियों
की संपत्ति जब्त करने और दण्डित किये जाने के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण अंकित मिलते हैं । संसार के प्रथम स्मृति अर्थात संहिता ( कानून ) ग्रन्थ मनुस्मृति में स्मृतिकार मनु महाराज कहते हैं -

राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदिमाः प्रजाः।।
                      - मनुस्मृति 7.124
 
अर्थात -प्रजा के लिये राज्य कर्मचारी अधिकतर अपने वेतन के अलावा भी कमाई क्रने के इच्छुक रहते हैं अर्थात उनमें दूसरे का माल हड़पने की प्रवृत्ति होती है। ऐसे राज्य कर्मचारियों से प्रजा की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख को तत्पर रहना चाहिये।

ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्यीयु: पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वामदाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्।।
- मनुस्मृति 7.125
                        अर्थात -प्रजा से किसी कार्य के लिये अनाधिकार धन लेने वाले राज्य कर्मचारियों को घर से निकाल देना चाहिये।  उनकी सारी संपत्ति छीनकर उन्हें देश से निकाल देना चाहिये।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठम् समुल्लास में मनुस्मृति के श्लोक के आधार पर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर प्रधानमंत्री और न्यायाधीश तक को दण्डित किये जाने के सम्बन्ध में लिखा है -

कार्षापणं भवेदण्डयो यत्रान्य: प्राकृतो जन:|
तत्र राजा भवेदण्डय: सहस्त्रमिति धारणा|| मनुस्मृति८.३३६ ||

साधारण जनता से राजा को सहस्त्र गुणा दण्ड होना चाहिये, (जिस अपराध में साधारण प्रजा को एक जूता मारा जाये उसी अपराध मे‍ राजा को एक हजार जूते मारने का दण्ड देना चाहिये|

प्रश्न : जो राजा वा रानी अथवा न्यायाधीश वा उसके परिवार का को‍ई भी सदस्य व्यभिचारादि कुकर्म करे
तो उसको कौन दण्ड देवे ?

उत्तर : सभा, अर्थात उसको तो प्रजापुरुषों से भी अधिक दण्ड होना चाहिये|

जो राजा दण्ड देने योग्य को छोड़ देता और जिसको दण्ड देना न चाहिये, उसको दण्ड देता है
वह जीता हुआ बड़ी निन्दा को और मरे पीछे बड़े दु:ख को प्राप्त होता है इसलिये अपराधी को
दण्ड मिले, अनपराधी को दण्ड कभी न देवे|

अदब्डयान्दण्डयन् राजा दण्डयांश्चैवाप्यदण्डयन् |
अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति || मनुस्मृति ||८|१२८ ||

निष्कर्ष यह है कि आज लोकतन्त्र की हत्या करके सरकार ने निरपराध साधु - संतों और अन्यान्य निरपराध लोगों को बिना किसी अपराध के बरबर्तापूर्ण कुक्रत्वय किया है यह क्षमा करने के योग्य नहीं है इसका उन्हें दण्ड भुगतने के किये तैयार रहना होगा परमेश्वर न्यायकारी है|

                      पुरातन भारतीय ग्रन्थ अर्थात भारतीय अध्यात्मिक दर्शन राजस कर्म की मर्यादा और शक्ति बखान करता है।  मनुष्य स्वयं सात्विक भले हो पर अगर उसके जिम्मे राजस कर्म है तो वह उसे भी दृढ़ता पूर्व निभाये यही बात भारतीय पुरातन अध्यात्मिक दर्शन कहता है।  हमारे पुरातन भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को शायद इसलिये ही शैक्षणिक पाठ्यक्रम से दूर रखा गया है क्योंकि उसके अपराधियों के साथ ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी कड़े दंड का प्रावधान किया गया।

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