Thursday, May 28, 2015

जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति

अभिव्यक्ति का अपना मंच प्रवक्ता.कोम में दिनांक - १४ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख-जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति -अशोक "प्रवृद्ध"

जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति

जंगल में लगने वाली आग से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु को क्षति-अशोक "प्रवृद्ध"

Posted On May 14, 2015 by &filed under विविधा.









 -अशोक “प्रवृद्ध”-

इस वर्ष वर्षा रानी वसन्त ऋतु में ही मेहरबान हो गई, और देश के प्रायः सभी इलाकों में वर्षा रानी की मेहरबानी के कारण बैशाख की तपिश और जंगलों में आग लगने की घटना में कमी दिखलाई दे रही है, परन्तु यह अनुभव सत्य है कि गर्मी का मौसम प्रारम्भ होते ही देश के जंगलों मे आग धधकने प्रारम्भ हो जाते हैं। यह कोई एक वर्ष की बात नहीं,वरन ऐसा प्रतिवर्ष ही गर्मी के दिनों में होता है और वसन्त के आगमन के साथ ही झारखण्ड, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा,महाराष्ट्र सहित देश के विभिन्न भागों के जंगलों में आग लगने की घटनाये बढ़ जाती हैं,  जिसकी जानकारी समाचार पत्रों के माध्यम से हमें मिलती, और चिन्तित करती रहती हैं। यह सर्वविदित है कि जंगल में आग लगने से पेड़-पौधों सहित जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों को अपूरणीय क्षति होती है, जंगलों में दिन-रात सुलगती आग की दर्द भरी तपिश को बेजुबान पशु-पक्षियों को भटकते हुए और जंगली पादपों को अपनी वंशनाश करते हुए झेलनी पडती है, फिर भी देश के जंगलों में महुआ चुनने और अन्य उद्देश्यों को लेकर दशकों से जंगल में लगाई जाती रही है। उत्तराखण्ड,आसाम आदि देश के राज्यों में नए कृषि क्षेत्र के निर्माण, नयी घास उगाने, पेड़ काट कर उसके  निशान मिटाने के उदेश्य से लोग जंगलों में आग लगाते हैं तो झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ आदि में  महुआ चुनने के चक्कर में जंगल में आग लगाई जाती है। जंगलों में यह आग प्रतिवर्ष वसन्त काल में महुआ चुनने और विभिन्न अन्य उद्देश्यों के लिए लगाई जाती है जिससे जंगलों में नए-नए पनप रहे नवीन पादप आग से जल अथवा झुलस कर मर जाते हैं।इन पादपों में जंगली बृक्षों के साथ ही विभिन्न प्रकार की औषधीय पौधे और जड़ी-बूटियाँ भी शामिल होती हैं। जंगलों में लगने वाली आग की विभीषिका का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस आग की तपिश में वन्य प्राणियों के साथ ही विभिन्न पेड़-पौधे व जड़ी-बूटियाँ झुलस कर मर जाने के परिणामस्वरूप जीव-जन्तुओं और जंगल के पेड़,  मूल्यवान पौधे तथा औषधीय व जड़ी-बूटी आदि पादपों की कई विभिन्न प्रजातियों पर अस्तित्व का संकट उत्पन्न होता जा रहा है lऔर अब स्थिति ऐसी बन आई है कि जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियाँ ढूंढे से भी नहीं मिल रही हैं और बाहर के बाजारों से इनकी आपूर्ति पर स्थानीय लोग करने लगे हैं 
1988 में घोषित वननीति के तहत देश में वनों का प्रतिशत कुल क्षेत्रफल के मुकाबले 33 प्रतिशत होना  अनिवार्य घोषित किया गया है, इसके बावजूद वनों के निरन्तर सिकुड़ने कहीं-कहीं समाप्त होने के कगार पर पहुँचने की मुख्य कारण बनी, जंगल की आग का प्रकोप प्रतिवर्ष देश के जंगलों में जारी है। देश में 6,75,538 वर्गकिलोमीटर में जंगल होने के दावे किये जाते रहे हैं। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20.55 प्रतिशत ही है। देश के वन्य क्षेत्र को और फैलाने और पैंतालीस हजार से अधिक प्रकार की वनस्पतियों को बचाए रखने की चुनौती सरकार के सामने है, लेकिन सरकार और सरकारी पदाधिकारियों विशेषतः वन पदाधिकारियों के रुख और कार्य-प्रणाली से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी भी मंशा ठीक नहीं है। ऐसी परिस्थिति में यह बात और भी दुःखद हो जाती है कि झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा,पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के आपस में सटे क्षेत्रों के जंगलों में आग लगती नहीं बल्कि लगाई जाती है ।वह भी आसानी से महुआ का फल चुनने के लिए। लेकिन सिर्फ महुआ चुनने के उद्देश्य से लगायी गई इस आग से महत्वपूर्ण जंगली पादप प्रतिवर्ष आग की भेंट चढ़ जाने से इन पादपों के प्रजातियों के नष्ट हो जाने की संकट आन खड़ी हो रही है, परन्तु वन विभाग इस समस्या का समुचित समाधान कर पाने में अब तक असफल रहा है। स्थिति यह है कि जब जंगलों में आग लगती है तो सूचना देने के घंटों बाद वन्य कर्मी आग बुझाने के उपकरण के साथ पहुँचते हैं, और पहुँचने के बाद घंटों नहीं कई बार तो सप्ताहों तक वन्यकर्मियों के द्वारा आग बुझाने की प्रयास किये जने के बावजूद आग नहीं बुझती और दावानल बन भारी तबाही मचाती है। प्रत्येक स्थान से एकसमान शिकायत मिलती है कि वन्य कर्मी सक्रिय व  सजग नहीं रहते, वहीँ दूसरी ओर स्थानीय जनता का भी अपेक्षित सहयोग आग बुझाने में नहीं मिलती। ऐसी परिस्थिति में सरकारी लालफीताशाही और आम जनता की उपेक्षा का शिकार पूरा जंगल दावानल में परिवर्तित हो जाता है।

एक ओर वन विभाग द्वारा वन बचाओ का नारा दिया जा रहा है, और इस कार्य पर करोड़ों रूपये खर्च किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ग्रामीणों द्वारा जंगलों में आग लगा दिए जाने से अमूल्य धरोहरों को क्षति हो रही है। प्रतिवर्ष जंगलों में आग लगाये का सिलसिला वसन्त ऋतु के आगमन के साथ ही शुरु हो जाने से पेड़-पौधों,वन्य जीवों पर खतरा उत्पन्न हो गया है, वहीं वन एवं स्थानीय पर्यावरण को भी काफी क्षति हो रही है है। उल्लेखनीय है कि देश के कई अन्य राज्यों की भान्ति ही झारखण्ड में जंगलों को आग व विविध प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा, सरंक्षण और प्रवर्द्धन के लिए गाँवों में ग्राम वन सुरक्षा प्रबन्धन समिति का गठन किया गया है, ये वन समितियाँ वन्य ग्राम के वन्यवासियों को जंगलों की संरक्षण- परिवर्द्धन और सुरक्षा के लिए प्रेरित और उसके लाभ के प्रति जागरूक करती हैं। इसमें जंगलों को आग से बचाने के उपाय और उससे होने वाली लाभ से वन्यवासियों को अवगत कराना भी शामिल है,परन्तु इनके कोशिशों के बावजूद प्रत्येक वर्ष महुआ के फल लगने के दौरान महुआ चुनने वालों द्वारा जंगल में आग लगा दिया जाता है। पतझड़ के मौसम में सूखी पत्तों में चिंगारी लगने से पूरे जंगल में आग की लपटें फैल जाती है। वन विभाग द्वारा भी आग बुझाने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता है। जानकार लोग कहते हैं,वन सुरक्षा समिति सर्फ दिखावे के लिए है, इसका उद्देश्य वनों की रक्षा करना नहीं बल्कि इनके सहयोग, मिलीभगत और हस्ताक्षर से सरकारी निधि की सुरक्षित हेराफेरी की जाती है। यही कारण है कि वन सुरक्षा समिति के सदस्य भी जंगलों में आग लगने की स्थिति की ओर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते, बल्कि कई तो स्वयं महुआ चुनने और अपने स्वार्थी इरादों की पूर्ति इसकी आड़ में करने में लग जाते हैं। नतीजतन जंगल में आग की लपटें तेज होती जाती हैं । कई क्षेत्र के वन्यवासियों और ग्रामीणों का मानना है कि जंगल में गिरे पत्ते में आग लगाने से रुगड़ा का उत्पादन अधिक होता है और इसी अंधविश्वास के कारण कुछ लोग जंगल में आग लगा देते हैं, जिससे भारी नुकसान होता है।


जंगली क्षेत्रों में जंगल में लगी आग का दिन में तो पता नहीं चलता लेकिन रात होते ही जंगलों में ऊंची लपटे उठते देखी जा सकती हैं। पतझड़ में पेडों से पत्ते सूख कर गिर जाने से लोगों को शिकार करने व महुआ चुनने में काफी परेशानी होती है। इन परेशानियों से बचने के लिए लोग सूखे पत्तों को एकत्र कर आग लगा देते है। लेकिन यही आग देखते ही देखते भयंकर रूप धारण कर पूरे जंगल को अपनी चपेट में ले लेती है। प्रतिवर्ष जंगलों में आग लगने से वन्य-सम्पदा के जलकर राख हो जाने से करोड़ों का नुकसान तो पहुँचता ही है लेकिन सबसे ज्यादा कष्ट जंगलों के निवासी, बेजुबान वन्यप्राणियों को पहुँचता है। जंगलों में आग लगने से वन्य-प्राणी कराहने को मजबूर हो जाते हैं और खामोश होकर संकटों का सामना करने लगते है। वे उम्मीद की एकमात्र किरण समझ इस आशा में स्थानीय लोगो के पास भागे चले आते है कि वे हमें आग से बचायेंगे लेकिन इनकी आवाज को सुनने ,पहचानने के स्थान पर उल्टा खतरा समझकर इन्हें मार दिया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में उम्मीद की किरण स्थानीय जनता से जागने की आशा की जानी चाहिए थी, लेकिन चिन्तनीय बात है कि जंगलों पर निर्भर स्थानीय समाज भी खामोशी से सारी घटनाओं को एक तमाशे की तरह देख रहा है और कहीं-कहीं तो वह स्वयं ही इन आग को लगाने वालों में भी शामिल हुआ पाता देखा जा रहा है। कटु सच्चाई यह है कि सरकार के वन विभाग के पास न तो आग लगने से पहले और न ही आग लगने के बाद के लिए कोई रणनीति या उचित प्रबन्ध है। जिसके कारण वन विभाग अपनी पूरी सक्रियता के बावजूद हर बार आग नियंत्रण कार्य असफल हो जाता है।



लिंक- http://www.pravakta.com/woods-takes-the-fire-damage-to-the-organism-including-plants-jantu



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