प्रकृति के नियमों के विरूद्ध आचरण करना हानिकारक
इस मशीन युग में हम अनेक कार्य ऐसे करते हैं, जो हमारी प्रकृति के प्रतिकूल होते हैं । मशीनों के अथवा अन्य साधनों के बल पर हम उन अस्वाभाविक कार्यों से होने वाली हानियों को सहन करने में समर्थ तो हो जाते हैं फिर भी हानि तो होती ही है ।
अतः बुद्धिशील मनुष्यों का यह मत है कि अस्वाभाविक कार्य तभी क्षम्य हो सकते हैं जब उनका करना अनिवार्य हो जाये । यदि मनुष्य शारीरिक दृष्टि से मजदूरी करने के यिग्य हो और उसको अध्यापन कार्य पर नियुक्त कर दिया जाये तो यह सम्भव है की वह व्यक्ति यह कार्य तो कर सके , परन्तु इससे न तो शिक्षा का स्तर अच्छा रह सकेगा और न ही उसके स्थान पर नियुक्त कोई दुर्बलकाय व्यक्ति मजदूरी का कार्य भली - भांति कर सकगा । समाज में व्यवस्था रखने वाला अधिकारी कदापि यह नहीं पसंद करेगा कि एक विशेष प्रकार की योग्य्ताबका व्यक्ति किसी दूसरी योग्यता वाले स्थान पर नियुक्त कर दिया जाये ।
मजदूर पुरूष को अध्यापन कार्य पर तो लगाया जा सकता है , परन्तु उसके कार्य में वह प्रवीणता नहीं आ सकती , जो योग्य विद्वान अर्थात पण्डित द्वारा अध्यापन कार्य करने पर आ सकती है । पुरूष - पुरूष की कार्य - कुशलता में यह अन्तर उस योग्यता के कारण होती है जो शिक्षा से उत्पन्न होती है , परंतु यदि उसका कारण शारीरिक बनावट होगी तो कार्य - कुशलता का अन्तर अनुल्लंघनीय हो जायेगा ।
पुरूष और स्त्री की शारीरिक बनावट में अन्तर है । उनकी मनोवृति में भेद है । उनके कार्य में भिन्नता है और कार्य करने की सामर्थ्य में अन्तर है । यदि ऐसा है तो निःसंदेह उनसे एकसमान कार्य लेना भूल है ।
स्त्री, समाज में नये आने वाले सदस्यों की जननी है। स्त्री उनको समाज की उपयोगी अंग बनाने की प्रथम शिक्षिका है। वह समाज में सुख शान्ति का सृजनकर्त्री है । यदि उसे कारखाने में मशीनों के संचालन आदि जैसे कार्य में लगा दिया जायेगा तो यह ऐसा ही होगा मानो जौहरी को लोहा पीटने अथवा ढालने के कार्य पर लगाया गया हो । कदाचित इससे भी बुरा हो सकता है । जौहरी का तथा लोहा पीटने का कार्य समाज के लिए उतना आवश्यक नहीं , जितना नवजात शिशुओं का पालन - पोषण करना तथा उनको शिक्षित कर , उन्हें समाज का उपकारी अंग बनाना ।
जहाँ तक व्यक्तिगत उपयोगिता का प्रश्न है , समाज ने कृत्रिम रूप से जीवन - स्तर ऊँचा कर दिया है। जीवन में , अनेक व्यर्थ
के खर्च सम्मिलित कर , इसको दुर्भर कर दिया है और इस कृत्रिम जीवन - स्तर को रखने के लिए पत्नी को अपना स्वाभाविक कार्य छोड़कर , पति के साथ मिलकर जीवन की चक्की चलानी पड़ रही है । भारतीय पुरातन शास्त्रों के अनुसार यह महान भूल है । प्रकृति ने प्रत्येक कार्य के सम्पादन के लिए विशिष्ट प्राणी का सृजन किया है। किन्तु आज के युग में मनुष्य प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण कर रहा है जो कि बहुत ही हानिकारक है। भारतीय पुरातन ग्रंथों में स्त्रियों के द्वारा धनार्जन-कार्य को महान् भूल के रूप में सिद्ध किया है।
स्त्रियों की आर्थिक रक्षा का प्रबंध तो पति के परिवार अथवा समाज को करना चाहिए , परन्तु इस रक्षा के बहाने उन्हें उन कार्यों के लिए बाध्य करना , जिनके लिए प्रकृति ने उनको बनाया नहीं , महान भूल होगी ।
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