Tuesday, December 31, 2013

समाज में मानव पथ-प्रदर्शन तो सामयिक ही होता है, स्थायी पथ-प्रदर्शन धर्म-साहित्य होता है। अशोक "प्रवृद्ध"

समाज में मानव पथ-प्रदर्शन तो सामयिक ही होता है, स्थायी पथ-प्रदर्शन धर्म-साहित्य होता है।
अशोक "प्रवृद्ध"

 वर्तमान समय में मानव-समाज में भावना का आवेश होने लगा है। किन्तु भावना प्रायः बुद्धि से अविचारित होती है।
इस भावना के कारण ही मत-मतान्तर के आधार पर जन-जन में भेदभाव उत्पन्न होने लगा है। भारत में यह विभेद महात्मा बुद्ध के काल से आरम्भ हुआ है।

यद्यपि महात्मा बुद्ध का यह आशय नहीं था। उन्होंने तो कर्म और व्यवहार में शुद्धता और सरलता ही लाने का यत्न किया था। परन्तु उस व्यवहार में सरलता का कोई दिग्दर्शन न रह पाने से शुद्धता और सरलता केवल नाम की ही रह गई और ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि’ का घोष प्रमुख हो गया है। उससे श्रद्धा में अपार वृद्धि हुई है किन्तु आचरण पतन की ओर प्रवृत्त हो गया है।

समाज में मानव पथ-प्रदर्शन तो सामयिक ही होता है, स्थायी पथ-प्रदर्शन धर्म-साहित्य होता है। जब तक महात्मा बुद्ध का जीवन रहा, तब तक किसी सीमा तक उनका जीवन उनके शिष्यों और भक्तों का पथ-प्रदर्शन करता रहा किन्तु उनकी मृत्यु के उपरान्त ऐसी कोई वस्तु नहीं रही जो उनका पथ-प्रदर्शन कर पाती। प्राचीन धर्मग्रन्थों पर से बुद्ध के जीवन काल में ही आस्था को समाप्त कर दिया गया था। स्वयं बुद्ध ने कुछ नवीन रचना की नहीं।

इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बौद्ध समाज दिशाविहीन हो गया और उसके फलस्वरूप समस्त समाज ही दिशाविहीन हो गया। इसका यह भी दुष्परिणाम हुआ कि शताधिक मत-मतान्तरों की सृष्टि हो गई। बुद्ध से पूर्व प्रजा में एक आधार पर ही बंटवारा पाया जाता था। वह आधार था कर्म का। कर्म के आधार पर बंटवारा होता था। संसार में दो ही प्रकार के कर्म हैं। एक कर्म होता है दैवी और दूसरा होता है आसुरी। इसके आधार पर प्रजाजन या तो दैवी स्वभाव के होते थे या फिर आसुरी स्वभाव के। परन्तु जब से भावनाओं का आवेश हुआ है तब से दलबन्दियां होने लगी हैं जो कि आधार रहित हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग बुद्धियुक्त व्यवहार को छोड़कर दल-बन्दियों के पीछे चल पड़े हैं।

इसकी जड़ें बड़ी गहन पैठ गई हैं। अब इस समय समझाने से इसका कुछ भी प्रभाव नहीं होगा। बुद्धिरहित विचार करने से तो भावना अटल ही बनी रहती है और फिर सब अपनी-अपनी भावना के अनुसार व्यवहार करते हैं। किसी दूसरे की कोई सुनने को तैयार ही नहीं होता।

 जो लोग बुद्धि से विचार कर अपना कार्य करते हैं उनको तो समझाया जा सकता है; किन्तु जो भावना के पीछे दौड़ा करते हैं, उनको समझाने का कोई साधन नहीं है।

‘‘अपनी अन्तरात्मा के अनुसार कार्य करने में किसी प्रकार की हानि नहीं है। अन्तरात्मा की प्रेरणा पर चलना ही चाहिये। इसमें सफलता अथवा असफलता का विचार छोड़कर निष्काम भाव से कर्म करना श्रेयस्कर होता है। यदि सफलता नहीं मिली अथवा असफल सिद्ध हुए तो उस अवस्था में निराश भी नहीं होना चाहिये।’’

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