मूर्ति - पूजा का बौद्धिक पक्ष
जहाँ तक मूर्ति पूजा का प्रश्न है , मूर्ति पूजा पर
श्रद्धा करना एक प्रकार से हीन प्रथा है , परन्तु मूर्ति पूजा का बौद्धिक रूप भी
है , जिसे हम स्वीकार करते हैं . जब कभी भी हम नरसिंह अवतार को हिरण्यकशिपु का पेट
फाड़ते हुए का चित्र देखते हैं तो हमको मेजिनी और गैरीबाल्डी का शौर्यपूर्ण कृत्य
स्मरण होने लगता है .इन दोनों ने जनता के बल के आधार पर इटली सर ऑस्ट्रिया वालों
को खदेडकर बाहर कर दिया था .इसके स्मरण आते ही नरसिंह को इसी रूप में स्मरण कर
उसके सम्मुख हाथ जोड़ कर प्रणाम करने को मन करता है .यह है मूर्ति पूजा का बौद्धिक
रूप . जब श्रीराम और लक्ष्मण को धनुष - वाण कन्धे पर लिए सीता के साथ वन में विचरण
करते हुए का चित्र देखते हैं तो रावण तथा उसके जैसे अन्य राक्षसों के अत्याचार से
पीड़ित वनवासियों को स्मरण कर श्रीराम और लक्ष्मण के सम्मुख नतमस्तक हो जाते हैं .
यह है मूर्ति पूजा का बौद्धिक रूप .
ईसाईयों ने हिंदुओं के इन रिवाजों को निन्दनीय
कहना आरम्भ किया . अङ्ग्रेजी शिक्षा ने इसको मिथ्या श्रद्धा कह कर हिन्दू युवकों को
इनके विपरीत करने का यत्न किया , क्योंकि हिन्दू समाज इसका बौद्धिक रूप न समझ सका
और न समझा ही सका .सरकारी शिक्षा प्राप्त करने वाले हिन्दू युवक हिन्दुओं की इन प्रथाओं को मूर्खता कहने लगे तो
हिन्दू समाज अपने ही घटकों को इनकी बौद्धिकता का बखान नहीं कर सका. उसका परिणाम यह
हुआ कि अङ्ग्रेजी शिक्षा ग्रहण किया भारतीय युवक हिन्दू रीति – रिवाजों को मूर्खता
मानने लगा और इस प्रकार हिन्दुओं की जनसँख्या का अनुपात कम होने लगा .
अङ्ग्रेजी काल में मुसलामानों की संख्या बढ़ने का
यही मुख्य कारण रहा है . इसका अभिप्राय यह है कि अङ्ग्रेजी राज्य काल में हिन्दुओं
का अनुपात में से मुसलामानों की संख्या में वृद्धि का मुख्य कारण तत्कालीन शिक्षा
थी . उस शिक्षा के साथ हिन्दू समाज अपने रीति- रिवाज में बौद्धिक आचार का विश्लेषण
करने में असमेथ था . वह श्रद्धा का राग ही अलापता रहा .
एक उदाहरण से इसे अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा
सकता है . इस्कोन और अन्यान्य कई कृष्ण मंदिरों तथा गोरखपुर में गीता भवन की दीवार
के साथ भगवान श्री कृष्ण की जन्म – लीला के बहुत ही सुन्दर चित्र सजाये गए हैं
.भवन के एक छोर से दूसरे छोर तक सारे के सारे चित्र कृष्ण के जन्म से आरम्भ कर कंस
की ह्त्या तक के ही वे सारे चित्र हैं . उन सब चित्रों को देखने से विस्मय होता है
कि आज पाँच सहस्त्र वर्ष तक भी श्रीकृष्ण क्या इस बाल – लीला के आधार पर ही स्मरण
किये जाते हैं ? ये लीलाएं सत्य हो सकती हैं , कृष्ण की विश्व की ख्याति की वे मुख्य
कारण नहीं हो सकतीं . श्रीकृष्णका वास्तविक सक्रिय जीवन तो उस समय से आरम्भ हुआ
मानना चाहिए जब उन्होंने युद्धिष्ठिर को राजसूय यज्ञ के लिए प्रेरित किया था
. कृष्ण के जीवन का सुकीर्तिकर कर्म तो वह
था जब उसने वचन भंग करने वाले परिवार के सभी सदस्यों को सुदर्शन चक्र से मृत्यु के
घाट उतार दिया था . श्रीकृष्ण ने तब यह सिद्ध कर दिया था कि वह जो कहता है उस पर आचरण
भी करता है . श्रीकृष्ण ने कहा था -
न जायते भ्रियते
भ्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः
शाश्वतोअयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
- श्रीमदभगवद
गीता अध्याय२ -१२०
अर्थात् - यह आत्मा
न तो कभी उत्पन्न होता है और न मरता है . ऐसा भी नहीं कि जब एक बार अस्तित्व में
आ गया तो दोबारा फिर आएगा ही नहीं . यह अजन्मा है , नित्य है , शाश्वत्त है ,
पुरातन है . शरीर का वध हो जाने पर भी यह मारता नहीं है . *
जब बन्धु - बान्धवों ने भी वही किया जो दुर्योधनादि
ने था तो उसने जो अपने बन्धु - बान्धवों के साथ करने को अर्जुन को कहा था वही
स्वयं भी किया . वह था कृष्ण का बौद्धिक व्यवहार . देश की वर्तमान राजनैतिक
परिप्रेक्ष्य में से उपजी आज की कठिनाई में भी जाति को इसी प्रकार की बौद्धिक
व्यवहार की प्रेरणा दी जानी चाहिए . इस व्यवहार से इस्लाम जैसी निकृष्ट जीवन -
मीमांसा से सुगमता से पार पाया जा सकता है . हमें अपनी उन सब मान्यताओं को , जिनका
आधार बुद्धि वाद है , लेकर हिन्दू जाति के द्वार को खोल देना चाहिए और सबको अपने
समाज में समा जाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए . इस प्रकार सहज ही समाज कि सुरक्षा
का प्रबंध हो सकता है . हमे किसी को अपनी मान्यता छोड़ने कि बात नहीं कहनी . उनके
पीर – पैगम्बरों की यदि कोई बात बुद्धि गम्य हो तो उसको भी छोड़ने के लिए हम नहीं कहते
, परन्तु मूढ़ श्रद्धा के सम्मुख हम बही वाद का बलिदान नहीं कर सकते . बुद्धि की
दृढ चट्टान पर स्थित होकर हम अपने मार्ग पर चलने लगे तो सुख – शान्ति और समृद्धता
निश्चित है , इसमें कोई संशय नहीं .
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